SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 137
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (122 ) सं० 1552 के लगभग की प्रतिष्ठित हैं। मूलमन्दिर के चारों ओर की देवरियाँ भी पीछे से जुदे जुदे सद्गृहस्थों के तरफ से बनी हुई मालूम पड़ती हैं | उनमें से देवरी नम्बर 1-5-6 में क्रमशः इस प्रकार लेख उकेरे हुए हैं 2 सं० 1556 वर्षे वैशाखसुदि 13 रवौ प्राग्वाटज्ञातीय सं० वाछा, भा० बीजलदे सुत सं? कान्हा कुतिगदे जाणिदेसी सुत सं० रत्नपाल भार्या करमाई....स्वभते श्रेयसे श्रीजीराउला पार्श्वनाथप्रासादे देवकुलिका कारिता, वृद्धतपापक्षे श्री उदयसागरसूरीणामुपदेशन / सं० करमाई सुता भांगी प्रणमति, सं० कान्हा सुता (प्रक्रमति) सुता करमाई नित्यं श्रीपार्श्व प्रणमति / 3 सं० 1556 वर्षे द्वितीयज्येष्टसुदि 1 शुक्रे महाराज श्रीराणाजी प्रसादात , प्राग्वाट ज्ञातीय संघवी. समहा भार्या.... दे पुत्ररत्न संघवी सचवीर भार्या पदमाई पुत्ररत्न संघवी देवा सकुटुंबयुतेन स्वश्रेयसे श्रीजगन्नाथप्रासादे श्रीदेवकुलिका कारापिता, भट्टारकप्रभुश्रीहेमविमलमूरिभिः प्रतिष्ठिता / संघस्य शुभं भवतु / ___मुख्य मन्दिर के गूढमंडप में बने हुए दोनों तरफ के तार्को में एक ही किस्म का यह लेख है 4 स्वस्तिश्री संवत् 1552 वर्षे पोषवदि 7 सोमे श्री बृहत्तपापक्षीय भ० श्रीधर्मरत्नमूरिणामुपदेशेन श्रीस्तंभतीर्थवास्तव्य श्रीउपकेशवृद्धशाखायां सा० नाथा भा० वा० हेमीसुता जीवी भा० शिवा तया निजपितृस्वसुः श्रेयोर्थ श्रीजीरापल्लीश प्रासादे आलकद्वयं कारितः।
SR No.023534
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1925
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy