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________________ श्रीयतीन्द्रविहार-दिग्दर्शन. संयोजकव्याख्यानवाचस्पत्यूपाध्यायमुनिराज श्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज.
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________________ - - - - - श्रीमद्राजेन्द्रसूरि-जैनप्रन्थमाला-पुष्प 21 // श्रीयतीन्द्रविहार-दिवसका (प्रथम-भाग) % 35 संयोजकव्याख्यानवाचस्पत्युपाध्यायमुनिराज-श्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज / प्रकाशकफतापुरा ( मारवाड ) निवासीश्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय-श्वेताम्बर-जैनसंघ / श्री वीर नि. सं. 2455 ) प्रथमावृत्ति ( विक्रम सं. 1986 श्रीराजेन्द्रसूरि सं 23 / 500 / सन् 1929 इस्वी मूल्य-सदुपयोग। भावनगर-आनंद प्रीन्टींग प्रेसमें शाह गुलाबचंद लल्लुभाइने छापा.
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________________ v==000000000000000000000000000 समर्पण ! -0000000 D00000000000=000000 -0c00000-00-0000000 जैनपरिपन्थी-शिथिलाचारियों के बढ़ते हुए विषम वातावरण के समय में जिन्होंने समस्त उपा। धियों का त्याग कर के प्रभु श्रीमहावीर के कथित सिद्धान्तों का प्रचार किया, जिन्होंने श्रुतकेवली, पूर्वधर और बहुश्रुताचार्यों से समाचरित आगमानुसारिणी विशुद्ध क्रिया का मान करा के, मर्यादा पूर्वक अप्रतिबद्ध विहार और उपदेशों से जैनाभासों के चंगुल में फसी हुई अनेक भव्यात्माओं का उद्धार किया और जिन्होंने अपनी तत्त्वपूर्ण-सुन्दर ! कृतियों से जैन और जैनेतर जगत् में प्रसिद्धि पाई। उन सर्वतंत्र-स्वतंत्र, परमयोगिराज, जगत्पूज्य, प्रातःस्मरणीय भावालब्रह्मचारी, शासनसम्राट, स्वर्गस्थ गुरुदेव श्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की पवित्र सेवा में मुझ पामर की यह लघु कृति सविनय, सादर और सप्रेम समर्पित है। गुरुपदकजसेवाहेवाक-मुनियतीन्द्रविजय / v=100000000000==oXVEDO 00000000000000000000 0000 -.00ook %3-0000000
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________________ पूज्यपाद-व्याख्यानवाचस्पति श्रीयतीन्द्रविजयजी महाराज. . . - मधुराऽतिप्रियाचैव, भारती यस्य शोभते / स श्रीयतीन्द्रविजयो, जयतान्मुनिसत्तमः // जन्म 1940. दीक्षा 1954. o.commorenomenomenor.morememorememorore Techmi A Bomba
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________________ अकारादिविषय-निदर्शन / नंबर विषय पृष्ट नंबर विषय 19. 35 अखवाडा 124 अगवरी 76 अडिया 1.1 अनादरा 49 अमरेली / 171 ऊनडी 58 __ 94 ऊमरी 147 28 एबदपर 118 162 एलाणा 93 ओ 89 | 71 श्रोडु 77 165 ओरवाडा 129 187 190 90 50 आकडिया 116 आकोली 170 श्राणा 74 श्रादरिया' 100 आबू-तीर्थ 26 श्रामली 153 पालावा 119 श्राहोर 12 अंगाडी 98 अंबावजी 110 112 54 165 163 149 242 : * ईढाटा 20 ईसरवाडा उ-ऊ 14 उमरेठ 112 ऊड 133 ऊन्दरी 82 कल्याणा 145 कवलां 131 कानपुरा 1 कुकशी वावनगजा , तालनपुर 51 कुकावाव 80 कुणधेर 8 कुन्दनपुर 97 कुंभारिया 93 48 127 152
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________________ 66 कोंढ 87 कोदराम 130 कोरटा-तीर्थ 141 कोशिलाव | 167 चोराउ 188 213 148 164 खरल 99 खराडी 140 खिमाडा 135 खिमेल 62 खोराणा 213 251 ग घ 250 127 76 164 78 50 160 | 179 छोटाराणीवाडा 128 छोटालखमावा 186 ज-स 111 183 जडिया ___78 जमणपुर 156 180 जाखडी * जाणदी 160 जालोरगढ 113 जावाल 67 जीवा 148 जुत्राणा 55 जूनागढ 146 193 जेतडा ___ 57 जेतपुर 58 84 | 151 जोगापुरा 72 झींझुवाडा 84 ट-ठ 3 टांडा 11 टिम्बारोड 92 टेबू 41 ठासेज ड-ढ 49 डभाड 101 13 डाकोर 55 . ढीमा * गणेशपुरा 47 गारियाधार 69 गाला 36 गिरनारजी 193 गुडा-वालोतरा 36 गोपाबंदर 59 गोंडल 10 गोधरा 58 गोमटा 111 गोयली 163 गोल 44 घेटी 227 83 165 4 127 186 75 60 142 32 चमारडी 120 चरली 88 चाणशूल 46 चारोडीया 101 50 .
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________________ 93 191 146 तखतगढ 37 तणसा 39 तलाजा तीर्थ 90 तारंगातलेंटी 91 तारंगा तीर्थ 30 त्रापज 191 61 227 195 थराद 156 थांवरा (ला) 227 161 122 दयालपुरा 96 दांता-भवानगढ 173 दासपा 9 दाहोद * दूधवा 40 देवलां 70 देहगाम प-फ 45 परवडी 81 पाटण 172 पांयेडी 174 पादरा 10. __6 पारी 1.1 पालरी 41 पालीताणा 194 पावर (ड) 168 127 पावटा 143 पावा 145 __ 25 पीपली | 150 फतापुरा 191 48 114 बलदूट 251 31 बला 60 . 2 बाग 117 बागरा 142 बाबागाम 217 ,, दणो 155 बूडतरा 88 29 बेलावदर 23 बोरु 24 बोलाद | 139 ब्राह्मी ( वरामी) 107 भ 226 | 182 भाटी | 168 भांडवातीर्थ 148 | 34 भावनगर 130 161 161 184 घानेरा 73 धामा 68 ध्रांगध्रा 27 धोलेराबंदर 55 159 175 नरता 95 नागरमोरिया 112 नांदिया 189 नेहडा 127 नोवी 55
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________________ 218 1. 6 42 162 / 199 भारंदा 93 मालूसण 15 भालेज 13. भूति 156 भीनमाल 188 भीलडियाजी 157 मेंसवाडा * भोरोलतीर्थ 185 रामसेण ___4 रीगनोद ., भोपावर तीर्थ 6. रीबडा 146 रोडला 177 रोपी 152 रोबाडा 163 222 212 165 100 . 185 192 लुाणा 86 लूणवा 64 लूणसरी 159 लेटा 143 169 92 161 मांडवला 121 मादडी 76 मुजपर 169 मेंगलवा 83 मेत्राणा तीर्थ 104 मेडा 18 मेलाय 48 मोटा लीलिया 129 मोटा लखमावा 98 120 148 222 222 22 वटामण 54 वडाल 136 वरकाणा तीर्थ 33 वरतेज 186 वरण 187 वरनोडा 17 वरताल 21 वरसडा 19. वात्यम 109 वामनवाडजी * वामी 63 वांकानेर 1 वावस्वस्थान | 191 वाहणा 159 108 वीरवाडा 158, 16 वोरियावी 181 रतनपुर 30 रतनपर 61 राजकोट . 5 राजगढ , मोहनखेडा तीर्थ 53 राणपर 7 राणापुर 138 राणी 13. राणी-स्टेशन 226 125 250 86 225 *
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________________ 75 शंखेश्वर तीर्थ 43 शत्रुजय तीर्थ 132 शिवगंज. 149 169 س . و 187 158 सकराणा 105 संदरुट 107 सनवाडा 85 सभोडा 65 सरा 115 सवणा 166 सायला ,, आलासरण 134 सांडेराव 84 सिद्धपुर 118 सियाणा 106 सिरोही 103 सीरोडी 178 सीलाण 125 सेदरिया 19 सोजीत्रा जिनप्रतिमा, शिला और प्रश स्तिलेखवाले स्थान| 116 श्राकोली 129 119 श्राहोर 131 1 कुकसी 135 खिमेल 156 123 180 जाखडी 213 124 160 जालोर 169 100 __ * ढीमा 243 87 81 पाटण 128 2 बाग 144 भूति 188 176 भीनमाल 153 188 भीलडिया 222 244 121 मादडी 181 रतनपुर 214 119 5 राजगढ 212 __* मोहनखेडा 45 | 185 रामसेण 218 166 सायला 187 134 सांडेराव 153 121 / 103 सीरोडी 166 * हमीरगढ 121 92 / 154 हरजी 162 192 * भोरोल 143 147 119 . * हमीरगढ 154 हरजी 77 हारिजरोड
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________________ मननीय-सद्विचारउत्तमोत्तम ग्रन्थों का पढ़ना और उन पर मनन करने का सौभाग्य जिसे प्राप्त है उसके सामने चंचल लक्ष्मी का विनोद किस गिनती में है ?, उत्तम पुस्तकें ही सच्चे मित्र हैं / वे अपनी चिंताओं को दूर करते हैं। क्रोध आदि बुरी वृत्तियों को वश में रखने और निराशाओं को नाश कर उत्साह पूर्वक आनन्दमय जीवन व्यतीत करने में वे मदद देते हैं / विश्व का ज्ञान पुस्तकों में हैं। जिस घर में सग्रंथों का पठन मनन नहीं होता, वहाँ हमेशा ही अशान्ति, आलस्य, विलासिता अनीति आदि दुर्गुणों का राज्य है। विचारों को उत्तम बनाने का यदि कोई साधन है तो सत्संग या साहित्य ही है, परन्तु सत्संग को प्राप्त करना जितना दुःसाध्य है उतना पुस्तकों का संग्रह कर पठन और मनन करना नहीं है और पुस्तकें खुद भी तो एक प्रकार का सत्संग है / क्यों कि उनमें भूत और वर्तमानकाल के अनेक महा पुरुषों के सारे जीवन के अनुभवों और उपदेशों का सार है। योरप, अमेरिका, जापान आदि देशों में राजा से लेकर गरीब मजदूर तक पढने लिखने और अपने ज्ञान बढाने की कोशीष करते हैं। वहाँ घर घर में उत्तम पुस्तकों का संग्रह मिलता है / कारण यही है कि वे देश इस गुण में समुन्नत हैं हम सब को उन गोरे ( युरोपीय ) भाईयों के इस गुण का अनुकरण करना चाहिये। हमारी उन्नतिकी खरी निशानी यही है। दिव्य-जीवन
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________________ ॐनमोऽर्हद्भ्यः / चा प्रस्तावना ON दीसइ विविहचरियं, जाणिज्जइ सज्जणदुजणविसेसो / . . अप्पाणं च कलिज्जइ, हिंडिजइ तेण पुहवीए // 1 // .. देशाटन से विविध आश्चर्य देख पड़ते हैं, सज्जन दुर्जन की विशेषता का पता लगता है और आत्म विकाश होता है। अतएव देशाटन ( बिहार ) करना चाहिये / (आगम ) देश विदेश फरी फरी, जुए जगत लालाश / तो उपजे उरमा पछी, विशेष बुद्धिप्रकाश // 1 // अबुद्ध बुद्धि प्रापवा, विचरो चारे पास / फलशे फल अतियत्नथी, विशेष बुद्धिप्रकाश // 2 // वहता पानी निरमला, भर्या गंधीला होय / साधु तो रमता भला, दाग न लागे कोय // 3 // प्रयाण करि परदेशमां, परवारि लांबे पन्थ / " कोटि कला कौशल्यता, गुणिजन लावो ग्रन्थ // 4 // इन सूक्तों से विहार से मिलनेवाले लाभ का असली पता भले प्रकार लग सकता है / अतएव जैन साधु साध्वियों को बारिशकाल के सिवाय शेष काल में शास्त्र-मर्यादा पूर्वक विविध
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________________ सिद्धान्त सामग्री को प्राप्त करने, बुद्धिबल को बढाने, आत्म विकाश करने, देशाचार-विचारों को जानने, शरीरस्वास्थ्य प्राप्त करने, भिन्न भिन्न प्रकृतिक मनुष्यों के स्वभाव को समझने और संसारवासी भावुक वर्ग को श्राद्धर्म संबन्धि वास्तविक तत्त्वों का भान कराने के लिये अप्रतिबद्ध विहार करते रहना चाहिये / जो साधु साध्वी कूप मंडूकवत् गृहस्थों के मोह में फंस कर एक ही गाँव, या उपाश्रय में पड़े रहते हैं, उन्हें संसार की वास्तविक, या अवास्तविक वस्तुस्थिति का पता नहीं लग सकता। इतना ही नहीं, बल्कि ऐसे शिथिल स्वच्छन्दचारी साधु साध्वी अपने अमूल्य संयमधर्म और मानवजीवन को बरबाद करके दुर्गति के पात्र बन जाते हैं / ऐसे साधु साध्वियों से समाज को कुछ भी फायदा हासिल नहीं होता. किन्तु उलटे वे समाज को भारभूत हो पडते हैं / दर असल में ऐसे ही शिथिलाचारियों के लिये लोगोंने यह सूक्त उच्चारण किया है कि स्त्री पीयर नर सासरे, संजमियां थिर वास / एता होय अलखामणा, जो मंडे नित वास // 1 // एक गुजराती साक्षरने ठीकही लिखा है कि કેટલાક મનુષ્ય જે જાત્યંધ થાય છે જેઓ બીજાને દેખતા નથી. તેમાં કેટલાક મનુષ્ય પોતાના દેશ સિવાય બીજા દેશનું, બીજા ધર્મનું બીજા સમાજનું કે જ્ઞાતિનું સારૂં જોઈ શકતા નથી અને જોઈ શકતા નથી તે સીખી પણ શકતા નથી. કુવાના દેડકાની માફક પોતાના નાના વર્તુલનેજ જગત સમજી લે છે.
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________________ (3) આવા મિથ્યાભિમાની જને ખરેખર પિતાને નુકશાન કરે છે. એટલું જ નહિ પરંતુ પોતાના પાડોશના બાંધવ દેશ, પિતાની સમીપના બાંધવ ધર્મને, પોતાના પાસેનો બાંધવ સમાજને પણ વ્યર્થ નુકશાન કરે છે, આવા સ્વદેશની, સ્વધર્મની કે સ્વસમાજની અભિવૃદ્ધિના વૈરી જગતમાં રાક્ષસની પેઠે પોતાનો અને પરને નાશજ કરે છે. આટલું જ નહિં પરંતુ ઉચ્ચમાં ઉચ્ચ મનુષ્ય જન્મ હોવા છતાં શાલારૂપ જગતમાં રહી જાણે આ જગતમાં રહેવાને લાયક ન હોય તેમજ પલાયન પણ કર્યા કરે છે. जैनों की भारी कमी होने का आज जो जटिल प्रश्न खडा हो रहा है उसका असली कारण खोजा जाय तो मुनिविहार का अभाव ही है / यदि नियम पूर्वक सर्वत्र मुनिवरों का विहार होता रहे तो अधिक नहीं तो मूलपूंजी (अवशिष्ट जैन संख्या) में तो किसी तरह घाटा पडने की संभावना खडी नहीं हो सकती। .. - अरे ! अन्धश्रद्धालुओं का मोह और शिथिलाचार की मौजमजाह छोड कर अप्रतिबद्ध विहार किये विना प्रतिगाँवों, या प्रतिदेशों के भावुकों की धार्मिक स्थिति, जिनमन्दिर, ज्ञानभंडार, पाठशाला; आदि की आर्थिक स्थिति और जनसमृद्धि का पता किस प्रकार लग सकता है ? जब इन बातों का पता नहीं, तब उनके सुधारने की आशा निराशा ही समझना चाहिये / ___आज इतिहास के अतिगहन विषय को परिस्फुट करके दिखलाने वाली, पूर्वकालीन जाहोजलाली को प्रत्यक्ष बताने वाली भौर श्रादर्श आत्माओं के कृतकार्यों का स्मरण करा के आश्चर्यान्वित करनेवाली तीर्थमालाएँ, ताम्रपत्रों के लेख, प्रशस्तिलेख और
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________________ दानपत्रा उपलब्ध हैं, वे अप्रतिबद्ध विहार के वास्तविक रहस्य को ही प्रगट कर रहे हैं। ... जिन अश्रुतपूर्व बातों का हमे पता तक नहीं था, वे आज हमे हस्तामलकवत् दिखाई देती हैं, और हमारे पूर्वजों की आर्थिक शक्ति, धार्मिकशक्ति, और आत्मिकशक्ति का भान कराके आश्चर्यनिमग्न करती हैं / इतना ही नहीं किन्तु, हमारी हार्दिक भावनाओं में उत्तेजना शक्ति प्रगट करके वैसा ही बनने को उत्साहीत करती हैं / .. सोचो कि यह सब प्रभाव किसका है ? कहना ही पडेगा कि क्षेत्रों का, उपाश्रयों का, श्रावकों का और श्राविकाओं का प्रेम न रखनेवाले परोपकारी श्रात्मदर्शी मुनि, पन्यास, उपाध्याय और आचार्यों के अप्रतिबद्ध विहारों का ही फल है / अगर उन्होंने उपकारदृष्टि को लक्ष्य में रख कर और प्रतिकूल, या अनुकूल अनेक उपसर्गों को सह कर प्रतिदेश, या प्रतिनगरों में विहार न किया होता तो हमारे पूर्वजों, हमारे प्रभावक तीर्थों और अद्वितीय ज्ञानभंडारों का गहनातिगहन इतिहास आकाशकुसुमवत् ही बन जाता / - वर्तमान युग के पाश्चात्य विद्वान् जैनधर्म की विशालता और प्रमाणिकता स्वीकार करते हैं उन्हों के साधन भी पूज्य मुनिवरों के विशाल विहार और कृतकार्यों के फलस्वरूप ही समझना चाहिये / पूर्वकालीन पूज्य मुनिवर अनेक मुसीबतों का सामना करके भारतवर्ष के चारों और विचरते थे, जिससे यह जैनधर्म विशालकोटी के ऊँचे शिखर पर विराजमान था। इस विषय में मिस्टर विन्सेन्ट स्मिथ साहब के उद्गार मानीय हैं
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________________ " The field for exploration is vast. At the present day the adherents of the Jain religion are mostly to be found in Rajputana and Western India. But it was not always so. In olden days the creed of Mahavira was far more widely diffused than it is now. In the 7th century A. D. for instance, that creed had numerous followers in Vaisali (Basenti north of Patna ) and in Eastern Bengal localities where its adherents are now extremely few. I have myself seen abundant evidences of the former prevalence of Jainism in Burdelkhand during the mediaeval period especially in the 11th and the 12th centuries. Further South, in the Deccan, and the Tamil countries, Jainism was for centuries a great and ruling power in regions where it is now almost unknown. -"खोज का क्षेत्र बहुत विस्तीर्ण है। आजकल जैनधर्म के पालन करनेवाले बहतायत से राजपूताना और पश्चिम भारत में ही पाये जाते हैं, पर सदैव ऐसा नहीं था / प्राचीन समय में यह महावीर का धर्म आजकल की अपेक्षा कही बहुत अधिक फैला हुवा था / उदाहरणार्थ, ईसा की 7 वीं शताब्दी में इस धर्म के अनुयायी वैशाली और पूर्व बंगाल में बहुत संख्या में थे, पर वहां आज बहुत ही कम जैनी हैं / मैंने स्वयं बुन्देलखंड में वहाँ 11 वीं और 12 वीं शताब्दी के लगभग जैनधर्म के प्रचार के बहुत से चिह्न पाये / दक्षिण में आगे को बढिये तो जिन तामिल और
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________________ द्राविडदेशों में शताब्दीयों तक जैनधर्म का शासन रहा है, वहाँ वह अब अज्ञात ही सा हो गया है।" इन सब बातों का विचार किये बाद हमें इस निर्णय पर स्थिर रहना पडता है कि जैन साधु भारत की एक धार्मिक संस्था है और वह अपने आचार-विचारों के नियमानुसार भ्रमणशील है। प्रतिवर्ष चातुर्मास के सिवाय शेषकाल के आठ महिनों तक एक गाँव से दूसरे गाँव अप्रतिहत विहार करना और तन्निवासियों को धार्मिक बोध देने के साथ साथ में ऐतिहासिक साहित्य सामग्री को विकाश में लाना यह उनका स्वाभाविक कर्त्तव्य-पथ है / इसी कर्तव्यपथ को अपना लक्ष्यबिन्दु बना कर आधुनिक साधु साध्वी यदि विहार दरमियान आये हुए गाँवों की ज्ञातव्य बातों की नोंध प्रतिवर्ष प्रकाशित कर दिया करें तो इतिहास संबन्धी साहित्य को बड़ी भारी मदत मिल जाय और जो बातें अभी अंधारे में ही पडी हुई हैं वे प्रकाश में आ जायँ / अस्तु. ___पाठको ! प्रस्तुत पुस्तक, जो आप लोगों के कर-कमलों में उपस्थित है इन्हीं विषयों पर प्रकाश डालनेवाली है / सं 1925 नवेम्बर तारीख 7 के दिन कुक्सी से काठीयावाड, गुजरात और मारवाड तक हुए लंबे विहार के दरमियान आये हुए गाँवों और गुडाबालोतरा से सन् १९२७नवेम्बर तारीख २२के दिन हुए लंबे विहार के गाँवों की संक्षिप्त नोंध इसमें दर्ज की गई है / यहाँ उन गाँवो के नाम, उनमें जैनों के घर और उनमें तारीखवार हुई स्थिरता की तालिका लिख देते हैं जो साधु साध्वियों को एक गाँव से दूसरे गाव विहार करने में उपयुक्त है।
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________________ __ (7) - कुक्सी से पालीताणा तक के गाँव नम्बर | गाँवों के नाम. कोश | जैनघर देहरासरस. 1926/ तारीख. , *|130 / 6 नवेबर * कुक्सी रामपुरा बाग | 1 35. 1 . टाडा ARRAHAdminine , (-12 , . 13-16 6 // 5 // ^ ~ or x 1 vu2M 0 " |19 . 1980 सेज 3 1926 1 0 रींगनोद 6 भोपावर(तीर्थ) | राजगढ मोहनखेडातीर्थ छडावद पीथनपुर पाराँ राणापुर कुन्दनपुर गमलां दाहोद | 16 | बर्दी 0 0 r.00 r . 0 . . " 0 .15 28-29/ 0 0 ur
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________________ . * 6 5 deg * ~ a . deg . . or orr * * * * . . deg | 17 | पीपलोद. ओरवाडा गोधरा टूबा टिम्बा रोड सेवालिया / अंगाडी ठोसरा डाकोरनी उमरेठ भालेज बोरियावी वरताल मेलाय सोजीत्रा ईसरवाडा वरसडा वटामण . . . . * 9 * o . . . . 0 . G8 - c or n . 0 . बोरु . 36 | बोलाद . 0 *
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________________ / 1. | 130 orry 37 / पीपली / 3 आमली घोलेराबंदर एक्दपर बेलावदर रतनपर वला (वल्लभी)/४ चमारडी करदेन वरतेन (तीर्थ) 1 भावनगर अखवाडा गोपाबंदर سم ه . م तणसा ه .. त्रापन तलाजा(तीर्थ) देवली 2 ठासेच पालीताणा | 4 | 700 सिद्धगिरी | | .
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________________ (10) सिद्धगिरी से गिरनार तक के गाँव नम्बर गाँवों के नाम | कोश जैन घर देरासर सन् इ० तारीख له 0 or. ه م س 0 . 0 0 . 0 . 0 - 57 | घेटी 58 परबडी 4 चारोडिया गारियाधार 61 छोटालीलिया | 2 मोटालीलिया अमरेली आकडिया | 4 कूकावाव चूडा राणपर बडाल जूनागढ गिरनारतलेटी | 2 | गिरनार(तीर्थ)। 1 // / . >> 20 0 . . 0 r 0 . 0 0 ur or 71 / /
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________________ (11) गिरनार से शंखेश्वर और तारंगा तक के गाँव. ताराख 0 अप्रेल 13-16 س 0 0 م 0 ه 0 ه 0 م नम्बर | गाँवों के नाम कोश जैन घर देरासर 1926 जूनागढ |3 // 250 / 2 वडाल जेतपुर वीरपुर गोमटा गोंडल बीलियारु रीबडा कोठारियुं राजकोट खोराणा सीधावदर वांकानेर जाली लूणसरी م 0 0 ه س 0 س 0 م 0 0 ه س س ه |
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________________ 0 * v w : : : مہ م rror orr x م ه ه م (19) 87 | दोघोडियुं / 5. 2 सरा / 2 / कोंढ 5 जीचा ध्रांगध्रा गाला भरडो देहगाँव ओडं झींझुवाडा | // धामा आदरियापुं 99 | शंखेश्वरतीर्थ 4 मुजपर 101 | हारिजरोड | 102 | जमणपुर अड़िया 104 | कुणधेर 3 105 पाटण (तीर्थ) 2 201 1106 / सागोडियो م : : : : : : ه م م م ه م س مه مه س مه س مه تم
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________________ ..2 . .... . . . . 0 कल्याणा मेत्राणा(तीर्थ सिद्धपुर समोडा लूणवा 112 बीठोडी 113 कोदराम चाणशूल 115 डभाड वरठा |११७तारंगा(तीर्थ 4 . . . 0 0 - 0 0 / 0 4-7 तारंगा से आबु तक के गाँव‘तारंगा से आबू' जाने के लिये तीन मार्ग है-एक मार्ग में उनडी कोश 7, फेचोड 3, ऊडा 1, रत्नपुर 3, ईडर 3, वडाली 5, खेड 5, गढ 5, भाणपर 5, हदाद 3, राणपुर 3, कुंभारियाँ 4, अंबानी // , खराडी 9 ये गाँव; और दूसरे मार्ग में टभोः 2 भालुसण 3, ऊभरी 2 // , धनाली 4, गोडीयाल 2, गोला 3, पालनपुर 5, चीमासण 5, चिरोत्रागाम 7, कीरोत्रा 1, रीया
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________________ (14) गाम 2, वाडा 4, आबू 10. ये गाँव आते हैं। तीसरे मार्ग के गाँव नीचे तालिका में ही दर्ज है सन् इ० नम्वर | गाँवों के नाम | कोश जैन घर देरासर तारीख 1926 टीम्बा " 2 or 0 0 or or or 0 121 0 2 122 0 orr 118/ 119/ भालूसण 120 ऊमरी नागरमोरिया | दांताभवानगढ कुंभारियातीर्थ 124 | अंबानी 125 / खराडी 126 / चोकी 127 | आबुकेम्प देलवाडा 129 अचलगढ 130 | मोरिया . / . 13-14 . deg deg . * * * * * . 16-20 आबू . .
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________________ (15) आबू से सिरोही और आहोर तक के गाँव-- | नम्बर | गाँवों के नाम | कोश जैन घर देरासर / ..सन् इ० |1926 अनादरा 132 पालरी 133 | सिरोडी / मेडा 136 | हमीरगढ(तीर्थ) 2 // 136 | सन्दरुट 137 सिरोही (तीर्थ) 3 138 सनवाडा 139 वीरवाडा 140/ उंदरा / 141 वामनवाड तीर्थ 1 नांदिया तीर्थ 143 | सिरोही 144 | गोयली 145 | उड़ smo mora mr m ~ 2 - n n 2 जुलाई 7
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________________ . . 146 | जावाल 147 | बलदूठ 148/ सवणा तीर्थ आकोली बागरा cian or mere डूंडसी 152 . . . . . . ! 164 सियाणा भांयलावास | मेडा छीपरवाडा |156 आहोर (तीर्थ | 1 आहोर से शिवगंज और वरकाणा तक के गाँव. 13-11 | नम्बर | गाँवों के नाम | कोश जैन घर देरासर 12 30 तारीख 157 चरली (तीर्थ) 1 नवेम्बर 158 | मादडी 159/ दयालपुरा : 0 गुडाबालोतरां | // | 329| 3 |, १०से२
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________________ (17) or 2 or . . . ..... r or . r or . >> अगवरी // 162 | सेदरिया | 3 163 | पॉक्टा (तीर्थ)। | 164 | नोवी // 1 165/ छोटालखमावा // मोटालखमावा | // | 10 | कोरटा(तीर्थ) 168 कानपुरा . 1 // 167/ शिवगंज | 2 . i7 डीसेम्बर 1-9 ऊंदरी 169, सुमेरपुर नेतरा 171 सांडेराव . 3 // खिमेल | वरकाणातीर्थ 2 // . r ~ r . . cror or 40
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________________ (18) . वरकाणा से जालोर तक के गाँव जैनों नम्बर गाँवों के नाम | कोश | सन ई० तारीख दरामर। - 1 डीसेम्बर 19-23/ 174 | राणीस्टेशन 175 | राणीगाँव / 1. 176 बामी (बरामी) 3 . 177, खिमाडा 2 कोशिलाव " 24-26 २७-जा. |4-1-28 5-6 बावागाम पावा भूति . कवलां * * / 4 185 183 | रोडला 184| तखतगढ जुआणा 186 भारुंदा 187| फतापुरा जोयला * * *
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________________ 19) ~ जोगापुरा रोबाडा ~ ~ or 3 Fr ... . 191 आलावा 192! हरजी 193 बूडतरा 194 | थांवरा (ला) 195 भेंसवाडा सकराणा 1 // 0 197 / लेटा | 2 | 30 198 जालोर (तीर्थ) 1 55 . . . . जालोर से भीनमाल तक के गाँव नम्बर | गाँवों के नाम | कोश तारीख 99 फेब० मांडबला एलाणा 201 | गोल 26-27 खरल
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________________ (20) 203 مر * * or or >> . . . . . . . . . or | ओटवाडा 204| आलासण 205| सायला | 1 // 128, 2 206/ चोराऊ | 4 | 24 207| भांडवा (तीर्थ) 5 0 मेंगलवा | // 86 209 आणा 210 ऊनडी पांथेडी | 3 | दासपा 213 पादरा नरता 215 भीनमाल(तीर्थ) भीनमाल से थराद तक के गाँव r 211 or . 212 or 0 0 1 जैनों के सन् ई० तारीख नम्बर | गाँवों के नाम कोश - दरासर 1928 घर | 0 अप्रेल | 26 216/ रोपी 217 17 सीलाण |3 //
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________________ . . . 223/ (21) 218/ छोटारानीवाडा| 5 | 15 219 मोटारानीवाडा // जाखडी रतनपुर 222 | भाटी जडिया | धानेरा रामसेण | वरण .. वरनोडा. 228 भीलडियातीर्थ 5 नेहडा. वात्यभ वाहणा लुआणा.. 233 जेतडा 234 | पावड- 2 4 235 | मलूकपुर 1 // 0 | थराद 226 . 229/ س س سر
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________________ पर 24 (22) 237| इडाटा | 5 | 7 | * डीसेंबर ढीमा 1 , 29-3 भोरोल तीर्थ | 4 : 240 | गणेशपुरा 241 / वामी 242 | दूधवा / 1 . 243 | जाणदौ इस तालिका में प्रायः उन्हीं गाँवों का वृत्तान्त लिखा गया है जिनमें हमारा मुकाम, या जाना हुआ है / इस तालिका के. पहले कोठे में प्रतिगाँवों की क्रमवार नंबर संख्या, दूसरे में गाँवों के नाम, तीसरे में एक गाँव से दूसरे गाँव के कोश, चौथे में प्रतिगाँवों के जैनों की घर संख्या, पांचवें में जिनमन्दिरों की संख्या, छठे में अंग्रेजी सन् और सातवे में प्रतिगाँवों में कितने दिन का मुकाम हुआ उसकी महिनों के सहित तारीखें दर्ज की गई हैं / इनमें से कतिपय गाँवों के जिनमन्दिर और जिनप्रतिमाँओं के लेख उन उन गाँवों के वर्णन में दर्ज हैं और उनका भावानुवाद हिन्दी में इस दिग्दर्शन के अन्त में ही नम्बर वार दर्ज कर दिया गया है जो संस्कृत लेखों के रहस्य को अच्छी तरह प्रगट करते हैं।
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________________ ___ इस्वी सन् 1925 नवम्बर की तारीख 7 से सन् 1998 की भई तक हुए विहार गत कतिपय गाँवों के पोस्ट पते वार मुखिया ( आगेवान ) श्रावों के नाम इस प्रकार हैं मु. पो० कुकसी ) चोधरी भोपाजी डूंगरचंद जि० धार (नीमार) , सेठ माणकचंद चंपालाल व्हाया-महु ) पारख चतराजी जवेरचंद मु० पो० बाग ) चोधरी मेराजी छगनलाल (गवालियर स्टेट) प्र शा० नेमाजी गुलालजी __व्हाया-महु ) मु. पो. टाँडा ) सेठ उमेदमल चंपालाल ( गवालियर स्टेट) व्हाया-सरदारपुर छगनलाल रूपचंद नाहर मु. पो. रींगनोद / सेठ खूवाजी मूलचंद (गवालियर स्टेट) व्याया-सरदारपुर हरकचंद जडावचंद मु० पो० राजगढ खजानची दोलतराम चुनीलाल गवालियर स्टेट गोकलजी लूणाजी (मालवा)वाया महू-धार) मोदी वेणीराम रूपचंद मु० पो० पारां, जि० ) शा० नंदाजी दलिचंद झावुवा, वायामेघनगर (मालवा) ) शा० हीराचंद फतेचंद मु० पो० राणापुर ) शेठ सदाजी रखवाजी जि. झाबुवा, वाया मेघनगर (मालवा)) चोधरी जवरचंद पन्नालाल
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________________ (24) * मु.पो० दोहद बोहरा मोतीजी धनराज - जि. पंचमहाल ) मु. पो० वरतेज) जि० भावनगर सेठ ऊजमचंद खेमचंद* ( काठीयावाड) ) .. . मु. पो० भावनगर ) आत्मानंद जैन सभा* . (काठीयावाड) 5 गुलाबचंद लल्लुभाई* मु. पो० घोघा. ) श्री जैनश्वेताम्बर कारखाना जि० भावनगर सेठ धर्मचंद मगनलाल* (काठीयावाड) मु. पो० तलाजा / सेठ केसवजी मुंठाभाई* जि. भावनगर (काठीयावाड ) ) श्री जैनश्वेताम्बर कारखाना मु०पो० पालीताणा श्री प्राणंदजी कल्याणजी पेढी (काठीयावाड) मु. पो० अमरेली ) वकील सुन्दरजीभाई* (काठीयावाड ) ) मु० पो० जूनागढः / ( काठीयावाड) देवचंद लखमीचंद जैनपेढी मु. पो० गोंडल सेठ जगनीवन मोहनलाल*. ( काठीयावाड)
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________________ (25 ) मु. पो. राजकोट ) सेठ जुठाभाई केसवजी* ( काठीयावाड) मणिलाल वखतचंद* मु. पो. वांकानेर ) पानाचंद चतुरभुज* ( काठीयावाड) ) कवि नेमचंद देवचंद सेठ* मु. पो० शंखेश्वर / जीवनदास गोडीदास जैनपेढी ( हारिजरोड ) / मु०पो०पाटण,ठे०राज) कावाडो चोखावटियानो जेसिंगभाई निहालचंद* पाडो (गुजरात) मु. मेत्राणा, पो. सिद्ध / जैन श्वेताम्बर कारखाना पुर (गुजरात) / मु० तारंगा पो० तारं / इसेठ प्राणंदनी कल्याणजी पेढी गाहिल (गुजरात) मु० कुंभारिया पो० // पाणंदजी कल्याणजी जैन कारखाना अंबाजी (श्राबूरोड) मु० देलवाडा, पो० / जैन श्वेताम्बर कारखाना आबुकेम्प (मारवाड) मु० अचलगढ पो० / श्री जैन श्वेताम्बर कारखाना - भाबुकेम्प (मारवाड) , मु० सिरोडी पो० / मूला कपूराजी अनादरा (आबूरोड) फूआ नाथूजी
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________________ मु. पो. सिरोही ) शा. पूनमचंद हांसाजी . राजपुताना चोधरी जसराज हुकमीचंद आबूरोड कोठारी सरेमल अखेचंद मु० बलदूट, पो० ) शा० अव्वानी हुकमाजी जावाल (सिरोही) सेठ केसरीमल कपूरचंदजी ___ आबूरोड ) शा० धनरूप मालाजी मु० आकोली, पो० ) शा० जसा गोकाजी. बागरा (मारवाड) शा० मूकचंद हेसराज वाया एरनपुर. ) शा० मोती हकमाजी मु. पो० बागरा. ) शा० चमना हकमाजी (मारवाड) व्हाया / शा० मूलचंद मथराजी शा० दला खसाजी एरनपुरा रोड जेठा खूमाजी कामदार मु० इंडसी, पो० / बागरा (मारवाड) शा. भगवान दरगाजी एरनपुरारोड मु. पो. सियाना ] मूता मगराज फूसाजी शा० नरसिंग हिन्दुजी (मारवाड) व्हाया सिरोही; स्टेशन पिंडवाडा शा० भगवान लूंबाजी शा० जेठा मलाजी मु० पो० आहोर शा० नथमल लालाजी (मारवाड) व्हाया शेठ वागमलजी जसराज एरनपुरा रोड Jशा० छोगमल हिन्दुजी
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________________ (27) मु. पो. गुडाबालोतरा ] शेठ जीवाजी मखानी. (मारवाड) व्हाया / शेठ गुलाबचंद अचलाजी शा० सेराजी आईदानजी रामाणी एरनपुरारोड शा० कपूरचंद खसाजी " मु. सेदरिया पो.गुडा) शा० पूनमचंद ऊमाजी बालोतरा (मारवाड) (शा० चेनाजी जीवाजी मु.कोरटा पो. एरन- 1 मोदी धूरचंदजी कपूरचंद पुरा छावनी(मारवाड) / शा० चतरमाण किसनाजी मु. पो. शिवगंज ) शा० धूला खेमानी भटारक जि० सिरोही (राजपु- शा० वीरचंद वन्नाजी ताना) एरनपुरारोड ) शा० चमना रूपाजी मु. पो. सुमेरपुर (मार शा० मोतीलाल नथमल वाड) एरनपुरारोड | शा० भगवानसी हंजारीमल मु. पो. सांडेराव, स्टे-) शा० मोकमदास उमेदमल शन फालना (मारवाड)। शा. अनोपचंद लखमीचंदजी मु. पो. खिमेल, स्टेशन) शा० पुखराज धूराजी राणी (मारवाड) शा० दीपजी सेराजी .. Jशा० दलीचंद पन्नाजी मु. वरकाणा पो० राणी। स्टेशन (मारवाड) श्री पार्श्वनाथ जैन कारखाना मु. पो.रानी स्टेशन ) शा० गुलाबचंड बभूतमल (मारवाड) शा० विमलचंद जडावचंद
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________________ ((28) मु० वरामी पो. रानी ) शा० जेठमलजी फोजमल* स्टेशन (मारवाड) शा० देवीचंदजी गोमाजी* शा० सेसमलजी गलाजी मु.खिमाडा पो.स्टेशन ! शा० नवाजी चेलाजी फालना (मारवाङ) शा० कपूरजी ओकाजी शा० कस्तूरचंद रखवाजी शा० जवानमल जीताजी मु. पो. कोशिलाव ! शा० खूमाजी जेताजी स्टेशन फालना / शा० जीवराज मूलाजी (मारवाड) शा० प्रेमचंदजी कोठारी मु. बावागाम, पो. ] शा० चमनाजी वेलाजी चाणोद, स्टेशन राणी / शा० जसाजी वीसाजी (मारवाड) J शा० सरदारमल वरदाजी* मु. पावा पो. तखतगढ) शा० ताराचंद मेघराजजी ___ (मारवाड) शा० हिमतमल पूनमचंदजी एरनपुरारोड मु० दणो पो. चाणोद / शा० दीपचंद शंभुलाल स्टेशन राणी (मारवाड) शा० भीखमचंद कस्तूरचंद मु. भूति पो. तखतगढ / शा० गुलाबचंद भीमाजी एरनपुरारोड (मारवाड) | शा० देवीचंद रामाजी शा० छोगमल रखबाजी मु. कवलां, पो. चाणो। / शा. पनराज हींगचंदजी (मारवाड) स्टेशन राणी
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________________ ( 29 ). मु. पो० तखतगढ, / शा० गुलाबचंद देवीचंदजी / एरनपुरारोड (मारवाड) शा० जुहारमल रामाजी / मु० भारुंदा, पो. एरन, पुरकी छावनी शा० सूरजमलजी उमेदमल / (मारवाड) मु० फतापग, पो० / शा० हजारीमल चांपाजी। एरनपुरकी छावनी / शा० चेनाजी दोलाजी। शा. लाला हिन्दुजी। ( मारवाड) / शा० रतनाजी मोतीजी। .. मु० जोगापुरा, पो० / शा० प्रेमचंद गोमाजी / एरनपुरकी छावनी ( मारवाड) शा० चेनाजी गोमानी। म० रोवाडा, पो० ) शा. धूपा नवाजी / / शा० धूपान एरनपुरकी छावनी ( मारवाड ) Jशा० चतरा खेमाजी / मु० नोवी, पो० एरन) ' शा० रायचंद वदाजी* पुरकी छावनी ( शा० रायचंद जेताजी* (मारवाड) ) मु० आलावा, पो० ) गुडाबालोतरा .शा० भूरा लखमाजी* (मारवाड) एरनपुरारोड ) (शा. हकमा भगाजी* मु० जोयला, पो० एरनपुरकी छावनी में शा० पूनमचंद वनानी / (मारवाड.) . .
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________________ मु० पावटा, पो० / / शा. जोधा भीमाजी* गुडाबालोतरा (मार वाड) एरनपुरारोड, Jशा० भीखा चतराजी ] शा० नेमाजी धनरूपनी / मु० हरजी, पो० शा० जवानमलजी वीराजी। गुडाबालोतरा (मार शा० भीमा नथाजी / वाड ) एरनपुरारोड. शा० रायचंद दोलाजी। मु० भंसवाडा, पो० शा० हकमा नरसिंगजी। आहोर ( मारवाड) शा० नया मनरूपजी। एरनपुरारोड. शा० परताप गलवाजी / . .. मु. पो० जालोर, शा० सांकलचंद आईदानजी / / मु० छोगालाल उमेदमल कानुगा। (मारवाड ) मोदी तेजसी कुशलसीजी / एरनपुरारोड. __j मोदी दीपसीजी रघुनाथसी / म० मांडवला, पो० ) शा० आईदान धूलानी दांतेवाडिया / जालोर (मारवाड ) शा० मानमल माणकचंदजी। एरनपुरारोड. ) शा० भंडारी जुहारमल धूडानी / मु० गोल, पो० / शेठ साहेबचंद कुंदनमल जालोर (मारवाड) एरनपुरारोड, J शा० फूलचंद नवाजी मु०पालासण, पो० / 1 शा० फोजाजी हीराजी / जालोर (मारवाड) / शा० मगनानी नेथीजी / एरनपुरारोड.. _j शा० तिलोकजी माजाजी।
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________________ शा० केनाजी नेथीजी ! मु० सायला, पो० शा० फोजाजी सिवराजजी। जालोर ( मारवाड) एरनपुररोड. शा० कबदी छोगा परतापजी / मु० हरकाजी ताराजी / .! शा० गोविंदजी हीराजी / मु० चोराऊ, पो० | शा० सवाजी हीराजी / भीनमाल (मारवाड) है शा० धन्नानी अचलाजी। / माउन्ट आबू. . शा० छोगाजी बन्नाजी। मु. मेंगलवा, पो० भीनमाल (मारवाड) माउन्ट आबू. शा० छजाजी जवानजी / शा० सुरताजी वालाजी / शा० सदाजी चमनाजी / शा० मगाजी पन्नाजी। मु० आणा, पो० भीनमाल (मारवाड) माउन्ट भाबु. शा० चूनाजी भलाजी। शा० रुपाजी किसनाजी। शा० नरसिंग मादाजी। . शा० छोगाजी दानाजी / माउन्ट आबु. मु० ऊनडी, पो० ! शा० परखा भूताजी। भीनमाल (मारवाड) शा० जवान हीराजी। शा० खूबाजी किसनाजी। - शा० मुलतानजी राजिंगजी। मु. पांथेडी, पो० भीन) / साजी अचलाजी धनराजजी माल ( मारवाड ) माउन्ट आबू शा० जोइता डाहाजी शा
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________________ ( 32 ) मु० दासपा, पो० भीन) शा० केसा प्रागाजी* माल (मारवाड) शा. हरजी प्रागजी शा० वना दोलाजी मुता* माउन्ट आबू / कोठारी जबा दोलाजी मु० नरता, पो० भीन-) माल (मारवाड) शा० केरा धूडाजी। माउन्ट आबू ) मु. पो० भीनमाल / शा० भगवानजी हेमराज आंचलिया जि० जसवंतपुरा, . / शा० ताराचंद लखमाजी (मारवाड) शा० नेणमल जुहाराजी श्रांचलिया माउन्ट आबू / मु० छजुनी शिवराज / मु० रोपी, पो० भीन- ) माल.(मारवाड) शा० लखमाजी गेनमल दोसी माउन्ट श्राबू ) मु० सीलाण, पो. भा.) लवाडा ( मारवाड) / शा० वन्नाजी भूराजी मेदानी ( भंडारी सगाजी जानोजी* माउन्ट आबू ) मु० छोटारानीवाडा, ) / शा० गेमा मालाजी* पो० मालवाडा (मारवाड) माउन्ट आबू शा० गोमा मानाजी मु० जाखडी, पो० / बडगाँव (मारवाड) / शा० जेठा रताणी पोरवाड
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________________ मु० जडिया, पो० / शा. जसानी खेमाजी ! धानेरा (पालनपुर) / शा० पीथा मेघराज / 1 मेता वेलचंद तलकचंद / मु. पो. धानेरा शा, भूता निहाल / ( पालनपुर ) / शा० अक्का हेमजी। वाया डीसा शा० उमेदमल मलूका / श्री यतीन्द्र जैन शिक्षाप्रचारक मंडल / मु० रामसेण, पो० ) शा० धूग पीथाजी धानेरा ( पालनपुर) वाया डीसा शा० हजारीजी सवलाजी मु० वरण, पो० डीसा | शा० सोभागचंद फतेचंद ( पालनपुर ) | शा० जेचंदजी भीखाजी* मु. वरनोडा, पो. ] शा० मोहनलाल पीताम्बर* डीसा (पालनपुर)। शा० धूडाजी पन्नाजी मु० भीलडिया, पो० / कारखाना जैनतीर्थ भीलड़िया / पो० नयाडीसा. मु० नेहडा, पो० / मंगवी सोभागचंद बेचर डीसा ( पालनपुर) मु० वात्यप, पो० / मोरखिया गलाल वालजी। दीयोदर (नयाडीसा) / मोरखिया लाधा दीपचंद।
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________________ मु० वाहणा, पों / मोरखिया मगन दलीचंद / . डीसा (पालनपुर) | अनोपचंद खेमचंद धरु / . मु० लुआणा, पो० / मोरखिया केसरजी लालचंद / दीयोदर, वाया डीसा | मोरखिया मगन सवाई। .. मु० मोटीपावर पो० / सेठ फतेहचंद अवचल / थराद, तालुके वाव. सठ फतहचद अवचल / मु० जेतडा, पो. थराद } दोसी गलवा वागजी / वाया डीसा (उत्तर. / गुजरात) दोसी कुवरजी उजम / मु० पो० थराद, वाया डीसा, बनास कांठा एजन्सी (उत्तरगुजरात) श्री राजेन्द्रजैन सेवा समाज / संगवी पीतांबर वजेचंद / पारख छगनचंद ऊजमचंद / भणशाली जीतमल नरसिंग / J देशाई ऊजमचंद मियाचंद / मु० ईडाटा, पो. ) दोसी खेतसी सवाइ दोसी छगन केवल थराद, वाया डीसा. ) दोसी सामजी भाणजी मु० ढीमा, पो० वाव.) दोसी त्रिभुवन जेठमल व्हाया डीसा. / संघवी अमीचंद मनग संघवी अनोपचंद वकता
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________________ ( 35 ) ) मेता जीतमल केशवजी / 5 वीरवाडीया भाइचंद पवजी। मु० भोरोल, पो. वाव, डीसा हो कर बोहरा भीखा निहाल / मु० गणेशपुरा, पो० / शेठ पुरुशोत्तम नेमजी / वाव ( डीसा ) / शेठ शोमा करसन / मु० वाभी, पो० ] कुंवरजी जीवराज / थराद (डीसा) / खेमचंद नेमजी / मु० दूधवा, पो० ) वोहरा मोजी बेचर / थराद (डीसा ) , बालचंद पूरण / 1 , नेमजी गोकल / मु० जाणदी, पो० / संगवी कानजी निहालचंद / थराद (डीसा) / मु० पो० वाव, ) दोसी पानाचंद केवल* व्हाया डीसा / (बनास कांठा) सेठ टीलचंद खेतसी* 9.96
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________________ व्याख्यानवाचस्पतिश्रीमद्-यतीन्द्रविजय रचित पुस्तकानि१ तीनस्तुतिकी प्राचीनता। / 14 रत्नाकरपच्चीसीकाअन्वयार्थी 2 भावनास्वरूप (संक्षिप्त) | 15 श्रीमोहनजीवनादर्श / 3 गौतमपृच्छा (प्रश्नोत्तर-मात्र) 16 अध्ययनचतुष्टय(दशवैका४ श्रीनाकोडा-पार्श्वनाथ / / लिकसूत्रके शुरूके 4 अध्य०का 5 सत्यवोध-भास्कर (चर्चात्मक) अनुवाद / 6 जीवनप्रभा श्रीविजयराजेन्द्र- 17 लघुचाणक्यनीतिकाअनुवाद। सूरीश्वरजी महागजकी जीवनी) १८कुलिंगिवदनोद्गार-मीमांसा। 7 गुणानुराग-कुलक (शब्दार्थ | 16 प्रतिकार-निर्णय / भावार्थ और विस्तृत विवेचन 20 गद्यबद्धं चरित्रचतुष्टयम् / सहित) 21 श्रीयतीन्द्रविहारदिग्दर्शन / 8 जन्ममरण सूतक-निर्णय / / 22 श्री कोरटातीर्थका इतिहास। 6 संक्षिप्त जीवन चरित्र(महाराज 23 गद्यवद्धंकयवनाचरित्रम् / श्री घनचन्द्रसूरिजी का) 24 गद्यबद्धं जगडु चरित्रम् / 10 जीवभेद-निरूपण (हिन्दी) | 25 गद्यबद्धं सुलसा चरित्रम् / 11 पीतपटाग्रह-मीमांसा / / | 26 आईत्प्रवचन ( संग्रहित) 12 जिनेन्द्रगुणगान लहरी। 27 निक्षेप-निबन्ध / 13 जैनर्षिपट-निर्णय / 28 जीवभेदनिरूपण (गुजराती) प्राप्तिस्थान-श्रीयतीन्द्रजैनयुवक मंडल / मु० निम्बाहेडा (टोंक ) व्हाया-नीमच, R. M. R.
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________________ श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरेभ्यो नमः श्रीयतीन्द्रविहारदिग्दर्शन / यस्योदारविचारसारविलसत्तथ्योपदेशच्छटा. सौरभ्यं जगदद्भुतं जगति तत्पाखण्डिनोऽलोपयत् / भव्यानां हृदयाम्बुजानि नितरां प्रोद्घाटयामास ना, . कल्याणं स हि तन्वनीतु सततं राजेन्द्रसूरीश्वरः // 1 // इस दिग्दर्शन में जिस रास्ते से परमपवित्र-प्राचीन तीर्थों की जियारत के लिये हमारा विहार हुआ, उसीके दरमियान आये हुए गांवों के नाम, उनमें श्वेताम्बर जैनों के घर, जिनमन्दिर, उपाश्रय, धर्मशाला और एक गांव से दूसरा गांव कितने कोश है ? इत्यादि बातों का यत्किञ्चित् उल्लेख किया जाता है, जो साधु साध्वियों को विहार करने में अति उपयोगी और इतिहास-प्रेमियों को लाभप्रद और मददगार होगा। 1 कुकसी-- यह धार रियासत का नीमार-प्रान्त में छोटा, पर अति रमणीय कसबा है। इसके चारों ओर पहाडी प्रदेश है। यहाँ पोष्ट ऑफिस और तार घर है। गांव में चारों और पक्की सडकें बनी हुई हैं / यहाँ से रेल्वे स्टेशन महु 30 कोश और दाहोद स्टेशन 35 कोश है / गाँव में श्वेताम्बर
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________________ (38) जैनों के 130 घर, एक उपासरा, दो बडी धर्मशाला और छः जिनमन्दिर हैं। - सब से बडे और प्राचीन मन्दिर में भगवान् श्रीशान्तिनाथ स्वामी की एक हाथ बडी सफेद संगमर्मर की मूर्ति बिराजमान है, जो सातसौ वर्ष की प्रतिष्ठित और अति प्रभावशालिनी है। इसके चारों ओर चोवीस देवरियाँ हैं, जिनमें नयी प्रतिमाएँ विराजमान की गई हैं। दूसरा मन्दिर भगवान श्रीआदिनाथस्वामी का, जो विक्रम की अठारहवीं शताब्दी का बना हुआ और बावन जिनालय है / इसके दाहिने भाग की बगीची में एक मकराणा-पाषाण की सुन्दर छत्री में जैनाचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की भव्य मूर्ति स्थापित है। तीसरा भगवान् श्रीशान्तिनाथ का और चौथा भगवान् श्री महावीर स्वामी का मन्दिर हैं जो नये बनाये गये हैं और इन की प्रतिष्ठा सं० 1937 तथा 1954 में हुई हैं। पांचवां मन्दिर भगवान् श्रीसीमन्धरस्वामी का है, जो बिलकुल नया, सफाईदार और रेवाँ-विहार के नाम से प्रसिद्ध है / इसके बाहर के मंडप की सीढियों के दाहिनी बगल पर प्रतिष्ठा के समय इस प्रकार शिला-लेख लगाया गया है.. "त्रिस्तुतिक-जैनश्वेताम्बरीय बीसा पोरवाड चत-' राजी रूपचंद, किशनलाल, जवेरचन्द, गेन्दालाल, केसरीमल, मोतीलाल, धनराज पारखने संवत् 1981 में रेवां-विहार नामक जिन-मन्दिर बनवाया और
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________________ इसमें संवत् 1982 ज्येष्ठशुक्ल 11 बुधवार के दिन व्याख्यानवाचस्पति मुनि श्रीयतिन्द्रविजयजी महाराज के पास महोत्सव पूर्वक प्रतिष्ठा कराके मूल नायक विहरमान भगवान् श्रीसीमन्धरस्वामीजी, श्रीबाहुस्वामीजी, श्रीसुबाहुस्वामीजी, श्रीपार्श्वनाथस्वामीजी और गौतमस्वामीजी की प्रतिमाएँ बिराजमान की / मु• कुकसी (धार)" छठ्ठा ज्ञान-मन्दिर जो पंचायती धर्मशाला में शिखरबद्ध बना हुआ है / इसके भीतर एक आलमारी में हस्त लिखित और मुद्रित ग्रन्थों का संग्रह है और मूलद्वार के सम्मुख एक ताक में श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की मनोहर मूर्ति बिराजमान है। ____ कुकसी से तीन मील के फासले पर 'तालनपुर' नाम का एक छोटासा इन्दौर-रियासत का गांव है / यहाँ जैनों का एक भी घर नहीं है, परन्तु जिन-मन्दिर तीन हैं, जिनमें सब से बडे मन्दिर में भगवान श्रीऋषभदेव स्वामी की सवा हाथ बडी श्वेत वर्ण की भव्य मूर्ति स्थापित है। कहा जाता है कि दहिने भाग के पिछाडी के एक किसान के खेत के जीर्ण कुए से यह मूर्ति प्रगट हुई है / दूसरा मन्दिर गोडी-पार्श्वनाथ भगवान् का जो कुकसी निवासी गोमाजी नेमचंद जवरचन्द पोरवाड का बनवाया हुआ है और इस में विराजमान मूर्चि की प्रतिष्ठा सं० 1950 महासुदि 2 सोमवार के दिन जैनाचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने की है। इसके वामभाग की बगल में तीसरा एक दिगम्बर-मन्दिर है और इससे
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________________ कुछ दूर सडक के किनारे पर दिगम्बरों की एक छोटी सी धर्मशाला है / जिसमें दो सौ यात्री आनन्दसे ठहर सकते हैं। यहाँ से दक्षिणोत्तर अन्दाजन 23 मील के फासले पर 'बावनगजा' पहाड है, जो नर्मदानदी के किनारे पर स्थित है। पहाड की ढालू जमीन पर नीचे सोलह दिगम्बर मन्दिर बने हुवे हैं। पहाड के आधे चढाव पर एक ही पत्थर की खडे आकारवाली 30 हाथ बडी आदिनाथ भगवान की मूर्ति है, जो दिगम्बर है / इस के सामने एक छोटे कंपाउन्ड में पांच हाथ बडी कार्योत्सर्गस्थ एक दूसरी प्रतिमा और भी है। पहाड की ऊपरी चोटी पर, एक मन्दिर है जिसमें जिनेन्द्र भगवान के चरण स्थापित हैं। ये जिनचरण सार्वजनिक हैं इस कारण इनकी सेवा-पूजा जैन और जैनेतर सभी करते हैं / दरअसल में यह पहाड दिगम्बर जैनों के विशेष मान्य है। दिगम्बर जैनों के अनेक सिद्धक्षेत्रों में से यह एक है और यहाँ प्रतिवर्ष अनेक दिगम्बर यात्री आते हैं। 2 बाग-- गवालियर रियासत के मनावर प्रान्त में पहाडियों के बीच वाघनी नदी के किनारे पर यह गांव बसा हुआ है। इसमें श्वेताम्बर जैनों के 18 घर, एक मन्दिर और एक उपासरा है / मन्दिर में भगवान् श्रीविमलनाथ स्वामी की सवा हाथ बडी सुन्दर मूर्ति बिराजमान है / मन्दिर के गोखडे में एक शिला-लेख इस प्रकार लगा हुआ है
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________________ ( 41 ) " श्री विमलनाथ-स्वामी का मन्दिर / इसको बागनमर के श्वेताम्बर जैन पोरवाड त्रिस्तुतिक-संघने बनवाया, और संवत् 1661 मगसिर सुदि 5 के दिन जैनाचार्य श्री मद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के पास प्रतिष्ठा कराके मूलनायक भगवान् श्रीविमलनाथ स्वामी आदि की प्रतिमा ए स्थापन की।" यह नगर प्राचीन है और यहाँ पर ध्वंसावशेष प्राचीन कईएक चिह्न भी देख पडते हैं। नगर के पास वाली पहाडी पर जूना किला भी है। जीर्ण होने से यह किला अब टूट गया है इसका जूना नाम * वैराटनगरी ' है। 3 टाँडा-- गवालियर-स्टेट के अमिझरा जिले में मेलनदी के किनारे पहाडियों के बीच में यह छोटा सा गांव है / इस में श्वेताम्बर जैनों के 35 घर, एक दोमंजिली धर्मशाला और एक मन्दिर है, जिसमें मगवान् श्रीअजितनाथस्वामी की सवा फुट बडी सुन्दर मूर्ति बिराजमान है / यहाँ मेलनदी के ऊपर एक जूना किला भी है, जो चारों ओर से टूट कर खंडिहर बन गया है / लोग कहते हैं, कि यहाँ की पहाडियों में बडी बडी उत्तम दवाएँ मिलती हैं और यहाँ के निवासी लोग प्रायः उन्हीं दवाओं को काम में लेते हैं। 4 रींगनोद गवालियर रियासत के अमिमरा-सरदारपुर जिले में
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________________ यह एक छोटासा गाँव है / इसमें श्वेताम्बर जैनों के 35 घर एक धर्मशाला, एक उपाश्रय और एक शिखर-बद्ध जिनमन्दिर है / जिसमें एक हाथ बडी भगवान श्रीचन्द्रप्रभस्वामी की संगमर्मर की प्राचीन और चमत्कारिणी मूर्ति स्थापित है। इस मन्दिर की प्रतिष्ठा सं० 1951 में महाराज श्री विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी के कर-कमलों से हुई है। . ..... - यहाँ से दो मील के फासले पर पूर्वोत्तर ' भोपावर' नामक प्राचीन तीर्थ है / भोपावर गांव के पास वृक्षों की झाडी के समीप एक प्राचीन मन्दिर है, जिसमें दश फुट बडी भगवान् श्रीशांतिनाथस्वामी की कायोत्सर्ग ध्यान ( खडे आकार ) की अति प्राचीन और प्रभावशालिनी श्यामरंग की मूर्ति बिराजमान है / यह तीर्थ महु स्टेशन से 40 मील की दूरी पर है और यहाँ पोषवदि 10 का हरसाल मेला भी भराता है जिसमें 400 यात्री एकत्रित होते हैं। 5 राजगढ___गवालियर रियासत के अमिमरा जिले में यह एक छोटासा कसबा है / यहाँ श्वेताम्बर जैनों में त्रिस्तुतिक-संप्रदाय के 150 चतुर्थस्तुतिक-संप्रदाय के 50, और स्थानक-वासी-संप्रदाय के 25, घर हैं / यहाँ तीन मन्दिर हैं, जिन में सब से बडा मन्दिर महावीर भगवान् का है. जो प्राचीन और बावन मिनालय है / इस में अन्तिम तीर्थंकर श्रीमहावीरस्वामी की अति सुन्दर, चमत्कारीणी और सवा दो हाथ बडी मूर्ति बिराजमान है।
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________________ इस मन्दिरसे उत्तर लगते ही 'श्रीराजेन्द्र-भवन' नाम की बडी धर्मशाला बनी हुई है, जिसमें व्याख्यानालय के पास ही दाहिने भाग में मकराणी पाषाण की एक छोटी छत्री में महाराज श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी की चरण-पादुका स्थापित हैं। इन चरण पादुका पर इस प्रकार लिखा है कि-- .. " संवत् 1982 मगसिरसुदि पूर्णिमायां चन्द्रवारे राजगढ-वास्तव्य-लालचंद-चम्पालाल-खजांचिना श्रीराजे न्द्रसूरीश्वर-पादुका कारिता / प्रतिष्ठितं च मुनि यतीन्द्रविजयेन ". इसी भवन के चोक में महावीर-मन्दिर की वाम-भाग की भीती-बारी के पास एक गुरु-मन्दिर बना हुआ है / इसकी प्रवेश-द्वार की बगल की भांत पर एक शिलालेख लगा है, जिसमें लिखा है कि--- ___ "श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय खजानची दोलतराम हीराचंद-सोभागमल, समीरमलने इस गुरुमन्दिर को वनवाया व उसमें जैनाचार्य श्री श्री 1008 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के कर-कमलों से अञ्जनशलाका कराके श्रीपार्श्वनाथ आदि 4 मूर्तियाँ बिराजमान की और श्रीसंघ को समर्पण किया। संवत् 1963 मगसिरसुदि 2, मु. राजगढ / ( माळवा )". राजेन्द्र-भवन के प्रवेश-द्वार के ऊपर के एक शिला-लेख में लिखा है कि--
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________________ (44 ) कलिकालसर्वज्ञकम्प जङ्गमयुगप्रधान जैनाचार्य श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरचरणकमलेभ्यो नमः / श्रीश्वेताम्बरजैन-त्रिस्तुतिक सम्प्रदाय वाले प्रोसवाल व पोरवाडों का धर्मध्यान करने का 'श्रीराजेन्द्रजैन भवन' सं० 1925 . दूसरा मन्दिर अष्टापदजी का है, इसमें वर्तमान चोवीस तीर्थकरों की अष्टापदगिरि के समान भव्य मूर्तियाँ स्थापित हैं। इसके मूल-द्वार के दोनों बंगलो के ताक में, एक में श्रीगौतमस्वामी और दूसरे में महाराज श्रीराजेन्द्रसूरीश्वरजी की हुबोहुब मूर्ति विराजमान है। इस मन्दिर के प्रवेश-द्वार के ऊपर एक शिला-लेख लगा है, जिसमें लिखा है कि " श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय बीसा-पोरवाड खजानची शेठ दोलतरामजी चुन्नीलालजीने पन्नालालजी, लालचंद, चंपालाल, चांदमल, रतनलाल, मथुरालाल. माधोलाल आदि परिवार से श्रीअष्टापदजी का मंदिर बनवा के, उस में संवत् 1961 माघसुदि 5 गुरुवार के रोज परमयोगिराज जंगमयुगप्रधान जैनाचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के कर-कमलों से अष्टाह्निक-महोत्सव पूर्वक चोवीस जिन-प्रतिमाओं की प्रतिष्ठाञ्जनशलाका कराके, बिराजमान की / मु० राजगढ, (मालवा )" . इसके प्रवेश-द्वार के सामने ओसवालजैनों का श्रीयतीन्द्र
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________________ (45) और इसके दाहिने भाग की बगल पर गली में भवन' है / तीसरा मन्दिर शान्तिनाथस्वामी का है, जिसके एक ही कंपाउंड में तीन गुम्बजदार छत्री बनी हुई हैं / इन तीनों में प्रतिष्ठा सं० 1954 में महाराज श्रीराजेन्द्रसूरीश्वरजीने की है / इसके दाहिने बगल पर भींत से लगता ही एक जूना उपासरा है, जो जैनों के बालकों को पढाने के काम में आता है। इस के अलावा गांव में हरखाजी की और मूणाजी कपूरचंद की दो छोटी धर्मशालाएँ भी हैं यहाँ से तीन मील के फासले पर पश्चिम तरफ 'मोहनखेडा' नामक पवित्र तीर्थस्थान है। यहाँ दो जिनालय और दो समाधि-मन्दिर हैं, जिनके चारों ओर एक पक्का कोट बना हुआ है / सब से बडे मन्दिर में भगवान श्रीऋषभदेवस्वामी की एक हाथ बडी सफेद वर्ण की भव्य मूर्ति प्रतिष्ठित है। इसके बाह्य-मंडपके छज्जे के नीचे एक शिला-लेख इस प्रकार लगा हुआ है। ___" ॐअहं नमः / श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय बीसा पोरवाड संघवी दल्लाजी सुत लूणाजी-नेमचंद्र चम्पालालने श्रीशत्रुजयतीर्थ-दिग्यात्रा-फलार्थ श्रीमोहनखेडा-तीर्थ स्थापन किया और संवत् 1940 मार्गशीर्ष सुदि 7 बुधवार के दिन सितपट जैनाचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के कर कमलों से प्रतिष्ठाञ्जनशलाका कराके
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________________ (46 ) मूलनायक भगवान् श्रीआदिनाथस्वामी आदि मूर्तियाँ बिराजमान की यह तीर्थ सनातन त्रिस्तुतिक-संप्रदायी राजगढ-श्रीसंघ को समर्पण किया।" - दूसरा जिनालय भगवान् श्रीपार्श्वनाथस्वामी का है / मुख्य जिनालय के दाहिनी तरफ, मंदिर की हद के बाहर श्रीराजेन्द्रसूरीश्वर-समाधि मन्दिर है। इसके मध्य में आरस की नक्सीदार सुन्दर छत्री बनी हुई है, जिसमें जाली के नीचे एक शिला-लेख लगा है / उसमें लिखा है किश्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छाचार्यविजयराजेन्द्रसूरीशः। शशिनवरसगुणवर्षे, पौषसितषष्ठीकवौ राजगढनगरे // 1 // निर्वाणमियाय तनुं, मोहनखेडापुरी संश्चके संघः। मानश्रीसदुपदेशादारसोपलै-स्तत्रैवाकरोच्छत्रीम् // 2 // श्रीमान् यतीन्द्रविजयःस्थित्वा,मासत्रयमिहजनमिथः क्लेशम् / अपनीय मुदाप्रतिष्ठाञ्जनशलाका, प्रबन्धमचीकरत्सर्वम् // 3 // चन्द्राष्टाङ्कशशाङ्कविक्रममिते वर्षे द्वितीया बुधे, ज्येष्ठे राजगढस्थसंघसुजनः शुक्ले महोत्साहतः / आहूय स्वगुरूनुदारयमिभिर्भूपेन्द्रसूरीश्वरांस्तद्धस्तेन चकार भूरिमुदितः श्रीसद्गुरोः स्थापनाम् // 4 // . संवत् 1981 में महाराज श्रीभूपेन्द्रसूरिजी की प्रतिष्ठित गुरु- मूर्ति को राजगढ के अंगतद्वेषी-धर्मभ्रष्ट दो चार चतुर्थ. स्तुतिकों ने आधी रात को जा कर खंडित कर दी। श्रीसंघ के तरफ से दूसरी हुबोहुब मूर्ति मंगाकर उसके स्थान पर
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________________ (47) फिर से विराजमान की गई है / उसकी पलाठी" ऊपर का लेख इस प्रकार है- .. “करवसुनिधिभूवर्षे मार्गशीर्षशुक्लदशम्यां तिथौ बुधवासरे राजगढवास्तव्य-त्रिस्तुतिक-जैनसंघेन प्रतिष्ठाञ्जनशलाका कारिता, कृता च श्रीविजयभूपेन्द्रसूरेरादेशात् मुनिश्रीयतीन्द्रविजयेन / " - इसके सामने महत्तरिका-प्रवर्तिनी श्रीविद्याश्रीजी का छोटा पर बडा सुन्दर समाधि-मन्दिर है। जिसमें उनकी चरण'पादुका बिराजमान है। दोनों समाधि-मन्दिरों का स्थान इतना उत्तम है, कि जहाँ दर्शकों को पूर्ण शान्ति प्राप्त होती है और दिल में वैराग्य-रस का श्रोत बहने लगता है / यहाँ की भूमि के स्पर्श, दर्शन और विश्राम करने से ऐसा मालूम होने लगता है, मानों परमपवित्र शत्रुजयगिरि की भूमि पर बैठे हुए हो / यहाँ पर कार्तिकी-पूर्णिमा, चैत्रीपूर्णिमा और पौषसुदि 7 एवं तीन मेला भी भराते हैं जिनमें अन्दाजन तीस गांवों के भावुक यात्री उपस्थित होते हैं। 6 पारां-- झाबुवा रियासत में मेघनगर स्टेशन से 10 कोश दूर यह एक छोटासा गांव है। इसमें श्वेताम्बर जैनों के 40 घर, 1 उपासरा और 1 मन्दिर है। मंदिर में मूलनायक भगवान :श्रीऋषभदेवस्वामी की श्यामरंग की अति मनोहर मूर्ति :बिराजमान है। .. ..
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________________ (48 ) 7 राणापुर-- झाबुवा रियासत का यह छोटा कसबा है जो दाहोद स्टेशन से 12 कोश और मेघनगर स्टेशन से 9 कोश दूर है / यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 45 घर, एक उपासरा, एक धर्मशाला और दो जिन-मन्दिर हैं / सब से बडा मंदिर भगवान् श्रीधर्मनाथस्वामी का, जो तालाव के किनारे पर बना हुवा है / इसकी प्रतिष्ठाञ्जनशलाका सं० 1961 में श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने की है / दूसरा घर-मंदिर एक जीर्ण उपाश्रय में है जिस में कि श्रीऋषभदेवस्वामी की प्राचीन मूर्ति बिराजमान है / गांव में पक्की सडक, पोष्ट ऑफिस और सरकारी स्कूल भी हैं। 8 कुन्दनपुर पहाडियों के मध्य में झाबुवास्टेट के दाहोद स्टेशन से 6 कोश दूर यह गाँव बसा हुआ है / यहाँ मालवीसाथ के श्वे. ताम्बरजैन के 2 घर हैं, पर येभी राणापुर जाते आते रहते हैं / उतरने के लिये सरकारी थाना और गृहस्थों का मकान मिलता है। 9 दाहोद। रतलाम से आनन्द जंक्सन को जाने वाली रेल्वे का यह दाहोद नामका स्टेशन है, इससे पाव कोश की दूरी पर यह पंचमहल जिले का छोटासा क्सबा है। यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 20 घर, एक उपासरा, दो धर्मशाला और एक मन्दिर
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________________ श्री यतीन्द्रविहार-दिग्दर्शन :goccampce@ABO@Cawomonoa90cmamoga-mognam3@0: व्याख्यान वाचस्पति मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी महाराज. 0020 ScorrecECHARGORGEON OwneORE COM Door-eceDRASOOSOCIATRIOSon-soEOCOGESTORE दर्शनार्थी प्रदर्शन, मु० दाहोद, ता. 26-1-26 OO001ODDW-9000 yeye anatap Doogendoca Pe@ D @
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________________ (49) है। मंदिर में मूलनायक श्रीपार्श्वनाथजी स्थापित हैं। यहाँ पक्की सडक चारों ओर बनी हुई है और दिन प्रतिदिन यह कसबा तरकी पर है। गवर्मन्ट के तरफसे यहाँ स्कूल नियत है। 10 गोधरा गुजरातदेश के पंचमहल जिले में रेवा-कांठा के पोजटिकल एजेन्सी का सदर स्थान और जिले में सब से बड़ा कसबा है, इसके चारों ओर जंगल है। यहाँ अस्पताल, स्कूल, मातहतजेलखाना और सरकारी कचहरियाँ हैं / कसबे के पास एक बडा तालाब भी है, जिससे खेत पकाये जाते हैं। इस कसबे का दूसरा नाम 'गउमरा भी है। इसको सं० 110 में सोलंकी राजा केशरीसिंह के द्वितीय पुत्र दलकंददेवने वसाया: और उसकी कई पीढीने यहां राज्य किया था / यहाँ श्वेताम्बर, जैनों के 70 घर, दो जिनमंदिर, एक शान्तिनाथ और दूसरा धर्मनाथ का है / एक उपाश्रय, दो धर्मशाला हैं / इनके अलावा वैष्णवों की भी बडी बडी तीन धर्मशालाएँ बनी हुई हैं। 11 टिम्बारोड रतलाम से आनंदजंक्सन को जानेवाली रेल्वे का स्टेशन है, लोगों को विश्वाम लेने के वास्ते यहाँ एक मुसाफर-खाना बना हुआ है। यहाँ स्टेशन पर श्वेताम्बरजैन का एक घर हैं, पर है बडा भक्ति करनेवाला / 12 अंगाडी. यह इसी नामकी स्टेशन से 4 फाग पर बसा हुवा
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________________ (50) है / यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 6 धर, एक उपासरा और एक घर-मन्दिर जिसमें भगवान् श्रीवासुपूज्यस्वामी की भव्य मूर्ति बिराजमान है / यहाँ एक मुसलमानों की स्कूल भी है। 13 डाकौर. गुजरातदेश के खेडा जिले में यह एक छोटा कसबा है और वैष्णवों के प्रसिद्ध तीर्थों में से एक है / यहाँ रणछोडजी का मन्दिर देखने लायक है / इसके अलावा त्रिविक्रम का मंदिर, अस्पताल, और पोष्ट ऑफिस है / प्रति महिने में यहाँ बहुत से यात्री आते हैं और कार्तिक पूनम का मेला भी होता है जिसमें दस हजार यात्री तक एकत्रित होते हैं। यहाँ पक्की सडक और रेल्वे स्टेशन भी है। गाँव में बडी बडी छः धर्मशालाएँ हैं जिनमें यात्रीलोगों के उतरने और गोदडा-बरतन का अच्छा प्रबन्ध है / 14 उमरेठ___यह एक छोटा कसबा और रेल्वे का स्टेशन है। आनंदजंक्सन से पूर्व कुछ उत्तर 14 मील के फासले यह कसबा हैं। यहाँ श्वेताम्बरजैनों के पूर्ण भक्तिवाले और धर्मजिज्ञासु पांच घर हैं और एक ऋषभदेवस्वामी का छोटा मन्दिर तथा उपासरा है। गाँव में सरकारी एक धर्मशाला (सराय) 15 भालेज-- यहाँ श्वेताम्बरजैनों के धर्मपिपासु 12 घर और श्रीशा
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________________ न्तिनाथ भगवान का एक घर-मन्दिर है। इसके अलावा एक उपासरा और एक धर्मशाला भी है। इसमें सरकारी स्कूल और उसकी मेडी पर सरकारी कचहरी है / यहाँ के जैनों को धर्मोपदेश मिलने की पूरी आवश्यकता है / साधु मुनिराजों के उपदेशाऽभाव से कितने एक श्रावक श्राविकाओं ने डाकोर की कंठियाँ भी बांध ली है। 16 बोरियावी यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 5 घर, और एक घर-मन्दिर है जिसमें एक सर्वधात की चोबीसी विराजमान है / यहाँ के जैन भी नाम मात्र के जैन हैं। 17 वरताल-- ___ यह एक छोटा गाँव है, पर स्वामीनारायण के पन्थ का भारी धाम है। इस पन्थ के एक गादी के महन्त भी यहाँ रहते हैं, जिनका सारा रंग-ढंग राजशाही है। महन्त के निवास स्थान के एक कम्पाउंड में स्वामीनारायण का दर्शनीय भव्य-मन्दिर, प्रन्थालय और साध्वाश्रम बना हुआ है / यहाँ इस मजहब के प्रति महिने में हजारों यात्री आते हैं / महंत का बगीचा, उसमें एक तालाव, और गा. त्रियों के ठहरने के लिये बडी तीन धर्मशालाएँ हैं, जिन पर महन्त का ही आधिपत्य है / यह गाँव भी महन्त का ही है। यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 15 घर, एक दो मंजिला उपासरा और एक सुन्दर जैनमन्दिर है।
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________________ 18 मेलाय-- . बडोदा रियासत के भाल जिले में यह एक छोटा गाँव है। यहाँ श्वेताम्बरजैनों के पुख्ता श्रद्धालु और भक्तिमान् 10 घर, एक उपासरा, एक धर्मशाला और एक घर-मन्दिर है। यहाँ स्वामीनारायण-पन्थ का बडा जोर है और उनका बडा एक मंदिर भी है। .16 सोजीत्रा यह एक अति सुन्दर छोटा कसबा है। यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 12 घर, एक उपासरा, एक धर्मशाला और जोडा जोड दो प्राचीन जिन-मंन्दिर हैं / मन्दिर में सफेद वर्ण की प्रभावशालिनी-भगवान् श्री महावीरस्वामी की अति सुन्दर मूर्तियाँ बिराजमान हैं, जो बहुत प्राचीन और जीवितस्वामी के नाम से पहचानी जाती हैं / इस गाँव में जैनेतरों की धर्मशाला और दिगम्बरजैनों के भी दो मन्दिर हैं। 20 ईसरवाडा इस छोटे गाँव में श्वेताम्बरजैनों के 4 घर के सिवाय जिन मन्दिर, उपासरा और धर्मशाला नहीं है / परन्तु यहाँ के जैन बडे श्रद्धालु और भक्ति करनेवाले हैं। 21 वरसडा- साबरमति नदी के कांठे से 3 मील के दूर पूर्व तरफ यह छोटा गाँव बसा हुआ है / यहाँ श्वेताम्बरजैन का एक ही घर
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________________ (53) है जो पचास घर जैसा उत्साह रखनेवाला और नामी है / इस गाँव में विश्राम के लिये महादेव की धर्मशाला सिवाय दूसरा कोई ठिकाना नहीं है। यहाँ से खंभात सीटी 14 कोस दूर है और रास्ते में गलिया', मोरज, आदरुज, बुद्धेज, ये चार छोटे गाँव आते हैं। 22 बटामण . साबरमतिनदी के पश्चिम कांठे पर 3 मील दूर यह गाँव बसा हुआ है / यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 10 घर और एक जीर्ण उपासरा है / इसके अलावा स्थानकवासियों के 10 घर और एक सरकारी स्कूल भी है। 23 बोर___इस गाँव में श्वेताम्बरजैनों के 10 घर, उपासरा और धर्मशाला एक है / इसके चारों ओर जंगली सपाट प्रदेश हैं जिसमें खारी के कारण घांस, या वृक्ष बिलकुल नहीं होते / यहाँ का जल भी प्रायः खारा है / 24 बोलाद चारों ओर की खारियों के मध्य में यह गाँव वसा हुआ है / यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 6 घर, और एक उपासरा है / इस गाँव के महाजन नाम के जैन और धर्मशून्य हैं और यहाँ के कुओं का भी जल अपेय और खारा है / 25 पीपली. यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 7 घर, एक उपासरा और एक
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________________ (14) घर-मन्दिर है / गाँव के तालाव के पास एक सरकारी बम सराय बनी हुई है जिसमें तीनसौ आदमी उतारा कर सकते हैं / नम्बर 23 से 25 तक के गाँवों में पानी की पूरी तंगी है। गरमी के मौसिम में तो पशुओं को भी पानी और चारा मिलना दुश्वार ( कठिन ) है। 26 श्रामली- . __यह छोटा गाँव है, यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 4 घर, और एक सरकारी सराय है / यहाँ के गरासिया लोग साधुओं के भक्त और धर्म के जिज्ञासु हैं / यहाँ का ठाकुर सतसंगी और समझदार है। 27 धोलेरा बंदर- यह एक प्राचीन कसबा है / प्राचीन समय में यह बडा भारी व्यापार का केन्द्र था। श्वेताम्बरजैनों के 60 घर और स्थानकवासियों के 70 घर हैं / दो उपासरा, और दो मंजिली बडी भारी एक धर्मशाला है, जिसमें पांच हजार यात्री आनन्द से ठहर सकते हैं। यहाँ एक प्राचीन भव्य जिन मन्दिर है जिसमें प्राचीन जिनमूर्तियाँ बिराजमान हैं / इस के अलावा अस्पताल, स्कूल, बोर्डिंग, गौशाला और लायप्रेरी भी है। 28 एवंदपर चारों तरफ खारियों से घिरा हुवा यह एक छोटा गाँव है, इसमें श्वेताम्बरजैनों के 5 घर हैं, जो साधु और संघ के
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________________ (15) पूर्ण भक्त हैं / यहाँ भी गरमी की मौसिम में पानी की भारी संगीरहती है। 29 बेलावदर यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 2 घर और एक छोटी धर्मशाला है। यहाँ की जंगली भूमि पर न घांस है और न झाड, जिधर दृष्टि डालो उधर केवल सपाट खारी जमीन ही नजर आती है / यहाँ पीने के लिये पानी 4 कोश दूर से आता है, पर वह भी नमक से अधिक खारा है। 30 रतनपर यहाँ जैनश्वेताम्बरों के 10 घर और एक छोटा उपासरा है। यहाँ के जैन अच्छे भावुक हैं और धर्माज ज्ञासा रखने वाले हैं। गाँव के बहार कुछ जूने आईगण भी नजर आते हैं। यहाँ के लोग कहते हैं कि पेश्तर वल्लभी नगरी का दरवाजा यहीं था। 31 बला___ यह काठियावाड में तीसरे नम्बर का स्टेट है। इसका - 1 बम्बई हाते के गुजरात प्रदेश के पास पश्चिमी भाग में यह प्रायद्वीप है। इसके उत्तर कच्छ की खाडी और कच्छ का रन, बाद कच्छ देश है। पूर्व साबरमती नदी और कांबे की खाडी बाद गुजरात देश है और दक्षिण व पश्चिम अरब का समुद्र है / इस के दक्षिण-पश्चिम के भागको, जो लगभम 100 मील लम्बा होगा, 'सौराष्ट्र देश' कहते हैं। काठियावाड की सबसे यह पोलिटिकल एजेन्सी के अधीन है / यह एजेन्सी 4 भागों में विभक्त
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________________ (16) प्राचीन नाम वल्लभीनगरी है / अब भी यहाँ प्राचीन शिला-लेख और खंडहर निकलते हैं / पेश्तर यहाँ शत्रुजय की तलेटी थी / श्रीमान् देवाचिगणिक्षमाश्रमणस्वामी ने भागमों को यही पुस्तकारूढ किये थे। यहाँ के मन्दिर में उनकी एक भव्य मूर्ति भी बिराजनान है / यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 100 घरं, 2 उपासरा, 2 धर्मशाला, 1 जैनपाठशाला, 1 कन्याशाला, 1 अस्पताल और एक जिन मंन्दिर है। मंदिर में मूलनायक भगवान् श्रीपार्श्वनाथस्वामी. की भव्य मूर्ति स्थापित है। गाँव में पकी सड़क और रेल्वे स्टेशन भी है। __ 32 चमारड़ी. यह गाँव एक छोटी पहाड़ी के नीचे वसा हुआ है / इसमें श्वेताम्बर जैनों के 4 घर, एक उपासरा और एक जिनगृहालय है। इसके अलावा गाँवसे कुछ दूर कबीर-पन्थी और दादुपन्थी के दो अखाड़े बने हुए हैं और उन्हीं के पास दो धर्मशाला यात्रियों के लिये बनी हुई हैं। 33 वरतेज- एक छोटी नदी के किनारे पर यह गाँव बसा हुआ है।.. हैं-झालावाड, हालार, सौराष्ट्र, और गोहेलवाड / जिनमें एक पोलिटिकल एसीस्टेन्ट रहते हैं जिनको जिलाजज और माजीष्ट्रेट के समान अखतियार है / काठियावाड में जैनों के शत्रुजय और गिरनार ये दो भारी तीर्थ-धाम हैं। विक्रम की 13-14 वीं सदी में काठिजाति के लोग कच्छ से आकर प्रायद्वीप में वसे, तब से इसका नाम काठियावाड पडा। इसका दक्षिण-पश्चिम भाग सौरा ( सौराष्ट्र) के नाम से प्रसिद्ध हैं /
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________________ (57 ) यहाँ भावसार श्वेताम्बर जैनों के 30 घर, एक उपासरा, दो बड़ी धर्मशाला, एक लायब्रेरी और एक भव्य कारीगिरीवाला शिखर बद्ध जिनमन्दिर है जो अति प्राचीन है और इसमें मूलनायक श्रीसंभवनाथ स्वामी बिराजमान हैं ! जो दर्शनीय और तीर्थस्वरूप हैं। 34 भावनगर बम्बई हाते के काठियावाड़ में काठियावाड़ प्रायद्वीप के पूर्व किनारे के पास कांबे की काड़ी पर पश्चिम कुछ उत्तर देशी राज्य की यह राजधानी है जो बम्बइ के गवर्नर के अधीन के देशी राज्यों में का एक कसबा है। इसको लोग ' भाऊनगर' भी कहते हैं / इसको सन् 1723 में भाऊसिंह ने अपने नाम से बसाया है / यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 700 घर और स्थानकवासियों के 300 घर हैं / शहर में छोटे बड़े नौ जिन-मन्दिर हैं। जिनमें सबसे बड़ा और रमणीय दादावाड़ी का मन्दिर है जो शहर के किनारे पर आया हुआ है। इसमें श्रीमहावीर प्रभु और आदिनाथ भगवान की मनोहर मूर्ति बिराजमान है / शहर में आनन्द प्रिन्टींग-प्रेस, जैनधर्मप्रसारकसभा, जैनात्मानन्दसभा, विजयधर्मप्रचारकसभा आदि संस्थाएँ और सरकारी लायब्रेरी देखने लायक हैं। इस के अलावा बीसा श्रीमाली बोर्डिंग, दशाश्रीमाली-बोर्डिंग, त्रिभुवन-भाणजी कन्याशाला, वृद्धिचन्द्र जैन पाठशाला, जैनशुभेच्छकमंडल आदि अच्छे प्रधन्ध से चल रहे हैं। यहाँ से कईएक साप्ताहिक और मासिक पत्र भी नियमित निकलतें हैं, जिनमें सब से पहिला नम्बर जैन ' साप्ताहिक
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________________ (68) पत्र का है जो नियम पूर्वक जैन समाज की सेवा बजा रहा है और जो चोवीस वर्ष से बिना रुकावट के जारी है / यहाँ रेल्वे स्टेशन दो हैं और कांबे की खाड़ी में बम्बई से माल के भरे स्टीमर आते जाते रहते हैं। 35 अखवाड़ा यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 3 घर और एक छोटी धर्मशाला है / जो सड़क के किनारे पर बनी हुई है। यह गाँव बिलकुल छोटा है, परंतु यहाँ के जैन भावुक और धर्मजिज्ञासु हैं। 36 गोघाबन्दर- कांबे की खाडी के किनारे पर यह एक छोटा कसबा है जो भावनगर से 8 कोश के फासले पर है। भावनगर से गोपा तक पक्की सड़क जाती है / यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 75 घर, दो बड़ी धर्मशाला और दो उपाश्रय हैं / यहाँ के जैन तीर्थमुडिये और देवद्रव्य भक्षक हैं / इतने घर होने पर भी यहाँ साधु साध्वियों को पूरा आहार-पानी नहीं मिल सकता / गाँव में अति प्राचीन तीन मन्दिर हैं जिनमें सब से बड़े जिन-मन्दिर में नक्खंडा-पार्श्वनाथ भगवान् की श्यामरंग की दो हाथ बड़ी सुन्दर मूर्ति विराजमान है। इसकी प्रतिष्ठाञ्जनशलाका सं. 1168 में श्रीमहेन्द्रसूरिजी के उपदेश से श्रीमाली माणावटी हारने कराई है। यह जूना खेड़ा है इसमें जमीन खोदते समय दश प्रतिमाएँ प्रगट हुई थीं जो बड़े मन्दिर में स्थापित हैं।
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________________ 37 तणसा यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 40 घर, एक उपासरान्औ र एक घर मन्दिर है / मन्दिर में भगवान् श्रीपार्श्वनाथस्वामी की भव्य मूर्ति विराजमान है। यह भावनगर से तलाजा जाने वाली रेल्वेसड़क के किनारे पर ही बसा हुआ है। यहाँ पोष्ट ऑफिस और थोड़ी दूर रेल्वे स्टेशन भी है। 38 त्रापज___ यह एक छोदा गाँव है जो रेल्वे सड़क के पास ही बसा हुआ है / श्वेताम्बरजैनों के यहाँ 60 घर, एक उपासरा, एक छोटी धर्मशाला और एक शिखरबद्ध जिनमन्दिर है-जिसमें भगवान् श्रीपार्श्वनाथस्वामी की मनोहर मूर्ति विराजमान है। यहाँ के जैन बड़े भावुक और श्रद्धालु हैं। 39 तलाजा भावनगर से 16 कोश के फासले पर तलाजा स्टेशन है। इससे आध मील दूर एक छोटी नदी के किनारे तालध्वजगिरी के नीचे यह गाँव बसा हुआ है। यह स्थान शत्रुजयतीर्थ की पंचतीर्थयों में से एक है जो सिद्धाचलजी के समान ही पवित्र माना जाता है / यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 60 घर, दो उपासरा और दो मंजिली-दो बड़ी धर्मशालाएँ हैं जिनमें तीन तीन हजार यात्री आराम से ठहर सकते हैं। तालध्वजगिरि (तलाजापहाड़ी) की ऊंचाई 320 फूट है। इसमें छोटी बड़ी 20 गुफा हैं और हरएक गुफा के पास पानी के टांके हैं, जिन
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________________ (10) का पानी स्वच्छ और मधुर है। इस पहाड़ी की दो चोटी ( शिखर-शृंग ) हैं। नीचेकी सपाट चोटी पर अति मनोहर जिनमंदिर है, जिसमें तीर्थनायक भगवान श्रीसुमतिनाथ की भव्य और चमत्कारिणी मूर्ति बिराजमान है / कहा जाता है कि यह मन्दिर सं० 1381 में बना है। दूसरी शंकु आकृतिवाली चोटी पर चोमुखजी का मन्दिर है और पास ही में जिन-पादुका तथा अजितनाथ भगवान् की ध्यान भूमि है। नीचे की चोटी परके कूछ दूर ढालू प्रदेश पर एक मनोहर नया मन्दिर बना हुआ है, इसी में एक भूमिगृह भी है / इसका चढ़ाव पाव कोश से कुछ अधिक है और ऊपर तक पक्का रास्ता बंधा हुआ है / ___गाँव में भी एक दिव्य जिनमन्दिर है जिसमें मूलनायक भगवान् श्रीशान्तिनाथस्वामी की भव्य मूर्ति स्थापित है। तीर्थस्थान होने पर भी यहाँ के जैन भावुक, श्रद्धालु और साधु साध्वियों की भक्ति करनेवाले हैं / यहाँ भी यात्री ठहर कर सिद्धगिरि के समान 99 यात्रा करते हैं / यहाँ का जल-वायु बहुत ही शुद्ध और निरोगी है। 4. देवलां. यहाँ श्वेताम्बरजैन के दो घर और एक जिन-मन्दिर है / यहाँ उतरने के लिये गृहस्थों के मकान सिवाय दूसरा कोई ठिकाना नहीं है / मंदिर मूर्ति छोटी, पर सुन्दर है। 41 ठासेज यह छोटा गाँव है, इसमें श्वेताम्वरजैनों के 4 घर हैं जो
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________________ किसी काम लायक नहीं हैं। साधु साध्वियों को देख कर यहाँ के जैन घर बंद कर लेते हैं / यहाँ उतरने योग्य कोई भी स्थान नहीं है। तलाजा की यात्रा के लिये जानेवाला कोई संघ यहाँ मुकाम करता है, उससे यहाँ के जैन उपाश्रय बांधने के लिये रुपये मंडा कर स्वयं ॐ स्वाहा कर जाते हैं। 42 पालीताणा. बम्बई हाते के काठियावाड़ के गोहेलवाड प्रान्त में शत्रुजय पहाड़ी की पूर्वीनेव के पास एक देशी राज्य की राजधानी है। यह काठियावाड़ के दूसरे दर्जे के राज्यों में से एक है। यहाँ के ठाकुर गोहेल राजपूत हैं। इसका स्थान, भूगोल में 21 अंश, 31 कला, 10 विकला उत्तर अक्षांस और 71. अंश, 53 कला, 20 विकला पूर्वदेशान्तर है। इसमें राजकीय मकानों को छोड़कर, शेष सब जितने बड़े बड़े मकान हैं वे जैन समाज के हैं / यहाँ जैनगुरुकुळ, जैनबालाश्रम, श्राविकाश्रम, हेमचन्द्राचार्यपाठशाला, वीरबाई पाठशाला, बुद्धिसिंहपाठशाला, तलकचंद लायब्रेरी, मोहनलाल लायब्रेरी और राजकीय महालयों के समान मोटी धर्मशाला आदि अनेक होने के कारण यह छोटा कसबा होने पर भी शहर के सदृश देख पड़ता है। ___यहाँ कुल 6 जिनमंदिर हैं. जिनमें आदिनाथ भगवान् का सब से बड़ा है, इसमें मूलनायक समेत 142 जिन-मूर्तियाँ हैं और शेष आठ मंदिरों में सब मिलकर 122 मूर्तियाँ हैं जिनमें इधर उधर देने की मूर्तियाँ भी शामिल हैं। इनके अलावा
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________________ (62) कच्छी रणसिंह की धर्मशाला के पीछे तालाव के नाम से प्रसिद्ध स्थान पर गढ के मध्य में श्रीऋषभदेवस्वामी की तीन जोड चरण-पादुका, दरबारी गुजराती निशाल के पीछे बाबा के अखाड़े के पास चून्य पत्थर के चबूतरे के ऊपर रायण के वृक्ष के नीचे श्री आदिनाथस्वामी के दो जोड़ चरण-पादुका जो जूनी तलहटी के नाम से पहिचाने जाते हैं, और श्मशान से थोड़ी दूर नदी के घांघरका-घाट पर पीलुवृक्ष के नीचे श्रीगोड़ी-पार्श्वनाथ स्वामी की चरण-पादुका यहाँ दर्शनीय हैं। गोडीजी की चरणपादुका पर आसोज और चैत्र की झोली में दशमी के दिन ओली करनेवाले श्रावक श्राविका धजा चढाते हैं। पालीताणा कसबे में भीतर और बाहर छोटी बड़ी 32 जैनधर्मशालाएँ हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं१-सेठ हेमाभाई की, कोठरियाँ २-सेठ की धर्मशाला कोठरियाँ ३-मोतीसाह सेठ की, कोठरियाँ ४-उजम बाई की, कोठरियाँ ५-जोरावरमलजी की, कोठरियाँ ६-लन्लुभाई की, कोठरियाँ / ७-हठीभाई की, कोठरियाँ ८-मोतीकड़िया की, कोठस्यिाँ १-राधनपुरी-मसालिया की, कोठरियाँ १०-चोहरा अमरचंद हठीसंग की, कोठरियाँ ११-सात मोरड़ा की, कोउरियाँ .... . .... .... .... **** ม ม ะ ะ ะ
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________________ १६-माताद चंपालालमोठरियाँ ( 63 ) १२-बदरीमलजी की, कोठरियाँ. .... १३-भावनगरी भंडारी की, कोठरियाँ.... १४-डाह्याभाई की, कोठरियाँ १५-रणसिंह देवराज की, कोठरियाँ .... १६-नरसी केशवजी की कोठरियाँ १७-गोधावाला की, कोठरियाँ .... १८-जामनगर कबुभाई की, कोठरियाँ.... १६-मोतीसुखिया की, कोठरियाँ ... २०-माणकचंद चंपालाल की, कोठरियाँ २१-कच्छी-पुरवाई की, कोठरियाँ .... २२-कोटावाला कमासा की, कोठरियाँ २३-बाबु पन्नालालजी की कोठरियाँ .... २४-बाबु माधवलालजी की, कोठरियाँ .... २५-पाटनवाला-रतनचंद की, कोठरियाँ.... २६-नहार-बिल्डिग, कोठरियाँ .... २७-जसकुँवरजी की, कोठरियाँ ... २८-मगन मोदि की, कोठरियाँ .... २९-देवसी पुनसी कच्छी की, कोठरियाँ / ३०-कच्छी दशा नरसी नाथा की, कोठरियाँ . ३१-आनंदजी कन्याणजी को बंडो, कोठरियाँ ३२-नगीनदास की, कोठरियाँ ... ... 10 . पालीताणा कसबे से 13 मील पश्चिम यह एक पहाड़ी है,
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________________ (64) जो समुद्र के जल से 1980 फुट ऊंची है / मार्ग के चढ़ाव में बेडोल पत्थर की सीढ़ियाँ हैं, जो कहीं कहीं अच्छी भी हैं। पालीताणा से पहाड़ के मूल तक पक्की सड़क बनी हुई है और दोनों तरफ वृक्षों की पंक्तियाँ लगी हुई हैं / गिरिराज के मूल में भाथा-तलहटी, दो मकान और एक छोटा बगीचा है / यहीं से गिरिराज का चढ़ाव शुरू होता है, जो रामपोल तक चार मील का है। आगे जय-तलहटी, दर्शन-मंडप, गौतमस्वामी, शान्ति, नाथ, अजितनाथ और आदिनाथ के चरण पादुका के दर्शन किये बाद.. बाबुजी का मन्दिर आता है जो मुर्शिदाबादवाले रायबहादुर धनपतिसिंह लक्ष्मीपतिसिंहने अपनी माता महेताब कुंवर के .स्मरणार्थ बनाया है। इसमें भगवान् श्रीआदिनाथस्वामी की भव्य मूर्ति विराजमान है। ____ कुछ ऊंचे चढ़ने पर एक विश्राम आता है जिसे 'धोलींपरब का विसामा... कहते हैं / यहाँ पानी की एक पो लगी है। इसके समीप ही एक छोटी देवरी है जिस में भस्त चक्रवर्ति के चरण स्थापित हैं / श्रागे इच्छाकुंड और नेमनाथ के चरण के बाद, कुमारपालकुंड और कुमारपाल विश्राम स्थल है, जो चौलुक्यवंशीय परमार्फत् महाराज कुमारपाल के बनाये कहे जाते हैं और वे लीलीपरब का विसामा इस नाम से प्रसिद्ध है / जब पर्वत की चढाई लग भग आधी रह जाती है, तब हिंगलाजदेवी की देवरी श्रांती है। यहाँ से चढ़ाई बिलकुल खड़ी और टेडी होने के कारण कुछ कठिन है। आगे रास्ते में कलिकुंड-पार्श्वनाथ के स्वरण, चारसाश्वताजिन के चरण, जिनेन्द्रटोंक, द्राविड, वारि
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________________ खिल्ल, नारद और अइमत्तामुनि की निर्वाण देवरी के दर्शन किये बाद, राम, भरत, शुकराज, थावचा और सेलक मुनि की कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाओं के दर्शन होते हैं। सब से अन्तिम हडे ( टेकरी ) पर शुकोशलमुनि के चरण और हनुमान की देवरी आती है जिसमें सिंदूर-लिप्त वानराकार हनुमान की मूर्ति है / इसी प्रकार की गणेश, भवानी प्रादि हिन्दू देव देवियों की मूर्तियाँ और कई जगह स्थापित हैं। यहाँ से आगे दो रास्ते निकले हैं-एक सीधा प्रथम टोंक को जाता है और दूसरा सव टोंकों में होकर प्रथम टोंक को जाता है / पर्वत की चोटी के दो भाग हैं। ये दोनों ही लगभग तीनसौ अस्सी अस्सी गज लम्बे हैं और सर्वत्र ही जिन-मन्दिरमय हो रहे हैं। मन्दिरों के समूह को टोंक कहते हैं / टोंक में एक मुख्य मन्दिर और दूसरे अनेक छोटे छोटे मंदिर होते हैं / यहाँ की प्रत्येक टोंक, एक एक मजबूत कोट से धिरि हुई है। एक एक कोट में कई कई दाजे हैं / इन में से कई कोट बहुत ही बड़े बड़े हैं | उनकी बनावट बिलकुल किलों के ढंग की है। टोंक विस्तार में छोटे बड़े हैं। पर्वत पर पहली टोंक सब से बड़ी है / उसने पर्वत की चोटी का दूसरा हिस्सा सब का सब रोक रक्खा है / पर्वत की चोटी के किसी भी स्थान में खड़े होकर देखा जाय तो हजारों मन्दिरों का बड़ा ही सुन्दर, दिव्य और पाश्चर्य-जनक दृश्य दिखलाई देता है। इस समय दुनिया में शायद ही कोई पर्वत होगा जिस पर इतने सघन, अगणित और
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________________ (66) बहु-मूल्य मंदिर बनवाये गये हों। पर्वत के बाहर के प्रदेशों का समूह-व्यापी दृश्य भी यहाँ से बडा ही रमणीय दिखलाई देता है। पर्वत पर की सभी टोंकों के इर्द गिर्द एक बड़ा मजबूत पत्थर का कोट बना हुआ है। कोट में गोली चलाने योग्य भवारियाँ भी बनी हुई हैं / इस कोट के कारण पर्वत एक किले ही का रूप धारण किये हुए है / टोंकों में प्रवेश करने के लिये आखे कोट में केवल दोही बडे दाजे बने हुए हैं। कोट के भीतर प्रवेश करते ही एक चौक, बाद दूसरा और दूसरे के बाद तीसरा और मन्दिर मिलते जाते हैं / मन्दिरों में इतनी प्रतिमाएँ हैं कि एक श्रद्धालु-भक्त की जिधर को नजर जाती है, उधर ही ही उसे मुक्तात्माओं के प्रतिबिम्ब दिखलाई देते हैं / कुछ समय के लिये तो मानों वह श्रापको मुक्तिनगरी का एक पथिक समझने लगता है। .. . फार्बस साहब लिखते हैं कि-.. .."प्रत्येक मन्दिर के गर्भागार में तीर्थङ्करों की एक, या अधिक मूर्तियाँ बिराजमान हैं। उदासीन वृत्ति को धारण की हुई इन संगमर्मर की मूर्तियों का सुन्दर आकार, चांदी की दीपिकाओं के मन्द प्रकाश में अस्पष्ट, परन्तु भव्य दिखलाई देता है / अगरबत्तियों की सघन सुगन्धी सारे पर्वत पर व्याप्त है। संगमर्मर के चमकीले फर्श पर भक्तिमान स्त्रियाँ सुवर्ण के शृङ्गार और विविध रंग के वस्त्र पहिन कर जगमगाहट मारती हुई और एक स्वर से, परन्तु मधुर आवाज़ से स्तवना करती हुई, नंगे पैर से धीमे धीमे '.
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________________ मन्दिरों को प्रदक्षिणा दिया करती हैं / शत्रुजय-पर्वत को सचमुच ही, पूर्वीय देशों की अद्भुत कथाओं के एक कल्पित पहाड़ की यथार्थ उपमा ही दी जा सकती है। और उसके अधिवासी मानो एका एक संगमर्मर के पुतले बन गये हों, परन्तु अप्सराएँ आकर उन्हें अपने हाथों से स्वच्छ और चमकित रखती हों, सुगन्धित पदार्थों के धूप धरती हों तथा अपने सुस्वरद्वारा देवों के शृङ्गारिक गीत गा कर हवा को गान से भरती हों ऐसा आभास होता है।" .... पर्वत पर नौ, या दश टोंक हैं / प्रत्येक टोंक में छोटे बड़े सैकड़ों मन्दिर बने हुए हैं / नौ टोंकों का संक्षेप में हाल इस प्रकार है.. पहिली-आदीश्वर भगवान् की टोंक-शत्रुजयगिरि के दूसरे शिखर पर यह टोंक बनी हुई है / यह टोंक सब से बड़ी है / इस अकेलीने ही पर्वत का सारा दूसरा शिखर रोक रक्खा है / इस तीर्थ की जो इतनी महिमा है वह इसी के कारण है। तीर्थपति आदिनाथ का ऐतिहासिक और दर्शनीय मन्दिर इसी के बीच में है / बड़े कोट के दर्वाजे में प्रवेश करते ही एक सीधा राजमार्ग जैसा फर्शबंध रास्ता दृष्टिगोचर होता है जिसकी दोनों ओर पंक्तिबद्ध सैंकड़ों मन्दिर अपनी विशालता, भव्यता और उच्चता के कारण दर्शकों के दिल एकदम अपनी और खींच लेते हैं जिससे देखनेवाला क्षणभर मुग्ध होकर मन्दिरों में बिराजित मूर्तियों की तरह स्थिर-स्तंभितसा हो जाता है / जिस मन्दिर पर दृष्टि डालो वही अनुपम मालूम होता है। किसी की कारीगरी,
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________________ (68) किसी की रचना, किसी की विशालता और किसी की उच्चता को देख कर यात्रियों के मुंह से ओ हो ! हो !! की ध्वनियाँ निकलने लगती हैं। यहाँ महाराज संप्रति, महाराज कुमारपाल, महामात्य वस्तुपाल तेजपाल, पेथडशाह, समासाह श्रादि पंसिद्ध पुरुषों के बनाये हुए महान् मन्दिर इन्हीं श्रेणियों में सुशोभित हैं। ____मन्दिरों की श्रेणियों के मध्य में चलते चलते यात्रियों को हाथीपोल नाम का बड़ा दर्वाजा देख पड़ता है जिसमें सशस्त्र पहरेदार खड़े रहते हैं। इस दाने के सामने नजर करते ही महान् मंदिर तीर्थ का मुकूटमणि है / इसी में तीर्थपती आदिनाथ भगवान की भव्य मूर्ति बिराजमान है / इसी मन्दिर के दर्शन, वन्दन और पूजन करने के लिये, भारत के प्रत्येक कोने में से श्रद्धालु जैन उस प्राचीन काल से चले आ रहे हैं जिसका हमें ठीक ठीक ज्ञान या, पत्ता भी नहीं है। कर्नल टाड कहते हैं कि " इस पर्वत की प्राचीनता और पवित्रता के विषय में जो कुच्छ ख्यातें हैं वह सब इसी बड़ी टोंक की हैं।" '... 2 दूसरी-मोतीसाह सेठ की टोंक-बम्बई में मोतीसाह नाम के सेठ बड़े भारी व्यौपारी और धनवान् श्रावक हो गये हैं। इन्होंने चीन, जापान प्रादि दूर दूर के देशों के साथ व्यापार चला कर अगणित धन प्राप्त किया था। ये एक दफे शत्रुजय की यात्रा करने के लिये संघ निकाल कर आये / उस समय अहमदावाद के.
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________________ प्रधान सेठ हठीभाई भी वहाँ पर आये हुए थे / शत्रुजय के दोनों शिखरों के मध्य में एक बड़ी भारी और गहरी खाई थी। इसे कुन्तासार की खाड़ कहा करते थे। मोतीसाह सेठ ने अपने मित्र सेठ हठीभाई से कहा कि___"गिरिराज के दोनों शिखर तो मन्दिरों से भूषित हो रहे हैं, परन्तु यह मध्य की खाई, दर्शकों की दृष्टि में अपनी भयंकरता के कारण, आंख में कंकर की तरह खटकती है / मेरा विचार है कि इसे पूर कर ऊपर एक टोंक बनवा दूं।" यह सुन कर हठीभाई सेठने कहा " पूर्वकाल में जो बड़े बड़े राजा और महामात्य हो गये हैं वे भी इसकी पूर्ति न कर सके तो फिर तुम उस पर टोंक कैसे बनवा सकते हो ?" भोतीसाह सेठ ने हंस कर जवाब दिया कि "धर्मप्रभाव से मेरा इतना सामर्थ्य है कि पत्थर से तो क्या? परन्तु सीसे की पाटों से और सकर के थेलों से इस खाई को पूरा कर सकता हूं।" बस, यह कह कर सेठने उसी दिन, वहाँ पर टोंक बांधने के लिये संघ से इजाजत ले ली और खाई को पूर्ण करने का प्रारंभ कर दिया / थोड़े ही दिनों में उस भीषण गर्त को पूर्ण कर, ऊपर सुन्दर टोक बनाना प्रारंभ की / लाखों रुपयों की लागत का बहुत ही भव्य और साक्षात् देवविमान के सदृश मन्दिर तैयार करवाया।
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________________ (70) इस मन्दिर की चारों ओर सेठ हठीभाई, दीवान अमरचंद दमणी, मामा प्रतापमल्ल आदि प्रसिद्ध धनिकोंने अपने अपने मन्दिर बनवाये / सब मन्दिरों के इर्द गिर्द पत्थर का मजबूत किला करवाया। मन्दिोरों का कार्य पूरा होने पाया था कि इतने में सेठ मोतीसाह का देहान्त हो गया / इस से उनके पुत्र सेठ खीमचंद ने बड़ा भारी संघ निकाल कर शत्रुजय की यात्रा के साथ इस रमणीय टोंक की सं० 1863 में प्रतिष्ठा करवाई। यह संघ बहुत ही बड़ा था, इसमें 52 गांवों के और संघ श्राकर मिले थे और उन सब का संघपतित्व खीमचंद सेठ को प्राप्त हुआ था / कहा जाता है कि इस टोंक के बनवाने में एक करोड़ से भी अधिक खर्चा हुआ था। इसमें 16 तो बडे बड़े मन्दिर हैं और सवासौ देवरियाँ हैं / जहाँ 80-85 वर्ष पहिले भयंकर गर्त यात्रियों के दिल में भय पैदा करता था वहीं आज स्वर्गविमानों के समान मन्दिरों को देख कर आनंद का पार नहीं रहता। 'सचमुच ही संसार में समर्थ मनुष्य क्या नहीं कर सकता / ' 3 तीसरी-बालाभाई की टोंक-गोघाबन्दर के रहनेवाले सेठ दीपचंद कल्याणजी, जिनका बचपन का नाम बालाभाई था। लाखों रुपये व्यय कर संवत् 1893 में इस टोंक को बनवाया है / इसमें छोटे बड़े अनेक मन्दिर अपने ऊन्नत शिखरों से प्राकाश के साथ बातें कर रहे हैं / इस टोंक के ऊपर के सिरे पर एक मन्दिर है, जो "अ तबाबा" का मन्दिर कहा जाता है। १-बहुत से मुर्ख लोग इसे भीम की मूर्ति समझ कर पूजते है. पर यह भीमकी नहीं, आदिनाथ भगवान की मूर्ति है।
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________________ (71) इस में आदिनाथ भगवान् की, पांचसौ धनुष जितने विशाल शरीरमान का अनुकरण करनेवाली, मूर्ति है / , यह पर्वत ही में से उकेरी गई है। यह प्रतिमा 18 फुट ऊंची है। एक घुटने से दूसरे घुटने तक 14 // फुट चौड़ी है / सं० 1686 में धरमदास सेठने इसकी अंजनशलाका करवाई है / इसकी वर्षभर में एक ही वार वैशाख सुदि 6 के दिन पूजा की जाती है / जो शजय के अन्तिम उद्धार का वार्षिक दिन गिना जाता है / यहाँ पर खड़े रह कर पर्वत के शिखर पर नजर डालने से, सभी मन्दिर मानों पवन से फरकते हुए अपने ध्वजरूप हाथों द्वारा अपने गर्भ में बिराजमान अहंबिम्बों को पूजने के लिये आव्हान कर रहे हों, ऐसा आभास होता है। 4 चौथी-प्रेमचंद मोदी की टोंक-अहमदावाद के ध निक मोदी-प्रेमचंद सेठने शत्रुजय तीर्थ की यात्रा करने के लिये एक बड़ा भारी संघ निकाला था / तीर्थ की यात्रा किये बाद उनका दिल भी यहाँ पर मन्दिर बनाने का हो गया। लाखों रुपये खर्च करें यह टोंक बनवाई और इसकी प्रतिष्ठा करवाई। इसमें छः बड़े मन्दिर और 51 देवरियाँ बनी हुई है ! इस सेठने अपनी अगणित दौलत धर्म–कार्य में खर्च की थी। कर्नलटाड साहबने अपने पश्चिम भारत के प्रवास वर्णन में लिखा है कि " मोदी-प्रेमचंद की दौलत का कुछ ठिकाना नहीं था, उसकी कीर्तिने संप्रति जैसे प्रतापी गौर उदार राजाओं की कीर्ति को भी ढॉक दी है।" .
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________________ ( 72) ' 5 पांचमी-हेमामाई सेठ की टोंक-इसको अहमदाबाद के नगर सेठ हेमाभाई ने सं० 1882 में बनवाया है और सं० 1886 में प्रतिष्ठित किया है / इसमें चार बड़े मन्दिर और 43 छोटी देवरियाँ हैं। . 6 छठी-उजमबाई की टोंक-अहमदाबाद के प्रख्यात सेठ प्रेमाभाई की फूफी उजमबाईने इस टोंक की स्थापना की / इस कारण इसका नाम -- उजमवसही ' है / इसमें नन्दीश्वरद्वीप की अद्भुत रचना की गई है / भूतलपर छोटे छोटे 57 पर्वत-शिखर संगमर्मर के बनाये गये हैं और उन प्रत्येक पर चौमुख प्रतिमाएँ स्थापित की हैं। इन शिखरों की चो तरफ सुन्दर कारीगरीवाली जाली लगाई गई हैं। इस मन्दिर के सिवाय और अनेक मन्दिर इसमें बने हुए हैं। 7 सातवीं-साकरचंद प्रेमचंद की टोंक-इसको अहभदाबाद के नगर सेठ साकरचंद प्रेमचंदने सं० 1893 में बनचाया है / इसका नाम सेठ के नामानुसार ' साकरवसही' ऐसा रक्खा गया है। इसमें तीन बड़े मन्दिर और बाकी बहुतसी छोटी छोटी देवरियाँ हैं। 8 पाठवीं-छीपावसही की टोंक- यह टोंक छोटी ही है। इसमें 3 बडे मन्दिर और 4 छोटी देवरियाँ हैं / इसे छीपा ( भावसार ) लोगोंने बनवाई है, इसलिये यह ‘छीपा. वसही ' कही जाती है / इसका निर्माण सं० 1791 में हुआ है। इसके पास एक पांडवों का मन्दिर है जिसमें पांचों पांडवों की, द्रौपदी और कुन्ती की मूर्तियाँ स्थापित हैं।
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________________ (73) 8 नवमी-चौमुखजी की टोंक-यह टोंक दो विमागों में घंटी हुई है / बाहर के विभाग को 'खरतरवसही' और अन्दर के विभाग को 'चौमुखवसही' कहते हैं / यह टोंक पर्वत के सब से ऊंचे भाग पर बनी हुई है / चौमुखवसही के मध्य में आदिनाथ भगवान का चतुर्मुख मन्दिर है / यह मन्दिर क्या है, मानों एक बड़ा भारी गढ है / इसकी लम्बाई 67 फूट और चौड़ाई 57 फूट है / इसका गुम्बज 96 फूट ऊंचा है / मन्दिर के पूर्व मंडप है जिसके पश्चिम 31 फूट लम्बा और इतना ही चौडा एक कमरा है / इस कमरे के दोनों बगलों में चबूतरे पर एक एक द्वार है। मध्य में 12 स्तंभ हैं, इसकी छत गोल गुम्बजदार है / कमरे में हो कर गर्भागार में, जो 23 फुट लम्बा और उतना ही चौड़ा है, जाया जाता है / इसमें मूर्ति के सिंहासन के कोनों के पास 4 विचित्र खंभे लगे हैं। फर्श से 56 फुट ऊंचा मूर्ति के बैठने का स्थान है / चारों ओर 4 बड़े बड़े द्वार हैं / गर्भागार की दीवार, जिस पर मूर्तियाँ बिराजमान हैं, बहुत ही मोटी है। उसमें अनेक छोटी छोटी कोठरियाँ बनी हुई हैं / फर्श में नील, श्वेत तथा भूरे रंग के सुन्दर संगमर्मर के टुकड़े जड़े हुए हैं। गर्मागार में 2 फुट ऊंचा, 12 फुट लम्बा और उतना ही चौड़ा श्वेत संगमर्मर का सिंहासन बना हुआ है / सिंहासन पर श्वेत ही संगगर्मर की बनी हुई 10 फुट ऊंची आदिनाथ भगवान की 4 मनोहर मूर्तियाँ पद्मासनासीन हैं / गर्भागार में के चारों ओर के द्वारों में से प्रतिद्वार की ओर एक एक मूर्ति का मुख है; इस लिये यह
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________________ ( 74) मन्दिर ' चौमुखवसही' के नाम से प्रसिद्ध है / यह मन्दिर, एक तो पर्वत के ऊंचे भाग पर होने से और दूसरा स्वयं बहुत ऊंचा होने से आकाश के स्वच्छ होने पर 25-30 कोश की दूरी पर से दर्शकों को दिखलाई देता है / इस टोंक को अहमदाबाद के सेठ सोमजी सवाईने संवत् 1675 में बनवाया है। .., मीराते-अहमदी से लिखा है कि " इस मन्दिर (टोंक) के बनवाने में 58 लाख रुपये लगे थे।" लोग कहते हैं कि “केवल 84000 हजार की तो रस्सियाँ ही इसके काम में आई थीं।" विक्रमसंवत् 1979 की गणनानुसार नौ टोंकों में 127 बड़े मन्दिर, 677 देवरियाँ और उनमें 8590 भव्य जिनप्रतिमाएँ, तथा 8606 चरण-पादुकाएँ हैं। प्रति महिना में यहाँ दश हजार यात्री आते जाते हैं और कार्तिकी और चैत्री पूनम के दो बड़े मेले होते हैं जिनमें 25-35 हजार यात्री एकत्रीत हो जाया करते हैं। जैनशास्त्रकारोंने लिखा है किमयूर-सर्प-सिंहाद्या, हिंस्रा अप्यत्र पर्वते / सिद्धाः सिध्यन्ति सेत्स्यन्ति प्राणिनो जिनदर्शनात् // 1 // बान्येऽपि यौवने वाघे, तिर्यग्जातौ च यत्कृतम् / तत्पापं विलयं याति, सिद्धाद्रेः स्पर्शनादपि // 2 // -मयूर, सर्प, सिंह, आदि क्रूर और हिंसक प्राणि भी, जो इस पर्वत पर रहते हैं, जिनदेव के दर्शन से सिद्ध हुए,
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________________ (75) सिद्ध होते हैं और सिद्ध होयंगे / तथा बाल, तरुण और वृद्धावस्था में, और तिथंच जाति में जो पाप किये हों वे इस सिद्धगिरि (शत्रुजय ) के स्पर्श-मात्र ही से नष्ट हो जाते हैं।' इस प्रकार इस तीर्थ की बहुत महिमा प्रन्थकारोंने लिखी है। इसी कारण यह तीर्थ संसार में सब से अधिक पवित्र और पूजनीय माना जाता है। 44 घेटी-........ ................... .... - शत्रुजय की पहाड़ी से तीन मील के फासले पर यह एक छोटा गाँव है / यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 15 घर, एक उपासरा और एक घर-मन्दिर है जिसमें श्री पद्मप्रभस्वामी की प्रतिमा स्थापित है / इसके अलावा सरकारी एक धर्मशाला और एक स्कूल है, जिनमें साधु साध्वियों के उतरने के लिये अच्छा प्रबंध है। यहाँ के जैन तीर्थ-मुंडिये और नाम मात्र के जैन हैं। 45 परवड़ी___यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 10 घर और एक उपासरा है / इसके अलावा गाँव के बहार महादेव की एक जीर्ण धर्मशाला है / गाँव में एक जिनगृह-मन्दिर है जिसमें श्री कुन्थुनाथजी की प्रतिमा स्थापित है। सफाई अच्छी है और पूजा वगैरह का इन्तिजाम उत्तम है / यहाँ के जैन भावुक और धर्मजिज्ञासावाले हैं। 46 चारोड़िया- .: . ..... यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 6 घर, एक उपासरा और एक जैने
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________________ (73) तरों की छोटी धर्मशाला है जो उतरने लायक है। यहाँ के जैन श्रद्धालु, भावुक और धर्मजिज्ञासु हैं। 47 गारियाधार_____ पालीताणा रियासत का यह एक छोटा कसबा है / यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 45 घर, एक उपासरा, एक धर्मशाला और एक शिखरबद्ध मनोहर जिनमन्दिर है जिसमें मूलनायक भगवान् श्रीशान्तिनाथस्वामी की भव्य मूर्ति बिराजमान है / 48 मोटालीलिया यहाँ स्थानकवासीजैनों के 20 घर और एक स्थानक है। इस के सिवाय वैष्णवों की एक छोटी धर्मशाला है, जो मुकाम करने लायक है / यहाँ के जैन नाममात्र के ही जैन हैं, साधु साध्वियों के लिये यहाँ आहार-पानी मिलने की पूरी कठिनाई पड़ती है। 46 अमरेली___बडोदा रियासत का यह एक छोटा कसबा है जिसमें चारों ओर पक्की-सड़कें बनी हुई हैं और उन पर ग्यास की रोशनी लगी हुई है / यहाँ पोष्ट ओफिस, रेल्वे स्टेशन अस्पताल और स्कूल भी हैं / इसके अलावा खेलकूद-स्कूल, हिन्दूवनिताश्रम, और अनाथालय देखने लायक हैं। यह एक छोटी नदी के किनारे पर बसा हुआ है। यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 50 घर, स्थानकवासीजैनों के 100 घर, दो उपासरा, दो धर्मशाला और दो सुन्दर जैन
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________________ मन्दिर हैं / बड़े मन्दिर में मूलनायक भगवान् श्रीशान्तिनारस्वामी की भव्य मूर्ति विराजमान है जो प्राचीन है। 50 आकड़िया- इस गाँव में श्वेताम्बर जैनों का एक भी घर और जिममंदिर नहीं है, परन्तु स्थानकवासी जैनों के 25 घर और एक छोटा स्थानक है / यहाँ के जैन मंदिर मार्गी साधु साध्वियों को उतरने के लिये स्थान देने में भी पाप मानते हैं / भला ! जहाँ स्थान देने में पाप समझा जाता हो, वहाँ आहार पानी की आशा रखना तो शश,गवत् ही है / 51 कुकावाव यहाँ संकुचित धृत्तिवाले, जैनेतरों से भी गये गुजरे और नाममात्र के जैन कहानेवाले स्थानकवासी जैनों के 30 घर हैं, जो हिंसकदेवों और पीर-दरगा को शिर झुकाने वाले हैं / इस से इनकी स्थिति भी साधारण है। 52 चूडा___ इस छोटे गाँव में मिथ्यादृष्टियों हिंसक देवी देवताओं के उपासक और मूर्तिपूजक साधु साध्वियों के द्वेषी स्थानकवासी मात्र नाम रखाने वाले जैनों के, अथवा यो समझिये कि जैनाभासों के 25 घर हैं। जिनके घरों में स्थानकवासी मुनि, आर्याभों को भी आहार जल मिलना दुर्लभ है, तो मंदिरमार्गी साधु साध्वियों की बात ही क्या करना ? यहाँ के जैनेतर लोग बहुत भावुक और .सतसंगी है। ..
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________________ (78) 53 राणपर यह गाँव गिरनार पहाडी के नीचे 2 मील की दूरी पर बसा हुआ है / यहाँ से गिरनार के पांचवें टोंक होकर प्रथम टोंक को एक सीधा रास्ता जाता है, परन्तु रास्ता भयंकर है। यहाँ के वासियों के सिवाय दूसरा कोई भी इस रास्ते नहीं जाता / यहाँ से पक्की सडक वडाल होकर जूनागढ़ को गई है। यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 10 घर, एक उपासरा, और एक जिनमंदिर है जिसमें शान्तिनाथ भगवान् की दिव्य मुर्ति स्थापित है। इनके अलावा यहाँ स्थानकवासी जैनों के 50 घर और एक स्थानक भी है। 54 वडाल___ यहाँ रेल्वे स्टेशन, सरकारी स्कूल, और धर्मशाला है / श्वेताम्बरजैनों के यहाँ 12 घर, स्थानकवासीजैनों के 50 घर, एक उपासरा और एक छोटा मन्दिर है। मंदिर में श्रीअजितनाथ भगवान् की मूर्ति स्थापित है। 55 जूनागढ-.. - यह सुन्दर छोटा शहर, बम्बई हाते के काठियावाड में .देशी राज्य की राजधानी है जो, काठियावाड के प्रथम दर्जे के ‘राज्यों में से एक है। यहाँ कुछ पूर्वकाल में बौद्धों का और राजपूतों का राज्य था / अपरकोट (पुराना जूनागढ) राजधानी था / सन् 1472 में अहमदाबाद के सुलतान महम्मद बेगडाने अपरकोट के राजपूतों को जीत कर वर्चमान, 'जूनागढ'
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________________ (79) बसाया / सोलहवीं सदी में अकबर के राज्य के समय यह दिल्ली के अधिकार में हुआ और गुजरात के खुबेदार के अधीन रक्खा गया / जब गुजरात से मुगलों का अधिकार उठ गया, तब सन् 1735 मे शेरखां बांबी नामक एक सिपाहीने मुगलों के गवर्नर को निकाल कर अपना अधिकार कर लिया / शेरखां के पुत्र सलावतखांने अपने वारिश पुत्र को यहाँ का नव्वाब बनाया और छोटे पुत्रों को जागीर दे दी / तभी से यहाँ नव्वाबी राज्य हुआ, जो अब तक विद्यमान है / मणिपुर, चन्द्रकेतुपुर, रैवत, जीर्णदुर्ग और मुस्तफाबाद; ये प्राचीन नाम इसी जूनागढ़ के समझना चाहिये। ___इसके पूर्व-दक्षिण गिरनार पहाड़ियाँ और पश्चिम रेल्वे लाईन है / रेल्वे के पास शहर के पश्चिम का फाटक और दक्षिण-पूर्व गिर का मेदान है / यहाँ कई मकबरे, मस्जिदें, देवालय, धर्मशाला, सदावर्त, और स्कूलें तथा एक अस्पताल और जेलखाना है / शहर के उत्तरी भागमें दूसरे बहादुरखां दूसरे हमीदखां और लाडलीबू नामक स्त्री इन तीनों के मकबरे बने हुए हैं। शहर के उत्तरवाले फाटक से 3 मील दूर बजीरसाहब का सांकरबारा नामका उद्यान है, जिस में दो मंजिले बंगला के बगलों में पानी से पूर्ण एक नाला है / उससे 50 गज के अ. न्तर पर एक जन्तुशाला में नाना जाति के जन्तु घिरे हुए हैं। सांकरबाग से दक्षिण सरदारबारा है / जिसमें गिर के जंगलों से लाकर अनेक सिंह सिंहनी घेरी हुई हैं। इसके अलावा यहाँ जमियालशाह का स्थान, महबतखां का मकबरा, नव्वाब साहब
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________________ (80) की मसजिद, अपरकोट, उसमें नूरीशाह का मकबरा, चक्करदार बावड़ी और बाबा प्यारा की गुफा देखने लायक हैं। इस राज्य का एक भाग गिर कहलाता है, इसमें सघन वृक्षों का जंगल और पहाड़ियाँ हैं। __यहाँ पर श्वेताम्बर जैनों के 125 घर, स्थानकवासी जैनों के 125 घर, दो बड़ी धर्मशाला, दो उपासरा और दो शिखरबद्ध जिनमन्दिर हैं / सब से बड़े और भव्य मन्दिर में मूलनायक भगवान् श्रीनेमनाथ स्वामी की परिकर-सहित श्यामरंग की अतिप्राचीन मनोहर मूर्ति बिराजमान है। दूसरे मन्दिर में श्रीआदिनाथ भगवान की सफेदरंग की भव्य मूर्ति स्थापित है। यहाँ जनस्वयंसेवकमंडल, जैनपाठशाला, स्त्रीउद्योगशाला, लायबेरी, और पुस्तकालय भी है / 56 गिरनारतीर्थ___ जूनागढ़ से पूर्व गिरनार पहाड़ियाँ स्थित हैं जिनमें गिर. नार-पहाड़ी 3605 फीट, योगिनिया-पहाड़ी 2527 फीट, बेंसला-पहाड़ी 2260 फीट और दत्तात्रयी ( वरदत्त ) पहाड़ी 2780 फीट समुद्र के जल से ऊंची है / इनके अलावा लक्ष्मगटेकरी आदि भी छोटी छोटी पहाड़ियाँ हैं। जूनागढ़ से 10 मील पूर्व 21 अंश, 30 कला उत्तर अक्षांश और 70 अंश, 42 कला पूर्व देशान्तर में पवित्र गिरनार पहाड़ी है और जूनागढ़ से 4 मील दूर गिरनार-तलेटी है / रास्ते में वागेश्वरी फाटक होकर पत्थर का पुल, चट्टानों पर खुदे हुए जूने शिलालेख, सोनारोखा ( स्वर्णरेखा) नदी, अनेक जैनेतर-मन्दिए
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________________ ( 81 ) दामोदरकुंड, रेवतकुंड और तापसों के अखाड़े वगैरह नजर पड़ते हैं। तलेटी पर दो जैन धर्मशाला, एक रसोड़ा भवन, एक बगीचा और एक श्वेताम्बर जैनमन्दिर, और दिगम्बर जैन मन्दिर बने हुए हैं। दोनों मन्दिरों में भगवान् श्रीनेमनाथस्वामी की भव्य मूर्तियाँ बिराजमान हैं / जो श्वेताम्बर जैन-यात्री पहाड़ पर से यात्रा करके नीचे उतरते हैं उनको रसोड़ा-भवन में ताजी रसोई जीमने को मिलती है / रसोई का सारा प्रबंध जूनागड़ की गिरनारजी जीर्णोद्धार तथा तलाटी रसोड़ा कमेटी के तरफ से नियत रसोईदार करते हैं और यात्रियों से भोजन का पैसा नहीं लिया जाता। पहाड़ के नीचे एक पक्का पत्थर का दर्वाजा बना हुआ है। यहाँ से प्रथम टोंक तक पत्थर की मजबूत सीढियाँ बनी हुई हैं और रास्ते में जगह जगह पर विश्राम स्थान बने हुए हैं। लगभग 500 फिट ऊपर पत्थर की एक छोटी धर्मशाला हैं, जहाँ से भेरवझम्पा नामक चट्टान देख पड़ती है / पूर्वकाल में अनेक अज्ञानी लोग इस चट्टान से 1000 फीट नीचे कूद कर आत्म-घात करते थे। उनका मन्तव्य था कि-जो इस प्रकार आत्म- घाव करता है वह दूसरे जन्म में राजा होता है / राजा होता है। जैनमन्दिर जूनागढ़ के मैदान से 2370 फीट और समुद्र के जल से 3000 फीट ऊपर देवकोट के घेरे का जिसको खेंगार का महल भी कहते हैं, फाटक है। फाटक से भीतर पहाड़ी के बाम-भाग की तरफ़ पश्चिम किनारे के पास जैन
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________________ (82) मन्दिरों का बड़ा घेरा और दाहिनी ओर मानसिंह का पुराना मन्दिर है / यहाँ पहाड़ी की चोटी से 600 फीट नीचे पहाड़ी के खड़े भाग के शिखर पर 16 जैन मन्दिर हैं। जिनमें सबसे बड़ा और पुराना श्रीनेमनाथ का मन्दिर है, जो 165 फीट लम्बे और 130 फीट चौड़े चौकोने आंगन में स्थित है / नेमनाथस्वामी के मन्दिर से बाये ओर तीन जिन मन्दिर हैं। जिनमें दक्षिणवाले मन्दिर में श्रीऋषभदेवस्वामी की भव्य मूर्ति बिराजमान है / इसके सामने पंचभाई का नया मन्दिर और उसके पश्चिम श्रीपार्श्वनाथस्वामी का बड़ा मन्दिर और इस से उत्तर श्रीपार्श्वनाथ का दूसरा भव्य मन्दिर है / उत्तर बगल के पास कुमारपाल राजा का सुन्दर मन्दिर है जिसका उद्धार हंसराज जेठाने सन् 1824 में कराया था / नेमनाथ भगवान् के मन्दिर के पीछे वस्तुपाल-तेजपाल का अति रमणीय नकसीदार मन्दिर जो चोमुख है और जिसमें श्रीमल्लिनाथ भगवान की दिव्य मूर्ति स्थापित है / इसके सामने अति मनोहर कोरणांवाला राजा सं. प्रति-सम्राट का मन्दिर है / इन के सिवाय पंचमेरु, मेकरवसी, संभवनाथ, संग्रामसोनी आदि मन्दिर भी दर्शनीय हैं। वस्तुपाल-तेजपाल के मन्दिर के पास से होकर कुछ ऊंचे जाने पर राजुलगुफा, उससे कुज आगे दिगम्बर जैनों का मन्दिर, उससे आगे गोमुखी आती है। यहाँ से एक रास्ता सहसावन की ओर जाता है, जो पहाड़ी की ढालू जमीन पर नीचे आया हुआ है / सहसावन में भगवान् श्रीनेमनाथ स्वामीने दीक्षा ली थी। दीक्षास्थान पर आन की सधन झाड़ी के मध्य में एक पत्थर की
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________________ (83) बनी हुई छत्री (देवरी ) में नेमनाथ भगवान की चरण-पादुका बिराजमान हैं। गोमुखी से दूसरा रास्ता रहनेमि, अंबावजी और गोरख टेकरी होकर पांचवीं टोंक को जाता है। पांचवी टोंक पर श्रीनेमनाथ भगवान का केवलज्ञान और निर्वाण कल्याणक हुआ है और नेमनाथस्वामी के वरदत्त नामक गणधर मोक्ष गये हैं। इसी से इस पहाड़ी का नाम वरदत्तटेकरी प्रसिद्ध है / जैनेतर लोग इसको दत्तात्रयी टेकरी कहते हैं / यहाँ पर वरदत्तगणधर के चरण-पादुका स्थापित हैं जिनको जैन, हिन्दू और मुसलमान सभी वांदते पूजते हैं। चरण-पादुका के पास ही एक पत्थर में नेमनाथस्वामी की एक मूर्ति भी उकेरी हुई है / सिद्धाचल के समान यह तीर्थ भी पवित्र माना जाता है। इसके कैलासगिरि, उज्जयन्तगिरि, रैवतगिरि सुवर्णगिरि और नन्दनभद्रगिरि ये प्राचीन और गुण-निष्पन्न नाम हैं। 57 जेतपुर. बम्बई हाते के काठियावाड सौराष्ट्रडिवीजन में यह एक देशी राज्य की राजधानी है जो जेतलसर जंक्सन से तीन मील पूर्व स्थित है / यहाँ रेल्वेस्टेशन है और यहाँ से राजकोट, धोराजी, जूनागढ़ को और मानपाडाको पक्की सडक गई है / यह कसवा छोटा होनेपर भी उन्नति पर है और इसमें 17 तालुकदार हैं। इसमें श्वेताम्बर जैनों के 40 घर, स्थानकवासी जैनों के 300 घर, एक उपासरा, एक धर्मशाला और एक जैनमंदिर है / मन्दिर में भूलनायक भगवान् श्रीआदिनाथस्वामी की दिव्य मूर्चि बिराजमान है।
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________________ ( 84 ) 58 गोमटा-- ___ यहाँ स्थानकवासी जैनों के 10 घर, और एक दो मंजिला छोटा थानक है / इस के अलावा एक महादेव की छोटी धर्मशाला है। यहाँ के जैन वैष्णवों से भी गये गुजरे हैं, इनके यहाँ मन्दिर मार्गी साधु साध्वियों को न आहार मिलता है और न गर्म पानी / इनसे यहाँ के वैष्णव लोग भक्ति करनेवाले और धर्मप्रेमी हैं। 56 गोंडल काठियावाड के हालार विभाग में यह देशी राज्य की राजधानी है जो जाडेजा राजपूत नरेश के ताबे में है और यह राज्य काठियावाड के प्रथम दर्जे के राज्यों में से एक है / यहाँ से राजकोट, जेतपुर, जूनागढ, धोराजी और उपलेटा को पक्की सडक गई है। यहाँ छोटे बडे 40 स्कूल, रेल्वे स्टेशन, अस्पताल और कई नामी दवाखाने हैं। इसके चारों ओर पक्की सडक और मजबूत किला बना हुआ है / यह बडा गुलजार शहर है, जो पथरीली नदी के किनारे बसा हुआ है / यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 60 घर, स्थानकवासी जैनों के 400 घर, एक उपासरा, छोटी धर्मशाला और एक जिनमन्दिर है / मन्दिर में श्री चन्द्रप्रभ भगवान् की सुन्दर मूर्ति स्थापित है। इसके सिवाय जैन पाठशाला, पुस्तकालय और लायब्रेरी भी है और जैनेतरों के यहाँ कई मन्दिर तथा धर्मशालाएँ हैं।
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________________ (85) 60 रीबड़ा____ यह एक छोटा गाँव है, इसमें स्थानकवासी जैनों के 10 घर और एक छोटा थानक है / यहाँ के जैन भावुक और भभक्तिवाले हैं। गाँव के बाहर सडक के किनारे पर सरकारी थाना और पोष्ट ऑफिस है। यहाँ भी उतरने का अच्छा सुभीता है। 61 राजकोट__काठियावाड के हालार-विभाग में यह देशी राज्य की राजधानी और काठियावाड के पोलिटिकल एजेंट का सदर स्थान है। यहाँ सिविल-स्टेशन, फौजी छावनी, जेलखाना, राजकुमार कालेज, धर्मशाला, बंगला, कई गिरजे, और दो स्कूल हैं। कसबे के पूर्वोत्तर के रजुबलीवाटरवर्क्स से राजकोट में पानी आता है। यह राज्य काठियावाड के राज्यों में दूसरे दर्जे का है और यहाँ के नरेश जाडेजा राजपूत हैं। यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 350 घर, स्थानकवासी जैनों के 800 घर, और एक ही कमरे में उपासरा, धर्मशाला, व्याख्यानालय तथा जिनमन्दिर एक एक है / मन्दिर में मूलनायक भगवान् श्रीसुपार्श्वनाथ की भव्य-मूर्ति बिराजमान है / यहाँ के श्रावक समझदार, भक्तिवाले, और बडे धर्मोत्साही हैं / यहाँ जैनपाठशाला, श्राविकाशाला, कन्याशाला, पुस्तकालय और लायब्ररी अच्छे प्रबन्ध से चल रही हैं।
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________________ (86) 62 खोराणा-- यहाँ स्थानकवासी जैनों के तीन घर और एक थानक है / यहाँ के जैन बिलकुल सामान्य स्थिति के हैं, साधु साध्वी को पाहार पानी देने तक की इनकी सत्ता नहीं है / मन्दिरमार्गी साधु साध्वी दर किनारे रहे, परन्तु स्थानकवासी साधु आर्याओं को भी पूरी मुसीबत उठाना पडती है। 63 बांकानेर___ यह कसबा मच्छुनामक नदी के किनारे पर बसा हुआ है, जो अच्छा रवन्नकदार और शहर के समान है / यहाँ पक्की सडक बनी हुई है और रल्वेस्टेशन, पोष्टऑफिस भी है / यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 125 घर, स्थानकवासीजैनों के 125 घर, एक दो मंजिला फेन्सी उपासरा, एक धर्मशाला और एक ही कमरे में शिखरबद्ध दो जिन मन्दिर हैं जिन में मूलनायक भगवान् श्रीअजितनाथस्वामी और शान्तिनाथस्वामी की भव्यमूर्तियाँ स्थापित हैं / यहाँ एक जैनसंगीतमंडली भी है जो गुजरात काठीयावाड के कई गाँवों में उस्सवों पर जाती है और अपने संगीत-गुण के कारण सर्टिफिकेट प्राप्त करती है / यहाँ पुस्तक भंडार, जैनपाठशाला, और लायब्रेरी भी है। यहाँ के जैन धर्मप्रेमी, गुणग्राही, भक्तिवान और समझदार है। 64 लूणसरी-- यहाँ स्थानकवासीजैनों के 10 घर, श्वेताम्बरजैन का 1 घर और एक छोटा उपासरा है। यहाँ के जैन साधु और साध्वियों
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________________ (87) की भक्ति करनेवाले और धर्मप्रेमी हैं / स्थानकवासी होने पर भी इस गाँव के जैनी मन्दिर-मार्गी और स्थानकवासी साधु साध्वियों की भक्ति समान भाव से और प्रेम पूर्वक करते हैं / यहाँ के जैनेतर लोग भी भक्ति-भाव वाले हैं। .. 65 सरा__यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 8 घर, स्थानकवासियों के 15 घर, एक उपासरा, एक थानक और एक शिखरबद्ध सुन्दर जैनमन्दिर है जिसमें मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभस्वामी की भव्य और प्राचीन मूर्ति विराजमान है / मन्दिर में सफाई, पूजा आदि का प्रबन्ध प्रशंसा के योग्य है / यहाँ के जैन सरल परिणामी और धर्मजिज्ञासु हैं। 66 कोंढ___ यह एक छोटा कसबा है, जो देखने में रमणीय है। यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 40 घर, स्थानकवासियों के 3 घर, एक उपासरा, एक छोटी धर्मशाला और एक शिखरवाला जिनमान्दर है। जिसमें भगवान् श्रीपार्श्वनाथस्वामी की भव्य प्राचीन मूर्ति स्थापित है / इसके अलावा गाँवके बाहर एक छोटी नदी के किनारे पर मयधर्मशाला के देखने लायक शंकर का मन्दिर है और एक पशुशाला है / यहाँ के जैन व्याख्यान सुनने, धार्मिक क्रिया करने और साधुभक्ति करने के भारी उत्सुक हैं / 67 जीवा-- ... इस छोटे गाँव में श्वेताम्बरजैनों के 8 घर, एक छोटा
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________________ (8) उपासरा और उपाश्रय के बगल में लगते ही एक जिनगृह है जिसमें श्रीशान्तिनाथ भगवान की भव्य और छोटी मूर्ति स्थापित है / जैनियों के थोडे घर होने पर भी जिन मन्दिर की पूजा वगैरह की व्यवस्था बडी अच्छी है जो प्रशंसा योग्य है / 68 ध्रांगध्रा-- यह एक बडा सुन्दर कसबा है जो एक नदी के किनारे पर वसा हुआ है / इसके चारों ओर पत्थर का पक्का कोट बना हुआ है जिसमें बाहर जाने आने के लिये चारों दिशा में एक एक दर्वाना है / यह काठियावाड के राज्यों में प्रथम दर्जे का राजस्थान है / यहाँ के नरेश झाला राजपूत हैं। शहर में अस्पताल, स्कूलें और पक्की सडकें हैं / यहाँ रेल्वे स्टेशन और शहर में तामरेल भी है / यहाँ श्वेताम्बरजैनों में तपागच्छ के 360 घर, पार्श्वचन्द्रगच्छ के 60 घर, और लोंकागच्छ के 400 घर हैं जो अपने अपने गच्छ के नियमों को पालन करने में बडे मजबूत हैं / यहाँ बडे दो मंजिले तीन उपासरे, एक धर्मशाला, दो थानक और तीन जिनमन्दिर हैं जिनमें एक में श्री संभवनाथ और दो में श्रीअजितनाथस्वामी की प्राचीन दिव्य मूर्तियाँ बिराजमान है / यहाँ के जैन विद्वान्, गुणानुरागी और सतसंगी हैं। 69 गाला यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 4 घर, एक उपासरा और एक प्राचीन जिनमन्दिर है जो संवत् 1217 का बना हुआ है।
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________________ इसमें मूलनायक भगवान् श्रीकुन्थुनाथस्वामी की भव्य और दर्शनीय मूर्ति विराजमान है। 70 देहगाम इस छोटे गाँव में श्वेताम्बरजैनों के 8 घर और सरकारी एक स्कूल है / स्कूल में उतरने की अच्छी जगह है / इस के सिवाय ठाकुरजी का मन्दिर भी विश्राम करने योग्य है / यहाँ के जैन अतिश्रद्धालु, भावुक और भक्तिवाले हैं / 71 ओडु यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 12 घर, एक उपासरा, एक छोटी सराय और एक जिनमन्दिर है जिसमें श्रीशान्तिनाथ भगवान् की भव्य मूर्ति स्थापित है। देहगाम और इसके बीच रास्ते में तीन कोश चौडी खारी आती है जिसमें सामुद्रनमक तैयार होता है / रास्ते की जमीन इतनी खारी है कि-जिस में चलने से पैरों की चमडी फट जाती है / 72 झींझूवाड़ा___ यह एक छोटा कसबा है जो पुराना है, इसके इर्द गिर्द पुराना कोट और उस के दर्बाजे अब भी टूटी फूटी दशा में मौजूद हैं, जो इस कसबे की प्राचीनता के द्योतक हैं। यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 100 घर, एक उपासरा, एक धर्मशाला और एक सुन्दर शिखर वाला जिनमन्दिर है जिस में मूलनायक भगवान् श्रीमहावीर स्वामी की दिव्य मूर्ति बिराजमान है जो प्राचीन और दर्शनीय है / यहाँ एक जैन पाठशाला भी है जि
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________________ ( 90 ) समें विद्यार्थियों को धर्मक्रिया के सिवाय सार्थ छः कर्मग्रन्थ तक अभ्यास कराया जाता है और पढ़ानेवाले प्रज्ञाचक्षु सुखलालजी पंडित हैं जो जैनप्रकरण अन्थों के अच्छे ज्ञाता हैं। यहाँ के जैनी गुणग्राही, धर्मानुरागी और विद्याप्रेमी हैं। 73 धामा यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 7 घर और एक उपासरा है। साधु साध्वियों को यहाँ किसी तरह की तकलीफ नहीं पडती क्योंकि यहाँ के थोडे घर होने पर भी श्रावक भावुक हैं और अंतरंगभाव से भाक्त करने वाले हैं। एक छोटे मंदिर में श्रीशान्तिनाथ भगवान् की भव्य प्रतिमा बिराजमान है जो दर्शनीय है / 74 भादरियापुं इसमें श्वेताम्बर जैनों के 36 घर, एक उपासरा और एक प्राचीन जिनमन्दिर है जिसमें मूलनायक भगवान् श्री शांतिनाथ स्वामी की भव्य मूर्ति स्थापित है / यहाँ के जैन विवेकशील, भक्तिशील और धर्मजिज्ञासु हैं। 75 पवित्रतीर्थ-श्रीशंखेश्वर___मुंड स्टेशन से 15 कोश और हारिजरोड से 6 कोश खुरकी रास्ते यह तीर्थ स्थान है। यहाँ एक छोटा गाँव है जो शंखेश्वर नाम से प्रसिद्ध है / इसका ऐतिहासिक वृत्तान्त इस प्रकार हैं कि-जो पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा यहाँ विद्यमान है उसको भरतक्षेत्र की गत की चोवीसी के नोवें तीर्थकर श्रीदामोदर भगवान्
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________________ (11) के उपदेश-श्रवण से अपने भावी उपकारक समझ कर आषाढी श्रावकने भराई और प्रतिष्ठाजनशलाका कराई / कितने एक काल बाद यह प्रतिमा धरणेन्द्रजी के द्वारा भगवान् श्रीकृषभदेवस्वामी के प्रपौत्र नमि विनमि विद्याधर राजाओं को प्राप्त हुई / बाद में इस दिव्य प्रभावशालिनी मूर्ति को प्रथम देवलोकाधिपति शक्रेन्द्रजीने लेजा कर अपने विमान-चैत्य में स्थापित की, वहाँ देव देवेन्द्रों से पूजी गई / कितने एक समय बाद शक्रेन्द्रने गिरनार-पर्वत के कांचनबलानक नामके शिखर पर बिराजमान की। ___तदनन्तर सूर्यविमान में, उसके बाद चन्द्रविमान में, उसके बाद उज्जयन्तगिरि पर, उसके बाद नागेन्द्र-भवन में, और उसके बाद धरणेन्द्र-भवन में यह प्रतिमा पूजी गई / बाद में पद्मावती के कहने से धरणेन्द्रजीने श्रीकृष्ण को दी। श्रीकृष्णने इस प्रतिमा का अभिषेकजल छांट कर अपनी जराविद्या से मूर्छित सेना को अच्छी की और भगवान् श्रीनेमनाथने जहाँ शंख पूर करके यादवसेना की रक्षा की थी, उसी जगह शंखपुर नामक नया गाँव बसा कर और सुन्दर मन्दिर बना कर, उसमें इस चमत्कारिणी भव्यमूर्ति को बिराजमान की। तब से यह मूर्ति श्रीशंखेश्वर-पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुई / संवत् 1151 में सज्जनमंत्रीने यहाँ के मूल मन्दिर, बावन देवरियाँ और गढ़ वगैरह का पुनरुद्धार कराया था। बाद में विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के अन्त में श्रीवर्द्धमानसूरिजी के उपदेश से महामात्य वस्तुपालने फिर से इसका उद्धार कराया था।
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________________ (12) यह तीर्थ बडीयार प्रदेशमें स्थित शंखेश्वर गाँव में है / यहाँ श्वेताम्बर जैनों के साधारण स्थितिवाले 6 घर और दो बडी धर्मशालाएँ हैं / गाँव वाली बडी धर्मशाला के बीच में शंखेश्वर-पार्श्वनाथ का दर्शनीय मन्दिर है और इसी में शेठ जीवनदास गोड़ीदास नामक शंखेश्वर-पार्श्वनाथ की पेढ़ी ( दूकान ) है जिसमें यात्रियों को बरतन और बिछोना आदि सामान नकरा से मिलता हैं / इसी के सामने धर्मशाला के बाहार एक रसोडा खुला हुआ है जिसमें यात्रियों के लिये भोजन पाने का अच्छा प्रबन्ध है / दूसरी धर्मशाला गाँव के बाहर बनी हुई है, जो प्रायः मेला सिवाय काम में नहीं आती। 76 मुजपर यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 30 घर, एक उपासरा, एक बड़ी धर्मशाला और दो जिनमन्दिर हैं / एक में श्री शान्तिनाथ और दूसरे में श्री गोडीपार्श्वनाथ भगवान् की भव्य और प्राचीन मूर्तियाँ स्थापित हैं / धर्मशाला के ऊपरी होल में एक जैनपाठशाला है जिसमें पंचप्रतिक्रमण और जीव विचार, नवतत्त्व आदि प्रकरण ग्रन्थ पढ़ाये जाते हैं। 77 हारिजरोड़ यहाँ श्वेताम्बर जैनों के व्यापार के लिये बाहर के आये हुए 15 घर, एक जिनगृह, एक छोटी दो मंजिली धर्म धर्मशाला और एक उपासरा है / मंदिर में श्री शांतिनाथ भगवान की मूर्ति स्थापित है। यहाँ रेल्वे स्टेशन, अस्पताल और पक्की सडक है / यहाँ के जन संकुचितवृत्तिवाले और द्वेषाकुल हैं।
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________________ (93) 78 जमणपुर-- __यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 10 घर, एक उपासरा, एक धर्मशाला और एक जिनमन्दिर है / मन्दिर में भगवान् श्रीचन्द्रप्रभस्वामी की दिव्य मूर्ति स्थापित है। इस गाँव के जैन साधुओं से भडकनेवाले हैं और भक्तिभाव से कोशों दूर रहनेवाले हैं। 76 अड़िया - इस गाँव में श्वेताम्बर जैनों के 20 घर, एक उपासरा और एक जिनमन्दिर है, जिसमें भगवान् श्रीशीतलनाथस्वामी की मूर्ति बिराजमान है, जो प्राचीन और दर्शनीय है / यहाँ के जैन बेसमझ, भक्तिभाव शून्य और धार्मिक प्रेम से रहित हैं। यहाँ उपदेशक की और साधु विहार की पूरी आवश्यकता है / 80 कुणघेर यह एक छोटा गाँव है, इसमें श्वेताम्बर जैनों के 10 घर, एक छोटा उपासरा और शिखरबद्ध जिन मन्दिर है, जिसमें श्रीशान्तिनाथ भगवान् की भव्य मूर्ति स्थापित है। इस गाँव के जैन धर्मभावना रहित होने से नाम मात्र के ही जैन हैं / यहाँ मन्दिर की सफाई और पूजा का प्रबंध भी ठीक नहीं हैं। 81 पाटण महसाना जंक्शन से 25 मील पश्चिमोत्तर इस नाम का रेल्वे स्टेशन है / गुजरात देश के बडौदा राज्य के काडे विभाग में सरस्वति नदी के किनारे पर यह कसबा सवडिवीजन का सदर
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________________ (94) स्थान है / यह प्रणहिलपुर-पाटन, सिद्धपुर-पाटन और अणहिलवाडा के नाम से भी विख्यात है / मुसलमानों की पुस्तकों में इसका नाम नहरवाला लिखा है / इस कसबे की विशेष प्रख्याति का कारण यहाँ के पुरातन जैनपुस्तक-भंडार और जिनमन्दिर हैं / संवत् 802 में वनराज चावडेने पाटण की स्थापना की / तभी से यहाँ के पुस्तक-संग्रह की भी स्थापना हुई / शीलगुणसूरिजी महाराज की साहाय्य से वनराजने अपने कार्य में बहुत सफलता प्राप्त की थी। नगर प्रतिष्ठा करते समय सब से प्रथम उसने जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा की थी | पंचासर नामक गाँव से श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की भव्य मूर्ति ला कर उसने अपने निर्माण किये मन्दिर में स्थापित की थी। यह गाँव पहले पाटनगर कहाता था / वनराज के पिता जयशिखर के राजत्व काल में कनौज के राजा भूआने इसे विध्वस्त कर दिया था। जिस समय पाटण की स्थापना हुई उस समय वह ऊजड पडा था / पाटण की स्थापना होनेपर थोडे ही समय में वह अच्छी तरह प्राबाद हो गया / दिन पर दिन इसकी उन्नति होने लगी / मारवाड और काठियावाड प्रादि से आ आ कर सैंकडों जैन और जैनेतर कुटुम्ब वहाँ बस गये और यह एक अच्ले शहर के समान गिना जाने लगा। नवानवृत्तिकार श्रीअभयदेवसूरिजी, द्रोणाचार्य, श्रीचन्द्रसूरिजी और मल्लधारी श्रीहेमचन्द्रसूरिजी आदि व्याख्याताओंने अपनी व्याख्या ( टीका )एँ यहीं पर रहकर लिखी थीं। वादिदेवसूरिजी ने 84000 हजार श्लोक प्रमाण का स्याद्वादरत्नाकर नामक तर्क
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________________ (95 ) ग्रन्थ यहीं पर रचा था और कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्रसूरिजीने सिद्धहेमशब्दानुशासन, काव्यानुशासन, छन्दोनुशासन, अभिधानचिन्तामणि, अनेकार्थसंग्रह, निघन्टुसंग्रह, देशीनाममाला, प्राकृतद्वाश्रयमहाकाव्य, संस्कृतद्वाश्रय-महाकाव्य, त्रिषटिशलाका-पुरुषचरित्र, योगशास्त्र, आदि अनेक ग्रन्थों की रचना इसी पाटण में की थी। कुमारपालराजा के स्थापित भंडार और त्रिभुवन-विहार, कुमार-विहार आदि सुन्दर मन्दिरों को उसके उत्तराधिकारी अजयपालने समूल नाश कर दिये थे / इस विहार ( चैत्य ) के विषय में उपदेशतरङ्गिणी-कारने लिखा है कि "पत्तने स्वपितृ-त्रिभुवनपालस्य नामाङ्कितः त्रिभुवन-विहारः कारितः / 72 देवकुलिकायुतः / तासु 24 प्रतिमारत्नमयः, 24 पित्तलसुवणेमयः, 24 रूप्यमयः, 14 भारमय्यः मुख्यप्रासादे 1 शत 25 अङ्गुलप्रमाणारिष्टरत्नमयी नेमिनाथप्रतिमा कारिता / तत्र द्रव्यव्ययः 16 कोटीप्रमाणः।" ___ इसी त्रिभुवन-विहारके अंदर कुमार-विहार था, जिसमें हेमचन्द्राचार्य प्रतिष्ठित श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की भव्य मूर्ति थी / वर्तमान में इन दोनों मन्दिरों का नाम-निशान भी नहीं रहा / ... यहाँ वर्तमान में छोटे बड़े 112 मन्दिर हैं जिनमें सब से प्राचीन पंचासरा-पार्श्वनाथ का मन्दिर है / यहाँ के सभी जिनमन्दिरों में सफाई और पूजा का बहुत ही अच्छा प्रबन्ध है / इस समय यहाँ छोटे बडे 10-12 जैनभंडार हैं। जिनमें पांच बड़े
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________________ (96) हैं। सभी भंडारों में पुस्तकों की संख्या 14000 के लगभग है, उनमें 650 ताडपत्र पर लिखी हुई हैं, बाकी काराज पर / पहिले ये भंडार यति-पूज्यों के हाथ में थे, परन्तु कुछ वर्षों से इन भंडारों का कार्यभार गृहस्थों के ऊपर है / सरकार सयाजीराव मायकवाड की आज्ञा से चिमनलाल डाह्याभाई दलाल एम. ए. ने. यहाँ के भंडारों का निरीक्षण करके महत्व के जितने ग्रन्थ थे, उनकी वि. स्तृत सूची तैयार की है। ___यहाँ के भंडारों में सब से पहिला नम्बर लघुपोशालिकगच्छ के भंडार का है, जो संघवी के पाडे में है। इसमें सब पुस्तकें ताडपत्र पर ही लिखी हुई हैं / पुस्तक ( ग्रन्थ) संख्या 413 है / ये सब पुस्तकें लकडी के तीन मञ्जूषाओं में भरी हुई हैं और ये बहुत ही पुरानी और बडे महत्व की हैं। दूसरा नम्बर वाडीपार्श्वनाथ के मन्दिर के भंडार का है जो झवेरीवाडे में है / इसमें 750 पुस्तके हैं और ये सब कागज पर लिखी हुई हैं। इस भंडार की स्थापना विक्रम की पन्द्रवीं शताब्दी में, खरतरगच्छ के प्राचार्य श्रीजिनभद्रसूरिजी के आधिपत्य में हुई जान पडती है। क्यों कि इसकी अधिकांश पुस्तकें संवत् 1480-60 के बीच में लिखी गई हैं | इन पुस्तकों के देखने से जान पड़ता है कि ये सभी ताड़पत्र पर लिखी गई पुस्तकों की प्रतिकोपी (नकल) है। इनके पत्रों का जो संख्या-क्रम है वह ताड़पत्रों के सदृश ही है। इस में साहित्य के बड़े अच्छे अच्छे ग्रन्थ हैं, अन्य भंडारों में ऐसे ग्रन्थ नहीं हैं / तीसबा नम्बर, फोफलवाड़े की श्रागली-सेरी को है। इसमें 3.035. पुस्तकें कागज पर और 22 ताड़पत्र पर
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________________ ( 97 ) लिखी हुइ हैं / सोलहवीं सदी में छदुशाह नाम के एक करोड़पति सेठ यहाँ हो गये हैं। इसकी बहुतसी पुस्तकें उसी की लिखाई हुई हैं। चौथा नम्बर, फोफलियावाड़े की वखतजी की सेरी के भंडार का है / इसमें 2686 पुस्तकें काराज पर और 137 ताड़पत्र पर आलेखित हैं / पांचवां नम्बर, सागरगच्छ के उपाश्रय के भंडार का है इसमें छोटे छोटे दो तीन संग्रह हैं जिनमें काग़ज़ पर लिखी हुई बहुतसी पुस्तकें हैं / तीसरे और चौथे नम्बर के भंडारों में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंस और गुजराती भाषा में लिखे हुए सिद्धान्त, तर्क, प्र. माण, व्याकरण, काव्य, कोश, अलङ्कार, ज्यौतिष, छन्द, इतिहास, आदि प्रायः सभी विषयों के ग्रन्थ हैं / ये सभी पुस्तकें भले प्रकार सुरक्षित हैं। ताड़पत्र पर लिखी पुस्तकों के मध्य में एक बारीक छेद में सूत या रेशम की पतली डोरी पोकर सब पत्र एक साथ बांधे हुए हैं और प्रतिपुस्तक के दोनों ओर मजबूत लकड़ी की पट्टियाँ लगा कर सूत की नाड़ियों से कपड़े की चौरस झोलियों में बांधी हुई हैं। ___यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 2000 घर, स्थानकवासी जैनों के 15 घर, दो धर्मशाला, कई उपाश्रय, जैन पाठशाळा और लायब्रेरी है / शहर में सर्वत्र नल लगे हुए हैं. लोग उन्हीं का जल काम में लेते हैं और इसी कारण यहाँ गलीचवाड़ा अधिक है। यहाँ से सवा मील के फासले पर अणहिलवाड़ा है जो राजा कुमारपाल की राजधानी था और उसका विध्वंस होने बाद
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________________ वर्तमान पाटण की स्थापना हुई है / अणहिलवाड़ा में अब भी अनेक पुरातन चिन्ह मौजूद हैं जो उसकी प्राचीन स्थिति को दिखला रहे हैं / यहाँ वणकर लोग भी जैन हैं और उनका बनवाया हुआ एक जिनमन्दिर भी है, जिसकी सार सम्भाल और पूजा आदि का खर्च वणकर लोग ही करते हैं / 82 कल्याणा यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 15 घर, एक उपासरा और एक जिनमन्दिर है, जिसमें भगवान् श्रीआदिनाथस्वामी की प्राचीन भव्य-मूत्तिं बिराजमान है / इसके अलावा गांव के बाहर एक मठ भी है जो साधु साध्वियों के उतरने लायक है / इस गाँव के जैनों को साधु उपदेश की बहुत ही जरूरत है / 83 प्राचीन तीर्थ मेत्राणा____ यह एक छोटा गाँव है, परन्तु तीर्थ के वजह से दर्शन यात्रा करने लायक है / एक विशाल धर्मशाला के बीच में सौधशिखरी एक बड़ा सुन्दर जिनमन्दिर बना हुआ है / उस में अति चमत्कारिणी और प्रभावशालिनी भगवान् श्रीऋषभदेवस्वामी की सवा फुट बड़ी सफेद वर्ण की मूर्ति बिराजमान है। इसी धर्मशाला में मन्दिर के दाहिने बगल पर मेत्राणातीर्थ की पेढी ( दूकान ) है / यात्रियों के लिये बरतन बिछोना आदि सामान पेढ़ी से नकरे पर मिलता है / इस तीर्थ की देख-रेख सिद्धपुर-संघ के हस्तक में है / यह तीर्थ पाटण-स्टेशन से 7 कोश और सिद्धपुर-स्टेशन से 5 कोश के फासले पर है / यहाँ श्वेताम्बर जैनों के साधारण स्थितिवाले चार घर हैं।
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________________ ( 99 ) 84 सिद्धपुर ऊंझा से 8 मील उत्तर सिद्धपुर-रेल्वे स्टेशन है, रेल्वे स्टेशन के पास बड़ौदा नरेश की सराय है / इससे आगे यह कसबा सरस्वति नदी के किनारे पर बसा हुआ है जो पुराना और प्रसिद्ध वैष्णव तीर्थस्थल है / इसका दूसरा नाम मातृगया भी है / सरस्वती नदी जिसका दूसरा नाम कुमारिका है जो श्राबू पहाड़ से निकल कर पालनपुर, राधनपुर के राज्य और बड़ोदा राज्य के पाटण सबडिवीजन होकर 100 मील से अधिक दक्षिण-पश्चिम वहने के पीछे कच्छ के रण में जा मिली है, यह कसबे के बाहर ही है / कसबे के पास नदी के किनारे पर पक्का घाट बंधा हुआ है / यहाँ रुद्रमहालय का खंडहर, गोविन्दराव, माधवराव और बिन्दुसार ये स्थान पुराने और देखने योग्य हैं / कसबे से एक मील दूर बिन्दुसार के पास अल्पा सरोवर नामका बड़ा तालाव है / इसके चारों ओर पक्के फाटक बने हुए हैं। यहाँ से एक मील की छेटी पर राजचन्द्र का समाधि-भवन हैं जिसमें राजचन्द्रमत के साधु सेवक रहते हैं। ___यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 25 घर, एक उपासरा, एक बड़ी धर्मशाला और दो जिन-मन्दिर हैं / सब से बड़ा मन्दिर सुल्तान-पार्श्वनाथ का है। इसका इतिहास यों प्रसिद्ध है किसुल्तान अलाउद्दीन खूनीने सिद्धपुर के रुद्रमहालय का नाश किया। उसी समय उसने पार्श्वनाथ की मूर्ति-मन्दिर को भी तोड़ने का विचार किया / इस बात का पता लगते ही सिद्धपुर के भोजकोंने अलाउद्दीन बादशाह की हाजिरी में जा कर और
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________________ (100) दीपक राग गाकर 108 दीपक प्रगट किये और उसी समय एक सांप भी प्रगट हुआ जो सुल्तान के सामने गया / इस च. मत्कार को देख कर सुल्तानने मूर्ति तोड़ने का इरादा बंद रक्खा और ये देव तो 'बादशाहों के भी बादशाह हैं' ऐसा कह कर पीछा रवाना हो गया / तभी से ये मूर्ति सुल्तान-पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध हुई। 85 समोड़ा इस छोटे गाँव में श्वेताम्बर जैनों के पांच घर हैं। यहाँ उपाश्रय, धर्मशाला और जिनमन्दिर नहीं है / यहाँ के जैन भावुक, धर्मश्रद्धालु, भक्तिवान् और गुणग्राही हैं / थोड़े घर होने पर भी साधु साध्वियों को किसी तरह की तकलीफ नहीं पड़ती। 86 लूणवा यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 20 घर, दो उपासरे और एक जिनमन्दिर है / मन्दिर में मूलनायक भगवान् श्रीवासुपूज्यस्वामी की भव्य मूर्ति स्थापित है जो विक्रम की अठारहवीं सदी की प्रतिष्ठित है। 87 कोदराम इस छोटे गाँव में श्वेताम्बर जैनों के 20 घर, एक उपासरा, और एक जिनमन्दिर है / मन्दिर में श्रीवासुपूज्य भगवान् की प्राचीन मूर्ति बिराजमान हैं। यहाँ के जैन साधु साध्वियों के पूर्ण भक्तिवाले हैं।
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________________ (101) 88 चाणशूल यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 32 घर, दो उपासरा, एक धर्मशाला और एक जिन-मन्दिर है / मन्दिर में श्रीऋषभदेव भगवान् की सुन्दर मूर्ति स्थापित है / यहाँ का जिनमन्दिर छोटा परन्तु बहुत ही अच्छा बना हुआ है जिस में पूजा आदि का अच्छा प्रबन्ध है। 89 डभाड यह एक छोटा कसबा है, इसमें श्वेताम्बर जैनों के 35 घर, दिगम्बर जैनों के 15 घर, दो उपासरा, एक छोटी धर्मशाला, एक श्वेताम्बर जिनमन्दिर है जिसमें श्रीऋषभदेव भगवान् की मूर्ति स्थापित है / यहाँ एक दिगम्बर मन्दिर भी है। 10 तारंगा-तलेटी यहाँ गाँव या बसति नहीं हैं, परन्तु टीन के पत्रों के दो केम्प बने हुए हैं / तारंगाजी की यात्रा के लिये आनेवाले यात्रियोंको यहाँ भाता मिलता है और यात्री यहाँ कुछ विश्राम लेकर तारंगा-पहाड़ी पर चढ़ते हैं। यहीं से तारंगा का चढ़ाव शुरू होता है। कितने एक यात्री अपना सर सामान यहाँ रखते हैं। तारंगा-पेढ़ी के तरफ से यहाँ बन्दोबस्त के वास्ते कुछ नौकर आदमी रहते हैं जो यात्रियों को निर्भयता से पहाड़ पर पहुंचाने के लिये साथ आते जाते हैं। 61 प्राचीनतीर्थ-तारंगा यह जैनों के प्राचीन प्रसिद्ध तीर्थों में से एक है जो सिद्धा
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________________ (102) चल और गिरनार तीर्थ के समान ही पूजनीय माना जाता है / इसके प्राचीन नाम तारणगढ़, तारंगनाग, तारांगनाग, तारणदुर्ग, तारंगढ़, तारंगक आदि हैं। यह तारंगा हिल रेल्वे स्टेशन से 2 कोश के फासले पर है और इस पहाड़ी के चारों ओर तथा ऊपर सघन झाड़ी है जिसमें वाघ, चीता, आदि जानवरों का भय अधिक है / तलहटी से लगभग एक मील ऊंचे चढ़ने बाद तारंगगढ़ का पश्चिम दर्वाजा आता है / दर्वाजे में प्रवेश करते ही दाहिने भाग की भीत में गणेशाकार यक्ष-मूर्ति और बाम भाग की भीत पर देवी की मूर्ति नजर आती है / इसी प्रकार की दो मूर्तियाँ मूल मन्दिर में प्रवेश करने के दाजे के भीतरी भाग में भी है / यहाँ से आधा मील आगे जाने पर पूर्व के बाद अग्नि कोन में जिन-मन्दिर दृष्टिगोचर होते हैं। सब से पहिले दिगम्बरों की धर्मशाला और उसके आगे जोड पर ही श्वेताम्बरीय धर्मशाला तथा मन्दिर में जाने का उत्तर दर्वाजा आता है / मुख्य मन्दिर का मुख और मुख्य दर्वाजा पूर्वदिशा सम्मुख है परन्तु यात्रियों का गमनाऽऽगमन उत्तर दाजे से ही होता है। उत्तर दर्वाजे में प्रवेश करते ही श्रीतारंगाधिपति अजितनाथ भगवान् का मुख्य मन्दिर आता है जो अपनी उच्चता के कारण मानों आकाश का स्पर्श कर रहा है। यह मुख्य मन्दिर इतना ऊंचा है कि हिंन्दुस्तान भर में इस की समानता रखनेवाला कोई मन्दिर नहीं है। इसकी ऊंचाई चोरासी हाथ से भी कुच्छ अधिक है। इसमें बिरा
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________________ (103 ) जमान वर्तमान श्री अजितनाथस्वामी की भव्य मूर्ति पांच हाथ से कुच्छ बडी है, जो ईडरगढ के राव श्रीपुंजाजी के मान्य और संघ में अग्रेसर वत्सराज संघवी के पुत्ररत्न गोविन्द संघवी की भराई हुई है, और इसकी प्रतिष्ठाञ्जनशलाका श्रीसोमसुन्दरसूरिजी महाराज के कर कमलों से हुई है। दर असल में यह तीर्थ परमाईत् महाराजा कुमारपाल का स्थापित किया हुआ है। इसके विषय में एक ऐसी कथा प्रचलित है कि 'राजा कुमारपालने शाकंबरी के राजा अर्णोराज का राज्य लेने के लिये दो चार वार चढाई की, परन्तु उसे विजय प्राप्त नहीं हुआ / तब उसके वाग्भट नामक मंत्रिने कहा कि राजन् ! पाटण के जिनालय की देवरी में मेरे पिता उदयन मंत्रि की स्थापित श्रीअजितनाथ की प्रतिमा है जो अद्भुत प्रभावशालिनी है। उसकी विधिपूर्वक पूजा करके चढाई की जाय तो बहुत जल्दी विजय होगा / मंत्रिके वचन को सुन कर कुमारपालने संकल्प किया कि यदि पूजा किये बाद चढाई करने में मेरा विजय होगा तो मैं इसके स्मारकरूप में एक तीर्थ की स्थापना करूंगा। इस प्रतिज्ञा से श्रीअजितनाथ की पूजा करके राजाने अर्णोराज पर चढाई की, जिस में राजा को शीघ्र ही विजय-लाभ मिला / कृतज्ञशिरोमणि चौलुक्यराज कुमारपालने अपनी कृत प्रतिज्ञा के अनुसार तारंगा-पहाड़ी पर अद्वितीय ऊंचाईवाला जिनमन्दिर बनवाया और उसमें निजगुरु श्रीहेमचन्द्राचार्य के
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________________ (104) हाथ से प्रतिष्ठाञ्जनशलाका कराके 108 अंगुलप्रमाण बडी भगवान् श्रीअजितनाथस्वामी की प्रतिमा बिराजमान की। कुमारपाल-प्रबन्ध में लिखा है कि-- " जिनधर्मप्राप्तौ चैकदा श्रीगुरुवन्दनायागतेन राज्ञा श्रीगुरवः श्रीअजितनाथस्तुतिं पठन्तो दृष्टाः / तदा श्रीअजितनाथबिम्बप्रभावः स्मृतिपथमायातः / हृष्टेन श्रीगुरुभ्यो विज्ञप्तं तत्स्वरूपम् / गुरुरपि हे श्रीचौलुक्यभूप ! अयं तारणदुर्गोऽनेकमुनिसिद्धि प्रापकत्वेन श्रीशत्रुञ्जयतीर्थप्रतिकृतिरूप एवेति व्याख्याते श्रीकुमारपालभूपेन तत्र कोटिसिद्धिपूतकोटिशिलादिमनोरमे भीतारणदुर्गे चतुरशीतिहस्तोच्च-एकोत्तरशताङ्गुलश्रीअजितबिम्बालङ्कृतः प्रासादः कारितः। -जिनधर्म की प्राप्ति हुए बाद किसी समय गुरुवन्दन के लिये आये हुए राजाने श्रीहेमचन्द्रसूरिजी को श्रीअाजतनाथ भगवान् की स्तुति पढते हुए देखा / उस समय राजा को अजितनाथ की प्रतिमा का प्रभाव याद आया / आनन्दित-राजाने वह हकीकत गुरु के सामने प्रगट की / गुरुने कहा राजन् ! यह तारंगा पर्वत अनेक मुनि को सिद्धिदायक होने से शत्रुजयतीर्थ का प्रतिरूप ही है / इस व्याख्या को सुन के राजा कुमारपालने करोड़ों पुरुषों को सिद्धिप्रदान करने और कोटिशिला आदि से पवित्रित तारंगापर्वत पर एकसौ एक अंङ्गल प्रमाणवाली श्रीअजितनाथ की प्रतिमा से शोभित चौरासी हाथ ऊंचा मन्दिर बनवाया /
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________________ (105 ) इस पवित्र तीर्थ पर इस समय राजा कुमारपाल की स्थापित अजितनाथप्रतिमा नहीं है / मुनिसुन्दरसूरिजी रचित श्रीतारणदुर्गालङ्कार श्रीअजितस्वामीस्तोत्ररत्न के लेखानुसार कुमारपाल स्थापित प्रतिमाको म्लेच्छोंने उठा के अलग कर दी / फिर गोविन्दसंघवीने उसी जगह दूसरी प्रतिमा प्रतिष्ठित की जो अब तक तारंगा-पर्वत पर पूजी जा रही है / तारंगा के मुख्य मन्दिर के ही बाह्य-द्वार पर दोनों और महामात्य वस्तुपाल के बनवाये हुए दो खत्तक (देवरी आकार के ताक ) हैं जिसमें सं० 1296 में जिनप्रतिमाएँ स्थापित की गई थी, परन्तु वे अब नहीं हैं, इस समय उन में यक्ष यक्षिणी की मूर्तियाँ स्थापित हैं / इसी मन्दिर के कोट के पास ही अग्निकोन में नन्दीश्वर और अष्टापद के दो छोटे मन्दिर हैं। मन्दिर से पूर्व 1 मील 'चढ़ाववाली एक टेकरी है जो पुण्यपाप की बारी के नाम से पहिचानी जाती है / इसकी टोंच पर एक देबरी है जिसमें स्थित प्रतिमा के परिकर में सं० 1275 वैशाखसुदि 3 का लेख है, देवरी के नीचे एक गुफा में चरण-पादुका भी स्थापित हैं। मुख्यमन्दिर से दक्षिण कोटिशिला और उत्तर सिद्धशिला नामकी ऊंची दो टेकरियाँ हैं जिन पर देवरियाँ बनी हुई हैं और जिनप्रतिमाएँ स्थापित हैं। इन टेकरियों पर श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों की देवरियाँ तथा प्रतिमाएँ हैं / सिद्धशिला-टेकरी के रास्ते में पत्थरों की छोटी छोटी गुफाओं में दिगम्बर-मूर्तियाँ भी दृष्टिगोचर होती
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________________ ___(106) हैं। धर्मशाला से टेकरियों के तरफ थोडी दूर जाने पर एक जीर्ण कुआ और जलकुंड दिखाई देता है / मूल-मन्दिर के पिछले भाग में कोट से लगते ही एक कमरे में छोटे पांच मन्दिर दिगम्बरों के हैं, जो श्वेताम्बरीय मन्दिरों के बाद के बने हुए हैं / मूल-मन्दिर से 2 मील दूर पश्चिम-उत्तर तारण-देवी की देवरी और एक गुफा है। जिनमें बौद्धों की मान्य देवी-देवताओं की मूर्तियाँ स्थापित हैं। मुख्यमन्दिर के सामने वाम-भाग में तारंगा की पेढ़ी है जिसमें यात्रियों के लिये बिछोना, बरतन आदि का अच्छा प्रबन्ध है / 92 टेबू तारंगा-पहाड़ी के नीचे यह एक छोटा गाँव है, यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 5 घर, एक उपासरा, एक बड़ी धर्मशाला और एक प्राचीन जिनमन्दिर है जिसमें भगवान् श्रीअजितनाथस्वामी. की पुरातन-मूर्ति बिराजमान है / पेश्तर तारंगा तीर्थ की यात्रा के लिये आने वाले यात्री और संघ इसी रास्ते से पहाड़ पर चढ़ते थे। 93 भालूसण____ यह गाँव छोटी छोटी पर्वत श्रेणि के पास बसा हुआ है। इसके चारों ओर वेलुमय प्रदेश है और खाडाखुड़ी अधिक हैं। यहाँ के मार्ग ऐसे हैं जिनमें भूले पड़ा हुआ मनुष्य फिर इच्छित स्थान पर आना कठिन है / मार्ग में जाते समय यहाँ का एक बोलाउ साथ में रखना पड़ता है जो सीधे रास्ते ले जाता है /
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________________ (107) यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 20 घर, एक छोटा उपासरा और एक जिन-मन्दिर है जिसमें श्रीऋषभदेव भगवान की प्राचीन मूर्ति स्थापित है। 14 ऊमरी-- यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 6 घर, एक उपासरा और एक जिन-मन्दिर है जिसमें भगवान् श्रीशान्तिनाथस्वामी की मूर्ति प्रतिष्ठित है / यहाँ के जैन धार्मिक भावना से रहित और साधुभक्ति से शून्य हैं। 95 नागर-मोरिया-- इस छोटे गाँव में श्वेताम्बर जैनों के 25 घर, एक उपासरा और एक जिन-मन्दिर है / मन्दिर में भगवान् श्रीअजितनाथस्वामी की भव्य मूर्ति स्थापित है। यहाँ के जैन धर्मपिपासु, श्रद्धावान् और साधु-सेवा करनेवाले हैं। 66 दाँता भवानगढ़ यह छोटा कसबा और राजस्थान है जो पहाड़ियों के मध्य में बसा हुआ है। इसके चारों ओर पहाड़ी प्रदेश और सघन जंगल हैं / जंगल में वाघ, चीता, भालु आदि जानवरों का हरवक्त भय रहता है / पहाड़ियों के ऊपरी भाग से कसबे तक भग्नावशेष जूना कोट नजर पडता है / यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 12 घर, एक उपासरा और प्राचीन जिन-मन्दिर है / मन्दिर में ऋषभदेव भगवान् की मूर्ति बिराजमान है / यहाँ मन्दिर की पूजा और सफाई का कोई प्रबंध नहीं है और मन्दिर का उद्धार
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________________ (108) होने की भी पूरी आवश्यक्ता है। इस कसबे के निवासी जैन नाम मात्र के जैन और साधारण स्थितिवाले हैं। इसके अलावा यहाँ एक दिगम्बरजैनों का भी मन्दिर है जो जीर्ण हालत में है। 97 प्राचीनतीर्थ-कुंभारिया चारों ओर पर्वत श्रेणियों से घिरा हुआ सघन झाड़ी के मध्य में बसा हुआ किसी समय यह बडा भारी शहर था / यहाँ अब भी भूशायी हजारों खंडहरों की श्रेणियाँ मौजुद हैं जिनके अवलोकन से किसी समय में हजारों की गृह-संख्या का अनुमान किया जा सकता है / खंडहरों में पुराने जमाने की 1446 इंच लंबी पहोली इंटें अब भी देख पडती हैं / इस नगरी के चोतरफ का कोट भग्नावशेष और जला हुआ दिखाई देता है / इस के प्राचीन नाम आगसन, आरासुर, पारसन आदि हैं / इस समय यह दांता-भवानगढ के राज्य में है और दश वीस झोंपड़ों के सिवाय यहाँ कोई वसती नहीं है / ____ यहाँ श्वेताम्बर जैनियों के सौधशिखरी पुरातन पांच जिनमन्दिर हैं जो कोरणी-धोरणी में श्राबू-देलवाडा के मन्दिरों से किसी प्रकार कम नहीं हैं / सब से बडा मन्दिर नेमनाथ का है जो अपनी उच्चता और कारीगिरी से सुशोभित और यात्रियों के चित्त को मोहित करने वाला है। इस में तीर्थपति श्रीनेमनाथ भगवान् की 3 हाथ बडी सफेदवर्ण की भव्य मूर्ति बिगजमान है जो सं० 1675 महासुदी 4 शनिवार के रोज श्रीदेवसूरिजी के कर-कमलों से प्रतिष्ठा जनशलाका कराके वृद्धशाखीय अोसवाल
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________________ (109) बोहरा राजमलने स्थापित की है। इसके दोनों तरफ सवा सवा हाथ बडी दो मूर्तियाँ बिराजमान हैं / मन्दिर के गभारे में चार कायोत्सर्ग ध्यान की मूर्तियाँ हैं। दीवार के दाहिने भाग में एकही पट का समवसरण है जिसमें 164 मूर्तियाँ हैं / दाहिने भाग में दर्वाजे पर एक ही पट पर 16 मूर्तियाँ है जो सं० 1345 में श्रीपरमानन्दसूरिजी के हाथ से प्रतिष्ठित हुई हैं। रंग-मंडप में एक और नन्दीश्वर का पट और दूसरी ओर देवी की भूर्ति है / दाहिने भाग की देवरी में श्रीआदिनाथस्वामी की ढाई हाथ बडी और वामभाग में 5 // हाथ बडी श्रीपार्श्वनाथ भगवान् की प्रतिमा बिराजमान है जो सं० 1675 की प्रतिष्ठित हैं / यह मन्दिर चोवीस जिनालय है और इसका दर्वाजा तिमंजिला है / ___ दूसरा मन्दिर महावीरप्रभु का है, इसके चोतरफ समवसरमा के आकार के चोवीस देवालय हैं जो प्रतिमा-शून्य हैं। इस में मूलनायक भगवान् श्रीमहावीरस्वामी की ढाई हाथ बड़ी मूर्ति स्थापित है जो सं० 1675 की प्रतिष्ठित है / गभारे के बाहर दोनों बगल में दो कायोत्सर्गस्थ और दो छोटी मूर्तियाँ भी हैं। तीसरा मन्दिर शान्तिनाथ का है, इसमें सोलह देवालय हैं जो प्रतिमा रहित है / यह देवालय सं० 1138-46 के बने हुए हैं, ऐसा इसकी परकम्मा के लेखों से विदित होता है। इसमें मूलनायक श्रीशान्तिनाथ भगवान् की सफेद वर्ण की सवा हाथ बड़ी मूर्ति बिराजमान हैं। . चौथा मन्दिर गोडी-पार्श्वनाथ का है और इसमें सफेद वर्ण
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________________ (110 ) की ढाई हाथ बड़ी श्रीपाश्वनाथस्वामी की मूर्ति स्थापित है जो सं० 1665 की प्रतिष्ठित है। इस मन्दिर की परकम्मा में भी सं० 1661 के बने हुए छोटे छोटे देवालय हैं जो खाली पडे हुए हैं / इस के रंग-मंडप में सफेद वर्ण के तीन हाथ बडे दो काउसग्गिया हैं जो बडे सुन्दर और प्राचीन है / पांचवां मन्दिर संभवनाथ का है, इसमें सफेदवर्ण की दो हाथ बडी अतिसुन्दर श्रीसंभवनाथस्वामी की मूर्ति स्थापित है। इसके गंभारे के बाहर पाठ ताक बने हुए हैं जिनमें से एक में मूर्ति बिराजमान है, बाकी खाली हैं / यहाँ के सभी मन्दिर विक्रम की ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी के बने हुए मालूम पडते हैं / यह तीर्थ आबूरोड-स्टेशन से 10 कोश और दांता-भवानगढ से 12 कोश दूरी पर हैं / यहाँ दो धर्मशाला और पाणंदजी कल्याणजी का कारखाना है / कारखाने में यात्रियों के लिये बरतन, गोदडा और सरसामान का अच्छा प्रबन्ध है / यात्रियों को यहाँ किसी तरह की तकलीफ नहीं पडती / 68 अंबावजी. यह छोटी पहाडियों के सघन जंगल में वैष्णवों का धाम है। यहाँ अंबावजी का एक छोटा मन्दिर है और इसी नामकी पोष्ट ऑफीस भी है / यह एक छोटा गाँव है परन्तु छोटी बडी 50-60 पक्की धर्मशालाओं के कारण शहर के समान देख पडता है / इस में हमेशा भिन्न भिन्न गाँवो के 200-300 यात्री पडे रहते हैं और मेला के समय में हजारों की संख्या में यात्री एक
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________________ (111 ) त्रित होते है / इस धाम में लोगों के मकानों, मन्दिर और हलवाइयों की दूकानों पर दीपक में घी के सिवाय घांसलेट या मीठा तेल जलाने की सख्त मुमानीयत है / अंबावजी के मन्दिर को महामात्य वस्तुपालने बनवाया था और कुंभारीया की तरक्की के समय यह जैनियों के अधीन था / परन्तु श्रारासणध्वंस के बाद इस पर वैष्णवोंने अपना अधिकार जमा लिया / अंबावजी भगवान् श्रीनेमिनाथस्वामी की अधिष्टायिका है, और इसका दूसरा नाम आरासुरी देवी है / यहाँ पर यात्रा के लिये जैन और विष्णु दोनों आते हैं / आबूरोड और दांता-भवानगढ से यहीं तक मोटर पाती है। यहाँ से कुंभारीया पौन मील के लगभग दूर है। यहाँ से कुंभारिया तक बैलगाडियाँ जाती हैं / 66 खराडी (आबूरोड) यह रेल्वे स्टेशन है और स्टेशन के पास ही खराडी नाम का कसबा है जो एक छोटे शहर के समान मालूम होता है। इसमें पक्की सडक सदर बाजार में बनी हुई हैं। एक अस्पताल और इसाई स्कूल भी हैं। इस के पास ही बनासनदी हैं जो सिरोही की पहाड़ियों से निकली है और दक्षिण की ओर मुडकर पाबूरोड, सांतलपुर, पालनपुर के राज्य में होकर कच्छ के रण में जा कर मिली है / यहाँ पर केसर शुगर मैन्युफैक्चरिंग कंपनी का चीनी बनाने का कारखाना, सरकारी बाग और कोठी भी है। इस कसबे में श्वेताम्बर जैनों के 20 घर और एक बडी धर्मशाला है / धर्मशाला के प्रवेश द्वार के ऊपर एक जिनगृह है जिसमें भगवान् श्रीऋषभदेवस्वामी की सुन्दर मूर्ति विराजमान है।
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________________ (112) 100 आबू ( अर्बुदगिरि ) तीर्थ जैनों के प्रसिद्ध तीर्थो में से यह एक है, जो अति पवित्र और पूजनीय माना जाता है। यह सिरोही राज्य में अर्बुदगिरि का, जिसको अर्बली कहते हैं, एक भाग है / यह अर्बली के सिल सिले से श्राबू पहाड एक तंग धाटी द्वारा अलग हो गया है / इसका ऊपरी हिस्सा लंबाई में 12 माइल और चौडाई में 2 से 3 माइल तक है / इसकी अधिक से अधिक ऊंचाई 5650 फीट है, परन्तु ऊपरी समान-भूमि की ऊंचाई 4000 फीट है / इसकी नेव के पास और ढालू बगलों में अनेक प्रकार के सघन वृक्षों की झाडींयाँ हैं जिनमें भालू, चीता, सिंह, आदि अनेक पशु रहते हैं / पहिले इसका चढाव मार्ग कठिन (विकट ) होने से यात्रियों को बडो मुसीबत पडती थी। परन्तु जब से यहाँ अंग्रेजों का सेनिटेरियम नियत हुआ और राजपूताना के एजेंट गवर्नर जनरल साहब का मुख्य निवास स्थान हुआ तब से रास्ते की दुरुस्ती और श्राबूरोड से ऊपर तक 18 मील लंधी पक्की सडक बना दी गई है जिससे आबूरोड से ऊपर तक मोटर, इक्का, गाडी सुगमता से जाती पाती हैं / पहाड के ऊपर रेजीडेन्सी, बंगलें, गिरजाधर, अवधर, मदर्से, अस्पताल, राजाओं, वकीलों और धनाढ्य लोगों के बंगले बन जाने से और स्थान स्थान पर सडके हो जाने से ईसकी मनोहरता बहुत ही बढ गई है। इन्हीं के पास ' नखी-तालाव' नाम की एक झील है जिसको लोग नैनातालाव भी कहने हैं। उसके चारों ओर वृक्ष लगे हुए हैं। हाल में झील के पास अधिक जल रहने के वास्ते पश्चिम किनारे
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________________ श्री यतीन्द्रविहार-दिग्दर्शन : व्या० वा० मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी महाराज. ALHALLA संघ सहित अाबुजी से सिरोही तरफ विहार, ता. 22-6-26
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________________ (113 ) के पास एक बांध बनाया गया है / बांध की ओर झील के मध्य भाग में 100 फीट गहरा पानी है / महियासुर के भय से देवोंने भागकर छिपने के लिये नखों (नैल ) से खोद कर इस झील को बनाई, इसी से इसका नाम 'नखी-तालाव' पडा है। नखी-तालाव से अचलगढ़ की तरफ़ जाते हुए उत्तर अंबादेवी नामक पहाड़ी की चोटी है, जो समुद्र के जल से 4720 फीट ऊंची है / इसके अधबीच में 450 सीढ़ियाँ चढ़ने पर अधरदेवी का मन्दिर और उसके पास ही एक छोटी गुफा है / इस मन्दिर में अंबिकादेवी की खड़ी श्याम वर्ण की मूर्ति है, जिसे लोग अर्बुदादेवीया अधरदेवी कहते हैं / इसके दर्शन के लिये जैनेतर यात्री बहुत आते हैं। अधरदेवी से लगभग एक मील उत्तर-पूर्व में देलवाडा गाँव है, जो जैनदेवालयों से ही प्रसिद्ध है। यहाँ श्वेताम्बर जैनों के पांच छः मन्दिर हैं। उनमें कारीगिरी की दृष्टि से विमलशाह और तेजपाल का मन्दिर सारे भारत र्ष में अधिक प्रसिद्ध है / धंधुक से जमीन खरीद करके विमलशाहने करोड़ों रुपया लगा कर आदिनाथभगवान् का सौधशिखरी मन्दिर बनवाया है, जो 140 फीट लंबे और 90 फीट चौड़े एक आंगन में स्थित है / इसके चारों ओर फिरती 55 देवरियाँ हैं, जो समय समय पर अलग अलग लोगों की बनाई हुई हैं। इसके प्रवेशद्वार के सामने मुरब्वा-मण्डप में एक हस्तिशाला है / जिस में सफेद मार्बुल के 4 फीट उंचे 6 हाथी हैं, जो सं० 1205 से
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________________ (114 ) 1237 तक के बने हुए हैं और वे नेढक, आनन्दक, पृथ्वीपाल, धीरक, लहरक, मानक; आदि महामात्यों के बनवाये हुए हैं। प्रत्येक हाथी पर विमलशाह और उनके वंशजों की मूर्तियाँ स्थापित हैं / इसीके वाम भाग पर एक छोटा आदिनाथ भगवान् का मन्दिर है / विमलशाह के मन्दिर का कुछ हिस्सा म्लेच्छोंने खण्डित कर दिया था / उसको महणसिंह के पुत्र लल्लने सुधराया ऐसा विविधतीर्थकल्प में लिखा है / इस मन्दिर के बगल में थोड़ी दूर श्रीनेथमनाथ भगवान् का दिव्य मन्दिर है, जो 'लूणगवसही' के नाम से प्रसिद्ध और महामात्य वस्तुपाल तेजपाल का बनवाया हुआ है / इसके चोतरफ़ 52 देवरियाँ हैं और मन्दिर के भीतरी मुख्य प्रवेशद्वार के दोनों बगल में उत्तम कारीगिरीवाला एक एक ताक है, जो देराणी जेठाणी के आलिये कहाते हैं। इन ताकों को तेजपालने अपनी दूसरी स्त्री सुहड़ा देवी के श्रेयो निमित्त बनवाये हैं। सुहड़ादेवी पाटण के रहनेवाले मोढ़जाति के ठक्कुर जाल्हण के पुत्र ठाकुर भासा की लड़की थी। इस मन्दिर में पिछली बगल में एक हस्तिशाला के अन्दर संगमर्मर को उत्तम कारीगिरी वाली एक ही पंक्ति में 10 हथनियाँ खड़ी हैं / हथनियों की पूर्व दीवार में 10 ताक हैं, जिनमें पुरुषों सहित 10 स्त्रियों की खड़ी मूर्तियाँ हैं और उन सब के हाथ में पुष्पों की मालाएँ हैं। इनमें प्रत्येक मूर्तियाँ पर पुरुष और स्त्रियों के नाम खुदे हैं / कहा जाता है कि यह स्मारकचिह्न वस्तुपाल तेजपाल के कुटुम्ब का है / मुसलमानों से तोड़े गये इस मन्दिर के हिस्से का
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________________ (115) उद्धार चण्डसिंह के पुत्र पेथड़संघपतिने कराया है / इन दोनों मन्दिरों के विषय में युरोपियन विद्वानों का कहना है कि "इन मन्दिरों में, जो संगमर्मर के बने हुए हैं, अत्यन्त परिश्रम सहन करनेवाली हिन्दुओं की टांकी से फीते जैसी बारीकी के साथ ऐसी मनोहर प्राकृतियाँ बनाई गई हैं कि उनकी नकल कागज पर बनाने को कितने ही समय तथा परिश्रम से भी मैं शक्तिवान् नहीं हो सका।" फर्गसन-साहेब. " इनके गुम्बज का चित्र तैयार करने में लेखिनी थक जाती है और अत्यन्त परिश्रम करनेवाले चित्रकार की कलम को भी महान् श्रम पडेगा" कर्नल-टोड. " इन मन्दिरों की खुदाई के काम में स्वाभाविक निर्जीव पदार्थों के चित्र बनाये हैं, इतना ही नहीं किन्तु सांसारिक जीवन के दृश्य, व्यापार और नौका शास्त्र सम्बन्धी विषय, एवं रणखेत के युद्धों के चित्र भी खुदे हुए हैं। इनकी छतों में जैनधर्म की अनेक कथाओं के चित्र भी खुदे हुए हैं।" फार्बस-साहेब. वस्तुपाल के मन्दिर से थोड़ी दूर ही बगल में भीमाशाह का जिसको लोग भेसाशाह कहते हैं, बनवाया हुआ मन्दिर है। इसमें 108 मन तोल की सर्वधात की परिकर सहित मय
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________________ ( 116) पंचतीर्थी के भगवान् श्रीआदिनाथस्वामी की अतिमनोहारिणी भव्य मूर्ति विराजमान है, जो सं० 1526 में श्रीमालजाति के मंत्री मण्डन के पुत्र मंत्री सुन्दर और गन्दाने स्थापित की है। इसके अलावा यहाँ के कारखाना के सामने की बगल पर तिमजिला चोमुखजी का और श्रीशान्तिनाथ भगवान का सौधशिखरी जिनमन्दिर है / यहाँ पर अहमदाबाद वाले हठीसिंह केशरीसिंह की बडी और पञ्चायती छोटी; एवं दो श्वेताम्बर जैनधर्मशालाएँ और धर्मशालाओं से कुछ दूर दिगम्बरीय मन्दिर है, जो छोटी धर्मशाला के भीतरी कमरे में ही है। देलवाडा से 5 मील उत्तर-पूर्व में अर्बुदाचल की 'अचलगढ़' नामक चोटी है, जो समुद्र के जल से 4688 फीट ऊंची है / इसके नीचे ढालू भूमि पर पहाड से लगते ही श्रीशान्तिनाथ भगवान का सुन्दर मन्दिर है, जो परमार्हत् राजा कुमारपाल का बनवाया हुआ है / इसमें तीन मूर्ति पद्मासनस्थ और मण्डप में दो कायोत्सर्गस्थ हैं। जिन में एक पर सं० 1302 का लेख है / इससे थोडी दूर अचलेश्वर महादेव का मन्दिर, इसके बगल में मन्दाकिनी नामका कुंड है। जिसके तट पर राजा धारावर्ष की धनुषसहित मूर्ति और पत्थर के तीन भैसे खडे हैं / तट के पास ही मानसिंह का शिवमन्दिर है, जो सं० 1634 में धारबाईने बनवाया है / अचलेश्वर के बगल से अचलगढ़ तक पत्थर की मजबूत सीढ़ियाँ बनी हुई हैं, जो उपर चढ़ने का सुन्दर मार्ग है / गणेशपोल से अचलगढ़ की चढ़ाई शुरू होती है। मार्ग में दाहिने भाग पर लक्ष्मीनारायण का मन्दिर और
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________________ (117 ) उसके आगे एक छोटा गाँव आता है। यहाँ एक छोटी धर्मशाला में अचलगढ़ का कारखाना और श्रीकुन्थुनाथस्वामी की सर्वधात की प्रतिमा बिराजमान है जिस पर सं० 1527 का लेख है / ___ आगे ऊंचे जाने पर पहाड़ के शिखर के पास एक जैन धर्मशाला और उससे ऊपर मन्दिरों में जाने की पोल अाती है। यहाँ मय कारतुस-बन्दूक और तलवार के पहरेदार रहते हैं, जो मन्दिर और यात्रियों की रक्षा के लिये कारखाने के तरफ़ से नियत हैं। इससे कुछ आगे जाने पर श्रीशान्तिनाथ और नेमनाथस्वामी के मन्दिर के दर्शन होते हैं / यहाँ से पन्द्रह सीड़ियाँ चढ़ने पर इस गढ़ का मुकुटमणि दोमंजिला चोमुखमन्दिर है, जिसकी ऊपर की छत पर खड़े होकर देखने से दूर दूर गाँवों और आबू के सुन्दर दृश्य दृष्टिगोचर होते हैं। इसके दोनों खंडों में सर्वधात की अतिरमणीय 14 प्रतिमा बिराजमान हैं, जो तोल में 1444 मनकी मानी जाती हैं / ये प्रतिमाएँ बिलकुल स्वर्ण के समान चमकती हुई हैं और इनमें सब प्रतिमाएँ सं० 1518 और 1566 की प्रतिष्ठित हैं। नयी जैन धर्मशाला के सामने के रास्ते से कुछ ऊंचे चढ़ने बाद सावन, भादवा नामके दो जलासय आते हैं, जिनमें सदा जल रहता है / पर्वत-खिखर के पास टूटा हुआ जूना किल्ला है, जो मेवाड़ के महाराणा कुम्भकर्णने सं० 1506 में बनवाया था। यहाँ से नीचे के ढाल में पहाड़ को काट कर बनाई हुई दो मंजल की एक छोटी गुफा है, जो हरिश्चन्द्र की गुफा के नाम से
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________________ ( 198) प्रसिद्ध है / अचलगढ़ गाँव के नीचे के हिस्से में एक छोटी बगीची और छोटा तालाव भी है / यहाँ के कारखाने में सब बात का शुभीता होने पर भी यात्री रात नहीं रहते, किन्तु पूजा करके वापिश देलवाड़े आकर ठहरते हैं। अचलगढ़ से दो मील उत्तर में अोरिया नामका गाँव है / यहाँ महावीरस्वामी का मन्दिर है-जिसमें मूलनायक श्रीमहावीर भगवान् , उनके आजू बाजू पार्श्वनाथ और शान्तिनाथ की मूर्तियाँ बिराजमान हैं। यहाँ से 3 मील सब से ऊंची और विकट चढ़ाववाली पर्वत की गुरुशिखर नामक चोटी है / जिसपर दत्तात्रय के चरणचिह्न हैं और इस पर कई बावे पड़े रहते हैं / इसके सिवाय गौतम, गोमुख और वास्थानजी आदि वैष्णवों के मी कई धर्मस्थान हैं, जहाँ हजारों वैष्णवयात्री आते हैं। वास्थानजी में 18 फीट लम्बी, 12 फीट चौड़ी और 6 फीट ऊंची एक सुन्दर गुफा है, जो देखने लायक है / 101 अनादरा___ आबू पहाड़ के नीचे पहाड़ से 1 मील दूर यह छोटा गाँव है / इसमें श्वेताम्बर जैनों के 40 घर, एक उपासरा, दो धर्मशाला और एक प्राचीन जिनमन्दिर है। मन्दिर में श्री ऋषभदेव भगवान की मूर्ति स्थापित है / आबूरोड़ की सड़क नहीं थी, उस समय यात्री इसी रास्ते होकर पहाड़ पर जाते थे / देलवाहावाले वस्तुपाल के मन्दिर के शिला-लेख में जो विक्रम सं० 1287 का है, इस गाँव का नाम ' हंडाउद्रा' मिलता है /
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________________ ( 119) 102 पालरी ___ यह छोटा गाँव है इसमें श्वेताम्बर जैनों के 5 घर, एक धर्मशाला और एक पुराना मन्दिर है-जिसमें शान्तिनाथ भगवान् की प्राचीन प्रतिमा स्थापित है / यहाँ मन्दिर में पूजा का प्रबन्ध अच्छा नहीं है और मन्दिर में पूरा कचरा भी नहीं निकलता। 103 सीरोड़ी-- .. यह सिरोही रियासत का छोटा कसबा है, जो एक छोटी टेकरी के नीचे बसा हुआ है / इस में श्वेताम्बर जैनों के 70 घर, 2 उपासरे, एक धर्मशाला और एक प्राचीन जिनमन्दिर है / मन्दिर में मूलनायक भगवान् श्रीपार्श्वनाथस्वामी की भव्य मूर्ति स्थापित है / इसमें छोटी बड़ी सोलह मूर्तियाँ हैं, जो सं० 1287-1308 के बीच की प्रतिष्ठित हैं। इस मन्दिर पर / सं० 1973 में प्रतिष्ठा पूर्वक ध्वजादंड और कलश फिर से चड़ाये गये हैं / मन्दिर के मण्डप में उसी समय का दाहिने भाग पर एक शिला-लेख लगाया गया है / जिसकी नकल इस प्रकार है " अर्बुदात्पश्चिमे भागे, सिरोही राज्यमण्डले / वापीकूपतड़ागादिरम्योपाश्रयशोभिते // 1 // आवासैः श्रावकानां च, मध्ये चत्वरशोभिते / सिरोड़ीनगरे रम्ये, जिनदेवालयैर्युते // 2 // तत्त्रत्य श्रावकानां च, प्रार्थनेन समागताः / भट्टारकपदेनाढ्यतपोगच्छीयमण्डले // 3 //
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________________ (120 ) राजेन्द्रसरिशिष्येषु, यतीन्द्रविजयाभिधाः। भुवनामृतविजयास्तथा तदनुगाः सदा // 4 // सर्वे सम्प्राप्य तत्रैव, सिरोड़ीनगरे खलु / मन्दिरे पार्श्वनाथस्य, जीणे दण्डेन खण्डिते // 5 // ध्यगाकेन्दुमिते वर्षे, ज्येष्ठे मास्यसिते दले / प्रतिपद्गुरुणा युक्त, मुहुर्ते विजयाभिधे // 6 // महोत्सवं च पूजां च, कारयित्वा विधानतः। सुवर्णदण्डकलशारोहणं कारितं च तैः // 7 // " गाँव के बाहर सिरोही जानेवाली सड़क के दाहिने भाग में एक सुन्दर मन्दिर है, जिसमें बिना गढ़ा हुआ एक पत्थर स्थापित है जो वामनवाड़ के नाम से पूजा जाता है / लोग कहते हैं कि कारीगर ( सलावट ) इसकी महावीर प्रतिमा बनाने लगे, परन्तु टांकियाँ इस पर बेकार हो गई और टूट गई, बहूत प. रिश्रम करने पर भी यह गढ़ा नहीं गया तब लोगोंने इसको बिना गढ़ा हुआ ही ज्यों का त्यों स्थापित कर दिया / 104 मेड़ा इस छोटे गाँव में श्वेताम्बर जैनों के 20 घर, एक उपासरा और एक जिन मन्दिर हैं-जिसमें भगवान् श्रीशान्तिनाथस्वामी की मूर्ति स्थापित है जो अर्वाचीन है / यहाँ से 4 मील के फासले पर बाबू की छोटी त्रिकोण पहाड़ियों के बीच में हमीरगढ़' नामक स्थान है जो किसी समय बड़ा आबाद शहर था। अभी यहाँ खंडहरों के सिवाय बिलकुल आबादी नहीं है। इसके
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________________ ( 121 ) चारों ओर जंगल है, इसका मार्ग भी कंकटमय, भयकर, और. कंकरीला है। यह सिरोही से 9 मील दूर है। ___इस समय इस स्थान पर चार जैनमंदिर, एक जैनधर्मशाला, एक सुन्दर और छोटा हिन्दुदेवल तथा टेकरी पर ध्वंसावशिष्ट किला मौजूद है / यहाँ के जैनमंदिरों में से तीन जिनमन्दिर पर्वत की ढालू जमीन पर स्थित हैं-जिनमें ऐक सब से बडा मकराणा पाषाण का सुंदर नकशीदार है और सब से पुराना है / वाकी दो मन्दिर अर्वाचीन और सादे हैं, जो विक्रम की 15 वीं सदी में बने मालूम पडते हैं / चौथा मन्दिर रास्ते के ऊपर है, जो छोटा और प्राचीन है। ऊपर के तीनों मन्दिरों की सभी प्रतिमाएँ इसी चौथे मंदिर में पीछे से स्थापन कर दी गई हैं, जो प्रायः खंडित हैं। मूर्तियों में अजितनाथ और शान्तिनाथ के दो काउसगिये प्राचीन हैं और उन पर एकही मतलब का इस प्रकार लेख है १-संवत 1346 वर्षे फागुणसुदि 2 सोमे श्रे० बोहरि भा० अच्छिीणी, पुत्र छोगा, भा० कडू पु० श्रे० समंधर भा० लाडी, पु० पूनपाल भा० 2 चांपल तान्हू पु० देवपाल मदन कर्मसिह श्रे० आसपाल भा० लाछू पु० महिपाल भा० ललता पितु-मातृश्रेयोऽर्थ श्री शांतिनाथदेव प्रतिष्टितं श्रीचंद्रसिंहमूरि संतानीय श्रीपूर्णचंद्रसूरिशिष्यैः श्रीवर्धमानसूरिभिः / ___इनके सिवाय एक चोवीसी का पट्ट है, जो सब से प्राचीन है और यह श्रीचन्द्रसिंहसूरिजी के हाथ से सं० 1216 आषाढ सुदि 10 रविवार के दिन प्रतिष्ठत हुआ है / वाकी सव प्रतिमाएँ
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________________ (122 ) सं० 1552 के लगभग की प्रतिष्ठित हैं। मूलमन्दिर के चारों ओर की देवरियाँ भी पीछे से जुदे जुदे सद्गृहस्थों के तरफ से बनी हुई मालूम पड़ती हैं | उनमें से देवरी नम्बर 1-5-6 में क्रमशः इस प्रकार लेख उकेरे हुए हैं 2 सं० 1556 वर्षे वैशाखसुदि 13 रवौ प्राग्वाटज्ञातीय सं० वाछा, भा० बीजलदे सुत सं? कान्हा कुतिगदे जाणिदेसी सुत सं० रत्नपाल भार्या करमाई....स्वभते श्रेयसे श्रीजीराउला पार्श्वनाथप्रासादे देवकुलिका कारिता, वृद्धतपापक्षे श्री उदयसागरसूरीणामुपदेशन / सं० करमाई सुता भांगी प्रणमति, सं० कान्हा सुता (प्रक्रमति) सुता करमाई नित्यं श्रीपार्श्व प्रणमति / 3 सं० 1556 वर्षे द्वितीयज्येष्टसुदि 1 शुक्रे महाराज श्रीराणाजी प्रसादात , प्राग्वाट ज्ञातीय संघवी. समहा भार्या.... दे पुत्ररत्न संघवी सचवीर भार्या पदमाई पुत्ररत्न संघवी देवा सकुटुंबयुतेन स्वश्रेयसे श्रीजगन्नाथप्रासादे श्रीदेवकुलिका कारापिता, भट्टारकप्रभुश्रीहेमविमलमूरिभिः प्रतिष्ठिता / संघस्य शुभं भवतु / ___मुख्य मन्दिर के गूढमंडप में बने हुए दोनों तरफ के तार्को में एक ही किस्म का यह लेख है 4 स्वस्तिश्री संवत् 1552 वर्षे पोषवदि 7 सोमे श्री बृहत्तपापक्षीय भ० श्रीधर्मरत्नमूरिणामुपदेशेन श्रीस्तंभतीर्थवास्तव्य श्रीउपकेशवृद्धशाखायां सा० नाथा भा० वा० हेमीसुता जीवी भा० शिवा तया निजपितृस्वसुः श्रेयोर्थ श्रीजीरापल्लीश प्रासादे आलकद्वयं कारितः।
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________________ ( 123) इन लेखों से इसके तीर्थनायक श्रीजीगउली-पार्श्वनाथ मालूम पडते हैं / इस समय इस प्रभावशालिनी प्रतिमा का यहाँ पता नहीं हैं / यह मुख्य मंदिर कब किसने बनाया ? यह खोज करने पर निर्भर है / यह जिनमन्दिर कोरणी ( नकशी ) की सजावट में श्राबुदेलवाडे के मन्दिरों से मिलता जुलता है। यह स्थान तीर्थ तुल्य होने से पूजनीय और दर्शनीय है। 105 सन्दरुट __ इस छोटे गाँव में श्वेताम्बर जैनों के 15 घर, और एक प्राचीन जिनमन्दिर हैं, मंदिर में भगवान् श्रीकुन्थुनाथ स्वामी की भव्य मूर्ति बिराजमान है / यहाँ के जैन साधु-धर्म से और गृहस्थ धर्म से बिलकुल अनभिज्ञ हैं / यहाँ जिनमन्दिर की पूजा और सफाई का कुछ भी प्रबन्ध नहीं और न यहाँ के जैन कभी दर्शन करते हैं / मन्दिर का सारा भार पूजारी के ही हस्तक में है इससे कभी कभी पूजा भी नहीं होती। 106 सिरोही-- ____ यह शहर सिरणवा-नामक पर्वत श्रेणि के नीचे बसा हुआ है, जो राजपूताने के दक्षिण-पश्चिमी हिस्से में 24 अंश 20 कला, तथा 25 अंश 17 कला उत्तर अक्षांश, और 72 अंश - 16 कला, तथा 73 अंश 10 कला पूर्वरेखांश के बीच है / इसका क्षेत्रफल 1664 मील है। राजपूताना मालवा रेल्वे के पिंडवाड़ा स्टेशन से यह 16 मील दूर है / इसको महाराव सैंसमलने विक्रम सं० 1482 में बसाया था / यहाँ पोष्ट ऑफिस,
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________________ (124 ) तारघर, मदर्सा, अस्पताल और पक्की सड़कें बनी हुई है / शहर से 1 // मील दूर केसरविलास नामका बाग है-जिसमें सरकारी दो कोठी और बंगले हैं। सिरोही से दो मील उत्तर में सारणेश्वर का शिवालय है, जो 500 वर्ष का पुराना माना जाता है और वैष्णवों का यात्रा स्थान है। ___ राज महल से नीचे थोड़ी दूर पर जैनमन्दिरों का समूह है जो देरासेरी' के नाम से प्रसिद्ध है / इसमें एक ही लम्बे चौक में श्रेणिबद्ध पन्द्रह जिन मन्दिर हैं, जो अतिरमणीय और दर्शक यात्रियों के चित्त को मोहित करते हुए शत्रुजय महातीर्थ का स्मरण कराते हैं / इन सब में अपनी उच्चता, विशाक्षता और कारीगिरी की अपेक्षा अधिक सुन्दर चोमुखजी का मन्दिर है, जो संवत् 1634 का बना माना जाता है। यहाँ के जिन मन्दिरों का इतिहास अभी तक अंधारे में ही पड़ा हुआ है / सिरोही के सुशिक्षित जैनयुवकों को चाहिये कि ऐसे प्रसिद्ध जिनमन्दिरों का इतिहास शीघ्रता से प्रकाश में डालें / इनके अलावा शहर में श्रीऋषभदेव भगवान् का एक और भी भव्य मन्दिर है, जो अर्वाचीन है / यहाँ श्वेताम्बरजैनों के 500 घर, दो श्वेताम्बर धर्मशाला और पांच उपाश्रय हैं। शहर के बाहर श्राधे मील दूर एक जिनगृह है-जिसमें भगवान् श्रीमहावीर स्वामी की प्राचीन भव्य मूर्ति बिराजमान है, जो वामनवाड के नाम से प्रसिद्ध है। 107 सनवाड़ा __ यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 10 घर, एक उपासरा, और एक जिनन्दिर है / मन्दिर में भगवान् श्रीचन्द्रप्रभस्वामी की सुन्दर
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________________ ( 125) मूर्ति बिराजमान है। इसमें सफाई और पूजन आदि का इन्तिजाम बराबर नहीं है और न यहाँ के जैन मन्दिर के कभी दर्शन करते हैं। 108 वीरवाड़ा सिंरणवा पहाड़ी के नीचे यह छोटा गाँव है, जिसमें श्वेताम्बर जैनों के 50 घर, एक उपासरा, एक बड़ी धर्मशाला और दो जिनमन्दिर हैं / गाँव वाला मन्दिर 52 जिनालय और बाहर का मन्दिर सामान्य है / इन दोनों मन्दिरों में मूलनायक भगवान् श्रीमहावीरस्वामी की भव्य और प्राचीन मूर्तियाँ बिराजमान हैं। 106 वामनवाड़जी यह अर्बुदगिरि की पंचतीर्थी में से एक है, जो पूजनीय और अति पवित्र तीर्थ माना जाता है और यहाँ प्रतिवर्ष हजारों यात्री दर्शन करने के लिये आते हैं। सालमें एक वार फाल्गुन सुदि 7 से 14 तक मेला भराता है, जो सिरोही रिसायत के सभी मेलों में मुख्य है / इस मेले में 10,000 आदमी तक जमा होते हैं और बहुतसा माल दूर दूर से बिकने को आता है / परन्तु रेल्वे के जारी होने से अब उसमें प्रतिदिन न्यूनता होती जाती है। यहाँ मजबूत और विशाल कोट के घेरे में दो धर्मशाला, मेला के योग्य दूकानें, बंगले, कारखाना और पुलिस तथा नौकरों के रहने के मकान बने हुए हैं / पहाड़ के नीचे कोट के भीतर ही यहाँ के तीर्थपति भगवान् श्रीमहावीरस्वामी का प्रसिद्ध, विशाल.
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________________ (126 ) और प्रभावशाली सौधशिखरी मन्दिर है, जो 52 जिनालय और प्राचीन है / इसकी सभी देवरियों में प्राचीन-अर्वाचीन प्रतिमाएँ स्थापित हैं / परन्तु मूलनायक श्रीमहावीर भगवान् की प्रतिमा सब से अधिक प्राचीन है। इसके बामभाग की पहाड़ी के शिखर पर एक देवरी है-जिसमें महावीरप्रभु की चरणपादुका स्थापित हैं / यह तीर्थ पिंडवाडा स्टेशन से 4 मील उत्तर-पश्चिम में स्थित है / यहाँ की आबहवा और जल शुद्ध होने से कुछ दिन यात्रियों को * ठहर कर यहाँ के तीर्थपति की सेवा करने योग्य है। 110 नांदिया यह पिंडवाडा स्टेशन से 5 मील पश्चिम और बामनवाडजी से 6 मील दूर एक छोटा गाँव है, जो श्राबू की पंचतीर्थी में से एक माना जाता है / यह चारों और उंची पहाडियों से घिरा हुआ है / इसमें श्वेताम्बर जैनों के 40 घर, दो उपासरे, एक धर्मशाला और एक गृहमन्दिर है-जिसमें श्रीमहावीरस्वामी की प्रतिमा स्थापित है / यहाँ से उत्तर पहाडी की ढालू जमीन पर एक पुराना और 52 जिनालय शिखरबद्ध सुन्दर मन्दिर है। जिसमें मूलनायक भगवान् श्री महावीरप्रभु की अति प्रभावशालिनी प्रतिमा बिराजमान है / यह तीर्थ इसी मन्दिर के कारण प्रसिद्ध और पूजनीय माना जाता है, परन्तु यहाँ पूजन और सफाई का प्रबन्ध बराबर नहीं है / इस मन्दिर के बाहर की दीवार में लगे हुए एक लेख में, विक्रम सं० 1130 में नन्दीश्वरचैत्य के आगे बावडी बनाये जाने का लिखा है / नन्दगिरि
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________________ (127 ) (आबू ) की पहाडी के नीचे बनाये जाने के कारण इस मन्दिर का नाम नन्दीश्वरचैत्य रक्खा गया हो, ऐसा जान पड़ता है। 111 गोयली सिरोही रियासत के इस छोटे गाँव में श्वेताम्बर जैनों के 25 घर, एक उपासरी, एक धर्मशाला और एक सौधशिखरी जिनमन्दिर है-जिसमें भगवान् श्रीपार्श्वनाथस्वामी की भव्य मूर्ति स्थापित है, जो नवीन है, पर दर्शनीय है। 112 ऊड़ इस छोटे गाँव में श्वेताम्बर जैनों के 25 घर हैं, जो धार्मिक भावना और साधुसेवा से विमुख हैं। यहाँ एक उपासरा और एक छोटा गृह-मन्दिर भी है / परन्तु यहाँ के जैन उसके पर्युषण के एक दो दिन के सिवाय कभी दर्शन नहीं करते / 113 जावाल सिरोही स्टेट का यह एक छोटा कसबा है, इसमें श्वेताम्बर जैनों के 200 घर, एक उपासरा, एक धर्मशाला और दो जिन मन्दिर हैं। सबसे बड़ा मन्दिर जो त्रिशिखरी है, और उंची कुरसी पर बना हुआ है, भगवान् श्रीऋषभदेवजी का है। दूसरा मन्दिर श्रीपार्श्वनाथस्वामी का है जो तीनथुईवालों के नाम से प्रसिद्ध है। इसकी प्रतिष्ठा महाराज श्रीमद्घनचन्द्रसूरिजी के करकमलों से सं० 1952 माहसुदि 13 शुक्रवार के दिन हुई है और इसको नावाल के रहने वाले जसाजी सुरतिंगजी पोरवाड़ने
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________________ (128 ) बनवाया है / इनके अलावा गाँव के बाहर अंबावजी के स्थान पर एक नया तीसरा मन्दिर बना है जो सफेद पाषाण का और शिखरबद्ध है। 114 बलदूट सिरोही स्टेट के इस गाँव में श्वेताम्बर जैनों के 100 घर, एक उपासरा, एक विद्याशाला, एक बडी धर्मशाला और दो जिनमन्दिर हैं / सब से प्राचीन और दर्शनीय मन्दिर भग. वान् श्रीआदिनाथस्वामी का है / दूसरा मन्दिर संघ के तरफ से नया त्रिशिखरी बनाया गया है, जो विशाल, उंचा और सफेद पाषाण का है / इसमें मूलनायक भगवान् श्रीशान्तिनाथ स्वामी की भव्य मूर्ति बिराजमान है। इसकी प्रतिष्ठाञ्जनशलाका संवत् 1964 वैशाखसुदि 3 बुधवार के दिन श्रीमद्धनचन्द्रसूरिजी महाराज के कर-कमलों से हुई है / 115 सवणा___ जोधपुर रियासत के जालोर परगणे का यह छोटा गाँव है, यहाँ पेश्तर श्वेताम्बर जैनों के 50 घर थे, परन्तु अब एक भी नहीं है / यहाँ एक जीर्ण और मूर्ति रहित जिन मन्दिर था। देरुंदर निवासी सेठ कर्पूरचन्द्रजी बभूतमलजीने इसका उद्धार कराके, उसमें मूलनायक भगवान् श्रीवासुपूज्य स्वामी आदि की तीन तियाँ बिराजमान की हैं / इनकी प्रतिष्ठाजनशलाका संवत् 1969 फाल्गुन सुदि 3 भृगुवार के दिन प्राचार्य श्रीविजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज के हस्त-कमलों से हुई है / इस मन्दिर की बगल की
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________________ ( 129) एक छोटी धर्मशाला में दो कायोत्सर्गस्थ मूर्ति योंही पड़ी हैं, जो प्राचीन और कहीं से लाकर यहाँ रख दी गई हैं / 116 आकोली जोधपुरस्टेट के जालोर परगने में बाकरा ठाकुर का यह छोटा गाँव है, जो आबू से निकली हुई खारी नदी के किनारे पर बसा हुआ है। इस में त्रिस्तुतिक श्वेताम्बर जैनों के 80 घर, एक उपासरा, एक बड़ी धर्मशाला और एक शिखरबद्ध जिनमन्दिर है / मन्दिर में मूलनायक भगवान् श्रीआदिनाथ की प्राचीन प्रतिमा स्थापित है, जो एक किसान के खेत को खणते हुए निकली है। इसके साथ ही चार मूर्यित्ताँ और भी निकली थीं, जो इसी मन्दिर में बिराजमान हैं। जिनमन्दिर में प्रतिष्ठा-महोत्सव के समय इस . प्रकार शिला-लेख लगाया गया है___“ ॐ नमोऽहद्भ्यः / श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय श्री 1008 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से आकोली नगर के जैनश्वेताम्बर संघने यह सौधशिखरी-मन्दिर बनवाया। इस में प्रातःस्मरणीय श्रीविजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज के पट्टप्रभावक श्रीमद्विजय-भूपेन्द्रसूरिजी महाराज के पास मुनि श्रीयतीन्द्रविजयजी के प्रबन्ध से सं० 1984 वैशाख सुदि 5 . शुक्रवार के दिन महामहोत्सव सह प्रतिष्ठा कराके मूलनायकजी . श्री आदिनाथ, श्रीपार्श्वनाथ, श्रीशान्तिनाथ, श्रीसुपार्श्वनाथ, .
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________________ (130) श्रीवासपूज्य, श्रीऋषभदेव, श्रीपार्श्वनाथ, भगवान् की प्राचीन मूर्तियाँ विराजमान की, तथा स्वर्णमय कलश और दंडध्वज आरोहण किया।" 117 बागरा__ जोधपुर राज्य के जालोर परगने में दासपा ठाकुर का यह गाँव है / इसमें श्वेताम्बर-त्रिस्तुतिक जैनों के 250 घर, और दो बड़ी धर्मशालाएँ हैं / जैनाचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से यहाँ के संघने मार्बुल पाषाण का सौधशिखरी सुन्दर मन्दिर बनवाया है, जो चौवीस जिनालय है। इसकी प्रतिष्ठा संवत् 1972 महा सुदि 13 बुधवार के दिन उपाध्यायनी श्री मोहनविजयजी के प्रबन्ध से, प्राचार्य श्रीविजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज के हाथ से हुई है। 118 सियाना___ जोधपुर स्टेट के जालोर परगने में यह छोटा कसबा है, जो खारी नदी के किनारे पर खेतला नामक छोटी पहाड़ी के नीचे बसा हुआ है / इसमें त्रिस्तुतिक श्वेताम्बर जैनों के 325 घर, दो उपासरे, दो बड़ी धर्मशालाएँ और दो सौधशिखरी जिन-मन्दिर हैं। उनमें परमाहत् राजा कुमारपाल का मन्दिर बड़ा सुन्दर है, जो खेतला पहाड़ी की ढालू भूमि पर बना हुआ है / इसमें मूलनायक भगवान् श्रीसुविधिनाथस्वामी की अति चमत्कारिणी सफेद वर्ण की सवा हाथ बड़ी प्रतिमा स्थापित है, जिसकी प्रतिष्ठाजनशलाका सं० 1214 में कलिकाल-सर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्य के हाथ से हुई है।
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________________ (131 ) ऐसा कहा जाता है / इसके चारों तरफ चोवीस देवालय संघके तरफ से नये बनाये गये हैं, जिनकी प्रतिष्ठाजनशलाका सं० 1958 माह सुदि 13 गुरुवार के दिन जैनाचार्य श्रीमविजय-राजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने की है / मुख्य मन्दिर के पिछले भाग में पंचतीर्थी और राजेन्द्ररत्नटोंक बना हुआ है / टोंक के मूलनायक श्रीशान्तिनाथस्वामी हैं। इस मन्दिर में प्राचीन और अर्थचीन सब मिलाकर 136 मूर्तियाँ हैं / दूसरा मन्दिर श्रीऋषभदेव भगवान् का है, जो इसी कसबे के रहनेवाले जेरूपचन्द कस्तूरजी पोरवाड़ने महाराज श्रीविजवराजेन्द्रसूरीश्वरजी के उपदेश से बनवाया है / इसकी प्रतिष्ठा सं० 1669 ज्येष्ठ सुदि 12 रविवार के दिन महाराज श्री धनचन्द्रसूरिजीने की है। इसमें छोटी बड़ी गट्टाजी के सहित कुल 12 मूर्तियाँ हैं / 116 आहोर सूखड़ी नदी के किनारे पर बसा हुआ जोधपुर रियासत के जालोर परगने में यह अच्छा कसबा है / इसमें श्वेताम्बर जैनों में त्रिस्तुतिक शुद्ध सम्प्रदाय के 450 घर, चतुर्थस्तुतिक–पूनमियागच्छ के 150 घर, दो उपासरे, तीन जैन धर्मशाला, एक प्राचीन हस्तलिखित-जैनागमसंग्रहभंडार और एक सराय हैं। यहाँ पांच जिन-मन्दिर हैं। जिनमें सब से प्राचीन श्रीशान्तिनाथ भगवान् का मन्दिर है, जो सं० 1444 का बना हुआ है / दूसरा मन्दिर सब से बड़ा विशाल श्रीगोडी-पार्श्वनाथ का है, जो दोवरते शिखरवाला और 52 जिनालय है / गोडीजी का मन्दिर गाँव के बाहर है, इसमें प्रवेश करते ही दर्वाजे के भीतरी चौक में दाहिने भाग पर श्रा
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________________ ( 132) रस पाषाण की सुन्दर गुरुछत्री है, जो मूता चमनमल-भूरमल डूंगाजी की बनवाई हुई है / उसके आगे ऊपरी भाग में दो देवरियाँ पारस-पाषाण की हैं, जिनमें एक में श्रीऋषभदेवस्वामी और दूसरी में श्रीनेमनाथस्वामी की नई मूर्ति स्थापित हैं। मुख्य मन्दिर के मध्यद्वार के पासवाले चौक में दाहिने तरफ वीर प्रभु का मन्दिर है, जिसमें मूलनायक भगवान् श्रीमहावीरस्वामी की चार हाथ बडी और इनके दोनों बाजू श्री शान्तिनाथ की तीन हाथ बडी भव्य तथा विशाल मूर्तियाँ बिराजमान हैं / इसके पिछाडी एक कोठार में प्राहुणा तरीके 134 मूर्तियाँ रक्खी हुई हैं, जो उनके खपी को निछरावल से दी जाती हैं। मुख्य-मन्दिर के वाम-भाग में यतिसुरेन्द्रसागरजी की छत्री है, जिसमें उनके चरण-पादुका स्थापित हैं। . गोडी-पार्श्वनाथ के मन्दिर में जाने के मध्यद्वार के ऊपर चोमुख सुमेरु है, जो भारस-पाषाण का बना हुआ है / मुख्य मन्दिर के चारों तरफ बावन देवरियाँ और तीन बडे जिनमन्दिर, जिनमें कि सुन्दर जिनप्रतिमाएँ स्थापित हैं। बीच के मुख्य जिनालय में अति प्राचीन और चमत्कारिणी श्रीगोडी-पार्श्वनाथ की सफेद वर्ण की 2 // हाथ बडी भव्य मूर्ति बिराजमान है / जिसकी प्रतिष्ठा सं 1936 में महाराज श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजीने की है। इसकी अञ्जनशलाका किस साल में किस आचार्यने की ? यह नहीं कहा जा सकता। परन्तु इसके पलाठी के चिन्हों से यह अति प्राचीन मालूम होती है / इसकी देवरियाँ और मन्दिरों में स्थापित मूर्तियों की अञ्जनशललाका संवत् 1955 फाल्गुन वदि 5 गुरु
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________________ (133) वार दिन जैनाचार्य श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने की है / अजनशलाका के समय का प्रशस्तिलेख इस प्रकार हैश्रीआहोर-गोड़ीपार्श्व-मन्दिर का शिला-लेख। श्रीगोड़ीपार्श्वनाथाय नमः / इन्द्रवंशा-छन्दःसुस्नापितःकुङ्कुमचन्दनार्चितो, धूपैः प्रदीपैर्महितःस्तवैः शुभैः स्पष्टं जयध्वानयुतैश्च संस्तुतो, गोडीजिनेशो दिशतु श्रियःस्थिराः स्रग्धरा-छन्दः-- श्रीवृद्धिं यस्य राज्ये व्रजति कुशलिनी सर्वतोऽपि प्रजाऽऽस्ते, भद्राप्रीता स्व स्वर्गे निजकृतिनिपुणा गोव्रजास्सम्प्रहृष्टाः / धर्मो जागर्ति नित्यं कृतिवरमहितः सत्फलानां प्रदाता, श्रीमान् शिरसिंहो जयति मरुधराधीश्वरो राजराजः // 2 // आर्या-छन्दः-- श्रीमान् प्रतापसिंहो, धीरो धाम्ना यथार्थनामाऽसौ / मरुधरणीशपितृव्यो, राजति राजा प्रजां रक्षन् // 3 // ___ इन्द्रवज्रा-छन्दः--- यो भारतेशस्य विजित्य शत्रून, __ म्लेच्छान्मृधे भारतसीम्नि वीरः / गौराङ्गसम्राज्यति सुप्रसन्ने, स्वनाम देशान्तरमप्यनैषीत् // 4 //
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________________ (134) उपेन्द्रवज्रा-छन्दःप्रजा निजा यस्य शुभैः प्रबन्धैः, समासते शोभनमत्र राज्ये / विरोधिनो यान्ति वशंवदत्वं, निरीतयः सर्वसमृद्धयो वै // 5 // अनुष्टुब्-छन्दः-- आहोरनगरे पूर्णे, सर्वसंपत्समृद्धिभिः। जालोरमण्डलान्तःस्थे, बहुभूभागनायकः // 6 // द्रुतविलम्बित-छन्द-- मरुधरेशकुलागतवीरतो-नतकुलस्सकलेष्वपि राजसु / मरुधराधिपसत्कृतसत्कृतिः, प्रभुरभूदलवान् वसुधामृताम् / उपजाति-छन्दःराठौरवंश्यो वशिनां वरेण्यो, ह्यनारसिंहो रिपुहस्तिसिंहः। शुभ्रासने तस्य सुतोऽधिरूढो, बलेन दानेन च विक्रमार्क। आर्या-छन्दःयः शक्तिदानसिंहः, सूनुस्तस्याभवद्युतो यशसा / यशवन्तसिंह नामा, पुत्रोऽभूल्लालसिंहोऽस्य // 9 // लालयतैव हि सर्वाः, प्रजाः स्वकीया वशीकृता येन / तस्य भवानीसिंहो, राजति सिंहासने भव्ये // 10 // ____ इन्द्रवत्रा-छन्दः दाता दयालुर्बलवान् सुशीलो, देवद्विजार्चा मिरतो मनस्वी / सद्धार्मिकः सर्वसमृद्धिकारी, संपत्समृद्धो भुवि भाग्यशाली //
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________________ ( 135) इन्द्रवज्रा-छन्द:यस्मिन् महीं शासति चात्र सर्वाः, प्रजाः प्रजाताभिनवानुरागाः। समृद्धिमाजस्सहपुत्रपौत्रचिरं स जीयाजनताधिपालः / / 12 / शिखरिणी-छन्दःमरुक्षोणीरत्नं सुभगजनतालंकृततरं, परं जालोराख्यं विदितमवनौ बुद्धिमहितम् / दिशि प्राच्यां तस्मानगरमतिजुष्टं गुणिजनैर्वदन्त्याहोरं यन्निपुणमतयः श्रीविलसितम् // 13 // उपेन्द्रवज्रा-छन्दः-- शृणोति शास्त्राणि मुनीश्वरेभ्यो, जहात्यधर्म यतते स्वधर्मे / अहिंस्रवृत्या वसु सचिनोति, सुकर्मणैतद्वितरत्यकष्टम् // 14 // न राटिकारी न परापवादी, न दुष्टभावो न निजार्थगृद्धः। विराजते यत्र समृद्धसङ्घ, पवित्रकीर्तिः प्रथितः पृथिव्याम्।। इन्द्रवज्रा-छन्दः-- निर्मापितस्तेन जिनालयोध्यं, षड्बाणसंख्यानि मनोहराणि, राजन्ति देवाऽऽयतनानि यत्र, मुष्णन्ति चषि विलोकिनृणाम् / / 16 / /
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________________ ( 136) इन्द्रवंशा-छन्दः-- शरेषु रत्नेन्दु ( 1955) मिते हि विक्रमे, संवत्सरे फाल्गुनिकेऽसिते दले / इज्येतिलक्ष्मान्वितबाण (5) सत्तिथौ, तेषु प्रतिष्ठां मुनिराडकारयत् // 17 // इन्द्रवजा-छन्दः-- राजेन्द्रसूरिविधिना जिनानां, पट्टावली गायति सच्चरित्राम्। आकर्ण्य यां वेत्ति नरश्चरित्रं, श्रामण्यभाजां प्रियमाहेतानाम् / / वंशस्थ-छन्दःश्रीवर्धमानस्य च विश्ववेदिनो, जातः सुधर्मा गणधारिपञ्चमः। तस्यैव पट्टेऽधिकृतोऽतिभूरिषु, वर्षेष्वतीतेष्वभवन्मुनीश्वरः / / इन्द्रवज्रा-छन्दः-- यो मेदपाटक्षितिभर्तृराणा-मान्यस्तपागच्छपयोधिचन्द्रः / भासीजगश्चन्द्र इति प्रसिद्धः, सूरीश्वरस्तस्य चरत्नसुरिः॥ पट्ट समारुह्य विशुद्धशीला, प्राद्योतयच्छासनमार्हतं यः। शिष्योऽभवत्तस्य यथार्थनामा, श्रीमान् क्षमासूरिवरोमनीषी अनुष्टुब्-छन्दःमारुरोह च तत्पढें, कल्याणविजयो गुरुः / येन प्रभाविते धर्मे, कल्याणानि पदे पदे // 22 / / __ आर्या-छन्दःश्रीमान् प्रमोदविजय-स्तस्य च पट्टे समास्थितो यस्य / धर्मकथामृतपानाच्छाद्धकुलानि प्रमुदितानि // 23 //
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________________ (137 ) शिष्यस्तस्य महर्षेः, सद्भिः श्लाघ्यस्य सच्चरित्रस्य / मुविनीतः समयज्ञः सरिवरो विजयराजेन्द्रः // 24 // शार्दूलविक्रीडित छन्दा-- योऽधीती जिननायकस्य समये पारक्यशास्त्रेषु च, श्रामण्ये परिनिष्ठितोऽतिधिषणोऽस्पृष्टोऽतिचारव्रजैः / बोधि येन दृढां कुलानि गमितान्यासासते सद्गति, संविमाः प्रविमोचिताः कृतिनराः संसारकारागृहात, // 25 // शिखरिणी छन्दःयथाच्छन्दो लूकाः कृतकपटवेषा भयवशानिलीयन्ते नीडायितकुचरगेहेषु झटिति / प्रफुल्लन्ति श्रद्धिप्रवरजलजानि द्रुततरं, प्रकाशो लोकेषूद्यति विजयराजेन्द्रतरणौ // 26 // _ अनुष्टुब् छन्दःशिक्षयित्वा बहूशिष्याजैनधर्मप्रवर्तकान् / विशोध्य यतिचारित्रं, निर्ग्रन्थाननुशास्ति यः // 27 // द्रुतविलम्बित-छन्दःदशदिगन्तविसर्पियशस्ततिः, प्रकटगीतशुचीभवदान्तरा / भवति यत्समुपासकमण्डली, जिनपदाब्जपरागमधुव्रती // 28 // अनुष्टुब्-छन्दःयेनोपदिष्टाः सच्छाद्धा, नानाजनपदोद्भवाः / जिनचैत्यान्यकुर्वस्ते, शतशो वसुसञ्चयैः / / 29 //
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________________ ( 136) उपाश्रयान् सुरम्याँश्च, साधुप्रायोग्यभूमिषु / वसतिं यत्र कुर्वन्ति, निर्ग्रन्था भिक्षुसत्तमाः // 30 // भाण्डागारं सरस्वत्याः, प्रतिग्रामं प्रतिष्ठितम् / स्वशास्त्रं परशास्त्रं वा, सुलभं यत्र विद्यते // 31 // मणिबन्ध-छन्दःपौषधशालारम्यतमाः, श्रावकवृन्देनाऽऽरचिताः। यत्र तपस्यति फलं, संयतयोग्यं चापि गृही // 32 // अनुष्टुब्-छन्दःश्रीमद्विजयराजेन्द्र-सूर्याचार्येण पालितः। श्रीश्वेताम्बरसाधूनां, गच्छो भाति सुसंयतः / / 33 / / स्रग्धरा-छन्दःभाचार्यों जैनतत्त्वं निखिलमधिगतस्तस्य शास्त्रार्थवेत्ता, शासत्साधून्समस्तानपि च निजगुणैस्तर्पयन्सूरिमुल्यान् / उद्युक्तस्सिद्धिमार्गे विषयविषलतां दूरयन्स्वैश्चरित्रैयंत्रोपाध्यायमुख्यो धनविजयमुनि राजते शिष्यवर्गः // 34 // ___ उपगीति-छन्दःमोहनविजयो मोह-प्रमुखाद्विमुखस्सदा सिद्ध्यै / यतते यत्र तपस्वी, निर्ग्रन्थो रूपविजयाख्यः // 35 // हिम्मतविजयो हृदये, ध्यायनाऽऽस्ते परं तत्त्वम् / लक्ष्मीविजयो दीप-प्रकाशधीर्दीपविजयो वै // 36 //
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________________ (139) गीति-छन्दाआस्ते यतीन्द्रविजयो विचित्रबुद्धिश्च सर्वशिष्येषु / साधुस्सपबविजयो गौतमविजयो गुलाबविजयश्च॥३७॥ केशरविजयस्साधु-स्सहर्षविजयोऽपि हंसविजयश्च / वल्लभविजयश्चास्तेऽपराश्चिमविजय नामको भितुः॥३८॥ आर्या-बन्द:गच्छेश्वरस्य रेस्तस्यैवोपासकाः सहस्राणि / तेषामिमेऽतिधन्या अनुष्ठिताञ्जनशलाका यैः // 39 / / शालिनी-छन्दःगोडीदासस्यात्मजो वाग्मलाख्यः, श्रद्धा श्रेयः संयुतः श्रावकोऽसौ। पुण्ये कार्येनोपयुक्तान्तरात्मा, सर्वश्रेष्ठि श्रेष्ठतामादधानः // 40 // आर्या-छन्दःतस्यानुजो वरीयान्, नवलाख्यः सुनुरास्ति यशराजः / शश्वत्कार्यविधायी, प्रतापमल्लस्सदा भक्तः // 41 // अनुष्टुब्-छन्दः-- कपूरचन्द्रपुत्रेण, श्रावकप्रवरेण हि / श्रीमजिनपदाम्भोजं हृदि संध्यायता सता // 42 // भुजङ्गप्रयातं-छन्दःमुता बाफणा जीतमल्लेन कार्य, समाधारि कर्तृत्वमस्मिन्स्वभक्या /
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________________ ( 140) धनानां व्ययेनाग्रजो यस्य धन्यो यशोरूपजी यस्य पुत्रं त्रयं सत् // 43 // इन्द्रवज्रा-छन्दःकस्तूरचन्द्रो यशराज-चिम्नी-- रामस्तथा पौत्रवरौ च भक्तौ / यः खूबचन्द्रादथ हर्षचन्द्र, कस्तुरचन्द्राचू शिरेमल्लनामा // 44 // श्रीगोडी-पार्श्वनाथ के सौधशिखरी मन्दिर में पाषाण और सर्वधातु की छोटी बडी सब मिलाकर 221 जिन प्रतिमाएँ बिराजमान हैं। इसके कोट के लगते ही पीछे के भाग में एक बगीचा और उसमें पक्का बंधा हुआ एक कुआ (अरठ) है / गोडी-पार्श्वनाथ का प्रतिवर्ष फाल्गुन वदि 5 का मेला भराता है, जिसमें कि अन्दाजन 8000 हजार यात्री तक एकत्रित होते हैं। उसकी नोकारसी ( प्रीतिभोजन ) की सारी सामग्री बगीचे में ही तैयार होती है और नोकारशी करनेवाले को 101) रुपया नकरा गोडीजी की दुकान में जमा कराना पडता है। यहाँ यही जिनालय दर्शनीय और तीर्थस्वरूप है / यह महाराज श्री राजेन्द्रसूरिजी के उपदेश से नया बनाया गया है / मारवाड में नये मन्दिरों में इसकी समान रखनेवाला कोई मन्दिर नहीं है / तीसरा मन्दिर श्री आदिनाथका है, जो बाजार के मध्य में बहुत ऊंची कुरसी पर शिखरबद्ध बना हुआ है / इसमें आदि
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________________ (141) नाथ भगवान की ढाई हाथ बडी सुन्दर मूर्ति स्थापित है / इस की अञ्जनशलाका सं० 1959 फाल्गुन वदि 5 गुरुवार के दिन अशुभ-लग्न में खरतरगच्छ के श्रीपूज्य जिनमुक्तिसूरिजीने की है / अशुभ मुहूर्त के कारण अञ्जनशलाका के महोत्सव समय में भी बहुत उपद्रव हुआ था और अब भी हर तीसरे वर्ष के इसके मेला पर कुछ न कुछ उपद्रव अवश्य ही हो जाता है / खराब मुहूर्त में प्रतिष्ठा, या अञ्जनशलाका करने, कराने से कितनी नुकशानी में उतरना पडता है. ? इसका ताजा दृष्टान्त इस मन्दिरगत मूर्ति की अञ्जनशलाका का ही समझना चाहिये / चौथा मन्दिर पूनमिया गच्छ के उपाश्रय के पीछे बना हुआ है, जो घर-देरासर और उसमें श्रीपार्श्वनाथ भगवान की मूर्ति स्थापित है। पांचवां मन्दिर श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय बडी जैनधर्मशाला के ऊपर के होल में है / इसमें मूलनायक भगवान् श्रीशान्तिनाथ और उनके दोनों तरफ शान्तिनाथ आदिनाथस्वामी की सर्वधात की तीन मूर्तियाँ बिराजमान हैं। इनकी प्रतिष्ठा महाराज श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजीने सं० 1959 माहवदि 1 बुधवार के दिन है / ये मूर्तियाँ तलावत गदैया जसा सुत सिरेमल के स्मरणार्थ श्राविका गंगा और धापूने स्थापन की हैं / और एक आरसपाषाण की सुन्दर छत्री ( देवरी ) में स्थापित हैं। ____इसी धर्मशाला के प्रवेशद्वार के दाहिने भाग पर कडोद (धार ) के रहने वाले खेताजी वरदाजी के सुपुत्र शेठ उदयचन्द्रजी पोरवाड़ का बनवाया हूआ मजबूत आरस-पाषाण का
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________________ (142) श्रीराजेन्द्रजैनागमज्ञान-भंडार है। इसमें हस्त-लिखित प्राचीन-अर्वाचीन ग्रन्थों के 260 बिंडल हैं, जिन में कागज पर लिखी हुई 3526 प्रतियाँ हैं और मुद्रित पुस्तकों के 127 बिंडल हैं, जिनमें छपी हुई 1166 पुस्तकें हैं। इनमें संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंस और गुजराती भाषा में पागम, व्याकरण, न्याय, तर्क, काव्य, कोश, छन्द, अलंकार आदि सभी विषयों के मन्थ संग्रहित हैं। यह जैनाचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का संग्रह किया हुआ है, और इसमें कई ग्रन्थ बड़े महत्व के हैं। मारवाड़ में जेसलमेर और बीकानेर को छोड़ कर सायद ही कोई ऐसा ज्ञानभण्डार होगा, जो इसकी समानता रख सकता हो / 120 घरली-- जोधपुर रियासत के जालोर परगने में एरनपुरारोड से 25 मील के फासले पर पश्चिम तरफ बसा हुआ यह छोटा गाँव है। यहाँ श्वेताम्बर-मूर्तिपूजक जैनों के 25 घर, एक छोटी धर्मशाला और एक शिखरबद्ध प्राचीन समय का बना जिन-मन्दिर है / मन्दिर में मूलनायक श्रीपार्श्वनाथ भगवान की 2 // हाथ बड़ी सफेद वर्ण की भव्य-मूर्ति बिराजमान है। इसके बाह्म मंडप में तीन तीन हाथ बडे दो काउसगिये (खडे आकार की मूर्तियाँ ) हैं / ये सभी विक्रम की तेरहवीं शताब्दी की प्रतिष्ठित हैं और इनके प्रतिष्ठाकार पंडेक गच्छ कै कोई आचार्य हैं / कहा जाता है कि पेश्तर यह बडी नगरी थी। इसके प्रमाण-भूत यहाँ के प्राचीन ईटे और पत्थर हैं, जो जमीन से निकलते हैं / यहाँ
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________________ (153) हरसाल पोष वदि 10 का मेला भराता है, जिसमें सेंकडों श्रावक श्राविकाएँ उपस्थित होते हैं। 121 मादड़ी कहा जाता है कि दोसौ वर्ष पहले यहाँ तीनसौ घर श्वेताम्बर जैनों के वसते थे, परन्तु वर्तमान में यहाँ जैनों का एक भी घर नहीं है, शिर्फ किसानों के 30 घर हैं। तारीख 6-5-27 के रोज जमीन खोदते हुए यहाँ सर्वाङ्ग- सुन्दर और अखण्ड दो जिन-प्रतिमाएँ निकली थीं। उनमें एक 3 // फुट बडी श्रीनेमिनाथ भगवान् की, और दूसरी 2 फूट बडी श्रीपद्मप्रभस्वामी की सफेद -वर्ण की है / इन पर लेख नहीं, किन्तु गाँव के बाहर आडवला अरठ के पासवाले शंकर के छोटे मन्दिर के परकोटे में लगे हुए एक खंडित तोरण के नीचे लिखा है किश्रीषडेरकगच्छसूरिचरणोपास्ति प्रवीणान्वयो, दुःसाधोदयसिंहसूनुरखिलक्षमाचक्रजाग्रद्यशः। बिम्ब शान्तिविभोश्चकार स यशोवीरे गुरुमन्त्रिणो, __मातुः श्रीउदयः शिवकृते चैत्ये स्वयं कारिते // 1 // ज्येष्ठशुक्लत्रयोदश्यां, वसुवस्वर्कवत्सरे। . प्रतिष्ठा मादडीग्रामे, चक्रे श्रीशान्तिसूरिभिः 2 संवत् 1288 वर्षे ज्येष्ठ सुदि 13 बुधे / -खंडेरफगच्छाचार्यों के चरणोपासक, शुद्धवंशवाले और समस्त राजाओं में जागृत यशपाले उदयसिंह के पुत्र यशोवीर
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________________ (144) मन्त्रीने अपनी मातुश्री उदयश्री के कल्याणार्थ श्रीशान्तिनाथ की प्रतिमा स्वयं कारित मन्दिर में सं० 1288 ज्येष्ठ सुदि 13 बुधवार के दिन श्री शान्तिसूरिजी से प्रतिष्ठा कराके मादडी-गाँव में विराजमान की। इस लेख से जान पडता है कि उपरोक्त दोनों प्रतिमाओं की प्रतिष्टा भी इसी अरसे में हुई होगी.। इसी प्रकार तारीख 21-10-27 के दिन दो कायोत्सर्गस्थ, और एक पद्मासनस्थ एवं तीन प्रतिमाएँ दूसरी वार निकली थीं। ये प्रतिमाएँ भी सफेद-वर्ण की और कायोत्सर्गस्थ-मूर्ति चार फूट चार इंची, तथा पद्मासनस्थ मूर्ति एक फूट चार इंची बडी है | कायोत्सर्गस्थ दोनों मूर्तियों पर एक ही प्रकार का यह लेख है___ संवत् 1288 वर्षे ज्येष्ट सुदि 13 बुधे पंडेरकगच्छं श्री यशोभद्रभूरिसन्ताने दुःसाधु-श्रीउदयसिंह पुत्रेण मन्त्री-श्री यशोवीरेण स्वमातुः वाट्यां जिनयुगलं कारितं, प्रतिष्ठितश्च श्रीशान्तिसूरिभिः। ___इसी मतलब का लेख पद्मासनस्थ-मूर्ति पर भी है / इसके अलावा गाँव के मध्य-भाग में सतियों का चोतरा' है, इसमें एक जिनमन्दिर का बारसाख लगा है, जिस पर भी सं० 1666 खुदा हुवा देख पडता है / इन लेखों में इस गाँव का प्राचीन नाम * मादडी' ही जान पडता है, लेकिन वर्तमान में यह माद्री के नाम से प्रसिद्ध है, जो मादडी का ही अपभ्रंस है। अस्तु, इन उपरोक्त लेखों से निश्चित है कि-किसी समय ( सं०
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________________ (145) 1288) यहाँ मंत्री-यशोवीर का बनवाया हुआ सौधशिखरी जिनमन्दिर अवश्य था / परन्तु वह किस कारण भूमि-शायी हुआ ? यह खोज करने की आवश्यकता है / माद्री के जमीदारों का कहना है कि यदि खोज की जाय, और कुछ खर्च से यहाँ का खोद-कार्य कराया जाय तो और भी जिनप्रतिमाएँ निकलने की संभावना है। ठाकुर के पडवे में और गाँव बाहर के मिट्टी डुब्बों को खोदने से अच्छी शिल्पकारी के पत्थर और ईटें निकलती हैं। इनसे भी यहाँ की प्राचीनता का और भारी जिन-मन्दिर होने का अनुमान किया जा सकता है / गाँव से पश्चिम एक जूनी वावडी है, उसमें भी मन्दिर के अनेक पत्थर और ईटें लगी हुई देख पडती हैं / यहाँ से निकलीं जिन पांच जिनमूर्तियों का हाल ऊपर दर्ज है, वे इस समय गुडावालोतरा के यति श्री राजविजयजीने राजकीय कारवाई करके, अपने कब्जे में लेकर खुद के अरहट के बगीचे के एक मकान में विराजमान की हैं / 122 दयालपुरा यहाँ श्वेताम्बर जैनों के 90 घर, एक पक्की धर्मशाला, और एक उपासरा है / गाँव में एक शिखरबद्ध छोटा भव्य मन्दिर है। जिसमें मूलनायक श्रीमहावीरस्वामी की दो फुट बडी सफेद वर्ण की सुन्दर मूर्ति विराजमान है / यहाँ के जैनों में बहुत भाग विघ्नसन्तोषी है, इस वजह से इस गाँव में पूरति वस्ती होने पर भी किसी योग्य साधु का चोमासा, या शेषकाल में भी उनकी स्थिरता नहीं होती। 10
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________________ (146 ) 123 गुडा-बालोतरा सुखड़ी नदी के दहिने किनारे पर वसा हुआ यह छोटा, पर अच्छा कसबा है और इसका असली नाम -- गुडाबालोटान ' है। यह आहोर ठाकुर की जागीर का गाँव है, जो एरनपुरा-रोड से 30 मील पश्चिम है / यहाँ जैनों में त्रिस्तुतिक-प्राचीनसंप्रदाय के 100, और चतुर्थस्तुतिक-नवीन संप्रदाय के 225 घर हैं, जिनमें प्रोसवालों के चार घर सिवाय, शेष सभी बीसा पोरवाड हैं और इनमें प्रायः त्रिस्तुतिकसंप्रदाय के जैन श्रीमन्त और धार्मिक कार्यों में अच्छा भाग लेनेवाले हैं। गाँव में दो उपासरे, छोटी-बडी चार धर्मशाला और तीन जिन-मन्दिर हैं / सब से प्राचीन मन्दिर शिखरबद्ध है, जिसमें मूलनायक श्रीसम्भवनाथस्वामी की एक फुट बडी भव्य-मूर्ति बिराजमान है, जो अठारहवीं सद्दी की प्रतिष्ठित है / दूसरा मन्दिर इसीके पास वामभागमें एक ऊंची खुरसी पर शिखरबद्ध नया बना हुआ है। इसको जैनाचार्य श्रीमद् विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के उपदेश से सं० 1658 में वीसा पोरवाड अचला दोला नरसिंगजीने बनवाया है / इसमें संवत् 1956 माहसुदि 5 के दिन प्रतिष्ठा कराके मूलनायक श्रीधर्मनाथस्वामी की सफेदवर्ण की 3 हाथ बड़ी सुन्दर प्रतिमा बिराजमान की गई है / इस मन्दिर के पिछले भाग में भारसोपल की दो छत्रियाँ हैं, जिनमें श्रीमुनिसुव्रतस्वामी आदि की 9 नौ मूर्तियाँ बिराजमान हैं। तीसरा गृह-मन्दिर है, जिसमें श्रीऋषभदेव प्रादि की 9 प्रतिमाएँ हैं।
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________________ थी यतीन्द्रविहार-दिग्दर्शन :PIVDOSc00000000000000000000000000000000DIOIDROIDIOID00000 व्या० वा० मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी महाराज. Soo0IDIOCID0000000000NSOOCIDIO200DIOOccrocore, StorocienOONNOCOIDIOCONDIROIDROINNOOO गुड़ाबालोतरा ( मारवाड ) से विहार, ता. 22-11-27 Dec oo.0.0 .0.opace
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________________ (147) 124 अगवरी इस गाँव में श्वेताम्बर जैनों के 100 हैं, तथा 3 धर्मशाला, दो उपासरा और दो जिन-मन्दिर हैं। एक शिखरबद्ध अति रमणीय मंदिर है, जिस के चारों ओर 24 देहरियाँ हैं, इसमें मूलनायक श्रीऋषभदेव भगवान् की सफेद वर्ण की दो हाथ बडी मूर्ति बिराजमान है / एक दूसरा गृहमंदिर है, जिसमें भी श्रीश्रादिनाथ भगवान् की तीन फुट बड़ी मूर्ति स्थापित है / 125 सेरिया___ सुखडी नदी के बिलकुल किनारे पर बसा हुश्रा यह छोटा गाँव है। यहाँ त्रिस्तुतिक प्राचीन संप्रदाय के 50 घर हैं, जो अच्छे भावुक और श्रद्धालु हैं / यहाँ एक दो मंजिली पकी धर्मशाला और एक गृह-मन्दिर है, जिसमें मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभस्वामीजी की छोटी सुन्दर मूर्ति बिराजमान है। 126 पावटा यह छोटा गाँव है, इसमें जैनों के 25 घर और एक अच्छी विशाल धर्मशाला है / गाँव के बाहर लगते ही एक भव्य शिखरबद्ध मन्दिर है, जो नया बनाया गया है / इसमें मूलनायक श्रीऋषभदेवस्वामी की प्राचीन और सर्वाङ्ग सुन्दर मूर्ति बिराजमान है, जो मंदिर के वाम भाग के एक मिट्टी के दुब्बे को खोदते हुए उसके नीचे से नीकली है / यह तेरहवीं सदी की प्रतिष्टित प्रतिमा है / इस मंदिर के मण्डप में श्रीसुव्रतसुरिजी की प्रतिमा है जिसकी पलाठी में 'सं० 13 श्रीपाटादि 60 वर्षे आषाढसुदि 9 सोमे ' ऐसा लिखा है।
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________________ (148) 127 नोवी इस छोटे गाँव में जैनों के 100 धर, दो धर्मशाला और दो शिखरवाले जिन-मन्दिर हैं / सब से बड़े पंचायती मन्दिर में मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभस्वामी की दो फुट बडी सफेद मूर्ति स्थापित है / इसकी अंजनशलाका सं० 1955 फागुणवदि 5 के दिन आहोर में श्रीपूज्य-जिनमुक्तिसूरि के हाथ से हुई है / जिस दिन से यह मूर्ति गाँव में लाई गई है उस दिन से इस गाँव में तीन तेरह की नोबत बजने लगी है / खोटे मुहूर्त में अंजनशलाका करने से कैसा नुकशान होता है ? इस बात को समझने के लिये यहाँ की हालत ही वस समझना ( जानना ) चाहिये / दूसरा मंदिर अभी अधूरा ही पडा है और गाँव-कलह के वजह से पूरा होने की आशा रखना भी कठिन है। 128 छोटालखमावा यहाँ जैनों के 2 अर और एक गृह-मन्दिर है / मन्दिर में मूलनायक श्रीऋषभदेवजी की एक फुट बडी मूर्ति स्थापित है। यहाँ पूजा का प्रबन्ध रोवाडा-संघ के तरफ से है, पर आशातना बहुत हैं. देख-रेख बराबर नहीं है। 126 मोटा लखमावा.. यहाँ जैनों के 10 घर हैं और 1 गृह-मन्दिर है / मूलनायक श्रीगोडी-पार्श्वनाथ की सवा फुट बडी मूर्ति बिराजमान है, जो अतिसुन्दर है / इसकी अजनशलाका श्राहोर में संवत् 1655 फाल्गुनसुदि 5 के दिन श्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के हाथ से हुई है।
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________________ (149) 130 कोरटा (तीर्थ )-- यह प्राचीन तीर्थस्थान एरनपुरा स्टेशन से 7 कोश पश्चिम है / इसके पास ही धोले पत्थर की एक छोटी पहाडी है, जो धोलागढ के नाम से पहचानी जाती है / यहाँ जैन ओसवालों के 50 घर हैं, जो विवेकशून्य हैं ! सब मिलकर यहाँ चार सौधशिखरी जिनमन्दिर हैं, जिनमें महावीरप्रभु का सब से अधिक पुराना हैं और इसी मन्दिर के कारण यह स्थान तीर्थ स्वरूप माना जाता है / इस तीर्थ का विशेष वृत्तान्त अस्मल्लिखित ' श्रीकोरटा तीर्थ का इतिहास' नामक किताब से जान लेना चाहिये / 131 कानपुरा यह छोटा गाँव हैं इसमें जैनों के 15 धर और 1 गृहमंदिर है, जिसमें शान्तिनाथजी की भव्यप्रतिमा बिराजमान है / 132 शिवगंज जवाँई नदी के दहिने किनारे पर यह कसबा वसा हुआ है / सं० 1910 में सिरोही के महाराव शिवसिंहजीने इसको श्राबाद किया और इसकी तरक्की के लिये उन्होंने सिर्फ 11) लेकर एक एक मकान की जमीन का पट्टा कर देने की आज्ञा दी / सब से पहले इसकी नींव पालीनिवासी कालुरामजी-ओसवालने डाली थी, बाद में सरकार की रहमदिली और एरनपुरा स्टेशन नजदीक होने से यहाँ पर कई गावों के जैन और जैनेतर कुटुम्ब के कुटुम्ब श्रा श्राकर वस गये / इस समय इसकी आबादी 2000 घर के अन्दाजन होगी।
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________________ (150) यहाँ पर श्वेताम्बरजैनों में ओसवालों के 300, और पोरवाड़ों के 325 घर हैं, जिनमें सनातन-त्रिस्तुतिक संप्र. दाय के 35 और स्थानकवासियों के नाममात्र के 15 घर हैं। यहाँ के जैन जिज्ञासु और गुणिसाधुओं की कदर करने वाले हैं। गाँव में चार बड़ी बड़ी पक्की धर्मशालाएँ और पांच उपासरे हैं, जो हजारों की लागत के हैं। यहाँ बड़े आलिशान तीन सौधशिखरी और चार गृह जिन-मन्दिर हैं। ___सब से बड़ा मन्दिर जो बाजार के पश्चिम किनारे पर है और मोटा-मन्दिर के नाम से पहचाना जाता है। इसका वहीवट श्रोसवालों के हाथ में है और इसमें मूलनायक श्रीरिखभदेवस्वामी की सफेद वर्ण की तीन फुट बढ़ी सुन्दर मूर्ति स्थापित है, जिसकी प्रतिष्टा सं० 1928 वैशाख सुदि 3 के दिन हुई है / इसके पास ही दूसरी मूर्ति श्यामरंग की श्रीऋषभदेवजी की है, जो सं० 1921 माघसुदि 13 सोमवार की और तीसरी मूर्ति सं० 1962 माघसुदि 11 की प्रतिष्ठित है। इसके अलावा मण्डप में कई प्रतिमाएँ विराजमान हैं, जो प्राचीन और अर्वाचीन हैं और कहीं से लाकर यहाँ पछि से बैठा दी गई हैं। दूसरा मन्दिर पोरवाड़ों का, जो बहुत ऊंची खुरशी पर त्रिशिखरी बना हुआ है / इसकी बनावट अतिसुन्दर, सफाईदार और दर्शनीय है / इसमें मूलनायक श्रीऋषभदेवजी की भव्यमूर्ति है, जिसकी प्रतिष्टा सं० 1943 फाल्गुनसुदि 5 के दिन हुई है / इस मन्दिर की छोटी बड़ी सभी प्रतिमाएँ पालीताणा से लाई हुई हैं और इनकी अञ्जनशलाका सं० 1921 में हुई है।
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________________ (151) तीसरा चोमुखजी का मन्दिर है, जो तुलसाजी रामाजी पोरवाड़ का बनवाया हुआ और शिखरवाला है / इसमें मूलनायक श्रीऋषभदेव आदि की प्रतिमाएँ बिराजमान हैं, जिनकी अंजनशलाका सं० 1956 वैशाखसुदि 15 गुरुवार के दिन कोरटा-तीर्थ में श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराजने की है और यहाँ स्थापना सं० 1661 माहशुदि 6 के रोज हुई है। __चौथा मन्दिर त्रिस्तुतिक संप्रदाय का है, जो बिशाल और मजबूत धर्मशाला के ऊपरी भाग में है / इसको शा० बन्नाजी मेघाजी पोरवाड़ने बनवाया है, जो अतिरमणीय और दर्शनार्थियों के चित्त को लुभानेवाला है / इसमें मूलनायक श्रीअजितनाथजी की दो फुट बड़ी सफेदवर्ण की भव्य मूर्ति बिराजमान है, जिसकी अञ्जनशलाका-प्रतिष्टा संवत् 1945 माहसुदि 5 के दिन श्रीमद विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने की है। इस सुअवसर पर दोसौ जिन प्रतिमाओं की अञ्जनशलाका भी की गई थी। ___ पाचवां मन्दिर वीरप्रभु का है, जो घर देरासर है / इसमें मूलनायक श्रीमहावीरस्वामी की मूर्ति बिराजमान है, जिसकी प्रतिष्ठा और अंजनशलाका * सं० 1972 माहसुदि 5 के दिन यति रूपसागरजी और नाडोलवाले यति प्रतापरतनजीने की है। जैनशास्त्रों का कथन है कि असंयती, अविरति और अप्रत्याख्यानी यतियों की प्रतिष्टित जिनप्रतिमा पूजनीय नहीं होती, अतः इसका पूजन और नमन करना विचारणीय है। छट्ठा मन्दिर कलापुरा में है, जो दो मंजिला गृह देरासर है। नीचे के भाग में मूलनायक श्रीऋषभदवस्वामी की मूर्ति स्था
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________________ (152) पित है, जिसकी अञ्जनशलाका सं० 1826 में हुई है और ऊपर के भाग में पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा है, जो सं० 1921 माघसुदि 7 गुरुवार की प्रतिष्ठित है। इस कसबे में सब से पहले यहि मन्दिर बना है, इस से यह जूने मन्दिर के नाम से पहचाना जाता है। ___सातवां मन्दिर कसबे से दक्षिण एक छोटी बगीची में है जिसको लोड़े साजन (दशा ओसवाल ) मूलचन्द गांधीने बनवाया है / इसमें भगवान महावीर की एक फुट बड़ी मूर्ति स्थापित है। ___इस कसबे के पास ही एरनपुर नामक छावनी है, जिसको सं० 1864 में सेना के अफसर मेजर डाउनिंगने अपनी जन्मभूमि के टापू एरन के नाम से बसाई है / यहाँ से एरनपुरा स्टेशन 7 मील पूर्व-दक्षिण है। छावनी और शिवगंज में अंग्रेजी हिन्दी स्कूल भी है और जैनियों के तरफ से जैन-स्कूल है जिसमें धार्मिक और व्यवहारिक अभ्यास कराया जाता है। 133 ऊँदरी ___ एरनपुरारोड़ की सडक के दहिने भाग में यह गाँव बसा हुआ है / यहाँ ओसवाल जैनों के 12 घर, एक छोटी धर्मशाला और उसीके एक कमरे में गृहमन्दिर है, जिसमें छोटी चार जिन प्रतिमाएँ बिराजमान हैं। इससे लगते ही जूना सुमेरपुर है, जिसमें जैनों के पांच घर और एक गृह मन्दिर है। इसमें मूलनायक पार्श्वनाथ भगवान् की छोटी मूर्ति स्थापित है। इसके पास ही नया-सुमेरपुर' है जिसमें जैनों की 30 दुकानें,
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________________ (153) एक धर्मशाला, और उसीके एक कमरे में जिनमूर्ति बिराजमान है / यहाँ व्यापार की अच्छी तरक्की होने से दिनों दिन बसति अच्छी जमती जाती है। 134 सांडेराव___अजमेर जानेवाली सडक के दहिने तरफ़ महादेव-पहाड़ी के नीचे बसा हुवा यह अच्छा कसबा है / इसे राव सांडेजीने बसाया, इसीसे इसका नाम सांडेराव पडा है / यहाँ जैनों में ओसवालों के 150 और पोरवाडों के 150 मिल के 300 घर हैं, जिनमें सनातन-त्रिस्तुतिकों के 20 घर और स्थानकवासियों के 60 घर हैं / यहाँ दो धर्मशाला, दो उपासरे और दो शिखरबद्ध मन्दिर हैं / एक बड़ावास में प्राचीन और विशालचोक में स्थित है / कहा जाता है कि यह मन्दिर राजा गन्धर्वसेन के समय का बना हुवा है / इसके मूलनायक श्री शान्तिनाथजी हैं, जो तोरण और परिकर सहित हैं। इनके दोनों तरफ पार्श्वनाथजी की दो प्रतिमाएँ बिराजमान हैं। मन्दिर के मंडप में दहिने भाग पर जिनप्रतिमाओं के सिवाय एक आचार्य प्रतिमा है / जिसकी पलाठी पर लिखा है कि "श्रीषंडेरकगच्छे पंडितजिनचन्द्रेण गोष्ठियुतेन विजयदेव नागमूर्तिः कारिता मुक्तिवांछता, संवत् 1167 वैशाखवदि 3 थिरपालः शुभंकरः" ___ इसके प्रवेशद्वार के अन्दर एक बारसाख के ऊपर लंबी दो पंक्ति का लेख जूनी लिपी में इस प्रकार उकेरा हुआ है
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________________ ॐ संवत् 1221 माघवदि 2 शुक्र अद्येह श्रीकेन्हणदेवविजयराजे तस्य मातृराज्ञी श्रीमानलदेव्या श्रीपंडेरकीयमूलनायकश्रीमहावीरदेवाय चैत्रवदि 13 कल्याणिकनिमितं राजकीयभोगमध्यात् युगंधर्याः हाएल एकः प्रदत्तः / तथा राष्ट्रकूटपातूकेल्हण तद्भ्रातृज-उत्तमसिंह-सूद्रग-कान्हणआहड-आसल-अणतिगादिभिः तलाराभाव्यथ सगटसत्कात् अस्मिन्नेव कल्याणके द्र०१ प्रदत्तः / तथा श्रीपंडेरकवास्तव्य रथकार घणपालसूरपालजेपालसिगडा अमियपाल जिसहडदेन्हणादिभिः चैत्रसुदि 13 कल्यणके युगंधर्याः हाएल एकः प्रदत्तः / " इसी मंडप के स्तंभ पर का एक लेख प्राचीनजैनलेखसंग्रह-द्वितीयभाग में लेखाङ्क 350 तरीके उद्धत किया है / वह इस प्रकार है "थांथासुत राल्हापाल्हाभ्यां मातृपदश्रीनिमित्ते स्तंभको दत्तः, संवत् 1236 कार्तिकवदि 2 बुधे अद्येह श्रीनदले महाराजाधिराजश्रीकेन्हणदेवकल्याणविजयराज्ये प्रवर्त्तमाने राज्ञीश्रीजान्हणदेवी भुक्तौ श्रीषंडेरकदेवपार्श्वनाथप्रतापतः थाथासुतरान्हाकेन भातृपान्हापुत्रसोढासुभकर-रामदेव-धरणिहर्ष-वर्द्धमान-लक्ष्मीधर-सहतिग-सहदेव--रासा-धरण-हरिचंद्र-वरदेवादिभिः युतेन म........ परमश्रेयोऽर्थे विदितनिजगृहं प्रदत्तां राल्हासत्क मानुषैः वसद्भिः वर्षप्रति द्राएला 4 प्रदेयाः, शेषजनानां वसतां साधुभिः गोष्ठिकैः सारा कार्या,
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________________ (155) संवत् 236 वर्षे ज्येष्टसुदि 13 नौ सोऽयं मातृधारमति पुण्यार्थं स्तंभको हृतः।" इन दोनों लेख में * हाएल' 'तलाराभाव्य ' और 'युगंधरी ' ये शब्द ध्यान खींचने लायक हैं / एक हल से एक दिन में खेडी हुई जमीन में उत्पन्न धान्य को हाएल कहते हैं, पुराध्यक्ष, या नगररक्षक अथवा तलारागाँव के महसूल को तलाराभाव्य कहते हैं और जुआर को युगंधरी कहते हैं। ___ दूसरा शिखरबद्ध जिनमंदिर खिमेल जानेवाले दरवाजे के पास है / इसको पोरवाड़ मोतीजी वरदा की गृहलक्ष्मी श्राविका हांसीदेवीने नया बनवाया है / यह मन्दिर छोटा होने पर भी बड़ा सुन्दर है और इसकी प्रतिष्टा होना बाकी है। ___विक्रमीय 10 वीं शताब्दी में पंडेरकगच्छ की उत्पत्ति इसी कसबे के नाम पर से हुई मालूम पड़ती है / इस गच्छ में अनेक प्रभावशाली आचार्य हो गये हैं और उन्होंने अनेक स्थानों पर प्रतिष्ठा आदि शासनोन्नति के कार्य किये हैं। पंडेर कगच्छ के आचार्यने ससोदिया वंश की स्थापना की थी। मेवाड के सीसोदियाराजा और सीसोदिया राजपूत षंडेरिया कह लाते हैं। प्रसिद्धि भी है कि सीसोदिया षंडेसरा, चउदशिया चोहाण / चैत्यवासिया चावडा, कुलगुरु एह वखाण // 1 // सागरदत्तरास के रचयिता आमदेवसूरि के शिष्य शान्तिसूरि और ' ललितांगचरित्ररास' के कर्ता शान्तिसूरि के शिष्य
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________________ (156) ईश्वरसूरि इसी गच्छ के आचार्य हैं / वल्लभी ( वला ) से श्री. आदिनाथजिनालय को उडाके नांडोल लानेवाले आचार्य यशो. भद्रसूरि इसी पंडेरकगच्छ के थे / 135 खिमेल.___ यह कसबा जोधपुर रियासत के गोडवाड परगने में राणी स्टेशन से दक्षिण 2 मील के फासले पर है / यहाँ ओसवालजैनों के 190 तथा पोरवाडजैनों के 10 घर हैं / इनमें स्थानकवासि यों के 7 घर तथा एक जीर्ण थानक है और सनातनत्रिस्तुतिक श्वेताम्बरजैनसंप्रदाय के 25 घर हैं, जो श्रद्धालु विवेकी, धर्मप्रेमी और भक्तिसंपन्न है / इन्हों की सदर बाजार के बीच में दोमंजिली और पक्की धर्मशाला है, जिसमें 250 श्रावक श्राविका आनन्द से बैठ सकते हैं / इसके अन्दर की दहिने तरफ की भीत के ऊपर इस प्रकार एक शिलालेख लगा है____ ॐनमोऽस्तु सिद्धेभ्यः / जैनाचार्य श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय कलिकालसर्वज्ञकल्प श्री श्री 1008 श्रीमद्भट्टारक श्री विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के सदुपदेश से यह धर्मशाला बनवाई / श्रीसकल तीनथुइवालोंने संवत् 1948 फाल्गुनसुदि 1 दिने / इसलिये इस धर्मशाला में तीनथुईवालों की मुकत्यारी है दूसरों की नहीं है, मुकाम नगरखिमेल, सर्वेषां शुभं भवतु / यहाँ प्राचीन जैनमंदिर के सामने जैनाचार्य श्रीमद्विजयरा. जेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का समाधिमन्दिर बना हुआ है, जो
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________________ (157 ) सुन्दर और दर्शनीय है और जिसमें भव्य आचार्यप्रतिमा स्थापित है। . इसके अलावा गाँव के पूर्व किनारे पर लगते ही एक सौधशिखरी जिन-मन्दिर है, जो सं० 1246 में लीलाशाह श्रोसवाल का बनवाया हुआ है / इसमें मूलनायक श्रीशान्तिनाथजी की सफेद वर्ण की 1 // हाथ बड़ी मूर्ति मय परिकर के विरा. जमान है / इसकी अञ्जनशलाका सं० 1134 वैशाखसुदि 10 के दिन श्रीहेमसूरिजी महाराजने की है / मूलनायक के दहिने तरफ एक फुट बड़ी दूसरी मूर्ति है, जिसकी प्रतिष्टा सं० 1653 वैशाखसुदि ११के दिन श्रीविजयसेनसूरिजी महाराज के हाथ से हुई है / प्रवेश द्वार के वाम-भाग में 2 // हाथ बड़ी एक का. योत्सर्गस्थ मूर्ति है, जो अति प्राचीन और सर्वाङ्गसुन्दर है। दूसरा मन्दिर गाँव से दक्षिण बाहर बगीचे में है, यह बावन जिनालय है, इसमें मूलनायक श्री आदिनाथजी की श्यामरंग की 1 हाथ बड़ी भव्य मूर्ति स्थापित है / इसकी अंजनशलाका सं० 1928 में हुई है और देह रियों में विराजमान करने के लिये 55 मूर्तियों की अंजनशलाका सं० 1961 माघसुदि 15 बुधवार के दिन तपागच्छ के श्रीपूज्य विजयमुनिचन्द्रसूरिजीने की है / ये सभी प्रतिमाएँ मन्दिर के एक कमरे में रक्खी हुइ हैं / इस मंदिरको सं० 1920 में यहीं की रहनेवाली श्राविका नगीबाईने गाँवों गाँव से पानटी करा के बनवाया है। 136 वरकाणा-तीर्थ गोड़वाड परगने की पंचतीर्थियों में से यह एक है।
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________________ (158 ) यह राणीस्टेशन से 2 // मीलके फासले पर है। इसमें प्राचीन समय का बना बावन जिनालय सौधशिखरी भव्यमन्दिर है / मन्दिर में मूलनायक श्रीपार्श्वनाथजी की सफ़ेदवर्ण की 1 हाथ बडी मूर्ति स्थापित है जिसके चारों तरफ सर्वधात के एक तोरण में तेवीस जिनप्रतिमाएँ हैं। कहा जाता है कि पहले यहाँ 15 वीं सदी का प्रतिष्टित तोरण लगा था, परन्तु उसको हटा कर यह दूसरा तोरण लगाया गया है, जो दोसौ वर्ष का पुराना है / यहाँ जैनों का एक भी घर नहीं है, परन्तु यहाँ की विशाल धर्मशाला के ऊपर के कमरे में एक पार्श्वनाथजैन-विद्यालय है, जिसमें 100 जैनबालक शिक्षण पाते हैं / बालकों के खान-पान आदि की व्यवस्था विद्यालय-कमेटी के तरफ से की जाती है / इस विद्यालय की प्रथम नींव घाणेरावनिवासी जसराजजी पोरवाड़ने डाली और बाद में विजयवल्लभसूरिजीने इस को कार्यरूप में परिणत किया। 137 राणी-स्टेशन___बी. बी. एन्ड. सी. आई. रेल्वे का यह स्टेशन है / इसी के दहिने भाग में दो लाइन का छोटा बाजार है / जिसमें जैनों की 50 दुकाने हैं और बाजार के बीच में एक सौधशिखरी अच्छा जिनमन्दिर है। इसमें मूलनायक श्रीशान्तिनाथजी की एक हाथ बड़ी सुन्दर मूर्ति स्थापित है / मन्दिर के बाह्य प्रवेश द्वार के गोखडे के नीचे एक लेख लगा है / जिसमें लिखा है कि-' तपागच्छीय श्रीपूज्य विजयसिंहसूरि सन्तानीय यति तिलोकविजयजी के शिष्य यति यशोविजयजीने निजोपार्जित
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________________ (159) द्रव्य से इस मंदिर को बनवाया और मेडतियावंशीय प्रताप सिंहजी के राज्य में समस्त श्री संघ के सहित श्रीपूज मुनि. चन्द्रसूरिजीने सं० 1964 माघसुदि 5 बुधवार के दिन प्रतिष्ठा करके शान्तिनाथ की मूर्ति विराजमान की / ' मन्दिर के बगल में ही पक्की दो मंजिली धर्मशाला है और दूसरी दूसरे बगल पर है / पंचतीर्थी की यात्रा के लिये आनेवाले यात्री इन्हीं धर्मशाला में विश्राम लेते हैं / यहाँ के जैन धर्म के जिज्ञासु और साधुओं के भक्त हैं / 138 राणी यह राणी-स्टेशन के पास ही 1 मील के फासले पर वसा हुआ अच्छा गाँव है / यहाँ जैनों के 150 घर, 4 धर्मशाला, एक उपासरा और एक जिन-मन्दिर शिखरबद्ध है। मन्दिर में मूलनायक श्रीशान्तिनाथजी की भव्य-प्रतिमा स्थापित है, जिसकी प्रतिष्ठा सं० 1856 माहसुद 5 के दिन खरतरगच्छीय श्रीपूज श्रीचन्द्रसूरिजी के हाथ से हुई है / यहाँ जैनपाठशाला भी है, जिसमें धार्मिक और व्यवहारिक शिक्षण दिया जाता है / इसके मास्तर भीखचंदजी अच्छे श्रद्धालु और समझदार हैं। 136 ब्राह्मी ( बरामी) यह छोटा गाँव है, इसका दूसरा नाम बरामी है, जो ब्राह्मी का ही अपभ्रंस है / इसमें ओसवाल जैनों के 35 घर, 1 धर्मशाला और 1 जिन-मन्दिर है / मन्दिर में मूलनायक श्रीशान्तिनाथजी की भव्य प्रतिमा स्थापित है।
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________________ (160) 140 खिमाडा___इस गाँव में ओसवाल जैनों के 5 और पोरवाड जैनों के 25 घर, एक उपासरा, एक छोटी धर्मशाला और एक गृहमन्दिर है, जिसमें मूलनायक श्रीश्रेयांसनाथजी की प्राचीन मूर्ति स्थापित है। मन्दिर में पाषाण की 7 और सर्वधात की 3 मूर्तियाँ है / यहाँ के जैन सनातन त्रिस्तुतिक संप्रदाय के हैं / 141 कोशिलाव गोडवाड परगने में यह अच्छा कसवा है / यहाँ ओसवालों के 150 और पोरवाडों के 80 घर हैं, जिनमें सनातन-त्रिस्तुतिकों के 60 घर हैं / गाँव में दो जिन-मन्दिर हैं। प्रथम पंचायती बड़ा सौधशिखरी है, जिसमें श्रीशान्तिनाथ भगवान् की 1 हाथ बड़ी प्राचीन मूर्ति स्थापित हैं। इसके दोनों तरफ बिराजमान दो प्रतिमाएँ नवीन हैं। यह मन्दिर सं० 1951 में बन के तैयार हुओं और सं० 1652 माहसुदि 5 को, इसकी प्रतिष्ठा हुई। दूसरा मन्दिर सदर बाजार में बहुत ऊंची खुरशी पर बना हुआ है। इसको त्रिस्तुतिक-जैनसंघने बनवाया है, इसकी प्रतिष्ठा सं० 1955 माहसुदि 13 के दिन तपस्वी श्रीरूपविजयजीने की है। इसके मूलनायक भगवान् श्रीपार्श्वनाथजी हैं-जिनकी अञ्जनशलाका कोरटानगर में 1656 के साल महाराज श्रीराजेन्द्रसूरीश्वरजीने की है। इसके वाम-भाग के विशाल कमरे में श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी महाराज की भव्य-मूर्ति
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________________ ( 161) विराजमान है। इसके बगल में नीचे एक उपासरा और इसके सामने दो मंजिली पक्की धर्मशालाएँ हैं / धर्मशाला में एक छोटा शानभंडार भी है / इसके अलावा पंचायती तीन उपासरे, और दो ओसवाल-पोरवाड़ों की धर्मशाला है। यहाँ एक श्रीशान्तिनाथजैनलायब्रेरी है, जो नवयुवकों के उत्साह से चलती है / गाँव में सरकारी स्कूल, पोस्ट ओफिस और पुस्तकालय भी है। यह गाँव चाणोद ठाकुर की जागीर में है / 142 बाबागाँव___ यहाँ जैन ओसवालों के 10, और पोरवाड़ों के 25 घर हैं / एक दो मंजिला अच्छा उपासरा, और एक गृह-मन्दिर है, जिसमें श्रीसंभवनाथजी की प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। इसके अलावा दो पाषाण की, और दो सर्वधात की मूर्तियाँ हैं जो नवीन हैं / यहाँ से तीन मील के फासले पर 'दणों' नामक छोटा गाँव है जिसमें जैनों के 8 घर हैं, जो अति भावुक, श्रद्धालु और साधु साध्वियों की खूब सेवा करनेवाले हैं। छोटा गाँव होने से यहाँ जिनमन्दिर या उपासरा नहीं है। 143 पावा इस गाँव में पोरवाडों के 25 और श्रोसवालों के 10 घर और एक छोटी धर्मशाला है / यहाँ एक जूना सौधशिखरी जिनमंदिर है जिसमें श्रीशान्तिनाथजी की 1 / हाथ बड़ी मूर्ति बिराजमान है / यहाँ के जैन श्रद्धालु भक्तिवाले और सनातनत्रिस्तुतिक संप्रदाय के हैं। 11
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________________ ( 162) 144 भूति. इस गँव के दो विभाग हैं जो दो वास के नाम से पहचाने जाते हैं / यहाँ ओसवालों के 35 और पोरवाड़ों के 60 घर हैं, जो सभी सनातन त्रिस्तुतिक संप्रदाय के हैं / रामसिंहजी के वास में छोटी पहाड़ी की ढालू जमीन पर एक नवीन सौधशिखरी जिन-मन्दिर है / इसके मूलनायक श्रीमहावीरस्वामी हैं जिनकी पलांठी के ऊपर लिखा है कि __ " संवत् 1969 शाके 1834 माघशुक्ला 10 मंडवारियानगरवास्तव्य खूमाजी सुत-जेठा-डाहा-विजयचन्द्रकारिताञ्जनशलाकायां भूतिनगरवास्तव्य ओ० वेदमूथा खीमासुत सहसमलस्य केशामात्रा श्रीमहावीरजिनबिम्बाअनशलाका कारापिता। कुता च श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीयश्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरशिष्यश्रीधनचन्द्रसूरिभिः / लि० उ० मोहनविजयेन। दूसरा मन्दिर चतरसिंहजी के वास में है, जो गाँव के मध्य भाग में है और शिखरबद्ध है / इसके मूलनायक श्रीऋषभदेवस्वामीजी हैं जो श्याम-रंग के 4 फुट बडे हैं / इनकी पलाठी पर इस प्रकार लेख है:: सं० 1969 माघशुक्ल 10 रविदिने पुनर्वसुनक्षत्रे मंडबारियानगरवास्तव्य शा खूमाजीसुतजेठाडाहाविनयचन्द्रकारापिताञ्जनशलाकायां श्रीभूतिनगरे ओशवंशीय वेदमूता हीराजीदेवीवंदखेमराजैः श्रीआदिनाथविम्बाञ्जनशलाकासह-प्रतिष्ठा
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________________ (153) कारापिता। कृता च श्रीसौधर्मवृहत्तपागच्छाधिराज भट्टारक श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरशिष्य-भ० श्रीविजयधनचन्द्रसूरीश्वरैः / लियतीन्द्रविजयेन श्रीशुभं भवतु / " 145 कवलाँ___यह कवला नामक पहाडी के नीचे बसा हुआ है, यहाँ जैनों के 6 घर और एक पुराना जिन-मंदिर है, जिसमें श्रीसंभवनाथ की सफेदवर्ण की एक हाथ बडी मूर्ति बिराजमान है, जो खरतरगच्छीय जिनचन्द्रसूरिजी की प्रतिष्टित है। इसके दोनों बगल में दो मूर्तियाँ हैं, जो सं० 1585 की प्रतिष्ठित हैं और बाह्यमंडप में दहिनी बाजू जो मूर्ति आदिनाथस्वामी की है उसकी प्रतिष्ठा सं० 1101 में हुई है / यहाँ के प्राचीन खंडेहरो के देखने से अनुमान किया जा सकता है कि पेस्तर इस नगर में जैन जैनेतरों की बहुत वसती (आबादी ) होगी / 146 रोडला यहाँ श्रोसवाल पोरवाडों के 12 घर, एक उपासग और उसके कमरे में ही श्रीआदिनाथ और पार्श्वनाथ की सफेदवर्ण की 16 अंगुल की प्रतिमाएँ स्थापित हैं, जो नवीन हैं। 147 तखतगढ यह कसबा एरनपुरारोड से 18 मील पश्चिमोत्तर हैं / इसको सं० 1618 में सेखमियाने बसाया था, फिर सस्कार की मदत से यह आबाद हो गया / यहाँ पोसवाल जैनों के 125, और पोरवाडजैनों के 460 घर हैं / निनमें सनातन स्तुतिक संप्रदाय
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________________ (164) के 15 घर हैं और उनकी धर्मशाला भी जुदी है। त्रिस्तुतिकों के सिवाय प्राय: सभी जैन जैन-भावना से रहित और क्लेश-प्रिय हैं। गाँव में चार धर्मशाला, दो उपासरे और पांच सौधशिखरी जिन-मन्दिर हैं / जिनमें से तीन में श्रीआदिनाथ, एक में श्रीशा. न्तिनाथ और एक में श्रीपार्श्वनाथजी मूलनायक हैं / मोटे मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध बाजारवाले जिनालय में सब से प्राचीन और शेष में सभी नवीन प्रतिमाएं स्थापित हैं। 148 जुआणा___यहाँ जैनों के धार्मिक-भावना शून्य चार घर हैं, जो कहने मात्र के जैन हैं परन्तु जैनोंतरों से भी गये गुजरे हैं और जैनसाधुओं को देख कर घरों में ताले लगा लेते हैं, या देखते ही दूसरे गांव चले जाते हैं। 149 भारंदा इस गाँव में ओसवाल जैनों के 90, घर एक उपासग, एक धर्मशाला और एक शिखरवाला सुंदर मन्दिर है / इसमें मूलनायक श्रीशान्तिनाथजी की 3 फुट बडी भव्य मूर्ति मय दो मूर्तियों के बिराजमान है, जो नवीन हैं / बाह्य-मंडप में सर्वाङ्गसुन्दर नवीन प्रतिष्ठित दो मूर्तियाँ स्थापित हैं / 150 फतापुरा बालीपरगने में जोधपुर रियासत का यह छोटा गाँव है, जो एरनपुरा-छावनी से 8 मील पश्चिम है और एरनपुर-छावनी पोस्ट के हलके में हैं / यहाँ प्रोसवाल जैनों के 35 घर हैं, जो
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________________ (165) सभी त्रिस्तुतिक संप्रदाय के हैं / गाँव में एक उपासरा, एक धर्मशाला और एक शिखरवाला जिन-मन्दिर है, जिसमें मूलनायक श्रीपार्श्वनाथनी हैं, जो सफेदवर्ण के 11 हाथ बडे हैं और मय दो प्रतिमाओं के बिराजमान हैं / गाँव से पूर्व थोडी दूर पर तपस्वी श्रीहिम्मतविजयजी की समाधि ( छत्री ) है जिसमें उनके चरणचिन्ह स्थापित हैं। 151 जोगापुरा-- सिरोही-स्टेट का यह छोटा गाँव है, यहाँ ओसवालों के 40 घर, एक धर्मशाला और एक जिन मन्दिर है, जिसमें मूलनायक श्रीऋषभदेवजी की श्वेतवर्ण की 1 फुट बडी प्रतिमा स्थापित है। यहाँ के जैन श्रद्धालु होने पर भी साधुगमनाऽभाव से विवेकशून्य हैं। 152 रोवाडा____ यहाँ श्रोसवालों के 15 और पोरवाडों के 15 घर हैं, जो श्राद्धालु, विवेकी और साधु-भक्तिवाले हैं / गाँव में दो धर्मशाला और एक शिखरवाला जिनालय है, जिसमें श्रीऋषभदेवस्वामीजी की मूर्ति मय दो मूर्तियों के स्थापित हैं, जो सं० 1950 की प्रतिष्ठित हैं और यहाँ सं० 1961 माहसुदि 6 के दिन बिराजमान हुई हैं। यह गाँव झारोली-पहाडी से 1 मील उत्तर है और यहाँ के तथा जोगापुरा के सभी जैन सनातन त्रिस्तुतिक शुद्ध संप्रदाय के हैं। 153 पालावा मलादर-पहाडी की ढालू जमीनपर बसा हुआ यह छोटा गाँव
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________________ (156) है और इसके उत्तर अर्ध-मील छेटी पर सूखडी नामक नदी है / यहाँ जैनों के 12 घर हैं, जो पोरवाड और विवेक-विहीन हैं। यहाँ एक छोटा उपासरा और एक छोटा शिखरवाला जिन-मन्दिर हैं जिसमें मूलनायक श्रीपार्श्वनाथ की छोटी प्रतिमा स्थापित है, जो अर्वाचीन है। 154 हरजी____ जोधपुर-रियासत के जालोर परगने में सूखडी नदी के वांये किनारे पर वसा हुआ यह कसबा है / इसमें ओसवालों के 25 और पोरवाडों के 250 घर है। जिनमें सनातन-त्रिस्तुतिक संप्रदाय के 145 घर हैं और उनकी एक पक्की दो मंजिली अच्छी धर्मशाला है / इसीकी एक कोठरी में छोटा ज्ञानभंडार है जिसमें मुद्रित और हस्तलिखित ग्रन्थों के 25 बिंडल है / गाँव के सदर बाजार में एक सौधशिखरी मन्दिर है जिसमें श्रीऋषभदेव भगवान् की सफेदरंग की सवा हाथ बडी भव्य मूर्ति मय दो प्रतिमाओं के स्थापित है, जो सातसौ वर्ष की पुरानी है। गाँव से दक्षिण बाहर एक विशाल-शिखरवाला नया जिनालय तैयार हो रहा है उसमें बिराजमान करने के लिये पाषाण की 30, सर्वधात की 9, सर्वधात के गहाजी 18 और श्रीविजयराजेन्द्रसरिजी महाराज की मूर्ति 1, गाँववाले मंदिर के वांये भाग की त्रिस्तुतिकधर्मशाला की एक ओसारी में रक्खी हुई हैं। इनमें मूलनायक श्रीऋषभदेव भगवान् की सर्वघात की दो हाथ बड़ी अतिसुन्दर मूर्ति है / उसकी पलांठी पर इस प्रकार लेख खुदा हुआ है
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________________ (167 ) _संवत् 1656 वैशाखसितपूर्णिमास्यां तिथौ, गुरौ, मरुधरायां हरजीनगरवास्तव्य-प्राग्वटज्ञातीय वृ० चांपासुत केरा तस्य भार्या जेतीदे तया स्वात्मार्थे श्रीआदीश्वरबिम्ब कारितं, प्रतिष्ठितं भ० श्रीरत्नसूरि तत्पट्टे चमासूरि तत्पढे श्री देवेन्द्रसूरि तत्पट्टे कल्याणमूरि त० श्रीविजयप्रमोदसूरिशिष्य भ० श्रीविजयराजेन्द्रसूरिभिः / श्रीसुधर्मतपगणे शिष्य मो. हनविजयलिपिकृतं श्रीकोरटानगरे।" इतनी ही बड़ी दूसरी पाषाण-मय श्रीआदिनाथजी की प्रतिमा है / उसकी पलांठी पर लेख है कि- "विक्रमार्कतः सं: 1655 वर्षे शालिवाहनशाके 1820 प्रवर्त्तमाने मासोत्तमे फाल्गुनकृष्णपंचम्यां गुरौ वासरे मरू धरायां राष्ट्र. वंशीय-महाराजाधिराज-राजराजेश्वरश्रीश्री सिरदारसिंहजी तेषां मान्य-राष्ट्र वंशीयचांपावतठकुरश्रीरत्नसिंहजीराज्ये हरजीनगरे श्रीआदिनाथविम्ब का०,प्रतिष्ठितं भट्टारकश्रीविजयरत्नसूरि, तत्पट्टे क्षमासूरि-देवेन्द्रसूरि-कल्याणमूरि-प्रमोदसूरि-पट्टप्रभावक-क्रियोद्धारकर्ता भ० श्री विजयराजेद्रसूरिभिः / प्रतिष्ठा कारिता प्राग्वाटज्ञातीयवृद्धशाखायां मनासुतसूरतिंगतत्पुत्रौ चमनाटेकचंदाभ्यां सपित. भ्यां, आहोरनगरे सुधर्मतपागच्छे लिपिचक्रे मोहनविजयः।" .. इनके अलावा गाँव में एक दो मंजिला पक्का उपासरा, तीन बडी धर्मशाला, एक श्रीमहावीरजैनयुवकमंडल, और एक जैन-स्कूल है। स्कूल में जैन जैनेतर बालक धार्मिक और व्यवहारिक शिक्षा पाते हैं, और इसके निभाव के वास्ते 10000
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________________ ( 198) हजार रुपयों का फंड साहूकारों में जमा है / इसके व्याज से इसका खर्चा चलता है। 155 बूड़तरा___ यह छोटा गाँव है जो सूखडी नदी के वांये किनारे पर बसा हुआ है / इसमें जैनों के 10 घर हैं, जो विवेकी और भक्तिशाली है / यहाँ एक छोटा उपासरा है और गाँव छोटा होने के बजह से जिनमंदिर नहीं है। 156 थाँवरा सूखडी नदी के दहिने किनारे पर जालोर हकुमत के नीचे जोधपुर रियासत का यह कसबा है / यहाँ जैनों के 40 घर, एक धर्मशाला और एक शिखरबद्ध जिनालय है / जिसमें प्राचीन एक खंडित मूर्ति श्री शान्तिनाथजी की स्थापित है / आहोर-पही की पंचायत के अडतालीसी का यह सदर स्थान है / अडतालीस गाँवों के पंच महाजन यहाँ एकत्रित हो करके जातीय पंचायत करते हैं। यहाँ के जैन विवकशून्य और नाममात्र के जैन हैं। 157 भेंसवाडा-- जालोर परगने के इस गाँव में ओसवालों के 20 और पोरवाड़ों के 52 घर हैं, जो सभी सनातन-त्रिस्तुतिक संप्रदाय के हैं / यहाँ एक दो मंजिला उपासरा, एक छोटी दो मंजिली धर्मशाला और जोडा जोड दो सौधशिखरी जिन-मन्दिर हैं। प्रथम-मन्दिर म मूलनायक श्रीपार्श्वनाथ की और दूसरे में श्रीशान्तिनाथजी की भव्य मूर्ति विराजमान हैं।
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________________ (161) 158 सकराना यहाँ जैनों का एक भी घर नहीं है, परन्तु एक सौधशिखरी प्राचीन जिन-मन्दिर है, जिसका जीर्णोद्धार पाहोर-मंडन श्रीगोड़ी-पार्श्वनाथ के मन्दिर तरफ से हुआ है। इसमें मूलनायक श्रीपार्श्वनाथजी की भव्य मूर्ति बिराजमान है जो प्राचीन, सुन्दर और दर्शनीय है। 159 लेटा सूखडीनदी के वाये किनारे पर यह गाँव है / यहाँ दसा ओसवाल जैनों के 30 घर, एक उपासरा और एक छोटा-शिखरवाला जिनालय है / मन्दिर में मूलनायक श्रीचन्द्रप्रभस्वामी की नवीन प्रतिष्ठित प्रतिमा स्थापित है। यहाँ के जैन भावुक और साधु साध्वियों के अनुरागी होने पर भी विवेकशून्य हैं। 160 जालोरगढ़___ सोनागिर-पहाड़ के नीचे उत्तर-पूर्व की ढालू जमीन पर वसा हुआ यह पुराना शहर है, जो चारों ओर पुराने जीर्ण और पतितावशिष्ट कोट ( शहर-पना ) से घिरा हुआ है और इसके पूर्व और उत्तर चार दरबाजे हैं, जो पक्के मजबूत बने हुए हैं। ___मारवाड़ के इतिहास से पता लगता है कि-लगभग विक्रम की दशवीं सदी में वारा नामक परमार राजपूतने मारवाड़ के चौदह हजार गाँवों को नव विभागों में विभक्त किये जो नवकोटी-मारवाड़ के नाम से सुप्रसिद्ध हुए। जालोर का पहाड़ी हिस्सा वारा-पंवार के छोटे भाई भोज की पांति में आया /
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________________ (10) उसने यहाँ शहर वसा के किला बंधवाया और यहाँ भोज का नव पीढ़ी तक अधिकार रहा / जालोर तोपखाने के वि० सं० 1174 के एक शिला-लेख में पवारों की वेशावली इस प्रकार दी है कि 1 वाक्पतिराज, 2 चन्दन, 3 देवराज, 4 अपराजित, 5 विजल, 6 धारावर्ष, और 7 वीसल। विक्रम की तेरहवीं सदी में नांदोल के चौहान कीर्तिपाल (कितुक ) ने जालोर को पंवारों से छीन कर अपने अधिकार में ले लिया और नांदोल को छोड़ कर जालोर के सोनागिर के किले में रहना कायम किया / सोनागिर के किले में रहने के कारण ही कीर्तिपाल के वंशज 'सोनगरा-चौहाण' कहलाये। यहाँ के सोनगग चौहानों की वंशावली इस प्रकार है-१ कीर्तिपाल, 2 समरसिंह, 3 उदयसिंह, 4 चाचिगदेव, 5 सामन्तसिंह, 6 कन्हणदेव, 7 मालदेव, 8 वनवीरदेव, और 6 रणवीरदेव / चौहानों के बाद सन् 1398 के लगभग विहारीपठान मुसलमानों का अधिकार जालोर पर हुआ / उनकी वंशावली इस प्रकार है 1 खुरमखान, 2 युसुफखान, 3 हसनखान, 4 सालारखान, 5 उस्मानखान, 6 बुढनखान, 7 मुजाहिदखान (मुमामलेक ), मुमा मलेक का अपुत्र मरण होने की खबर मिलते ही गुजरात-बादशाह के भेजे हुए अमीर जीवाखान-बमुखान की देखरेख नीचे सन् 151 0 से 1513 तक जालोर रहा। बाद में पीछा विहारी-पठानों के सुपुर्द हुआ। 8 अलीशेरखान, 6 सिकन्दरखान, 10 गजनीखान
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________________ (171 ) (प्रथम ), 11 सिकन्दरखान, (द्वितीय ), इनके बाद सन् 1535 से 1553 पर्यन्त लगातार अठारह वर्ष तक जालोर रियासत बिहारियों के अधिकार से निकल कर बलोच और राठोडों के अधिकार में रही, और बाद में देहली के बादशाह की प्रसन्नता से पीछी मलेकखान विहारी को मिल गई। 12 मलेकखान, 13 गजनीखान (द्वितीय ), 14 पहाडखान ( प्रथम ), इसके बाद इस्वीसन् 1618 से 1680 तक जालोर पर दिल्ली के जहांगीर बादशाह की हकुमत रही और शहेनशाह के भेजे हुए हाकम हकुमत करते रहे। उनके नाम ये हैं ( 1 ) महाराज शूरसिंह राठौड सन् 1618 से 1620, (2) सीसोदिया-भीमसिंहराणा सन् 1620 से 1621, ( 3 ) महाराज गजसिंह राठौड 1621 से 1638, (4) नबाब मीरखान 1638 से 1643, (5) नबाब फेज अलीखान 1643, (6) हंसदास राठौड 1643 से 1655, (7) महाराज जसवंतसिंह राठौड 1655 से 1679, और (8) महाराज सुजानासंह 1679 से 1680; इस प्रकार चौसठ वर्ष तक जालोर जागीर बादशाह के अधीन रह कर, सन् 1680 में दिवान कमालखान ( करणकमाल ) के भाई फतेहखान के अधीन हो गई और सन् 1897 में दुर्गादास राठौड़ के कृत उपकार के बदले में ओरंगजेब बादशाहने जालोर जागीर महाराज अजितसिंह राठौड को सोंप दी / तब से अब तक यह जागीर जोधपुर के नीचे उन्हीं के वंशजों के अधिकार में है।
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________________ यह शहर जोधपुर से 71 मील के फासले, नैऋत्य-कोण में सुकडी नदी के दक्षिण किनारे पर वसा हुआ है / इसके पूर्व सिरोही-राज्य, पश्चिम लूनी नदी, उत्तर पाली, बालोतरा परगना, और दक्षिण सांचोर, तथा जसवंसपुरा परगना है। इसकी लम्बाई पूर्व और पश्चिम 72 मोल, और चौडाई उत्तरदक्षिण 50 मील के अन्दाजन है। इसमें दो पहाडियाँ हैं-एक इसके पश्चिम और दूसरी दक्षिण-पूर्व जो 2797 फिट ऊंची है। पश्चिम-पहाडी पर मशहूर किला जो 800 गज लम्बा और 400 गज चौडा और 1200 फुट ऊंचा है / जादुदान चारण की बुंध के अनुसार जालोर का किला 1247 गज लम्बा और 470 गज पहोला है / इसका चढाव दो हजार कदम का है / इसके तीन दरवाजे और बावन बुरज हैं / इस किले की सब से पहले नींव भोजने डाली थी, उसके बाद इसका कितुक, चाचींगदेव, और सामंतसिंह चौहान ने उद्धार कराया, तथा दिवान फतेखान प्रथमने इसके पतित हिस्से की मरामत कराके यहाँ एक महल बनवाया / जालोर पहाड का असली नाम सोनागिर (सोने का पहाड) है और कईएक लोग इसको जालन्धर जालीन्धर और जालीपुर' भी कहते हैं, जो जलन्धरनाथ की समाधि, अथवा अधिक 1 भूस्तरवेताओं का अनुमान है कि-यह प्राचीन काल में ज्वालामुखी पर्वत होगा क्योंकि इस पहाड में से किसी किसी वक्त बहुत सख्त भूकम्प के मांचके निकलते हैं / बोयलो साहब का अभिप्राय है कि इस पहाड में सीसा, लोहा, तांबा आदि धातुओं की भी खाने हैं /
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________________ (173) जालों ( पीलुर्पक्षों) के होने के कारण है। इसके ऊपर का किला राजपुताना के प्रसिद्ध किलों में से एक है। यह चौहानों और परमारों का जूना निवास स्थान है / इस किले की लम्बाई 13 मील और चौडाई 1 मील के लगभग तथा चढाई 2 मील की इस समय ( वर्तमान ) में मानी जाती है। मजबूती के लिये इस किलेने बडी नामवरी पाई है और मुसलमानी बादशाहों की कइ टक्करें खाई हैं / इतिहासों से पता लगता है कि-अलाउद्दीन खिलजी बादशाह और उसके सेनापति अलफखान और नसरतखान ने सन् 1206 में किलेका घेरा डाला और यहाँ 11 वर्ष तक बराबर लड़ाई चलती रही। इस विग्रह में इस किले को बहुत नुकशानी पड़ी / ' मारवाड राज्य का इतिहास' में लिखा है कि अलाउद्दीन खिलजीने 8 वर्ष के घेरे के बाद राव कीतू के छठ्ठी पीढी में उत्पन्न राव कानडदे चौहान से लड कर नष्ट किया / इस युद्ध में कान्हणदेने संवत् 1338 वैशाखसुदि 6 को वीरगति पाई थी, किन्तु यह घटना 'तवारिखफरिस्ता' के लेखानुसार हीजरी सन् 706 ( इस्वीसन् १३०६-वि० सं० 1366 ) में और 'मुहणोतनेणसी की ख्यात ' के अनुसार वि० सं० 1368 की हुई है। और वीसलदेव (विग्रहराज) चतुर्थ की मृत्यु होने बाद भी मलेक खुरमखान लोहानीने गुजरात के सुलतान अफरखान की मदत से खूब लडाई की और आखिर किले पर अधिकार करके मुसलमानी झंडा खडा किया / इन मुसलमानी हमलों से केवल किले को ही नुकशान नहीं पहुंचा, किन्तु किले में स्थित जिनमन्दिरों का भी भारी नुकशान हुआ /
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________________ (17) इस किले पर तीन सौधाशखरी जिन-मन्दिर हैं, जो अति रमणीय और परमार्हत राजा कुमारपाल के बनवाये हुए हैं। सब से बडा और तारंगा-जिनालय का अनुकरण करनेवाला भगवान् वीरप्रभु का मन्दिर है। जिसमें मूल नायक श्रीमहावीरस्वामी की सफेद वर्ण की दो हाथ बडी भव्य मूर्ति बिराजमान है, जो प्राचीन है और सं० 1681 में श्रीदेवसूरिजी महाराज की आज्ञा से जयसागरगणि के हाथ से प्रतिष्ठित हुई है / इसके भी पहले की प्रतिमा जो अतिप्राचीन और खंडित है, मन्दिर के बाह्य-मंडप के एक तोक में स्थापित है / इस जिनालय में पाषाण की छोटी बडी कुल प्रतिमाएँ 25 हैं, जो सोलहवीं सदी की प्रतिष्ठित हैं। . दूसरा मन्दिर चोमुखजी का है, जो पहाडी की ऊंची टोंच पर दो खंडवाला और सुमेरु शिखरवाला है / इसके नीचे ऊपर के खंडों में चारों दिशाओं में आदिनाथ, सुपार्श्वनाथ, अजितनाथ और श्रेयांसनाथ की एक एक प्रतिमा बिराजमान है, जो प्रायः प्राचीन हैं / ऊपर के खंड में सुविधिनाथ अरनाथ वगैरह 4 प्रतिमा हैं। प्रवेश द्वार के दहिने और मूलनायक से बांये भाग पर एक सर्वाङ्ग सुन्दर मूर्ति स्थापित है / इस मन्दिर में सं० 1932 में सरकारी तोपें भरी हुई थीं. उनको काररवाई करके जैनाचार्य श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजने निकला के इसके जीर्णोद्धार के समय यहाँ पर कतिपय मूर्तियों की स्थापना भी की और मूलनायक श्रीऋषभदेवजी के नीचे के पवासण पर लेख लिखा कि
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________________ ( 175) सम्वच्छुभे त्रयस्त्रिंशन्नन्दैके विक्रमाद्वरे / माधमासे सिते पक्षे, चन्द्रे प्रतिपदा तिथौ // 1 // जालन्धरे गढे श्रीमान् , श्रीयशस्वन्तसिंहराट्। तेजसा घुमणिः साक्षात् , खण्डयामास यो रिपून // 2 // विजयसिंहश्च किल्लादारधर्मी महाबली / तस्मिन्नवसरे संधैर्जीर्णोद्धारश्च कारितः // 3 // चैत्यं चतुर्मुखं सूरिराजेन्द्रेण प्रतिष्ठितम् / एवं श्रीपार्श्वचैत्येऽपि, प्रतिष्ठा कारिता वरा // 4 // अोसवंशे निहालस्य, चोधरीकानुगस्य च / सुतप्रतापमल्लेन, प्रतिमा स्थापिता शुभा // 5 // श्रीऋषभजिनप्रसादादुल्लिखितमिति / तीसरा मन्दिर जो छोटा पर रमणीय सिखरवाला है और इसमें श्रीपार्श्वनाथजी की सुन्दर प्राचीन प्रतिमा स्थापित है। इस मन्दिर का जीर्णोद्धार और प्रतिष्ठा भी महाराज श्री राजेन्द्रसूरिजी के उपदेश से हुई है, ऐसा चोमुखजी के ऊपर दिये हुए शिलालेख से जाहिर होता है / ____इनके अलावा यहाँ एक महादेव का मंदिर भी है, जो कीर्तिपाल चौहान की पुत्री रूदलदेवी का वनवाया हुआ है। इसी के पिछाडी के भाग में उसी समय का एक जलकुंड है और इससे. आगे वीस कदम पर एक छोटा बगीचा है, जो सार-संभाल न होने के वजह से लुप्त प्राय हो रहा है। चोमुखजी से बसि कदम पर तीन राज-महल मजबूत और जूने हैं जो समरसिंह
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________________ ( 176) सोनगरा चोहान और दिवान फतेहखान प्रथम के बनवाये माने जाते हैं। इन महलों के अन्तराल में पानी का टांका भी है जिसमें वारिश का जल बारहो महिना रहता है। किले के ऊपर के तीसरे दरवाजे के पास दहिनी तरफ एक छोटी मसीद है, जो मुसलमानी अमल में बनाई गई है। यहाँ से 2 मील के फासले पर वीरमचोकी है, जो विकट माडी के बीच में है और उसका रास्ता भी अति भयङ्कर है। ___ वर्तमान जालोर शहर का प्राचीन नाम 'जाबालिपुर' और ' जालंधर है / इस समय शहर में दशा वीसा ओसवालों के 755, और पोरवाडों के 100 घर हैं जिनमें सनातन-त्रिस्तुतिक संप्रदाय के 135 घर, चतुर्थस्तुतिकों के 300 घर, स्थानकवासियों के 325 और दादुपन्थी-रामसनेहियों के 5 घर हैं / गाँव में 4 उपासरे, दो पोसाले, तीन धर्मशालाएँ और एक लायब्रेरी है। तीन थुईवालों की धर्मशाला सब से बडी पकी दो मंजिली है और उसके एक कमरे में ज्ञानभंडार है जिसमें मुद्रित और हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है। यहाँ की केशरविजयजैनलायब्रेरी में भी अच्छे अच्छे ग्रन्थो का संग्रह है जो पबलिक प्रामको नियमाली के अनुसार गचने को दिये जाते हैं / शहर के महाजनी मुहल्लो में सौधशिखरी 8, गृहमन्दिर 1 और सूरजपोल के बाहर शिखरबद्ध 1. एवं दस जिन मन्दिर हैं, जो प्राचीन-अर्वाचीन है, और उनकी मूलनायक समेत मूर्तियों की संख्या वास ( मुहल्ले ) वार इस प्रकार है
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________________ (177 ) चरण. मूलनायक पाषाण. सर्वधातु | मुहल्लों का नाम कामास की / की " .. 0 कांकरिया वास फोला वास खरतर वास पोशाल में खानपुरा वास तपा वास 0 ~ 0 1 पार्श्वनाथ 2 वासुपूज्य 3 पार्श्वनाथ 4 पार्श्वनाथ 5 मुनिसुव्रत 6 महावीर 7 नेमनाथ 8 शांतिनाथ 9 आदिनाथ 1. ऋषभदेव - 0 ~ 0 0 . 0 - 5 | सूरजपोल यहाँ शहर में एक जूना तोपखाना है, जो मुसलमानी अमलदारी में विशाल जैन-मन्दिर को तोड़ कर बनाया गया है। कहा जाता है कि पेश्तर यह बड़ा भारी विशाल और 72 जिनालय सौधशिखरी जिन-मन्दिर था। इसका नीचे का विभाग अब भी जैन-मन्दिर के अस्तित्व को बतला रहा है / इसके भीतरी कमरे के स्तंभे और छबने के लेख इसको जिन-मन्दिर सिद्ध करते हैं। इसमें यों तो दस बारह लेख जुदे जुदे समय के लगे हुए हैं, परन्तु
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________________ ( 178) उनमें से पांच छः शिला-लेख जो अच्छी तरह वांचे जा सकते हैं, यहाँ ज्यों के त्यों उध्दृत कर दिये जाते हैं / 1 बांये हाथ को शाला के छबने मेंशश्वत् त्रैलोक्यलक्ष्मीविपुलकुलगृहं धर्मवृक्षालवाल, श्रीमन्नाभेयनाथक्रमकमलयुगं मङ्गलं वस्तनोतु / मन्ये मङ्गन्यमाला प्रणतभवभृतां सिद्धिसोधप्रवेशे, यस्य स्कन्धप्रदेशे विलसति गवलश्यामलाकुन्तलाली // 1 // ___ श्रीचाहुमानकुलाम्बरमृगाङ्क श्रीमहाराज-अणहिलान्वयोद्भवश्रीमहाराज-पान्हणसुतकार्यावली-दुर्ललितदलितरिपुबलश्रीमहाराजकीर्तिपालदेवहृदयानन्दिनन्दन-महाराजश्रीसमरसिंहदेवकल्याणविजयराज्ये तत्पादपरोपजीविनि निजनौढिमातिरेकतिरस्कृतसकल पील्वाहिकामण्डलतस्करव्यविकरे राज्यचिन्त के जोजलराजपुत्रे, इत्येवं काले प्रवर्त्तमानेरिपुकुलकमलेन्दुः पुण्यलावण्यपात्रं, नयविनयविधानं धामसौन्दर्यलक्ष्म्याः / धरणितरुणनारी लोचनानन्दकारी, जयति समरसिंहमापतिः सिंहवृत्तिः // 2 // तथाभौत्पत्तिकीप्रमुखबुद्धिचतुष्टयेन, नितिभूपभवनोचितकार्यवृत्तिः। ... यन्मातुलः समभवकिल जोजलाहो, ... : दोर्दण्डखण्डितदुरन्तविपचपचः // 3 //
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________________ ( 179) श्रीचन्द्रगच्छमुखमण्डनसुविहितयतिकुलश्रीश्रीचन्द्रभूरिचरणनलिनयुगलसुललितराजहंसश्रीपूर्णभद्रसरिचरणकमलपरिचरणचतुरमधुकरेण समस्तगोष्ठिकसमुदायसमन्वितेन श्री. श्रीमालवंशविभूषण श्रेष्ठियशोदेवसुतेन सदाज्ञाकारीनिजभ्रात्यशोराजजगधरविधीयमाननिखिलमनोरथेन श्रेष्ठियशोवीरपरमश्रावकेण सं० 1239 वैशाखसुद 5 गुरौ सकलत्रिलो. कीतलाभोगभ्रमणपरिश्रान्तकमलाविलासिनां विश्रामविलासमन्दिरं, अयं मण्डपो नृपार्पितः / तथाहि-- नानादेशसमागतैनवनवैः स्त्रीपुंसवगैर्मुहु यस्याहोरचनावलोकनपरैर्नाप्तिरासाद्यते / स्मारं स्मारमयो यदीयरचना वैचित्र्यविस्फूर्जितं, तैः स्वस्थानगतैरपि प्रतिदिनं सोत्कण्ठमावर्ण्यते // 4 // विश्वम्भरावरवधूतिलक किमेत ल्लीलारविन्दमथ कि दुहितुः पयोधेः / दत्तं सुरैरमृतकुण्डमिदं किमत्र . यस्यावलोकन विधौ विविधौ विकल्पाः // 5 // गारेण पातालं, विस्तारेण महीतलम् / तुङ्गत्वेन नभो येन, व्यानशे भुवनत्रयम् // 6 // किञ्च-- स्फूर्जयोमसरः समीनमकरं कन्यालिकुम्भाकुलं, मेषाढ्यं सकुलीरसिंहमिथुनं प्रोद्यवृषालकृतम् / ताराकैरवमिन्दुधामसलिनं सद्राजहंसास्पदं, यावत्तावदिहादिनाथभवने नन्धादसौ मण्डपः // 7 //
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________________ (180) कृतिरियं भीपूर्णभद्रसूरीणां भद्रमस्तु श्रीसंघाय सम्पूर्णमिति / २-बीच मंडप के छबने में___ संवत् 1221 श्रीजालिपुरीयकाञ्चनगिरीगढस्योपरिप्रभुश्रीहेममूरिप्रबोधित-गुर्जरघराधीश्वरपरमाहत-चौलुक्यमहा राजाधिराजश्रीकुमारपालदेवकारिते श्रीपार्श्वनाथसत्कमूल बिम्बसहिते श्रीकुवरविहाराभिधाने जैनचैत्ये सद्विधिप्रवर्तनाय बृहद्गच्छीयवादीन्द्रश्रीदेवाचार्याणां पक्षे प्राचन्द्रार्क समर्पिते / संवत् 1242 वर्षे एतद्देशाधिपचाहुमानकुलतिलकमहाराजश्रीसमरसिंहदेवादेशेन भांपासूपुत्र भां यशोवीरेण समुद्धते श्रीमद्राजकुलादेशेन श्रीदेवाचार्यशिष्यैः श्रीपूर्णदेवाकर्यैः / सं० 1252 वर्षे ज्येष्ठसु०११ श्रीपार्श्वनाथदेवे तोरणादीनां प्रतिष्ठाकार्ये कृते मूलशिखरे च कनकमयध्वजदंडस्य ध्वजारोपणप्रतिष्ठायां कृतायां, संवत् 1268 वर्षे दीपोत्सवदिने अभिनवनिष्पन्नप्रेक्षामध्यमंडपे श्रीपूर्णदेवमूििशष्यः श्रीरामचन्द्राचार्यैः सुवर्णमयकलशारोपणप्रतिष्ठा कृता, शुभं भवतु / 3 बैठक के कमरे के छबने में__संवत् 1294 वर्षे श्रीमालीयश्रीवीसलसुत-नागदेवस्तत्पुत्रा-देन्हा-सलवण-झांपाख्याः, झांपापुत्रो विजाकस्तेन देवडसहितेन पितृझांपाश्रेयोऽर्थ श्रीजालीपुरीयश्रीमहावीरजिनचैत्य करोदिः कारिता, शुभं भवतु /
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________________ (181 ) 4 बांये हाथ के स्तंभ पर “सं० 1320 वर्षे माधसुद 1 सोमे श्रीनाणकीयगच्छप्रतिबद्धजिनालये महासजश्रीचंदनविहारे श्रीक्षींवरायेश्वरस्थानपतिना भट्टारकरावललक्ष्मीधरेण देवश्रीमहावीरस्य आसोजमासे अष्टाह्निकामहे द्रम्माणां 100 शतमेकं प्रदत्तं, तव्याजमध्यान्मठपतिना गोष्ठिकैश्च द्रम्म१०दशकं वेचनीयं पूजाविधाने देवश्रीमहावीरस्य / 5 द्वितीय स्तंभ पर संवत 1323 वर्ष मार्ग सुदि 5 बुधे महाराज श्रीचाचिगदेवकल्याणविजयराज्ये तन्मुद्रालङ्कारिणि महामान्य-श्रीजयदेवे श्रीनाणकीयगच्छप्रतिबद्धमहाराजश्रीचंदनविहारे विजयिनी श्रीमद्धनेश्वरसूरौ तैलगृहगोत्रोद्भवेन महं नरपतिना स्वयं कारितजिनयुगलपूजानिमित्तं मठपतिगोष्ठिकसमक्षं श्रीमहावीरदेवभांडागारे द्रम्माणां शताई प्रदत्तं, तयाजोद्भवेन द्रम्मार्द्धन नेचकं मासं प्रति करणीयं शुभमस्तु / 6 पश्चिम परसाल के स्तंभे पर____ ॐ संवत् 1353 वर्षे वैशाखवदि 5 सोमे श्रीसुवर्णगिरी प्रयेह महाराजकुलश्रीसामंतसिंहकल्याणविजयराज्ये तत्पाद वास्तव्यसंघपतिगुणधर ठकुर आंबडठकुरजसपुत्रसोनीमहणसिंह भार्या मान्हणिपुत्र सोनीरतनसिंह माखो माल्हण
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________________ (182) गजसिंह, तिहणापुत्र सोनी नरपति जयता विजयपाल नरपतिभार्या नायकदेवी पुत्र लखमीधर मुवणपाल सुहडपाल, द्वितीयभार्या जाम्हणदेवी इत्यादि कुटुंबसहितेन मार्यानायकदेवी श्रेयोऽर्थे देवश्रीपार्श्वनाथचैत्ये पंचमीबलिनिमित्तं निश्रानिक्षेपहट्टमेकं नरपतिना दत्तं, तद्भाटकेन देवश्रीपार्श्वनाथ गोष्ठिकैः प्रतिवर्ष आचन्द्रार्क पंचमीबलिः कार्यः। शुभं भवतु / . जालोर से पश्चिमोत्तर कोण में लालदरवाजे से चार फौग के फासले श्रीगोडीजी का मन्दिर है, जो एक परकोटे के बीच में मजबूत बना हुआ है / इसमें श्रीगोडी-पार्श्वनाथ के चरण स्थापित हैं। इनके पव्वासन पर इस प्रकार लेख है " श्रीपरमात्मने नमः / सम्बद्वैश्वानर-कृत्तिकातनयानननाग-रोहिणीरमण (1863 ) प्रमिते वसुनयनाश्ववसुन्धरा ( 1728) परिमिते शके च प्रवर्त्तमाने मासोत्तम-फाल्गुनमासवलक्षे पक्षे द्वादशी 10 तिथौ भृगुवासरे कुन्दकुमुदचश्चबारुचन्द्रचन्द्रिकातिविशदविलसद्यशोवितानधवलिताखिलजगमंडलेषु, तरुण तरणिमंडलसमप्रभाऽखंडाऽस्खलितजयोत्थनापज्वलज्ज्वालामालावलीढवैरिजनकाननोद्भूतप्रभूतधूमधूसरितगीर्वाणपथेषु, राजराजेश्वरमहाराजाधिराजश्री 108 श्रीमानसिंहेषु, तत्सुत श्रीमन्महाराजराजकुमारश्रीछत्रसिंहजीविजयपालितश्रीजालोरदुर्गे श्रीमद्गवडीपार्श्वनाथजिनेन्द्राणामयं प्रासादा, श्रीबृहत्खरतरभट्टारकीयगच्छाधिराजजंगमयुगप्रधान-भट्टारकश्री श्रीजिनहर्षसूरीश्वरैः प्रतिष्ठितः / ओशवंशोद्भव-बदाभिधानगो
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________________ ( 183) . त्रीयमुख्यमंत्री मु. अखयचन्द्रेण सुत-लक्ष्मीचन्द्रयुतेनाऽयं प्रासादः कारितश्च / कारिगर सोमपुराकाशीराम-कृतः / ___शहर के बाहर 'संडेलाव' नामका बड़ा तालाव है, उसके किनारे पर एक चामुंडामाता का देवल है। उसके लगते ही एक मोपडी में एक मूर्ति है, जो चोसठजोगणी के नाम से प्रसिद्ध है। उसके नीचे लेख खुदा हुआ है कि "संवत 1175 वैशाखवदि 1 शनौ श्रीजाबालिपुरीयचैत्ये सामंतश्रावकेण वीरकपुत्रेण उवोचनपुत्र शुभंकर खेहडसहितेन च तत्पुत्रदेवांगदेवधर....तथा जिनमतिमार्या प्रोत्साहितेन श्रीसुविधिदेवस्य खत्तके द्वारं कारितं धर्मार्थमिति, मंगलं महाश्रीः। ___इस लेख से पता लगता है कि-जालोर में सं० 1175 में सुविधिनाथ का मन्दिर विद्यमान था, परन्तु उसके ध्वंस हो जाने से उसके उक्त लेखवाले ताक की कायोत्सर्गस्थ जैनमूर्ति को उठा कर जैनेतरोंने यहाँ स्थापन कर दी और उसके अंग प्रत्यंग घिसा कर जोगिनी के समान बना डाली। शहर के निकटवर्ती सोनागिर के किले के जिनमन्दिरों की कतिपय जिनमूर्तियों पर रहे हुए लेख इस प्रकार हैं १-संवत् 1681 वर्षे प्रथम चैत्रवदि 5 गुरौ अधेह श्रीराठोडवंशे श्रीसूरसिंघपट्टे श्रीमहाराज श्रीगजसिंहजीविजयीराज्ये मुहणोत्रगोत्रे वृद्धउसवालज्ञातीय सा० जेसा भार्या जयवंतदे पुत्र सा जयराज भार्या मनोरथदे पुत्र सा०सादा मुंभा
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________________ (184) सामल सुरताण प्रमुख परिवारपुण्यार्थ श्रीस्वर्णगिरिगढदुर्गोपरिस्थित-श्रीमत्कुमरविहारे श्रीमतिमहावीरचैत्ये सा० जेसा भार्या जयवंतदे पुत्र सा० जयमलजी वृद्धभार्या सरूपदे पुत्र सा महणसी सुंदरदास आसकरण लघुभार्या सोहागदे पुत्र सा० जगमालादि पुत्रपौत्रादि श्रेयसे सा० जयमलजी नाम्ना श्रीमहावीर बिंबं प्रतिष्ठामहोत्सवपूर्वकं कारितं, प्रतिष्ठितं च श्रीतपागच्छपक्षे सुविहिताचारकारक शिथिलाचारनिवारक साधुक्रियोद्धारकारक श्रीआणंदविमलमूरि-पट्टप्रभाकरश्रीविजयदानसूरि-पट्ट/गारहारमहाम्लेच्छाधिपतिपातशाहि-श्रीअकबरपतिबोधकतहत्त-- जगद्गुरुविरुदधारक श्रीशनुंजयादितीर्थजीजीयादिकरमोचक तदत्तषण्मास अमारिप्रवर्तक भट्टारक श्री 6 हीरविजयमूरिपट्टमुकुटायमान भ० श्री 6 विजयसेनमूरिपट्टे संपति विजयमानराज्यसुविहितशिरःशेखरायमाण भट्टारक श्री 6 विजयदेवसूरीश्वराणामादेशेन महोपाध्याय श्रीविद्यासागरगणिशिष्य पंडित श्रीसहजसागरगणिशिष्य पं०जयसागरगणिना श्रेयसे कारकस्य / ____२–संवत् 1683 वर्षे आषाढ वदि 4 गुरौ श्रवणनक्षत्रे श्रीजालोरनगरे स्वर्णगिरिदुर्गे महाराजाधिराजमहाराजाश्रीगजसिंहजीविजयराज्ये मूहणोत्रगोत्रे दीपक मं० अचला पुत्र मं० जेसा भार्या जैवंतदे पु० मं० श्रीजयमल्लनाम्ना भा० सरूपदे द्वितीया सुहागदे पुत्रनयणसी सुंदरदास आसकरण नरसिंहदास प्रमुख कुटुंबयुतेन स्वश्रेयसे श्रीधर्मनाथबिंबं कारितं, प्रतिष्टितं श्रीतपागच्छनायक भट्टारक श्रीहीरविजयमूरि-पट्टालंकारभट्टारक-श्रीविजयसेनमूरिभिः /
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________________ (105) - ३-संवत् 1683 आषाढवदि 4 गुरौ मूत्रधार उद्धरण तत्पुत्र तोडरा-ईसर-डाहा-दुहा-हाराकेन कारापितं, प्रतिष्ठितं त'पागच्छे भ० श्रीविजयदेवमूरिभिः / ४-संवत् 1681 वर्षे प्रथम चैत्र वदि ! गुरौ श्रीमुहणोत्रगोत्रे सा० जेसा भार्या जसमादे पुत्र सा० जयमल भार्या सोहागदेवी श्रीआदिनाथबिंबं कारित प्रतिष्ठामहोत्सवपूर्वक, प्रतिष्ठितं च श्रीतपागच्छे श्री 6 विजयदेवसूरीणामादेशेन जयसागरगणिना। ५-संवत् 1684 माघसुदि 10 सोमे श्रीमेडतानगरवास्तव्य उकेशज्ञातीय पामेचागोत्रतिलक सं० हर्षा लघुभार्या मनरंगदे सुत संघपति सामीदासकेन श्रीकुंथुनाथविवं कारितं, प्रतिष्ठितं श्रीतपागच्छे श्रीतपागच्छाधिराज भट्टारक श्रीविजयदेवसूरिभिः श्राचार्यश्रीविजयसिंहरिप्रमुखपरिवारपरिकरिसेः; श्रीरस्तु। ___ ये पांचों लेख मुनिजिनविजयलिखित 'प्राचीन जैनलेखसंग्रह' द्वितीयभाग के पृष्ठ 213 से उद्धृत किये गये हैं और उसमें ये लेखाङ्क 354, 355, 356, 358 और 359 नम्बर तरीके दर्ज किये गये हैं। 161 मांडवला__ यहाँ ओसवाल जैनों के 110 घर हैं, जो जिज्ञासु पर साधुओं के अनागमन से विवेकशून्य हैं / गाँव में एक उपासग, एक धर्मशाला और उपासरा के एक कमरे में गृहमन्दिर है जिसमें
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________________ (18) भगवान् श्रीमहावीर स्वामी की एक हाथ बडी प्राचीन प्रतिमा स्थापित है, जो सुन्दर और दर्शनीय है / 162 एलाणा__इस छोटे गाँव में प्रोसवाळ जैनों के 40 घर, एक उपासरा और एक गृह-मन्दिर है। जिसमें मूलनायक श्रीमहावीरजी हैं जो अर्वाचीन हैं / गाँव के बाहर गोलजाने के रास्ते पर एक जूना शिखरवाला मन्दिर हैं, जिसमें महावीर भगवान् के चरण स्थापित हैं, जो श्री गोडीजी के नाम से पूजे जाते हैं। 163 गोल सुगरीनदी के बांये किनारे पर बसा हुआ यह छोटा, पर अच्छा कसबा है / यहाँ ओसवाल जैनों के 200 घर हैं, जो भावुक, और लकीर के फकीर हैं / गाँव में एक उपासरा, एक धर्मशाखा और दो जिनमन्दिर हैं। उपासरा के दहिने भाग में पहला जूना मन्दिर है जिसमें सफेदवर्ण की सवा हाथ बड़ी श्रीऋषभदेव की प्राचीन मूर्ति स्थापित है / उपासरा के बांये भाग में दूसरा नया मन्दिर है, जो अति सुंदर और ऊंची खुरशी पर बना हुमा अप्रतिष्ठित है। 164 खरल यहाँ प्रोसवाल जैनों के 7 घर हैं, जो विवेकशून्य और जैनेतरों के समान हैं / यहाँ के महाजन मिथ्यात्वी भोपा, खेतमा, भवानी आदि देव देवियों के उपासक हैं / साधुनों के योग्य यहाँ कोई स्थान नहीं है और न कोई साधुओं की आहागदि भक्ति करनेवाला है।
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________________ 165 ओरवाड़ा___यह छोटा गाँव है, जो सुगरीनदी के ठीक दहिने तट पर है। इसमें श्रोसवालों के 25 घर और एक पक्को छोटी धर्मशाला है। धर्मशाला की पिछली पड़तल जमीन पर जिनालय की नींव भरी पड़ी है लेकिन आपसी रंज के कारण मन्दिर नहीं बना / यहाँ के जैन भी आचार-विचार और धार्मिक भावना से रहित हैं। 166 सायला सूकड़ी (सुगरी) नदी के दहिने तट पर यह कसबा बसा हुमा है / यहाँ प्रोसवाल जैनों के 128 घर हैं, जो सनातनत्रिस्तुतिक संप्रदाय के और अति श्रद्धालु हैं। सदर चोक्टे में शिखरबद्ध अच्छा जिनमन्दिर है और उसमें मूलनायक श्रीपार्श्वनाथजी की श्यामवर्ण की दो हाथ बड़ी तथा उनके दोनों तरफ इतनी ही बड़ी दो मूर्तियाँ विराजमान हैं। इसमें पाषाण की कुल प्रतिमाएँ दश हैं और इसके प्रवेशद्वार के ऊपरी भाग में एक शिलालेख इस प्रकार लगा हुआ है-- श्रीविजयराजेन्द्रसरिभ्यो नमः / श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय त्रिस्तुतिक जैनश्वेताम्बर-सायलानगर के सकल संघने इस मन्दिर को बनवाया, और इसमें सं० 1971 माघसुदि 14 शनिवार के दिन श्रीविजयधनचन्द्रसूरिजी महाराज के हाथ से प्रतिष्ठांजनशलाका करा के श्रीपार्श्वनाथ भगवान् आदि (10) प्रतिमाएँ बैठाई." गाँव से पश्चिम ब्रह्मपुरी के फला पर ( बाहर के समतल
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________________ (18) मैदान में ) एक दूसरा शिखरवाला छोटा मन्दिर है जो प्राचीन और महावीरप्रभु का माना जाता है / पेश्तर इसमें महावीर भगवान् की प्रतिमा स्थापित थी, परन्तु उसके अलोप ( गुम ) हो जाने से मूलनायक श्रीपार्श्वनाथ, और दोनों बाजू नेमनाथ तथा नमिनाथजी की प्रतिमा श्रीधनचन्द्रसूरिजी के उपदेश से विराजमान की गई हैं। इसके भीतरी प्रवेशद्वार के बांये तरफ जने समय का शिला-लेख लगा है कि-- संवत् 1669 वर्षे वैशाखबदि 13 दिने शमदानगरे समस्तसंघेन श्रीमहावीरचैत्यं कारापित, तेलहरागोत्रे शाह खेता शा० धाडसी समेन बृहच्छीखरतरगच्छे युगप्रधानश्रीजिनचन्द्रसूर्यादेशेन पंडितराज-प्रमोदगणिवराणां शिष्यनन्दिजयेन ... यहाँ से पूर्वोत्तर 'पालासण' नामक छोटा गाँव है, जिसमें ओसवाल त्रिस्तुतिकजैनों के 31 घर हैं, जो भावुक और श्रद्धालु हैं। यहाँ एक शिखरबद्ध मन्दिर है जो अप्रतिष्ठित है और इसकी प्रतिमाएँ सायला के गाँववाले मन्दिर में रक्खी हुई हैं / 167 चोराऊ__गाँव छोटा, पर भावुक है, यहाँ मोसवालजैनों के 34 पर और एक छोटी धर्मशाला है / यहाँ पर जिन मन्दिर नहीं हैं, पर अब एक गृहमन्दिर बनवाना शुरू किया गया है। 168 भांडवा
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________________ (189) मांडवपुर है। यहाँ जैनियों की वस्ती नहीं है, परन्तु सौधशि: खरी प्राचीन एक जिन मन्दिर है, जिसमें श्रीमहावीर भगवान की 1 हाथ बडी प्रतिमा विराजमान है जो प्राचीन, चमत्कारि. णी और खंडित है / यहाँ के जैनेतरों की भी इस प्रतिमा पर अटल श्रद्धा है और हरएक सांसारिक कार्यों के लिये ये लोग वीरप्रभु की मानता लेते हैं और इन लोगों के अटल विश्वास से वह सफल भी होती है। ___इसके भीतरी मंडप के दहिने भाग के भीति स्तंभे पर चार पंक्ति का जूना शिला-लेख है, जो घिसा जाने से बराबर उकलता नहीं है। लेकिन जितना अंश वांचा जाता है उस से जान पड़ता है कि यह मन्दिर विक्रम की बारहवीं सदी में बना है और इसकी संवत 1340 पोष सुदि 9 को प्रतिष्ठा हुई है। तेरहसौ के साल की प्रतिमा विलुप्त हो जाने से वर्तमान महावीर प्रतिमा कहीं से लाकर पीछे से विराजमान की गई है। इसके मंडप में पाषाण की छ प्रतिमा और भी स्थापित है जो नवीन हैं। ___मन्दिर के बगल में ही एक दो मंजिली मजबूत धर्मशाला है जिसमें 400 आदमी पानन्द से ठहर सकते हैं / यहाँ हरसाल चैत्री और कार्तिकी पूर्णिमा के दो मेले भराते हैं जिनमें तीस तीस कोश तक से 5, या 6 हजार यात्री इकट्ठे होते हैं और दूज तक ठहरते हैं / इस अवसर पर नवकारसियाँ और प्रभावनाएँ जुदे जुदे गाँववाले सद्गृहस्थों के तरफ से होती हैं। मन्दिर में भी दोनों मेलाओं में तीन चार हजार रुपयों की पैदास
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________________ (19) होती है / इसके अलावा दो चोवीसी गाँवों में वसनेवाले जैमों में इस मन्दिर के लिये लगे हुए लागे की रकम भी सालियाना दो हजार की आती है / इस प्रकार पांच -हजार रुपया सालियाना पैदावारी होने पर भी यहाँ पूजा का प्रबन्ध अच्छा नहीं है और न यात्रियों के ठहरने के लिये कोई अच्छा बन्दोबस्त है। 169 मेंगलवा. यहाँ ओसवालजैनों के 86 घर, एक छोटा उपासरा, और एक जिन मन्दिर है / यहाँ साध्वागमन के अभाव से जैनियों में विवेक की बहुत खामी है पर तो भी भक्ति-संपन्न है / यहाँ के सभी जैन सनातन त्रिस्तुतिक संप्रदायके हैं और भाँड़वा वीर्थ का वहीवट इन्हीं के हाथ में है। 170 आणा____ यह गाँव छोटा है, इसमें जैन ओसवालों के 15 घर हैं, जो अच्छे भावुक हैं। यहाँ एक उपासरा और उसके एक कमरे में प्रतिमा है जो नवीन और भगवान पार्श्वनाथजी की है। कहा जाता है कि पेश्तर यहाँ जैनों के 100 घर थे, परन्तु व्यापार की कमी होने से आजीविका के लिये आसपास के दूसरे गाँवों में जाके बस गये / यहाँ के ठाकुर लक्ष्मणसिंहजी अच्छे सत्संगी और धर्मानुरागी हैं। 171 ऊनडी: इस गाँव में ओसवालजैनों के 30 घर हैं, जो विवेकहीन
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________________ (191 ) और कलह-प्रेमी हैं। यहाँ एक उपासग और उसके एक विभाग में जुदा प्रतिमा विराजमान करने का स्थान है / परन्तु पारस्परिक कलह के कारण अभी जिनप्रतिमा स्थापित नहीं हुई। 172 पाथेडी- इस गाँव में श्रोसवाल जैनों के 30 घर हैं, परन्तु उनमें कई वर्षों से तीन तहें पड़ी हुई हैं, जो तीन तेरह की उक्ति को चरितार्थ करती हैं। यहाँ के जैन किसी संप्रदाय विशेष के नहीं है किन्तु जैनतरों से भी गये गुजरे हैं। साधुनों के ठहरने लायक यहाँ कोई स्थान नहीं है / गाँव से पश्चिम थोडी दूरी पर एक छोटा देवल है, जिसमें गोडीपार्श्वनाथजी के चरण स्थापित हैं / चरणों के ऊपर के लेख से मालूम होता है कि-सं० 1886 वैशाखसुदि 5 भृगुवार के दिन विजयधमसूरिजी के आदेश से पं० भाग्यावजयजीने प्रतिष्ठा करके इन चरणों की स्थापना की। 173 दासपा__ यहाँ प्रोसवालजैनों के 80 घर हैं, जिनमें मन्दिरमार्गीयों के 50 और स्थानकवासियों के 30 घर हैं / गाँव के मध्य भाग में शिखरबद्ध जिनमन्दिर है, जिसमें श्रीचन्द्रप्रभस्वामी की पोन हाय बड़ी मूर्ति स्थापित है। इसके लगते ही दहिने तरफ पक्का उपासरा है। 174 पादरा एक छोटी पहाडी के पास यह गाँव बसा हुअा है। इस
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________________ (199) में ओसवालजैनों के 30 घर हैं, जो नाममात्र के जैन और मिथ्यात्वी देवों के श्रद्धालु हैं। 175 नरता यह गाँव छोटा है, इसमें पोसवालजैनों के 11 घर हैं; जिनमेंभी कई वर्षों से दो तडे हैं / यहाँ के महाजन धर्मभावनासे रहित होने से यहाँ साधुयोग्य कोई स्थान नहीं है / 176 भीनमाल ' मारवाड में जोधपुररियासत के जसवन्तपुरा परगने का यह अच्छा कसबा है / जो लगभग 20 से 30 फीट ऊंची और उत्तर-दक्षिण पौन मील लंबी विस्तृत टेकरी ( पहाड़ी जमीन ) पर बसा हुआ है / यह उत्तर 2442deg अक्षांश और पूर्व 72040 रेखांश है / इसकी सीमा में उत्तर सुकडी ( सुक्री ) नदी, पूर्व प्राबू की पर्वतमाला, दक्षिण सांचोर प्रदेश और पश्चिम लूणी नदी है __ यह अणहिल्लवाड़ ( पाटण ) की स्थापना के पूर्व गुजरात की मुख्य राजधानी का नगर समझा जाता था और तेरहवीं सदी तक इसकी गौरवता, तथा व्यापार समृद्धि ज्यों की त्यों बनी रही। परन्तु सन् 1987 इस्वी में मुगल शहेनशाह अकबरने मारवाड़विभाग के साथ इसको जोड़ दिया, बाद में जोधपुर के महाराजा 1 यह सिरोही और मारवाड के सरहद के पहाडों से निकली है और जालोर होकर लूणी नदी में मिल गई है / यह 130 मील लंबी है, और इसमें इमेशां जल नहीं रहता।
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________________ ( 193) जसवन्तसिंहजीने राणा सालजी से लोयाणा ( जसवंतपुरा ) को छीन कर उस परगने में भीनमाल को मिला दिया | उस समय से अब तक यह उसी परगने में गिना जाता है / . श्रीमालपुराण के लेखानुसार यह नगर सत्ययुग ( कृतयुग) में श्रीमाल, त्रेतायुग में रत्नमाल, द्वापरयुग में पुष्पमाल और कलियुग में भिन्नमाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ और लावण्यसमयरचित 'विमलप्रबन्ध' के कथनानुसार सत्ययुग में पुष्पमाल, त्रेता में रत्नमाल, द्वापर में श्रीश्रीमाल और कलियुग में भिल्लमाल नाम से पहचाना गया। श्रीइन्द्रहंसगणिने स्वरचित 'उपदेशकल्पवल्ली' नामक ग्रन्थ में लिखा है कि-- * " श्रीमालमिति यन्नाम, रत्नमालमिति स्फुटम् / पुष्पमालं पुनभिन्नमालं युगचतुष्टये // 1 // चत्वारि यस्य नामानि, वितन्वन्ति प्रतिष्ठितम् / अहो नगरसौन्दर्यमाहार्य त्रिजगत्यपि // 2 // " प्रबन्धचिन्तामणि, विमलप्रबन्ध और ओसवंशमुक्तावली प्रादि जैन ग्रन्थ, और श्रीमालपुराण तथा भोजप्रबन्ध आदि जैनेतर ग्रन्थों में इसके जुदे जुदे नाम पडने के कारणों की कथाएँ लिखी हुई हैं, जो उन्हीं ग्रन्थों से बांचकर समझ लेना चाहिये। . .. प्राचीन जमाने में इस नगरी के चारों ओर पांच योजन ( 25 कोश ) की शहरपना और खाई थी, जो जल से परिपूर्ण भरी हुई थी। इस शहरपना ( कोट ) के चोगसी दरवाजे और
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________________ (19.) उनेम चोरासी दरीखाने थे / एक हजार गणपति, 4000 क्षेत्रपाल, 84 चंडिका, 11000 महादेव के लिंग, और 18000 दुर्गादेवी, आदि के देवल थे। इनके अलावा चार हजार वेदशाला, 1000 ब्रह्मशाला, 4000 मठ, 18000 व्यापारशाला, दो लाख दुकानें, और एक लाख साठ हजार चोसठ सतखंडे महेल थे। 45000 ब्राह्मण, 700 भृग्वेदी, 12000 यजुर्वेदी, 22000 सामवेदी, 4000 अथर्ववेदी ब्राह्मण रहते थे, और 60000 श्री मालबंशी-महाजन, तथा पोरवाड़ और आठ हजार चोसठ धनोत्कटा ( सुनार ), 2000 कंसारा, 9000 नगरनायिका, 36000 क्षत्रिय, 5000 रंगारे, 5000 सोमपा, 5000 कुंभार, 3000 नट, 1000 नाई, 1000 धोबी, 4000 माली और अन्यजातियों के 5000 वैश्य, तथा 2500 शूद्र निवास करते थे; और वे सभी समृद्धि-पूर्ण थे / परन्तु काल की विचित्रता से और नगर के ऊपर समय समय पर आये हुए राजकीय हमलों से इस नगर की उक्त समृद्धि दिनों दिन घटती गई और वह सन् 1861 में नीचे मुताबिक रह गई-- 375 महाजन जैन 12 कुंभार 12 गोला 200 श्रीमालब्राह्मण 4 मुसल्मान कुं० 2 जाट 75 सेवक, भोजक __ 70 रबारी 1 देशंत्री 30 सुनार 10 भिक्षुक, साधु 1 प्राचारी 35 बंधारा 10 सामी अलीक 13 कोली . 4 कंसारा '15 पिंजारा मु० 30 वेश्या 30 घांची 3 लुहार 2 मेमन
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________________ तमान ( 195) 25 माली 12 दरजी 2 रंगरेज 11 कठियारा 7 नाई 30 मोची 120 भाट 15 सोलंकी- 1 खाटकी जागीरदार 120 भील'. 1 विसायती मुसलमान 2 बांभी तालावाला 40 वणकर 1 सिलावट ( कडीया) (वांभीया ) 2 चूडीगर मुसल्मान 1 वाधरी 17 चमार ( जूतीया ) 8 मीरासी मुसलमान 1 सरगरा ढोली 5 नीरगर 1 भंगी ( महतर ) सन् 1611 में एक अंग्रेजी व्यापारी निकोलश उफ्लेट मारवाड़ में आया था, उसने भीनमाल को 36 मील ( 18 कोश) का घेगवाला, लुप्तप्राय अनेक तालाब और किलेवाला लिखा है / लेकिन आज यहाँ उसी जगह अनेक खंडेहर नजर पडते हैं और उनपर पीलुवृक्षों की भर-भार है। दक्षिण, उत्तर और पश्चिम तरफ सपाट तथा खुला मैदान है, जो पश्चिम में वेलुमय भूमि में मिल जाता है / मेदान की सपाटी पर छूटी छवाई पांचसौ और आठसौ फीट ऊंची छोटी छोटी पहाडियाँ ( टेकरियाँ ) हैं / शहर के बाहर पांच छः मील के फासले पर उत्तर में जालोरद्वार, पश्चिम में सांचोरद्वार, ईशान में सूर्यद्वार, अग्निकोन में लक्ष्मीद्वार; इन चार द्वारों के खंडेहर पड़े हैं / इसके भूमिशायी मकान, देवालय, और तालावों के विशाल खंडेहरों से अनुमान किया जा सकता है कि किसी समय यह शहर जन और धनसमृद्धि से परिपूर्ण होगा।
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________________ (106) शहर से दक्षिण 80 वार दूर पूर्व में एक इंटो की बनी हुई टेकरी (धोरासा) है, जिस पर सूर्य ( जगसोम ) का सौधशिखरी दो मंजिला मन्दिर था, जो दो ओसवाल और एक पोरवाड़ का बनवाया हुआ था / सूर्य-मन्दिर के छबने के एक खंडित पत्थर पर लिखा है कि संवत् 1117 माहसुद 6 के दिन परमार राजा कृष्णदेव के समय में दो ओसवाल और एक पोरवाड जैनने मिलकर इसका उद्धार किया। इससे विदित होता है कि जैनोंने इसका उद्धार कराया है / दर असल में इस मन्दिर को सूर्यपूजक किसी शक, या हून जाति के राजाने सन् 166 ईस्वी में बनवाया था / कहा जाता है कि 42 फीट पहोली, 60 फीट लंबी और 20 फिट ऊंची टेकरी पर यह मन्दिर बनाया गया था और इसका भीतरी प्रदक्षिणा मार्ग चार फीट पहोला तथा ग्यारह फीट लंबाईवाला था। एक दन्तकथा में इसके बनने का कारण यह बताया जाता है कि परमाहत राजा कुमारपाल के पांचसौ वर्ष पूर्व सन् 680 इस्वी में यहां जगसोम नामक राजा हो गया है जो कनक, कनिष्क, या कनिष्कसेन इन नामों से भी प्रसिद्ध था। उसके पेट में सर्प था, जिससे उस को बहुत तकलीफ होती थी और शरीर भी दुर्बल हो गया था / एकदा समय राजा दक्षिण दरबाजे के पास गया और शीतल छाया देख कर सो गया। इस समय राजा फे पास एक कायस्थ उसकी सुरक्षा के लिये बैठा हुआ था। राजा को निद्रा आने बाद उसके पेटवाले सांपने अपना मुंह बाहर निकाला / उसे देखकर किसी भू-निवासी सांपने कहा कि तुं राजा के पेट से निकल जा और राजा को निश्चिन्त
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________________ ( 197 ) कर' पेटवाले सांपने निकल जाने के लिये आनाकानी की और फूफाटे करने शुरू किये / तब बाहरवाले सांपने जोर से कहा कि 'यदि इस करीरवृक्ष के पत्ते और उसके नीचे रहे पुष्प के रस को शामिल घोंटके और मीठे तेल में उवाल के राजा को पिला दिया जाय तो राजा के पेट का सांप मर जायगा और वह दस्तके साथ निकल जायगा।' इसके उत्तर में पेटवाले सांपने कहा कि 'अगर दरवाजे के पासवाले बिल में कल कलता हुआ तेल डाला जायगा, तो विलगत सांप मर जायगा और दरमें से अगणित धनराशि मिलेगी। राजा के पास में बैठे हुए कायस्थने दोनों सांपों की कही हुई सांप विनाशक तरकीब को अपनी नोटबूक में लिख ली और औषधी तैयार करके राजा को पिलाई जिससे गजा का शरीर तन्दुरस्त हो गया / बाद किसी अपराध के कारण राजाने कायस्थ को मरा डाला और उसकी नोटबुक के लिखे अनुसार दरवाजेवाले बिल में गर्म तेल डलाया, जिससे सांप मर गया और विल से अपरिमित धन निकला, इस द्रव्य से राजा जगसोमने सूर्य-मन्दिर तैयार कराया। इस मन्दिर के कतिपय सुरम्य सफेद पत्थर के स्तंभे शान्तिनाथ, सुपार्श्वनाथ के मन्दिर और सरकारी जूनी कचेरी में पड़े हुए हैं / शहर के पास एक जाकब ( यक्षकूप ) नामक तालाव है उसके उत्तर तट पर गजनीखान की कबर के पास एक खंडेहर है / इसमें एक थंभा है, जिस पर चाचिगदेव के समय का लेख है / उसमें थिरापद्रगच्छीय पूर्णचन्द्रसूरि का नाम और सं०
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________________ ( 198) 1333 आसोजसुद 14 के दिन श्रीमहावीरस्वामी की वार्षिक पूजा के लिये 13 द्रम और 7 विंशोपक दानमें दिये और महावीरप्रभु श्रीमाल लाये गये ऐसा लिखा है। इससे जान पड़ता है कि यह खंडेहर महावीर जैन मन्दिर का है। इसका अच्छी नकशीवाला जिनमूर्ति सहित एक तोरण का खंडित अंश तालाव की नैऋत्य नहर की भींत में लगा हुआ है। वर्तमान भीनमाल में ओसवाल जैनों के 451 घर हैं, जो प्रायः सनातन त्रिस्तुतिक संप्रदाय के हैं और उनमें तपागच्छ तथा अंचलगच्छ ये दो विभाग हैं / तपागच्छ का एक उपासरा, एक धर्मशाला और अंचलगच्छ का एक उपासरा, एक धर्मशाला है / यहाँ सात जिन मन्दिर हैं, जो प्राचीन, भव्य और दर्शनीय हैं। 1 सब से प्राचीन और सौधशिखरी मन्दिर वधुवास में है, जो राजा कुमारपाल का बनवाया माना जाता है। कहा जाता है कि पेश्तर इसमें श्री आदिनाथ भगवान् की सर्वाङ्ग सुन्दर प्रतिमा विराजमान थी, जो महाराज श्रीहेमचन्द्रसूरिजी की प्रतिष्ठित थी / परन्तु उसके खंडित हो जाने से उसके स्थान पर सफेदवर्ण की दो हाथ बड़ी श्रीमहावीरस्वामी की भव्य मूर्ति पीछे से बैठाई गई है / इसकी पलांठी के नीचे लिखा है कि___ संवत् 1873 वर्षे माघशुक्ला 7 शुक्रे महावीरजिनबिंब श्रीभीनमालनगरे समस्तसंघेन कारापितं, भ० श्रीश्रीविजयजिनेद्रसरिभिः प्रतिष्ठितं, श्रीतपागच्छे, कल्याणमस्तु / "
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________________ (199) इस जिनालय में पाषाण की 7, सर्वधात की 7 और चांदी के गट्टा (सिद्धचक्र ) जी 2, एवं कुल 16 प्रतिमाएँ स्थापित हैं, जो सभी-१८७३ के साल की प्रतिष्ठित हैं। यह मन्दिर अति जीर्ण है और एक विशाल चोक में बना है। चोक में एक जूने समय का बना हुआ भोयरा भी है जो बन्द किया हुश्रा है। __2-3 दूसरा मन्दिर गांधी मूता के वास में है, जो शिखर बद्ध है। इसमें श्रीशान्तिनाथजी की सफेद वर्ण की तीन फुट बड़ी मूर्ति स्थापित है, जो सं 1634 फागुण वदि 1 शुक्रवार के दिन श्रीविजयहीरसूरिजी महाराज के हाथ से प्रतिष्ठित हुई है। इसमें पापाण की 16, सर्वधात की 21, गट्टाजी 1 और पादुका जोड़ 1 एवं 39 मूत्तियाँ बिराजमान हैं / इसीके दहिने भाग में तीसरा गृह-मन्दिर है, जिसमें परिकरसहित सफेदवर्ण की सवा हाथ बड़ी श्रीपार्श्वनाथजी की मूर्ति स्थापित है / इसकी पलाठी पर लिखा है कि-- __ संवत् 1683 वर्षे आषाढवदि 4 गुरौ श्रीमाल. वासी सा० पेमा खेमा पार्थबिंबं का०, प्र. श्री श्रीविजयदेवसूरिभिः।" इसमें पाषाण की 7 और सर्वधात की 1 एवं 8 प्रतिमाएँ हैं, जो 15 और 16 वीं सदी के बीच की प्रतिष्ठित हैं। इसके दहिने तरफ तपागच्छ का जूना उपासरा है जिसके एक कमरे के ताक में बादामीवर्ण की एक हाथ बडी श्रीमहावीर भगवान् की 18 वीं सदी की प्रतिष्ठित मूर्ति है। इसकी दृष्टि के
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________________ ( 200) सामनेवाले कमरे में यतीजी का खान, पान, आसन और शयन होता है। ___4 चौथा मन्दिर सेठों के वास में एक ऊंची खुरशी पर शिखरबद्ध बना हुआ है / इसमें सर्वधात की सवा हाथ बडी सुपार्श्वनाथ भगवान् की अति प्राचीन मूर्ति बिराजमान है, जो भीनमाल और नरतागाँव के बीच के खेत से प्रगट हुई थी। कहा जाता है कि जिस समय यह मूर्ति प्रगट हुई और इसकी खबर जालोर के मुसलमान राजा गजनीखान प्रथम को हुई, तब वह इस मूर्ति को सोनेकी समझ कर जालोर ले गया और सुनारों को बुला कर इस मूर्ति के हाथी, घोड़े तथा बैलों के गहने बनाने की आज्ञा दी / सुनारोंने मूर्ति को तोडने के लिये चोट लगाई, पर टांकियाँ टूट गई, किन्तु मूर्ति अंशमात्र भी टूटी नहीं, और उसी समय अगणित सांप विच्छु प्रगट हो गये जिनसे घबरा कर सुनार भग गये / . गजनीखानने सोचा कि यदि मूर्ति यहाँ रक्खी जायगी तो फिर कोई महान् उपद्रव खडा होगा ? इससे उसने पादरा गाँव के निवासी संघवी वरजिंग-महाजन को मूर्ति सोंप दी / उसने भीनमाल में नया मंदिर बनवा कर, उसमें इस मूर्ति को बिराजमान कर दी। विक्रम सं० 1746 के लगभग पं० शिवविजयजी के शिष्य कवि शीलविजय पंन्यास रचित तीर्थमाला में पश्चिमादीश के तीर्थ वर्णन में लिखा है कि-~
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________________ (2.1) "जालोरनयरि गजनीखांन, पिसुन वचनि प्रभु धरिया वान। वरजग संघवी वरीउ जाम, पास पेखीनिं जिभस्यूं धान // 25 // स्वामी प्रतिमा धरणेंद्रि धों, मानी मलिकति वली वसी कर्यो। पूजी प्रणमी आप्या पास, संघचतुर्विध पूगी आस // 26 // स्वामी सेवातणि संयोगि, पाल्हपरमारनो टलियो रोग / सोल कोसीसांजिनहरसिरि, हेमतणां तिणि कीधांधरि॥२७॥ भीनमालि भयभजंनन नाथ,.......श्रीपारसनाथ / " __इस तीर्थमाला से प्रायः ऊपर की हकीकत मिलती जुलती ही है। इससे यह प्रतिमा कैसी चमत्कारिणी और महिमावाली है ? यह भी साफ जाहिर हो जाता है / संवत 1661 में तपागच्छीय हंसात्नसृरिजी के प्रशिष्य और पं० सुमतिकलश के शिष्य कवि पुण्यकलशने इन्हीं प्रभावशाली पार्श्वनाथ का स्तवन बनाया है / उसमें लिखा है कि___" श्रीमाल में किसी व्यवहारीने सौधशिखरी सुन्दर जिनालय बनवा कर, उसमें स्वर्णपित्तलमय पार्श्वनाथ की भव्य मूर्ति विराजमान की थी, जो म्लेच्छों के शासनकाल में स्वर्णाभूषण सहित भूमि में भंडार दी गई थी। संवत 1651 में देवल की ईटे खडकाते हुए वह प्रतिमा प्रगट हुई। मेता लक्ष्मण और भावडह गच्छीय पंन्यास आदिने उसको शान्तिनाथ भगवान् के मन्दिर में स्थापन कर दी। इस समय देशपति जालोर का गजनीखान था। उसका एक सुबा भीनमाल रहता था। उसने गजनीखान को सूचना दी कि
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________________ (202) गरीबपरवर ! भीनमाल में सोने का एक अद्भुत भूतखाना जमीन से निकला है, उसको मंगा लीजिये, इतना धन छोडना नहीं चाहिये / इस सूचना को पाते ही गजनीखानने उस पार्श्वनाथ प्रतिमा को जालोर मंगवा ली। ___ इधर सारा संघ एकत्रित होकर जालोर श्राया, और गजनीखान से अर्ज करना शुरू की कि -- यह भूतखाना बाबा आदम का रूप है, ईसकी खिनमत करना चाहिये, किन्तु इसका खून नहीं / आप इसको हमारे सुप्रत करिये और इसके एवज में चार हजार पीरोजी हमसे ले लीजिये / ___ गजनीखानने जबाब दिया कि एक लाख रुपयों के मामले में चार हजार पीरोजी पर यह भूतखाना किस प्रकार छोडा जा सकता है , अगर एक लाख रुपया देने को हो तो बात करो; बरना यहाँ से चले जाओ, ज्यादः शिरपच्ची करोगे तो नतीजा अच्छा नहीं आवेगा'। . यह सुनते ही सारे संघ में कोलाहल मच गया, उदासीनता छा गई और प्रतिमा वापिस किस तरह प्राप्त करना यह विचार करना भी भुला गया / कई भावुकोंने नाना अभिग्रह लिये / भीनमाल के संघवी-वीरचंद म्हेताने तो यहाँ तक दृढ निश्चय किया कि ' जबतक पार्श्वनाथ प्रतिमा' की पूजा न करूं, तब तक अन्न जल भी नहीं लूंगा और यहां से हटूंगा भी नहीं / लोगोंने वीरचंद को इस कार्य के लिये बहुत रोका, पर वह अपनी प्रतिज्ञा से किसी प्रकार नहीं हटा /
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________________ (203) बाद में श्रीपार्श्वकुमार हरिताश्व पर चढ़ कर, और प्राभूषणसहित नीलाम्बर वस्त्र पहने हुए धरणेन्द्र-पद्मावती के साथ प्रगट हुए / वीरचदंमेता को कहा कि ' तुं क्यों लंघन कर रहा है ?, इस हटको छोड़ दे ! जिसके लिये भूखे मरता है वह पार्श्वनाथ प्रतिमा तो गजनीखानने तोड डाली / वह अब किसी तरह श्राने (मिलने) वाली नहीं है।' इसके जबाब में वीरचंदमेताने कहा कि यदि वह प्रतिमा मिलनेवाली नहीं, तो मुझे अब जीना भी नहीं है / चाहे प्राण कल जाते हों तो आज ही चले जायें, परन्तु मैं अपनी कृत-प्रतिज्ञा से किसी प्रकार भ्रष्ट होना नहीं चाहता।' वीरचंदमेता की अचल प्रतिज्ञा से प्रसन्न होकर, धरणेन्द्रने गजनीखान के पास जाकर, कहा कि- अरे अधम ! क्यों निश्चिन्त सो रहा है ? उठ, और भूतखाने को जल्दी भीनमाल पहुंचा दे / अगर मैं रुष्टमान हो गया तो तेरा खेदान-मेदान हो जायगा / इस पर भी तुं ध्यान देगा नहीं, तो तेरे ऊपर कलिकाल रूठ गया समझना / धरणेन्द्रजी के कथन से गजनीखान तनिक भी भय-भीत नहीं हुआ / प्रत्युत उसके हृदय में अभिमान के वादल छागए। उन्मत्त की तरह वह एकदम बोल उठा कि-'अरे ! मैं खुदा का यार, चढियाते भाग्यवाला और सच्चे मुसलमान का बच्चा हूँ, तेरे जेसे काफर का जोर मेरे ऊपर नहीं चल सकता | अरे तुं तो मेरा सेवक है, तुं मुझे क्या डरा सकता है, तेरे जैसे सैंकडों भूतखाने को मुठी में रखता हूँ।' बस एसा कहके गजनीखानने सिरोही के सोनियों को बुला के आज्ञा दे दी
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________________ (204) कि- 'मूर्ति को तोड़कर टुकड़े करो, और इससे बीबी के लिये आभूषण और घोडे के गले में डालने को घूघरमाल बनाओ।' आज्ञा मिलते ही सोनी मूर्ति को तोडने की तैयारी करने लगे, इतने में तो वहाँ हजारों भ्रमर गुंजारव करते हुए निकले। उन्होंने सोनियों, खान की बीवियों और पहरेदारों को काटना शुरु किया, जिससे चारों ओर हा हा कार मच गया। चारों तरफ घनघोर काली घटाओं के सहित प्रलयकारी तूफान खडा होने से जीने का भी संशय होने लगा। लश्कर में मार पडना शुरु हुई, हाथी घोडों का संहार होने लगा और स्थान स्थान पर लोग मरने लगे। गजनीखान भी भयविह्वल हो जमीनपर गिर पड़ा / हजारों लोग पोकार करने लगे कि-' खूनकार ! पार्श्वनाथ की मूर्ति को भीनमाल पहुंचाओ, नहीं तो हम-आप सभी मर जायँगे। आकाश से गेबी आवाज हुआ कि पार्श्वनाथ-प्रतिमा को सन्मान के साथ वापिस भीनमाल पहुंचा दे, नहीं तो वगैर मोत मर जायगा, तेरे को कोई यहाँ दफनानेवाला भी नहीं मिलेगा / गजनीखानने विचारा कि-' यह असली आदम का रूप है, यह केवल मान चाहता है, इसलिये अब हठ पकडना ठीक नहीं है / ' ऐसा निश्चय करके पार्श्वनाथ-प्रतिमा को सिंहासन पर विराजमान की और हाथ जोडकर गजनीखान बोला कि 'प्रभो ? आप अल्ला, अलख और आदम हो, मापकी
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________________ (205) जोड में पीर, पेगम्बर आदि कोई नहीं पा सकता। तुं साहेब, सुलतान और खुदा है, सारी दुनिया का तुंही एक पालक है / अतएव बालक पर महेर करो, आयंदे मैं कभी ऐसा अपराध नहीं करूंगा।' इस प्रकार अर्ज करके और सभी श्रीसंघ को बुला के भारी समारोह और जुलुस के साथ पार्श्वनाथ-प्रतिमा भीनमाल पहोंचा दी। .. ____संघवी वीरचंद मेता बहुत प्रसन्न हुआ, उसने अष्टाह्निकामहोत्सव पूर्वक पार्श्वनाथ-प्रतिमा की पूजा कर के 17 दिन के बाद कृत अभिग्रह का पारणा किया। पार्श्वनाथ-प्रतिमा का अतिशय चारों तरफ प्रसरा, जैनधर्म की उन्नति हुई, सभी सन्ताप दूर हुए और प्रतिगृह मंगल बधाईयाँ हुई / संघने एकत्रित होकर स्वर्ग के समान कोरणी धोरणी से सुशोभित सौधशिखरी नया मन्दिर बनवा कर उसमें सुरम्य मुहूर्त और बलिष्ट शुभ लग्न में सातिशयवाली पार्श्वनाथ-प्रतिमा को महा महोत्सव पूर्वक विराजमान की।" कवि पुण्यकलशने यह हकीकत अपने समय में हुई घटना के दश वर्ष बाद लिखी है / अतएव इस घटना में बहुत कुछ सत्यांश माना जा सकता है / उक्त सभी उपलब्ध सामग्री से इस निश्चय पर निर्विवाद आना पड़ता है कि यह प्राचीन पार्श्वनाथ-प्रतिमा अद्भुत महिमशालिनी और अतिदर्शनीय है, और ऐसी प्रभावशालिनी प्रभुप्रतिमाओं के विद्यमान रहेने से ही इस पवित्र नगर को भिन्न भिन्न तीर्थमालाओं में तीर्थ तरीके स्थान मिला है।
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________________ (206) इस प्रभावशालिनी मूर्ति की अञ्जनशलाका किस समय में किस समर्थ जैनाचार्य के हाथ से हुई, इसका कुछ भी पत्ता नहीं लगता / इस मन्दिर में पाषाण की छोटी बडी 23 और सर्वधात की 4 मूर्तियाँ स्थापित है, जो 12 और 18 वीं सही तक की प्रतिष्ठित हैं / इसके दहिने तरफ के मैदान में एक पक्का भोयरा है, जो हमेशा बन्द रहता है / उसके प्रवेश मार्ग के ऊपर के पाषाण के पाट में शिलालेख लगा है कि___ " श्रीपार्श्वपते नमः / संवत् 1671 वर्षे शाके 1536 वर्तमाने चैत्रसुदि 15 सोमवारे श्रीपार्श्वनाथदेवलमध्ये श्रीचन्द्रप्रभ-मंदिरं कारापित, रुपइया सहस्र 20156) खरचाणा, जालोरे खां पहाडखान गजनीखान सुतराज्ये, भीनमाल सोलंकी वीदा रहनेरा दोकड़ा श्रीपारसनाथरा देव का खरचाणा, प्र० उदिम श्रीवडवीरभीमशाखावाला श्रीभावचन्द्रशिष्य भट्टारक श्रीविजयचन्द्रसूरिवराभ्यां सलावट जसा सोढा देदा काम की, नाम उकेर्यो श्री श्री" ५-पांचवां मन्दिर बाजार में जो छोटा, पर रमणीय शिखरवाला है / इसमें बादामी वर्ण की दो फुट बड़ी श्रीशान्तिनाथजी की सुन्दर मूर्ति विराजमान है / इनके अलावा पाषाण की 6, और सर्वधात की 26 मूर्तियाँ भी स्थापित हैं, जो 12 से 18 वीं शताब्दी तक की प्रतिष्ठित हैं। कहा जाता है किप्रथम यहाँ मूलनायक श्रीआदिनाथस्वामी थे, परन्तु उनके कहीं विलोप हो जाने से, उनके स्थान पर यह नये श्रीशान्तिनाथजी
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________________ (207 ) पधराये गये हैं जो 15 वीं सदी के प्रतिष्ठित हैं। इसके मण्डप के वांये तरफ के छवने में एक लेख खुदा हुवा है कि " श्रीश्रुताय नमः / संवत् 1212 वैशाखसुदि 3 गुरूवासरे रत्नपुरे भूपतिश्रीरायपालदेवसुत महाराज सुवर्णदेवस्थ प्रतिभुजायमान--महाराजाधिराजभूपतिश्रीरत्नपालदेवपादपमोपजीविनः पादपूज्यभांडारिकवीरदेवस्य महं० देवहृत्साढापातूसन्मतिमहामातृसलखणा श्रेयसे धानन्यासक्रयमहनीयजूपाभिधाना श्रेयो निमित्तं श्रीऋषभदेवयात्रायां भूपश्रीमान् मातृजागेरवलिनिमित्तं दत्तं शतमेकं द्रम्माः / देवकस्मलके प्रविष्टमत्र शतसुवर्णव्याजेन गोवृषसोलस्य लाषावतश्रेयोऽर्थप्रवर्द्धने लाषासाढा प्रभृतिश्रावकर्येन सेसमलकेन वर्ष प्रति द्र० 12 द्वादशं देयं सेवार्थेति, मंगल महाश्रीः।" इस मन्दिर के विषय में एक किवदन्ती भी प्रचलित है कि-कोई यति सात जिनमन्दिरों को कहीं से उड़ा के लेजा रहा था, उनमें से दो जिन मन्दिर अंचलगच्छ के यति भीमजी गुरांने मंत्र-बल से रोक लिये / जिनमें से एक भीनमाल में जिसका हाल उपर दिया गया है और दूसरा भीनमाल से उत्तर 20 मील के फासले पर गाँव धाणसा में रख दिया। यह किंवदन्ती कितनी सत्यता रखती है ? इसको पाठक स्वयं समझ लेवें। 6-7 भीनमाल से 1 मील पश्चिमोत्तर एक छोटे देवल में श्रीगोडीपार्श्वनाथ के चरण स्थापित हैं, जो अति प्राचीन हैं और इनको जैन जैनेतर दोनों मानते हैं। इसी प्रकार पौन मीत
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________________ ( 208) दक्षिण-पश्चिम कोन में परकोटे सहित मजबूत देवल है, जिसमें श्रीशंखेश्वर-पार्श्वनाथ के चरण विराजमान हैं जो प्राचीन हैं। यहाँ कार्तिक सुद 1 का हरसाल मेला भराता है, जिसमें भीनमाल के अंचलगच्छीय और कुछ तपागच्छीय जैन दर्शनों के लिये आते हैं। * पंडित हीरालाल हंसराज संग्रहित 'श्रीजैनगोत्र-संग्रह' की प्रस्तावना में लिखा है कि-विक्रम सं० 202 भीनमाल नगर में सोलंकी अजितसिंह का राज्य था / उसके समय में मीरगामोचा नामक म्लेच्छराजा भीनमाल पर चढ़ाई करके आया। उसके साथ यहाँ खूब युद्ध हुआ और इस युद्ध में आखिर राजा अजितासंह सोलंकी मारा गया / बाद में कितने एक वर्ष तक इस नगर से बहुत लक्ष्मी लूट कर और कसबे को निर्जनप्राय करके मीरगामोचा चला गया। फिर सं० 503 में शहर को आबाद करके सिंह नामक राजाने राज्य किया। तदनन्तर इसकी गादी पर नीचे मुताबिक राजा हुए१ जइयाणकुंवर 527 / 7 जयन्त 719 2 श्रीकरण 581 8 जयमल 735 3 मूलजी 605 9 जोगसिंह 741 4 गोपालजी 645 / 10 जयवंत __746 5 रामदास 675 11 भाणजी 764 6. सामन्त . 705 | राजा भाणसिंह के शासनकाल में जैनशाहूकारों के सिवाय श्रीमालब्राह्मणों में 62 और प्राग्वाटब्राह्मणों में 8 करोड
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________________ गोत्र. (209) पतियों की गणना में थे और उनको राजा के तरफ से खूब सन्मान मिलता था। इन सभी श्रीमन्त श्रीमाजी और प्राग्वाट ब्राह्मणों को प्रतिबोध देकर शंखेश्वरगच्छीय श्रीउदप्रभसूरिजीने जैनी बनाये थे / उनमें श्रीमालब्राह्मणों की गोत्र सहित नामावली इस प्रकार है- नाम. गोत्र. / नाम. 1 विजय . गौतम 17 मना सांख्य 2 शंख हरियाण / 18 मना महालक्ष्मी .3 श्रीमल्ल कात्यायन | 16 वर्द्धमान विजल 4 नोडा भारद्वाज | 20 गोधा दीपायन 5 बदा आग्नेय | 21 भीम . पारध 6 भूना काश्यप 22 सारंग चक्रायुध 7 राजा वारिधि | 23 रायमल जांगल 8 सोमा पारायण | 24 धना वाछिल 9 भूमच वंसियाण | 25 जीवा माढर 10 जोगा खुड्डीयाण | 26 विजय तुंगियान 11 सालिग लोढायण 27 वायड पायन्ना 12 तोला पारस 28 कडुया एलायन 13 नारायण चंडीसर | 29 मांझण चोखायण 14 मम्बा देहिल | 30 प्रोषा अक्षायण 15 समघर पापच / 31 राजपाल प्राचीन 16 शंकर , दाडिम / 32 सहदेव . कामरु
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________________ कर्कश कुंभक (210) 33 कर्मण मोभान | 48 घोड जालंधर 34 गोवर्द्धन लाछिल | 46 मुंज तक्षक 35 मोका चन्द्र 50 सांतु खागिल 36 आदित्य टाटर | 51 लखु वायव 37 हरखा छाहिल | 52 डूंगा सारधि 38 विष्णु राजल 53 वाचा धीरध 36 देपा स्वस्थित | 54 श्रीपाल आत्रेय 40 चंड अमृत 55 कीका आहटा 41 नाना चामल 56 गोना 42 हरदेव कौशिक 57 सहसा बंवायन 43 भूमच बहुल | 58 भीम 44 भोला नागड | 59 हपा दीर्घायण 45 सीपा मायण 60 रंग तोतिल 46 नथुय डोड 61 धरण वदुसर 47 हाथी जीतधर 62 गोविंद वर्णिका प्राग्वाट ब्राह्मणों के नाम गोत्रनाम - नाम. गोत्र, 1 नरसिंह काश्यप 5 नीना पारायण 2 माधव पुष्पायन 6 नागड कारिस 3 भूना आग्नेय 7 रायमल्ल वैश्यक 4 माणिक बच्छस 8 अन्नो मादर .: ऊपर के सभी ब्राह्मण श्रीमन्त और बहुल कुटुम्बी थे। उपरोक्त नामवाले ब्राह्मण और उनके कुटुम्बियों में से जिन्होंने गोत्र
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________________ . (211) जैनधर्म अंगीकार किया वे श्रीमाल और पोरवाड जाति के म. हाजन कहलाये / भीनमाल की दशा बिगडे बाद यही, या इन्हों के वंशज हिन्दुस्थान के चारों और जाकर वस गये। कुलगुरु की स्थापना- . विक्रम सं० 775 में श्रीसोमप्रभाचार्य के उपदेश में माणराजाने सिद्धगिरि और गिरनारजी का संघ निकाला, जिसमें 7 हजार रथ, 125000 घोडे, 10011 हाथी, 7000 पालखी, 25000 ऊंट, 50000 बैल और 11000 गाड़ी आदि सामग्री थी। श्रीउदयप्रभसूरि, और सोमप्रभाचार्य आदि साधु साध्वी समुदाय भी संघ के साथ बहु संख्या में था / यात्रा करके संघ जब सकुशल वापिश लोट के भीनमाल आया, तब भाणराजा को संघवी पद का तिलक निकालने के निस्वत हकदारी का झगड़ा उठा / उदयप्रभपूरिने कहा-तिलक निकालने का हक हमारा है और सोमप्रभाचार्यने कहा कि हमारा है। इस झगड़ें को हमेश के लिये मिटा देने को वर्द्धमानपुर में चोरासी गच्छ के आचार्योंने सभा ( कान्फन्स ) भरके यह निर्णय किया कि कोई आचार्य किसीके श्रावक को उसके परंपरागत कुल. गुरु की आज्ञा विना संघवीपद का तिलक, व्रतोच्चार और दीक्षा आदि न करे / उसको हरएक कार्य अपने कुलगुरु के पास, या उनकी आज्ञा से करना चाहिये / यदि कुलगुरु दूर देश में हो तो उसको बुलाके, अथवा उसकी आज्ञा के आने बाद ही संघवीतिलक आदि कार्य करना कराना चाहिये / इस मत
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________________ ( 212) लब का लेख करके उसके ऊपर नागेन्द्रगच्छीय सोमप्रभाचार्य, उपकेशगच्छीय सिद्धसूरि, निवृतिगच्छीय महेन्द्रसूरि, विद्याधरगच्छीय हरियानन्दसूरि, ब्रह्माणगच्छीय जञ्जगसूरि, षंडेरकगच्छीय ईश्वरसूरि, और बृहद्गच्छीय उदयप्रभसूरि आदि चोरासी गच्छ के नायकों ने सहीयाँ की और उसमें भाणराजा की साक्षी डाली / यह निर्णय विक्रम सं० 775 चैत्रसुदि 7 के दिन हुश्रा / वस तभी से महाजनों के पीछे कुलगुरुओं का रगडा लगा और धीरे धीरे वे कुलगुरु परिग्रह धारी बन कर घरबारी बन गये / इस प्रकार कुलगुरुओं की उत्पत्ति भीनमाल में हुई। 177 रोपी- . . यह सागी नदी के दहिने तट पर वसा हुआ है। यहाँ औदीच्य ब्राह्मणों के 60 घर हैं, जो खेती से गुजारा करते हैं। ओसवालों की भीनमाल की यहाँ दो दुकाने हैं, इससे यहाँ साधुओं को किसी तरह की तकलीफ नहीं पड़ती। 178 सीलाण विकट छोटी छोटी पहाडियों की समविषम जमीन पर वसा हुआ यह छोटा गाँव है / यहाँ विवेकशून्य ओसवाल और पोरवाडों के 9 घर हैं। गाँव में एक उपासरा और उसके ऊपर के कमरे में सर्वधात की एक चोवीसी सिंहासन में विराजमान है, जो सं० 1638 की प्रतिष्टित है और प्रतिष्ठाकार. आणन्दसूरगच्छ के श्रीपूज गुणरत्नसूरि हैं।
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________________ (213) 176 छोटा रानीवाड़ा यहाँ ओसवाल जैनों के 15 और जैन पोरवाडों के 7 घर हैं, जो खेतला, भोपा और जैनेतर देवों के उपासक हैं। गाँव में एक उपासरा और उसीके एक कमरे में वीस अंगुल बड़ी सफेदवर्ण की श्रीपद्मप्रभस्वामी की प्रतिमा स्थापित है, जिसकी अंजनशलाका सं० 1955 फागुण वदि 5 के दिन आहोर (मारवाड़) में श्रीराजेन्द्रसूरिजी महाराज के हाथ से हुई है। 180 जाखड़ी___यह छोटा गाँव है, इसमें पोरवाड़ जैनों के 20 घर हैं, जो भावुक और धर्मप्रेमी हैं / गाँव में एक पुराना अच्छा उपा. सरा और उसके ऊपरी भाग में गृह मन्दिर है जिसमें मूलनायक श्रीसहसफणा-पार्श्वनाथ और उनके दोनों तरफ अनन्तनाथ भगवान की सफेद वर्ण की तीन फुट बड़ी मूर्तियाँ विराजमान हैं / इनकी पलांठी पर एक ही मतलब के इस प्रकार लेख है___ संवत 1921 शाके 1786 प्र० माघशुक्ला 7 गुरु वा० अंचल कच्छ० सांधणन० वा० ओसवं० लघुशा० लोडा. इयाधुलागोत्रे शा० मांडणतेजसी भा० कुंअरबाई पु० शामाणक श्री सिद्धक्षेत्रे श्री पार्श्वनाथ जिनबिंब भरापितं गच्छनायक भ० श्री 7 रत्नसागरसूरिप्रतिष्ठितं / (मूल नायक) "संवत् 1921 शाके 1786 प्रथम माघशुक्लपचे सप्तमी गुरुवासरे अंचलगच्छे कच्छदेशे मालनपुरनगरे
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________________ ( 214 ) वास्तव्य ओसवंशे लघुशाखायां मामडागोत्रे सेठ नरशी नाथा भार्या कुंअरबाई तत्पुत्र सेठ हरसंगभाई श्रीसिद्धक्षेत्रे श्रीअनंतनाथजिनबिंबं भरापितं गच्छनायक भट्टारक श्री 7 रत्नसागरसूरीश्वर प्रतिष्ठितं / ( दोनों बगल की) 181 रतनपुर मारवाड राज्य के दक्षिण भाग में डीसा स्टेशनसे 20 कोश और जसवंतपुरा से 18 कोश के फासले पर यह कसबा श्राबाद है / विक्रम की 11 तथा 12 वीं सदी में यह एक अच्छे शहरों में शुमार किया जाता था / परन्तु श्रीमाल के ध्वंस के साथ साथ यह भी आज गामडे के रूप में आ गया / इस समय यहाँ एक भी जैन का घर नहीं है, शिर्फ तीस घर किसानों के है / जैनगोत्र संग्रह में जिखा है कि राजा हमीरजी परमार के वंशज गोविन्दशेठने सं० 1341 के लगभग रतनपुर में 72 जिनालयवाला आदिनाथ का विशाल मन्दिर बनवाया था और उसकी प्रतिष्ठा अंचलगच्छीय जयशेखरसूरिने की थी / वर्तमान में इसका खंडेहर मात्र है कुमारपाल के कतिपय चरित्रों से भी पता मिलता है कि___परमार्हत राजा कुमारपालने भी रतनपुर में भगवान पार्श्वनाथ का भव्य जिनालय बनवाया था जो श्रीहेमचन्द्राचार्य के हाथ से अन्तिम प्रतिष्ठा मन्दिर था। इसका भी हाल में यहाँ निशान तक दिखाई नहीं देता / गाँवसे पश्चिम बाहर एक महादेव का देवल है उसके गुंबज में एक शिला लेख इस प्रकार लगा हुआ है.-- ॐ नमः शिवाय, भूर्भुवस्स्वश्वरं देवं वंदे पीठं पिनाकिनं
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________________ . (215) स्मरसि श्रेयसे यस्त्वं....................समस्तराजावलिविराजित महाराजाधिराज परमभट्टारक परमेश्वर निजभुजविक्रमरणांगणविनिर्जित................पार्वतीपतिवरलब्धप्रौढप्रताप श्रीकुमारपालदेवकल्याणविजयराज्ये स्वे स्वे वर्तमाने श्रीशंभुप्रसादावाप्तस्वच्छपूरत्नचतुराशिकायां महाराज भूपाल श्रीरायपालदेवान्महासन प्राप्त श्रीपूनपाक्षदेव श्रीमहाराज्ञीगिरजादेवी संसारस्यासारतां विचिंत्य प्राणिनामभयदानं महादानं मचात्र नगरनिवासी समस्तस्थानपतिब्राह्मणान् समस्ताचार्यान् समस्तमहाजनान् तांबोलिकान्प्रकृतिकिंकृतिनः संबोध्य संविदितं शासनं संप्रयुति / यथा अद्यामावास्यापर्वणि प्राणिनामभयदानशासनं प्रदत्तं स्नात्वा देवपितृमनुष्यान् केन संतर्प्य वारावार........पूर्देवतां प्रसाद्य ऐहिकपारत्रिक फलभंगीकृत्य प्रेत्य यशोभिवृद्धये जीवस्यामारीदानं मासे मासे एकस्यां चतुर्दश्याममावास्यायां उभयोः पक्षयोः श्रेष्टतिथौ भूसहायशासनोदकपूर्व स्वित्परंपराभिः प्रदत्तं, अस्मदीय भुविभोक्ता महामात्यः सांधिविग्रहिक प्रतीतस्वपुरोहितप्रभृति समस्तठकुराणां तथा सर्वान्संबोधयत्यस्तु वः संविदितं....... ................कारापनाय.........................महाजनानां पणेन लिख्यते राज्ञा समयं निग्रहणीयः श्रुत्वा शासनमिदमा चन्द्राकं यावत् पालनीयं / उक्तं च यथा व्यासेन बहुभिर्वसुधा भुक्ता, राजभिः सगरादिभिः। यस्य यस्य यदा भूमी, तस्य तस्य तदा फलम् // 1 //
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________________ (216 ) सर्वानित्थं भविना पार्थिवेन्द्रान , भूयो भूयो याचते रामचन्द्रः / सामान्योऽयं धर्मसेतुर्नृपाणां, काले काले पालनीयो भवद्भिः।२। अस्मद्वंशसमुत्पनो धन्यः कोऽपि भविष्यति / तस्याहं करसंलग्नो, न लोप्यं मम शासनम् // 3 // अमावास्यां पुण्यतिथि भांडप्रज्वालनं च पौर्विकैः कुंभकारैश्च नो कार्य / तासु तिथिष्ववज्ञा विभयः प्राणिवधं कुरुते तस्य शिक्षापनां दबिद्र४चत्वारि। नदूलपुरवासी प्राग्वाटवंशजः शुभं कर्णाभिधानः सुश्रावक साधुधार्मिकः तत्सुतौ इह हि योनौ जातौ पूतिगसालिगौ ताभ्यां कृपापराभ्यां प्राणिनामर्थे विज्ञप्य शासनं कारापितं / स्वहस्तः श्रीपूनपाक्षदेवस्य लिखितमिदं पारि० लक्ष्मीधरसुत ठ० जसपालेन प्रमाणमिति / यह फरमान-पत्र परमाहत राजा कुमारपाल के राज्य समय में जैनमहाजन और विशेष करके नाडोल के रहनेवाले पूतिग सालिग दोनों भाइयों के प्रयत्न से जारी किया गया था / इससे उस समय यहां के राजाओं की जैनियों के साथ कितनी उदारता थी, इस बात का भी पता मले प्रकार लग सकता है। किसी समय यह नगर अपनी जैनसमृद्धि और धनसमृद्धि से इतर नगरों से किसी प्रकार कम नहीं था / परन्तु कालदोष से आज यहाँ तीस घरो से अधिक वसति नहीं रही / जैन घरों की आबादी से तो यह नगर हाथ ही धो बैठा है / अपसोस है कि जहाँ अमरपुरी के समान अद्वितीय शोभा विलास करती थी, वहाँ आज कुछ भी दिखाई नहीं देता, यह सब काल कराल का कोप नहीं तो और क्या है ?
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________________ (217 ) 182 भाटी इस गाँव में जैनों के तीन घर हैं जो धर्मभावना से रहित हैं। यहाँ जिनालय, उपासरा, धर्मशाला या साधु साध्वियों के उतरने लायक कोई भी स्थान नहीं है / 183 जडिया इस गाँव में श्रीमालजैनों के 7 घर हैं जो समकितगच्छ के कहलाते हैं परन्तु इनमें तद्गच्छ संबंधी नियमों की गंध तक नहीं है और प्रायः जैनधर्म से अनभिज्ञ हैं / यहाँ जिनमन्दिर या जिन दर्शन नहीं है। गाँव में एक उपासरा है जो द्रव्य के अभाव से कई वर्षों से अधूरा ही पडा है। 184 धानेरा पालनपुर स्टेट का यह छोटा पर रमणीय कसबा है / यह रियासत पहले सोलंकी सरदारों और बाद में देवडा राजपूत सरदारों के और उनके वंशजों के अधिकार में कई सौ वर्ष तक रही। पालनपुर के गुजराती इतिहास में लिखा है कि सन् 1768 इस्वी में पालनपुर के राजा बहादुरखान ने कतिपय सेना के साथ धानेरा जागीर पर चढाई की और अपने प्रबल तेज से राजपूत सरदारों के बल को कम करके इसके चोवीस गावों में राज्य का हिस्सा कायम किया और देवडा राजपूत सदाजी तथा सोनाजी के तीस गांवों को खालसे कर दिये / पेश्तर के मुताबिक हाल में भी ये गाँव तीसी चोवीसी के नाम से प्रसिद्ध हैं और धानेरा जागीर में शामिल हैं।
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________________ (218 ) यहाँ तपागच्छ के 80, समकितगच्छ (त्रिस्तुतिक संप्रदाय) के 28 और लोंकागच्छ के 80 घर हैं जो सभी श्रीमाली ओसवाल हैं / गाँव में एक उपासरा दो धर्मशाला, एक स्थानक, एक सार्वजनिक लायब्रेरी और एक श्रीयतीन्द्र जैन शिक्षा प्रचारक युवक नामक मंडल है / गाँव के सदर बाजार में सौधशिखरी भव्य जिन मन्दिर है जिसके नीचे का हिस्सा जो तलघर के नाम से पहचाना जाता है. प्राचीन है और इसके वांये हाथ की भीत के स्तम्भे में 7 पंक्ति का लेख खुदा हुआ है। इससे जान पडता है कि सं० 1674 में देवडा पीथाजी जेपालजी के राज्य में श्रोसवाल श्रीमालज्ञातीय वृद्धशास्वा के शाहजी श्रीरिखवा गोलेने इस मन्दिर ( तलघर ) को बनवाया और इसमें मूलनायक श्री शान्तिनाथजी की प्रतिमा स्थापित की / इसके उपर के भाग में यहाँ के संघने नया सुन्दर शिखरवाला मन्दिर बनवाया है / 185 रामसेण यहाँ श्रीमालओसवालों के 15 घर हैं जो जैन और जैनेतर सभी धर्मों को माननेवाले हैं / गाँव के दक्षिण किनारे पर एक प्राचीन जिनालय है जिसका जीर्णोद्धार थोडे ही दिन पहले हुआ है / इसके नीचे के हिस्से में मजबूत तलघर है जिसमें सफेदवर्ण की तीन तीन फुट बडी श्रीऋषभदेवजी आदि 4 मूर्ति, तीन का उसगिया और चक्रेश्वरीदेवी की मूर्ति बिराजमान हैं। इनके अलावा एक पार्श्वनाथ भगवान की पंच तीर्थी भी है जो डीसाताबे के गाँव सरत वासी कोली ठाकरडा के खेत से मिली है / इसके पृष्टिभाग में लिखा है कि
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________________ (219) " संवत् 1286 वर्षे वैशाखबदि 1 गुरौ वा राज सिंघस्तयोः सुत केल्हणभ्रातुर्वाग्भटप्रभृतैः कारिताः, प्रतिष्ठिता पं० पूर्णकलशेन / " प्राचार्य श्रीमुनिसुन्दरसूरि स्वरचित गुर्वावली में लिखते हैं कि विक्रम सं० 1010 में पायार्य सर्वदेवसूरिजीने रामसैन्य नगर के श्रीऋषभदेव भगवान् के मन्दिर में आठवें तीर्थंकर श्रीचन्द्रप्रभ स्वामी के बिम्ब की विधिपूर्वक प्रतिष्ठा की / इस आशय को प्रगट करनेवाला गुर्वावली का श्लोक यह है नृपादशाये शरदां सहस्र, यो रामसैन्याहपुरे चकार / नाभेयचैत्येऽष्टमतीर्थराजबिम्बप्रतिष्ठां विधिवत्सदर्ग्यः गमसेण ते पूर्व 1 मील जंगली धूल के ढुब्बे को खोदते हुए सर्वधात की एक जिनप्रतिमा की बैठक का परिकर निकला है जो बहुत सुन्दर और इस समय नवीन मन्दिर में रक्खा हुआ है / इसके नीचे दो पंक्ति का पद्यबद्ध ऐसा लेख खुदा हुअा है" अनुवर्तमानतीर्थप्रणायकाद्वर्द्धमानजिनवृषभात् / / शिष्यक्रमानुयातो जातो वज्रस्तदुपमानः // 1 // तच्छाखायां जातस्थानीयकुलोद्भुतो महामहिमा / चन्द्रकुलोद्भवस्ततो वटेश्वराख्यः क्रमबलः // 2 // थीरापद्रोद्भूतस्तस्माद् गच्छोत्र सर्वदिख्यातः / शुद्धाच्छयशोनिकरैर्धवलितदिक्चकवालोऽस्ति // 3 // तस्मिन्भूरिषु सूरिषु देवत्वमुपागतेषु विद्वत्सु / जातो ज्येष्टायर्यस्तस्माच्छ्रीशान्तिभद्राख्यः // 4 //
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________________ (220) तस्माच्च सर्वदेवः सिद्धांतमहोदधिः सदागाहः / तस्माच्च शालिभद्रो भद्रनिधिगच्छगतबुद्धिः // 5 // श्रीशान्तिभद्रसूरी व्रतपतिजा........पूर्णभद्राख्यः / रघुसेना....स्ति...................बुद्धिम् // 6 // ....पयदिदं बिम्ब, नाभिसूनोर्महात्मनः / लक्ष्म्याश्चञ्चलतां ज्ञात्वा जीवितव्यं विशेषतः // 7 // गंगलं महाश्रीः / / संवत् 1084 चैत्रपौर्णमास्याम् // " इस प्रशस्ति लेख से जाहिर होता है कि थीरापद्रगच्छीय प्राचार्य शान्तिभद्र के समय में वि० सं० 1084 चैत्रसुदि 15 के दिन पूर्णभद्रसूरिजीने श्रीऋषभदेवस्वामी के बिम्ब की प्रतिष्ठा की और छट्टे श्लोक के अनुसार रामसैन्य के राजा रघुसेनने प्रतिष्ठा कराई मालूम होती है। ___गुर्वावलीकारने सं० 1010 में जिस ऋषभदेवमन्दिर में चन्द्रप्रभस्वामी की प्रतिष्ठा का उल्लेख किया है। वह प्रशस्ति लेखवाले मन्दिर से पुराना मालूम होता है। संभव है कि सं० 1084 के प्रशस्तिवाली प्रतिमा सर्वधातुकी और प्रमाण में आबु अचलगढ पर विराजमान प्रतिमा के बराबर होगी / ___ इन लेखों से यह बात निःसंशय हो जाती है कि बिक्रम की 11 वीं सदी में यहाँ अनेक प्रभावक प्राचार्यों के हाथ से प्रतिष्ठाएँ हुई थी और उस समय में रामसैन्य का गजा रघुसेन था, जो जैनी था और उसने यहाँ जैनप्रतिमाओं की स्थापना की थी। इस समय यहाँ के कतिपय स्थानों का खोदकाम करते प्राचीन
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________________ (221) प्रतिमाएँ, इमारतों के खंडेहर, मन्दिरों के पत्थर, कूआ वावडियों के देखाव और सिके आदि प्राचीन उन्नति के स्मारक देखनेवालों के हृदय को खींचते हैं। गमसेण का प्राचीन नाम रामसैन्य है। यह भीमपल्ली ( भीलडिया ) से उत्तर 12 कोश और डीसारोड़ से वायव्यकोण में 10 कोश दूर है। यह गाँव वाघेला राजपूत ठाकुर के ताबे में है / यहाँ के जैनेतर लोगों का भी जिनमन्दिर पर यहाँ तक दृढ विश्वास है कि जिनमंदिर की कोई भी चीज कोई नहीं वापरता / एक वख्त बहार पडे हुए जिनमन्दिर के एक पत्थर को किसी किसानने उठा कर अपने कुए पर रख दिया / जोग ऐसा बना कि उसी दिन उसका बंधा हुआ कुत्रा गिर पड़ा / इससे किसानने पत्थर को लेकर पीछा जिनमन्दिर में रख दिया / इसी प्रकार मन्दिर की एक शिला को उठा कर ठाकुरने अपने बैठक के चौंतरे पर जड दी / मौका ऐसा बना कि उसी दिन ठाकुर को रात्रि के समय मरणान्त कष्ठ होने लगा जिससे घबरा कर ठाकुरने शिला को पीछी मन्दिर पहुंचा दी / ऐसी एक दो नहीं किन्तु, अनेक घटनाए यहाँ के लोग कहते हैं। इसी भय से यहाँ के लोग मन्दिर की किसी वस्तुको उठाने तक की इच्छा नहीं करते / 186 वरण___ यहाँ पोरवाड़जैनों के छः घर और एक छोटा शिखरबद्ध जिनमन्दिर है / मन्दिर में एक फुट बडी महावीरप्रभु की पाषाणमय मूर्ति स्थापित है / इस मन्दिर को गाँवो गाँव से उघराणी करके श्राविका भूतिने बनवाया है। ....... वारप्रभु की पा भूतिने बना मन्दिर को
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________________ (222) 187 वरनोडा इस गाँव में धर्मजिज्ञासु और जैन साधुसाध्वियों के भक्त जैनों के पांच घर हैं। यहाँ उपासरा या जिनमन्दिर नहीं है / 188 भीलडिया यह गाँव पालनपुर एजन्सी में डीसारोड से 16 मील के फासले पर पश्चिम दिशा में है। इसके प्राचीन नाम भीमपल्ली और त्रंबावती हैं / यह तीर्थस्थान है / और कईएक स्तोत्र तथा चैत्यपरिपाटी ( तीर्थमाला ) ओं में इस स्थल को तीर्थरूप मान कर वन्दन किया गया है / इस समय यह छोटा गाँव है और गाँव में धर्मशाला के अन्दर एक तरफ गुंबजबाला गृहमन्दिर है जिसमें कतिपय छोटी बड़ी जिनप्रतिमाओं के सहित मूलनायक श्रीनेमनाथ भगवान् की 1 // फुट बडी मूर्ति विराजमान है जो सं० 1892 की प्रतिष्ठित है और प्रतिष्ठाकार तपागच्छ के कोई श्रीपूज हैं। इसके बाहर एक ताक में अम्बिकादेवी की प्रतिमा है, उसके नीचे लेख खुदा हुआ है कि ' सं० 1344 वर्षे ज्येष्ठसुदि 10 बुधे श्रे० लखमसिंहेन अंबिका कारिता।' ___ गाँवसे पश्चिम किनारे पर एक विशाल धर्मशाला है जो नयी बनी है और इसमें एक कुआ, एक भोजनालय, एक वांचमालय तथा 58 कोठरियाँ है / इसके एक भाग में उत्तर तरफ तीन शिखरवाला नया जिनमन्दिर है, जिसमें श्रीमहावीरस्वामी आदि की प्रतिमाएँ विराजमान हैं जो सर्वाङ्ग सुन्दर और दर्शन से चित्त को शान्ति देनेवाली हैं। इसीके नीचे पूर्वद्वार वाला
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________________ ( 213) एक जूने समय का बना भोयरा है जिसमें श्यामरंग की तीनफुट बड़ी श्रीपार्श्वनाथ की प्राचीन मूर्ति स्थापित है जो भीलडिया पार्श्वनाथ के नाम से प्रसिद्ध है / इसके दोनों तरफ नेमनाथस्वामी आदि की मूर्तियाँ स्थापित हैं जो प्राचीन और दर्शनीय हैं। ___ इसके आसपास के गाँवों में इस तीर्थ की खूब प्रख्याती है और यहाँ प्रतिवर्ष पोषवदी दशमी का मेला भराता है जिसमें केम्प, डीसा, पाटण, राधनपुर, पालनपुर, थराद, वाव, धानेरा आदि गाँवों से हजारों यात्रालु एकठे होते हैं / इस तीर्थ का वहीवट डीसाटाउन का जैनसंघ करता है / डीसा जैनसंघ के हस्तक होने बाद यह तीर्थ अच्छी स्थिति में आगया है। इस तीर्थ के विषय में जुदी जुदी दन्तकथाएँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि जिस समय राजा श्रेणिक अपने भाईयों के अनबनाव से राजग्रही से चला गया, तब बह परिभ्रमण करता हुआ यहाँ आया और किसी रूपवती भीलकन्या के प्रेम में फंस गया / अपने प्रेम को खींच लेनेवाली भीलडी का प्रसंग चिरस्मरणीय रखने के लिये श्रेणिकने इसका त्रंबावती नाम पलटा कर ' भीलडिया' नाम कायम किया। . इस दन्तकथा में सत्यांश कितना है ? इसको पाठक स्वयं समझ लें / मारतवर्ष में अनेक नगर और तीर्थों के संबन्ध में ऐसी अनेक दन्तकथाएँ खाली महत्त्व बढाने के लिये गढ़ी गई हैं। - दूसरी दन्तकथा यह है कि भीलड़िया, या भीमपल्ली नगर की अकाल घटना होने की खबर किसी निमित्तज्ञ-मुनि को
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________________ (224 ) पहले ही से पड गई / इससे उसने यहाँ के अधिवासियों को कहा कि तुम इस नगर को छोड़ कर भग जाओ, क्योंकि यह नगर अमुक दिन जल के भस्म हो जायगा / मुनि के कथनानु निकल गये और दूर जाकर बस गये, इन्हीं की बसति का नाम राधनपुर हुआ / वस सब लोगों के निकल जाने बाद भीलडिया एकदम जल के भस्म हो गया / ____ इस घटना की सत्यता दो बात से मानी जा सकती है / एक तो यह कि यहाँ की जमीन खोदनेसे दो तीन हाथ ऊंडाई से राख के थर और इमारतों के खंडेहर देख पडते हैं / दूसरी बात यह कि राधनपुर के अनेक कुटुम्ब विवाहादि प्रसंगो पर यहाँ अब तक अपनी कुलदेवी का जुहार करने को आते हैं। प्राचार्य मुनिसुन्दरसूरिजीने स्वरचित गुर्वावली में भी लिखा है किश्रुतातीशायी पुरि भीमपल्ल्यां वर्षासु चाद्यपि हि कार्तिकेऽसौ। अगात्प्रतिक्रम्य विबुद्धय भाविभङ्गं परैकादशभूर्यबुद्धम् / 63 / - -अतिशयवान् श्रुतज्ञान के धारक (आचार्य धर्मघोष के शिष्य श्रीसोमप्रभसूरि ) भीमपल्ली नगरी में चोमासे रहे। इस चातुर्मास में दो कार्तिक थे इससे शास्त्र-नियम प्रमाणे दूसरे कार्तिक की सुदि में चोमासी प्रतिक्रमणकरके चातुर्मास समाप्त करने का था, किन्तु लग्नकुंडली के बारहवें भुवन में पडे हुए सूर्य पर से मालूम हुआ कि थोडे ही दिन में इस नगर का भंग होनेवाला है / अतएव प्रथम कार्तिक में ही चोमासी प्रति. क्रमण करके सोमप्रभसूरिजी भीमपल्ली से विहार कर गये।
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________________ ( 225) इस पद्य से साफ जाहिर होता है कि विशाल और समृद्ध भीमपल्ली नगरी का किसी अकस्मात् से ध्वंस (नाश ) प्राचार्य सोमप्रभसूरि के समय में हुआ है और सोमप्रभसूरि का साधुत्व काल गुर्वावली के लेखानुसार सं० 1.32.1 से 1373 तक है। याने विक्रम की चौदहवीं सदी के लगभग मध्यभाग में भीमपल्ली का नाश हुअा है / इसके पहले यह नगर जन और लक्ष्मी से परिपूर्ण था। परन्तु वर्तमान में यह एक छोटे गाँवडे के रूप में रह गया है। ____ इस तीर्थ के नायक भीलडिया पार्श्वनाथ के मन्दिर (भोयरा) में एक धातु की प्रतिमा है / उस पर लिखा है कि - संवत् 1215 वर्षे वैशाखसुदि ९दिने श्रे० तिहणसर भार्या हांसी श्रेर्योऽर्थ रतमानाकेन श्रीशांतिनाथवि कारितं प्रतिष्ठितं न....ति...गच्छीय श्रीवर्द्धमानसूरिशिष्यैः श्री. रत्नाकरसूरिभिः। इसी प्रकार तीर्थनायक के सामने एक ताक में गौतमस्वामी की प्रतिमा स्थापित है। उसके नीचे लिखा है कि-... संवत् 1324 वैशाखवदि 5 बुधे श्री गौतमस्वामि मूर्तिः श्रीजिनेश्वरमूरि-शिष्य-श्रीजिनप्रबोधसूरिभिः प्रतिष्ठिता, कारिता च सा ...पुत्र सरिवइजनेन मूलदेवादि भ्रातसहितेन स्वश्रेयोर्थ कुटुम्बश्रेयोर्थ च / भीलडिया में छोटी बड़ी पाषाण की प्रतिमानों पर लेख
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________________ (226) देखने में नहीं आता, परन्तु ये प्रतिमाएँ प्रायः विक्रम की ग्यार. हवी, या बारहवीं शताब्दी की होनी चाहिये / सबब कि उस ममय प्रतिमाओं के ऊपर लेख लिखने की पद्धती नहीं जैसी थी / ऊपर के लेखों से मानने को कारण मिलता है कि चौदहवीं सदी तक भीमपल्ली में धार्मिक प्रवृत्ति चालु थी, किन्तु उसके बाद भीमपल्ली सदा के लिये शान्त निद्रा में सो गई। 189 नेहडा यहाँ श्रीमालजैनों के 18 घर, एक उपासरा, और एक गुंबजवाला छोटा जिनालय है / जिनालय में श्रीपार्श्वनाथस्वामी की एक फुट बडी सुन्दर प्रतिमा स्थापित है, जो अर्वाचीन है। 160 वात्यम दियोदर थाने के नीचे यह बोटा गाँव है / इस में श्रीमालजैनों के 18 घर हैं जो सभी मोरखिया गोत के गोत्रज भाई हैं / गाँव में एक छोटा शिखरवाला जिनमन्दिर है, जिसमें ऋषमदेवजी की प्राचीन मूर्ति विराजमान है। . . 161 वाहणा यहाँ श्रीमालजैनों के 25 घर हैं और एक कच्चे उप्पपरे में धातु की पंचतीर्थी है। यहाँ के जैन खेनलादि मिध्यात्वीदेवों के उपासक हैं। . ... 192 लुभाणा इसमें श्रीमालाजैनों के 35 घर, और एकही कंपाउंड में
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________________ -- - COOCO-OOOOOOOOOE-C00C 0.000000ccco.00000000000000CCCo..0. 22-2-10 12 ( 1 ) G00000000000000000000000000.00000.00000000000000000000000000 0000000000.00Coo.000000.ooocoo.000000.0OCCO.0000000000000 व्याख्यान वाचस्पति मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी महाराज. 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000.00 Co000 श्री यतीन्द्रविहार-दिग्दर्शन :
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________________ (227) उपासरा तथा जिनालय है / मन्दिर में दो फुट बड़ी ऋषभदेवजी की प्राचीन मूर्ति है और धातु की छोटी 13 पंचतीर्थयाँ हैं। 163 जेतडा - यहाँ भावुक और धर्मप्रेमी श्रीमालजैनों के 18 घर, एक सपासरा और गृहमन्दिर है, जिसमें ऋषभदेव भगवान की भव्य प्रतिमा स्थापिन है। 194 पावर यहाँ साधुनों के ठहरने लायक कोई स्थान नहीं है और न जिनदर्शन हैं / जैनों के चार घर हैं, जो नहीं जैसे और धर्मभावना से रहित हैं। 195 थराद- यह बनासकांठाएजन्सी में अच्छा संस्थान है, इसका क्षेत्रफल 940 चौरस मील. और प्राबादी 52839 के लग-भग है। जिनमें 46765 हिन्दु, 1948 मुसलमान और 41.07 जैन तथा 23 गेर जात के हैं / सन 1621 की गणनानुसार थराद कसबे की आबादी 827 घरों की है जिनमें पुरुष 1963 और स्त्रियाँ 1635 हैं / इसके उत्तर मारवाड, पूर्व में पालनपुर, दक्षिण में दीओदर और सुइगाँव, तथा पश्चिम में वाव परगना है। यहाँ शीतकाल में 40 से 48, ग्रीष्मकान में 90 से 118 और वकाल में 70 से 65 डीग्री तक गरमी पड़ती है। है इसका जूना नाम थिग्पुर थिगदि, थारापद्र और थिगपद है,
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________________ (228) जिसको विक्रम सं० 101 में सोलखी परमार थिरपाल धरुने अपने नाम से वसाया था / कहा जाता है कि थिरपाल धरु की बहिन हरकुने घेरालीमडी के 75 फुट चौग्स मेदान में 1444 स्तंभ और 52 जिनालय विशाल जिनमंदिर बनवाया था, जो इस समय भूमिशायी है / यह विशाल मन्दिर किस समय भूमिशायी हुआ ? यह इतिहास अभी अंधारे में ही है। मालूम होता है कि वाव में जो यहाँ से गई धातु की अजितनाथ प्रतिमा है, वह इसी विशाल मंदिर की हो / इस स्थान की जमीन खोदते हुए इस रमणीय जिनमंदिर के पत्थर, ईंट आदि निकलते हैं, जिससे यहाँ विशाल जिन-मन्दिर होने का अनुमान किया जा सकता है / थिरपाल धरु के वंशजोने यहाँ विक्रम की 7 वीं सदी तक राज्य किया है / अन्तिम परमार राजा गढसिंह धरु हुआ, उसने अपने भानेज नांदौल के चौहान राजा को थराद जागीर दे दी। किसी किसी का यह भी कहना है कि नांदोल के चौहान राजाने गढसिंह परमार को मार करके थराद पर अपना अधिकार जमा लिया। इसके बाद छः पीढो तक चौहानोंने यहाँ गज्य किया / बाद में महमद-शाहबुद्दीनगोरी और कुतबुद्दीनईबर के समय में सन् 1174 से 1206 इस्वी तक खुब युद्ध करके और अन्तिम चौहानराजा पुंजाजीराणा को मार करके मुलतानी मुसलमानोंने थराद जागीर पर अपना कब्जा जमाया / राणा पुंजानी चौहान के मारे जाने पर उसकी सेढी नामक राणी अपने बाल कुँवर वजाजी को लेकर गुप्त-रीत से दीपा
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________________ ( 229) थुलडा नामक टेकरी ( पहाड़ी ) पर दीपा भील के श्राश्रय में जा रही / दीपा भील उन दोनों को पारकर गाँव में अपने पिता के घर छोड पाया / यहाँ वजाजी कुंमर का लालन पालन श्रच्छी तरह से होने लगा / वजाजी कुमर जब योग्य अवस्थावाला हुश्रा तब उसने कतिपय भीलों की सहायता से थराद से पश्चिम 10 मील दूरी पर एक बावडी बनवाई और वहाँ उसीके नाम से वाव नामक कसबा ( गाँव ) नया वसा कर अपना राज्य कायम किया / यह कसबा सन् 1244 इस्वी में वसाया और अब तक वजाजी के वंशजों के ही अधिकार में है। इस्वी सन् 1403 में गुजरात के मुख्य अमीर फतेखानने तेरवाडा और राधनपुर मुलतानी कुटुम्ब से छीन लिये, इससे मुलतानी कमजोर पड गये और उनके हाथ से थराद जागीर निकल गई / इस्वी सन् 1700 में फीरोजखान जालोरी ने थराद को अपनी सत्ता में ले लिया और सन् 1730 के लगभग यह तालुका जालोरियों के हाथ से निकल कर गधनपुर के जबानमर्दनखान बांबी के अधिकार में गया / अभेसिंहजी सर सुबाने बांबियों को निकाल कर थगद को एक नायब की देखरेख नीचे कायम किया। इसके बाद सन् 1736 इस्वी में यहाँ का हाकिम जेतमल चौहान हुआ जो वाव का भायात था / वाव के गणा वजानी चौहानने सोचा कि जेतमल बल पकडने पर भविष्य में अपने लिये हरकत पहुंचानेवाला हो पड़ेगा। ऐसा समझ के उसने पालनपुर के बहादुरखान के द्वारा जेतमल को निकलवा दिया और थराद जागीर को अपने हस्तगत कर ली।
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________________ (230 ) सन् 1740 इस्वी में नवाब कमालुद्दीनखान को यह जागीर जागीरदार तरीके, अथवा फोजदारी चलाने के लिये सोंपी गई / कमालुद्दीनखानने सन् 1759 में सरधराशाखा के मोखाड़ा के खानजी वाघेला को यह जागीर दे दी। खानजीने अपनी अक्ल और जोरावरी से इस जागीर पर स्वतंत्र अधिकार कर लिया / तब से अब तक यह जागीर खानजी के वंशजों के ही अधिकार में है। खानजी से वर्तमान ठाकुर तक वंशवृक्ष इस प्रकार है 1 खानजी आनन्दसिंह 2 हरभमजी 3 करणसिंह बनाजी पर्वतसिंह 4 खेंगारजी भूपतासंह पृथीराज 5 अभयसिंह 6 दोलतसिंह रायसिंह 7 भीमासिंह केसरीसिंह भगवानसिंह जोरावरसिंह
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________________ (21) इस समय थराद में कुल जैन-मन्दिर 10 हैं, जिनमें तीन शिखरबद्ध और सात गृह-मन्दिर हैं। ये सभी मन्दिर प्रायः 18 से 20 वीं सदी तक के बने हुए हैं। इन सभी जिनालयों में प्राचीन, सुन्दर और दर्शनीय जिन प्रतिमाएँ विराजमान हैं, जो विक्रम की 12 से 18 वीं शताब्दी तक की प्रतिष्टित हैं / मुहल्ले वार जिनप्रतिमा और जिनालयों की संख्या की तालिका इस प्रकार है मूलनायक | इंच बड़ी DAlb प्रतिमा धातु प्रातमा मुहल्ला सेठों की-सेरी SN 62 o 14 1 ऋषभदेव ) शांतिनाथ पारसनाथ) आदिनाथ 3 महावीर वासुपूज्य अभिनंदन 6 विमलनाथ विमलनाथ शांतिनाथ गोडीजी सुपार्श्वनाथ o 24 2 0 9 12 // 15 // 5 रासिया-सेरी देसाई-सेरी आमली-सेरी सुतार-सेरी सुनार--सेरी श्रामली-सेरी is 0 a 0 0
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________________ (232 ) - इनके सिवाय संघवी-सेरी में भगवान् मुनिसुव्रतस्वामी का एक गृह-मन्दिर फिर भी था, परन्तु वह भूमिशायी हो गया / इस समय इसका खंडेहर पड़ा है और इसकी सर्वधात की मूलनायक श्रीमुनिसुव्रतस्वामी सहित 26 जिनप्रतिमाएँ देसाई-सेरी के श्रीविमलनाथजी के गृह-मन्दिर में विराजमान हैं / इस जिनालय के लगते ही दहिने तरफ झमकाल-देवी का देवल है जो श्रीविमलनाथ भगवान् की अधिष्ठायिका देवी है और उसका असली नाम विजया-देवी है। ___ थराद से पश्चिम-दक्षिण कोण में 25 कदम के फासले पर 'वरखड़ी' नामक स्थान पर एक छोटा परकोटे सहित देवल है, इसमें प्राचीन समय के श्रीगोडी-पार्श्वनाथ के चरण स्थापित हैं। इनकी प्रातष्ठा किसने कब की और कब यहाँ स्थापित हुए इसका कोई पता नहीं है। सेठों की सेरी में रहनेवाले महात्मा ( कुलकर ) उत्तमचं. दजी के मकान की एक जुदी कोठरी में भी प्राचीन छोटी आठ जिन प्रतिमाएँ स्थापित हैं। सं० 1979 में यहाँ ओडजाति के जेठा के मकान की राँग खोदते समय जमीन में से श्रीवासुपूज्य भगवान की पाषाणमय ?, और सर्वधात की चोबीसी, पंचतीर्थी 24 एवं 25 जिनप्रतिमाएँ निकली थीं, जो संवत् 1976 श्रावणसुद 8 के दिन महोत्सव के साथ भगवान् श्रीमहावीरस्वामी के गृह-मन्दिर में विराजमान की गई हैं। यहाँ सब से प्राचीन और प्रभावशालिनी मूर्ति श्री अजि
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________________ (233) तनाथ भगवान् की थी, जिसकी प्रतिष्ठाञ्जनशलाका थिरपुर स जाने बाद विक्रम संवत् 136 श्रावण वदि. अमावास्या बुधवार के दिन हुई थी / यह मूर्ति सर्वघात की है, तथा 31 इंच बडी है और इस समय यह वाव-स्वस्थान में विराजमान है। किंवदन्ती से मालूम पड़ता है कि मुसलमानी हमलों के भय से यह प्रतिमा थराद से वाव भेज दी गई। ___थराद से पूर्वोत्तर कोण में अन्दाजन पौन मील के फासले पर नाणदेवी का देवल है, जो चौहानों के शासन काल में बनाया गया था। थरादवासियों का कहना है कि विक्रम की 14 वीं सदी में नाणदेवी की हद तक थराद वसती थी और यह देवल नगर के नाके पर था / इसका असली नाम आशापूरी माता है और इसके विषय में यह किंवदन्ती प्रचलित है कि-नांदोल जागीर जब चौहानों के हाथ से निकल गई, तब चौहान सरदार निराश हो गये / उनकी निराशता को मिटाने के लिये आशापूरी माताने स्वप्न में दर्शन दिये और धैर्य बंधाकर कहा कि भीनमाल से तुम लोग मेरी मूर्ति गाड़ी में रख कर ले जाओ। जहाँ पर गाड़ी की नाण ( डोरी ) टूट जाय वहीं मूर्ति की स्थापना कर देना, इससे तुम्हें फायदा पहुंचेगा। देवी के कथनानुसार चौहान सरदार मूर्ति को भीनमाल से गाड़ी में रख के थराद तरफ रवाने हुए और इस स्थान पर आये कि गाडी की नाण टूट गई। चौहानोंने नाणदेवी नाम
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________________ ( 234) कायम करके मूर्ति की स्थापना इसी स्थान पर कर दी / उस समय से चौहान और थराद के श्रीमाली महाजनोंने नाणदेवी ( आशापुरी-माता ) को कुलदेवी तरीके मानना शुरू की। दूर प्रदेशों में जा कर बसे हुवे श्रीमाली महाजन अब भी यहाँ अा कर पुत्रजन्म और लग्नादि प्रसंगों पर जुहार करने को आते हैं / कटुकम तिगच्छीय शाहजी धनजी रचित 'माजी भाशापुरी' के छन्द में लिखा है कि मारं स्थल भीनमालथी, भावतां गुर्जर मांह। * स्वप्नुं रयणी आपीयुं, परमार ध्रुवने त्यहि // 14 // : तुज साथे रथ जेह छे, तेनुं बेटे नाण / ते स्थाने मुज नामथी, स्थिरपुरी करवी ठाण // 15 // तेहिज रथ लइ पावतां, बेटयुं ज्यां ते नाण / स्थिरपुरी नगरी त्यां वसी. मात प्रतापे जाण // 16 // मात नाम आशापुरी, द्वितीय कल्पना नाम / नाणदेवी पण नामथी, नमे लोक निज काम // 17 // धेनु झरे वली जे स्थले, भुवन निपावो त्यांह / मुज प्रतिमा त्यां स्थापिने, तीर्थ भजो मन माह // 18 // धेनु उरोज न पण वह्यु, मातस्थान थयुं तेह / प्रत्यक्ष परचो पेखिने, सहु धरी आबे नेह // 19 // इस छन्द में लिखी गई हकीकत बिन पायेदार मालूम पडती है। क्योंकि नाणदेवी माता के एक स्तंभ पर के लेख से
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________________ (235) जान पडता है कि यह देवल विक्रम की तेरहवीं सदी के प्रारंभ में बना है जो लगभग ऊपर की किंवदन्ती को ही सिद्ध करता है। - इस कसबे ( नगर ) के नाम से 'थिरापद्र' नामका एक गच्छ भी निकला था, जो थिरापद्र, थीरापद्र, थीरापद्रीय, थारापद्र और थीयारा इन नामों से भी प्रसिद्धी में आया / रामसेण से मिले एक प्रशस्ति लेख से पता लगता है कि 'चन्द्रकुलीन वटेश्वराचार्य से यह गच्छ उत्पन्न हुआ जिसने अपनी निर्मलता से दिग्मंडल को समुद्योतित किया / ' इस गच्छ के वादिवैताल शान्तिसूरिजीने सं० 1085 में उत्तराध्ययन-सूत्र पर विस्तृत और गूढाशयवाली पाई नामक टीका रची है। शालिभद्राचार्य के शिष्य नमिसाधुने रुद्रट रचित काव्यालङ्कार पर टिप्पन और सं० 1122 में बडावश्यक टीका वनाई है। इस गच्छ में अनेक विद्वान् दिग्गज आचार्य हो गये हैं और उनके कृत कार्य आज तक उनकी विमल कीर्ति के सौरभ से संसार को सुवासित कर रहे हैं। इस गच्छ के अस्तित्व को बतानेवाले कतिपय जिनप्रतिमाओं के लेख इस प्रकार हैं 1 विमलवसही-आबु देलवाडासंवत् 1119-- 1 चन्द्रकुलोद्भवस्ततो, वटेश्वरारूयः क्रमबलः / / थिरापद्रोद्भुतस्तस्माद् , गच्छोऽत्र सर्वादिकख्यातः / शुद्धाच्छयशोनिकरैर्धवलितदिक्चक्रवालोऽस्ति /
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________________ (26) " थारापद्रीयसंताने, सोमरुपालवल्लभः शांत्यमात्यो महीख्यातः, धावकोऽजनि सत्तमः॥१॥ भार्या तस्य शिवादेवी, श्रेयसे प्रतिमामिमां / नीनगीग्ययोः सुन्वोः, कारयामास निर्मलं / / 2 // " ___ --सं० 11 16 में थारापद्र (थराद ) निवासी सोमरुप ल के पुत्र पृथ्वी में प्रसिद्ध और परमश्रावक शांति नामक मांत्र की स्त्री शिवादेवी के पुण्यार्थ उनके पुत्र नीन्न और गीगीने यह प्रतिमा भराई-वनवाई। 2 कडी प्रान्त के रांतेज गांव का मंदिर. " संवत् 1157 वैशाख सुदि 10 श्रीथारापद्रीयगच्छे श्रीशालिभद्रसूरौ मुभद्रासुतया ठरघुकया स्वात्मदुहितुः महबायाः श्रेयोऽर्थं रातइजस्थ श्रीपार्श्वदेववि कारितमिति / -सं० 1157 वैशाखसुदि 10 के दिन थारापद्रगच्छीय शालिभद्रसूरि के समय में सुभद्रा की पुत्री ठ० रघुकाने अपनी पुत्री सूहवा के श्रेयके लिये रांतेज में पार्श्वनाथ भगवान का बिम्व कराया। 3 श्रमिाल का महावीर मंदिर-- " यः पुरात्र महास्थाने, श्रीमाले स्वयमागतः / स देवः श्रीमहावीरो, देयाद्वः सुखसंपदं // 1 // पुनर्भवभवत्रस्ताः , संतोऽयं शरणं गताः। तस्य वीरजिनेन्द्रस्य, पूजार्थ शासनं नवं / / 2 //
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________________ (स) थारापद्रमहागच्छे, पुण्ये पुण्यैकशालिनाम् / श्रीपूर्णचंद्रसूरीणां, प्रसादाग्लिख्यते यथा // 3 // स्वस्तिसंवत् १३३३वर्षे आश्विनसुदि१४ सोमे अधेह श्रीश्रीमाले महाराजकुलश्रीचाचिगदेवकल्याणविजयिराज्ये तनियुक्त महं. गजसिंहप्रभृतिपंचकुलप्रतिपत्तौ श्रीश्रीमालदे शवहिकाधिकृतेन नैगभान्वयकायस्थमहत्तमसुभटेन तथा चेहककर्मसीहेन स्वश्रेयसे अश्विनमासीययात्रामहोत्सवे आश्विन सुदि१४चतुर्दशीदिने श्रीमहावीरदेवाय प्रतिवर्षे पंचोपचारपूजानिमित्तं श्रीकरणीयपंचसेलहथडाभीनरपालं च भक्तिपूर्व संबोध्य तलपदे हलसवडीपदमध्यात् फरकरहलसहडीए. कसक्तद्र०२२ सप्तविंशोपकोपेतपंचद्रम्माः। तथा सेलहथाभा व्ये आठडां मध्याद् अष्टौ द्रम्मा। उभयसप्तविंशोपकोपेतत्रयो दशद्रम्मा आचंद्रार्क देवदाये कारापिताः वर्तमानपंचकुलेन वर्तमानसेलहथेन देवदायकृतमिदं स्वश्रेयसे पालनीयं / " . -जो पहले महास्थान श्रीमालपुर (भीनमाल) में स्वयं पधारे थे, वे श्रीमहावीरदेव आपको सुखसंपत्ति देवें 1, जन्म मरणरूप भवों से दुःखित जीव जिसके शरण को प्राप्त हुए उन महावीरप्रभु की पूजा के लिये यह नवीन शासन ( फरमान-पत्र ) किया 2, थारापद्रगच्छ के आचार्य श्रीपूर्णचन्द्रसूरि के प्रसाद से प्रस्तुत लेख लिखा जाता है 3, जैसे संवत 1333 आसोजसुदि१४ सोमवार के दिन इस श्रीश्रीमालनगर में महाराजकुल श्रींचाचिगदेव के शासनकाल में
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________________ (268) उसके नियुक्त किये हुए महं० गजसिंह पंचकुल के समय में वहिवटदार नैगमजाति के कायस्थ महत्तम सुभट और चेटक कर्मसिंहने खुद के कल्याण के लिये आसोज की यात्रा के निमित्त तथा आसोजसुदि 14 के दिन महावीरदेव की पूरा भणाने वास्ते गाँव के पंच और अधिकारियों के पास से मांडवी की जकात में से प्रतिवर्ष 13 द्रम्म और 7 विंशोपक महावीर मन्दिर में देने का ठहराव किया। यह ठहराव स्वश्रेय के लिये किया गया अतएव चन्द्रसूर्य की स्थिति पर्यन्त इसका सब को पालन करना चाहिये। 4 शंखेश्वरजी की देवकुलिका "संवत् 1334 वर्षे राधमुदि 10 रवी श्रीथीयारागच्छे सलखणपुरे श्रीसर्वदेवसरिसंताने श्रीश्रीमालज्ञातीय भा०... सुत लूणसिंहकेन भगिनी श्रीसूहरयोर्थ सुविधिनाथस्य परिकरकारितः दिवं च कारितं / " / -सं० 1334 वैशाखसुदि 10 रविवार के दिन सलखणपुर निवासी थीयारागच्छीय सर्वदेवसूरिकी संतान में लूणसिंह भंडारीने अपनी बहन सूहड के श्रेय के लिये श्रीसुविधिनाथ का परिकर और विम्ब कराया। 5 कुंभारिया पार्धनाथमंदिरसंवत् ११६१थिरापद्रीयगच्छ श्रीशीतलनाथवि कारित।" - सं० 1161 में थिरापगच्छाय (किसी श्रावकने पारासण के पार्श्वनाथ की देवकुलिका में ) श्रीशीतलनाथ का विन्ध कराया।
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________________ (239) इन लेखों से साफ जाहिर होता है कि थिरापद्रगच्छ के अनेक आचार्यों के करकमलों से जुदे जुदे स्थान पर अनेक जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठाएँ हुई हैं और यह गच्छ मारवाड, गुजरात, मेवाड और काठयावाड़ आदि देशों में भी फेला हुआ था / श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छ-मुखमंडन-सुविहित-भूरिकुलतिलक साधुक्रियोद्धारकारक-जैनशासनसम्राट-परमयोगिराजकलिकालसर्वज्ञकल्प-जङ्गमयुगप्रधान-जगत्पूज्य श्री श्री 1008 श्रीमद्-विजयराजेन्द्रसूरीश्वरचरणकमलचतुरभृङ्गायमाण-व्याख्यानवाचस्पत्यु-. पाध्याय-मुनि श्रीयतीन्द्रविजयसङ्कलिते___ 'श्रीयतीन्द्रविहार-दिग्दर्शनो' नाम / ऐतिहासिकग्रन्थे प्रथमो .. . भागः समाप्तः / बोण-सु-निधि-चन्द्र में, पौषमास जयबन्त। 'शुक्लपक्ष गुरु-सप्तमी, संपूरण यह ग्रन्थ // 1 //
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________________ परिशिष्ट, नम्बर-१ जो गाँव थराद स्वस्थान के निकटवर्ती हैं, पर एक रास्ते में श्रृंखला-बद्ध नहीं है। उनका बयान इस परिशिष्ट में दिया जाता है / इस प्रान्त में इनमें के कतिपय स्थान प्रायः पवित्र तीर्थ स्वरूप माने जाते हैं और उनमें प्रान्तवर्ती अनेक जैन इनकी यात्रा के लिये आते हैं। अतएव थराद से लगते ही इन पवित्र स्थानों का उपलब्ध वृत्तान्त इस पुस्तक के परिशिष्ट में लिख देना अस्थान नहीं है। 1 वाव स्वस्थान थराद से पश्चिम 5 कोश के फासले पर यह कसबा वसा हुआ है / यहाँ के ठाकुर चौहान राजपूत हैं, परन्तु वे यहाँ राणा के नाम से व्यवहृत हैं / इनके वंशज प्रथम थराद के राज्यकर्ता थे। लेकिन पुंजाजी चौहाण जब मुसलमानों के साथ लडाई में मारे गये, तब उनकी सेढी नामक राणी अपने नवजात बालक बजाजी को लेकर दीपाथुलडा टेकरी पर दीपा भील के आश्रय में जा रही / वजाजी जब लायक उम्मर का हुआ तब उसने प्रथम यहाँ एक वाव ( वावडी-वापिका ) बनवाई और बाद सन् 1244 इस्वी में वाव के नाम से कसबा वसा कर स्वयं
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________________ (241) राणा के खिताब से राज्य किया। धीरे धीरे वजाजी राणाने 51 गाँवो पर अपनी सत्ता जमा कर इस कसबे को स्वस्थान बना लिया / वस, तब से अब तक यह स्वस्थान उन्ही के वंशजों के अधिकार में है और इसके वर्तमान राणा हरिसिंहजी है. तथा उनके तखतसिंह नामका एक पुत्र है। . इस कसबे का क्षेत्रफल 380 चौरस मील है / स्वस्थान की कुल वस्ती 8279 मनुष्यों की और वावकसबे की आबादी 2658 मनुष्यों की है / यह कसबा उत्तर अक्षांस 24-18, और पूर्वरेखांश 71-37 है / यहाँ पर कमसे कम 46 और अधिक से अधिक 112 डीग्री तक गरमी पडती है / इसके उत्तर सांचोर ( मारवाड ), दक्षिण सुईगाम, पूर्व थराद और दक्षिण कच्छ का रण है / इसकी उत्तर-दक्षिण लंबाई 25 मील, और पूर्व-पश्चिम पहोलाई 15 मील है / यहाँ के राण को काठीयावाड के पांचवे वर्ग के दीवानी और फोजदारी का अधिकार है। ....यहाँ श्वेताम्बर श्रीमाल ओसवाल जैनों में मन्दिरमार्गियों के 100, और तेरहपंन्थी दुढियों के 50 घर हैं। गाँव में हो उपाश्रय, एक थानक और तनि मन्दिर है / सब से बडे जिनमन्दिर में सर्वधातु की. 3 // फुट बडी श्रीअजितनाथ भगवान की अति सुन्दर मूर्ति विराजमान है / इसकी प्रतिष्टा विक्रम संवत
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________________ (241) 136 में हुई है / कहा जाता है कि थिरपालधरुने संवत्-१०१ में थराद कसबा वसाया और सं० 136 में इस प्रतिमा को भराईबनवाई। यह प्रतिमा पहले थराद में विराजमान थी परन्तु थराद पर जब मुसलमान बादशाहों का हमला आया, तब वहाँ से यह प्रतिमा वाव पहुंचा दी गई। दूसरे मन्दिर में श्रीऋषभदेव स्वामी और तीसरे मन्दिर में श्रीगोडीपार्श्वनाथ की डेढ़ डेढ़ फुट बडी मूर्तियाँ स्थापित हैं, जो प्रायः विक्रमीय 18 वीं सदी की प्रतिष्ठित हैं / इन दोनों मन्दिर में छोटी बडी सर्वधात की चोवीसी और पंचतीर्थयाँ 200 के अन्दाजन हैं, जिनकी बराबर पूजा भी नहीं होती / यहाँ के जैन आडम्बरी, कलहप्रिय और विघ्नसन्तोषी हैं / इसी कारण स्वच्छन्दचारी साधुओं के सिवाय यहाँ किसी अच्छे क्रिया पात्र साधु की स्थिरता नहीं होती। ईटाटा यहाँ जैनों के एक ही गोत्र के सात घर हैं जो अच्छे भा. वुक, साधुभक्ति करनेवाले और धर्मजिज्ञासु हैं। यह गाँव थराद से वायव्य कोणमें पांच कोश के फासले पर है। यहाँ के जैनेतर लोग भी अच्छे सत्संगी और वास्तविक साधुओं के अनुरागी हैं। छोटा गाँव होने से यहाँ देहरासर या उपासरा नहीं है, साधुओं को गृहस्थों के मकान में ही ठहरना पडता है /
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________________ (23) ढीमा यह इस नामकी जागीर का सदर कसबा है / इसका प्राचीन नाम दारानगर है / विक्रम संवत 235 में यहाँ थिरपालधरु के वंशजों में भोजराज धरु हो गया, उसने यहाँ पर एक सौधशिखरी जिनमन्दिर बनवाया था और उसमें श्रीपार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा स्थापन की थी। इसके बाद परमाईत राजा कुमारपालने इस भव्य मन्दिर का जीर्णोद्धार कराया था। इस समय वह भव्य मूर्ति इस मन्दिर में नहीं है, परन्तु पीछे से बिराजमान की हुई सफेदवर्ण की दो फुट बडी सर्वाङ्ग सुन्दर मूर्ति विराजमान है / इसकी पलाठी की बैठक पर लिखा है कि "संवत 1683 वर्षे श्रीपार्श्वनाथर्विवं कारितं, प्रतिष्ठितं तपागच्छे विजयदेवसूरिभिः।" मुसलमानोंने इस नगर को ऊजड़ किया, उसके बाद चाग्ण ब्राह्मणोंने अपने कुलदेव ढीमानाग के नाम से यहाँ ढीमा गाँव वसा कर स्वयं राज्य किया / लेकिन वावरतस्थान के राणा पचाणजी के वडे पुत्र जेतमलजीने चारणों से छीन कर ढीमा में अपना अधिकार जमाया और उसके नीचे दूसरे सात गाँव डाल कर ढीमा जागीर बना ली / तब से अब तक उनके ही वंशज यहाँ का राज्य करते हैं। __इस जागीर के तालुकदार चौहाण राजपूत हैं / ढीमा जागीर की कुल आबादी 3386 मनुष्यों की है। इसके नीचे 7 गाँव है, यह जागीर वावस्वस्थान के अधिकार में है। यहाँ
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________________ ( 245) श्वेताम्बर जैनों के 40 घर हैं, जो सभी श्रीमाली श्रोसवाल और धार्मिक भावना से रहित हैं / गाँव में एक पोसाल है, जो साधु साध्वियों के उतरने में काम आती है / गाँव के बाहर का प्रदेश कंटकपूर्ण है, अतएव नंगे पैर विचरनेवाले साधु साध्वियों को यहाँ मुसीबत पडती है। इस गाँव के बाहर तालाव के किनारे पर 'धरणिधर' का दो धर्मशाला के सहित मन्दिर बना हुआ है / जिसमें खडे आकार की श्यामवर्ण वाली वंसुरी वजाती हुई श्रीकृष्ण की मूर्ति स्थापित है जो विक्रमयि 15 वीं सदी की प्रतिष्ठित है। इसके लगते ही एक कम्पाउन्ड में महादेव और महालक्ष्मी का देवल है जो नये बनाये गये हैं। वैष्णवों के अनेक धामों में से यह एक है / इस स्थान पर प्रतिवर्ष तीन मेला भराते हैं, जिनमें इसके माननेवाले हजारों वैष्णव यात्री उपस्थित होते हैं। भोरोळ तीर्थ___ यह इस जागीर का सदर स्थान है, इसके नीचे दश गाँव हैं जिनकी कुल जनसंख्या 3478 हैं। इसका क्षेत्रफल 33 मील चोरस है / यहाँ के उपलब्ध लेखों में इसका जूना नाम पीपलपुर, पीपलग्राम और पीपलपुर-पट्टण है / विक्रमीय 14 वीं शताब्दी तक इसकी अच्छी जाहोजलाली थी ऐसा यहाँ के कतिपय खंडेहर और भूमि निर्गत ईंट-पत्थरों से अनुमान किया जा सकता है। गाँव से पश्चिमोत्तर विशाल मैदान में 1444 स्तम्भों वाला
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________________ (245) 72 जिनालय सौधशिखरी जिनमंदिर था / लेकिन यह विशाल मन्दिर मुसलमानी हमलों में तोड दिया गया / इसके इस समय यहाँ की जमीन से अनेक नक्सीदार पत्थर निकलते हैं और सैंकडों पत्थर यहाँ के कुओं में भी लगे हुए देख पडते हैं। विधिपक्ष ( अंचल ) गच्छीय बडी पट्टावली जो जाम. नगरवाले पं० हीरालाल हंसराज के तरफ से गुजराती में प्रकाशित हुई है / उसके पृष्ठ 89 पर लिखा है कि 'कात्यायनगोत्रीय श्रीमाली सेठ मुंजाशाहने भोरोल में अंचलगच्छ की वल्लभी शाखा के प्राचार्य पुण्यतिलकसूरिजी के उपदेश से विक्रम सं० 1302 में शिखरबद्ध जिनमन्दिर बनवाया और उसकी प्रतिष्ठा कराई और एक वाव बंधवाई; कुल सवा क्रोड रुपया खर्च किया। ___संभव है कि चौदहसौ चवालीस स्तम्भोंवाला विशाल जिनमन्दिर सेठ मुंजाशाह का ही बनवाया हो। वर्तमान में मुंजाशाह की वाव भी यहाँ जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मौजूद है और उसके बनाने में हजारो रुपया लगने का स्वाभाविक अनुमान किया जा सकता है / इस कसबे की सपाट भूमि के धौरों के खोदने से अव भी अनेक खंडित प्रतिमाएँ निकलती हैं। सं० 1922 भाद्रवा शुदि 3 के दिन नष्टावशिष्ट एक जीर्ण तालाव के डुब्बे को खोदते हुए श्यामवर्णवाली 2 // फुट बड़ी श्रीनेमनाथस्वामी की सर्वावयवपूर्ण मूर्ति प्रगट हूई थी, जो भोरोल के एक गृहमन्दिर में स्थापित है / यह मूर्ति अतिशय प्रभावशालिनी है। इस प्रान्त के कई
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________________ ( 256) भावुकों की मनोकामनाएँ इसको मान्यता से सिद्ध हुई हैं / इसी से इधर के जैन और जैनेतरों की इस मूर्तिपर अटल श्रद्धा है / दर असल में यह स्थान भी इसी प्रभावशालिनी मूर्ति के कारण तीर्थ स्वरूप माना जाता है। इस चमत्कार पूर्ण प्रतिमा की प्रतिष्ठा कब किस समर्थ प्राचार्य के हाथ से हुई ?, इसका परिचायक यहाँ कोई शिलालेख नहीं है, परन्तु मूर्ति के देखने से अति प्राचीन होने का अनुमान किया जाता है। ____ कसबे से उत्तर-पश्चिम एक जीर्ण तालाव की पाल पर हिंगलाज-माता का देवल है। जिसमें प्रायः सभी पत्थर जैनमन्दिर का लगा हुआ है और इसीमें नेमनाथ भगवान् की अधिष्टायिका अम्बिकादेवी की खंडित-मूर्ति और जैनप्रतिमा की बठक का खंडित परिकर रक्खा हुआ है। उन पर लिखा है कि " संवत 1261 वर्षे ज्येष्ठ सुदि 2 रखौ श्रीब्रह्माण गच्छे श्रेष्ठि बहुदेवसुत श्रेष्ठिदेवराणाग भार्या गुणदेव्या श्रीनेमिनाथविंबं कारितं, प्रतिष्ठितं श्रीजयप्रभसूरिभिः / " (खंडित परिकर ) ___ "संवत 1355 वर्षे वैशाखवदि 7 पीपलग्रामे श्रीनेमिनाथबिंबानि निजपूर्वजगुरूणां मुनिकेशी अवलोक शिषरअदाऽऽम्रशांबसहिता श्रीअंबिकामूर्तिः पं० विजयकलशेन कारिता, श्रीजयप्रभसूरिशिष्य-श्रीगुणाकरसूरिभिः प्रतिष्ठितं / (अम्बिका की खंडित मूर्ति )
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________________ (217) "संवत 1568 वैशाखवदि 8 शुक्रे उपकेश सा. लूणड सा. वीरी आत्मजेन श्रीपार्श्वनाथविं कारितं प्र० विजयप्रभसूरिभिः " ( उपाश्रयस्थित-खंडित जिनप्रतिमा) उक्त श्रीनेमिनाथ भगवान की भव्य प्रतिमा इन लेखों से भी पहले की प्रतिष्ठित है और इन लेखों से यह भी पता लगता है कि विक्रमीय 15 वीं, तथा 16 वीं शताब्दी तक यहाँ प्रखर विद्वान जैनाचार्यों के हाथ से प्रतिष्ठाएँ हुई हैं। इस लिये उस समय तक यह नगर अपनी समृद्धि से समृद्ध और प्रसिद्ध था / कहा जाता है कि पेश्तर यहाँ अकेले श्वेताम्बर जैनों के ही ग्यारहसौ 1100 घर थे जो ऋद्धि से परिपूर्ण थे / लेकिन उपरा ऊपरी मुसलमानी हमले होने और दुकाल पडने से वे सभी यहाँ से निकल कर गुजरात, काठीयावाड, कच्छ और सिंघ में चले गये / वर्तमान में यहाँ साधारण स्थितिवाले श्वेताम्बर जैनों के 20 घर रह गये हैं, जो भावुक, श्रद्धालु और वीसाश्रीमाली ओसवाल हैं। ___ इस जागीर के तालुकदार चोहाण राजपूत है, जो अपने को पृथ्वीराज चौहाण के वंशज बतलाते हैं। संवत् 1410 में रामजी चोहाणने सुंबर राजपुतों को मार-भगा करके भोरोल जागीर पर अपना अधिकार जमा लिया / तब से अब तक इस जागीर के तालुकदार उन्हीं के वंशज हैं। उनकी वंशावळी इस प्रकार है--
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________________ (248) 1 रामाजी ( रामसिंह) सवसिंह 2 हरिसिंह, पबजी, 3 रुगनाथसिंह 4 फतेसिंह, सेरसिंह 5 हरनाथसिंह 6 अगरसिंह 7 किसनदास - भाखरसिंह 6 कल्याणसिंह 10 रायसिंह 11 सरदारसिंह 12 दजुजी खेतोजी 13 गजसिंह 14 पीरदानजी ( दत्तक ) केशरीसिंह
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________________ (249) . भोरोल कसबा थराद से 7 कोश पश्चिमोत्तर, और डीसास्टेशन से 30 कोश पूर्व है / यहाँ यात्रियों के लिये एक छोटी और एक बड़ी, एवं दो धर्मशालाएँ हैं। छोटी धर्मशाला में इस तीर्थ की पेढ़ी है, जहाँ यात्रियों को केशर, धूप आदि पूजा का सरसामान और गोदडे; बरतन वगेरह मिलते हैं / यात्रियों को यहाँ किसी तरह की तकलीफ नहीं होने पाती। अतएव यह तीर्थस्थान दर्शनीय है। ___यहाँ के वर्तमान तालुकदार पीरदानजी दयालु और धर्मप्रेमी हैं। उन्होंने अपनी जागीर के गांवों में पशुवध और सिकार करना बिलकुल बन्द कर दिया है / इतना ही नहीं बल्कि इस विषय का सख्त हुक्म भी जाहेर कर दिया है / हुक्म की नकल नीचे मुताबिक है भु.पु.न. 147 मोरो रसा. (से. . . )नी थी. नाभु' પૂજ્યપાદ વ્યા. વા. મુનિરાજ શ્રીયતીન્દ્રવિજયજી મહારાજશ્રીના ઉપદેશથી ભરેલ તાલુકાના સર્વે કેને આથી ખબર આપવામાં આવે છે કે કેટલાક લેકે દેવી દેવલાંને નામે અવાચક પ્રાણુ જેવાં કે-બકરાં ઘેટાંને વધ કરે છે, તેમજ વગડામાં કેટલાંક ભીલ-કોલી લકે હરણ સસલાં વિગેરેને શિકાર કરે છે. આ બાબત સખત મનાઈ કરવામાં આવે છે અને આ લેખી ખબર આપવામાં આવે છે કે-કે પણ અવાચક પ્રાણ ઘેટાં,
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________________ ( 250) બકરાં, હરણ, સસલાં વિગેરેને વધ કરશે અને કેઈપણ ધર્મની લાગણીને દુભવશે તે તેના સામે હુકમ તેડયાને ચાર્જ રાખીને તેમજ ધર્મની લાગણી દુખાયા બાબત સખત સજા કરી ગ્ય નશીહત કરવામાં मावश. ता.२-१-२८ ભરેલ તાલુકદાર अट. સહી પીરદાનજી ગજસંગજી. तालुहार-सारात.. गणेशपुरा यह छोटा गाँव है, इसमें श्रीमाली श्वेताम्बर जैनों के 4 घर हैं जो भावुक और अच्छे श्रद्धालु हैं / यहाँ जिन-मन्दिर या उपासरा नहीं है / यह गाँव भोरोल से थराद की तरफ एक कोश पूर्व है। वामी___ यहाँ श्रीमाली श्वेताम्बर जैनों के 6 घर हैं जो साधु साध्वियों के अच्छे भक्त और अनुरागी हैं / गाँव में जिनालय, या उपासरा नहीं है, परन्तुं साधु योग्य स्थान उतरने को मिलता है। यहाँ औदिच्य-ब्राह्मणों के 60 घर हैं जो खेती करते हैं और अच्छे धर्म-प्रेमी हैं। ये लोग जैन साधुओं के व्याख्यान अच्छे प्रेम से सुनते हैं।
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________________ ( 251) दूधवा--- ___ यह गाँव थराद से 4 कोश पश्चिम और इसके तालुकदार थराद के देशाई हैं जो जैन महाजन हैं / यहाँ श्रीमाली श्वेताम्बर जैनों के साधारण स्थितिवाले 20 घर हैं, जो विवेकी, भावुक और श्रद्धालु हैं / गाँव में जैनों की इतनी वस्ती होने पर भी जिनालय और उपासरा नहीं है। साधुओं को गृहस्थों के घरों में ही उतरना पडता है। यहाँ के प्रांजणा जाति के कणबी ( पाटीदार ) लोग अच्छे सत्संगी है और जैन साधुओं के भनुरागी हैं। जाणदी-- यहाँ श्वेताम्बर श्रीमाली जैनों के दो घर हैं, जो अच्छे भावुक हैं / इस गाँव का पानी अच्छा नहीं है, यदि एक मर्तबा भी दूसरे गाँव का मनुष्य जल पी लेगा तो उसको एक महिना तक तकलीफ देखना पड़ेगा / यह गाँव थराद से दो कोश पश्चिमोत्तर है / ता. 21-1-29 मुनि-यतीन्द्रविजय। मु० थराद ( उत्तर-गुजरात)
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________________ परिशिष्ट नम्बर 2. इस दिग्दर्शन में दर्ज किये गये संस्कृत-शिलालेख और प्रशस्तिलेखों का हिन्दी-अनुवाद / 3 राजगढ़- (1). ___“वि० सं० 1982 मगसिर सुदि 15 सोमवार के दिन राजगढ़ निवासी लालचंद और चम्पालाल खजानचीने श्रीराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की चरणपादुका कराई और उनकी प्रतिष्ठा (अजनशलाका) मुनिश्री यतीन्द्रविजयजीने की / " पृष्ट 43 ___ राजगढ़ के मध्यभाग में श्रीमहावीरप्रभु के भव्य जिनालय के बांये तरफ बने हुए विशाल राजेन्द्रभवन के व्याख्यानालय के होल में एक बारसोपलकी छोटी देहरी में ये चरण-पादुका विराजमान हैं। (2) " श्रीसौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का सं० 1963 पोष सुदि 6 शुक्रवार के दिन (रात्रि के प्रथम प्रहर में ) राजगढनगर में निर्वाण (स्वर्गवास ) हुआ। उनके शरीर का अमिसंस्कार संघने मोहनखेडा में किया और वहीं पर प्रवर्तिनी श्रीमानश्रीजी के सदुपदेश से आरसोपल की छत्री ( भव्यदेहरी ) तैयार करवाई 1-2. श्रीमान् यतीन्द्रविजयजीने राजगढ़ में तीन महिना ठहर
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________________ (253) कर और संघ का आपसी लेश (कुसंप ) दूर करके आनन्द पूर्वक प्रतिष्ठाञ्जनशलाका का सारा प्रबंध किया 3. - साधुमंडल सह श्रीभूपेन्द्रसूरिजी महाराज को बुला कर, उनके हाथ से सं० 1981 ज्येष्ट सुदि 2 बुधवार के दिन राजगढस्थ संघने अति उत्साह और महोत्सव से श्रीसद्गुरु (प्रतिमा ) की स्थापना की 4." पृष्ठ 46 इस गुरुप्रतिमा को यहाँ के कतिपय भवाभिनन्दी द्वेषियोंने खंडित कर दी थी। इस लिये उसके स्थान पर दूसरी हुबोहुब प्रतिमा बिराजमान की गई / उसका लेख यह है कि " संवत् 1982 मगसिर सुदि 10 वुधवार के दिन राजगढ निवासी त्रिस्तुतिक जैनसंघने प्रतिष्ठाञ्जनशलाका कराई और श्रीविजयभूपेन्द्रसूरिजीके आदेश से मुनिश्रीयतीन्द्रविजयजीने प्रतिष्टा ( अञ्जनशलाका ) की / " पृष्ठ 47 1 पाटण- (4) . १-पाटण ( अणहिल्लवाडे ) में अपने पिता त्रिभुवनपाल के नाम से त्रिभुवन-विहार नामक चैत्य बनवाया। उसके चारों तरफ बहत्तर देवकुलिका बनवाई, उनमें रत्नों की 24, पतिल तथा स्वर्णमयी 24 और चांदी की 24 जिनप्रतिमाएँ, तथा मूलमंदिर में अठारह भारमयी 125 अंगुल की रत्नों की श्रीनेमनाथजी की प्रतिमा विराजमान की। इसके बनाने में कुल सोलह क्रोड रुपये खर्च हुए / ( उपदेशतरंगिणी) पृष्ठ 65.:
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________________ (254) (5) 1 सिरोडी- अाबू से पश्चिम सिरोही रियासत के वापी, कूप, सरोवर, उपाश्रय, आवास, चोवटा; श्ादि से और रम्य जिनालयों से शोभित सिरोडी नामक नगर में तत्रत्य श्रावकों की प्रार्थना से तपागच्छीय श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज के शिष्य श्रीयतीन्द्रविजयजी भुवनविजय और अमृतविजय के सहित पधारे (आये) 1-4 __ सं० 1973 ज्येष्ठसुदि 1 गुरुवार के दिन विजयमुहूर्त में दंड से खंडित प्राचीन प्रार्श्वनाथ के मन्दिर पर विधिपूर्वक पूजा और महोत्सव कराके उन्होंने ( यतन्द्रिविजयजीने ) स्वर्णदण्ड और स्वर्णकलश आरोपण कराया. 5-7, पृष्ठ 116 4 हमीरगढ़- (6) 1 सं० 1346 फाल्गुनसुदि 2 सोमवार के दिन सेठ वोहरि, भार्या अच्छिणी पुत्र छोगा, भार्या कडु पु० सेठ समधर, स्त्री लाडी पु. पूनपाल, इसकी स्त्री दो चांपल तथा नाल्हू, इनके पुत्र देवपाल, मदन, कर्मसिंह और सेठ आसपाल / आसपाल की लाळू स्त्री के पुत्र महीपालने अपनी स्त्री ललिता के माता पिता के श्रेयोऽर्थ शान्तिनाथ की कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा कराई और उसकी प्रतिष्ठा चन्द्रसिंहसूरिसन्तानीय पूर्णचन्द्रसूरि शिष्य वर्धमानसूरिजीने की | पृष्ठ 121
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________________ (295) - 2 सं० 1556 वैशाखसुदि 13 रविवार के दिन पोर• वाड संघवी वाछा, स्त्री बीजलदे पु० सं० कान्हा कुलिंगदे जाणीदेसी सुत सं० रत्नपाल, स्त्री करमाने अपने पति के श्रेय के लिये वृद्धतपापक्षीय उदयसागरसूरिजी के उपदेश से जीराउला पार्श्वनाथ के मन्दिर में देवकुलिका कराई / संघवण करमा की पुत्री मांगी और सं० कान्हा की पुत्री की पुत्री करमा श्री पार्श्वनाथ को वंदन करती है / पृष्ठ 122 (8) 3 सं० 1556 द्वितीय ज्येष्ट सुदि 1 शुक्रवार के दिन महाराजा श्रीराणाजी के प्रसाद से पोरवाड संघवी समहाने सं० सचवीर स्त्री पदमाई पुत्र सं० देवादि कुटुम्ब सहित स्व कल्याणके लिये श्रीजगनाथ (पार्श्वनाथ) के मंदिर में देवकुलिका कराई, और उस की प्रतिष्ठा भ० श्रीहेमविमलसूरिजीने की, श्री संघ का कल्याण हो / पृष्ठ 122 . 4 सं० 1552 पोषसुहि 7 सोमवार के दिन श्रीबृहतपापक्षीय भ० धर्मरत्नसूरिजी के उपदेश से स्तंभतीर्थ वासी वीसा ओसवाल सा नाथा की स्त्री वा० हेमीसुता जीवी, तथा शिवाने अपने पिता की बहिन के श्रेय के लिये जीरापल्ली-पार्थमाथ के प्रासाद में दो ताक (बालक.) कराये / पृष्ठ 122...
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________________ (256) 1 आहोरनगर- (10) - १-सुवासित जलों से अभिषिक्त, केशर-चन्दन-धूप-दीप आदि से पूजित, उत्तम स्तवनाओं से संस्तुत और जयध्वनि से शोभित श्रीगोडीजिनेश सदा सुस्थिर लक्ष्मी देवें / .... २-जिनके गज्य में शोभा की वृद्धि, प्रजा में अमनचेन ( आनन्द.), गो समुदाय की सुरक्षा, विद्वानों से पूजित और सत्फलों को देनेवाले धर्म की समुन्नति हो रही है, वे मारवाड देश के अधीश शिरदारसिंहजी जयवन्त रहें। 3-5 धैर्यवान् और तेज से यथार्थ नामवाले प्रजाओं के रक्षक राजा प्रतापसिंहजी जिनके काका ( पितृभ्राता) विराजमान हैं / जो भारतेश ( अंग्रेज सरकार ) के शत्रुओं को जीतकर वीरता को पाये और गौराङ्ग प्रजा के सन्मानपात्र बन कर देशान्तरों में प्रसिद्ध हुए। जिस प्रतापसिंह भूपति के सुप्रबन्धों से राज्य भर की प्रजा आनन्द भोग रही है, विरोधि भी वशवर्ती हो गये और कुरीतियाँ नष्ट हो कर सर्व समृद्धियाँ प्राप्त हो रही हैं। 6-12 सर्व समृद्धियों से पूर्ण, जालोर प्रान्तस्थित आहोर नगर में बहुत भूभाग का स्वामी, मरुधरेश कुल से परम्परागत वीरता से उन्नत कुल में प्रसूत, मारवाडदेशाधिप से सन्मान पाया हुआ, राजाओं में बलबान और प्रभुत्वशाली राठोडवंशीय राजाओं में श्रेष्ठ और शत्रुरूप हाथियों को भगाने में सिंह समान अनारसिंह हुमा / बल और दान से विक्रमादित्य के समान
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________________ ( 257) उसकी गादी पर शक्तिदानसिंह हुआ। उसका पुत्र कीर्तिशाली यशवन्तसिंह हुआ / उसका पुत्र लालसिंह हुआ / जिसने अपनी प्रजा को लालन पालन से ही वश की / उसके भव्य सिंहासन पर भवानीसिंह विराजमान हुए / जो दाता, दयालु, बलवान , सुशील, देवद्विजा निरत, मनस्वी, धर्मपरायण, समस्त समृद्धि से पूर्ण और भाग्यशाली हैं / जिनके शासन में सभी प्रजा नवीन अनुरागवाली हुई, वे अतुल सुख समृद्धि भोगी ठाकुर पुत्र प्रपौत्रों के साथ चिरकाल तक जयवंत रहें। . 13 मारवाडदेश का अलङ्काररत्न, भाग्यशाली जनता से शोभित, जगत्प्रख्यात, चतुरजनों से सेवित, समृद्धिशाली गुणि जनों से परिपूर्ण, और जालोर से पश्चिम पाहोर नगर है जिसको विद्वान लोग लक्ष्मी का बिलास कहते हैं। 14-15 पृथ्वी ( संसार ) में प्रसिद्ध पवित्र कीर्तिवाला जहाँ का जैन संघ मुनिवरों से शास्त्रों का श्रवण करता है, अंधर्म का त्याग करता है, स्वधर्म में प्रयत्न, अहिंसक वृत्ति से धर्मोपार्जन और विना कष्ट के सुकृत कार्यों में धन व्यय करता है। जहाँ का समृद्ध श्रीसंघ न कलह करनेवाला है, न परापवादी (निन्दक ) है / न दुष्ट स्वभाववाला और न निज स्वार्थ में गृद्धी रखनेवाला है। ... 16-18 इसी संघने भव्य और रमणीय यह जिनालय
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________________ ( 258) बनवाया, जो अति सुन्दर बावन देवकुलिकाओं से शोभित है / और दर्शक महानुभावों के नेत्रों को चुरानेवाला है / देवकुलिकात्रों में विराजमान जिनप्रतिमाओं की विधिपूर्वक अञ्जनशलाका सं० 1955 फाल्गुनवदि 5 गुरुवार के दिन जैनाचार्य श्रीविजयराजेन्द्रसरिजीमहाराजने की / आहतों के अनुयायी सच्चरित्रवाले आचार्यों की पट्टावली (वंशावली) कही जाती है, जिस को सुन कर इस परम्परा की सच्चरित्र आदर्श-आत्माओं का जानपना मनुष्य को होता है। 16-21 विश्ववेदी ( सर्वज्ञ ) श्रीवर्द्धमानस्वामी के पांचवे गणधर सुधर्मस्वामी हुए / बहुत वर्ष व्यतीत होने बाद उन्हीं सुधर्मस्वामी के पट्टाधिकारी मेवाडाधिपति राणाओं के मान्य, तपागच्छरूप समुद्र में चन्द्र के समान, प्रसिद्ध नामवाले जगचन्द्रसरि नामक आचार्य हूए / और उनकी पट्टपरम्परा में बालब्रह्मचारी श्रीरत्नसूरीश्वर हुए, जिन्होंने पाट पर बैठ कर आहेत शासन की समुन्नति की / उनकी गादी पर यथार्थ नामवाले और तीक्ष्णबुद्धि वाले श्री क्षमासूरि नामक प्राचार्य हुए / 22-24. उनके पाट पर विजयकल्याणसूरि हुए, जिन्हों के द्वास स्थान स्थान पर धार्मिक प्रभावना होने से भावुकों को आनन्द प्राप्त हुआ / उनकी गादी पर श्रीमान् विजयप्रमोदसूरि हुए, जिन्होंकी धर्मकथा ( धर्मदेशना ) रूप सुधा के पान से श्रावकगण अत्यन्त आनन्दिन हुए। उन विद्वानों से प्रशंसा करने योग्य और सच्चरित्र महर्षी (प्रमोदसूरिजी) के शिष्य सुविनीत, समयज्ञ, और विद्वानों में उत्तम विजयराजेन्द्रसरि हुए।
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________________ २५-जो आर्हत आगमों और परकीयदर्शनों के अद्वितीय वेत्ता, श्रामण्य में परायण, कुशाप्रमति, और अतिचार आदि दोषों से रहित थे। जिन्होंने अनेक भव्यों को दृढ सम्यक्त्वी बना कर सद्गति के पात्र बनाये और मोक्षाभिलाषी कृतिनरों को संसार कारागार से छोड़ाये / ..२६-विजयराजेन्द्रसूरि रूप सूर्य के उदय होने पर स्वच्छन्दचारी कुलिङ्गीरूप घुग्घु भयवश से नीड के समान कुवादिरूप गृहों (गुहाओं ) में शीघ्र छिपजाते हैं और भविकरूप उत्तम कमल विकसित होते हैं, तथा भूतल में ( शासन का ) विकास होता है। .. 27-28 जो जैनधर्मानुयायी अनेक शिष्यों को शिक्षा देकर, और उनके चारित्र को शुद्ध बनाके निर्ग्रन्थ मुनिवरों को शिक्षा करते हैं और जिनकी दश दिशाओं में कीर्तिसमुदाय को फैलाने वाली, और स्पष्ट गुरुगुण कीर्तन से पवित्र हृदयवाली श्रावकमण्डली, जिनेन्द्र चरणकमलों के अमन्द मकरन्द में लोलुप भ्रमरी स्वरूप बन गई है। 29-32 जिनके उपदिष्ट नाना देशों के श्रद्धावन्त श्रावकोंने निजोपार्जित द्रव्यों से सेंकडों जिनमन्दिर बनवाये, और साधुयोग्य भूमि पर सुरम्य उपाश्रय बनवाये, जिनमें कि उत्तम मुनिवर सुखपूर्वक ठहरते हैं। जिनके उपदेश से प्रतिग्राम में ज्ञानभण्डार स्थापित हुए, जिनमें किं स्वशास्त्र और परकीय शास्त्रों का अच्छा संग्रह है और श्रावकोंने
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________________ ( 160) अतिसुन्दर पौषधशालाएँ बनबाई, जिनमें कि तपस्या करते हुए साधु और गृहस्थ संपतयोग्य फल को प्राप्त करते हैं / 33-34 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी से रक्षित श्वेताम्बर मुनिवरों का सुसंयत गच्छ ( साधुसमुदाय ) शोभायमान हो रहा है / जिस गच्छ में समस्त तत्त्व और उनके शास्त्रार्थ संबन्धी रहस्यों के ज्ञाता, समस्त साधुमंडल के शासक, निजगुणों से श्रेष्ट आचार्यों को प्रसन्न करनेवाले, सिद्धिमार्ग में उद्यमवंत, सच्चरित्रों से विषय रूप विषलता को दूर करनेवाले और उपाध्यायो में मुख्य शिष्यसमुदाय के साथ धनविजय वाचक शोभायमान हैं। 35-38 जिस गच्छ में मोहादि अन्तरंग शत्रुओं से रहित मोहनविजय, निय सिद्धि के लिये प्रयत्नशील तपस्वी रूपविजय, उत्कृष्ट तत्त्व का ध्यान करते हुए हिम्मतविजय, लक्ष्मीविजय, दीपवत् प्रकाशित बुद्धिवाले दीपविजय, सर्व शिष्यों में विचित्र बुद्धिवाले यतीन्द्रविजय, साधु पद्मविजय, गौतमविजय, गुलाबविजय, केशरविजय, हर्षविजय, हंसविजय वल्लभविजय और भिनु चिमनविजय ये मुनिवर सुशोभित हैं। ..३६-महाराज श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी के उपासक हजारों श्रावक प्रशंसा के योग्य हैं जिन्होंने कि अञ्जनशलाका रूप कार्य को आचरण किया। . .. 40-41 गोडीदासके पुत्र, श्रद्धालु, कल्याणशाली, पुण्यकार्यों में कटिबद्ध, सब साहूकारो में मुख्य, श्रावक वागमलजी
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________________ (261) सेठ हैं। उनके छोटे भाई नवलमल, उनका पुत्र यशराज, और मुनीम प्रतापमल जो नित्य कार्य करनेवाला और गुरुदेव का पूर्ण भक्ति करनेवाला है / 42-44 श्रावकप्रवर कपूरचन्द्र के सुपुत्र बाफणा जीतमल भूताने जिनेन्द्रचरण कमल का ध्यान करते हुए अञ्जनशलाकारूप कार्य में अत्यंत भक्ति से कर्तृत्व पद को धारण किया अर्थात्-प्रचुर धनव्यय करके नवसौ 900 जिनप्रतिमाओं के ऊपर 'जसरूप जीतमल ' ऐसा नाम रखवाया / जीतमल के बडे भाई यशोरुपजी के कस्तूरचन्द्र, यशराज, और चिमनीराम ये तीन पुत्र, और खूबचन्द तथा हर्षचंद ये दो पौत्र (पोतरे) कस्तूरचन्दके सिरेमल नामक पुत्र हुए, जो अति श्रद्धालु और भक्ति करनेवाले हैं / पृ० 133-40 इस प्रशस्ति में अञ्जनशलाका महोत्सव पर जो साधु मौजूदा थे उन्हीं के नाम दर्ज किये गये हैं, सब के नहीं। परन्तु महाराज श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरश्विरजी का शिष्य प्रशिष्यादि पूरा समुदाय इस प्रकार है
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________________ गच्छाधिराज श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी महाराज. धनचन्द्रसूरि 1, प्रमोदरूचि 2, मोहनविजय 3, टीकमविजय 4, रूपविजय 1, यतीन्द्रविजय 6, हिम्मतविजय.. हुक्मविजय अमृतविजय नयविजय वल्लभविजय, वियांविजय, सागरानन्दविजय, विवेकविजय, चतुरविजय 8 रखभविजय 1 मेघविजय 1. लक्ष्मीविजय भूपेन्द्रसूरि, गुलाबविजय, हंसविजय, तीर्थविजय, गंभीरविजय, बोधिविजय, 11 उदयविजय 12 पद्मविजय धीरविजय जयविजय 13 केसरविजय 14 हर्षविजय 15 हंसविजय 16 चिमनविजय दानविजय, विनोदविजय, हीरविजय, तत्वविजय, 17 गौतमविजय 18 सुखविजय 19 चन्द्रविजय |20 नरेन्द्रविजय
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________________ ( 263.) 1 मादडी- (11) १-सं० 1288 ज्येष्ठसुदि 13 बुधवार के दिन पंडेरक गच्छीय श्रीयशोभद्रसूरि की सन्तान में दुस्साधु श्रीउदयसिंह के पुत्र श्रीयशोवीर मन्त्रीने अपनी माता की बगीची में जिनयुगल (खडे आकार की दो जिनप्रतिमाएँ) कराई और उनकी प्रतिष्ठा ( अञ्जनशलाका ) श्रीशान्तिसूरिजीने की। पृ० 144 3 सांडेराव- (12) . .. .. १-संवत् 1197 वैशाख वदि 3 के दिन थिरपाल शुभंकरने पं० जिनचन्द्र गोष्ठिक के सहित सिद्धि की कामना से पंडेरकगच्छीय विजयदेवनागाचार्य की प्रतिमा कराई। पृ० 153 (13) . २-सं० 1221 माघवदि 2 शुक्रवार के दिन राजा केल्हणदेव के समय में उसकी माता आनलदेवीने पंडेरकगच्छीय मन्दिर के मूलनायक श्रीमहावीरप्रभु की जन्मतिथी चैत्रसुदि 13 उजमने के लिये राजकीय भोगमें से युगन्धरी (जुमार ) का एक हाएल दिया। तथा इसी कल्याणक तिथी के निमित्त राठौरवंशीय पातु, केल्हण और उनके भतीजे उत्तमसिंह, सूद्रग, काल्हण, पाहड, प्रासल, अणतिग आदिने तलारा की आवक में से एक द्रम्म अर्पण किया और इसी प्रकार सांडेराव के रथकार धनपाल, सूरपाल, जेपाल सिगडा, अमियपाल, जिसहड, देल्हण. मादिने जुमार का एक हाएल भेट किया।" पृ० 154 ..
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________________ (264) (14) ३-थांथा के पुत्र राल्हा और पाल्हाने अपनी माता के स्मरणार्थ यह स्तंभ दिया-बनवाया। सं० 1236 कार्तिक वदि 2 बुधवार के दिन नाडोल के महाराजाधिराज श्री केल्हणदेव के राज्यकाल में राणी जाल्हणदेवी की भक्ति में आये हुए सांडेराव के देव श्रीपार्श्वनाथ की सेवा में थांथां का पुत्र राल्हाक और राल्हाक का भाई पाल्हाक, उस के पुत्र सोढा, शुभकर, रामदेव, धरणि, हर्ष, वर्द्धमान, लक्ष्मधिर, सहतिग, सहदेव, रासा, धरण, हरिचन्द्र, वरदेव आदिने मिलकर अपना निज घर समर्पण किया। राल्हाक के घर में वसनेवाले मनुष्यों को प्रतिवर्ष 4 द्रायेला देना और शेष जनों को साधु गोष्ठिकों के साथ इसकी अच्छी तरह संभाल रखना चाहिये। सं० 1236 ज्येष्ट सुदि 13 शनिवार के दिन माता धारमती के पुण्चार्थ स्तंभ का उद्धार किया।" पृ० 154 2 भूति- (15) १-सं० 1969 शाके 1834 माघसुदि 10 के दिन मंडवारिया निवासी, खूमाजी सुत जेठा डाहा विनयचन्द्र की कराई हुई अञ्जनशलाका में भूति के रहनेवाले पोसवाल वेदमूथा खीमा सुत सहसमल की माता केशादेने श्रीमहावीरबिम्ब की अञ्जनशलाका कराई और सौधर्मबृहत्तपोगच्छीय श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी के शिष्य श्रीधनचन्द्रसूरिजीने अञ्जनशलाका की / यह लेख उपाध्याय मोहनविजयजीने लिखा / " पृ० 162
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________________ (29 ) 2-" सं० 1969 माघसुदि 10 रविवार के दिन पुनर्व. सुनक्षत्र में मंडवारिया निवासी शा० खूमाजी के पुत्र जेठा डाहा विनयचन्द्र की कराई हुई अञ्जनशलाका में भूति के रहनेवाले ओसवाल वेद मूता हरािजी देवीचंद खेमराजने श्रीआदिनाथ के बिम्बकी अंजनशलाका सह प्रतिष्ठा कराई और सौधर्मबृहत्तपागच्छाधिराज भट्टारक श्रीविजयराजेन्द्रसूरीश्वरजी के शिष्य भ० श्रीविजयधनचन्द्रसूरीश्वरजीने अंजनशलाका की / यह लेख मुनि यतीन्द्रवि. जयजीने लिखा, कल्याणकारक हो / " पृ० 162 2 हरजी- (17) 1-" सं० 1959 वैशाखसुदि 15 गुरुवार के दिन मारवाड में हरजी निवासी वीसापोरवाड़ चांपा के पुत्र केरा की स्त्री जेतीदेने अपने कल्याणार्थ श्रीआदिनाथ का बिम्ब कराया। श्रीकोरटा नगर में सौधर्मबृहत्तपागच्छीय-भ० श्रीरत्नसूरि, तपट्टे क्षमासूरि, तत्पट्टे देवेन्द्रसूरि, तत्पट्टे कल्याणसूरि, तत्पट्टे श्रीविजयप्रमोदसूरिशिष्य भ० श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजीने अंजनश. लाका की / यह लेख मोहनविजयजीने लिखा।" पृ० 167 2-" वि० सं० 1955, शालिवाहनशाके 1820 मासोत्तममास फाल्गुन वदि 5 गुरुवार के दिन मारवाड में राष्ट्रकूट वंशीय महाराजाधिराज राजराजेश्वर श्री श्रीसिरदारसिंहजी के मान्य राऔर चांपावत ठाकुर श्री रत्नसिंहजी के समय में प्रा
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________________ (266) दिनाथ का बिम्ब कराया / वीसापोरवाड़ मनासुत सूरतिंग, त. त्पुत्र चमना टेकचंदने अपने पिता के सहित आहोर नगर में अंजनशलाका कराई और श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय भट्टारक श्रीविजयरत्नसूरि, तत्पट्टे क्षमासूरि, त० देवेन्द्रसूरि त० कल्याणसूरि, त० प्रमोदसूरि, तत्पट्टप्रभावक क्रियोद्धारकर्ता भट्टारक श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजीने अंजनशलाका की / यह लेख मोहनविजयजीने लिखा।” पृ० 167 14 जालोर (16) 1-" विक्रम संवत 1933 माघसुदि 1 सोमवार के दिन जालोरगढ के ऊपर तेज से सूर्य के समान और शत्रुओं को खंडन करनेवाले श्रीयशवंतसिंहजी के शासनकाल में और धर्मी तथा बलवान् विजयसिंह किलादार के समय में श्रीसंधने जीणोंद्धार कराया. 1-3 चोमुख मन्दिर और पार्श्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा महाराज श्रीगजेन्द्रसूरिजीने की और चोधरी कानूगा निहालचंद ओसवाल के पुत्र प्रतापमल्लने प्रतिमाएँ स्थापन की। " 4-5 ____ श्रीऋषभदेव भगवान के प्रसाद से यह प्रशस्ति-लेख लिखा गया / " पृ० 175 (20) __2-" जिसके स्कन्ध पर महिषशृंग के समान अति श्याम केशों का समूह मानो नमस्कार करनेवाले भक्तजनों को मोक्षमन्दिर में प्रवेश करने के लिये मांगलिक माला के सदृश विलास
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________________ (267) कर रहा है; ऐसे त्रैलोक्यलक्ष्मी के विस्तीर्ण कुल भवन, धर्मरूप वृक्ष के आलवाल (क्यारेरूप ) श्रीमान् नामेयनाथ ( श्रीऋषभदेव ) के चरणकमलयुग आप लोगों को मंगल का विस्तार करें. श्रीचाहुमानकुलरूप आकाश में चन्द्र समान महाराज श्री अणहिल के वंश में उत्पन्न, महाराज आल्हण के पुत्र, निज कार्यावलियोंसे प्रबल शत्रुदलों को जीतनेवाले महाराज के शासनकाल में उनके चरणकमलों का सेवक, निजप्रौढ प्रताप से पा. ल्वाहिक प्रान्त के समस्त तस्करों को स्वाधीन करनेवाले राज्यचिन्तक जोजल-राजपुत्र के वर्तमान समय में २-शत्रुकुलरूप कमल के लिये चन्द्रसमान, पुण्यरूप सौन्दर्य का पात्र, नीति और विनय का विस्तार करनेवाला, सौन्दर्य और लक्ष्मी का धाम (गृह), संसार की युवतियों के नेत्रों को आनन्द देनेवाला, और सिंह के समान पराक्रमी राजा समरसिंह जयवन्त है / और ३-औत्पत्तिकी आदि चार बुद्धियों से राजभवन के योग्य कार्यों का निर्णय करनेवाले और निजप्रबल भुजाओं से शत्रुओं के दुर्जय पक्ष का अन्त करनेवाला जोजल नामका जिस ( समरसिंह ) का मामा था। चन्द्रगच्छ के मुख का मंडन, सुविहित साधुओं के घर, श्रीचन्द्रसूरिजी के चरणकमलद्वय में विलसित राजहंस के समान, श्रीपूर्णभद्रसूरिजी के चरणारविन्द में विचरनेवाले चतुर भ्रमर के समान, समस्त भावकों (गोष्ठिकों) से युक्त श्रीश्रीमालवंश का
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________________ (268) भूषण शेठ यशोदेव, उसके पुत्र सदाज्ञाकारी और निज के भाई यशोराज, जगधर से सब मनोरथों को पाये हुए परमश्रावक सेठ यशोवीरने सं० 1236 वैशाख सुद 5 गुरुवार के दिन संपूर्ण तीन लोकभूमी के सुख के लिये परिभ्रमण करने से थके हुए कमलाविलासी ( धनार्थी ) लोगों को विश्राम करने का विलास भवन स्वरूप यह मंडप राजा को दिया / ४-जिस ( मंडप ) की रचना ( बनावट ) को देखकर नाना देशों से आये हुए नवीन नवीन स्त्री पुरुष वर्गोने तृप्ति को प्राप्त नहीं की। तदनन्तर अपने अपने घर आये हुए भी उन लोगोंने उस ( मंडप ) की विचित्र और तेजस्वी रचना को प्र. तिदिन वारं वार याद करके उत्कंठा से इस प्रकार वर्णन की / ५-क्या ? यह पृथ्वरूिप उत्तम स्त्री के भालस्थल का तिलक है ?, अथवा लक्ष्मी के हाथ में रहा हूआ क्रीडा कमल है ?, क्या यह यहाँ देवताओं से स्थापित अमृत पूर्ण कुंड है ? इस प्रकार जिस के देखने की विधी में अनेक विकल्प होने लगे। ६-इस मंडपने अपनी गंभीरता से पाताल को, विस्तार से भूतल को और उँचाई से आकाश को, इस प्रकार भुवनत्रय को व्याप्त किया। ७-मीन, मकर के सहित, कन्या वृश्चिक और कुम्भ से व्याप्त, मेष से युक्त, कर्क, सिंह और मिथुन से देदीप्यमान, वृषभ से अलंकृत, तारा रूप कुमुदों से विभूषित, चन्द्रकिरणरूप अमृत से परिपूर्ण, और उत्तम राजहंसों से सेवित आकाश
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________________ (219) रूप सरोवर ( तालाव ) जब तक विद्यमान (कायम) रहे, तब तक इस श्रीआदिनाथस्वामी के मन्दिर में यह मंडर वृद्धि को पाता रहे। श्री पूर्णभद्रसूरिजी की यह कृति ( प्रशस्ति रचना ) है। श्रीसंघ के लिये संपूर्ण कल्याण हो।" पृ० 178-80 . (21) 2- सं० 1221 में जावालीपुर ( जालोर ) कांचनगिरिगढ के ऊपर प्रभुश्रीहेमचन्द्रसूरि से प्रतिबोध पाये हुए गुजरात के राजा चौलुक्यवंशी महाराजाधिराज परमाईत श्रीकुमारपालदेवने श्रीकुँवरविहार नामक जिनालय बनवाया। यह शास्त्रोक्तविधि से पूजा विधि चालु रखने के लिये चन्द्रसूर्य की स्थिति पर्यन्त बृहद्गच्छीय वादीन्द्र श्रीदेवाचार्य के समुदाय को अर्पण किया गया। सं. 1242 में इस देश ( मारवाड) के अधिपति चाहुमान कुलतिलक श्रीसमरसिंहदेव की आज्ञा से भां० ( भंडारी) पांसू के पुत्र भा० ( भांडागारी भंडारी) यशोवीरने इस मंदिर का उद्धार कराया / ..सं० 1252 ज्येष्ट सुदि 11 के दिन श्रीपार्श्वनाथ के मन्दिर में राजा की आज्ञा से श्रीदेवाचार्य के शिष्य श्रीपूर्णदेवाचार्यने तोरणादि की प्रतिष्ठा कार्य करते हुए मूलशिखर पर स्वर्णमय धजादंड की स्थापना की। ............. ":.सं. 1268 दीवाली के हिन नवीन बने हुए प्रेक्षामंडप
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________________ (270.) के ऊपर श्रीपूर्णदेवाचार्य के शिष्य श्रीरामचन्द्राचार्यने स्वर्णकलश की प्रतिष्ठा ( स्थापना ) की, कल्याण हो / "पृ० 180 __ भंडारी पांसू का पुत्र यशोवीर उस समय जालोर में जैन समाज का एक मुख्य श्रीमान् और राजमान्य था और इसने एक आदिनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था। उसमें यात्रोत्सवों के समय भजने के लिये वादिदेवसरिजी के प्रशिष्य और जयप्रभसूरि के शिष्य कविरामचन्द्रने 'प्रबुद्धरोहिणेय' नामक नाटक की रचना की थी। नाटक में पारिपार्श्व के प्रवेश होने वाद सूत्रधार उच्चरित अवतरण से पता लगता है कि- यशोवीर के उसीके सम न गुणवाला अजयपाल नामका एक छोटा भाई भी था। ये दोनों भाई राज्यकर्त्ता चाहुमान समरसिंहदेव के अत्यन्त प्रीतिपात्र, सब लोगों के हितचिन्तक, जैनधर्म की उन्नति के अभिलाषी और बडे भारी दानेश्वरी थे। ___ जालोर के लेखसंग्रह में से जालोर निवासी और समकालीन नामाङ्कित तीन यशोवीर का पता मिलता है। एक लेख नं० 14 में बताया हुआ श्री श्रीमालवंश विभूषण शेठ यशोदेव का पुत्र यशोवीर, दूसरा लेख नं. 15 में बताया हुआ भां० पांसु का पुत्र यशोवीर और तीसरा उदयसिंह का पुत्र कविबन्धु यशो वीर मंत्री, यह गुर्जर महामात्य, वस्तुपाज का मित्र था और जालोर के राजा उदयसिंह का मंत्री (महामात्य) था / - (22) ३-"सं० 1294 में श्रीमाली जाति के श्री वीसल का पुत्र नागदेव, नागदेव के पुत्र देल्हा, सलक्षण, और झापा / झापा
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________________ (271) के पुत्र बीजाक ने देवड के सहित अपने पिता झांपा के श्रेय के लिये श्रीजाबालीपुर ( जालोर ) के श्रीमहावीर-मन्दिर में करोदि कराई कल्याण हो / " पृ० 180 (23) , ४-"सं० 1320 माघसुदि 1 सोमवार के दिन नाणक गच्छ के अधीन रहे हुए श्रीचन्दनविहार नामक देवालय के श्री महावीरप्रभु के आसोजमास के अष्टाह्निका महोत्सव में क्षीबरायेश्वर स्थानपति के भट्टारक रावल लक्ष्मीधरने 100 द्रम्म अर्पण किये। उसके व्याज में से गोष्टिकों के सहित स्थानपति को श्री महावीरदेव की पूजा में 10 द्रम्म खर्च करना चाहिये | " पृ० 181 (24) 5-" सं० 1323 मगसिर सुदि 5 बुधवार के दिन महाराज श्रीचाचिगदेव के शासनकाल में उसके मुद्रारूप प्रलं. कारहार को धारण करनेवाले महामात्य श्री जयदेव के समय में श्री नाणकीयगच्छ के आश्रित, श्रीमद्धनेश्वरसूरि के द्वारा स्थापित श्रीचन्दनबिहार नामक मंन्दिर में तैलगृह ( तेलिया) गोत्र में उत्पन्न महं नरपतिने खुद के भराये हुए, जिनयुगल की पूजा के निमित्त मठपति गोष्ठिक के सामने श्री महावीर स्वामी के भंडार में 50 द्रम्म दिया। उसके व्याज से उत्पन्न आधे द्रम्म से प्रतिमास पूजा खर्च देना चाहिये / " पृ० 181 : ..." (25) / 6- सं. 1353 वैशाख वदि 5 सोमवार के दिन स्वर्णगिरि पर राज्यकर्त्ता महाराजकुल श्रीसामन्तसिंह, तथा उनके चरणकमल की सेवा और राज्यधुस को धारण करनेवाले श्री कान्हडदेव के
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________________ ( 272) समय में सुवर्णगिरि के रहनेवाले संघपति गुणधर, ठाकुर-श्राम्बड का पुत्र ठाकुर-जसा, उसका पुत्र सोनी महणसिंह, उसकी प्रथम श्री माल्हणि के पुत्र रतनसिंह, णाखो, माल्हण और गजसिंह, द्वितीय स्त्री तिहणा के पुत्र नरपति, जयता और विजयपाल / नरपति की प्रथम स्त्री नायकदेवी के पुत्र लखमीधर, भुक्णपाल और सुहडपाल, द्वितीय स्त्री जाल्हणदेवीं; इत्यादि कुटुम्ब सहित स्वस्त्री नायकदेवी के स्मरणार्थ श्रीपार्श्वनाथ के मन्दिर में पंचमी के दिन पूजा के निमित्त नरपतिने बाहर गाँव भेजे जानेवाले मालको रखने की दुकान अर्पण की। उसके भाडे से श्रीपार्श्वनाथस्वामी के गोठियों को प्रतिवर्ष प्राचन्द्रार्क पर्यन्त पंचमी (ज्ञानपंचमी) के दिन पूजा करना चाहिये।" पृ० 181 . . नरपति की बंश परम्परा ठाकुर-आम्बड़ जसा सोनी महणसिंह 1 स्त्री माल्हणि 2 स्त्री तिहणा रतनसिंह, णाखो, माल्हण, गजसिंह, नरपति, जयता, विजयपाल, ..... 1 नायकदेवी 2. जाल्हणदेवी जखमीधर भुवणयाल : सुहड़पाल .
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________________ ( 273) इस लेख में संघवी गुणधर का नाम दिया गया है / यह भी सुवर्णगिरि पर वसते हुए जैनसद्गृहस्थों में का उस समय का कोई मुख्य सदगृहस्थ मालूम होता है, जो ठाकुर आम्बड़ का मित्र (साथी) होगा। (26) 7- श्री परमात्मा ( ईश्वर ) को नमस्कार हो सं० 1863, शाके 1728 उत्तममास फाल्गुन सुदि 12 भृगुवार के दिन कुन्द, कुमुद और देदीप्यमान सुन्दर चन्द्रचन्द्रिका से भी अतिस्वच्छ विलास. करती हुई यशोराशि से धवलित किया है समस्त भूमंडल को जिसने, और ग्रीष्मकालिक सूर्य के समान अखंडित शश्वत्तेज से उत्पन्न वन्हि ज्वालावलियों से व्याप्त वैरिजन रूप काननोत्पन्न धूमजाल से धूमायित किया है आकाश मंडल को जिसने ऐसे राजराजेश्वर महाराजाधिराज श्री 108 श्रीमानसिंहजी के पुत्र महाराज राजकुमार श्री छत्रसिंहजी के बिजय से सुरक्षित श्रीजालोरगढ में श्रीमान् गोडीपार्श्वनाथ भगवान् का यह मन्दिर बृहत्खरतरगच्छं में भट्टारकीय गच्छाधिगज जंगमयुगप्रधान भट्टारक श्रींजिनहर्षसूरीश्वरजी से प्रतिष्ठित हुआ / वट्टाभिधानगोत्रीय मुख्यमंत्री मू० अखयचन्द्र श्रोसवालने अपने पुत्र लक्ष्मीचन्द्र के सहित यह मंदिर कराया। सोमपुरा कारीगर काशीरामने इसको बनाया / " पृ० 182 (27) 8-" सं० 1175 वैशाख वदि 1 शनिवार के दिन श्री जावालिपुर (जालोर) के मन्दिर में श्रावक सामन्त के पुत्र वीरकने अपने पुत्र उत्रोचन, शुभंकर, खेहड सहित खेहड, पुत्र देवांग, . 18
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________________ (274) देवधर तथा निज स्त्री जिनमति से प्रोत्साहित होकर श्रीसुविधिनाथ के खत्तक ( ताक ) का द्वार धर्मार्थ कराया, महामंगल और शोभा का कारण हो / " पृ० 183 (28) 9-" संवत् 1681 प्रथम चैत्रवदि 5 गुरुवार के दिन राठोडवंशीय सूरसिंहजी के उत्तराधिकारी महाराज श्रीगजसिंह के गज्य समय में मुहणोत्रगोत्रीय वींसा ओसवाल सा० जेसा, उसकी स्त्री जयवंतदे, उसका पुत्र सा० जयराज, उस की स्त्री मनोरथदे उसके पुत्र सा० सादा, सुंभा, सामल, सुरताण, प्रमुख परिवार के पुण्यार्थ सोनगिरि के ऊपर कुमारविहार नामक श्रीमहावीर-मन्दिर में सा० जेसा, स्त्री जयवंतदे, पुत्र सा० जयमल, उसकी बड़ी स्त्री सरूपदे के पुत्र सा० नहणसी, सुंदरदास, आसकरण | छोटी स्त्री सोहागदे, उसके पुत्र जगमाल आदि पुत्र प्रपौत्रादि के कल्याणार्थ सा० जयमलजीने प्रतिष्ठा महोत्सव पूर्वक श्री महावीरबिम्ब कराया और उसकी तपागच्छीय सुविहित प्राचार के पालक, शिथिलाचार के टालक साधुक्रिया के उद्धारक श्रीप्राणन्दविमलसूरिजी, उनके पाट पर सूर्य के समान श्रीविजयदानसूरिजी, उनकी गादी के शृंगारहार, महाम्लेच्छाधिपति श्रीअकबर बादशाह को प्रतिबोध देनेवाले, बादशाह से प्राप्त जगद्गुरु के विरुद को धारण करनेवाले, श्रीशजयादि तीर्थों का जीजीया नामक कर छुडानेवाले और अकबर से छः महिना की अमारी प्रवर्तानेवाले भ० श्रीहीरविजयसरिजी, उनके
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________________ (275) पाटपर मुकुट के समान भ० श्रीविजयसेनसूरिजी, उनके पाट पर वर्तमान और सुविहित मुनिवरों में अग्रगण्य श्रीविजयदेवसूरीश्वरजी के आदेश से महोपाध्याय श्रीविद्यासागरगणि शिष्य पं० श्रीसहजसागरगणि शिष्य पं. जयसागरगणिने प्रतिष्ठांजनशलाका की।" पृ०१८३ ___ इस लेख में कहा गया नहणसी ( नेणसी) प्रति प्रख्यात पुरुष हुआ है और मारवाड का प्रसिद्ध पतिहास का मुख्य लेखक है / इसकी बनाई हुई 'मुता नेणसीजीरी ख्यात' केवल मारवाड के लिये ही नहीं, किन्तु मेवाड और गजपुताना के लिये भी उसके ऐतिहसिक के क्षेत्र को विशाल बनानेवाली है / इस लेख के निर्माता जयमल की वंशपरंपरा इस प्रकार है मं० अचला मं० जेसा ओसवाल (स्त्री जयवंतदे) जयराज - जयमल्ल (स्त्री मनोरथदे) सरूपदे स्त्री१, सोहागदे स्त्री२, सादा सुंभा सामल सुरताण | जगमाल I I / / .... . नेणसी सुंदरदास भासकरण नरसिंहदास . . . .
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________________ (276) .. .. (26) 1.-" सं० 1683 आषाढवदि 4 गुरुवार के दिन श्रवणनक्षत्र में श्रीजालोरनगर के स्वर्णगिरि गढ के ऊपर महागजाधिराज महाराजा श्रीगजसिंहजी के शासनकाल में मुहणोतगोत्र में दीपक समान मं० अचला पुत्र मं० जेसा स्त्री जयवंतदे पुत्र मं० श्रीजयमल्ल भा० सरूपदे, दूसरी स्त्री सोहागदे, पुत्र नयणसी, सुंदरदास, आसकरण, नरसिंहदास प्रमुख कुटुम्ब सहित स्वकल्याण के लिये श्रीधर्मनाथ भगवान का बिम्ब भराया / श्रीतपागच्छ नायक भट्टारक श्रीहीरविजयसूरिजी की गादी के अलङ्कार भ. श्रीविजयसेनसूरिजीने उसकी प्रतिष्ठा की।” पृ० 184 (30) 11-" सं० 1683 आषाढवदि 4 गुरुवार के दिन सूत्रधार उद्धरण, उसके पुत्र तोडग, ईसर, डाहा, दुहा हाराकने कराया और तपागच्छीय भ० श्रीविजयदेवमूरिजीने प्रतीष्ठा की। पृ० 185 इस लेख में किसी भगवान् का नाम नहीं है / इससे पता नहीं लग सकता कि यह किस भगवान् की मूर्ति की प्रतिष्ठा हुई है ? 12-" सं० 1681 प्रथम चैत्रवदि 5 गुरुवार के दिन मुहणोतगोत्रीय सा० जेसा भाप जसमादे पुत्र सा० जयमल भार्या सोहागदेवीने श्री आदिनाथ का बिम्ब कराया और उसकी प्रतिष्ठा महोत्सव पूर्वक तपागच्छीय श्रीविजयदेवसृरि के आदेश से जयसागरमणिने की / " पृ० 185
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________________ (277) ( 32) 13-" सं० 1684 माघसुदि 10 सोमवार के दिन मेडतानगर के रहनेवाले पामेचा गोत्रतिलक ओसवाल सं० हर्षा लघुभार्या मनरंगदे, पुत्र संघपति सामीदासने श्रीकुन्थुनाथ भगवान् का बिम्ब कराया, उसकी प्रतिष्ठा तपागच्छीय भ० विजयदेव सूरिजीने श्राचार्यश्री विजयसिंहसूरि प्रमुख परिवार से की, शोभाकारक हो।" पृ० 185 1 सायला- (33) 1-" सं० 1666 वैशाखवदि 13 के दिन शमदानगर में समस्त संघने श्रीमहावीर का मन्दिर कराया। तेलहरागोत्रीय शाह खेताने शाह धाडशी सहित बृहत्खरतगच्छीय युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरीजी की आज्ञा से पं० प्रमोदगणि शिष्य नन्दिजय के हाथ से प्रतिष्टा ( अञ्जनशलाका ) कराई / पृ० 188 4 भीनमाल ( 34 ) 1-" सं० 1873 माघसुदि 7 शुक्रवार के दिन भीनमाल के समस्त संघने महावीर प्रभु का बिम्ब कराया और तपागच्छीय भ० श्री विजयजिनेन्द्रसूरिजीने उसकी प्रतिष्ठा की, कल्याण हो।" पृ० 168 (35) 2-" सं० 1683 आषाढ वदि 4 गुरुवार के दिन श्रीमाल. ( भीनमाल ) वासी सा० पेमा खेमाने पार्श्वनाथ का बिम्ब कराया और विजयदेवसुरिजीने उसकी प्रतिष्ठा की / " 0 199
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________________ (278) (36) 3-" श्री पार्श्वप्रभुको नमस्कार हो / सं० 1671, शाके 1536 चैत्रवदि 15 सोमवार के दिन श्रीपार्श्वनाथ के मन्दिर में श्री चन्द्रप्रभस्वामी का मन्दिर बनवाया / इसके बनवाने में रुपया 20156) खर्च हुए और वे जालोर के खां पहाडखान गजनीखान के राज्य समय भीनमाल के सोलंकी वीदा के रहने के दोकडा सहित पार्श्वनाथजी-मंदिर में से खर्च हुए / इसकी प्रतिष्ठा उदयमान वडवीरशाखाके भावचन्द्र के शिष्य भट्टारक विजयचन्द्ररिजीने की। यह लेख चन्द्रप्रभ के मन्दिर को बनानेवाले सलावट जसा सोढा देदाने उकेग (खोदा) है।" पृ० 206 (37) 4-" श्री श्रुत को नमस्कार हो / सं० 1212 वैशाखसुदि 3 गुरुवार के दिन रतनपुर के राजा श्रीरायपालदेव के पुत्र महाराज सुवर्णदेव के प्रतिभुजा समान महाराजाधिरान श्रीरत्नपालदेव के चरणकमलों का सेवक पादपूज्य भंडारी वीरदेव के पुत्र महं० देवहृत् साढा, पातू सन्मति की माता सलखणा के श्रेयोऽर्थ और धान्यरक्षक तथा उसके वेचनेवाले पूज्य जूपा के कल्याणार्थ श्री ऋषभदेव की यात्रा में राजा की माता जागेरबली के निमित्त 100 द्रम्म दिया। इस मन्दिर में प्रवेश करते हुए देवकस्मलने लखावत के श्रेय निमित्त 100 सुवर्ण के व्याज में 16 बेल भेट किये / लाखा साढा श्रादि श्रावकों के सहित सेसमलने प्रतिवर्ष पूजा के लिये 12 द्रम्म समर्पण किये / महामंगल तथा शोभाकारक हो।" पृ० 207
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________________ ( 279) 2 जाखडी १-"सं० 1921, शाके 1786 प्रथम माघसुदि 7 गुरुवार के दिन कच्छदेश के मालनपुर निवासी दशा भोसवाल मामडागोत्रीय सेठ नरसी नाथा भार्या कुंअरबाई पुत्र सेठ हरसंगभाईने पालीताणा में श्रीअनन्तनाथ भगवान् का बिम्ब भराया और उसकी प्रतिष्ठा अंचलगच्छीय भ० रत्नसागरसूरीश्वरजीने की।" पृ० 213 (39) 2-" सं० 1921, शाके 1786 प्रथम माघसुदि 7 गुरुवार के दिन कच्छदेश के सांधाणनगर वासी दशाओसवाल लोडाइया धुलागोत्रीय शा० मांडण तेजसी भा० कुंभाबाई पुत्र शा० माणकने पालीताणा (गिरिराज) में श्रीपार्श्वनाथजी का बिम्ब भराया और उसकी प्रतिष्ठा अंचलगच्छ नायक श्रीरत्नसागरसुरिजीने की / " पृ० 214 1 रतनपुर 1- महादेव के लिये नमस्कार हो, पाताल, मर्त्य और स्वर्गलोक में व्याप्त जिसको तुम याद करते हो उस महादेव के पीठदेव को नमस्कार करता हूं.... समस्त राजावलि से विराजमान, महाराजाधिराज परमभट्टारक परमेश्वर पार्वतिपति लब्धप्रौढप्रताप श्रीकुमारपालदेव के राज्य समय में महाराज भूपाल श्रीरायपालदेव की हुक्मत में आये हुए रत्नपुर संस्थान के मालिक पूनयादेव की महाराणी श्रीगिरिजादेवीने संसार और जीवितव्य की असारता का विचार करके, प्राणियों को अभयदान देना महादान है ऐसा समझ के, नगर निवासी समस्त ब्राह्मण, पूजारी, महाजन,
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________________ ( 280) तंबोली श्रादि प्रजाजनों को बुलाकर, उनके समक्ष इस प्रकार का शासनपत्र किया कि आज अमावास्या के दिन स्नान कर, देवता तथा पितरों का तर्पण और नगरदेवों को पूजा आदि से प्रसन्न करके इस जन्म तथा परजन्ममें पुण्यफल प्राप्त करने और यश बढाने की अभिलाषा से प्राणियों को जीवित दान देने के लिये प्रतिमास में कृष्ण और शुक्ल पक्ष की एकादशी, चतुर्दशी, अमावास्या और पूनम के दिन किसी को किसी प्रकार के जीव की हिंसा हमारी सीमा में न करना चाहिये / हमारी सन्तति में होने. वाले प्रत्येक मनुष्य को, हमारे प्रधान, सेनानायक, पुरोहित और जागीरदारों को इस प्राज्ञा का पालन करना, कराना चाहिये / सब को विदित करने के लिये महाजनों की सम्मति से यह फरमान पत्र जाहिर किया गया है / अतएव इसको चन्द्रसूर्यस्थिति पर्यन्त सब कोई को पालन करना चाहिये / जो कोई इस को खंडित करेगा वह दंडनीय समझा जायगा / व्यासजीने भी कहा है कि सगरादि राजाओं से भोगी गई यह भूमि जब जिस जिस राजा के अधीन होती है, तब उस भूमि का फल उस उस राजा को मिलता है 1, रामचन्द्र होनेवाले सभी राजामों से वारंवार इस प्रकार याचना करते है कि राजाओं का यह सामान्य धर्म है कि समय समय उनको धर्मरूप पुल का सेवन करना चाहिये 2. हमारे वंश में उत्पन्न कोई भी धन्य ( प्रशंसा के लायक ) पुरुष होगा उसके मैं करसंलग्न हूँ, अत: उसको मेरे शासन का लोप न करना चाहिये /
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________________ (281) अमावास्या पर्व के दिन कुंभागे को भी निभाडा नहीं सुलगाना चाहिये / उपरोक्त तिथियों में जो जीवहिंसा करेगा उसको 4 द्रम्म का दंड होगा / नाडोल के रहनेवाले साधु धार्मिक सुश्रावक सुभंकर के पुत्र चूतिग और सालिगने कृपातत्पर हो प्राणियों के हितार्थ विनति करके यह फरमान पत्र कगया | श्रीपूनपानदेव की सही, पारिख लक्ष्मीधर पुत्र ठाकुर जयपालने इस फर्मानपत्र को लिखा।" पृ० 214-16 2 रामसेण- (41) 1." सं० 1289 वैशाख वदि 1 गुरुवार के दिन वाघेला गजसिंह के पुत्र केल्हण उसके भाई वाग्भट आदिने पार्श्वनाथ की पंचतीर्थी कगई और पं० पूर्णकलशने उसकी प्रतिष्ठा की।" पृ०२१९ (42) 2-" वर्तमान शासन के नायक भगवान् वद्धमानस्वामी की शिष्य परंपरा में वन की उपमा धारण करनेवाले वजाचार्य हुए / उनको शाखा ( वनीशाखा ) में स्थानीयकुलोद्भुत, चन्द्रकुलीन महामहिमावंत वटेश्वराचार्य हुए / ३-वटेश्वराचार्य से थारापद्रनगर के नाम से 'थारापद्र' नामक गच्छ उत्पन्न हुआ, जो सब दिशाओं में प्रसिद्धि पाया और जिसने अपने निर्मल यश से सब दिशाओं को उज्ज्वल बनाई / __4-5 इस गच्छ में अनेक विद्वान आचार्य उत्पन्न होकर स्वर्गवासी होने बाद ज्येष्ठाय नामक प्राचार्य हुए, फिर क्रमशः शान्तिभद्र, सिद्धान्तमहोदधि सर्वदेवसूरि और शालिभद्रसूरिजी हुए, जो ( शालिभद्रसूर ) सग्ल प्रकृति के निधान और गच्छ की चिन्ता करनेवाले थे।
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________________ ( 282) छठ्ठा और सातवां पद्य खंडित है, तथापि उनसे यह मतलब निकलता है कि 6-7 प्राचार्य शान्तिभद्र के समय में सं० 1084 चैत्र सुदि 15 के दिन पूर्णभद्रसूरिने भगवान श्रीऋषभदेव के बिंब की प्रतिष्ठा की और राजा रघुसेनने उसकी प्रतिष्ठा कगई / मंगल और महाशोभाकारक हो / ' पृ० 216-20 2 भीलडिया- (4' ). 1-" सं० 1215 वैशाखसुदि 9 के दिन श्रेष्ठी तिहणसर की स्त्री हांसी के श्रेय के लिये सा० रतना मानाने शान्तिनाथजी का बिम्ब कगया और उसकी प्रतिष्ठा.......गच्छीय वर्द्धमानसूरि के शिष्य रत्नाकरमूरिजीने की / पृ० 225 ___ 2-" सं० 1324 वैशाखवदि 5 बुधवार के दिन श्रीगौतमस्वामी की प्रतिमा की प्रतिष्टा श्रीजिनेश्वरसूरि शिष्य श्रीजिनप्रबोधसूरिने की और सा...... ....के पुत्र सरिवइजनने अपने भाई मूलदेव आदि के सहित स्व और कुटुम्ब के कल्याणार्थ यह प्रतिमा कराई।" पृ०२२५ मु० थराद ( उत्तर गुजगत )) श्रीवीर सं० 2455 ना० 25-12-1928 व्याख्यानवाचस्पतिमुनि-श्रीयतीन्द्रविजय,
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________________ परिशिष्ट नम्बर 3 आबु के जिनमन्दिर और प्रतिमाएँ। ( देलवाडा-आबू ) विमलवसहि ( आदिनाथ ) यह सौधशिखरी भव्य मन्दिर चौलुक्यवंशी राजा भीमदेव प्रथम के दंडनायक विमलशाह पोरवाडने बनवाया है, जो शिल्पकारी के विषय में भारतवर्ष में अद्वितीय माना जाता है। इसकी जमीन ब्राह्मणों से सोने के सिक्के विछाकर खरीदी गई थी और इसके बनवाने में विमलशाह के 185300000 रुपये खर्च हुए थे। इसकी प्रतिष्ठा विक्रम संवत् 1088 ( इ० स० 1011 ) में आचार्य श्रीवर्द्धमानसूरिजी महाराज के कर-कमल से हुई थी। इस समय इसमें छोटी बडी जिन प्रतिमाओं की संख्या इस प्रकार है 1 मूलनायक-श्रीऋषभदेव / 4 मूलनायकजी के परिकर में छोटी। 32 दो कायोत्सर्गस्थ बड़ी प्रतिमाओंके सहित काउसगिया। 24 दो कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा के परिकर में छोटी / 16 चोमुख देवल नग चार में। . . 17. सप्ततिशतजिन-पट्टक नग 1 में छोटी।
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________________ (284 ) 72 त्रिचतुर्विंशतिजिन-पट्टक नग 1 में छोटी / 168 चोवीसी जिन-पट्टक नग 7 में छोटी / 4 धातुमय प्रतिमा। 15 धातुमय पंचतीर्थी नग 3 में 5 धातुमय सिद्धचक्रजी का गट्टा / 185 देवकुलिकाओं ( देरीयों ) में / 64 देहरीगत प्रतिमाओं के परिकर में छोटी / 4 हस्तिशाला के चोमुख नग 1 में 10 हस्तिशाला के वांये तरफ महावीर मन्दिर में / इनके सिवाय श्री प्राचार्यप्रतिमा 3, चरण-पादुका जोड 1 और यक्ष यक्षिणियों की मूर्तियाँ 11 हैं। 2 लूणगवसहि ( नेमनाथ-मन्दिर ) यह सौधशिखरी जिनमन्दिर भी अपनी शोभा के लिये भारतवर्ष में एक ही है। इसको चौलुक्यराज वीरधवल के मंत्री तेजपालने अपने पुत्र लावण्यसिंह ( लूणगसिंह ) के श्रेयोऽर्थ बनवाया है / इसके बनवाने में तेजपाल के 135300000 रुपये खर्च हुए थे। इसी भव्य मन्दिर में देराणी-जेठाणी के खोखडे हैं जो वस्तुपाल की स्त्री ललितादेवी और तेजपाल की स्त्री अनुपमादेवीने अपने निज द्रव्य से बनवाये हैं और इनके बनवाने में अठारह लाख रुपये खर्च हुए हैं / इस विशाल जिन
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________________ मन्दिर में छोटी बडी सभी जिन प्रतिमाओं की संख्या नीचे मुताबिक है 1 मूलनायक-नेमनाथजी श्यामवर्ण / 4 मूलनायकजी के परिकर में छोटी / 24 कायोत्सर्गस्थ ( खडी ) प्रतिमाएँ / 26 दो कायोत्सर्गस्थ प्रतिमा के परिकर में छोटी / 70 सप्तति जिन-पट्टक नग 1 में छोटी / 72 चोवीसी जिन-पट्टक नग 3 में छोटी / 72 खेलामंडप की पूतलियों के बीच में छोटी / 66 चार स्तम्भों के ऊपर छोटी / 35 धातुमय पंचतीर्थी नग 7 में 75 देवकुलिकाओं में विराजमान प्रतिमा / 20 देहरियों में स्थापित प्रतिमाओं के परिकर में। 3 गिरनारटोंक के ऊपर तीन छत्रियों में / 12 हस्तिशाला के तीन खंडवाले श्याम रंग के चोमुख में / 480 . " "इनके अलावा आचार्य प्रतिमा 2, चांदी की पादुका जोड 1, देव देवियों की मूर्तियाँ 6 और एक जुदे दिगम्बर देवल में प्रतिमा 24 और भी हैं।
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________________ ( 286 ) 3 भीमावमहि ( आदिनाथ-मन्दिर ) यह जिनमन्दिर श्रावक भीमसिंह का बनवाया हुआ है / इसमें धातुमय श्री आदिनाथ भगवान की विशाल प्रतिमा परिकर सहित बिराजमान है, जो साक्षात् कंचन के समान देख पडती है / इसकी पलांठी के नीचे लिखा है कि संवत् 1525 फा० सु० 7 शनिरोहिण्यां श्री अर्बुदगिरौ देवडा श्रीराजधर-सायर डूंगरसी राज्ये सा० भीमचैत्ये गर्जर श्रीमाली राजमान्य मं० मंडनभार्या मोली पुत्र महं० सुन्दर पु० मं० गदाभ्यां भार्या हांसी परमाई महं० गदा भा० आसू पु० श्रीरंग वाघादि कुटुंबयुताभ्यां 108 मणप्रमाणं सपरिकरं प्रथमजिनबिंब का०, तपागच्छनायक श्री सोमसुंदरसूरिपट्टप्रभाकर श्री लक्ष्मीसागरसूरिभिः प्रतिष्ठितं, श्रीसुधानंदनमूरि-श्री सोमजयमूरि-महोपाध्यायश्री जिनसोमगणि प्रमुख परिवार परिवृतैः, विज्ञानं सूत्रधार देवाकस्य श्रीरस्तु. -सं० 1525 फाल्गुन सुदि 7 शनिवार रोहिणी नक्षत्र में आबूजी के ऊपर देवडा श्री राजधर सायर डूंगरसी के शासन काल में शा० भीमसिंह के मन्दिर में गुर्जरश्रीमाली राजमान्य मंत्री मंडन की स्त्री मोली के पुत्र महं० सुन्दर के पुत्र मंत्री गदाने अपनी स्त्री हांसी परमाई महं० गदा की स्त्री आसू के पुत्र श्रीरंग, वाघा, आदि कुटुम्ब सहित 108 मण प्रमाण वजनवाला सपरिकर श्री आदिनाथ भगवान् का बिम्ब कराया, और तपागच्छीय श्री सोमसुन्दरसूरि के पाट पर सूर्य के समान
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________________ ( 287 ) श्रीलक्ष्मीसागरसूरिजीने सुधानन्दनसूरि, सोमजयसूरि, और महोपाध्याय जिनसोमगाण आदि परिवार से उस की प्रतिष्ठा ( अंजनशलाका ) की। ___ मंत्री गदा अहमदावाद का रहनेवाला, गुर्जरज्ञाती के श्रीमाली महाजनों में आगेवान और राजमान्य था / इसने इस प्रतिष्ठा के लिये अहमदावाद से बडा भारी संघ निकाला था, जिस में सेकडों हाथी, घोडे, हजारों मनुष्य और सातसौ गाडियाँ थीं। आबू पर आने बाद इसका स्वागत भानु (भाणजी) और लक्ष (लाखा ) आदि राजाओंने किया था। आबू पर इसने एक लाख सोना महोर खर्च के प्रतिष्ठा, संघभक्ति और स्वामिवच्छल किया था। भीमसिंह के सौधशिखरी जिनमन्दिर में छोटी बडी जिनप्रतिमाओं की संख्या इस मुताबिक समझना चाहिये 1 धातुमयमूलनायक-आदिनाथ / 4 मूलनायकजी के परिकर में छोटी / 4 धातुमय इतर प्रतिमा / 38 पाषाणमय जिनप्रतिमा / 5 मूलद्वार के ऊपर छोटी पाषाण प्रतिमा / 1 श्रीगौतमस्वामीजी की मूर्ति / .64 देवकुलिकाओं की प्रतिमा / 20 देहरीगत प्रतिमाओं के परिकर में छोटी / 137
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________________ ( 288 ) 4 खरतरवसहि ( चोमुख मन्दिर ) यह मन्दिर खरतरगच्छीय संघ के तरफ से बना है / परन्तु वर्तमान में लोग इसको 'सिलावटों का मन्दिर' कहते हैं / यह तीन खंडवाला चोमुख मन्दिर हैं, जो बहुत ऊंचा और रमणीय है। इसके प्रथम खंड में आदिनाथ, सुमतिनाथ, शान्तिनाथ और पार्श्वनाथ, तथा द्वितीय खंडमें श्रीपार्श्वनाथादि प्रतिमाएँ मूलनायक तरीके विराजमान हैं, जो सं० 1521 और 1523 की प्रतिष्ठित हैं और प्रतिष्ठाकार खरतरगच्छीय श्रीजिनहर्षसूरिजी हैं। इसी प्रकार तृतीयखंड में भी पार्श्वनाथ की चार प्रतिमाएं स्थापित हैं / तीनों खंड में मूलनायक सहित कुल प्रतिमाएँ 66 हैं। इस प्रकार आबुदेलवाड़े में सभी श्वेताम्बर जैनमन्दिरों की छोटी बड़ी जिनमूर्तियाँ संख्या में 1487 हैं। जिनमें विक्रम सं० 1088 से 1752 तक की प्रतिष्ठित मूर्तियाँ है और उनके प्रतिष्ठाकार जुदे जुदे कई आचार्य हैं / ओरिया के महावीर मन्दिर और परमाहत् राजा कुमारपाल के शान्तिनाथ मन्दिर में छोटी वडी सब मिलाकर कायोत्सर्गस्थ प्रतिमाओं के सहित 10 जिनप्रतिमाएँ हैं / इन दोनों मन्दिरों में से एक ओरिया गाँव में और दूसरा सोमेश्वर के सामने स्थित है / अचलगढ़-आबू 1 अचलसी अमरसिंह जैन कारखाना जो अचलगढ की पेढी है / उसके एक कमरे में एक गुंबज वाला जिनमन्दिर है जिसमें मूलनायक श्रीकुन्थुनाथ भगवान् की धातुमय प्रतिमा
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________________ ( 289 ) स्थापित है। इसके अलावा इस मन्दिर में 168 धातुमय प्रतिमा और भी हैं जो छोटी बडी सब तरह की हैं। 2 अचलगढ के चतुर्मुखविहार नामक मुख्य मंदिर के सामने के मैदान में श्री ऋषभदेवस्वामी का मंदिर है, जो चोवीस जिनालय है / इसमें छोटी बडी सब मिलाकर देवकुलिकाओं के सहित 27 जिनप्रतिमा, एक जोड चरण पादुका और एक देवी की मूर्ति है / 3 चतुर्मुख-विहार इस विशाल और उच्चतम मन्दिर को प्राग्वाटज्ञातीय संघवी सहसा शाहने बनवाया है। इसके चारों द्वारों में विशालकाय अतिसुन्दर धातुमय प्रतिमाएँ विराजमान हैं, जो स्वर्ण के समान और दर्शकों के चित्त को अत्यानन्द उत्पन्न करने वाली हैं / इस मन्दिर के मुख्य द्वार उत्तर में मूलनायक श्रीआदिनाथस्वामी की जो विशाल प्रतिमा स्थापित है, उसकी पलांठी के नीचे लिखा है कि संवत् 1566 वर्षे फाल्गुन सुदि 10 दिने श्री अचलदुर्गे राजाधिराज श्री जगमालविजयराज्ये प्राग्वाटज्ञातीय सं० कुरपाल पुत्र सं० रत्ना, सं० धरणा, सं० रत्नापुत्र सं० लाखा, सं० सलखा सं० सोना; सं० सालिग भा० सुहागदे पुत्र सं० सहसाकेन भा० संसारदे पुत्र खीमराजं द्वि० अनुपमदे पुत्र देवराज, खीपराज भा० रमादे पुत्र जयमल्ल, मनजी प्रमुख युतेन निनकारित चतुर्मुखमासादे उत्तरद्वारे पित्तलमय-मूलनायकं श्री आदिनाबिवं कारितं, प्र० तपागच्छनायकश्रीसोमसुंदरमूरिपट्टे
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________________ ( 290) श्रीमुनिसुंदरमूरि-श्रीजयसुंदरसूरि पट्टे श्रीविशालराजमूरि पट्टे श्रीरत्नशेखरमूरि पट्टे श्रीलक्ष्मीसागरमूरि-श्रीसोमदेवमूरि शिप्य श्रीसुपतिसुंदरमूरि शिष्य गच्छनायक श्रीकमलकलशरि शिष्य संप्रतिविजयमान गच्छनायक श्रीजयकल्याणमूरिभिः श्री चरणसुंदरसूरि प्रमुखपरिवारपरिवृतैः / सं० सोना पुत्र सं० जिणा भ्रातृ सं० आसाकेन भा० आसलदे पुत्र........युतेन कारितप्रतिष्ठामहे श्रीरस्तु / सूत्रवाछा पुत्र मू० देवा पुत्र मू० अरबुद पुत्र मू० हरदास / -विक्रम सं० 1566 फाल्गुन सुदि 10 के दिन अचलगढ के राजाधिराज श्रीजगमालजी के शासन काल में पोरवाड सं० कुरपाल के पुत्र सं० रत्ना, सं० धरणा, सं० रत्ना के पुत्र सं० लाखा, सं० सलखा, सं० सोना, सं० सालिग, सालग की स्त्री सुहागदे के पुत्र सं० सहसाकने अपनी स्त्री संसारदे उसका पुत्र खीमराज, दूसरी स्त्री अनुपमदे का पुत्र देवराज, खीमराज की स्त्री रमादे के पुत्र जयमल्ल, मनजी प्रमुख कुटुम्ब सहित खुद के बनवाये चतुर्मुख मन्दिर के उत्तर द्वार में धातुमय मूलनायक आदिनाथजी का बिम्ब कराया। तपागच्छनायक श्रीसोमसुन्दरसूरि, तत्पट्टे मुनिसुन्दरसूरि, जयसुन्दरसूरि, तत्पट्टे विशालराजसूरि, तत्पट्टे रत्नशेखरसूरि, तत्पट्टे लक्ष्मीसागरसूरि-सोमदेवसूरि, उनके शिष्य सुमतिसुन्दरसूरि, उनके शिष्य गच्छनायक कमलकलशसूरि के शिष्य वर्तमान गच्छनायक जयकल्याणसूरिजीने चरणसुन्दरसूरि प्रमुख शिष्य परिवार से उसकी प्रतिष्ठा की।
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________________ ( 291 ) प्रतिष्ठा का महान उत्सव सं० सोना के पुत्र सं० जिणा और आसाकने अपनी स्त्री आसलदे तथा उसके पुत्र परिवार से कराया / सलावट वाछा के पुन सू० देवा के पुत्र सू० अरबुद पुत्र सलावट हरदासने यह मूर्ति बनाई। इस लेख से चतुर्मुखविहार ( अचलगढ-मन्दिर ) का बन वानेवाला पोरवाड सं० सहसाशाह सिद्ध होता है। उक्त लेख के अनुसार सहसाशाह की वंश परम्परा इस प्रकार है पोरवाड कुरपाल संघवी। सं. रत्ना सं. धरणा सं. लाखा सं.सलखा सं.सोना सं. सालिग स्त्री सुहागदे सं. जिणा सं.आसाक (स्त्री आसलदे) सं. सहसाक (1 स्त्री संसारदे) सं.खीमराज (बी रमादे) (2 स्त्री अनुपमदे) सं. देवराज सं.जयमल सं.मनजी
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________________ ( 292 ) श्रीकमलकलशसूरिजी से तपागच्छ में एक कमलकलशा नाम की शाखा जुदी निकली है / उक्त लेखवाली धातुमय आदिनाथ प्रतिमा के प्रतिष्ठा-कार जयकल्याणसूरिजी इसी शाखा के आचार्य समझना चाहिये, जिनकी वंशावली उक्त लेख में ही मौजुद है। इसी चतुर्मुखविहार के प्रथम खंड में द्वितीयादि ( पूर्व, दक्षिण और पश्चिम ) द्वारों में स्थापित धातुमय जिनप्रतिमाओं की पलांठी के नीचे प्रायः एक ही किस्म के लेख हैं। उनमें से एक प्रतिमा का लेख नीचे मुताविक है संवत् 1518 वर्षे वैशाख वदि 4 दिने मेदपाटे श्रीकुंभलमेरुमहादुर्गे राजाधिराजश्रीकुंभकर्णविजयराज्ये तपापक्षीयश्रीसंघकारिते श्रीअरबुदानीतपित्तलमयप्रौढश्रीआदिनाथमूलनायकप्रतिमालंकृते श्रीचतुर्मुखप्रासादे द्वितीयादिद्वारे स्थापनार्थ श्रीतपापक्षीयश्रीसंघेन श्रीआदिनाथवि कारितं / डूंगरपुरनगरे राउलश्रोसोमदासराज्ये प्रोसवाल सा० सामा भा० कर्मादे पुत्र सा० माला सा० साल्हा कारितविस्मयावहमहोत्सवैः प्रतिष्ठितं तपाश्रीसोमसुंदरमूरिपट्टे श्रीमुनिसुंदरमूरि श्रीजयसुंदरमूरि, मुनिसुंदरसूरिपट्टे श्रीरत्नशेखरमूरिपट्टे श्रीलक्ष्मीसागरसूरिभिः श्रीसोमदेवमूरिप्रमुख परिवारपरिवृतैः / डूंगरपुरे श्रीसंघोपक्रमणसूत्रधारलुंभालांपाद्यैर्निर्मितं / -विक्रम सं० 1518 वैशाख वदि 4 के दिन श्रीकुंभलमेरुमहादुर्ग ( मेवाड ) के महाराजा कुंभकर्ण के वर्तमानराज्य
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________________ (293 ) में तपागच्छीय संघ के कराये और बाबू पर लाये हुए पित्तलमयय प्रौढ आदिनाथ के बिंब से शोभित श्रीचतुर्मुखमन्दिर में द्वितीयादि द्वारों में स्थापन करने के लिये तपागच्छ के संघने श्रादिनाथ का बिम्ब कराया और उसकी प्रतिष्ठा डूंगरपुर में राउल श्रीसोमदास के राज्य में ओसवाल शा० साभा की स्त्री कर्मादे के पुत्र माला और सल्हा के कराये हुए आश्चर्यजनक प्रतिष्ठा महोत्सव पूर्वक तपागच्छीय श्रीसोमसुन्दरसूरि के पटधर मुनिसुन्दरसूरि और जयसुन्दरसूरि, उनके पटधर रत्नशेखरसूरि के शिष्य श्रीलक्ष्मीसागरसूरिजीने आचार्य सोमदेवसूरि प्रमुख परिवार के सहित की / डूंगरपुर के श्रीसंघ की आज्ञा से सलावट लुंभा और लापा आदिने यह मूर्ति बनाई / प्रतिष्ठा महोत्सव का करानेवाला साल्हा डूंगरपुर का रहनेवाला और राउलसोमदास का मंत्री था। इसने 120 मण वजनवाली पित्तलमय एक जिनप्रतिमा तैयार कराई थी। ऐसा गुरुगुणरत्नाकर-कारने लिखा है / अस्तु. चतुर्मुखविहार नामक अचलगढ़ के मुख्य मन्दिर में सब मिलाकर धातुमय प्रतिमा 14 और पाषाणमय 6 प्रतिमाएँ हैं। इस प्रकार अर्बुदगिरि नामक पवित्र तीर्थ के जिनमन्दिरों ( देलवाडा, ओरिया, कुमारपाल और अचलगढगत मन्दिरों) में धातु और पाषाण की छोटी बड़ी सब जिनप्रतिमाओं की संख्या 1713 हैं / यह संख्या हमने खुद अाबु रह कर सं० 1986 चैत्रसुदि 11 शुक्रवार के दिन स्वयं सावधानी से गिन करके लिखी है।
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________________ ( 294) पवित्र तीर्थ श्रीअरबुदाचल (आबूजी) की दयाणा 1, लोटाणा 2, नांदिया 3, अजारी 4 और वामनवाड 5; ये पंचतीर्थी मानी जाती हैं और इन पंचतीर्थियों में मूलनायक श्रीमहावीरस्वामी की सुन्दर और प्राचीन प्रतिमाएँ विराजमान हैं, जो जीवितस्वामी के नाम से प्रसिद्ध हैं / नांदिया, अजारी और वामनवाड इन तीनों तीर्थों में 52 जिनालय सौधशिखरी भव्य जिन मन्दिर बने हुए है। दयाणा में 4, लोटाणा में 7, नांदिया में 62, नांदिया गांव में 10, अजारी में 166 और वामनवाड में 65 इस प्रकार आबूजी की पंचतीर्थी के जिन-मन्दिरों में देवकुलिकाओं सहित छोटी बड़ी पाषाण और धातु की सब मिला कर 374 जिन प्रतिमाएँ हैं जो विक्रम की 12 वीं और 13 वीं सदी की प्रतिष्ठित हैं / पिंडवाडा-स्टेशन से वामनवाड 2 कोश, नांदिया 3 कोश, लोटाण 2 कोश, और दयाणा 2 कोश; अथवा रोहिडा-स्टेशन से नीतोरा 4 कोश, नीतोरा से दयाणा 2 कोश, लोटाणा 2 कोश, नांदिया 2 कोश, और वामनवाड 3 कोश; इस प्रकार एक एक के परस्पर अन्तर (छेटी) जानना चाहिये।
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________________ ( 295 ) सिरोही के जैनमंदिर और जिनप्रतिमाएँ मूलनायक. संवत्. पाषाण प्रतिमा. धातु आचाप्रतिमा.र्य प्र० * | 4 0 0 ocm 0 0 - - ~ 1 we . . . * * w शान्तिनाथ | 1551 2 चोमुखजी | 1634 26 गोडीपार्श्वनाथ |1788 शीतलनाथ 5 पार्श्वनाथ 1766 कुन्थुनाथ महावीर शीतलनाथ आदिनाथ 1424 अजितनाथ 1644 संभवनाथ |1534 नमिनाथ 1683 13 | ऋषभदेव 1653 0 9 1736 0 0 N.o 0 0 0 0 - - - - Sax 0 8 कुलजोड | 267 | 608 | 5 | 28 ये तेरह सौधशिखरी जिनमन्दिर एक ही श्रेणी में स्थित हैं और इस मुहल्ले का नाम भी देहरा-सेरी है। इनमें आदिनाथ और अजितनाथ का मन्दिर बावन जिनालय है और सबसे
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________________ (296 ) बडा चोमुख-मन्दिर है, जो ऊपरा ऊपरी तीन खंडवाला है / इन सभी जिनमन्दिरों में छोटी बडी पाषाणमय प्रतिमा 267 और धातुमय प्रतिमा 608 मिला कर 1175 जिन मूर्तियाँ ( प्रतिमाएँ ) बिराजमान हैं। इन के अलावा आदिनाथ के मन्दिर में तीन चोवीसी का पट्टक 1, नन्दीश्वरद्वीप का पट्टक 1 तथा सिद्धाचल का पट्टक 1 और अजितनाथ-मन्दिर में श्री सिद्धचक्रजी का पट्टक 1 एवं 4 पट्टक हैं। देहरा-सेरी के सिवाय श्रीजीरावला-पार्श्वनाथ का मन्दिर जिसमें पाषाणमय प्रतिमा 6 और धातुमय प्रतिमा 26 हैं, और श्रीचिन्तामणि-पार्श्वनाथ के मन्दिर में पाषाण की 1 तथा धातु की 7 प्रतिमा हैं। शहर के बाहर थूभ नामक स्थान पर बने हुए श्रीमहावीर मन्दिर में पाषाण की 3 और धातु की 3 प्रतिमा स्थापित हैं। इस प्रकार सिरोही के सोलह मन्दिरों की छोटी बडी सभी जिनप्रतिमाओं की संख्या 1227 हैं / इन में धातुमय गट्टाजी भी शामिल समझना चाहिए और प्राचार्य प्रतिमा 6 तथा चरणपादुका जोड 47 इन के अलावा जानना चाहिये। सिरोही भी इस प्रान्त ( मारवाड ) में अर्ध शत्रुजय माना जाता है। अतएव यह स्थान भी पवित्रतीर्थ और दर्शनीय है। पं० कान्तिविजयजी रचित 'सिरोहीचैत्य परिपाटी-स्तवन' में सिरोही के जिनमन्दिरों की संख्या 18 दी है, उसमें उन्होंने छोटी दो देरियाँ जो बावन जिनालय मन्दिर के अन्तरगत हैं, उनको
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________________ ( 297 ) जुदी गिन कर अठारह की संख्या पूर्ण की है / चैत्यपरिपाटीस्तवन नीचे मुताबिक है होरी-सांवरो सुखदाई-देशीप्रभुजी से प्रीति लगाई, सुमति मोरी अति हरखाई / / टेर / / पास आस पूरे भविजन की, जीरावलो जग मांई / चिंतामणि चित चिंता चूरे, इन विच क्या है नवाई // 1 // शांतिजिनेश्वर मूर्ति मनोहर, जगगुरु पदवी पाई। नाभिनरेश्वर नंदन निरख्यो, मुगति बधुकी वधाई // 2 // गोडीपासे शंखेश्वर साहेब, कीर्ति जगमें गवाई। कुंथु कल्पतरु वीरजिनेश्वर, शीतल ऋषभ सवाई . // 3 // पद्मप्रंभ जिन सुमति सुहंकर, अजित चिंतामणि पाई। संभवे नेमिजिणंदँदयालु, ऋषभ श्रीवीर दुहाई // 4 // नगर सिरोही सुरपुरी मार्नु, जिनघर हार हीराई।। कांतिविजय प्रभु चरण कमल को, दर्शन जगत बढाई // 5 // ) विक्रम सं 1986 वैशाख शुद 15 मुनि यतीन्द्रविजय. मु० खुडाला (मारवाड)
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________________ શી, ગુલાઇ ય aa લલ્લુભાઈ, જમાના મીન્ટીંગ હીર