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आनन्दघन का रहस्यवाद
फिर भी, इतना तो स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि जायसी के हृदय की मूल आत्मा भावना है, साधना नहीं। इसलिए उनका रहस्यवाद मूलतः भावनात्मक ही कहा जाएगा। सन्त कवियों में रहस्यवाद
सिद्धों द्वारा प्रवर्तित साधनात्मक रहस्यवाद को नाथपंथी-योगियों ने अपनाया, किन्तु देश की धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक-परिस्थितियों के कारण सिद्धों और नाथपन्थियों का सम्प्रदाय 'निर्गुणपन्थ' के रूप में परिवर्तित हुआ । सामान्यतः निर्गुणपंथ के जन्मदाता कबीर माने जाते हैं। कबीर ने इस पन्थ में सिद्धों और नाथों की हठयोगी :.... ...के समूचे तत्त्वों को अपनाया। कबीर ने मिद्धों-नाथों की साधना का अनुसरण ही नहीं किया, प्रत्युत अपने पन्थ में वेदान्त का अद्वैतवाद, नाथपंथियों का हठयोग, सूफियों का प्रेममार्ग, वैष्णवों की अहिंसा और शरणागति इत्यादि का सुन्दर समन्वय किया। कबीर के पश्चात् इस परम्परा में दादू, नानक, धर्मदास, पलटू, रैदास, सुन्दरदास आदि अनेक सन्त-कवि हुए हैं। इन सभी सन्तों में न्यूनाधिक रूप में रहन्यवादी विचारधारा पायी
जाती है।
यद्यपि कबीर निर्गुणधारा के प्रवर्तक हैं, तथापि साधारणजन को आकर्षित करने हेतु उन्होंने भक्तितत्त्व को भी महत्त्वपूर्ण माना है और अपने इष्टदेव को 'राम' की संज्ञा से अभिहित किया है। कबीर के 'राम' दशरथ के पुत्र न होकर 'जो या देहि रहित है, सो है रमिता राम'१ थे। दूसरी ओर, कबीर ने नाथपन्थ के हठयोग को भी महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। इनकी रचनाओं में चक्र, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना, सुरति, निरति, कुण्डलिनी, सहज, शून्य, अनहतनाद, ब्रह्मरन्ध्र, गगनमण्डल आदि हठयोगी साधना के शब्द स्पष्टतः परिलक्षित होते हैं। कबीर ने इनका प्रयोग अधिकांशतः उलटबांसी शैली में किया है। शून्य चक्र का वर्णन करते हुए वे कहते हैं कि उसमें से अमृत झरता है और सुषुम्ना उसका
रस पीती है :
अवधु गगन मंडल धर कीजै ।
अमृत झरै सदा सुख उपजै, बंकनालि रस पीवै । १. कबीर ग्रन्थावली, पृ० २४३ । २. वही, पृ० ११० ।