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________________ (189) मांडवपुर है। यहाँ जैनियों की वस्ती नहीं है, परन्तु सौधशि: खरी प्राचीन एक जिन मन्दिर है, जिसमें श्रीमहावीर भगवान की 1 हाथ बडी प्रतिमा विराजमान है जो प्राचीन, चमत्कारि. णी और खंडित है / यहाँ के जैनेतरों की भी इस प्रतिमा पर अटल श्रद्धा है और हरएक सांसारिक कार्यों के लिये ये लोग वीरप्रभु की मानता लेते हैं और इन लोगों के अटल विश्वास से वह सफल भी होती है। ___इसके भीतरी मंडप के दहिने भाग के भीति स्तंभे पर चार पंक्ति का जूना शिला-लेख है, जो घिसा जाने से बराबर उकलता नहीं है। लेकिन जितना अंश वांचा जाता है उस से जान पड़ता है कि यह मन्दिर विक्रम की बारहवीं सदी में बना है और इसकी संवत 1340 पोष सुदि 9 को प्रतिष्ठा हुई है। तेरहसौ के साल की प्रतिमा विलुप्त हो जाने से वर्तमान महावीर प्रतिमा कहीं से लाकर पीछे से विराजमान की गई है। इसके मंडप में पाषाण की छ प्रतिमा और भी स्थापित है जो नवीन हैं। ___मन्दिर के बगल में ही एक दो मंजिली मजबूत धर्मशाला है जिसमें 400 आदमी पानन्द से ठहर सकते हैं / यहाँ हरसाल चैत्री और कार्तिकी पूर्णिमा के दो मेले भराते हैं जिनमें तीस तीस कोश तक से 5, या 6 हजार यात्री इकट्ठे होते हैं और दूज तक ठहरते हैं / इस अवसर पर नवकारसियाँ और प्रभावनाएँ जुदे जुदे गाँववाले सद्गृहस्थों के तरफ से होती हैं। मन्दिर में भी दोनों मेलाओं में तीन चार हजार रुपयों की पैदास
SR No.023534
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1925
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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