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रहस्यवाद : एक परिचय
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विरह की आगि सूर जरि कांपा, रातिउ दिवस करै ओहि तापा।' इसी तरह जायसी ने विरह-व्यथा का सुन्दर चित्रण अन्यत्र भी किया है।' इस प्रकार, जायसी के रहस्यवाद का मुख्य रूप उनके द्वारा प्रतिपादित प्रेम की ईश्वरोन्मुखता है। प्रेम का सर्वोत्कृष्ट विकास वियोग में होता है। निम्नोक्त पद में विरह की जो तल्लीनता दिखाई गई है वह दर्शनीय
हाड़ भए सब किंगरी, नसैं भई सब तांति ।
रोवं रोवं तें धुनि उठे, कहौं विथा केहि भांति ॥३ जायसी के अनुसार ऐसे तीव्र विरह को उद्भूत करने वाला प्रेम-पथ अत्यन्त कठिन है। प्रेम-मार्ग की विविध आस्थाओं का वर्णन पद्मावत में सुन्दर ढंग से हुआ है। सृष्टि का कण-कण, उसी अव्यक्त ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम से व्याप्त है। वास्तव में, जायसी का यह रहस्यवाद विशुद्ध भावनात्मक रहस्यवाद की कोटि में आता है। किन्तु जायसी पर नाथपन्थी योगियों की अन्तमुखी साधना का भी कुछ प्रभाव पड़ा था, इसलिए उनमें उस प्रकार का साधनात्मक रहस्यवाद भी पाया जाता है। उनके साधनात्मक रहस्यवाद का उदाहरण इस पद में देखा जा सकता है :
नवौ खंड नव पौरी, औ तहं बज्र-केवार ।
चारि बसेरे सौं चढ़े सत सौं उतरे पार ॥ नव पौरो पर दसवं दुवारा, तेहि पर बाज राज थरिआरा ॥ इसी तरह जायसी ने हठयोग को अन्तः साधना का पूरा चित्रण भी किया है।
१. जायसी ग्रन्थावली, पृ० ४२ । २. वही, पृ० ३०। ३. वही, पृ० १३८ । ४. पेम पहार कठिन बिधि गढ़ा, सो पै चढ़ जो सिर सौं चढ़ा। पंथ सूरि कै उठा अंकुरू । चोर चढ़ की चढ़ मंसूरू ॥
-वही, पृ० ४५ । ५. वही पृ० १४ । ६. वही, पृ० ४८।