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घड़ी पूर्व तथा एक घड़ी पश्चात्, मध्यान्ह के समय तथा अर्धरात्रि के समय भी पूर्ववत् स्वाध्याय नहीं करना चाहिए । किन्तु दिन के प्रथम प्रहर और पश्चिम प्रहर तथा रात्रि के प्रथम प्रहर और पिछले प्रहर में अस्वाध्याय काल को छोड़कर अवश्य स्वाध्याय करना चाहिए । इस प्रकार ३२ प्रकार के अस्वाध्याय काल को छोड़कर स्वाध्याय करना चाहिए । तथा निशीथ सूत्र के १२ वें उद्देश में यह पाठ है___ "जे भिक्खू चउसु महापडिवएसु सज्झायं करेइ करतं वा साइज्जइ, तं जहा सुगिम्हिए पाडिवए, आसाढी पाडिवए, भद्दवए पाडिवए, कत्तिए पाडिवए ।"
इनका अर्थ भी पूर्ववत् है, किन्तु इस पाठ में भाद्रपद भी ग्रहण किया गया है । सो भाद्रशुक्ला पौर्णमासी और आश्विन कृष्णा प्रतिपदा, इसी प्रकार दो दिनों की वृद्धि करने से ३४ अस्वाध्याय काल हो जाते हैं । अतः इनको छोड़कर ही स्वाध्याय करना चाहिए । व्यवहार सूत्र के सातवें उद्देश में स्वाध्याय और अस्वाध्याय काल के विषय में वर्णन करते हुए उत्सर्ग और अपवादमार्ग दोनों का ही अवलम्बन किया गया है । जैसे
"नो कप्पति निग्गंथीण वा निग्गंथाण वा वितिकिट्टाए काले सज्झायं उद्दिसित्तए वा करित्तए ||१४|| कप्पति निग्गंथीणं वितिकिट्टाए काले सज्झायं उद्दिसित्तए वा करित्तए वा निग्गंथणिस्साए ||१५|| नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा असज्झाइए सज्झायं करित्तए ||१६ ।। कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा सज्झाइए सज्झायं करित्तए ।।१७।। नो कप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अप्पणो असज्झाइयं करित्तए कप्पति णं अण्णमन्नस्स वायणं दलित्तए ।।१८।।"
इन सूत्रों का भावार्थ केवल इतना ही है कि-साधु या साध्वियों को अकाल में स्वाध्याय न करना चाहिए । किन्तु काल में ही स्वाध्याय करना चाहिए । यदि परस्पर वाचना चलती हो, तो वाचना की क्रिया कर सकते हैं; अर्थात् वाचना अकाल में भी दे ले सकते हैं । और यदि अपने शरीर से रुधिर आदि बहता हो, तब भी स्वाध्याय नहीं कर सकते, परन्तु उस स्थान को ठीक बांधकर यदि खून आदि बाहर न बहते हों, तो परस्पर
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