Book Title: Agam 16 Upang 05 Surya Pragnapti Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 868
________________ सूर्यज्ञप्तिप्रकाशिका टीका सु० ९६ अष्टादश प्राभृतम् ८५७ षष्टी - द्वाषष्ट्यधिके - २६२ एतच्च निषधकूटादिकमपेक्ष्य वेदितव्यं यथात्र स्वभावतो निषधपर्वतोऽत्युच्चैश्चत्वारि योजनशतानि तस्योपरि च पञ्च योजनशतोच्चानि कूटानि तानि च मूले पञ्च योजनशतानि आयामविष्कम्भाभ्यां मध्ये त्रीणि योजनशतानि तस्योपरि च पश्च सप्तत्यधिकानि अर्द्धतृतीये द्वे योजनशते, एतेषां चोपरितनभागसमश्रेणिप्रदेशे तथा जगत् स्वभाव्यात अष्टौ योजनानि उभयतोऽबाधया कृत्वा ताराविमानानि परिभ्रमन्ति, ततो जघन्येन व्याघातिममन्तरं द्वे योजनशते द्वाषष्ट्यधिके २६२ भवतः । उत्कर्षतश्च द्वादश योजtसहस्राणि द्वे योजनशते द्वाचत्वारिंशदधिके (१२२४२) इति भवति । एतच्च मेरूमपेक्ष्य वेदितव्यं तथाहि - मेरौ दशयोजन सहस्राणि मेरोश्रोभयतोऽवाधया एकादश योजनशतानि एकविंशत्यधिकानि (१९२१) । ततः सर्वसंख्या मिलनेन मूलोतानि योजनानि सिद्धयन्ति यथा - द्वादशयोजनसहस्राणि द्वे च योजनशते द्वाचत्वारिंशदधिके (१२२४२) इति । अथ निर्व्याघातिममन्तरं कथयति - ' तत्थ जे से णिच्वाघातिमे से जहणेणं पंच धनुःसयाई उक्कोसेणं अद्धजोयणं तारारूवस्स तारास्वस्त य अवाधाए अंतरे पण्णत्ते' ऊंचाई वाला कूट - शिखर है वे कूट मूल भाग में पांचसो योजन का आयामविष्कंभ वाला कहा है । मध्य भाग में तीनसो योजन का तथा उसके ऊपर में तीनसो सतावन योजन उसके ऊपर के समश्रेणी वाले प्रदेश में तथाप्रकार के जगत् स्वभाव से दोनों तरफ आठ योजन का अबाधा से अंतर करके तारा विमान भ्रमण करता है । जघन्य से व्याघातिम अंतर दो सो बासठ (२६२) योजन का होता है, यह कथन मेरु की अपेक्षा से कहा गया जानना चाहिये, जैसे की मेरु की ऊंचाई दस हजार योजन, मेरु के दोनों तरफ अवाधा से ग्यारहसो इक्कीस योजन (११२१) इस प्रकार सर्व संख्या को जोडने से मूलोक्त योजन प्रमाण सिद्ध होता है । जैसे की - बारह हजार दो सो बयालीस योजन (१२२४२) अब निघातिम अंतर का कथन करते हैं - (तत्थ जे से णिव्वाघातिमे સૈાજનના આયામ વિષ્પભવાળા કહ્યા છે. મધ્યભાગમાં ત્રણસો ચેાજનના તથા તેની ઉપરના ભાગમાં ત્રણસો સત્તાવન ચેાજન યથા તેની ઉપરના સમશ્રેણીવાળા પ્રદેશમાં તે રીતના જગત્સ્વભાવથી અન્ને તરફ આઠ યાજન અબાધાથી અંતર કરીને તારા વિમાન ભ્રમણ કરે છે. જઘન્યથી વ્યાધાતિમ અંતર ખસેાબાસઠ (૨૬૨) ગેજનનુ થાય છે. તથા ઉત્કૃષ્ટથી ખારડુજાર ખસે।બેતાલીસ યાજન (૧૨૨૪૨) થાય છે. આ કથન મેરૂની અપેક્ષાથી કહેલ છે. તેમ સમજવું. જેમકે-મેરૂની ઉંચાઇ દસહાર યેાજનની છે મેરૂની બન્ને બાજુ અબાધાથી અગ્યારસા એકવીસ યાજન થાય છે. (૧૧૨૧) આ રીતે બધી સંખ્યાને મેળવવાથી મૂલમાં કહેલ યાજન પ્રમાણુ સિદ્ધ થાય છે. જે આ રીતે ખાર હજાર બસે મેંતાલીસ योन (१२२४२) थाय छे. हवे निर्व्याधातिभ अंतर उथन रे - (तत्थ जे से णिव्वाघातिमे से जहणेण શ્રી સુર્યપ્રજ્ઞપ્તિ સૂત્ર : ૨

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