________________ (102) चल और गिरनार तीर्थ के समान ही पूजनीय माना जाता है / इसके प्राचीन नाम तारणगढ़, तारंगनाग, तारांगनाग, तारणदुर्ग, तारंगढ़, तारंगक आदि हैं। यह तारंगा हिल रेल्वे स्टेशन से 2 कोश के फासले पर है और इस पहाड़ी के चारों ओर तथा ऊपर सघन झाड़ी है जिसमें वाघ, चीता, आदि जानवरों का भय अधिक है / तलहटी से लगभग एक मील ऊंचे चढ़ने बाद तारंगगढ़ का पश्चिम दर्वाजा आता है / दर्वाजे में प्रवेश करते ही दाहिने भाग की भीत में गणेशाकार यक्ष-मूर्ति और बाम भाग की भीत पर देवी की मूर्ति नजर आती है / इसी प्रकार की दो मूर्तियाँ मूल मन्दिर में प्रवेश करने के दाजे के भीतरी भाग में भी है / यहाँ से आधा मील आगे जाने पर पूर्व के बाद अग्नि कोन में जिन-मन्दिर दृष्टिगोचर होते हैं। सब से पहिले दिगम्बरों की धर्मशाला और उसके आगे जोड पर ही श्वेताम्बरीय धर्मशाला तथा मन्दिर में जाने का उत्तर दर्वाजा आता है / मुख्य मन्दिर का मुख और मुख्य दर्वाजा पूर्वदिशा सम्मुख है परन्तु यात्रियों का गमनाऽऽगमन उत्तर दाजे से ही होता है। उत्तर दर्वाजे में प्रवेश करते ही श्रीतारंगाधिपति अजितनाथ भगवान् का मुख्य मन्दिर आता है जो अपनी उच्चता के कारण मानों आकाश का स्पर्श कर रहा है। यह मुख्य मन्दिर इतना ऊंचा है कि हिंन्दुस्तान भर में इस की समानता रखनेवाला कोई मन्दिर नहीं है। इसकी ऊंचाई चोरासी हाथ से भी कुच्छ अधिक है। इसमें बिरा