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स्वाध्यायकाल में ही किया हुआ स्वाध्याय कर्मक्षय और शान्ति की प्राप्ति कराता है ।
अतः
"उद्देसो पासगस्स नत्थि "
इस वाक्य का स्मरण कर इस विषय को यहीं पर समाप्त किया जाता है । अर्थात् बुद्धिमान् को उपदेश की आवश्यकता नहीं । वह स्वयं ही अपने कृत्यों को समझता है, । इसलिए मुमुक्षु जनों को उचित है कि वे शास्त्रीय स्वाध्याय से अपने जीवन को पवित्र बनाकर मोक्ष के अधिकारी बनें । क्योंकि शास्त्र का वाक्य है: -
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"दोहिं ठाणेहिं संपन्ने अणगारे अणादीयं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं वीतिवतेज्जा, तं जहा विज्जाए चेव चरणेण चेव ।" स्थानांगसूत्र, स्थान २ उद्देशक १ सूत्र ६३
दो कारणों से संयुक्त भिक्षु अनादि, अनन्त दीर्घ मार्ग वाले चतुर्गति रूप संसाररूपी कान्तार से पार हो जाते हैं, जैसे कि विद्या और आचरण से । इसलिए हमें चाहिए कि देश और धर्म का अभ्युदय करते हुए अनेक भव्य प्राणियों को मोक्ष का अधिकारी बनावें, जिससे जनता में सुख और शांति का संचार हो । इत्यलं विद्वद्वर्येषु ।
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