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________________ (207 ) पधराये गये हैं जो 15 वीं सदी के प्रतिष्ठित हैं। इसके मण्डप के वांये तरफ के छवने में एक लेख खुदा हुवा है कि " श्रीश्रुताय नमः / संवत् 1212 वैशाखसुदि 3 गुरूवासरे रत्नपुरे भूपतिश्रीरायपालदेवसुत महाराज सुवर्णदेवस्थ प्रतिभुजायमान--महाराजाधिराजभूपतिश्रीरत्नपालदेवपादपमोपजीविनः पादपूज्यभांडारिकवीरदेवस्य महं० देवहृत्साढापातूसन्मतिमहामातृसलखणा श्रेयसे धानन्यासक्रयमहनीयजूपाभिधाना श्रेयो निमित्तं श्रीऋषभदेवयात्रायां भूपश्रीमान् मातृजागेरवलिनिमित्तं दत्तं शतमेकं द्रम्माः / देवकस्मलके प्रविष्टमत्र शतसुवर्णव्याजेन गोवृषसोलस्य लाषावतश्रेयोऽर्थप्रवर्द्धने लाषासाढा प्रभृतिश्रावकर्येन सेसमलकेन वर्ष प्रति द्र० 12 द्वादशं देयं सेवार्थेति, मंगल महाश्रीः।" इस मन्दिर के विषय में एक किवदन्ती भी प्रचलित है कि-कोई यति सात जिनमन्दिरों को कहीं से उड़ा के लेजा रहा था, उनमें से दो जिन मन्दिर अंचलगच्छ के यति भीमजी गुरांने मंत्र-बल से रोक लिये / जिनमें से एक भीनमाल में जिसका हाल उपर दिया गया है और दूसरा भीनमाल से उत्तर 20 मील के फासले पर गाँव धाणसा में रख दिया। यह किंवदन्ती कितनी सत्यता रखती है ? इसको पाठक स्वयं समझ लेवें। 6-7 भीनमाल से 1 मील पश्चिमोत्तर एक छोटे देवल में श्रीगोडीपार्श्वनाथ के चरण स्थापित हैं, जो अति प्राचीन हैं और इनको जैन जैनेतर दोनों मानते हैं। इसी प्रकार पौन मीत
SR No.023534
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1925
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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