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________________ ( 160) अतिसुन्दर पौषधशालाएँ बनबाई, जिनमें कि तपस्या करते हुए साधु और गृहस्थ संपतयोग्य फल को प्राप्त करते हैं / 33-34 श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरिजी से रक्षित श्वेताम्बर मुनिवरों का सुसंयत गच्छ ( साधुसमुदाय ) शोभायमान हो रहा है / जिस गच्छ में समस्त तत्त्व और उनके शास्त्रार्थ संबन्धी रहस्यों के ज्ञाता, समस्त साधुमंडल के शासक, निजगुणों से श्रेष्ट आचार्यों को प्रसन्न करनेवाले, सिद्धिमार्ग में उद्यमवंत, सच्चरित्रों से विषय रूप विषलता को दूर करनेवाले और उपाध्यायो में मुख्य शिष्यसमुदाय के साथ धनविजय वाचक शोभायमान हैं। 35-38 जिस गच्छ में मोहादि अन्तरंग शत्रुओं से रहित मोहनविजय, निय सिद्धि के लिये प्रयत्नशील तपस्वी रूपविजय, उत्कृष्ट तत्त्व का ध्यान करते हुए हिम्मतविजय, लक्ष्मीविजय, दीपवत् प्रकाशित बुद्धिवाले दीपविजय, सर्व शिष्यों में विचित्र बुद्धिवाले यतीन्द्रविजय, साधु पद्मविजय, गौतमविजय, गुलाबविजय, केशरविजय, हर्षविजय, हंसविजय वल्लभविजय और भिनु चिमनविजय ये मुनिवर सुशोभित हैं। ..३६-महाराज श्री राजेन्द्रसूरीश्वरजी के उपासक हजारों श्रावक प्रशंसा के योग्य हैं जिन्होंने कि अञ्जनशलाका रूप कार्य को आचरण किया। . .. 40-41 गोडीदासके पुत्र, श्रद्धालु, कल्याणशाली, पुण्यकार्यों में कटिबद्ध, सब साहूकारो में मुख्य, श्रावक वागमलजी
SR No.023534
Book TitleYatindravihar Digdarshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYatindravijay
PublisherSaudharm Bruhat Tapagacchiya Shwetambar Jain Sangh
Publication Year1925
Total Pages318
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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