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अपभ्रंश-साहित्य
भाषा को ही अपभ्रंश का नाम दिया गया।'
आजकल प्रत्येक प्राकृत के एक अपभ्रंश रूप की कल्पना की गई है किन्तु व्याकरण के प्राचीन ग्रंथों में इस प्रकार का विभाग नहीं दिखाई देता। हाँ, रुद्रट ने अपने काव्यालंकार में देश भेद से अपभ्रंश के अनेक भेदों की ओर निर्देश किया है । शारदा तनय (१३ वीं शताब्दी) ने अपभ्रंश के नागरक, ग्राम्य और उपनागरक भेदों का उल्लेख किया है। पुरुषोत्तम देव (१२ वीं शताब्दी) ने अपने प्राकृतानुशासन में अपभ्रंश के नागरक, व्राचट और उपनागरक इन तीनों भेदों का उल्लेख किया है और इन तीनों में से नागरक को मुख्य माना है । मार्कंडेय (१७ वीं शताब्दी ई० के लगभग) ने अपने प्राकृत सर्वस्व में भी नागर, वाचड और उपनागर तीन भेद बताये हैं।
अतएव इन वैयाकरणों के आधार पर नहीं कहा जा सकता कि इन्होंने अपभ्रंश भाषा का कोई देशगत विभाजन किया है। प्रतीत तो ऐसा होता है कि इन्होंने अपभ्रंश का विभाजन उसके संस्कार या प्रसार को दृष्टि में रख कर किया है।
भाषा-शास्त्रियों ने मध्यकालीन भारतीय आर्य-भाषा काल की मध्यकालीन अवस्था की साहित्यिक प्राकृतों का समय ५०० ई० तक और उत्तरकालीन अवस्था की अपभ्रंशों का समय ५०० ई० से १००० ई० तक माना है। किन्तु प्राकृत का साहित्य ५०० ई० के बाद भी लिखा गया मिलता है। गौडवहो का समय ७वीं-८वीं सदी माना जाता है। कौतूहल कृत लीलावती-कथा भी निस्संदेह उत्तरकाल की रचना है। प्राकृत व्याकरण के अध्ययन के फलस्वरूप दक्षिण भारत में १८वीं शताब्दी तक प्राकृत काव्यों की रचना होती रही।
__ अपभ्रंश का उदयकाल ईसा की प्रथम सहस्री का लगभग मध्य माना गया है। भामह ने अपभ्रश को भी काव्योपयोगी भाषा माना है। किन्तु इस समय का लिखा कोई अपभ्रंश ग्रंथ उपलब्ध नहीं । कालिदास के विक्रमोर्वशीय के अपभ्रंश पद्य भी १. डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी-हिन्दी साहित्य की भूमिका, १६४८ ई०,
पृ० २४-२५॥ २. षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः । २. १२ ३. एता नागरक ग्राम्योपनागरकभेदतः। त्रिधा भवेयुरेतासां व्यवहारो विशेषतः॥ भावप्रकाशन, गायकवाड़, ओरियंटल सिरीज, संख्या ४५, प्रोरियंटल इंस्टि
ट्यूल, बड़ौदा सन् १९३०, पृ० ३१०। ४. डा० रामसिंह तोमर ने डा० आ. ने. उपाध्ये द्वारा संपादित राम
पारिणवाद की उसारिणरुद्ध और कंसवहो नामक दो रचनाओं का निर्देश किया है। रामपारिणवाद १८ वीं शताब्दी का कवि था। ५. शब्दार्थों सहितौ काव्यं गद्य पद्य च तद् द्विधा । संस्कृतं प्राकृतं चान्यद् अपभ्रंश इति त्रिधा ॥
काव्या० १. १६