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णमोऽत्थु णं समणस्स भगवतो महावीरस्स
प्राक्कथन
पाठक-वृन्द!
यह संसार चक्र-रूप है, अनादि काल से इसी तरह चला आ रहा है । जन्म और मरण इसके दो मुख्य अंग हैं । जो भी प्राणी यहां जन्म लेता है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है । जन्म-मरण के बन्धन में प्रत्येक प्राणी को अपने कर्मों के अनुसार आना पड़ा है, पड़ता है और पड़ेगा । इस प्रकार इस चक्र में आकर प्राणी अनेक प्रकार के दुःख और सुखों का अनुभव करता है । किन्तु यह स्मरण रखने की बात है कि इस प्रकार के आवागमन का अन्तिम परिणाम दुःखमय ही होता है | मुक्ति की प्राप्ति ही इससे छूटने का एकमात्र उपाय है | उसकी प्राप्ति का मुख्य द्वार कर्म-निर्जरा ही है । जब तक प्राणी कर्मों की निर्जरा नहीं कर पाता तब तक उसका मुक्ति-प्राप्ति करना हाथ से चन्द्रमा को पकड़ने के सदृश ही है । अतः इस जन्म-मरण के बन्धन से छूटने के लिए प्रत्येक प्राणी को कर्म-निर्जरा की ओर ही झुकना चाहिए ।
कर्म-निर्जरा बिना सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र के नहीं हो सकती । इनकी सर्वथा उपार्जना मनुष्य-शरीर के बिना नहीं हो सकती । संसार में मनुष्य-जन्म प्राप्त करना यदि असम्भव नहीं तो दुस्साध्य अवश्य है । यदि मनुष्य जन्म को प्राप्त करके भी इसे पशुओं के समान आहार, निद्रा, भय और मैथुन में ही व्यतीत कर दिया तो समझना चाहिए कि हाथ में आये हुए अमूल्य हीरे को जान बूझ कर पानी में बहा दिया गया है । पूर्व जन्म के अबोधि आदि कर्मों के कारण यदि कोई विशेष ज्ञान नहीं प्राप्त कर सकता तो उसको सद्-बुद्धि से कम से कम इस अनुपम मनुष्य-शरीर
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