SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 132) रस पाषाण की सुन्दर गुरुछत्री है, जो मूता चमनमल-भूरमल डूंगाजी की बनवाई हुई है / उसके आगे ऊपरी भाग में दो देवरियाँ पारस-पाषाण की हैं, जिनमें एक में श्रीऋषभदेवस्वामी और दूसरी में श्रीनेमनाथस्वामी की नई मूर्ति स्थापित हैं। मुख्य मन्दिर के मध्यद्वार के पासवाले चौक में दाहिने तरफ वीर प्रभु का मन्दिर है, जिसमें मूलनायक भगवान् श्रीमहावीरस्वामी की चार हाथ बडी और इनके दोनों बाजू श्री शान्तिनाथ की तीन हाथ बडी भव्य तथा विशाल मूर्तियाँ बिराजमान हैं / इसके पिछाडी एक कोठार में प्राहुणा तरीके 134 मूर्तियाँ रक्खी हुई हैं, जो उनके खपी को निछरावल से दी जाती हैं। मुख्य-मन्दिर के वाम-भाग में यतिसुरेन्द्रसागरजी की छत्री है, जिसमें उनके चरण-पादुका स्थापित हैं। . गोडी-पार्श्वनाथ के मन्दिर में जाने के मध्यद्वार के ऊपर चोमुख सुमेरु है, जो भारस-पाषाण का बना हुआ है / मुख्य मन्दिर के चारों तरफ बावन देवरियाँ और तीन बडे जिनमन्दिर, जिनमें कि सुन्दर जिनप्रतिमाएँ स्थापित हैं। बीच के मुख्य जिनालय में अति प्राचीन और चमत्कारिणी श्रीगोडी-पार्श्वनाथ की सफेद वर्ण की 2 // हाथ बडी भव्य मूर्ति बिराजमान है / जिसकी प्रतिष्ठा सं 1936 में महाराज श्रीविजयराजेन्द्रसूरिजीने की है। इसकी अञ्जनशलाका किस साल में किस आचार्यने की ? यह नहीं कहा जा सकता। परन्तु इसके पलाठी के चिन्हों से यह अति प्राचीन मालूम होती है / इसकी देवरियाँ और मन्दिरों में स्थापित मूर्तियों की अञ्जनशललाका संवत् 1955 फाल्गुन वदि 5 गुरु
SR No.023534
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1925
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy