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“અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૯૬
'શીધ્રબોધ ભાગ ૧૧ થી ૧૫
: દ્રવ્ય સહાયક:
શ્રી નીતિસૂરિજી સમુદાયના પૂ. આ. શ્રી હેમપ્રભસૂરીશ્વરજી મ.સા.ના આજ્ઞાનુવર્તિની
પૂ. સા. શ્રી પદ્મયશાશ્રીજી મ.ની પ્રેરણાથી
સાબરમતી ધર્મશાળા, પાલિતાણામાં સં. ૨૦૬૯ ના ચાતુર્માસમાં જ્ઞાનદ્રવ્યના ઉપજમાંથી
હ. રસીલાબેન ભાવનગરવાળા
': સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સનેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫ (મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૭૧
ઈ. ૨૦૧૫
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
___84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
___192
013
454 226 640
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288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
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138
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(04)
210
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286
216
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ
શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह - 04.
(मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ ( - भेल) ahoshrut.bs@gmail.com
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ भर्णोद्धार संवत २०५५ (६. २०१०) - सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. खा पुस्तो www.ahoshrut.org वेवसाइट परथी पए। डाउनलोड sरी शडाशे. પુસ્તકનું નામ
ईर्त्ता टीडाडार-संचा
ક્રમ
055 | श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 056 | विविध तीर्थ कल्प
057
ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | 058 सिद्धान्तलक्षगूढार्थ तत्त्वलोकः
059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
જૈન સંગીત રાગમાળા
060
061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध ( प्रबंध कोश)
062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
064 | विवेक विलास
065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ
067
068 मोहराजापराजयम्
069 | क्रियाकोश
-
070 कालिकाचार्यकथासंग्रह
071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
072 | जन्मसमुद्रजातक
073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
074
જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
ભાષા
सं
.:
सं
सं
सं
गु.
सं
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ
श्री सुदर्शनाचार्य
पू. मेघविजयजी गणि
सं/गु. श्री दामोदर गोविंदाचार्य
सं
F
सं
सं
सं
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. जिनविजयजी म.सा.
शुभ.
सं
सं/ हिं
सं.
सं.
सं/हिं
सं/हिं
शुभ.
पू. पूण्यविजयजी म.सा.
| श्री धर्म
श्री धर्मदत्त
पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
पू. चतुरविजयजी म.सा.
श्री मोहनलाल बांठिया
श्री अंबालाल प्रेमचंद
श्री वामाचरण भट्टाचार्य
श्री भगवानदास जैन
श्री भगवानदास जैन
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी
પૃષ્ઠ
296
160
164
202
48
306
322
668
516
268
456
420
638
192
428
406
308
128
532
376
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
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शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05.
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार
क्रम
विषय
संपादक/प्रकाशक
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। पुस्तक नाम 154 उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य 155 | उणादि गण विवृत्ति
कर्त्ता / संपादक पू. हेमचंद्राचार्य
पू. हेमचंद्राचार्य
156 प्राकृत प्रकाश-सटीक
157 द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति
158 आरम्भसिध्धि सटीक
159 खंडहरो का वैभव
160 बालभारत
161 गिरनार माहात्म्य
162 | गिरनार गल्प
163 प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
164 भारतिय संपादन शास्त्र
165 विभक्त्यर्थ निर्णय
166 व्योम वती - १
167 व्योम वती - २ 168 जैन न्यायखंड खाद्यम् 169 हरितकाव्यादि निघंटू 170 योग चिंतामणि- सटीक 171 वसंतराज शकुनम् 172 महाविद्या विडंबना 173 ज्योतिर्निबन्ध 174 मेघमाला विचार 175 मुहूर्त चिंतामणि- सटीक
176 | मानसोल्लास सटीक - १ 177 मानसोल्लास सटीक - २ 178 ज्योतिष सार प्राकृत
179 मुहूर्त संग्रह
180 हिन्दु एस्ट्रोलोजी
भामाह
ठक्कर फेरू
पू. उदयप्रभदेवसूरिजी
पू. कान्तीसागरजी
पू. अमरचंद्रसूरिजी दौलतचंद परषोत्तमदास
पू. ललितविजयजी
पू. क्षमाकल्याणविजयजी
मूलराज जैन
गिरिधर झा
शिवाचार्य
शिवाचार्य
संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं. ५
- -
यशोविजयजी
व्याकरण
व्याकरण
व्याकरण
धातु
ज्योतीष
शील्प
प्रकरण
साहित्य
न्याय
न्याय
न्याय
उपा.
न्याय
भाव मिश्र
आयुर्वेद
पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
आयुर्वेद
ज्योतिष
पू. भानुचन्द्र गणि टीका
ज्योतिष
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका शिवराज
ज्योतिष
ज्योतिष
पू. विजयप्रभसूरी रामकृत प्रमिताक्षय टीका
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भुलाकमल्ल सोमेश्वर
ज्योतिष
भगवानदास जैन
ज्योतिष
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास ज्योतिष
काव्य
तीर्थ
तीर्थ
भाषा
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत / गुजराती
संस्कृत/ गुजराती
हिन्दी
हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत/हिन्दी
संस्कृत / हिन्दी
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत/ गुजराती
संस्कृत
संस्कृत
संस्कृत
प्राकृत / हिन्दी
गुजराती
गुजराती
जोहन क्रिष्टे
पू. मनोहरविजयजी
जय कृष्णदास गुप्ता
भंवरलाल नाहटा
पू. जितेन्द्रविजयजी
भारतीय ज्ञानपीठ
पं. शीवदत्त
जैन पत्र
हंसकविजय फ्री लायब्रेरी
साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी
जैन विद्याभवन, लाहोर
चौखम्बा प्रकाशन
संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय
बद्रीनाथ शुक्ल
शीव शर्मा
लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस
खेमराज कृष्णदास सेन्ट्रल लायब्रेरी
आनंद आश्रम
मेघजी हीरजी
अनूप मिश्र
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट
भगवानदास जैन
शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी पिताम्बरदास टी. महेता
पृष्ठ
304
122
208
70
310
462
512
264
144
256
75
488
226
365
190
480
352
596
250
391
114
238
166
368
88
356
168
Page #9
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________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
| विषय
पहा
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत
| भाषा संस्कृत
181
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३
संस्कृत संस्कृत संस्कृत
330
संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
248
पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
संस्कृत संस्कृत /हिन्दी
504
185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी
448
440
616
| श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
190
संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती
| श्री सारंगदेव
632
नारद
84
191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक
192
श्री हीरालाल कापडीया
मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला ।
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
संस्कृत हिन्दी
194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५
446
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
| 414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
409
199 | अध्यात्मसार सटीक
476
एच. डी. वेलनकर
संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया
444
श्री डी. एस शाह
146
Page #10
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________________
श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
Page #11
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________________
श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं. ४६.
श्रीरत्नप्रभसूरीश्वर पादपद्मभ्यो नमः
शीघ्रबोध जाग १९ वाँ.
लेखक
मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज.
-
द्रव्य सहायक
शाह हजारीमलजी कुँवरलालजी पारख. मु. लोहावट ( मारवाड़ )
वीर सं. २४५९
प्रकाशक
श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला. सु. फलोदी ( मारवाड़ )
सवाल सं. २३८९
द्वितीयावृति
वि. सं. १९८९.
DO==09==QQ==00=00
Page #12
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Page #13
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श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं. ४६.
श्रीरत्नप्रभसूरीश्वरपादपद्मभ्यो नमः
शीघ्रबोध नाग ११ वाँ.
-
-
लेखक, मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज,
卐=))-ॐॐॐasyaना
द्रव्यसहायक, शाह हजारीमलजी कँवरलालजी पारख.
मु. लोहावट ( मारवाड़)
Layayaya445calis
प्रकाशक, श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला.
मु. फलोदी ( मारवाद).
वीर सं. २४५९
वि. सं. १९८९.
श्रोसवाल सं. २३८९
ANGOpen
॥ द्वितीयावृति
मूल्य चार आना.
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Page #14
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मुद्रक :शेठ देवचंद दामजी आनंद प्रेस-भावनगर.
-
-
प्राचीन ऐतिहासिक सस्ती पुस्तकें.
जैन जाति महोदय-प्रथम खण्ड ( सचित्र ) जैन धर्म व जैन जातियोंका सच्चा इतिहास बडे ही सोधखोजसे लिख गया है पृष्ट संख्या १०५० चित्र ४३ रेशमी पकी जिल्द हानेपर भी किंमत केवल रु. ४)
समरसिंह-यह एक ऐतिहासिक घटनाएसे परिपूर्ण तीलंग देशका मलिक और श्री शत्रुजय तीर्थका पंद्रहवा उद्धारक जैन शासनमें यशस्वी उज्वल रत्न वीरवर समरसिंह के साथ ढाईहजार वर्षों की ऐतिहासिक बातोंका खजाना सचित्र ग्रन्थ हैं. पृष्ट ३०० चित्र १० किंमत ११) सजिल्द १॥
पुस्तक मिलनेका पत्ताश्रीरत्नप्रभाकर ज्ञान
पुष्पमाला. मु. फलोदी (मारवाड)
Page #15
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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान - पुष्पमाला पु० नं० ४६ श्री रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः शीघ्रबोध भाग ११ वां
थोकडा नं० १३३
श्री पन्नवणा सूत्र पद २ स्थानपद
चौवीस दंडक के जीव कौनसे स्थानमें, कितने क्षेत्रमें और कहांसे आर्के उत्पन्न होते हैं व समुद्घात कितने क्षेत्र में करते हैं यह सब इस थोकड़ेद्वारा समजाये जायेंगे ।
(१) बादर पृथ्वीकाय के पर्याप्ता जीवों के स्थान कहां ११ सातों नारक के पृथ्वीपिंड और ईसीपभारापृथ्वी, अधोलोकमें पातालकलशा, भुवनपतिदेव के भवन ( रत्नमय हैं ), नारकीके नरकावास कुंभी आदि ( पृथ्वीमय है ) उर्ध्वलोक में विमान, विमानका पृथ्वीपिंड और देवताओंके शयनासनादि जितने रत्नोंके पदार्थ हैं वे सब पृथ्वीकायके उत्पन्न होनेका स्थान हैं. तिरछेलोकमें पर्वत, कूट, शिखर, प्रासाद, विजय, बक्खारापर्वत, भरतादि क्षेत्र और वेदिकादि साश्वत पदार्थ में पृथ्वीकाय के जीव उत्पन्न होते हैं जिनके तीन भेद हैं।
(१) उत्पन्न - लोकके असंख्यात में भागसे आके उत्पन्न होते हैं।
(२) स्थान - उत्पन्न होनेका स्थान भी लौकके असंख्यात भाग है।
Page #16
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________________
( २ )
(३) समुद्घात भी लोकके असंख्यातवे भाग हैं ।
(२) बादर पृथ्वी काय के अपर्याप्ता के स्थान कहां है ? जहां बादर पृथ्वी काय के पर्याप्ताका स्थान हैं वहीं बादरपृथ्वीकायके अपर्याप्ताका भी स्थान हैं परन्तु उत्पात, समुद्घात सत्र लौक में हैं। क्योंकी सूक्ष्मजीव सर्वलोक व्यापी हैं और वे जीव मरके पृथ्वी कायमें आ शकते हैं। इसलिये अपर्याप्त अवस्था में सर्व लो कहा पर स्थान लोक के असंख्यात में भाग है ।
(३) सूक्ष्मपृथ्वी काय के पर्याप्ता अपर्याप्ता सब एक ही प्रका रके हैं । कारण ये दोनों प्रकारके जीव लोकव्यापी हैं। इसलिये इनका उत्पात, स्थान, और समुद्धात सर्वलोक में हैं ।
9
(४) बादरप्पकायके स्थान कहां हैं? सातों घणोदधि, सातों घणोदधिके बलीया, अधोलोकके पातालकल में, भुवनपति के भवनों में, भवन के विस्तार में, उर्ध्वलोक वैमानमें, वैमानके विस्तार में, तिरछालोक में तालाब, कुत्रा, नदी, द्रह, वापी, पुष्करणी आदि द्वीप, समुद्र जहां जलके स्थान है वहां बादर. काय उत्पन्न होती हैं। उत्पात, स्थान और समुद्घात तीनों, लोकके असं० भाग हैं ।
(९) बादर अप्पकाय के अपर्याप्ता का स्थान कहां है ? जहां पर बादराय के पर्याप्ता है वहां अपर्याप्ता भी हैं। उत्पात, समुद्वात सर्वलोक में हैं और स्थान लोकके असं भागमें है । पृथ्वी कायवत् |
(६) सूक्ष्म पकाय पर्याप्ताऽपर्याप्ता तीनों सर्व लोक में हैं। (७) वादरते उकाय पर्याप्ता के स्थान कहां है ? .
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भदाईद्वीप और दो समुद्रोमें तथा निर्याघातापेक्षा पंद्रह कर्मभूमिमें और व्याघातापेक्षा पांचो महाविदेहमें बादरतेउकायके स्थान हैं, उत्पात, समुद्घात और स्थान तीनों, लोकके असंख्यातमें भाग हैं.
(८) बादरतेउकाय के अपर्याप्ताका स्थान कहां है ? जहां पर बादरतेउकायके पर्याप्ताका स्थान है वहीं अपर्याप्ताका भी स्थान है । उत्पात लोकके असंख्यातमैं भाग “ दोसु उद्दु कवाडेसु तिरिय लोयंतढेव " अर्थात् उर्व १८०० योजन, तिरछा ४५ लक्ष योजनका कपाट तिरछालोकके अन्त तक याने स्वयंभूरमण समुद्र के बाहरी वेदिका तकके जीव आके मनुष्यलोकके तेउकायपने उत्पन्न होते हैं। समुद्घात सर्व लोकमें स्थान लोकके असंख्यातमें भाग ।।
(९) सूक्ष्मतेउकायके तीनों बोल सर्व लोकमें पृथ्वीकायवत्.
(१०) बादरवायुकाय पर्याप्ताके स्थान कहाँ हैं ? सात धनवायु, सात तनवायु, धनवायु तनवायुके बलीयोमें अधोलोकके, पातालकलशा, भवनपतिके भवनों में, भवनके विस्तारमें, भवनके छिद्र में, नरक और नरकके विस्तारमें । उर्वलोक वैमान में, वैमान के विस्तारमें, मानके छिद्रौ । तिरछालोक-पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण दिशा, विदिशामें, सर्व लोक काशके छिद्रमें यानि सर्व लोककी पोलारमें वायुकायका स्थान हैं । उत्पन्न और समुद्घात लोकके घने असंख्यात भागमें हैं। . . (११) बादरबायुकाय के अपर्याप्ताका स्थान कहां है ? जहां बादरवायुकायका पर्याप्ता है वहां अपर्याप्ता भी हैं। उत्पात समुद्घात सर्व लोकमें, स्थान लोकके घणे असंख्यावमें भाग है।
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(१२) सूक्ष्मवायुकाय के पर्याप्ता अपर्याप्ता पृथ्वीकायवत् ।
(१३) बादरवनस्पतिकाय के पर्याप्ता स्थान कहां है ? जहां पर जल है उन सब स्थानोंमें वनस्पतिकाय हैं। जल में वनस्पति कायकी नियमा हैं। उस्पात; समुद्घात सर्व लोकमें, स्थान खोकके असंख्यातमें भाग है।
(१४) बादरवनस्पतिकाय के अपर्याप्ताका स्थान कहां हैं ! जहां पर्याप्ता वहां अपर्याप्ता भी है। उत्पात, समुद्घात, सर्व मोकमें, स्थान लोकके असंख्यातमें भाग हैं।
(१५) सूक्ष्मवनस्पतिकाय के पर्याप्ता अपर्याप्ता सर्व लोकव्यापी हैं। यावत् पृथ्वीकायवत् समझना।
(१६) बेरिन्द्री, तेरिन्द्री, चौरिन्द्री और तीर्यच पंचेन्द्री के पर्याप्ता अपर्याप्ताका स्थान जहां जल हैं वहां इनकी नियमा है परन्तु उर्ध्वलोक मेरुपर्वतकी वापी तक और अधोलोक सलीला. वतिविजय तक बेरिन्द्री आदि जीवोंके स्थान है। उर्वलोकमें देवलोकोकी वापियो आदिमें बेरिन्दी आदि जीव नहीं हैं।
(१७) मनुष्य पर्याप्ता अपर्याप्ताके स्थान कहां है ? अढाई. द्वीपमें पन्द्रह कर्मभूमि, तीस अकर्मभूमि, छपन्न अन्तरद्वीपोंमें मनुष्य उत्पन्न होते हैं । उत्पात, समुद्घात और स्थान लोकके असंख्यातमें भाग हैं।
(१८) नारकी पर्याप्ता अपर्याप्ताके स्थान कहां है ? सार्वो नरकके ८४ लक्ष नरकावासमें नारकी उत्पन्न होते हैं। उत्पात, समुद्घात, स्थान, लोकके असंख्यातमें भाग हैं।
(१९) देवताओं के पर्याप्ता अपर्याप्ताका स्थान कहां
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है ? भुवनपतिदेवता=अधोलोक के रत्नप्रभानारकी के आन्तरोंमें ७७२००००० भवनों में। वाणव्यंतरोंके असंख्यात नगर तिरछेलोकमें हैं । और ज्योतिषीयोंके भी असंख्याते विमान तिरछा लोकमें हैं वे उनके स्थान हैं । वैमानिक देवता उर्वलोकमें उत्पन्न होते हैं, उनके ८४६७०२३ विमान हैं। इन्हीं स्थानोमें देवता उत्पन्न होते हैं । उत्पात, समुद्घात, स्थान, लोकके असंख्यातमें भाग हैं। देवता नारकीके स्थान और परिवारका वर्णन सविस्तार देखो भाग १३ वां
(२०) सिद्धभगवानका स्थान कहां हैं ? चौदह राजलोकके अग्रभाग अर्थात् सिद्धशिलाके ऊपर एक योजनके २४ में भाग यनि ३३३ धनुष्य ३२ अंगुल प्रमाण क्षेत्र हैं ! वहां शाश्वत अबाधित सुख में सिद्ध भगवान विराजते हैं । इति ।
- यंत्र मागणा उत्पन्न समुद्घात | संस्थान पांच सूक्ष्म स्थावर प. अ. सर्वलोक सर्वलोक । सर्वलोक बादर पृथ्वी पाणी वना. अप. सर्वलोक सर्वलोक लो. प. मा. , तेउकाय अपर्याप्ता ती_लोक सर्वलोक मनुष्यलोक ,, वायुकायके ,, सर्वलोक। सर्वलोक लो.म.भा. ,, तेउकायके पर्याप्ता लोक० असं. लोक.असं. मनु. लोकमें , वायुकायके ,, लोकके घणा लोककेघणा लोकके घणा
असं. भाग असं०भाग असं. भाग, , पृथ्वी पाणी पर्या० लोक० असं लोक.असं लोक. असं ..,, वनस्पति पर्या० सर्वलोकमें सर्वलोकमे लाक. असं. शेष १९ दंडकके जीवोंके लोक. असं.लोक. असं.लोक. असं.
सेवभंते सेवंभंते तमेवसचम् ।
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थोकडा नं. १३४ श्री पन्नवणा सूत्र पद ३ । इन्द्रियों की अल्पाधिक।
(१) (१) सबसे स्तोक पंचेन्द्रिय (२) चौरिन्द्रिय विशेषा. धिक (३) तेरिन्द्रिय वि० (४) बेरिन्द्रिय वि० (५) अनेन्द्रिय अनंतगुणा (६) एकेन्द्रिय अनंत गु० (७) सइन्द्रिय वि० ।
(२) (१) सबसे स्तोक पंचेन्द्रिय अपर्याप्ता (२) चौरिन्द्रिय अप० वि० (३) तेरिन्द्रिय अप० वि० (४) बेरिन्द्रिय अप०वि० (५) एकेन्द्रिय अप० अनन्त गु० (६) सइन्द्रिय अप० वि०
(३) (१) चौरिन्द्रिय पर्याप्ता सबसे स्तोक (२) पंचेन्द्रिय ५० वि० (४) तेरिन्द्रिय पर्या० वि० (४) बेरिन्द्रिय पर्या० वि० (५) एकेन्द्रिय पर्या० अनं० गु० (६) सइन्द्रि पर्या० वि० - (४) (१) सइन्द्रिय अपर्याप्ता सबसे स्तोक (२) सइन्दिय पर्याप्ता संख्यात् गु०
(५) (१) बेरिन्द्रिय पर्याप्ता सबसे स्तोक (२) बेरिन्द्रिय अपर्याप्ता असं० गु० एवं तेरिन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय को भी समझ लेना।
(६) (१) चौरिन्द्रिय पर्या० स्तोक (२) पंचेन्द्रियपर्या वि० (३) बेरिन्द्रिय पर्य० वि० (४) तेरिन्द्रि पर्या० वि० (५) पंचेन्द्रि अप० असं० गु० (६) चौरिन्द्रि अप० वि० (७) तेरिन्द्रि अप० वि० (८) बेरिन्द्रि अप० वि० (९) एकेन्द्रि अप०अनं० गु० (१०) सइन्द्रि अप० वि० (११) एकेन्द्रि पर्य. सं० गु० (१२) सइन्द्रि पर्या० वि० (१३) सइन्द्रिय वि०
सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ।
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(७ ) 'थोकडा नं. १३५ श्री पनवणा सूत्र पद ३, छे कायकी अल्प (१) (१) त्रसकाय सबसे स्तोक (२) तेउकाय असं० गु० (३) पृथ्वी काय वि० (४) अप्पकाय वि० (५) वायुकाय वि० (६) अकाय अनं० गु० (७) वनस्पति अनं० गु० (८) सकाय वि०
(२) (१) त्रसकायश्चपर्याप्ता सबसेस्तोक (२) तेउकाय अप० असं० गु० (३) पृथ्वीकाय अप० वि० (४) अप्पकाय अप० वि० (५) वायुकाय अप० वि० (६) वनस्पतिकाय अप० अनं० गुणा (७) सकाय अप० वि०
(३) (१) त्रसकाय पर्याप्ता सबसे स्तोक (२) नेउकाय पर्या० असं० (३) पृथ्वीकाय पर्या० वि० (४) अप्पकाय पर्या० वि० (५) वायुकाय पर्या० वि० (६) वनस्पतिकाय पर्या. भनं० (७) सकाय पर्या० वि०
(४) (१). सकाय अपर्याप्ता सबसे स्तोक (२) सकाय पर्याप्ता संख्यातगुणा एवं पृथ्वी, अप्प, तेज, वाऊ, वनस्पति भी कहना।
(५) (१) सबसे स्तोक त्रसकाय पर्याप्ता (२) त्रसकाय अपर्याप्ता असं० गु०
(६) (१) सबसेस्तोक त्रसकाय पर्याप्ता (२) त्रसकाय अपर्या० सं० गु० (३) तेऊकाय अपर्या० असं० गु० (४) पृथ्वीकाय. अपर्या० वि० (५) अपकाय अपर्या० वि० (६) पायुकाय अपर्या० वि० (७) तेऊकाय पर्या० सं० गु० (८) पृथ्वी
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काय पर्याप्ता वि० (९) अप्पकाय पर्या० वि० (१०) वायुकाय पर्याय० वि० (११) वनस्पतिकाय अपर्या० अनं० गु० (१२) सकाय अपर्या० वि० (१३) वनस्पतिकाय पर्या० सं० गु. (१४) सकाय पर्या० वि० (१५) सकाय वि० । .
(७) (१) सबसेस्त्रोक सूक्ष्म तेउकाय (२) सूक्ष्म पृथ्वीकार वि० (३) सूक्ष्म अप्पकाय वि० (४) सूक्ष्म वायुकाय वि० (६) सूक्ष्म निगोद असं० गु० (६) सूक्ष्म वनस्पतिकाय अनं० (५)
सूक्ष्म वि.
(८) (१) सबसे स्तोक सूक्ष्म सेऊकाय अपर्या० (२) सूक्ष्म पृथ्वीकाय अपर्या० वि० (३) सूक्ष्म अपकाय अपर्या०वि० (४) सूक्ष्म वायुकाय अपर्या० वि० (५) सूक्ष्म निगोद अपर्या. असं गु० (६) सूक्ष्म वनस्पति अपर्या० अनं० गु० (७) सूक्ष्म अपर्याप्त वि०
[१४] (१) सबसे स्तोक सूक्ष्मतेऊकायका पर्या० (२) सूक्ष्मपृथ्वीकाय पर्या० वि० (३) सूक्ष्मअप्पकाय पर्या. वि. (४) सूहमवायुकाय पर्या० वि० (५) सूक्ष्मनिगोद पर्या० असं० गु० (६) सूक्ष्मवनस्पतिकाय पर्या० अनं० गु० (७) समुचर सूक्ष्म पर्या० वि०
[१५] (१) सबसे स्तोक सूक्ष्म अपर्याप्ता (२) सूक्ष्म पर्याप्ता सं० गु० एवं पृथ्वी, अप्प, तेज, वायु, वनस्पति और निगोद भी कहना।
[१६] (१) सबसे स्तोक, सूक्ष्मतेऊकाय अपर्याप्ता (२) सूक्ष्म पृथ्वीकाय अपर्या० वि० (३) सूक्ष्मभप्प काय प.
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(९) पर्या०वि० (४) सूक्ष्मवायुकाय अपर्या० वि० (५) सूक्ष्मतेऊकाय पर्या० सं० गु० (६) सूक्ष्मपृथ्वीकाय पर्या० वि० (७) सूक्ष्मअप्पकाय पर्या० वि० (८) सूक्ष्मवायुकाय पर्या० वि० () सूक्ष्मनिगोद अपर्या० असं० गु० (१०) सूक्ष्मनिगोद पर्या० सं० गु० (११) सुक्ष्मवनस्पतिकाय अपर्या० अनं० गु० (१२) सूक्ष्म समुचय अपर्या० वि० (१३) सूक्ष्मवनस्पतिकाय पर्या० सं० गु० (१४) समुचयसूक्ष्म पर्या० वि० (१५) समुचयसूक्ष्म वि०
[१७] (१) सबसे स्तोक, बादर सकाय (२) बादरसेऊकाय असं० गु० (३) बादरप्रत्येक. शरीर वनस्पतिकाय असं० गु० (४) बादर निगोद असं० गु० (५) बादर पृथ्वीकाय पसं० गु० (६). बादर अप्पकाय असं० गु० (७) बादर वायुकाय पसं० गु० (८) बादर वनस्पतिकाय अनं० गु० (६) बादर समुपय वि०
[१८] (१) सबसे स्तोक, बादरत्रसकाय अपर्या० (२) बादर तेऊकाय अपर्या० असं० गु० (३) बादर प्रत्येक शरीर बमस्पतिकाय अपर्या० असं० गु० (४) बादरनिगोद अपर्या० नसं० (५) बादर पृथ्वीकाय अपर्या० असं० गु० (६) बादरअप्पकाय अपर्या० असं० गु० (७) बादर वायुकाय अपर्या० असं. गु० (८) बादर वनस्पतिकाय अपर्या० अनं० गु० (९) बादर समुचय अपर्या० वि० . [१९] (१) सबसे स्तोक, बादरतेऊकाय पर्या० (२) बादर प्रसकाय पर्या० भसं० गु० (३) बादर प्रत्येक शरीर
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(१०) वनस्पतिकाय पर्या० असं० गु० (४) बादर निगोद पर्या० असं० गु० (५) बादर पृथ्वीकाय पर्या० असं ० गु० (६) बादर अप्पकाय पर्या० असं० गु० (७) बादर वायुकाय पर्या० असं. गु० (८) बादर वनस्पतिकाय पर्या० अनं० गु० (९) बादर पर्याप्ता वि०
[२०] (१) सबसे स्तोक, बादरपर्याप्ता (२) बादर अं. पर्याप्ता असं० गु० एवं पृथ्वी, अप्प, तेऊ, वाऊ, प्रत्येक शरीर वनस्पति और बादर निगोद भी कहना ।
[२१] (१) सबसे स्तोक बादर त्रसकाय पर्याप्ता (२) बादर त्रसकाय अपर्या० असं० गु०
[२२] (१) सबसे स्तोक बादर तेऊकाय पर्या० (२) बादर त्रसकाय पर्या० असं० गु० (३) बादर त्रसकाय अपर्या असं० गु० (४) बादर प्रत्येक शरीर वनस्पतिकाय पा० असं० गु० (५) बादर निगोद पर्या० असं० गु० (६) बादर पृथ्वीकाय पर्या. असं गु० (७) बादर अप्पकाय पर्या० असं० गु० (८) बादर वायुकाय पर्या० सं० (९) बादर तेङकाय अपर्या० असं० गु० (१०) बादर प्रत्येक शरीर वन काय अपर्या० असं० गु० (११) बादर निगोद अपर्या० असं० गु० (१२) बादर पृथ्वीकाय अपर्या० असं० गु० (१३) बादर अप्पकाय अपर्या० असं० गु० (१४) बादर वायुकाय अपर्या० असं० गु० (१५) बादर वनस्पतिकाय पर्या० अनं० गु० (१६) बादर पर्या० वि० (१७) बादर वन
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स्पतिकाय, अपर्या० असं० गु० (१८) बादर अपर्या वि० (१९) समुचय बादर वि०
[२३] (१) सबसे स्तोक बादर त्रसकाय (२) बादर तेऊकाय असं० गु० (२) बादर प्रत्येक शरीर वन० काय असं. गु० (४) बादर निगोद असं० गु० (५) बादर पृथ्वीकाय असं० गु० (६) बादर अप्पकाय असं० गु० (७) बादर वायुकाय असं० गु० (८) सूक्ष्म तेऊकाय असं० गु० (६) सूक्ष्म पृथ्वीकाय वि० (१०) सूक्ष्म अप्पकाय वि० (११) सूक्ष्म वायुकाय वि० (१२) सूक्ष्मनिगोद असं० गु० (१३) बादर वन० काय अनं० गु० (१४) बादर वि० (१५) सूक्ष्म वन. काय असं० गु० (१६) सूक्ष्म वि.
[२४] (१) बादर त्रसकाय अपर्या० सबसे स्तोक (२) बादर तेऊकाय अपर्या० असं० गु० (३) बादर प्रत्ये० वन० अपर्या० असं० गु०. (४) बादर निगोद अपर्या० असं० गु० (५) बादर पृथ्वी० अपर्या० असं० गु० (६) बादर अप्प० अपर्या० असं० गु० (७) बादर वायु० अपर्या० असं० गु० (८) सूक्ष्म तेऊ. अपर्या० असं० गु० (९) सूक्ष्म पृथ्वी० अपर्या० वि० (१०) सूक्ष्म अप्पकाय अपर्या० वि० (११) सूक्ष्म वायु० अपर्या० वि० (१२) सूक्ष्म निगोद अपर्या० असं० गु० (१३) बादर वन• अपर्या० अनं० गु० (११) बादर अपर्या० वि० (१५) सूक्ष्म वन अपर्या० अनं० गु० (१६) सूक्ष्म अपर्या० वि०
[२५] (१) सबसे स्तोक बादर तेऊ० पर्या० (२) बादर
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( १२ ) त्रसकाय पर्या० असं० गु० (३) बादर प्रत्ये० वन० पर्यो असं गु० (४) बादर निगोद पर्या. असं० गु० (५) बादर पृथ्वी पर्या० सं० गु० (६) बादर अप्प० पर्या० असं० गु० (७) बादर वायु० पर्या० असं० गु० (८) सूक्ष्म तेऊ० पर्या० असं. गु० (९) सूक्ष्म पृथ्वी० पर्या० विशे० (१०) सूक्ष्म ० अप्पा पर्या० विशेषः (११) सूक्ष्मवायु० विशेषः (१२) सूक्ष्म निगोप पर्या० असं० गु० (१३) बादर वन० पर्या० अनं० गु० (१४) बादर पर्या० वि० (१५) सूक्ष्म वन० पर्या० असं० गु० (१६) सूक्ष्मपर्या० वि०
[२६] (१) सबसे स्तोक बादर पर्या० (२) बादर अपर्या० असं० गु० (३) सूक्ष्म अपर्या० असं• गु० (४) सूक्ष्म पर्या० सं० गु० एवं पृथ्वी० अप्प० तेऊ० वायु० वन० और निगोद भी कहना।
[२७] सबसे स्तोक बादर त्रसकाय पर्या० (२) बादर त्रसकाय अपर्या० असं० गु०
[२८] (१) सबसे स्तोक बादर तेऊ० पर्या० (२) बादर वसकाय पर्या० असं० गु० (३) बादर त्रसकाय अपर्या० असं० गु० (४) बादर प्रत्ये० वन० पर्या० असं० गु० (६) बादर निगोद पर्या० असं० गु० (६) बादर पृथ्वी० पर्या० असं० गु० (७) बादर अप्प० पर्या० असं ० गु० (८) बादर वायुकाय पर्या. असं० गु० (९) बादर तेऊकाय अपर्या० असं० गु० (१०) बादर प्रत्ये. वन० अपर्या० असं० गु० (११) बादर निगोद अपर्या० असं० गु० (१२) बादर पृथ्वी. अपर्या.
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असं० गु० (१३) बादर अप्प० अपर्या० असं० गु० (१४) पादर वायु० अपर्या० असं० गु० (१५) सूक्ष्म० तेऊ० पपर्या. बसं० गु० (१६) सूक्ष्म पृथ्वी० अपर्या० वि० (१७) सूक्ष्मअप्प. अपर्या० वि० (१८) सूक्ष्म वायु० अपर्या० वि० (१९) सूक्ष्म तेऊ० पर्या० सं० गु० (२०) सूक्ष्म पृथ्वी० पर्या० वि० (२१) सूक्ष्म अप्प० पर्या० वि० (२२) सूक्ष्म वायु० पर्या. वि० (२३) सूक्ष्म निगोद अपर्या० असं० गु० (२४) सूक्ष्म निगोद पर्या० सं० गु० (२५) बादर वन० पर्या० अनं० गु० (२६) बादर पर्या०वि० (२७) बादर वन० अपर्या० असं० गु० (२८) बादर अपर्या० वि० (२९) बादर वि० (३०) सूक्ष्म बन० अपर्या० सं० गु० (३१) सूक्ष्म अपर्या० वि० (३२) सूक्ष्म वन० पर्या० सं० (३३) सूक्ष्म पर्या० वि० (३४) सूक्ष्म वि०
[२९] (१) जीव स्तोक (२) पुद्गल अनं० गु० (३) काल अनं० गु० (४) सर्व द्रव्य वि० (५) सर्व प्रदेश अनं० गु० (६) सर्व पर्याय अनं० गु०
सेभंते सेवभंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं० १३६ - श्री पनवणा सूत्र पद ३, खेताणु वाई ।
लौक तीन प्रकारका है तद्यपि यहां पर लौकके छ विभाग बनाके व्याख्या करते हैं । यथा--
(१) उर्वलोक-ज्योतिषियोंके ऊपर तलेसे लोकान्त तक .सु लोक माना जाता हैं जिसमें बारह देवलोक, कल्बिषिक
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( १४ ) तीन, लोकांतिक नव, अवेयक नव, पंचाणुत्तर विमान और मेरो वापी अपेक्षा तिर्यंच भी मिलते हैं। तिर्यचके १८ भेद है जिसमें बादर तेऊकायके पर्याप्ता अपर्याप्ता वर्जके ४६ मेरे मिलते हैं अर्थात् देवताओंके ७६ और तिर्थचके ४६ मिलके १२२ भेद जीवके हैं।
(२) अधोलोक मेरूपर्वतकी समभूमिसे ९०० योजन नीचे जावे वहां तक तिरछालोक है , उसके नीचे अधोलोक हैं जिसमें ७ नारकी १० भवनपति १५ परमाधामि और सलि. लावती विजया अपेक्षा मनुष्य और तिथंच भी मिलते हैं अर्थात अधोलोकमें १४ नारकी ५० देवता ३ मनुष्य ४८ तिर्यच सर्व ११५ भेद जीवोंके मिलते हैं।
(३) ति लोक-मेरूपर्वतकी समभूमिसे ९०० योजन उर्ध्वलोक अर्थात् ज्योतिषियोंके ऊपरके तले तक और समभूमि से नीचे ९०० योजन एवं १८०० योजन जाडपनेमें तिळलौक हैं जिसमें तिथंचके ४८ मनुष्यके ३०३ देवताधोंके ७२ सर्व मिलके ४२३ भेद जीवोंके मिलते हैं।
(४) उर्ध्वलोक, ति लोक ज्योतिषीयोंके ऊपरके तलेका एक प्रदेशके प्रतर और उर्ध्वलोकके नीचेका एक प्रदेशी प्रतर, इन्ही दोनों प्रतरोंको उर्ध्वलोक, तिरछालोक कहते हैं। देवताओं का गमनागमन तथा जीव मरके उर्ध्व लोक या तिरछालोकके अन्दर उत्पन्न हो या गमनागमन करते समय यह दोनों प्रतरोंको स्पर्श करते हैं।
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(१५ ) (५) अधोलोक, तिरछालोक, यह भी जीवोंके गमनागमन के समय दोनों प्रतरोंको स्पर्श करते हैं।
(६) तीनलोक उर्धलोक अधोलोक और तिरछालोक इन्हीं तीनों लोकका एक ही साथमें स्पर्श करे देवता देवीके आनेजानेके अपेक्षा या जीव मरणांतिक समुद्घात करते वख्त तीनों लोकका स्पर्श कर सक्ते हैं।
अब २४ दंडकके जीव ऊपरोक्त छनों लोकमें कौनसा जीव किस जोकमें न्यूनाधिक हैं वह अल्पाबहुत द्वारा बतलावेंगे । (१) समुचय एकेन्द्रिय और पांच स्थावर एवं ६ इन्हीं ६
बोलोंके पर्याप्ता और अपर्याप्ता करनेसे १ ८ बोल तथा समुचय जीव १९ और समुचय तिर्यच एवं २० बोलोंकी अल्पाबहुत । (१) सबसे स्तोक उर्वलोक तिरछालोकमें (२) अधोलोक तिरछालोकमें विशेषाधिक (३) तिरछालोकमें असंख्यात गुणाधिक
(४) तीनोलोकमें असंख्यात गुणा ,, - (५) उर्ध्वलोकमें असंख्यात गुणा ,
(६) अधोलोकमें विशेषाधिक । (२) समुचय नारकी और (२) पर्याप्ता (३) अपर्याप्ता
एवं ३ बोल . (१) सबसे स्तोक, तीनोंलोकमें (२) अधोलोक, तिरछालोकमें असंख्यात गुणाधिक (३) अधोलोकमें असंख्यात गुणाधिक ,
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(३) भवनपति देवोंके छ बोल का म. (क) समुचय भवनपति (२) भवन० पर्याप्ता (३) मा
अपर्याप्ता एवं तीन बोल देवीके । कूल ६ बोल । (१) स्तोक उर्वलोकमें (२) उर्ध्वलोक तिरछालोकमें असंख्यात गुणा (३) तीनों लोकमें संख्यात गुणा (४) अधोलोक तिरछालोकमें असंख्यात गुणा (५) तिरछालोकमें असंख्यात गुणा
(६) अधोलोकमें भसंख्यात गुणा (४) विवंचणी (१) समुचयदेव (२) समुचयदेवी (३)
पंचेन्द्रिका पर्याप्ता ४ एवं चार बोलोंकी अल्पा० (१) स्तोक उर्ध्वलोकमें (२) उर्ध्वलोक तिरबालोकमें असंख्यात गुणा (३) तीनों लोकमें संख्यात गुणा (४) अधोलोक तिरछालोको संख्यात गुणा (५) अधोलोको संख्यात गुणा (६) तिरछालोक तीनबोल संख्यातगुणा पंचेन्द्रिय के पर्याप्ता
___ असंख्यातगुणा (५) समुचय मनुष्य (१) पर्याप्ता (२) अपर्याप्ता (३) एवं
मनुष्यणीके तीन बोल कूल ६ बोलोंकी अल्पा (१) स्तोक तीनों लोकमें (२) उर्ध्वलोक, तिरछालोकमें, मनुष्य असं० गु० पर
मनुष्यणी संख्या गु.
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( १७ )
(३) अधोलोक तिरछालोक में संख्यात गुणा (४) उर्ध्वलोक में संख्यात गुणा
(५) अधोलोक में सं० गु० ( ६ ) तिरछालोक में सं०
(६) व्यंतरदेव के तीन, देवीके तीन एवं ६ बोल
(१) स्तोक उर्ध्वलोक में
(२) उर्ध्वलोक, तिरछालोक में असंख्यात गुणा (३) तीनों लोक में संख्यात गुणा (४) अधोलोक, तिरछालोकमें असंख्यात गुणा (५) अधोलोक में सं० गु० ( ६ ) तिरछालोक में सं० गु०
(७) ज्योतिषी देवों के तीन, देवीके तीन एवं ६ बोल
(१) सर्व स्तोक उर्ध्वलोक में (२) उर्ध्वलोक, तिरछालोक में असं० गु०
(२) तीनों लोक में सं० गु० (४) अधोलोक, तिरछालोक
असं० गु०
(५) अधोलोक सं० गु० ( ६ ) तिरछालोक में असं० गु० (८) वैमानिक देवके तीन, देवीके तीन एवं ६ बोल
(१) स्तोक उर्ध्वलोक, तिरछालोक (२) तीनों लोक में सं० गु० (३) अधोलोक, तिरछा लोक में सं० गु० (४) अधोलोक में सं० गु०
(१) तिरछा लोक में सं० गु० (६) उर्ध्वलोक में असं गु०
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( १८ ) (९) तीन विकलेन्द्रियके (३) पर्याप्ता (३) अपर्याप्ता (१) स्तोक उर्वलोकमें ( २ ) उर्ध्वलोक, तिरछालोकमें
असं० गु० (३) तिरछालोकमें असं० गु० (४) अधोलोक, तिरछालोक
असं० गु० (५) अधोलोक सं० गु० (६) तिरछालोकमें सं० गु० (१०) पांच बोलोकी भल्पा० ।
समुचय पंचेन्द्रिय, पंचन्द्रियके अपर्याप्ता, समुचय त्रसकाय,
त्रसकायके पर्याप्ता, सकायके अपर्याप्ता, एवं ६ बोल (१) स्तोक तीनों लोकमें (२) उर्वलोक, तिरछालोक सं०गुरू (३) अधोलोक, तिरछालोकमें संख्यात गु० (४) उर्ध्वलोकमें संख्यात गु० (५) अधोलोकमें संख्यात गु०
(६) तिरछालोक असं० गु० (११) पुद्गलक्षेत्रापेक्षा
(२) स्तोक तीनों लोकमें (२)उर्वलोक, तिरछालोक अगु० (३) अधोलोक, तिरछालोक विशेषा (४) तिरछालोक
असं० गु० (५) उर्ध्वलोक प्रसं० गु० (६) अधोलोक विशेषा (१२) द्रव्यक्षेत्रापेक्षा
(१) स्तोक तीनों लोकमें (२) उर्ध्वलोक, तिरछालोक अगु० (३) अधोलोक, विरलालोक विशेषा (४) उर्ध्वलोक असं० गु० (१) अधोलोके अनंत गु० (६) तिरछालोकमें संख्यात गु.
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(१९) (१३) पुद्गलदिशापेक्षा
(१) स्तोक उर्ध्व दिशा (२) अधोदिशा विशेषा (३) ईशान नैऋत्य कोण असं० गु० (४) अमि वायव्य
कोण विशेषा (१) पूर्व दिशा असं० गु० (६) पश्चिम दिशा विशेषा
(७) दक्षिण दिशा विशेषा (८) उत्तर दिशा विशेषा (१४) द्रव्यदिशापेक्षा
(१) स्तोक अधोदिशा (२) उर्वदिशा अनंत गुण (३) ईशान नैऋत्य मनंत गुण (४) अमिवायु दिशा विशेषा (५) पूर्व दिशा असं० गु० (६) पश्चिम दिशा विशेषा (७) दक्षिण दिशा विशेषा (८) उत्तर दिशा विशेषा
सेवं मंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं० १३७ श्री पनवणा सूत्र पद ३, जीवोंके २५६ ढिगला (१) सर्वसे स्तोक, जीव आयुष्यकर्म बांधनेवाला है (२) अपर्याप्त। जीव संख्यातगुणा है (३) सूता जीव संख्यातगुणा है। (४) समोहिया जीव संख्यातगुणा है (५) सातवेदनेवाला जीव संख्यावगुणा है (६) इन्द्रिय बहुता जीव संख्यातगुणा है (७) अनाकार उपयोगवाले जीव संख्यातगुणा है (८) साकार उपयोगवाले जीव संख्यातगुणा है
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ढिगला
(९) नोइन्द्रियबहुता जीव विशेषाधिक है (१०) असाता बेदनेकाले मवि विशेषाधिक है (११) असमोहियां जीव विशेषाधिक है (१२) जागृत जीव विशेषाधिक है (१३) पर्याप्ता जीव विशेषाधिक है (१४) आयुष्यकर्म के प्रबन्धक जीव विशेषा
इन्हीं १४ बोलों को ठीक ठीक समझमें भाजाने के लिये शास्त्रकारोंने सर्व जीवोंके २५६ डिगले ( विभाग) कर के बतलाये हैं. (१) आयुष्यकर्म के बांधनेवालोंके (२) आयुष्यकर्मके प्रबंधक
२५५ (३) अपर्याप्ता जीवोंके (४) पर्याप्ता जीवोंके (५) सूता जीवोंके (६) जागता जीवोंके
२५२ (७) समोहिया मरणवालोंके (८) असमोहिया मरणवालोंके २४८ (९) साता वेदनेवालोंके (१०) अशाता वेदनेवालोंके (११) इन्द्रिय बहुता जीवोंके (१२) नोइन्द्रिय बहुता जीवोंके
२२४ (१३) अनाकार उपयोगवाले जीवोंके ६४ (१४) साकार उपयोगवाले जीवोंके ।
से मंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
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( २१ )
थोकडा नं. १३८ श्री पनवणा सूत्र पद ४, स्थितिपद.
नाम.
जघन्यस्थिति. उत्कृष्टस्थिति.
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-
१ समुचय नरक
रत्नप्रभा , शर्कराप्रभा ,,
१०००० वर्ष ३३ सागरोपम १०००० वर्ष १ १ सागरोपम
४/ वालुकाप्रभा,, ५ पंकप्रभा ६ धूमप्रभा , ७ तमःप्रभा , . ८ तमस्तमःप्रभा, ६/ समुचय देवता १०, देवी ११ , भुवनपति
१००
५५ पल्योपम १ सागरोपम
साधिक
, , देवी , दक्षिण का भुवनपति " , देवी उचर का भुवनपति
४॥ पल्योपम १ सागरोपम ४॥ पल्योपम १ सामरोपम
साधिक
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(२२) १६ समुचय उ० भुवन० देवी १०००० वर्ष १७ , असुरकुमार देव
, , देवी चमरेन्द्रि के देव | चमरेन्द्रि की देवी २१ बलेन्द्र के देव
३॥ पल्योपम १ सागरोपम
साधिक । ४॥ पल्योपम १ सागरोपम
॥ पल्योपम १ सागरोपम
साधिक . ३॥ पल्योपम देशोना २,
२२ बलेन्द्र की देवी २३) समुचय नागकुमार देव २४ , ,, देवी
२६ , , देवी
hom, २७ उत्तर ,
॥ २॥ २८/ ,
(७६) एवं सुवर्णादि ८ देवों का ४८ सूत्र होता है। ७७/ समुचय तिर्यच । अन्तरमुहूर्त । ३ पल्योपम ७८ , एकेन्द्रिय ७९ सूक्ष्म एकेन्द्रिय
अन्तरमुहूर्त १० बादर एकेन्द्रिय
, | २२००० वर्ष ८१ समुचय पृथ्वीकाय
, २२००० वर्ष
"
२२००० वर्ष
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(२३) (२) सूक्ष्म पृथ्वीकाय अन्तरमुहूर्त । अन्तरमुहूर्त . | बादर ,
२२००० वर्ष | समुचय भपकाय
७.०० वर्ष सूक्ष्म "
अन्तरमुहूर्त | बादर ,
७००० वर्ष समुचय तेऊकाय
३ दिनकी सूक्ष्म ,
अन्तरमुहूर्त | बादर ,
३ दिनको ९० समुचय वायुकाय
३००० वर्ष
अन्तरमुहूर्त .९२/ बादर ,
३००० वर्ष समुचय वनस्पतिकाय
१०००० वर्ष
अन्तरमुहूर्त ९९ बादर ,
१०००० वर्ष बेंईद्रिय
१२ वर्ष | तेंईद्रिय
४९ दिन .९८ चौरिन्द्रिय
. ६ मास ९९ समुचय तिर्यच पंचेन्द्रिय
३ पल्योपम १०० संज्ञी. , .. १०१ संज्ञी ,
क्रोडपूर्व १०२ समुचय जलचर, ।
सूक्ष्म
,
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क्रोडपूर्व
१०३/ संझी जलचर पंचेन्द्रिय ( अन्तरमुहूर्त । १०४ असंही , १०५ समुचय थलचर
३ पल्योपम १०६ संझी , १०७ असंज्ञी ,,
८४००० वर्ष समुचय खेपर
पल्यो. असं.मा १०६/ संज्ञी ११० असंही ,
७२००० वर्ष १११ समुचय उरपरिसर्प
___ क्रोडपूर्व ११२ संज्ञी , ११३ असंही ,
५३००० वर्ष ११४ समुचय भुजपरिसर्प
क्रोडपूर्व ११५ संशो , ११६ असंत्री ,
१२००० वर्ष ११७ समुचय मनुष्य
३ पल्योपम ११८ संज्ञी , ११६ असंझी ,
अन्तरमुहूर्त व्यंतर देव १०.०० वर्ष १ पल्योपम १२१ ध्यंतर की देवी १०००० वर्ष ॥ पल्योपण १२२ समुघय ज्योतीषी देवपल्योपम १ पल्योपम
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(२५
)
१२५ समुचय ज्योतीषी की देवी
पल्योपम १ पन्योपम
५०००० वर्ष १ पल्योपम
१२४, चंद्र विमान देव
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१२५
,, देवी
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॥ पल्योपम
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१२६ सूर्य विमान देव
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१२७
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| पल्योपम
५०० , १ पल्योपम
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१२८ ग्रह विमान १२९ , , देवी १३० नक्षत्र विमान देव १३१ , , देवी १३२ तारा विमान देव १३३ , , देवी १३४ समुच्य वैमानिक देव १३९ , , देवी १३६ सुधर्म देवलोक १३७, देवी १३८. परिगृहिता १३९ अपरिगृहिता
है
, साधिक
३३ सागरोपम ५५ पल्यापम
२ सागरोपम ५० पन्योपम
७
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( २६ )
१४० ईशान देवलोक
१ पल्योपम । २ सागरोपम साधिक
साति ५५ पल्पोपम
, ५५ . " २ सागरोपम ७ सागरोपम २,, साधिक ७, माधि
१० सागरोपम
७ सागरोपम
महाशुक्र
१४१ , देवी १५२ परिगृहिता १४३ अपरिगृहिता १४४ सनत्कुमार दे० १४५ महेन्द्र देवलोक १४६, ब्रह्म , १४७/ लांतक , १४८ १४९ सहस्र १५० भानत १५१ प्राणत
भारण १९३/ अच्युत १५१ प्रथम अवेयक १५९ दुजी १९६/ तीजी ,
१५७ चोथी ..
१५८ पांचमी , १५९ छट्ठी ,
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________________
( २७ )
१०. सातमी ,, १६१ पाठमी ,, १६२ नवमी , १६३ चार अनुत्तर विमान १६४ सर्वार्थसिद्ध विमान ३३ ,,
ऊपरोक्त १६४ बोलोंमें, १ असंज्ञी मनुष्य केवल अपर्याप्ता ही होता हैं वास्ते १६४ बोलों के अपर्याप्ता की स्थिति जघन्य अंतरमुहूर्तकी और उत्कृष्ट भी अन्तरमुहूर्तकी होती है और १६३ बोलों के पर्याप्ता की जघन्य स्थिति अपनीअपनी जघन्य स्थितिमें अंतरमुहूर्त न्युन और उत्कृष्टी अपनीअपनी उ. स्थितिसे अंतरमुहूर्त न्युन, समझना ।
१६४ समुचय बोल ऊपरवत् । १६४ अपर्याप्ता के १६३ पर्याप्ता के ।
स्थितिपदके सर्व ४९१ बोल । सेवं भंते सेवं मंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं० १३९.
श्री पनवणास्त्र पद ५, पजवा. लोक में पदार्थ दो प्रकारके है जीव और अजीव-जीव भनन्ते है और उनके संक्षिप्तसे ५६३ भेद हैं, जिनका समावेश २४ दंडकमें किया जा सकता हैं । और मजीव भी अनन्त हैं
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( २८ ) जिनका संक्षिप्त से ५६० भेद हैं । इन सबको द्रव्य, क्षेत्र, न
और भाव ये चार भेद करके अलग २ बतलावेंगे जैसे द्रव्य परमाणु, द्विप्रदेशी यावत् अनंत प्रदेशी, क्षेत्र-एक आकाशप्रदे शसे यावत् असंख्याताकाशप्रदेश । काल-एक समय के स्थितिसे यावत् असंख्यात समयकी स्थिति । और भावं से वर्णादि २० बोलबाले । जिसमें एक गुणसे यावत् अनन्तगुण पर्यन्त अनन्तेभेद है । वे सब इस थोकड़ाद्वारा पाठकोंको ऐसी सुगम रीतिसे बतलावेंगे, कि हरेक ज्ञानप्रेमी थोड़े परिश्रमरे लाभ उठा सके। परंतु इस थोकड़ा का रहस्य बहुत गंभीर है. इसलिये पाठकवर्ग पहिले गहनदृष्टिद्वारा इसको समझ ले, क्योंकि इस थोकड़ा का भाषारुपसे विस्तारपूर्वक न लिखकर यंत्ररुप से ऐसा सुगम बनाकर लिखा है; कि कंठस्थ करनेवालों के लिये बहुत ही लाभदायक मौर उपयोगी है। परन्तु पहिले इस यंत्रको समझने के लिये जो नीचे परिभाषा लिखी जा रही है उसको अच्छी तरह समझ लेना चाहिये । विना परिभाषाके समझे यंत्र से इतना लाभ न होगा। इसलिये परिभाषाका समझना भावश्यकीय है। ___ पजवा-पर्यव-पर्याय-विभाग-हिस्सा यह सब एकार्थी हैं। प्रश्न-हे भगवान् ! पज्जवे कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! दो प्रकारके-जीवपज्जवा और अजीवपज्जवा । जीवपज्जवा क्या संख्याते, असंख्याते, या अनन्ते हैं ? गोतम ! संख्याते, असं. ख्याते नहीं किन्तु अनन्ते हैं। क्योंकि असंख्याते नारकी, असंख्याते भवनपति, असंख्याते पृथ्वीकाय, असंख्याते अपकाय,
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पसंख्याते तेउकाय, असंख्याते वायुकाय, अनन्ते वनस्पतिकाय, असंख्याते बेरिन्द्रीय, असंख्याते तेरिन्द्रीय, मसंख्याते चौरिन्द्रीय,
संख्याते तीर्यचपंचेन्द्रीय, असंख्याते मनुष्य, असंख्याते व्यन्तर, असंख्याते ज्योतिषी, असंख्याते वैमानिक और अनन्तसिद्ध है इस वास्ते हे गौतम ! अनन्ते पजवे कहा है। यह सामान्य प्रश्नोत्तर हुए । अब विशेषता से पूछते हैं। ___ हे भगवान् ! नारकीके नेरियेके पज्जवे कितने है ? गौतम ! अनन्ते एवं यावत् चौवीस दंडका ये पज्जवे जीवके ज्ञानादि गुणोंकी अपेक्षा भौर शरीरके वर्णादिकी अपेक्षासे कहे गये है, जिसका स्वरुपयंत्रसे समझ लेना।।
परिभाषा। नारकी २-याने नारकी नास्की परस्पर द्रन्यपने तुल्य हैं क्योंकि वह भी एक जीव है और वह भी एक जीव है या जितने गनती में एक तर्फ है उतने ही दूसरी तर्फ है; इसलिये परस्पर तुल्य कहा। जब द्रव्यतुल्य हैं तो प्रदेश भी तुल्य होगा, क्योंकी सबजीवोंके प्रदेश बराबर हैं, किसीका भी प्रदेश न्यूनाधिक नहीं हैं । इस वास्ते प्रदेश भी तुल्य कहा हैं।
अवगाहना-शरीरकी ऊंचाईको कहते हैं वह परस्पर चार प्रकारसे न्यूनाधिक हैं । जैसे एक नारकी की अवगाहना अंगुलके असंख्यातमें भाग है, और दूसरेकी ६०० धनुष्यकी है, सो असंख्यात् गुणवृद्धि, असंख्यात गुणहानी यह पहिला भांगा हुवा । (१) एक नारकीकी अवगाहना ६०० धनुष्यकी
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( ३० ) है और दूसरेकी ५०० धनुष्यसे अंगुलके असंख्यातमें भागन्यून हैं, तो असंख्यात् भागहीना, यह दूसरा भांगा हुवा । एकनारकी के अवगाहना ७॥ धनुष्य ६ अंगुल है। और दूसरेकी ५०० धनुष्य हैं तो संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातगुणहानी, यह तीसरा भांगा हुवा और एक नारकीकी अवगाहना ५०० धनुष्य हैं और दूसरेकी ४९९ धनुष्य हैं तो संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानी यह चौथा भांगा हुआ । इसे चौठाणबलिया भी कहते हैं ।
स्थिति--चौठाणबलिया जैसे एक नारकीकी स्थिति १०००० वर्षकी हैं और दूसरेकी ३३सागरोपम हैं तो असंख्यात गुणाधिक, असंख्यातगुणहीन यह पहिला भांगा, और एककी ३३ सागर० दूसरेकी ३३ सागरसे अन्तरमुहूर्त न्यून, यह असं. ख्यातभाग अधिक और असंख्यातभागहीन दूसरा भांगा, और एक नारकीकी १ सागर० दूसरेकी ३३ सागर, यह संख्यात गुणाधिक और संख्यातगुणहानी तीसरा भांगा हुवा, और एककी ३२ सागर० दूसरेकी २९ सागर. यह संख्यातभाग अधिक संख्यातभागहीन चौथा भांगा हुआ, जहां तीनका अंक हो वहां पहिला भांगा न्यून समझना ।
वर्णादि २० बोल लिखा है वहां वर्ण ५, गंध २, रस ५, स्पर्श ८, एवं २० बोल । उपयोग ९ लिखा है वहाँ ३ ज्ञान, ३ अज्ञान, ३ दर्शन एवं ९* तारतम्यताका कोष्टक है उसमें जो छठाण बलीया (षट् गुणहानी-वृद्धि ) हैं सो यह हानी वृद्धि वर्णादि
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( ३१ )
२० तथा १२ उपयोग की समझनी, वह अंतके कोष्टक में ( ६ ) का अंक रखा गया है जिसका विवरण नीचे देखो
१ अनन्तमें भागन्यून | अनन्तमें भागाधिक । २ असंख्यातमें भागन्यून | असंख्यातमें भागाधिक 1 ३ संख्यातमें भागन्यून | संख्यातमें भागाधिक |
४ संख्यातमें गुणन्यून । संख्यातमें गुणाधिक । ५ असंख्यात गुणन्यून असंख्यातमें गुणाधिक । ६ अनन्त गुणन्यून | अनन्तमें गुणाधिक ।
यह षट्गुण हानिवृद्धि है जिसको शास्त्रकारोंने 'बट्ठाएaire ' कहते है और कोष्टकमें ४-३-२-१ का अंक स्थिति 'या अवगाहनामें रखा जाता है वहां का सकेत |
नम्बर १-६ को छोड देना से चौठा वडिए ।
न० १-६-२ छोडने से तीठाण वडिए । न० १-५ - ६ छोडने से तीठाण बडिए ।
न० १-२ - ५ - ६ छोडनेसे दुठाण वडिए । न० १-२-३-५-६ छोडने से एक ठाण वडिए ।
विशेष खुलासा विद्वानों से रूबरू करने से अधिक लाभ होगा ।
* उपयोग १२ है वह जिस बोलमें जितना पावे वह कह देना
समझना ।
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( ३२ ) सामान्यतसे २४ दंडकका यंत्र
नंबर मर्गण
| द्रव्य प्रदेश अवगा- स्थिति वणीदिाउपयोग तर
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१. नारकी नारकी तुल्य तुल्य २ असुरकुमार-२ तु. ३ नागकुमार-२ ४ सुवर्णकुमार-२ ५ विद्युत्कुमार-२ ६ मनिकुमार-२ ७ द्वीपकुमार-२ ८ दिशाकुमार-२ ९ उधीकुमार-२ १० वायुकुमार-२ ११ पृथ्वीकाय-२ १२ अप्पकाय-२ १३ तेउकाय-२ १४ वायुकाय-२ १५ वनस्पतिकाय-२ तु• तु० ४३ २०३६ १६ बेरिन्द्री-२ तु. तु० ४ | ३ २०५६ १७ तेरिन्द्री-२ .तु. १८ चौरिन्द्री-२ तु.
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(१३) १९ तिर्यच पंचेन्द्रीर' तुल्य तुल्य' ४ ४ २. मनुष्य २ २१ व्यंतरदेव २ १२ ज्योतिषी २ १५ वैमानिक २ १४ सिद्ध २ . तु० तु.
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चौवीस दंडकोंके विस्तारसे वर्णन.
संकेत-संज्ञा निम्नलिखित । (1) ज. जपन्य . . (४) अव० अवगाहना (२) म० मध्यम (५) च० चतु दर्शन . . (१) उ० . उत्कृष्ट (६) अच० भचक्षु दर्शन 'बघन्य अवगाहनाके नारकी, जघन्य अवगाहनाके नारकीपने इस माफिक सब जगह समझना ।
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(१) नारकीके पर्यवकी तारतम्यता. नंबर मर्गण द्रव्य प्रदेश अवगा वर्णादि उपयोगातरत.
द्रव्य प्रदेश हना स्थात २० १२ म्यता १ ज० अव० नारकी २ तुल्य तुल्य २ म० ,, , २ ३ उ० ,, ,,२ ४ ज० स्थिति ,, २ ५ म० ,, ,२ ६ उ० , , २ ७ ज०कालागुण,,२ - म०,,२ +९ उ. , , २ ६७ ज०मतिज्ञान,,२ ६८ म° , , २ ६९ उ० , , २ ८५% ज० च० ,,२ ८६ म० , , २ , ८७४ उ. , , २ ., , ४ । ४ २० १८६
कुल ९३ सूत्र हुए। + एवं निलादि १९ बोलोंक तीन तीन सूत्र गोतनेसे ५७ * एवं दो ज्ञान तीन अज्ञान पाच बोलों के तीन० १५ बोल. x एवं अचक्षुद० अवधिद० दो बोलों के तीन० । बोल.
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(१५) (२) भवनपति देव-जैसे नारकीके ६३ सूत्र कह भाये हैं इसी माफिक प्रत्येक भवनपतिके ६३-६३ सूत्र गानेसे ६३. सूत्र भापतिके हुवे। .
(३) पृथ्वीकायादि पांचस्थावर. १ज भव० पृथ्वी २ / तुल्य तुल्य तुल्य ३ | २० ९ म०, , २ , ३ . , , २
स्थति० , २ ,, ४ तु० | २० | ३ | ६ म. , , २ ६ उ., । २ ७ ज०कालागुण,, २ ८ म०, ,२ ९० , , २
| ३ ११९ ३ (७ ज०मतिमझान,, २
| ३ | २० १२ म. , , २,,,,| ३ २०३६ ९.३० , , २, ,, ,, | ३ | २० १९२६ , ७५ एवं श्रुतिमझानके ३ और अचचुदर्शनके १ बोस समझना ।
इसी तरह अप्पकाय, तेउकाय, बायुकाय और वनस्पतिसके.७५-७५ गणनेसे ३०० बोल हुवे । कुल ३७५ सूत्र।
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(१) (४) वेरिन्द्रियके पर्यवकी तारतम्यता. १ ज० अव० बेरिन्द्रि २ तुल्य तुल्य तुल्य २ म. , , २ | ३ उ. ., ,२ , ४ ज. स्थिति०, २ , ५ म० , ,२ .६ उ० ,, ,२
७ ज०कालागुण , २ ८ म. , , २ | ९७०, , २ ६६ एवं नीलादि १९ । ६७ ज० मतिज्ञान बे० २,, ६८ म० ,, ,२ , ६९ उ. , . ,, २ , ७२ एवं श्रुतिज्ञानका ३ | ७३ ज०मतिअज्ञान बे०२ ,, । ७४ म० , ,२ ७९ उ., ,२ ७८ एवं श्रुतिअज्ञानके ३/ ७९ ज० अच० ० २ ८० म० , , २ ,,४/३२० ११ , २
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(५) तेरिन्द्रियके पर्यवके ता० के ८१ सूत्र उपरवत् समझना । - ( ६ ) चौरिन्द्रियके पर्यवके तारतम्यता.
६६ अवगाहना, स्थिति और वर्णादि २० बेरिन्द्रियवत. ६० ज० मति० चौरि० २ तुल्य तुल्य ४ | ३ | २० १३, ६ ६८ म० ,, , २ ,, ४ ६९ उ० , २ ॥
२० १३६ ७२ एवं श्रुतिज्ञानके भी ॥ ज० मतिभ० चौ०२,
२० १तु३/६ ७४ म० ,, ,,२ ४५ उ० ,, ,,२ .८ एवं श्रुतप्रज्ञानके ०९ ज० च० चौरि० २ , , १०म० च०. , २ , "
२० । ६ ६ (१ ० ० ,२ , ४
२०१६ ११ एवं अचक्षुदर्शनके
(७) तिथंच पंचेन्द्रियके पर्यवकी तारतम्यता. १ ज० अव० ती० पं०२/ तुल्य तुल्य तुल्य ३ २० २ म०" , २ .
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४० स्थिति , २,
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५ म० स्थिति ती०५०२
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७ ज०कालागुण,, २ ८ ज० कालगुण,, २
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६६ एवं शेष नीलादि १९ ६७ ज० मति.ती०६०२ ६८ म० ,, , २ , ६९ ३० , ,२ ७२ एवं श्रुतज्ञानके ३ बोल १ज.अवधिज्ञानी ,, २ , ७४ म० , ,२ .५ ३०, , २ , ८४ एवं तीनबहानके ८५ ज. च. ती० पं० २ ८६ म० , ,२ ८. उ० ,, , २ " ९० एवं अधक्षुदर्शनके ९१ ज० अवधिदती.पं.२ ,, ९२ म०, , २ , ४ | ३ २० / ९ ६ २३ उ० " , २ ,, | ४ | ३. २०१६
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(८) मनुष्यके पर्यवकी तारतम्यता. १० भव० मनुष्य २/ तुल्य तुल्य बुल्य| ३ | २० । ६ ३ म. , , २ ३ ७० ,, ,,२ १ ज० स्थिति ,, २ ५ म०, ,२ ६०,२ ७० कालागुण,, २ ,, ४ १तु १९२तु१० ८ म०, , २.
| ४ | २० २तु१०६ ९ ३०, २
४ १तु१९/२तु १०५ ३६ एषं शेष नीलादि १९ ३७ ज० मतिज्ञानी,, २ , , ३८ म० , , २ " ,
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र एवं श्रुतज्ञानके ३ बोल ०३ ज० अवधिज्ञानी,,२
म. , २ |" ७९ उ. , , २ ., १६ ज०मनःपर्यवज्ञानी,,२,
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(४० ) ७९ केवलज्ञानी मनुष्य २ तुल्य| तुल्य ८० ज० मतिम०, २,, , ८१ म० , , २ . ८२ उ० , , २ ,
श्रुतअज्ञानी ८६ ज० विभंगज्ञानी ,, २ , (७ म० ,, , २ , ८८ उ०,, ,,२
च० द०, २
२० | २ तु० २० १तु३६ २० ६ ६ २० १तु ५ ६
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९१ उ० ,, , २ . ,, ,, | ३ ३ २० १तु९६ एवं अचनु० ३ अवधि ० ३ केवलदर्शन० १ केवलज्ञानवत् कुल ९८ ।
(९) ज्योतिषी और वैमानिकके पर्यव. १ ज० अव० ज्योतिषी २ तुल्य तुल्य तुल्य ३ २० ९ ६ २ म०, ,,२
२० ९६ ३ उ० , ,२ ४ ज० स्थिति ,, २ ५ म° ,, ,२ ६ उ० , ,२ ७ ज० कालागुण,, २ ४ | ३ १तु १९ ९ ८ म०, २ , ४ | ३ २०। ९६
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९६०कालागुण ज्यो०२/ तुल्य तुल्य ४ | ३ १तु१९ ९६ १६ एवं नीलादि १९ | १७ ज० मति० ज्यो० २, ३, २० १५६ . ६८ म. , , २ ६९४ उ०, , (५ ज० च० , २ , १६ म० " , २ " " १७ ३० " , २ . , , | ४ | ३ | २० - ९३ एवं अचक्षु० भवधिके ६ बोल ।
ज्योतिषीके माफिक वैमानिकके भी ९३ सूत्र समझना । सिद्धोंमें शरीर अवगाहना नहीं हैं किन्तु भात्मप्रदेश जो पाकाशप्रदेश अवगाहे हैं उस अपेक्षासे । १ ज० प्रव० सिद्ध २ तुल्य तुल्य तुल्य| 0 | . २ म० , , २ , ,
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४. केवलज्ञानी केवल. दर्शनी सिद्ध २ , , | ३ ० | . सर्व सूत्र संख्या भी २५-६३-६३०-३७५-८१८१ -८४-९३-९८-६३-६३-४ एवं २०५० बोल जाणवा :
सेवं भंते सेवं मंते तमेव सच्चम् ।
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(४२ ) थोकडा ० १४०
श्री पनत्रणासूत्र पद ५ ( अजीवपर्यव). थोकडा नं० १३७ में जो जीव पर्यवकी परिभाषा बतलाई है उसी परिभाषासे इस थोकडाको समझ लेना इसमें उपयोग १२ नहीं है क्योंकि उपयोग जीवका गुण है अजीवका नहीं।
हे भगवान ! अजीव पर्यव क्या संख्याते, असंख्याते या अनंते हैं ? गौतम ! संख्याते, असंख्याते नहीं किन्तु अनंते हैं। क्योंकि अजीव पांच प्रकारके है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, भाकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल जिसमें धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकायके असंख्यात २ प्रदेश है । और आकाशास्ति. काय और पुद्गलास्तिकायके अनंत प्रदेश हैं तथा कालके भी अनंते समय है और एकेक प्रदेशके अंदर अगुरुनघुपर्याय अनंती २ हैं इसलिये अनंते पर्यव हैं। यहां पर मुख्यता पुद्गलास्तिकायकी ही व्याख्या समझनी । और उसीकों ही मागे बतलायेंगे।
अजीव पर्यवकों शास्त्रकारने दशद्वार करके बतलाये है। (१) द्रव्य (२) क्षेत्र (३) काल ( ४ ) भाव (५) अवगाहना (६) स्थिति (७) भाव (८) प्रदेशअवगाहमा (६) प्र०स्थिति (१०) १०माव ।
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(१) द्रव्यपर्यव.
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द्रव्य प्रदेश
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र परमाणु पुद्गल २ तुल्य तुल्य तुल्य २ दो प्रदेशी स्कंध २ ,, ,, तुल्यस्यात् १ | ३ तीन ,, , |, प्रदेशन्यूनाधिक ४ चार,
,, एवं यावत् १० ४ | १६
प्रदेशकी पृच्छा ४ | १६ में क्रमशः ६४
प्रदेशन्यूमाधिक ४ | १६ ( माठ,,
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१० दश ,, , ११ संख्यात प्र०, १२ असंख्यात,,, , १३ अनन्त "" . (२) चेत्रापेक्षापर्यव. १ एक चाकाशप्र.व.२ तुल्य ६
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( ४४ ) ५ पांच आकाशप्र० अवगाहा २/ तुल्य ६
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७ सात , , ८ आठ , " , ६ ९ नौ " ६ " १० दश , ११ संख्यात ,, १२ असंख्यात,, , , ६ ४ : ४ .
(३) कालापेक्षापर्यव. १ एक समयकी स्थितिका पुद्गल २) तुल्य ६ ४ तुल्य २० २ दो " " " ३ तीन , " "
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८ आठ , ९ नो , १० दश ११ संख्याता, १२ असं० ,
, , " , नत्र ( , ,') , , ।
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(४५)
(४) भावापेक्षापर्यव. १ एक गुण काला पु० २ तुल्य ६४ ४ १ तुल्य १९/६
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१. परा , ११ संख्यात, १२ असं० , . , १५ भनन्त, , ,६४|४, , १९६ २६० एवं शेष निलवर्णादि १९ बोलोंमें पूर्ववत् २४७ बोल लगा लेना.
___ (५) अवगाहनापेक्षापर्यव. ज० भव० दो प्र० स्कन्ध २+ तुल्या तुल्य तुल्य ४ (१६) ६ २३० "." " ३ ज०, तीन ,
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+ दोपदेशीकी मध्यम प्रबबाहना नहीं होती। ?
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(४६) . ५ उ० भव० तीवध क्षुल्य तुल्य तुल्य ४ । १६ । ६ म. , चार , ,,, ४ १६
4. " " " .., १ न्यू १६ ८२० , , , , , , ४ | १६ |
२६ एवं ५-६-७-८-६-१० प्रदेशीस्कन्ध भी समझना परन्तु मध्यम अवगाहना चारप्रदेशीस्कन्धसे यावत् दशप्रदेशी स्कन्धकी, पृच्छामें क्रमशः एकप्रदेशसे यावत् सातप्रदेश न्यूना. धिक कहना। २७ जा भव० सं० प्र० स्कन्ध २ तुल्य २ तुल्य २८ म० " . "
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(६) स्थितिअपेक्षापर्यव. १ ज. स्थितिका परमाणु २ तुल्य तुल्य तुल्य तुल्य १६ ।
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(४७) • ज० स्थितिका दो० प्र० २/ तुरुप सुल्यो ।
म० , " " " ६ उ० " " , " , १६६ : ३० एवं ३-४-५-६-७-८-६-१० प्रदेशीकी पृच्छा परन्तु अवगाहनामें १ प्रदेशसे क्रमशः यावत् ९ प्रदेश न्यूनाधिक बहना शेष द्विप्रदेशीवत् । ३१ ज. स्थितिका सं० प्र० २ तुल्य २ | २ तुल्य| १६ |६
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. (७) भावापेक्षापर्यव. १ ज० कालागुण परमाणु २ तुल्य तुल्य तुल्य ४ १तु११, ६ २ म० " . " . |" उ० " .
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(४८ ) ३० एवं ३-४-५-६-७-८-६-१० प्रदेशी भी समझना परन्तु अवगाहनामें १ प्रदेशसे यावत् ९ प्रदेश न्यूनाधिक कहना शेष द्विप्रदेशीवत् । ३१ ज• कालागुण सं० प्र० २ तुल्य २ २ ४ (१तु ११/६ ३२ म० " " "
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३८ म० , , , , ६ ४ ४ १६ / ६ ३९ उ० , , ,, ,, | ६ ४ ४ १तु१९६ .
३५१ एवं पांच वर्ण, पांच रस । कुल ३९० ३५२ ज०अनं०प्र० कक्खडा स्पर्श २ तुल्य ६ ! ४ ४ १तु १८६ २५३ म. , , , . ६ ४ ४ १९६ ३५४ उ० , , , ,६४ ४ १तु १८६
२६३ एवं मृदु, गुरु, लघु यह चारस्पर्श सदृश समझना. ३६४ ज० सुरभिगन्ध परमाणु २ तुल्य तुल्य तुल्य ४ १तु१४६ ३६५ म. ,
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(४९) १६७ ज० , दो० प्र० तुल्या तुल्य ४१ तू १४६
१६८ म० , , '१६९ उ० , , ,
एवं ३ प्र० से १० प्र० तक समझना परन्तु भवगाहनामें १५० से यावत् ९ प्रदेश न्यूनाधिक कहना. ब. सुरभिगंध सं० प्रदेशी २ तु०
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. , , , , ६ | ४|४ १ तू १८६ एवं, दुरभिगंध, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष भी समझ लेना। (८-8-१०) प्रदेश प्रव० स्थिति० भाव पर्यव द्वार. अ० प्रदेशी स्कन्ध २ | तु. तु०/ १ प्र.वि४१६/६
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• भव० पुद्गल २
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(५०)
ज० स्थिति पुगल म. " " उ० , , ज. काला गुण पुद्गल २ म० " "
,६४ ४ २०१० एवं पांच वर्ण पांच रस भी समझना. ज० सुरभिगंध पुद्गल २ तु. ६ | ४|४|१ तू १८
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उ० , , , ३ | ४ | ४ १ तू १८ एवं दूगिन्ध तथा ८ स्पर्श भी समझ लेना. सेवं भंते से भंते तमेव सचम्।
थोकडा नं. १४१ श्री पन्नवणा सूत्र पद ६ (विरहद्वार) जिस योनि में जीव हैं वह उस योनि से निकल कर मना योनि में जावे । अगर उस योनि से नहीं निकले तो कितने कार तक नहीं निकले । यह इस थोक द्वारा बतलावेंगे | सब योनि में जघन्य एक समय का विरहकाल हैं, उत्कृष्ट नीचे प्रमाणे
समुच्चय चारगति, संझीमनुष्य, संज्ञीतियंचमें निकलनेका विरह पड़े तो उत्कृष्ट १२ मुहूर्त । पहिलीनारकी, १० भुवनप्रति १ व्यंतर, १ ज्योतिषी, सौधर्म, ईशान दे० और असंझी मनुध्य में २४ मुहूर्त का विरहकाल हैं।
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और ६४ इस
६ मास
(५१) सरी नारकी में ७ दिन, तीजा देवलाको दिन २०मुहूर्त तीजी नारकी में १५ दिन चौथा , १२ दिन २०,, मेथी ,,, १ मास पांचमा , २२॥ दिन मंचमी , , २ ॥
छठ्ठा , ४५ दिन कट्ठी , , ४ , सातमा , ८० दिन सातमी नरक )
आठमा ,, १०० दिन
नौवा दशवा देवलोक सेंकडो मास पांचस्थावर विरह नहीं |११-१२ वा , सेंकडो वर्ष तीन विकलेंद्रिय ) अंतर- । | पहला त्रिक प्रैवेक सं०सेंकडो वर्ष प्रसन्नी तिर्यच । मुहर्त दूसरा , सं०हजारो वर्ष संज्ञी तिथंच पंचे.)
तीसरा , सं० लक्षो ,, न्द्रिय व मनुष्य
चारानुत्तर वैमान पल्यो.अ.माग ____ सर्वार्थसिद्ध पल्यो० सं० भाग.
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सचम् । ___ - - -
थोकडा नं. १४२ - श्री पनवणासूत्र पद ६
नारकीके नैरीये सान्तर उत्पन्न होते हैं या निरन्तर ? सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरंतर भी उत्पन्न होते हैं. एवं पांचस्थावरवर्जके शेष १६ दंडकके जोव समझना, एवं सिद्ध भगवान् । और पांचस्थावर निरंतर उत्पन्न होते हैं. इसी माफिक
वैमानिकके दंडकमें नौवा देवलोकसे सर्वार्थसिद्धतक १-२ यावत संख्याते उत्पन्न होते है । सिद्धावस्थामें १-२ यावत् १०८ उत्पन्न होते हैं।
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(१२) निकलनेका भी सूत्र कहना, परन्तु सिद्धोंका प्रश्न नहीं करना क्योंकि सिद्ध पीछे नहीं पाते हैं।
नारकीके नैरिये एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? एक समय १-२-३ यावत् संख्याते असंख्याते उत्पन्न होते हैं. एक पांचस्थावरवर्जके शेष १६ दंडक समझना । पांचस्थावरमें प्रतिसमय भसंख्याते उत्पन्न होते हैं किन्तु वनस्पतिकायमें स्वकायापेक्षा प्रतिसमय अनंत भी उत्पन्न होते हैं. इसी माफिक चौवीस दंडकका चषण द्वार भी समझना किन्तु सिद्ध भगवान् उत्पन्न होते हैं पर चवते नहीं हैं.
कौनसे दंडकके जीव परभवका आयुष्य किस समय बांधते हैं ? नारकी, देवता और युगल मनुष्य अपने आयुष्यके शेष ६ मास रहनेपर परभवका आयु बांधते हैं और वह सब निरूपकमी होते हैं. शेष जीवोंका आयुष्य दो प्रकारका है-एक सोपक्रमी, दूसरा निरुपक्रमी. जो निरुपक्रमी होता है. वह नियमा अपने आयुष्यके तीजे भाग अर्थात् दो भाग आयुष्य बीतजानेपर तीजे भागकी सुरुमें परभवका भायुष्य बांधते हैं; और सोपक्रमी श्रायुष्यवाले जीव तीजे भाग नौ भाग सतावीसमें भाग इकीयासीमें भाग २४३ में भाग यावत् भायुष्यका शेष अन्तरमुहूर्त रहतेहुवे परभवका प्रायुष्य बांधते है.
आयुष्यकर्मके साथ छ बोलोका और भी बंध होता है. (१) जातिनाम एकेन्द्रियादि (२) गतिनाम=नरकादि (३) स्थितिनाम=अन्तर मुहूर्त से यावत् ३३ सागर.
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(५३) (४) अवगाहनानाम=शरीरका प्रमाण. (१) प्रदेशनाम-परमाणुगदि प्रदेश. (६) अनुभागनाम-शुभाशुभ प्रकृतियोका रस. . समुचय एक जीव और नरकादि चौवीसदंडकके एकैक जीव आयुष्यकर्मके साथमें उपर कहे छ बोलबांधते हैं. एवं २५ को छ गुना करनेसे १५० भागे एवं बहुवचनकी अपेक्षा भी १५० कुल ३००, इसी तरह तीनसौ निद्धस और तीनसौ निकाचित बंधके एवं ६००, यह छसौ नामकर्म छसौ गोत्रकर्म बसौ नामगोत्रकर्मके साग्मिल करनेके सब मिलाके १८०० भागे भायुष्य कर्मके हुवे. ___ जीव जातीनाम, निद्धसभायुष्य बांधते है, वे कितनी भाकनासे पुद्गल ग्रहण करते हैं, अर्थात् मायुष्यकमके पुद्गलोंको खेचते हैं. जैसे पाणी पीती हुई गाय पानीको खेचे वैसे जीव पुगलोंको खेचता है. वह कितनी भाकर्षनासे खेचता है ?
. एक दो तीन यावत् उत्कृष्ट पाठ आकर्षनोसे कर्मपुद्गल खेचते है. इसमें एकसे यावत् पाठ आकर्षन करनेवाले जीवोंमें ज्यादा कम कौन है वे अल्पाबहुत्व करके बताते है. . (१) आठ आकर्षना कर कर्मबंधने वाले जीव सबसे स्तोक(२) सात "
जीव संख्यातगुणा (३) छ , (४) पांय , , , , (५) चार .,
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(६) तीन ,
" " (७) दो , " " " (८) एक " " " "
जैसे जातिनाम निषकी समुचयजीवापेक्षा एक अल्पाबहुत्व बताई है इसी माफिक गतिनामादि छ बोलोंकी अल्पाबहुत्व समुचय जविकी और नरकादि २४ दंडक पर छ छ अल्पाबहुत्व करनेसे १५० अल्पाबहुत्व यावत् उपरवत् १८०० भागोंकी अल्पाबहुत्व समझना । इति.
__ से भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं. १४३ श्री पन्नवणासूत्र पद १० (चरमपद)
चरमकी अपेक्षा अचर्म होता है और अचर्मकी अपेक्षा चरम होता है. इसमें कमसे कम दो पदार्थ अवश्य होना चाहिये. यहांपर रत्नप्रभादि एकेक पदार्थका प्रश्न है. इसके उत्तरमें एक अपेक्षा नास्ति है और दूसरी अपेक्षा अस्ति है. इसीको स्यावाद कहते है. ___ पृथ्वी कितने प्रकारकी है ? पाठ प्रकारकी है. यथा-रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुप्रभा, पंकप्रमा, धूमप्रभा, तमप्रभ, तमस्तमाप्रभा और इशीत्प्रभारा ( सिद्धशीला )
रलप्रभा नरक क्या (१) चरम है. (२) अचरम है (३) बहुत चरम है (४) बहुत अचरम है (६) चरम प्रदेश है (३) मचरम प्रदेश है ? रत्नप्रभा नरक द्रव्यापेक्षा एक हैं इस लिये
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( ५५ )
धर्मादि ३ बोला नहीं हो सकते, दूसरी अपेक्षा यदि रत्नप्रभा नरक दो विभाग कर दिये जाय एक मध्यविभाग, दूसरा अन्तविभाग और फिर उत्तर दिया जाय तो इसमें धरमपदका अस्तिता होता है. यथा यह रत्नप्रभा नरक द्रव्यापेक्षा (१) धर्म है क्योंकि मध्यके भागकी अपेक्षा बाहर (अन्त) का भाग चर्महैं. (२) जचर्म मी है क्योंकि अन्तेकेमागकी अपेक्षा मध्यकाभाग अधर्म. क्षेत्रकी अपेक्षा (३) धर्मप्रदेश हैं (४) अधर्मप्रदेश भी है क्योंकि अन्त के प्रदेशकी अपेक्षा मध्यके प्रदेश अधर्म है.
जैसे रत्नप्रभा नारकी कही वैसेही सातों नरक १२ देवलोक १. मैवेक ५ अनुत्तरये १ इसीत्प्रमारापृथ्वी १ लौक और १ अलौक एवं ३६ बोलों को उपरवत् चार चार बोल लगानेसे १४४ वोल होते हैं.
उपर बताये हुवे रत्नप्रभादि ३६ बोलोंके चर्मप्रदेशमें तारता है, उसकी अल्पबहुत्व कहते हैं.
(१) रत्नप्रभा नारक के चर्माचर्म द्रव्य और प्रदेश की अल्पा० [१] द्रव्याल्पा ०
(१) सबसे स्तोक अचर्मद्रव्य (२) चर्मद्रव्य असं ० गु० (३) धर्माचर्म द्रव्य वि० । [२] प्रदेशाल्पा ०
(१) सबसे स्तोक चर्मप्रदेश (२) श्रचर्मप्रदेश असं ० गु० (३) धर्माधर्म प्रदेश वि०
[३] द्रव्य और प्रदेशकी सामिल अल्पा ०
(१) सबसे स्तोक अधर्मद्रव्य (२) चर्मद्रव्य असं० गु०
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(३) चर्माचर्म द्रव्य वि० (४) चर्म प्रदेश असं० गु० (५) अचर्मप्रदेश असं० गु० (६) चर्माचर्म प्र० वि०
इसी तरह अलोक छोडके शेष ३५ बोलों की अल्पा बहुत्व समझ लेना.
[४] अलौकके द्रव्यकी अल्पा० (१) सबसे स्तोक अलौकमें अचर्मद्रव्य (२) चर्मद्रन ___ असं० गु० (३) चर्माचर्म द्रव्य वि०
[२] प्रदेशकी अल्पा० (१) सबसे स्तोक अलौकमें चर्म प्रदेश (२) अचर्म प्रदेश ___ अनन्त गु० (३) चर्माचर्म प्रदेश वि०
[६] द्रव्य प्रदेशकी अल्पा० (१) सबसे स्तोक अलौकमें अचर्म द्रव्य (२)चर्म द्रव्य असं०
गु० (३) चर्माचर्म द्रव्य वि० (४) चर्मप्रदेश असं० गु० (५) अचर्मप्रदेश अनन्त गु० (६) चर्माचर्म प्रदेश वि० [4] लोका लौकके चर्माचर्म द्रव्यकी अल्पा. (१) सबसे स्तोक लौकालौकका चर्मद्रव्य (२) लौकका चर्म द्रव्य असं० गु० (३) अलौकका चर्म द्रव्य वि० (४) लौका लोकका धर्माचर्म द्रव्य वि० - [९] लौकालौकके चर्माचर्म प्रदेशको अल्पा० (१) स्तोक लौकका चर्मप्रदेश(२) मलौकका चर्मप्रदेश विशेषा (३) लोकका अचर्म प्रदेश असं० गु० (४) अलौकका अचर्मप्रदेश अनन्त गु०
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(५) लोकालोकका चर्माचर्म प्रदेश वि० [१०] लोकालोक द्रव्य प्रदेश चर्माचर्म की प्रस्पा. (१) सर्वसे स्तोक लौकानोकका चर्म द्रव्य (२) लौकका चर्म द्रव्य असं० गु० (३) अलौकका चर्म द्रव्य वि० (४) लौकालौकका चर्माचर्म द्रव्य विशेषा० (५) लौकका चर्मप्रदेश असंख्यात गु० (६) अलौकका चर्मप्रदेश विशेषा (७) लौकका अचर्मप्रदेश असंख्यात गु० (८) अलोकका प्रचर्मप्रदेश अनन्त गु० . (९) लौकालौकका धर्माचर्म प्रदेश विशेषा. [११] ऊपरके नव और सर्व द्रव्य, सर्व प्रदेश, सर्व पर्याय एवं १२ बोलोंकी अल्पाबहुत.
(१) सर्वसे स्तोक लोकालोकका चर्म द्रव्य (२) नोकका चर्म द्रव्य असं० गु० (३) अलोकका चर्म द्रव्य विशेषा (४) लोकालोकका चर्माचर्म द्रव्य विशेष (६) लोकका चर्म प्रदेश असं० गु० (६) अलोकका चर्म प्रदेश विशेष (७) लोकका भचर्म प्रदेश असं० गु० (८) मनोकका भचर्म प्रदेश अनन्त गु० (९) लोकालोकका चाचर्म प्रदेश विशेषा. (१०) सर्व द्रव्य विशेषा
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(५८) (११) सर्व प्रदेश अनन्ता गुरु (१२) सर्व पर्याय अनन्ता गुरु
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं. ११४
सूत्र श्री पन्नवणा पद १० रत्नप्रभादि नरक में सापेक्षा चर्म, भचर्म कहां हैं परन्तु परमाणुके दो विभाग हो नहीं सक्ते हैं इसलिये शास्त्रकारोंने चरम अचरम और प्रवक्तव्य यह तीन विकल्प किये हैं वह इस थोकड़े द्वारा बतलायेंगे। ___ चर्माचर्म और अवक्तव्य इन तीनोंके २६ भांगे होते हैं. इसको नीचे यंत्रमें लिखेंगे जहां एकका अंक है वहां एकवचन पौर तीनका अंक है वहां बहुवचन समझना ।
__ असंयोगी भागा ६ ___ नं० चर्म प्रचर्म अवक्तव्य
(२)
३
(४) ३ (६) ३ द्विसंयोगी भांगा १२ चर्म श्रवक्तव्य अचर्म | प्रवक्तव्य
चर्म । अचर्म
Form
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त्रिकसंयोगी भांगा ८ चर्म | पचर्म | अव० । चर्म । अचर्म । अब
w
के उपर लिखे २६ मांगोसे कौनसा भांगा किस जगह मिलता है सो बतलाते हैं.
(१) परमाणु पुद्गलमें एक भांगा पावे-प्रवक्तव्य • । (२) दो प्रदेशी स्कंधमें दो भांगा पावे-पहिला और तीसरा (दोनो एकेक प्रदेश शेका हो तो तीसरा और दोनो एक प्रदेश ऐका हो तो पहिला.) :
(३) तीन प्रदेशीमें चार भांगा-यथा १-३-९-११ स्थापना १-३ पूर्ववत् नवमा ००० इग्यारहवां .. ... (४) चार प्रदेशीमें सात भांगा यथा १ ३-६-१०-११-१२ -१३ जिसमें चार पूर्ववत् दसमों ०००० इग्य ०० बारमों ००० म ०.००
() पांच प्रदेशी में इग्यारह भांगा यथा १-३-७-६१०-११-१२-१३-२३-२४-२५ जिसमें सात पूर्ववत् शेष मासमा ...तेवीसमां : .. • चौवीसमों ...: पचीसमों ०.०..
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(१०) (६) छ प्रदेशीमें १५ मांगा यथा १-३-७-८-९-१०॥ ११-१२-१३-१४-१६-२३-२४-२५-२६-जिसमें । भांगा पूर्ववत, पाठमो ००० चौदहमो : ०० : उगणीस .:: छवीसमो ....
(७) सात प्रदेशीमें १७ भांगा जिसमें १५ पूर्ववत् २०-२ वीसमो ००० इकोसमो०. .
(८) पाठ प्रदेशी, १८ भांगा जिसमें १७ पूर्वा बाईसमो .
(९) नवै प्रदेशीसे अनंतप्रदेशी स्कन्ध तक पूर्ववत् ३८ भांगा समझना.
पूर्वके २६ भांगा में से १८ भांगा काममें आते है और शेष ८ भांगा २-४-५-६-१५-१६-१७-१८ यह भार मांगा काममें नहीं पाते; केवल परूपणारूप ही हैं। ___ इस भांगोको कंटस्थ कर फिर गीतार्थ के पास खूब अच्छी तरहसे समझोगे तो द्रव्यानुयोगमें रमणता करते हुवे अनंत कोंकी निर्जरा करोगे किं बहुना. सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
-* *
पिना.
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(६१) ... थोकडा नं० १४५ श्री पनवणा सूत्र पद १०
_ . ( संस्थान ) संसारमें जितने पुद्गल हैं वह किसी न किसी कारमें अवश्य है. उस भाकारको शासकारोंने संस्थान कहा है वह इस पोकडे द्वारा कहेंगे.
हे भगवान ! संस्थान कितने प्रकारके हैं ? संस्थान पांच प्रकारके हैं यथा
(१) परिमंडल-गोल चूड़ीके आकार प्रदार्थ -- (२) वट्ट-गोल लडूके आकार पुद्गल
(३) त्रंस-तिखूने सिंघोडेके आकार पुद्गल (४) चौरंस-चोखूने चौकीके आकार पुद्गल (५) भायतन-लम्बा-वांसके आकार पुद्गल*
हे भगवान ! परिमण्डल संस्थान इस लोकमें क्या संख्याते, असंख्याते वा अनंते हैं ? संख्याते, असंख्याते नहीं किंतु अनंते हैं एवं यावत् आयतन संस्थान पर्यंत कहना वह पांचो संस्थान लोकमें अनंते अनंते हैं.
हे भगवान् ! परिमण्डन संस्थान क्या संख्याते, असंख्याते या अनंत प्रदेशी है ? परिमण्डल संस्थान स्यात् संख्यात, स्यात् . *भगवती सूत्र श २५ उ० ३ में संस्थान छ प्रकारके कहे है. जिसमें पांच तो उपरोक और छटा अनवस्थित जो इन पांचोसे विलक्षण हो वह सब अनवस्थित संस्थान कहलाता है ।
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असंख्यात्, स्यात् अनंत प्रदेशी है. एवं यावत् पायतन संस्थान भी समझना.
हे भगवान् ! संख्यातप्रदेशी परिमण्डलसंस्थान क्या संख्यातप्रदेश भवगाया हैं या असंख्यात या अनंतप्रदेश अवगाया हैं ? संख्यातप्रदेशावगाह्मा हैं पर असंख्यात अनन्त प्रदेश नहीं एवं यावत् भायतन संस्थान भी कह ना.
हे भगवान् ! असंख्यातप्रदेशी परिमंडलसंस्थान क्या संख्या० असं० या अनन्त प्रदेश अवगाह्या हैं ? स्यात् संख्यात् स्यात् असंख्यातप्रदेश अवगाह्य; परन्तु अनंतप्रदेश नहीं एवं यावत् आयतन संस्थान भी कहना.
हे भगवान् ! अनन्तप्रदेशी परिमंडलसंस्थान क्या सं० असं ० या अनन्तप्रदेश अवगाह्या है? स्यात् संख्यात० स्यात् भसं० प्रदेश अवगाया है; किन्तु अनन्ता नहीं । क्योंकि लोक असंख्यात प्रदेशी हैं. एवं पायतन०
हे भगवान् ! संख्यातप्रदेशी परिमंडलसंस्थान संख्यात प्रदेश अवगाह्या क्या चरम है अचर्म है ? घणा चर्म है ? घणा अचर्म है ? धणा चर्मप्रदेश है ? घणा अचर्म प्रदेश है ? रत्नप्रभा नारकांके माफिक प्रथम पक्षसे छ पद निषेद करना. दूसरी अपेक्षा चार पदका उत्तर दिया है. एवं-- (२) असंख्यात प्रदेशी परिमंडल संख्यान प्रदेश अवगाह्या (३) , , असं० ,, ,, (४) अनंत " " सं० , " (६) , , , असं० , ,
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(१) . यह पांच सूत्र रत्नप्रभा नारकीके माफिक समझना एवं प्रा भायतन संस्थान भी कहना. अब अल्पाबहुत कहते हैं। (१) सं० प्रदेशी परिमंडल सं० प्र० अवगाहाकी अल्पा.
(द्रव्य ) (१) सबंसे स्तोक प्रचर्म द्रव्य (२) चरम द्रव्य सं० गु० (३) चरमाचर्म द्रव्य वि०
(प्रदेश) (१) सबसे स्तोक चर्म प्रदेश (२) अचर्म प्रदेश सं० गु० (३) चर्माचर्म प्रदेश वि०
(द्रव्य प्रदेश सामिल )... (१) सबसे स्तोक अचर्म द्रव्य (२) चर्म द्रव्य सं० गु० । (३) चर्माचर्म द्रव्य वि० (४) चर्म प्रदेश सं० गु० (५) अचर्म प्रदेश सं० गु० (६) चर्माचर्म प्रदेश वि०
एवं भायतन संस्थान तक भी कहना.
(२) असं० प्रदेशी परिमंडलसंस्थान संख्यात प्रदेश प्रवमामोंकी अल्पा० तीनों उपरवत् समझ लेना । __ (३) असं० प्रदेशी परिमण्डलसंस्थान असं० प्रदेश भवगायोंकी तीनों अल्पा० उपरवत् समझ लेना परन्तु जहाँ संख्याता कहा है वहां असंख्याता कहना रलप्रभावत् ।
(४) अनंतप्रदेशी परिमंडलसंस्थान संख्यात प्रदेश मन'. गाझोंकी तीनों अल्लाबहुत्व संख्यात प्रदेशी संख्यात प्रदेश
भवगाहोंकी माफिक समझना परन्तुं संक्रमण अतंतगुणा काना।
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. (५) अनंत प्रदेशी परिमंडल संस्थान असंख्यात प्रदेश भवगायोंकी तीनों अल्पाबहुत्व रत्नप्रभावत् परन्तु संक्रमण अनंतगुणा कहना एवं यावत् पायतन संस्थान भी कहना ।
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं० १४६ श्री पन्नवणा सूत्र पद १०
(चर्माचर्म) द्वार-(१) गति (२) स्थिति (३) भव (३) भाषा (५) श्वासोश्वास (६) आहार (७) भाव (८) वर्ण (९) गंध (१०) रस (११) स्पर्श। . (१) हे भगवान् ! एक जीव गतिकी अपेक्षा क्या धर्म है या प्रचर्म है ? स्यात् चर्म है स्यात् अचर्म है अर्थात् जिन्हों जीवोंको तदभव मोक्ष जाना है वे गतिकी अपेक्षा चरम हैं कारण वे जीव भब फिर गतिमें न भावेंगे और जिसको अभी मोक्ष जाने में देरी है या न जावेगा वे गतिकी अपेक्षा अचर्म है कारण वारंवार गतिमें भ्रमण करेगा। ____नारकीके नेरीया गतिकी अपेक्षा चर्म है या । .अर्म है ? स्यात् चर्म स्यात् प्रचर्म भावना उपरवत् इसी माफिक २४ दंडक यावत् वैमानिक तक कहा।
घणा जीवकी अपेक्षा क्या चर्म है या अचर्म है ? धर्म भी घणा भधर्म भी घणा एवं यावत् २४ दंडक समजना ।
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(२) स्थितिकी अपेक्षा नारकी चर्म है या पचर्म है.? स्यात् धर्म स्यात् अचर्म एवं यावत् २४. दंडक । ___घण नारकी स्थितिकी अपेक्षा चर्म हैं या अचर्म है ? चर्म भी घणा अचर्म भी घणा एवं यावत् २४ दंडक कहना ।
(३) भवकी अपेक्षा नारकी चर्म है या अचर्म है ? स्यात् चर्म है स्यात् अचर्म है एवं यावत् २४ दंडक भी कहना। ___घणा नारकीकी अपेक्षा ? चर्म भी घणा और अचर्म भी घणा एवं यावत् २४ दंडक समझ लेना।
(४) नारकी भाषाकी अपेक्षा चर्म है या अचर्म है ? स्यात् वर्म है स्यात् अचर्म है एवं पांच स्थावर वर्जके १९ दण्डक भी समझ लेना । घणा जीवोंकी अपेक्षा चर्म भी घणा और बचर्म भी घणा ।
(५) श्वासोश्वासकी अपेक्षा नारकी चर्म है या अचर्म है ? । स्यात् चर्म स्यात् अचर्म एवं यावत् २४ दंडक । घणा जीवोंकी अपेक्षा चर्म भी घणा और अचर्म घणा ।
(६) आहारकी अपेक्षा नारकी चर्म है या अचर्म है ? स्यात् चर्म है स्यात् अचर्म है एवं यावत् २४ दंडक । घणा जीवों
की अपेक्षा चर्म भी घणा अचर्म भी वणा। ... (७) भाव (ोदयकादि) अपेक्षा नारकी चर्म है कि अचर्म है ? स्यात् चर्भ है स्यात् अचर्म है एवं यावत् २४ दंडक । घणा जीवोंकी अपेक्षा धर्म भी घणा अचर्म भी घणा । . . .
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(६६) (८) वर्ण, गंध, रस, स्पर्शके २० बोलोंकी अपेक्षा नारकी चर्म है या अचर्म है ? स्यात् चर्म है स्यात् भचर्म है एवं २४ दंडक भी समझ लेना । घणा जीवोंकी अपेक्षा चर्म भी घणा और अचर्म भी घणा।
सेव भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नंबर. १४७ सूत्र श्रीपन्नवणाजी पद ११
(पांच शरीर ) ___ जीव अनादिकालसे इस घोर संसारके अन्दर परिभ्रमण कर रहा है, जिन्हीका मूल कारण जीव स्वगुणोंको छोडके पर. गुणों (पुद्गलोमें) में रमणता करते हुवे पुराणे संयोगको छोडते है और नये नये संयोगको धारण करते हैं । "संजोगा मूल जीवाणं पत्तो दुःखं परंपरा " सबसे निकट संबन्ध जीवके शरीरसे है इन्ही शरीरके लिये चैतन्य इतना तो विचारशून्य बन जाता है कि उचित, अनोचित, हिताहित, भक्षाभक्षका भी भान नहीं रहता है। परन्तु यह ख्याल नहीं है कि इस जीवने ऐसा नासमान कितने शरीर कीया होगा वह इस थोकडेद्वारा बताये जावेगा ।
शरीर पांच प्रकारका है यथा(१) औदारिक शरीर-हाड-मांसादि संयुक्त (२) वैक्रीय शरीर-हाड-मांस रहित कर्पूर या पाराक्त (३) माहारिक शरीर-पूर्वधर मुनियों के होता है :
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(६७) (४) तेजस शरीर-आहारकी पाचनक्रिया करे (५) कार्मण शरीर-कोका खजाना रूप । '
इन पांचो शरीरोंका स्वामी कौन है ? नारकी देवतामें सीन शरीर हैं-वैक्रय, तेजस, कार्मण । तथा पृथ्वी० अप० तेउ. वनस्पति बेइन्द्रिय० तेइन्द्रिय चौरिन्द्रिय० इन्ही सात बोलोमें भौवारिक० तेजस० कार्मण तीन शरीर पावे तथा वायुकाय और विर्यच पांचेन्द्रियमें शरीर चार पावे-औदारिक० वैक्रय० तेजस कार्मण और मनुष्यमें शरीर पांचों पावे, औदारिक० वैक्रय० माहारिक० तेजस • कार्मण इति ।
प्रत्येक शरीरके दो दो भेद होते है (१) बन्धेलक-वर्तमान में बन्धा हुवे हैं (२) मुक्केलक-भूतकानमें बान्ध बान्ध कर घोर भाये थे वह । . (१) भौदारिक शरीरके दो भेद है (१) बन्धेलक (२) मुलक, जिसमें बंधेलक औदारिक शरीर असंख्यात है अर्थात् वर्तमानमें सर्व जीवापेक्षा औदारिक शरीर असंख्याते है 'यह प्रत्येक समय एकेक औदारिक शरीर गीना जावे तो गीनते २.असंख्याती अवसर्पिणी उत्सर्पिणी पुरण हो जाय और क्षेत्रसे एकेक औदारिक शरीरको एकेकाकाश पर रखा जाये तो असंम्याते लोक पूरण हो जा इतना प्रौदारिक शरीरका बन्धेनक है
नोट-जीव दो प्रकारके है (१) प्रत्येक शरीरी (२) भाषारख शरीरी, जिसमें प्रत्येक शरीरी जीव असंख्यात है वह असंख्याते शरीरके बंधक है और साधारण शरीरवाले जीव
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( ६८ ) अनंता है, परन्तु साधारण अनन्तो जीव भी एक ही शरीरके बंधक है वस्ते अनन्त जीवोंका भी असंख्यात ही शरीर हैं।
(२) मुकेलगा-सौदारिक शरीरके मुकेलगा अनन्त शरीर हैं, वे कितना अनन्ते हैं ? एकेक समय एकेक औदारिक शरीरका मुकेलगा निकाले तो अनन्ती उत्सर्पिणी, भवसर्पिणी व्यतीत हो जाय । क्षेत्रसे-एकेक औदारिक शरीरका मुकेलगाको एकेक आकाशप्रदेश पर रखे तो सम्पूर्ण लोक और लोक जैसे अनन्ते लोक पूर्ण हो जाय । द्रव्यसे-अमव्यसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तमें भाग इतने औदारिकके मुकेलगा हैं। . . (२) वैक्रीय शरीरका दो भेद-एक बंधेलगा, दूसरा मुकेलगा। जिसमें बंधलगा असंख्यात है । एकेक समय एकेक वैक्रीय शरीर निकाले तो असंख्याती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी व्यतीत हो । क्षेत्रसे-चौदह राजलोका घन चौतरा करने पर सात राज लम्बा और सात राज चौडा होता है. (देखो शीघ्रबोध माग ८) उसके उपरके परतरकी एकप्रदेशी श्रेणी है-जिसके असंख्यातमें भागमें जितने आकाशप्रदेश आवे उतने वैक्रीय शरीर के बंधेलगा हैं दूसरे मुकेलगा अनन्ते हैं औदारिक शरीरवत् ।
(३) आहारक शरीरका दो भेद-बंधेलगा और मुकेलगा. जिसमें बंधेलगा स्यात् मिले स्यात् न मिले. अगर मिले तो जघन्य १-२-३ यावत् उत्कृष्ट प्रत्येक हजार. मकेलगा अनंते औदारिक शरीरवत् , क्योंकि भूतकाल अनन्त हैं उसमें अनन्ते जीवोंने आहारक शरीर करके छोडा हैं। .
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(६९) (४) तेजस शरीरका दो भेद-बंधेलगा और मूके. सगा. जिसमें बंधलगा अनन्ते हैं. कालसे एकेक समय एकेक सेबस शरीर निकाले तो अनन्ती उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी, व्यतीत क्षेती है. क्षेत्रसे-एकेक तेजप शरीर एकेक आकाशप्रदेश पर रखे तो लोक जैसे अनन्ते लोक पूर्ण होते हैं. द्रव्यसे-सिद्धोंसे अनन्त गुणे सर्व जीवके अनन्त में भाग हैं. कारण सिद्धोंके तेजस शरीर नहीं हैं इसलिये अनन्तमें भाग कम कहा और मुकेलगा अनन्ते हैं। काल, क्षेत्र पूर्ववत् द्रव्यसे सब जीवोंसे अनन्त गुणे,
और सर्व जीवों का वर्गमूल करनेसे अनन्तमें भाग कम, वर्ग उसे कहते हैं के बराबरी की संख्याको परस्पर गुणा करना ।
(५) कार्मण शरीरके दो भेद-तेजस् शरीखत् समझ लेना, कारन तेजस शरीर है वहां कार्मण शरीर नियमा है इसलिये बराबर समझना ।
. इति समुचय जीव. - नारकीमें औदारिक, आहारक शरीरका बंधेलगा नहीं हैं और मूकेलगा अनन्ते हैं। समुच्चयवत् और वैक्रीयका दो भेद हैंबंधेलगा और मूकेलगा. जिसमें बंधेलगा असंख्याते हैं. काल से-असंख्याती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी, क्षेत्रसे–चौदह राजलोकका पन चौतरा सात राज प्रमाण हैं, उसके एकप्रदेशी श्रेणीका परतर जीजे जिसमें विषम सूचि अंगुल क्षेत्रमें जितने प्रकाशप्रदेश भावे उसके प्रथम वर्गमूलको दूसरे वर्गमूलसे गुणा करे उतना हैं, याने असत्य कल्पनासे २५६ भाकाशप्रदेश हैं उसका
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(७०) पहिला वर्गमूल सालहे हुवा और दूसरा सोलहका वर्गमूल चार हुवा और तीसरा चारका वर्गमूल दो हुवा । यहां पहलेसे और दुसरेसे गुणा करना है इसलिये पहिला वर्गमूल १६ और दूसरा ४को परस्पर गुणा करनेसे ६४ हुवे इतने वैक्रिय शरीर हैं अर्थात् विषमसुचि अंगुल के प्रदेशका वर्गमूल करके प्रथम वर्ग: मूलको दूसरे वर्गमूलसे गुणा करे उतना हैं और वे भी असं. ख्याते होते हैं और वैक्रीय शरीरका मुलगा अनन्ते हैं । समुचयवत् तेजस, कर्मणका बंधेलगा वैक्रीयवत् और मूकलेगा समुच्चयवत्.
असुरकुमार देवताओंमें औदारिक आहारकका बंधेलगा नहीं हैं. मूकेलगा अनन्ते हैं । समुचयवत् और वैक्रीयंका दो भेद, (१) बंधेलगा, (२) मूकलेगा जिसमें बंधेलगा असंख्याते हैं. कालसे असंख्याती उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी क्षेत्रसे ७ राजघन* चौतराकीजे जिसकी श्रेणी परतर एक प्रदेशीके असंख्यातमें भाग क्षेत्रसे विषम सूची अंगुलमें जितना प्रदेश ( असंख्याता) आवे
* घन एटले चारो बाजु लंबो चोडो माप में बराबर होवो जोइए.
-
सातराज
घन चौतरो
.
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(७) उसका प्रथम वर्गमूल निकालना और जितना प्रदेश प्रथम वर्गमूल में भावे उतने असूरकुमारके वैक्रिय शरीरका बंधेलेगा है। जैसे असत्य कल्पनासे प्रदेश २५६ है जिसका प्रथम वर्गमूल १६ दूसरा १ और तीसरा २ है तो यहां प्रथम वर्गमूलके असंख्यातमें भाग जितना अाकाशप्रदेश आवे उतने असुरकु० हैं और तैजस, कार्मणका बंधलगा वैक्रियवत् तीनोंका मुकेलगा अनन्ते समुच्चयवत्.
एवं नागादि नव निकायके देवता भी समझना.
पृथ्वीकायमें वैक्रीय, आहारकि के बंधेलगा नहीं हैं, मुकेलगे अनन्ते हैं। समुचयवत् पृथ्वीकायमें औदारिक शरीरके दो भेद हैं (१) बंधेलगा (२) मूलगा जिसमें बंधेलगा असंख्याते है. कालसे एकेक समयमें एकेक औदारिक शरीर निकाले तो असं० उत्सर्पिणि, अवसर्पिणि व्यतीत हो जाय, क्षेत्रसे एकेक पाकाशप्रदेशपर एकेक औदारिक शरीर रखते २ सम्पूर्ण लोक और ऐसे असंख्याते लोक पूर्ण हो जाय । मुकेलगा अनन्ते अभव्यसे अनन्तगुणा और सिद्धोंके अनन्तमें भाग हैं. तेजस् कार्मणका बंधेलगा औदारिक जितना और मूलगा अनन्ते समुचयवत् इसी माफक अपकाय, तेऊकाय, वायुकाय और वनसतिकाय भी समझना, परन्तु वायुकायमें वैक्रीय शरीरका बंधेलगा असं० हैं। वे समय २ निकाले तो क्षेत्र पल्योपमके भसं. ख्या में भाग समय हो उतना और वनस्पतिमें, तेजस कार्मणका बधेलगा अनन्ते हैं । कानसे अनन्ती उत्सर्पिणि, अवसर्पिणि, क्षेत्रसे अनन्ते लोकाकाश जितना, द्रव्यसे सर्व जीवसे अनन्ते.
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( ७२) गुणे और सर्वजीवोंका वर्गमूल करनेसे अनन्तमें भाग ऊरण ( न्यून ) हैं.
बेइन्द्रियमें औदारिक शरीरके दो भेद हैं। बंधेलगा और मूकेलगा. जिसमें बन्धलगा असंख्याने हैं। कालसे-असंख्याती उत्सर्पिणी अवसर्पिणी । क्षेत्रसे-सातराजका धनचौतरा कराना जिसके श्रेणी परतरके असंख्यातमें भाग जिसका विषमसूचि असंख्याता कोडाकोडी योजन क्षेत्र लीजे उसमें आकाशप्रदेश आवे उनको वर्गमूल कीजे।जैसे ६५५३६ का वर्गमूल २५६ और २५६ का वर्गमूल १६ और इसका वर्ग ४ इसका २। सर्व वर्गमूलोंको इकठा करनेसे २७८ प्रहेश होते हैं। इतनी २ जगह एकेक बेइन्द्रियको रखते २ सम्पूर्ण परतर भर जाय और मूलगा समुचयवत् इसी माफक तेजस कार्मणका बंधेलगा मूलगा भी समझना ।
बीन्द्रियमें वैक्रीय आहारकका बंधेलगा नहीं हैं । मुलगा समुचयवत् एवं तीन्द्रियय, चौरिन्द्रिय और तिर्यचपंचेंद्रिय भी समझना, परन्तु तियंचपंचेन्द्रियमें वैक्रीय शरीरका बंधेलगा भुवनपतिकी माफक तथा क्षेत्रके वर्गमूल में १६ प्रदेश आया था जिसके असंख्यानमें भाग तिर्यचपंचेन्द्रियमें वैक्रीय शरीरका बंधेलगा हैं । शेषाधिकार बीसिद्रियवत्.
मनुष्यमें औदारिक शरीरका दो भेद है-बंधेलगा और मूकेलगा। जिसमें औदारिक शरीरका बंधेलगा स्यात् संख्याते स्यात् भसंख्याते कारण मनुष्य संक्षी संख्याते है और असंज्ञी भसंख्याते। जो संख्याते हैं वे तीजा जमल परतरके ऊपर भोर चौथा जमन
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(५) पस्तरके अन्दर (जमल परतरके पाठ अंक होते हैं) अर्थात् २९ अंक जितने संज्ञी मनुष्य हैं-७९२२८१६२५१४२६४३३७. ५६३५४३९५०३३६ इतनी संख्याके मनुष्य हैं अथवा १ को बिमव (९६) बारगुणा करे इतना मनुष्य है और जो असंस्वाते औदारिक हैं वे कालसे असंख्याती उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी और चत्रसे लोकका धन चौतरा कीजे जिसके एक आकाशकी श्रेणी परतर जिसमें आकाशप्रदेशकी असत्य कल्पना ६५५३६ जिसका वर्गमूल-२५६-१६-४-२ दूजेको चौथेसे गुणा करनेसे ३२ प्रदेशप्रमाण एकेक मनुष्यको बैठनेके लिये स्थान दे तो सम्पूर्ण परतर भर जाय, परन्तु एक रूप कम रहे। मुलगा समुचयवत् । इसी माफक तेजस कार्मण भी समझना । वैक्रिय शरीरका बंधेलगा स्यात् मिले स्यात् न मिले अगर मिले तो संख्याते मिले क्योंकि संज्ञी मनुष्य ही वैक्रिय करते हैं। मूलगा समुचयवत् । पाहारिकका बंधेलगा स्यात् मिले स्यात् न मिले अगर मिले तो सख्याते मिले और मुकेलगा समुचयवत् । ___ व्यंतर देवतामें औदारिक और पाहारिक बन्धेलगा नहीं हैं और मुकेलगा समुचयवत् । वैक्रियके बन्धेलगा असंख्याते हैं। कालसे-असंख्याती अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी, क्षेत्रसे-७ राजकाचौतरा कीजे श्रेणी परतरसे विषम सूचि अंगुल क्षेत्र लाजे जिसमें संख्याते सौयोजन ( तीन सौ योजन ) का क्षेत्र एकेक व्यंतरको बैठनेके लिये जगह दी जावे तो सम्पूर्ण परतर भर जावे । मुकेलगा समुचय माफक अनंते, तेजस कार्मण वैक्रियकी माफक । * ज्योतिषीमें औदारिक माहारिकके बन्धलगे नहीं है और
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(७५) मुकेलगे समुचयकी माफक अनन्ते हैं । वैक्रिय शरीरका दो में हैं (१) बन्धेलगा (२) मूकेलगा जिसमें बन्धेलगे असंख्याते हैं। कालसे-असंख्याती अवसर्पिणी उत्सर्पिणी, क्षेत्रसे-७ घनराजण चौतरा कीजे जिसमें विषम सूची अंगुल क्षेत्र लीजे, उसमें पान काशप्रदेश आवे जिसमें २५६ प्रदेश आते हैं। एकेक जोतिषीके बैठने के लिये जगह दी जावे तो संपूर्ण परतर भर जाये इतना वैक्रिय शरीरका बन्धलगे हैं। मुकेलगे अनन्ते समुचयवत् । तेजस कार्मणका बन्धेलगा मुकेलगा वैक्रियकी माफक,
वैमानिक देवोंमें औदारिक आहारिक के बन्धेलगे नहीं है और मुकेलगे अनंते समुचयवत् । वैक्रिय शरीरका बन्धेलगे असंख्याते हैं। कालसे-असंख्याती अवसर्पिणी उत्सर्पिणी, क्षेत्रसे७ धनराजके परतर श्रेणीमेसे विषम सूची अंगुल क्षेत्र लीजे जिसमें प्राकाशप्रदेश आवे जैसे २५६ जिसका विर्गमूल कीजे सो प्रथम १६-४-२ । दूजा और तीजेका गुणा करनेसे । प्रदेश आते हैं इतना (असं० ) वैक्रियका बन्धेलगे हैं। मुकेलगे अनन्ते समुचयवत् । एवं तेजस कार्मण भी समझना । इति ।
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
__ थोकडा नं. १४८ श्री पन्नवणासूत्र पद १३
( परिणाम पद) जिस परिणतीपने प्रणमें उसे परिणाम कहते हैं। जैसे
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( ७५ ) वि स्वभावसे निर्मल, सचिदानंद हैं परंतु पर प्रयोग कषाय में प्रणमणेसे कषाई कहलाता है यह उपचरित नयकी अपेक्षा हैं, इसका विवरण इस थोकडेद्वारा कहा जायगा वह परिणाम दो प्रकारके होते हैं. (१) जीव परिणाम (२) अजीव परिणाम । हे भगवन् ! जीव परिणाम कितने प्रकारके हैं ? जीव परिणाम दश प्रकार के है यथा-(१) गति परिणाम (२) इन्द्रिय ० (३) कषाय० (४) लेश्या० (५) योग० (६) उपयोगः (७) ज्ञान (८) दर्शन० (९) चारित्र० (१०) वेद० ये दश द्वार चौवीस पंरक पर उतारे जावेगे।
(१) गति परिणामके ४ भेद हैं-(१) नरकगति (२) तियंचगति (३) मनुष्य (४) और देवगति. : (२) इन्द्रिय परि० के ५ भेद हैं=(१) श्रोत्रेन्द्रिय (२) बहु० (३) घाण० (४) रस० (५) और स्पर्शेन्द्रिय,
(३) कषाय परि० के ४ भेद हैं क्रोध, मान, माया और लोभ ___(४) लेश्या परि०के ६ भेद हैं=(१) कृष्ण, (२) नील,
(३) कापोत, (४) तेजो, (५) पद्म (६) शुक्ल. .(१) योग परि० के ३ भेद हैं-(१) मनयोग, (२) पचन. योग और (३) काययोग.
(६) उपयोग परि० के २ भेद हैं-साकार और अनाकार. .. (७) ज्ञान परि०के ८ भेद हैं-मतिज्ञान, श्रुति० अवधि० मनपर्यव० केवल मतिप्रज्ञान, श्रुतिमझान और विमंगज्ञान
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(७) (८) दर्शन परि० के ३ भेद हैं-सम्यग्दर्शन, मिथ्यादी और मिश्रदर्शन. .. () चारित्र परि० के ७ भेद हैं-सामायिक चा०, छेदो पस्थापनीय०, परिहारविशुद्धी, सुक्ष्मसंपराय० यथाख्यात. प्रचारित्र और चरिताचारित्र.
(१०) वेद परि० ३ भेद हैं-स्त्री, पुरुष, नपुंसक.
उपर लिखे दश द्वारोंके ४५ बोल हैं और समुचय जीवमें (१) अनेन्द्रिय (२) अकषाय (३) अलेशी (४) अयोगी (५) अवेदी ये ५ बोल भी मिलते हैं इनको मिलानेसे ५० बोल होते हैं।
समुचय जीव पूर्वोक्त ५० बोलपने प्रणमते हैं । इसलिये ५० बोल अस्ति भाव माना है.
(१) नारकीके दंडकमें २६ बोल गति एक नारकी, इन्द्रिय पांचों ५, कषाय ४, लेश्या ३, योग ३, उपयोग २, ज्ञान ६, (झान ३ अज्ञान ३), दर्शन ३, चारित्र एक असंयम, वेद एक नपुंसक कुल २९ बोल पावे.
(११) भुवनपति और व्यन्तरमें ३१ बोल=२९ पुर्वोक और एक लेश्या और एक वेद अधिक.
(३) ज्योतिषी, सौधर्म, ईशान देवलोकमें २८ बोन-तीन लेश्या कम करनी.
(५) तीजेसे बारहवें देवलोकमें २७ बोल एक वेद कम करना. .. (१) नौवेको २६ बोल-एक रष्टि कम करनी.
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( ७७) (१) पांच अनुत्तर विमानमें २२ बोन-एक दृष्टि और मौन अयान कम करना.
(३) पृथ्वी, पानी, वनस्पतिमें १८ बोल-१-१-४-४-१ १-३-१-१-१ एवं १८
(२) तेउ, वाउमें १७ बोल-एक लेश्या कम करनी
(१) बींद्रिय में २२ बोल-जिसमें १७ पूर्ववत् और एक रसेंद्रिय, एक वचनयोग, दो ज्ञान, एक दृष्टी, एवं ५ बोल अधिक
(१) तीद्रियमें २३ बोल-एक घ्राणेन्द्रिय अधिक (१) चोरिन्द्रियमें २४ बोल-एक चक्षुन्द्रिय अधिक
(१) तिर्यंचपंचेन्द्रिमें २५ बोल-क्रमश: १-५-४-६-३ २-६-३-२-३
(१) मनुष्यमें ४७ बोल-तीन गति कम करना. विशेष विस्तार गुरुगमसे समझो. सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नंबर. १४९ . श्रीपनवणासूत्र पद १४ ।
(अजीव परिणाम ) - अजीव-जो पुद्गल है उसका भी स्वस्वभाव परिणमने का है
और उनके दश भेद हैं. (१) बन्दन (२) गति (३) संस्थान (४) मेद (१) वर्ण (६) गंध (७) रस (८) स्पर्श (8) अगुरुलघु (१०) शब्द.
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(७८) (१) बन्धन-स्निग्ध, स्निग्धका बन्ध नही होता. सन रूक्षका बन्ध नहीं होता. जैसे राखसे राखका और और घृतसे घृतका बन्ध नहीं होता. स्निग्ध और रुक्षका बन्ध होता है वह भी सममात्राका बंध नहीं होता परन्तु विषममात्राका बंध होता है। जैसे परमाणु परमाणुका बन्ध नहीं होता परमाणु दो प्रदेशीका बन्ध होता है।
(२) गति-पुद्गलोंकी गति दो प्रकारसे होती है ! एक स्पर्श करता हुआ जैसे पानी पर तीतरी चले, और दूसरी. अस्पर्श करता हुवा जैसे आकाशमें पांक्षी ।
(३) संस्थान-संस्थान आकारको कहते हैं जो कमसे कम दो परमाणु और जादामें संख्याते, असंख्याते या अनन्ते परमाणुवोंसे बनता है । जिसके परिमंडलसंस्थान वट सं० त्रस सं० चौरस सं० अयतन सं० एवं पांचे भेद हैं।
(४) भेद-पुद्गलों के छेद भेद होता हैं वह पांच प्रकारसे भेदाता है। यथा (१) खन्डा भेद-जैसे काष्ठादि जो भेदनेके बाद फिर न मिले । (२) परतर-भोडल, जलपोसादि । (३) चूर्ण-गहुं, बाजरी, झूठ, मरिचादि । (४) उकलीया-मूंग, मोठादिकी फली गे तापसे फटे । (५) अणुतूडीया-पानी मुख जाने पर मट्टीकी रेखा फट जाती हैं। .. (५) वर्ण-काला, नीला, लाल, पीला, सफेद-ये मूल वर्ष पांच हैं, और इनके संयोगसे अनेक होते हैं. जैसे बैगनी, मलागरी, बदामी, केजरीयादि.
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( ७९ )
(६) गन्ध-सुगन्ध और दुर्गन्ध,
(७) रस- तिक्त, कटुक, कषायत, खटा और मधुर (मीठो ) मूल रस पांच हैं, और नमकको सामिल करनेसे पटूरस कहे जाते हैं.
(८) स्पर्श - कर्कश, मृदुल, गुरु, लघु, शीत, उष्ण, स्निग्ध और रुक्ष.
(९) अगुरुलघु-न हलका और न भारी. जैसे परमाणवादि प्रदेश, मन, भाषा और कार्मण शरीरादिके पुद्गल.
(१०) शब्द - दो भेद, सुस्वर, दुस्वर. सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं० १५०
श्रीपन्नवणासूत्र पद १५. ( इन्द्रिय पद )
इन्द्रिय पदका पहिला उद्देशा शिघ्रबोध भाग ९ में छप चुका है. इस संसारार्णवमें परिभ्रमण करते हुवें एकेक जीवने भूतकालमें कितनी २ इन्द्रियां की ९ वर्तमान में कौनसा जीव कितनी इन्द्रिया बांधके बैठा है ? भविष्य में कौनसा जीव कितनी इन्द्रिय बांधेगा ? यह सब इस थोकड़े द्वारा कहेंगे ।
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इन्द्रिय दो प्रकारकी है. द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय. जिसमें द्रव्येन्द्रियके ( भेद यथा. कान दो, नेत्र दो, घ्राण दो ( प्राणके दो स्वर होते हैं ) जिह्वा एक, स्पर्श एक एव पाठ इन्द्रियोंको चौवीस दण्डक पर चार २ द्वारसे उतारेंगे। . नारकी १ भुवनपति १० व्यंतर १ ज्योतिषी १ वैमानिक १ तिर्यच पंचेन्द्री १ मनुष्य १ एवं १६ दंडकमें द्रव्येद्रिय पाठ पावे. एकेन्द्रिय के पांच दंडकमें द्रव्येन्द्रिय एक स्पर्शेन्द्रिय पावे, बीन्द्रिय में (२) रस और स्पर्श. तीन्द्रियमे ४ दो घ्राण जादा. चौरिन्द्रियमें ६ दो चक्षु जादा (चक्षु २ घ्राण २ रस १ स्पर्श १)
हे भगवान ! एक नारकीके नेगेयाने भूतकालमें द्रव्येन्द्रिय कितनी की वर्तमान में कितनी हैं भविष्य में कितनी करेगा ? एक नारकीके नेरीया भूतकालमें नारकीपने अनंती वार उत्पन्न हुवा इस लिये अनन्ती इन्द्रिया की है. वर्तमान कालमें ८ इन्द्रिय बांधके बैठा है. भविष्यमें द्रव्येद्रिय (-१६-१७ संख्याती, असंख्याती या अनन्ती करेगा क्योंकि जो नारकीसे निकलके मनुष्यका भव कर मोक्ष जायगा उसकी अपेक्षा ( इंद्रिय कही और जो नारकीसे त्रियं च पंचेंद्रियका भवकर मनुष्य भवमें मोक्ष जायगा उसकी अपेक्षा १६ कही और नारकीसे त्रियंच पंचेंद्वियका भव कर फिर पृथ्वीकायका भव करे और वहांसे मनु
*व्येन्द्रिय दोनो कानो द्वारा ट बनिष्ट शब्द श्रवण करना कथंचित् कोई पंचेन्द्रिय जीव एक कानसे न भी सुने तो द्व्यापेक्षा एक द्रव्येन्द्रिय सुन्य कही जाती हैं. और शब्द सुनके राग द्वेष करना मह भाबेन्दिर है. . . . . . . .
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पा मवमें मोच जानेवाला जीव १७ इंद्रिय करेगा और जिसको ज्यादा भव भ्रमण करना है वह संख्याती, असंख्याती या अनन्ती इंद्रियां करेगा इसी तरह सब जगह समझ लेना.. ___एक असुरकुमारके देवताका प्रश्न-भूतकालमें अनन्ती इन्द्रिया, वर्तमान कालमें पाठ, भविष्य कालमें 4-8-१७ संख्याती, असंख्याती या अनन्ती इसमें नौ कहनेका कारण यह है कि असुरकुमारसे निकल पृथ्वीकायमें उत्पन्न हो फिर मनुव्य भवकर मोक्ष जायगा उसकी अपेक्षासे कहा, शेष पूर्ववत्-एवं यावत् स्तनितकुमार भी कहना. ____एक पृथ्वीकायके जीवकी पृच्छा-भूतकालमें अनन्ती इंद्रियां, वर्तमानकालमें एक सशंद्रिय, भविष्यमें ८-९-१७ संख्याती, असं० या अनन्ती भावना पूर्ववत्-एवं अपकाय तथा वनस्पतिकाय भी समझ लेना. . - एक तेउकायके जीवकी पृच्छा-भतकालमें अनन्ती इन्द्रियां, वर्तमानमें एक, और भविष्यमें ९-१० सं० सं० या अनन्ती एवं वायुकाय भी समझना. ___एक बीन्द्रिय जीवकी पृच्छा-भूनकालमें अनन्ती, वर्तमान में दो, भविष्यमें नव, दश, सं० सं० या अनन्ती, भावना पूर्ववत्, एवं नीन्द्रिय परन्तु वर्तमानमें ४. एवं चौरिन्द्रिय परंतु वर्तमानमें ८ ( यहां पाठ नहीं कहनेका कारण यह है कि तेऊ, वाय और 'विकलेन्द्रि अनन्तर भाव मोचगामी नहीं होते हैं।
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एक तिर्यच पंचेंदियकी पृच्छा-भूतकालमें अनन्ती, वर्तमा नमें ८, भविष्यमें ८-९-१७ सं० भसं० या अनन्ती भावना पूर्ववत् । .. एक मनुष्यकी पृच्छा-भूतकालमें अनन्ती, वर्तमानमें ८, भविष्यमें कोई करेगा कोई न करेगा (बद्भव मोक्षगामी ) जो करेगा वह (-९-१० सं० सं० या अनन्ती भावना पूर्ववत् । ___ व्यन्तर देवकी पृच्छा-भूतकालमें अनन्ती वर्तमानमें । भविष्यमें ८-९-१० सं० सं० या अनन्ती भावना पूर्ववत्एवं ज्योतिषी, पहिला, दूसरा देवलोक भी समझ लेना।
तीजा देवलोककी पृच्छा-भूतकालमें अनन्ती, वर्तमानमें ८, भविष्यमें ८-१६-१७ सं० सं० या अनन्ती एवं यावतु नौ ग्रेवेक तक कहना।
एकेक विजय पैमान देवकी पृच्छा-भूतकालमें अनन्ती, वर्तमानमें ८, भविष्यमें ८-१६-२४ संख्याती करेगा क्योंकि विजय वैमानके देवता पृथ्व्यादिमें नहीं उत्पन्न होते एवं विजयन्त, जयन्त, अपराजित ।
सर्वार्थसिद्ध वैमानके एकेक देवताकी पृच्छा-भूतकाल में अनंती, वर्तमानमें पाठ, भविष्यमै पाठ, कारण एकावतारी है.
इतिद्वारम् घणा नारकीके नेरीयों की पृच्छा-भूतकालमें अनन्ती, वर्तमान कालमें असंख्याती क्योंकि असंख्याते नारकी है और
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(८३) भविष्यमें अनंती इन्द्रियां करेगा. क्योंकि नारकीके जीवोंमें मच्यामन्य दोनों हैं एवं यावत् नौवेक तक कहना, परन्तु वनस्पतिमें जीव अनन्ते हैं तथापि औदारिक शरीर असंख्याते हैं. इस निये इन्द्रिय असंख्याती कही और मनुष्यमें वर्तमानापेक्षा स्थात् संख्याती स्यात् असंख्याती समझना. __ घणा विजय वैमानके देवोंकी पृच्छा-भूतकालमें अनन्ती, वर्तमान कालमें असंख्याती और भविष्यमें असंख्याती करेगा. एवं विजयन्त, जयन्त और अपराजित भी समझना.
घणा सर्वार्थसिद्ध वैमानके देवोंकी पृच्छा-भूतकालमें अनन्सी, वर्तमानमें संख्याती और भविष्य में संख्याती इन्द्रियां करेंगे।
.. इतिद्वारम् . एकेक नारकीके नेरीया नारकीपने द्रव्येंद्रियोंकी पृच्छा-भूतकालमें अनंती, वर्तमानमें पाठ, भविष्यमें कोई करेगा कोई न भी करेगा. करेगा वह (-१६-२४ सं० भसं० या अनन्ती इन्द्रियां करेगा.
एकेक नारकी के नेरीया असुरकुमारपने द्रव्येन्द्रियां कितनी?भूतकालमें अनन्ती, वर्तमानमें एक भी नहीं और भविष्यमें कोई करंगा कोई न भी करगा.जो करेगा वह (-१६-२४ सं० सं० या अनन्ती इन्द्रियां करेगा एवं यावत् स्तनितकुमार । - एक नारकीका नेरीया पृथ्वीकायपने द्रव्येन्द्रिया कितनी?भतकालमें अनंती, वर्तमानमें एक भी नही, भविष्य में जो करेगा
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तो १-२-३ संख्याली. असंख्याती अनंती एवं यावत् वनस्पति काय, एवं बेइंद्रिय परंतु भविष्यमें अगर करेगा तो २-४-६ संख्याती, असंख्याती, अनंती एवं तीद्रिय परन्तु भविष्यमें अगर करेगा तो ४-८-१२ संख्याती, असंख्याती, अनंती एवं चौरिद्रिय परंतु भविष्यमें करेगा तो ६-१२-१८ संख्याती, असंख्याती, अनंती एवं तियेच पंचेन्द्रिय परंतु भविष्यमें करेगा तो (-१६-२४ संख्याती असंख्याती अनंती एवं मनुष्यमें परंतु, भविष्यमें नियमा करेगा वह स्यात् (-१६-२४ संख्याती, असंख्याती, अनंती।
व्यंतर ज्योतिषी वैमानिक यावत् नौग्रेवेक तक भूतकालमें अनंती वर्तमानमें एक भी नहीं, भविष्यमें कोई करे कोई न करे अगर करे तो (-१६-२४ संख्याती० असं० अन ।
एकेक नारकीका नेरिया विजय वैमानपने द्रव्येन्द्रिय कितनी ?भूतकालमें एक भी नहीं की थी, वर्तमान कालमें एक भी नहीं, भविष्यमें कोई करेगा कोई न करेगा अगर करेगा तो ८-१६ कारण विजय वैमानके देवता दो भवसे अधिक नहीं करते एवं विजयन्त, जयन्त, अपराजित. ___एवं सर्वार्थसिद्ध परंतु भविष्यमें जो करेगा वह पाठ कारण एक भव ही करता है. यह एक नारकीके नेरियेको २४ दंडक पर काहा है इसी माफक १० भुवनपतियोंको भी कह देना. स्वस्थान पर वर्तमान पाठ द्रव्यद्रिय हैं, परस्थानमें नहीं है, शेष नारकीवत् समझना. इसी माफक पांच स्थावर तीन विकलेन्द्रिय और तिर्यच
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अचेंद्रिय भी समझना परन्तु वर्तमान स्वस्थानमें जितनी इंद्रिय है उतनी कहना । एवं मनुष्य नारकीपणे कितनी द्रव्येन्द्रियां करेगा ? भूतकालमें अनंती, वर्तमानमें एक भी नहीं, भविष्यमें कोई करेगा, कोई नहीं, अगर करेगा वह ८-१६-२४ संख्याती, असंख्याती, अनंती एवं असुरादि १० भुवनपति भी कहना । पृथ्वीपणे भूतकाले अनंती, वर्तमानमें एक भी नहीं, भविष्यमें जो करेगा तो १-२-३ यावत् संख्याती असंख्याबी अनंती एवं यावत् वनस्पति एवं बीन्द्रिय परन्तु भविष्यमें करेगा खो २-४-६ तीन्द्रिय ४-८-१२. चौरिन्द्रिय ६-१२-१८ नियंच पांचेन्द्रिय ८-१६-२४ यावत् संख्याती असंख्याती अनंती करेगा।
एक मनुष्य-मनुष्यपणे द्रव्योद्रिय कितनी करेगा ? भत० भनंती, वर्तमान आठ, भविष्यमें कोई करे, कोई न करे अगर करे तो (-१६-२४ संख्याती असंख्यातो अनंती करेगा. व्यंतर ज्योतिषी वैमानिक यावत् नौयषेक तक भूत० अनंती, वर्त. मान एक भी नहीं, भविष्ये अगर करेगा तो ८-१६-२४ संख्याती असंख्याती अनंती । एफेक मनु० चार अनुत्तर वैमान के देवतापणे कितनी द्रव्येंद्रियां करेगा ? भूतकालमें किसीने की पिसीने नहीं की जिसने की उसमे आठ तथा सोला की, पमान में नहीं, भविष्य में कोई करेगा, कोई नहीं करेगा, जो बनेगा .बह -१६ करेगा और सर्विसिरपये मान्य भूतकालमें किसीने की किसी नहीं की और को भी
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उसने नियमा पाठ, वर्तमान में नहीं, भविष्यमें करेगा के आठ करेगा।
व्यंतर ज्योतिषीका अलावा २४ दंडक पर असुरकुमारकी माफक कह देना
सौधर्म देवलोकसे नौप्रवेक तकके एक एक देवता कितनी द्रव्येंद्रियां करेगा ? असुरकुमारके माफक परन्तु इतना विशेष है कि विजयादिक वैमानमें भूतकाल किसीने करी, किसी ने नहीं करी, जिसने करी है तो ( करी है. वर्तमान नहीं, भविष्यमें साठ या सोलह करेगा और सर्वार्थसिद्ध वैमानमें भूतकाले नहीं, वर्तमाने नहीं, भविष्यमें करेगा तो पाठ करेगा। ___ एकेक विजय वैमानका देवत्ता नारकीपणे भूतकाल द्रव्येंद्रिय अनंती की, वर्तमान नहीं, भविष्य नहीं करे, एवं यावत् पांचेंद्रिय तियंच तक । मनुष्यपणे भूतकाल अनंती, वर्तमान नहीं, भविध्यमें नियमा-करेगा स्यात् (-१६-२४ संख्याती । वाणव्यतर ज्योतिषीमें भूतकाले अनंती, वर्तमाने और भविष्यमें नहीं ।
सौधर्म देवलोकपणे भूतकालमें अनंती, वर्तमान नहीं, भविष्यमें करेगा तो ८-१६-२४ संख्याती एवं यावत् नौवेक तक समझना. विजयादि ४ अनुत्तर वैमानपणे भूतकालमें करी हो तो भविष्यमें करेगा तो आठ । सर्वार्थसिद्धपणे भूत और वर्तमानमें नहीं । भविष्यमें करेगा तो आठ करेगा. इसी माफक विजयन्त व जयन्त, अपराजीत ।
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(८७) . एकेक सर्वार्थसिद्ध वैमानके देवता नारकीपणे द्रव्येन्द्रिय भूतकाले अनंती, वर्तमान और भविष्यमें नहीं, एवं यावत् मनुष्यवर्जके नौवेक तक समझना, मनुष्यमें अतीता अनंती, वर्तमान नहीं, भविष्यमें नियमा आठ करेगा। विजयादि ४ अनुत्तर वैमानके देवपणे भूतकाल किसीने की, किसीने नहीं की, जिसने की तो पाठ, वर्तमान और भविष्यमें एक भी नहीं और सर्वासिद्धपणे भूतकाले नहीं, वर्तमान आठ, भविष्यमें नहीं।
इति द्वारम् घणा जीव आपसमें द्रव्येन्द्रियों ? घणा नारकीका नेरिया नारकीपणे द्रव्येन्द्रियां कितनी करी ? भूतकाले अनंती, वर्तमाने असंख्याती, भविष्यकानमें अनंती करेगा, एवं यावत् नौग्रैवेक परन्तु परस्थानमें वर्तमान एक भी नहीं कहना। __ घणा नारकीका नेरिया पांच अनुत्तर वैमानपणे द्रव्येन्द्रिय भूतकाल और वर्तमानमें एक भी नहीं करी, भविष्यमें असंख्याती करेगा।
यह नारकीका दंडक, २४ दंडक पर कहा इसी माफक नियंचपांचेन्द्रिय तक भी कह देना, परन्तु वनस्पतिके दंडकका जीव भविष्यमें सर्व ठेकाणे यावत् सर्वार्थसिद्ध तक अनंती द्रव्येद्रिय करेगा, कारण जीव अनंते हैं। ... घणा मनुष्य नारकीपणे द्रव्योगिय भूतकाले अनंती, वर्त
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( टटे )
मान में नहीं, भविष्य में अनंती, एवं यावत् नौयैवेक तक परन्तु मनुष्य स्वस्थाने वर्तमान स्यात् संख्यात स्यात् श्रसंख्यात कहना.
चार अनुत्तरवैमानपणे० भूतकाल संख्यात, वर्तमान नहीं, भविष्य स्यात् संख्यात, स्यात् असंख्यात और सर्वार्थसिद्धप भूतकाले, वर्तमान नहीं, भविष्य स्यात् संख्याती, स्यात् असंख्याती एवं व्यंतर ज्योतिषी वैमानिक यावत् नौवेक तक समझना | घणा व्यार अनुत्तर वैमानके देवता नारकीपसे द्रव्येंद्रिय भूतकाले अनंती, वर्तमान और भविष्य नहीं एवं ज्योतिषी तक समझना; परन्तु मनुष्यपणे भविष्य में असंख्याती करेगा एवं सोधर्मसे यावत् नौप्रैवेक तक ।
च्यार अनुत्तर बैमानपणे श्रतीता असंख्याती, वर्तमाने असंख्याती, भविष्य में असंख्याती, सर्वार्थसिद्धपणे भूतकाल नहीं, वर्तमान नहीं, भविष्य असंख्याती । घणा सर्वार्थसिद्धका देवता नारकपणे द्रव्येन्द्रिय भूतकाल में अनंती, वर्तमान और भविध्यमें एक भी नहीं एवं मनुष्यवर्धके यावत् नौयैवेक तक समझना. मनुष्यपणे तीता अनंती, वर्तमान नहीं, भविष्य संख्याती ।
च्यार अनुत्तर वैमानपणे भूतकाल संख्याती, वर्तमान और भविष्य नहीं, सर्वार्थसिद्ध वैमानके घणे देवता घणा सर्वार्थसिद्ध वैमानिका देवतापणे द्रव्येन्द्रिय भूतकाल में एक भी नहीं, वर्तमान संख्याती, भविष्यकालमें एक भी नहीं करेगा ।
इति द्वारम्
हे भगवान् ! भाव इंद्रियां कितनी है ? भाव इन्द्रियां ५ हैं.
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यथा-मोतेन्द्रिय, चतू इन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसेन्द्रिय, स्पशेन्द्रिय बेस द्रव्येन्द्रियां ८ को २४ दंडक पर च्यार द्वार करके सम. हर गई हैं इसी माफक भाव इन्द्रियां ५ हैं उसको २४ वंडक पर उपरवत् च्यार २ द्वार समझना चाहिये. यदि द्रव्यन्द्रिय कंठस हो जायगी तब भावइंद्रियका उपयोग सहजमें हो नायगा. इस लिये यहांपर इसका विवरण नहीं किया इति ।
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सचम् ।
थोकडा न० १५१ श्रीपन्नवणासूत्र पद १६
... (प्रयोगपद) जिसका चनन स्वभाव है उसको प्रयोग कहते हैं, वे प्रयोग दो प्रकारके हैं (१) शुभ (२) अशुभ. दोनों प्रकारकी क्रिया मदद करते हैं प्रयोगकी प्रेरणा प्रथमसे तेरहवां गुणस्थान तक है जिसमें प्रथमसे दशमें गुणस्थान तक प्रयोगके साथ कषायका संयोग. होनेसे संपरायकी क्रिया लगती हैं और ११-१२-१॥ गुपस्थानमें प्रयोगके साथ कषायका संयोग नहीं हैं अर्थात् वहां अकषायी है वास्ते इविहीकी क्रिया लगती है. इस लिये प्रथम प्रयोगके स्वरूप को खूब दीर्घदृष्टीसे समझना जरूरी है। .
हे भगवान् ! प्रयोग कितने प्रकार है। भयोग १५ प्रकारके है पथा (१) सबमयोग,
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(२) असत्यमनयोग, (३) मिश्रमनयोग, (४) व्यवहारमनयोग, (५) सत्यवचनयोग, (६) असत्यबचनयोग, (७) मिश्रषचनयोग, (८) व्यवहारबचनयोग, (8) औदारिककाययोग, (१०)
औदारिकमिश्रकाययोग, (११) वैक्रियकाययोग, (१२) के क्रियमिश्रकाययोग, (१३) आहारिककाययोग, (१४) आहा. रिकमिश्रकाययोग, (१५) कारमणकाययोग, इन्हीं (१९) प्रयोगोंको २४ दंडक पर उतारेंगे।
समुचय जीवमें प्रयोग १५ पावे.
नारकी और देवताओं में प्रयोग पावे ११ ( ४ ) मनके (४) बचनके (१) वैक्रियकाययोंग (१) वैक्रियमिश्रकाययोग (१) कारमणकाययोग । एवं ११.
पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वनस्पति, बीन्द्रिय, तीन्द्रिय, चौन्द्रिय, इन ७ बोलोंमें प्रयोग (३) पावे. औदारिकका. ययोग, औदारिकमिश्नकाययोग, कारमाणकाययोग परन्तु तीन वैकलेंद्रि व्यवहार भाषाधिक होनासे (४) योग । वायुकायमें प्रयोग पावे ५ (३) पूर्वोक्त वैक्रिय और वैक्रियमिश्रकाययोग एवं पांच तथा नियंच पांचंद्रियमे प्रयोग १३ पावे. आहारिककाययोग, आहारिकमिश्रकाययोग दो वर्जके; और मनष्यमें १५ प्रयोग पावे.
किस दंडकमें कितने प्रयोग शाश्वते हैं ?
समुचय जीवोमें प्रयोग १५ हैं जिसमें १३ शाश्वते मिलते हैं और माहारिककाययोग तथा माहारिकमिभकाययोग ये दोनो
१५
कितने प्रयोग शाम
शाश्वते मिलते
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प्रयोग कमी मिलते हैं कभी नहीं मी मिलते. कारण यह दोनों प्रयोग पूर्वधर मुनिराजके होते हैं अगर इनका विकल्प किया आप तो १ भांगे होते हैं।
(१) तेरह योग सर्वकालमें शाश्वते मिले. (२) तेरह शाश्वता और आहारिकका एक
, घणा (४) , आहारिकके मिश्रका एक
" , घणा माहारिकका एक मिश्रका एक " " " घणा
घणा, एक
, घणा , घणा नारकीमें प्रयोग ११ है जिसमें १० शाश्वते हैं और कारमण अशाश्वता है जिसका भांगा ३ है (१) दश प्रयोग शश्वता (२) दश प्रयोग शाश्वता, और कारमण एक मिले (३) दश प्रयोग साश्वता और कारमण घणा मिले-एवं देवताओंके १३ दंडकमें तीन तीन भांगा सर्व ४२ भांगे हुए |
पांच स्थावरमें भांगा नहीं होता है.
तीन विकलेंद्रियमें प्रयोग ४ पावे.जिसमें ३ शाश्वता कारमण प्रशाश्वता भांगा ३ (१) वीन प्रयोगवाला घणा (२) तीन प्रयोगवाळा घणा और कारमण एक (३) तीन प्रयोगवाळा घणा कारमणका भी घणा एवं ९ मांगा....
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(५) - तियंच पांचेन्द्रियमें प्रयोग पावे १३ जिसमें १२ शासन कारमण अशाश्वता जिसका भांगा ३ (१) बारहका घणा (१) बारहका घणा कारमण एक (३) बारहका घणा कारमण घणा | ___मनुष्यमें प्रयोग १५ पावे जिसमें ११ शाश्वता ४ अशाश्वता सो (१) आहारिक (२) आहारिकमिश्र (३) औदारिकमिश्र (४) कारमण जिनके भांगा ८१ सर्व भांगोके अंदर ११ प्रयोग का शाश्वता बोलना चाहिये ।
असंयोगी ९ भांगा.
(१) इग्यारे योग सदाकाल शाश्वता (२) इग्यारहका घणा पाहारिकका एक (३) , , , घणा
, आहारिकका मिश्र एक
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" घणा मौदारिकका मिश्र एक
घणा कर्मणका एक
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द्विक संयोगी २५ भांगा.
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आहारिक० मिश्र० श्राहारिक० औ० मिश्राबाहारिक० कार्मण
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मा० मिश्र औ० मिश्र प्रा०मिश्र०कार्मण
औ० कार्मण
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त्रिक संयोगी ३२ भांगा. मा० मिश्र औ० मिल था० आ० मिन्न
10 मिन कार्मण
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( १७) औ० मिग | का० आ० मिश्र चौ० मिश्र| कार्मण !
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चतुष्क संयोगी भांगा १६.
मा० मा. मिश्रा औ० मिथ कार्मण आ० मा० मिश्र | औ० मिश्र
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। इति भांगा ८१ एवं भांगा ९-४२-९-३-८१ सर्व १४४ भांगा हुवा इति
नोद-मनुष्यमें वैक्रियमिश्रकाययोगको शाश्वत कहा है सो टीकाकार कहते हैं कि विद्याधर वैक्रिय करते हैं इस अपेक्षासे है,
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और औदारिकके मिश्रको प्रशाश्वता कहा है वह मनुष्यमें उत्पन्न होनेका १२ मुहूर्तका विरहकालकी अपेक्षा है।
हे भगवन ! गति कितने प्रकारकी हैं ? गति पांच प्रकारकी है।
(१) प्रयोग गति-जो पूर्व १४४ भांगे कह भाये हैं इसी माफक समझना.
(२) तंतगति-जो ग्राम नगर आदिको जा रहा है परन्तु जहां तक नगरमें प्रवेश न हुवा अर्थात रास्ते चलता है उसको तंतगति कहते है.
(३) बन्दण छेदण गति-जीवसे शरीरका अलग होना शरीरसे जीवका अलग होना.
(४) उववाय गति-उत्पन्न गतिके तीन भेद हैं (१) क्षेत्र उत्पन्न गति (२) भवो उत्पन्न गति (३) नो भवो उत्पन्न गति । जिसमें (१) क्षेत्र उत्पन्न गतिके पांच भेद हैं यथा
(१) नरकमें उत्पन्न जिसका रत्नप्रभादि सात भेद हैं. (२) तियेचमें उत्पन्न जिसका एकेंद्रियादि पांच भेद हैं. (३) मनुष्यमें उत्पन्न जिसका गर्भज समुत्सम दो भेद हैं. (४) देवतामें जिसका भुवनपति आदि ४ भेद हैं.
(५) सिद्ध उत्पन्न गतिके अनेक भेद हैं. जम्बूद्वीपादि अढाई द्वीप ४९ लक्ष योजनमें कोई भी प्रदेश ऐसा नहीं है कि यहाँसे सिद्ध न हुवा हो अर्थात् सर्व स्थानसे सिद्ध हुवे हैं. अब यहां पर अढाई द्वीप दो समुद्रमें जितने पर्वत और क्षेत्र है उनका नाम सर्व वहां पर कह देना.
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( ९ )
. (२) भवो उत्पन्न गति--नरकादि चार गतिमें उत्पन्न होष (३) नो भव उत्पन्न गति - पुद्गलोंका चय उपचय त सिद्ध भगवान् सिद्धक्षेत्रमें उत्पन्न होते हैं वह भी नो भव उत्पन गति है । जिसमें पुद्गल नोभव उत्पन्न गतिके अनेक भेद है। लोकके पूर्वका चरमान्तसे परमाणु एक समय में लोकके पश्चिम के चरमान्तमें गति करता है एवं दक्षिण उत्तर उर्ध्व अधोलोक में उत्पन्न करता है और सिद्धों के दो भेद है (१) अणंतर सिद्ध जिसके १५ भेद हैं (१) परम्पर सिद्ध जिसके अनेक भेद हैं.
(४) विहायगति - जिसके १७ भेद है.
(१) फूलमाण गति - एक दूसरेको स्पर्श करता हुवा जावे जैसे परमाणुवादि अनन्तप्रदेशी स्कंध परमाणुवादिको स्पर्श करता हुवा गति करे.
(२) आफूसमाण गति - प्रथमसे विपरीत अस्पर्श करते हुके गति करे.
(३) उवसंपन्नमण गति - जैसे राजा, युवराज, सेठ, सेनापति आदिको अंगीकार कर गति करे अर्थात् अपने पर मालक करके गति करे
1
(४) अणुवसंपज्जमणागति - किसीका भी आश्रय न लेवे जैसे चक्रवर्तादि |
(५) पोगल गति - जैसे परमाणु यावत् अनन्त प्रदेशी पुगलोकी गति है ।
(६) मंडूयागति - जैसे मेडक कुदते हुवे चलते है वैसी गति ।
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( ९७ ) . (७) नावागति-जैसे पाणी में नावा (नौका) धीरे धीरे चाले
(८) नयगति-तत्त्व विचारमें नैगमादि ७ नय अर्थात् जिस नयकी अपेक्षासे बोले वह उन्ही नयकी गति कही जाती है
(९) छायागति-जैसे अश्व, गज, मनुष्य, किन्नरादि देव तथा वृषभ रथ छात्रादिकी छाया चाले अर्थात् इन्होंकी छायाकी गति.
(१०) छायाणुगति-जैसे पुरुष स्त्रि नोपुरुषकी छाया पीछे पीछे गति करे.
(११) लेस्सागति-जैसे कृष्णलेश्या निललेश्याके वर्ण रूप पणे परिणमे एवं नील कापोतपणे कापोत तेजो पणे यावत् पद्म शुक्ल पणे परिणमे इत्यादि. . (१२) लेस्साणुवायगति-जैसे मरती वखत जिस लेश्या का द्रव्य गृहन करता है उसी लेश्याके स्थानमें उत्पन्न होता है.
(१३) उद्दिस पविभत्तगति-जैसे प्राचार्य पद्वि, उपाध्याय पद्वि, स्थिवर पद्वि, प्रवृतक पद्वि, गणि पद्वि, गणधर पद्वि, गणविच्छेदक पद्वि, देवे और पद्वि प्रमाणे गति करे. (१४) चउपुरिसपविभतगति-जैसे चार पुरुष होते है
(१) साथमें निकले और साथमें प्रवेश हो. (२) साथमें निकले और विषम प्रदेश हौ.
(३) विषम निकले और साथमें प्रवेश हो. . (४) विषम निकले और विषम प्रवेश हो.
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( ९८ ) (१५) चंकगति-जिसके चार भेद हैं अर्थात् बको गति करे. बंको ऋजु गति करे एवं ४
(१६) पंकगति-जैसे कर्दममें गति करें पाणीमें गति करे, __(१७) बंधणविमोयण गति-जैसे अग्र अवडी बिजोरा बीला कवीट इत्यादि पक जाने पर भूमि पर पड़ते है यह पन्त राले गति करते हैं उन्हींको बन्धण विमोयण गति कहते हैं. ___ कण्ठस्थ करनेके लिये स्वल्प लिखा है विशेप विस्तार गुरु मुखसे समझो. इति. .... सेवं भंते सेवं भंते तमेव सचम् ।
जाजतनारामनारायनाजाना इति शीघ्रबोध ११ वां भाग समाप्त.
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श्रा रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प नं० ४७ HERO-90-999999 H === = श्री रत्नप्रभसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः ।
__ अथ श्री
500
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शीघ्रबोध
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4
थोकडा प्रबन्ध
भाग १२ वां
संग्राहकश्रीमदुपकेश (कमला) गच्छीय मुनि । a श्रीज्ञानसुन्दरजी (गयवरचन्दजी)
प्रकाशकः
श्रीसंघफलोधी सुपनादिकिआंवदसे
06
प्रबन्ध कर्ताशाहा मेघराजनी मोणोयत मु० फलोधी प्रथमावृत्ति १००० वीर सं० २४४८
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विषयानुक्रमणका। नंबर . विषय
१ लेश्यापद उदेशो १.... २:." , २....
५ , , ६.... ६ दर्शनपद..... .... ७ तेजस अवगाहना .... ८ कर्मप्रकृति उदेशो २.... ९ आहारपद उदेशो २.... १० उपयोग पद . .... ११ पासणी या पद १२ संज्ञी पद.... १३ संयति पद १४ परिचारणा पद १५ वेदना पद.... १६ समुद्घात पद १७ , कषाय समु.....
छदमस्थ समु. केवली समु. मम्यक्त्वना द्वार
की अल्पा० ....
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भूमिका । प्यारे वाचक वृन्दो !
श्री मिनेन्द्रदेवोंके फरमाये हुवे जैनागमों स्याद्वाद गंभीर शैली जिन्होंके प्रत्येक व्याख्यासे चारों अनुयोगका ज्ञान हो शक्ता था परन्तु कालके प्रभावसे बुद्धि-बलकी हानि देखके श्रोमदार्य रक्षत सूरीनी महारानने चारों अनुयोगों को भिन्न भिन्न रूपसे रच कर भव्यात्माओं पर परमोपकार किया है ।
(१) द्रव्यानुयोग-निप्तमें नय निक्षेप स्याहाद षट द्रव्य जीव अनीव चैतन्यके साथ कर्मों का संयोग या वियोग आत्मा या पुद्गलों की शक्ति इत्यादि वस्तु धर्मका प्रतिपादन है ।
(२) गीणतानुयोग-जिसमें नरकके नरका वासा देव. तोंके पैमान या क्षेत्रका लम्बा चौडा ऊर्ध्व अधो तीरछा क्षेत्र तथा ज्योतिषी देवोंके चलन क्षेत्रका परिमाण इत्यादि ।
(३) चरणानुयोग निसमें साधू श्रावकों को क्रिया कलर कायदा आदि ।
(४) धर्म कथानुयोग-जिसमें महा पुरुषों के प्रभावीक चरित्र है इन्ही च्यारों अनुयोगके अंदर प्रवेश करनेके लिये प्रथम च्यार व्यवहारीक शास्त्रोंकी आवश्यकता है ।
(१) द्रव्यानुयोगके लिये-न्यायशास्त्र (२) गणतानुयोगके लिये-गणत शास्त्र (३) चरणानुयोगके लिये-नीतिशास्त्र (४) धर्म कथानुयोगके लिये-अलंकार शास्त्र
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- इन्ही च्यारों व्यवहारीक शास्त्रोंकि साहितासे च्यारों अनुयोग, सुखपूर्वक प्रवेश कर शक्ते हैं। पूर्वोक्त च्यारानुयोगमें शास्त्र कारोंने मौख्य आत्मकल्याणके लिये द्रव्यानुयोग फरमाया है सिवाय इन्होंके ज्ञान है वह सर्व शुष्क ज्ञान है इसी लिये आत्मरसीक भाइयोंको जहां तक बने वहां तक स्वशक्ति माफीक द्रव्यानुयोगके लिये प्रयत्न करना चाहिये।
___ यह बात आप लोक अच्छी तरहसे जानते हैं कि उच्च पदार्थको प्राप्त करनेवो पुरुषार्थ भी उच्च कोटीका होना चाहिये । परन्तु जमाने हालमें कीतनेक भाइ ऊपरसे अच्छा डोल रखनेवाले अच्छी सुन्दर टईटलके कीताबो बहुतसी एकत्र कर अलमारीमें रख देते हैं कभी कीसी किताबके ४-५ पेन और कभी किसी किताबके पेन देखते हैं पढना अच्छा है परन्तु उन्होंसे जहां तक स्वल्प ही ज्ञान कण्ठस्थ न कीया जावेंगे वहां तक बढके आगेके लिये इतना लाभ नहीं उठा सकेगा उन्हीं द्रव्यानुयोग रसीक भाइयोंसे हम नम्रता पूर्वक निवेदन करते हैं कि आप एक तरहका व्यशन हीडाल दो कि इतना पाठ प्रतिदिन कण्ठस्थ करेगे या प्रतज्ञा करलो। - कण्ठस्थ ज्ञान कराने के लिये लेखकों की लेखक शैली भी ऐसी होनि चाहिये कि निसमें ज्यादा विस्तार न करते हुवे मूळ वस्तु और वस्तुका स्वरूप थोडा हीमें बतला दिया जाकि स्वल्स परिश्रममें कण्ठस्थ हो जा बाद मे विस्तारवाले ग्रन्थ भी सुख पूर्वक पढता जा और उन्हीका मूल रहस्य को समझता जा यह बापता ही पाती होगा कि कुछ ज्ञान कण्ठस्थ करोगे ।
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नय भांग पमाणेहिं, जे आया सायचायण,
सम्मदिठि उस नाओं, भणिय वीयरायहिं ॥१॥ - जो नय मांगा परिमाण और स्याहाद कर आत्माको जाणि है उन्हींको ही वीतराग देवोंने सम्यग्दृष्टि कहा है वास्ते पूर्वोक्त द्रव्यानुयोगमें प्रवेश होनेके लिये वर्तमानमें जो आगम है जिन्हींके अंदर श्री पन्नवणाजी सूत्र जिन्होंका ३१ पद हैं वह सूत्र श्री वीरप्रभुके २३वें पाट पर श्री श्यामाचार्य महाराज वीर निर्वाण तीनसो वर्ष बाद रचा था वह सूत्र केवल द्रव्यानुयोगमय है जिस्की विस्तार वृति श्री मलियागिरी आचार्य महाराजने करी है वह पन्नवण सूत्र बहूत कठिन है परन्तु उन्हींको सुगम अर्थात् एकेक विषयको एकेक थोकडा रूप बनाके कुल ३६ पदोंका ६५ थोकडे इतने तो सुगम है कि जिन्होंको स्वल्प परिश्रमसे कण्ठस्थ करनेवाला मानों एक पन्नवण सूत्रको ही कण्ठस्थ किया हो वह ६५ थोकडे सबके सब आन-तक छप चुके हैं परन्तु कोनसा भागमें कोनसा कोनसा थोकडा छपा है उन्हीके लिये निचे अनु. क्रमणका दि जाती है।
पन्नवणा सूत्रके पद
| थोकडेकि
विषय ।
शघ्रबोधके भागमें छपे .
नम्बर 0 num थोकडे
2ी
१ जीव विचार माग २नोंमें ., २ स्थान पद भाग ११मोंमें
, ३ दिशाणुवाइ भाग १में , ३ अल्पाब० १०२ भाग ९में
४
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७
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११
१२
११
१४
१५
१६
१७
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२२
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२४
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इन्द्रिय अल्प०
छेकाया अरूप०
षटूद्रव्य अल्पा०
ढिगला २९६
६९ अल्पा ०
खेताणुवाइ
१०
१०
९८ अल्पा ०
स्थिति पद
जीव पर्यव
अजीव पर्यव
विरहद्वार
उवठणाद्वार
गत्या गिधार
८ संज्ञापद
९. योनिपद
आयुष्यका भांगा श्वासोश्वास
चरमपद
चरमभागा २६
संस्थानचरथ
११
चरमद्वार १०
११
भाषाद्वार १८
१२ शरीर परिमाण
भाग ११ में
भाग ११ „
भाग
८
भाग ११ "
भाग ८
भाग ११
भाग १
भाग ११
भाग ११
भाग ११
भाग १
भाग ११
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भाग ३
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भाग ९
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भाग ११
भाग ११
भाग ११
भाग ११
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२८
[५] , १३ परिणमनीव भाग११ , , १३ अनीवपरिणाम ,भाग ११ ,, , १४. कषायपद भाग ९,। , १५ इन्द्रियपद भाग ९, , १५ इन्द्रियद्रव्यादि भाग११, ।, १६ प्रयोगपद भाग ११ , , १७ लेश्या उदेशो १ भाग १२ ,, ।, १७ , , २ , "
४२ . ४३
, १७ , , ६ , " , १८ कायस्थिति भाग ९, ,, १९ दिष्टीपद भाग१२ ,, , १०. अन्तक्रिय भाग ९, ,, २० पद्विधार भाग ९, , २० सिद्धधार भाग ९ ,,
पांचशरीर भाग ९,,
मरणांतिसमु० भाग१२में, ,, २२ क्रियापद भाग २, , २३ कर्मप्रकृति भाग१२ ।। , २३ अबाधकाल भाग ९,
२४ बन्धता बंधे भाग ५ २९ बंधता वेद , "
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* * * * * *
२६ वेदतो बंधे , ,, २७ वेदतो वेदे , ५ ,, २८ आ० हार ११ , ३"
आ० द्वार१३ ,
उपयोगपद ३० पासणियापद , , ३१ संज्ञीपद , १२ ,
संयतिपद , , ५९ , ३३ अवधिपद , १२,
परिचारणापद , ६१ , ३५ वेदनापद , १२, १२ , ३६ समुदधाता ॥ १२ ॥ १९ , ३६ छदमस्थसमु० ॥ १२ ॥
,, ३६ कषायसमु० , १२
, ३६ केवलीप्समु० , १२ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला ओफिस तीर्थ ओशिया। इन्हीं संस्थाद्वारे स्वल्प समयमे आजतक निम्न लिखित पुष्प प्रसिद्ध हो चुके है कार्य चालु है। नंबर पुष्पोंके नाम आति पुष्प संख्या १ प्रतिमा छतिशी
१९००० २ गयवर विलाश . ३ दानछतिशी
४ अनुकम्पा छतिशी
-
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,२०००
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[७]
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२०००
१ १ २ १ २ १
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१०००
-
०
५ प्रश्नमाला ६ स्तवन संग्रह भाग १ लो ७ पैतीस बोल थोकड़ो ८ दादा साहिबकी पूना ९ देवगुरु वन्दनमाला १० स्तबन संग्रह भाग २ जो ११ लिंग निर्णय १२ स्तवन संग्रह भाग ३ जो १३ चर्चाकी पब्लिक नोटीश १४ सिद्ध प्रतिमा मुक्तावली १५ बत्तीस सूत्र दर्पण १६ जैन नियमावली १७ चौरासी आशातना १८ डंके पर चोट १९ आगम निर्णय प्रथमांक २० चैत्यवन्दन स्तवनादि २१ जैन स्तुति २२ सुबोध नियमावली २३ प्रभु पूना २४ जैन दीक्षा २५ व्याख्या विलास २६ शीघबोध भाग १ २७. . , , २
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३१ सुख विपाकसूत्र मूल ३२ शीघबोध भाग ६ ३३ दश वैकालीकसूत्र मूल
१००० शीघ्रबोध भाग ७ . १ ३५ मेझर नामो
४५०० ३६ तीन निर्नामा लेखका उत्तर
१००० ३७ ओशीय ज्ञान लिष्ट १
१००० १८ शीघ्रबोध भाग ८ . १ ३९
, ९ १ ४० श्री नन्दीसूत्र मूल पाठः १ १००० ४१ श्री तीर्थयात्रा स्तलन
२००० ४२ शीघ्रबोध भाग १. १ ४३ अमे साधु शा माटे थया १ १००० ४४ विनति शतक ४५ द्रव्यानुयोग प्रथम प्रवेशिका ? ४६ शीघ्रबोध भाग ११ ४७ , , १२ १
१०.. ४९ , , १४ १
कुल एक लक्ष पुष्प (१०००००)
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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पु० नं० ४७ श्री रत्नप्रभसूरी सद्गुरुभ्यो नमः
अथ श्री
शीघ्रबोध या थोकडा प्रबंध |
भाग १२वां
थोकडा नं० १
सूत्र श्री पन्नवणाजी पद १७ उ० १ ( लेश्या ९ द्वार )
(१) शरीर ( २ ) आहार ( ३ ) उश्वास (४) कर्म (५) वर्षे (६) लेश्या (७) बेदना (८) क्रिया (९) आयुष्य इति ।
(१) शरीर (१) आहार : ३) उश्वास वह तीन द्वार साथमें ही कहते हैं ।
( प्र ) नारकी सर्व बराबर शरीराहारोश्वास वाला है ।
( उ ) नारकी दो प्रकारके हैं (१) महाशरीरा (२) स्वरूप शरीरा जिसमें महाशरीरा नारकी है वह बहुतसे पुद्गलोंका आहार लेते हैं परिणमाते हैं या उश्वास भी बहुत लेते हैं या बारबार पुद्गलोंकों लेते हैं परिणमाते हैं और जो स्वल्प शरीरा नारकी वह स्वरूप पुद्गलोंको लेते हैं परिणमाते हैं या ठेर ठेरके लेते हैं परिणमाते हैं या स्वल्प श्वासोश्वास लेते हैं वास्ते बराबर नहीं हैं।
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[१०] (४) कर्म–सर्व नारकीके क्या कर्म बराबर है ?
नारकी दो प्रकारके है (१) पहले उत्पन्न हुवे (२) पीछे उत्पन्न हुवे जिस्मे जो पेहले उत्पन्न हुवे नारकी है वह विशुद्ध कर्मवाले हैं कारण वह बहुतसे अशुभ कर्म भोगव चुका है शेष स्वल्प कर्म राहा और जो पीछेसे उत्पन्न हुवे है वह अविशुद्ध कर्मवाला है कारण उन्हींको हाल सर्व अशुभ कर्म भोगवणा रहा है जेसे दो केदी केदखानामे है निस्से एक तो ११ मास केदमे रहा अब एक ही मासमे छूट जावेगा दुसरा एक ही मास केदमे रहा और ११ माससे छूटेगा इन्ही दोनों केदियोंमे परिणामोंकी विशेषता अवश्य होती है।
(१) वर्ण (६) लेश्या (क्रन्ति )--यह दोनों द्वार कर्म माफीक समझना। .
(७) वेदना-सर्व नारकीके वेदना क्या बराबर है।
नारकी दो प्रकारके है (१) संज्ञी भूत (२) असंज्ञी भूत (अर्थात् यहसे संज्ञी जीव थरके नारकीमें जाधे या नारकीमें पयाप्ता तथा सम्यग्दृष्टी हो इन्ही तीनोंको संज्ञीभूत कहते है इन्हीसे विप्रीतको असंज्ञीभूत कहते है उन्होंको स्वरूप वेदना जेसे यहांपर; इजतदार आदमीको स्वल्प भी ठका मीलने पर बड़ा ही रंज होता। है और जो नो लायककों केद तक भी होना पर भी कुच्छ नहीं इसी माफीक सम्यग्दृष्टी नारकीको मानसी महावेदना होती है इतनी : मिथ्यादृष्टीकों नहीं होती है.
(८) क्रिया-सर्व नारकीकों क्रिया बराबर है ? ..
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[ ११ ]
नारकी तीन प्रकारके हैं (१) सम्यग्दृष्टी (२) मिथ्यादृष्टी (१) मिश्रदृष्टी जिसमे सभ्य • को आरंभ कि, परिगृह कि, माया कि, और अपचरकांण कि, एवं च्यार क्रिया लागे और मिथ्या • मिश्र० को पूर्ववत् और पांचमी मिथ्यात्व कि एवं पांच क्रिया लागे ।
(९) आयुष्य - सर्व नारकी के आयुष्य बराबर है.
नारकी च्यार प्रकारके हैं (१) बराबर आयुष्प और साथही में उत्पन्न हुवे (२) बराबर आयुष्य और विषमोत्पन्न हुवे (३) विषमायुष्यं और साथ में उत्पन्न हुवे ( ४ ) विषम आयुष्य और विषमही उत्पन्न हूवे || १ |
यह नारकी के दंडकर नौ द्वार उतारे गये हैं इसी माफक २४ दंडकों पर भी नौ नौ द्वार उतार देना परन्तु जो विशेषता है वाह निचे लिख देते है | (१३) देवतका १३ दंडक नारकी माफीक है परन्तु कर्म वर्ण लेश्या नारकीसे विप्रीत समझना कारण पहले उत्पन्न हूवे देवता शुभ कर्म बहूतसा भोगव चुका है शेष रहा है वास्ते अविशुद्ध है ओर पीच्छेसे उत्पन्न हूवे उन्होंको बहुत से कर्म बाकी है इसी माफीक वर्ण और लेश्याजी समझना. (८) पांच स्थावर तीन बैकलेन्द्रिय नरकवत् परन्तु वह सर्व असंज्ञी होनासे असंज्ञीभूत वेदना ओर मिथ्याद्रष्टी होनासे क्रिया पाच लगती है ।
शुभ
(१) वीर्यंच पांचेन्द्रिय नारकीवत् परन्तु क्रियाधिकारे तीयंच तीन प्रकारका है (१) सम्यग्दष्टी (२) मिथ्या० (३) मिश्र जिस्मे सम्यग्द्रष्टी के दो भेद है (१) असंयति ( २ ) संयता
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संबति मिस्मे संयतासंयति (श्रावक) को मारंभी की परिगृहर्षि
ओर मायाकि यह तीन क्रिया लागे कारण भन्तानुबन्धी चोकडीसे मिथ्यात्वकि क्रिया ओर अपत्याख्यानाकि चोक डोसे अपञ्चरवार णकि क्रिया लगती है वह दोनो चोकडी श्रावकके न होनाले दोनों क्रियाके अभाव है अगर अन्य स्थानपर श्रावकको व्रतावजी कहा है वह परिग्रहकी अपेक्षा कहा है । शेष नरकवत ।
(१) मनुष्य-मनुष्य दो प्रकारके होते है (१) महाशरीरा वह बहुत पुद्गलोंका आहार करते है परन्तु ठेर ठेरके (युगल मनुध्यापेक्षा ) (२) स्वल्प शरीरा नरकवत् तथा क्रियाधिकारे मनुष्य तीन प्रकारका (१) सम्यग्दृष्टी (२) मिथ्या (३) मिश्र० जिसमें भी संयतिका दो भेद हैं (१) सरागी (२) वीतरागी निसमें वीत. रागीके पांच क्रियासे कोई भी क्रिया नहीं है गे सरागी है उन्होंका दो भेद है (१) प्रमत संयति (२) अप्रमत संयति जो अप्रमत. उन्होंको एक मायकी क्रिया है जो प्रमत है उन्होंको आरंभ कि और माया कि यह दो क्रिया है संयतासयतके तीन सम्यग्दृष्टीके चार मिथ्यात्वी मिश्रके पात्रों क्रिया लागे पूर्ववत् ।
एवं २४ दंडकपर ९ द्वार उतारणासे २१६ भांगा है। । अब, लेश्याके साथ १बार केहेते है ।
नरकादि २४ दंडक । लेश्या संयुक्त पर नौ नौ द्वार पूर्ववत् केहनेसे २१६ भांगा होता है।
(१) कृष्णलेश्यामें-ज्योतिषी वैमानि वनके १२ दंडक है ५ पूर्ववत् ९ द्वार कहनेसे १९८ भांगा होते हैं परन्तु नरकादिमें
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[२३]
वेदनाधिकारे संज्ञी भूतके स्थान अम यी सम्यग्दृष्टी और मसंज्ञी भूतके स्थान मायी मिथ्यात्दृष्टी कहना तथा मनुष्यमें क्रियाफिकारे मरागी वीतरागी या प्रमादि अप्रमादीका भेद नहीं कहना कारण कृष्म लेश्यावाले सर्व प्रमादि होते हैं शेष पूर्ववत् एवं १९८
(३) निल लेश्याके १९८ मांगा कृष्णवत् (४) कपोत लेश्याके १९८ भांगा कृष्णवत्
(५) तेनो लेश्यामें १८ दंडक है (तेउ वायु तीन वैकले. न्द्रीय नारकी एवं १ वर्गके) विशेष है कि मनुष्यमें क्रियाधिकारे सरागी वीतरागी नहीं हो परन्तु प्रमादी अप्रमादीमें क्रिया पूर्ववत् कहना एवं १८ कोनौ गुण करनासे १६२ मांगा होता है ।
(६) पद्मालेदयामें दंडक तीन-तीर्यच पांचेन्द्रिय मनुष्य और वैमानिक देवे सर्वाधिकार तेजो लेश्यावत् तीनको नौ गुण करनेसे २७ भांगा होता है।
(७) शुक्ललेश्या ये तीन दंडक पूर्ववत् परन्तु मनुष्यमें निवाधारे सरागी वीतरागी प्रमादि अप्रमादिका भेद और क्रिय समुच्चयवत् कहेना तीनकों नौ गुण करनेसे २७ भागा होते है __ एवं भांगा २११-२१६-१९८-१९८-१९८-१६२ २७-१७ सर्व १२४२
सेवभो सेवंभंते तमेव सचम
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[१४]
थोकडा नं. १ सूत्र श्री पन्नवणाजी पद १७ उ० २
( लेश्याकी ४६ अल्पबाहूत्व ) कौनसे कौनसे दंडकमें कितने २ लेश्या मिले या मि उन्होंमें कौनसी कौनसी लेश्यावाले जीव न्यूनाधिक है वह सर्व इस थोकडे द्वारे बतावेगा
(!) समुच्चय जीवोंके ( बोल । (१) स्तोक शुक्ललेश्यावाले जीव हैं । (२) पद्म० संख्यात गु० (३) तेनो० सं० गु० (४) अलेश्यावाले (सिद्ध) अनन्त गु० (५) कापोत लेश्या ० अनंत गु० (६) निल लेश्या ० वि० (७) कृष्ण लेश्या० विशेषः (८) सलेश्या० विशेषाः ।
(२) नारकीमें लेश्या ३ पावे । (१) स्तोक कृष्ण लेश्या० (२) निल सं० असं ० गु० (३) कापोत . असं ० गु०।
___ (३) समु० तीर्यचमें लेश्या ६ पावे ।
(१) स्तोक शुक्ल लेश्या० (२) पद्म० सं गु० (३) तेनो. सं० गु० (४) कापोत० अनन्त गु० (५) निल० वि० (६) कृष्ण वि०।
(४) समु० एकेंद्रियमें लेश्या ४ पावे (१) स्तोक तेजो० (२) कापोत० अनन्तगु० (३) निल वि० (४) कृष्ण० वि० ।
(१) एवं वनास्पतिमें लेश्या ४ पावे (६) पृथ्वी कायमें लेश्या ४ पावे
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[१५] (१) स्तोक तेनो० (२) कापोत० असं० गु० (३) निल. वि. (४) कृष्ण० वि.। - (७) एवं अपकायमें लेश्या ४ पृथ्वीवत
(८) तेउकायमें लेश्या ? पावे। (१) स्तोक कापोत ० (२) निल० वि० (३) कृष्ण यि.
(९) एवं वायुकायमें लेश्या ३ पावे (१०) (११) (१२) एवं बेरिद्रिय तेरिदिय चौरिद्रिय
(१३) तीर्यच पांचेन्द्रियमें लेश्या ६ पावे । (१) स्तोक शुक्ल लेश्या० (२) पद्म सं० गु० (३) तेनों सं० गु० (४) कापोत . असं • गु० (५) निल लेश्य! • वि. (९) कृष्ण • वि० ।
(१४) तीर्यचणिमें लेश्या ६ पावे । (१) स्तोक शुक्ल लेश्या ० (२) पद्म० सं० गु० (३) तेजो. सं० गु० (४) कापोत ० सं . गु० (५) नि ४० वि० (६) कृष्णा वि. . (१५) तीर्थच तीर्यचणीके १२ बोल।
(१) स्तोक शुक्ल लेश्या० तीर्यच (२) शुक्ल लेश्या ० तीर्यचणि सं० गु० (३) पद्म तीर्यच सं० गु० (४) पद्म० तीर्यचणि सं• गु० [५] तेजो वीर्यच सं० गु० (६) तेजो तीर्यचणि सं० गु० (७) कारोत ती यचणि से• गु० (८) निल. तीर्यचणि वि० (९) कृष्ण. वीर्यचणि वि० [१०] कापो० तीर्यच अनन्ता गु० (११) निरु तीर्यच वि० (१२) कृष्णा तीर्थच वि०।
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________________
[१६] (१६) संज्ञी तीर्यच में लेश्या ६ पावे । . . (१) स्तोक शुक्ल० (२) पद्म० सं० गु० (३) तेजो० सं. गु० (४) कापोत . असं गु० (५) निल० वि० (६ कृष्ण • वि.
(१७) असंज्ञी तीर्यचमें लेश्या ३ पावे (१) स्तोक कापोत ० (२) निल० वि० (३) कृष्ण० वि० ।
(१८) संज्ञी तीर्यच संज्ञा तीयंच णके १२ (६) अल्पाबहुत्व न० १५के म फिक (७) कापोत० तीर्थच असं० गु० (८) निल • तीयंच वि० (९) कृष्ण तीयच वि० (१०) कापो० तीर्यचणि असं० गु० (११) निल) तीर्यचणि वि. (१२) कृष्ण तीर्यचणि वि०
(१९) संज्ञी तीर्य चके ६ असंज्ञी ती० पां ३
(६) अल्पाबहुत्व सोलमीवत् (७) कापोत ले • असंज्ञी ती० असं० गु० (८) निल० असज्ञी ती• पा० वि० (९) कृष्ण असंज्ञी० ती० पा० वि० ।
(२०) संज्ञी तीर्यचणि असंज्ञो ती० पा० पूर्ववत (२१) संज्ञीत यच तीर्यचणि और असंज्ञी तीयंच
(१२) अल्पा० अठारवींवत् (१३) कापो० असंज्ञो ती. पा० असं० गु० (१४) निल० असंज्ञी ती० पा० वि० (१५) कृष्ण० असंज्ञी० ती० पी० वि०
(२२) समु० तीर्यच संज्ञीतीयंचणिका १२ (६) अल्पा० १५ वत् (७) कापोत० तीर्यचणि सं० गु० (८) निल• तीर्यचणि० वि० (९) कृष्ण तीर्यचणि वि० ।
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[ १७ ]
(१०) कापो तीर्थच असं (११) निल० तीर्थचवि
(१२) कृष्ण तीर्यच वि० ।
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( २३ ) समु० मनुष्यके ६ बोल
(१) स्तोक शुक्ल० (२) पद्म० सं० गु० (३) तंजो० सं० गु० (४) कपोत० असं ० गु० (१) निल० वि० (३) कृष्ण वि० (२४) मनुष्यणिका ६ बोस
पूर्ववत परन्तु चोथो बी० गुणा
(२३) मनुष्य मनुष्यणिका १२ बोल.
(१) स्वोक शुक्र० मनुष्य ( २ ) शुक्ल मित्र० सं० गु० (५) पद्म० पु० सं० गु० (४) पद्मस्त्रि संणु० (२) तेनो० पु० सं० (६) तेजो० स्त्रि० सं० गु० (७) कारों० स्त्रि० सं० मु० (८) नि०० स्त्रि वि० (९) कृष्णस्त्रि ० वि० (१०) कापो० मनुष्य असं ० गु० ( ११ ) निल म० दि० (१२) कृष्णम बी०
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(२) संज्ञी मनुष्यके ६ बोल
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(१) स्तोक शुक्ल० (२) पद्म० सं० गु० (३) तेजो सं० गु० (४) कापोत० सं० गु० ( 1 ) निल० वि० (६) कृष्ण. वि० ।
(२७) असंज्ञी मनुष्य के ३ बोल
(१) कापोत० स्तोक (२) निल० वि० (३) कृष्ण० वि० (२८) संज्ञी मनुष्यके ६ असंज्ञीके ३
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________________
[१८] (अल्पा० न० २६ वत् (७) कापोत० असंज्ञीमनुष्य असं. गु० (८) निल० असंज्ञी मनु० वि० (९) कृष्ण. असंज्ञी० मनु० वि।
(०९। मनुष्यणि और असंज्ञी मनु० उपरवत
(३०) मनुष्य मनुष्यणिके १२ बोल (१) स्तोक शुक्ल लेश्या० मनुष्य पुरुष (२) शुक्का मनुष्य स्त्रि० सं० गु० (३) पद्म पु० सं० गु० (४) पद्म स्त्रि सं० गु० (५) तेनो० पु० सं० गु० (६) तेनो स्त्रि० से ० गु. (७) कापो० पु० सं० गु० (८) कापो० स्त्रि० सं० गु० (९) निल• पु० वि० (१०) निल० स्त्रि० सं० गु० (११) वृष्ण पु० वि० (१२) कृष्ण स्त्रि० सं० गु• !
(३१) मनुष्य मनुष्याण और असेज्ञी मनुष्य (१२) अल्प ० मं० ३० दत (१३) कापोत० अज्ञी मनुष्य ० असं० गु. (१४) निल • असंज्ञी० मनु० वि. (१९) रुष्ण० असं० मनु० वि।
(३२) समु० देवतोंमें लेश्या ६ पावे (१) लोक शुक्ल ० ( झः असं० गु० कोत. असं ० गु० (४) निल • वि (4) सण. वि० (६) ते नो । संखयत गु० ।
(३३) समु० देवीमे लेश्या ४ पावे (१) स्तोक कापोत० (२) निल० वि० (३) कृष्ण ० वि० (४) ते नो संख्या ० गु० ।
(३४) समु० देवता देवीका १० बोल ।
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________________
[१९ (१) लोक शुक्ल० देवता० २) पद्म देवता असं. गु. (३) कापोत ० देवता ० असं० गु० (४) निल० देवता वि० (५) कृष्ण देवता वि ० (६) कापोत० देवीसं ० गु० (७)निल ० देवी० वि० (८) कृष्ण • देवी० वि० (९) तेजो देवता ० सं० गु० (१०) तेनो० देवी० सं० गु० ।
(३५) भुवनपति देयोंमे १ लेश्या पावे (१) स्तोक तेत्रो लेश्या० (२) कापोत० असं० गु० ३) निल० वि० (४) कृष्ण० वि०
(३६) भुवन० देवीमे ४ लेश्या देवयत्
(२१) भुवन देव-देवीका ८ बोल (१) तोरु तेजो० देव (२) लेनो • देवीस० गु० ६) कापोत • देव असं • गु० (४) निलदेव वि० (५) कण देव वि० (६) कापोत० देवीसं २ गु: ७) मिल देवी वि. (८) कृष्ण देवी वि० । (२८) ३२-४० बाणमित्र देव भुवन ० क्तु
(४१) ज्योतिषी देव देवोके ११) स्तोक लेमो देव ० (२) तिगो देवीसं गु०
(४२) वैमानिक देवके ३ बोल ६६) स्तोक शुक्ल० (२) पद्म' असं ० गु० (३) तेनो० सं० गु०
(४३) वैमानिक देवी देवके ४ बोल (३) मल्प ० नं० ४२ वत् (४) नो० देवीसं ० गु०
(४४) समु० चार जातके देवतोंके १२ बोल
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________________
[२०] . (१) स्तोक शुक्ल वैमानिक देव (२) पद्म० वैमानिक देव असं० गु० (३) तेजो वैमनिक देव असं० गु० (४) तेजो० भुवन देव असं० गु० (५) कापोत० भुवन० असं० गु० (६) निल० भुवन० वि० (७) कृष्ण भुवन ० वि० (८) व्यंतर तेनो० असं • गु० (९) कापोत० व्यंतर ० असं गु० ((१०) निल० व्यंतर वि० (११) कृष्ण. व्यंतर० वि० (१२) ज्योतिषी तेजो० सं • गु० ।।
(४५) समु० च्यार जातिकी देवीका १० बोल
(१) स्तोक तेजो० वैमानिक देवी (४) बोल भुवनपति (४) व्यंतर (१) जोतीषीका देवतोंवत् समझाना ।
(४६) समु० देवी देवताओंके २२ बोल (१) स्तोक शुक्ल लेश्या वैमानिक देव (२) पद्म लेश्या० , असं० गु० (३) तेजो लेश्या०
, (४) ,
देवी० सं० गु. (५) तेनो० भवन देव० असं० गु० (६) कापोत० (७) निल.
, विशष (८) कृष्ण (९) तेनो , देवी० सं० गु० (१०) कापोत.
, असं ० गुरु (११) निल
" वि०
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________________
(१२) कृष्ण
(१३) तेजो ०
(१४) कापोत
(११) निल
०
(१६) कृष्ण
(१५) तेजो ०
०
(१८) कापोत
(१९) निल०
(२०) कृष्ण ० (२१) तेजो०
(२२) तेजो
०
[ २९ ]
}}
वाणमित्रा
""
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19
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13
19
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ज्योतिषी देव
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देव असं० गु०
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देवी० सं० गु०
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देवी
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असं० गु०
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वि०
सं० गु०
सं० गु०
31
सेवते मेवंभने तमेव लच्चम्
धोकड़ा नं० 8
सूत्र श्री पन्नवणाजी पद १७५० ३ ( लेश्याधिकार )
हे भगवान् ! नारकी में क्या नेरीया उत्पन्न होते हैं या अनेरीया ! गौतम ! नारकी में नेरीया उत्पन्न होते हैं अनेरीया नहीं. याने जो मनुष्य, तीर्यचमें बैठा हुवा जीव जिसने नारकी का आयुष्य बांधा है वह भविष्य में नारकीमें ही नावेगा इस लिये शास्त्रकारोंने भवि नारकी वहा इसी माफक २४ दंडक भी समझना ।
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[२२] हे भगवान् : नारकीसे नेरीया निकलते है के अनेरीया ? गौतम : नेरीया नही निकाले अनेरीया निकलते हैं क्योंकी नारकीसे निकलकर फिर तद भव नारकीमें उत्पन्न नहीं होगा परन्तु मनुष्य, तीर्थचमें उत्पन्न होगा इस लिये अनेरीया कहा। एवं १३ दंडक देवताओंका भी कहना. और पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रो तीयच पंचेन्द्री और मनुष्य एवं १० दंडक औदारिक शरीरके हैं ये बकाय तथा परकाय दोनोंमें उत्पन्न होते हैं इसलिये पृथ्वीकायकी पृच्छामें पृथ्वीकायसे पृथ्वीकाव्य भी निकले और अपृथ्वीकाय भी निकले एवं यावत मनुष्य भी कहना।
मनुष्य तीयच मरके नारकीमें जाने वाला है उसको अगर मरते समय जो कृष्ण लेश्या आगई तो वह नारकीमें भी कृष्ण लेश्यामे ही उत्पन्न होगा और नारकीसे निकलेगा वह भी रणा, लेझ्यामें ही निकलेगा अर्थात् नारकी, देवताओंके तीनो स्थान पर एक ही लेश्या रहती है, एवं नारकी अपेक्ष कृष्ण, नील. कापोत और देवताओंकी अपेक्ष छेओं लेश्या कहनी यह १” दंडक कहे.
जो जीव कृष्णलेश्यामें मरके पृथ्वी कायपने उत्पन्न हुवा है वह क्या कणलेश्यामें हीं मरेगा ? पृथ्वीकायके लिये यह नियमा नहीं है वह स्यात् कृष्ण, नील, कापोत इन तीन लेश्याओंको परस्पर तेनो लेश्यावाला जीव नियमा लेश्या बदलता है क्योंकी तेजोलेश्या अपर्याप्त अवस्थामें ही रहती है पर्याप्ति अवस्थामें नहीं
. १ मरते घखत, उत्पन्न होते वखत और स्मपुर्ण आयुष्य ।
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[२३
रहती एवं अप० वनस्पतिकाय मी कहना और तेऊ, वाऊ तीन विकले द्रीमें तीन लेश्या रहती हैं। और तीर्यच पंचेन्द्री तथा मनुष्यमें छे लेश्या होती है और वे अपनी २ लेश्यामें मर ने और उत्पन्न भी होते हैं।
कृष्ण लेशी नारकी अवधी ज्ञानसे नील लेशीकी अपेक्षा स्वरूप क्षेत्र जांग देखे वह भी अविशुद्ध नाणे देखे जैसे कोई पुरुष धरती के तले खडा है और दूसरा पुरुष शम भूनीपर खड़ रहे तो शन भूनीकी अपेक्षा धरतीके तलेका मनुष्य कमक्षेत्र देख सका है।
निल लेशी अवधीज्ञानी नारकी कापोत लेशी अवधी की अपेक्षा कम क्षेत्र सोमी अविशुद्ध देखता है जैसे ५ पुरुष धरती पर
और दुपरा पर्वत पर खड है तात्पर्य यह है कि विशुद्ध लेश्यासे ज्ञान भी विकटू होता है । यहां पर देवताओंका अधिकार नहीं है परन्तु देवताओं में भी विशुद्ध लेश्याओंको विशुद्ध ज्ञान होता है।
कृष्ण, नील, कापोत, तेनो और पद्म इन पांच लेश्यावालोंको ज्ञान हो तो स्यात् दो म्यात तीन स्यात् चार होते हैं जैसे ----
दो-मति, श्रुति ज्ञान तीन-मति, श्रुति, अवधिज्ञ न तीन-मति, श्रुति, मनः पर्यवज्ञान चार - मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्यज्ञान
शुक्ल लेश्यामें पूर्ववत् २-३-४ या केवल ज्ञान भी होता है वारण शुक्ल लेश्या १३ वे गुणस्थान तक होती है ।
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सचम् ।
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[२४]
थोकड़ा नं०५ सत्र श्री पन्नवणाजी उ०४
(लेश्याद्वार १५) (१) परिणामद्वार (२) वर्णद्वार (4) गन्धद्वार (४) रसस्पर्शहार (५) शुद्धद्वार (६) प्रशस्थ० (७) संक्लष्ट० (८) शीतोग. (९) गतिद्वार (१०) परिणाम ० (११) प्रदेश ० (१२) अवगाहा (१३) वर्गणा ० (१४) स्थान० (१५) अल्पाबहु ० ।
(प्र) लेश्या कितने प्रकारकि है ।
(उ, लेश्या छे प्रकारकी है यथा-(१) कृष्ण लेश्या ० (२) निल लेश्या (३, कापोत लेश्या ० (४, ने नो लेश्या (५) पद्म लेश्या (६) शुक्ल लेश्या० ।
(१) परिणामद्वार-कृष्ण लेदयाके वर्ण गन्ध रम और म्पर्श निल लेश्या एणे परिणामता है जैसे दुधके अंदर खटाइ (छास) देनासे यह दुडू दहि पणे परिणमता है तथा वस्त्रके नया नया रंग देनासे वर्णान्तर होता है इसी माफिक अध्यवसायोंकी प्रेरणासे अर्थात शुद्ध अध्यवशासे पूर्व जो अशुभ वणादि था उन्होंके शुभ वर्णादि पणे परिणामते हैं और अशुद्ध अध्यवशासे पूर्वनों शुभ वोदि था उन्हों को अशुभ पणे परिणमायें इसी म फीक पेहला कृष्ण लेझ्याके अशुभ वर्णादि थे उन्हीकों शुभाध्यवशाकि प्रेर गासे निललेश्या पणे परिणमावे । इसी माफीक अधिक २ तर शुभ प्रेरणासे कृष्ण कापोत पणे एवं तेनो लेझ्या पणे एवं पद्म लेश्या पणे एवं शुक्ल लेश्या पणे परिणमे । एवं निल लेश्याका परिणाम अशुभाध्यवशासे कृष्ण लेश्या परिणमते है और शुभा. ध्यावशासे कापोत-तेजो- पद्म-शुक्ल लेश्यापणे परिणमते है एवं
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[२९] लेश्याको पर्पर बदलानेसे ३६ भांगा होता है। यह द्रव्य उदयाका पलटण सभाव है वह औदारीक शरीरवाले १० दंडकके लिये है परन्तु नारक' देवतों: १४ दण्डकके लिये नहीं है कारण नारको देवतोंके द्रव्य लेश्या भव प्रत्य होती है अध्यवशाकी प्रेरण से माव लेश्या परिणाम रूपमे तफावत होती है परन्तु वर्ण गन्ध रस म्पर्श रुप जो पुदल है वह नहीं बदलने है हां पहलोंमे तीव्र मन्दता गुण होता है परन्तु तसे नहीं बदलने है। जैसे मणि रत्नके अंदर जेसा रङ्गक तागा पोया जाय वैमा ही रङ्ग कि प्रभा उन्हीं मणिके अन्दर भापमान होगा परन्तु मणि आप का स्वरूपको कवी नही छे डेगा.
(२) वर्ण द्वार-लेश्याके प्रेग्णाने युगल एकत्र होता है उन्ही पुद्गलोंके अंदर वर्णादि होते है ।
(१) कण लेश्याका श्याम का मेलमा वर्ण है. (२) निल ० का निला शुक शंखवान निला वर्ण है । (३) कापोत० का पारेवाको गोवा जेसा वर्ण है (४) तेनो० हींगलुके माफिक लाल वर्ण है (५) पद्म ० हलदिके माफिक पेत वर्ण है । (६) शुक्ल मोक्ताफरके हार माफिक श्वेत वर्ण है
(३) गन्द धार-कृष्ण : निल कपोतः इन्हें तीनो वेश्याका गंध से मृत्यु सर्प धान खर नर इत्यादि इन्होंटे ही अधिक दुर्गन्ध होते है और जो पद्म शुक्ल इन्ही तीनों लेश्याकी अच्छी सुगन्ध पदार्थ जेसे कोष्ट चम्पा चम्पेली जाइ पौगरादिसे भी अधिक सुगन्ध है।
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[२६]
(४) रस द्वार(१) कृष्ण • कडवा तुंबा जेसा कटुक रस है (२) निल सुठ पीपर जे ता तीखा रस है (३) कापोत • कचा अम्र जेसा खाटा रस है (४) तेजो पका हुने आम्र या कविट जेसा रस है। (५) पद्म ० उतम जातके वारूणिमद जेसा रस है (६) शुक्ल शकर रखी जुर पकी द्राख जेसा रस है ।
(१) स्पर्शद्वार-कृष्ण० निल० कापोत इन्ही तीनों लेश्याका स्पर्श करबोलकी धार शाकवनाम्पतिसे भी अधिक स्पर्श है और तेजो० पद्म शुक्ल इन्ही तीनों लेश्याके स्पर्श कोमल जेसेमखन बुरवनास्पति और सरसबके पुष्पोंसे अधिक कोमल है।
(६) शुद्ध (७) प्रशस्थ (८) संक्लिष्ट कृष्ण : निल. कापोत यह तीनों लेश्या अशुद्ध--अप्रशस्थ और सक्लिष्ट है और तेजो० पद्म० शुक्ल यह तीनों लेश्या शुद्ध प्रशस्थ-असंक्लिष्ट है।
(९) शीतोष्णा-कृष्ण ० निल० कापोत यह तीनों लेश्या शीत और रूक्ष है और तेजो पद्म शुक्ल उष्ण और स्निग्ध है।
(१०) गतिद्वार-कृष्णादि तीन लेश्या दुर्गति ले जानेवाली है और तेजो पद्म शुक्ल यह तीनों लेश्या सुगति लेजाने. वाली है।
(११) परिणामहार-आयुप्यबन्ध समय जो लेश्या . जाति है उन्हीको परिणाम कहते है वह आयुप्यका बन्ध आयु. प्यके ३-९-२७-८१ या २४३ मे भागमें होते है अगर न हो तो आयुष्यका अन्तम अन्तर महूर्त में तो आवश्य होता है।
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[२७]
(१२) प्रदेशद्वार - एकेक लेश्याके अनंत अनंत प्रदेश है कारण स्थूल अनंत प्रदेशी स्कंध होता है वह लेश्याके गृहनयोग होता है ।
(१३) अवगाहा - एक लेश्याके जो अनन्ता अनन्ता प्रदेश है वह असंख्या असंख्याते आकाश प्रदेश अवगाह्या ( रोका है )
(१४) वर्गणाद्वार - एकेक लेयाके स्थानोंमें अनंत अनंति वर्गणा वो हैं ।
(११) अल्पावहत्वद्वार - ( स्थानापेक्षा )
( १ ) द्रव्य जघन्य स्थान
(१) स्तोक कापोत लेश्याका जघन्य द्रव्यस्थान (२) नील लेयाका जघन्य द्रव्य असंख्यात गुणा
(३) कृष्ण (४) तेजो
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(६) शुक्ल (२) एवं के बोलो कि प्रदेशकी अल्पा० भी समझना
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(३) कृष्ण (४) तेजो
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(३) द्रव्य और प्रदेशकी शामिल स्थान
(१) स्तोक कापोत लेश्या जघन्य द्रव्य
(२) नील लेश्याका जघन्य द्रव्य असंख्यात गुणा
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(५) पद्म
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(६) शुक्ल (७) कपोत लेश्यका
(८) नील
(८) कृष्ण (१०) तेजो
(११) पद्म
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(३) कृष्ण (४) तेजो
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(६) शुक्र (७) कापोत
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(९) कृष्ण (१०) तेजो
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(७) द्रव्य जघन्य
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[ २९ ]
(८) एवं जघन्य उत्कृष्ट प्रदेशकी अल्ला बहुतका स्थान
(९) द्रव्य प्रदेश के जघन्य उत्कृष्ट स्थान
लेश्या जघन्य द्रव्य
(१) कापोत (१) नील
(३) कृष्ण (४) तेजो
(५) पद्म
(६) शुक्ल (७) कापोत
(८) नील
(१५) कृष्ण (१६) तेजो
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(१८) शुक्ल (१९) कापोत
(२०) नील
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(१२) शुक्ल (११) कापोत लेशी (१४) नील
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[३०]
(२२) तेनो
, (२३) पद्म , " " (२४) शुक्ल ,,
, से भंते सेवं भंते तमेव सचम्
"
थोकडा नंबर ६ सूत्र श्रीपन्नवणाजी पद १७ उ० ६
गर्भकी लेश्या कितनेक लोक कहते हैं कि जेसे माता पिताकि लेश्या होती है वैसे ही उन्होंके गर्भके जीवोंकि लेश्या होती परन्तु यह मात एकांत नहीं है करण जीव सर्व कर्माधिन है और कर्म सई भीयों के स्वरूत विभत्र प्रकारका है वह इस थोकडेद्वार बताया जायगे।
(प्र) हे भगवान् । लेश्या कितने प्रकारकि है ।
(उ) लेझ्या छे प्रकार कि है यथा कृष्ण लेश्या, निल. कापोन लेश्या ० तेजो० पद्म शुक्ल लेश्या।।
१२ समुचय पनुः-- मनुमणि सगुचय कभि मनुष्य मनुष्यणी, भरतक्षेत्रके कर्म में मनुष्य-मनुष्यणि एवं एस्वरतके मनुष्य मनुन्यःणे, पूर्व विदेहके मनुष्य मनुष्याणे एव पश्चिम विदेहके मनुष्य मनुष्यणि एवं १२ बोलोंमें लेश्या छेछे पावे ।
२४ पूर्ववत् घातकिखण्डहिपमें दुगुण क्षेत्र होनासे १२ कों कुगुण करनेसे २४ बोल होता है.
२४ पुष्कई द्विपमें भी घातकि खण्ड बराबर ही समझना
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[३१] १६ समुच्चय अकर्म भूमि (युगल) मनुष्य-मनु यदुणि छपन्न अन्तर द्विपके मनुष्य - मनुष्यणि एवं हेमयके मनुष्य मनुष्यणि एवं एरण वयके २ हरिवासके २ रम्यकवासके २ देवकूरू के २ उत्तर कूरूके २ एवं सर्व १६ बोलोंमे लेश्या पाबे च्यार च्चार कृष्ण निल कापोत तेजो लेश्या पावे __३२ घातकि खण्ड द्विपमे दुगुणक्षेत्र होनासे १६से दुगुण होनासे ३२ बोलोंमे च्यार च्यार लेश्या पावे
३२ पुष्करर्द्ध द्विपमे भी ३२ बोलोंमे लेपा च्यार च्यार पावे।
॥ वर्म भूमियों के गर्भका विच र ॥ (१: कृष्ण लेश्यावाली मातासे कृष्ण लेश्या ० पुत्र का जन्म
। निल , ,, कापोत , , तेनो० ,, , ,
" पद्म , , ,
__, शुक्ल , , , (१२) एवं निल लेश्यावाली माता ६ लेझ्यावाला पुत्र का गन्न (१८) एवं कापोत ,, , ६ , , , (२४) एवं तेजो , ,, ६ , , , (३०) पद्म , , ६ ॥ " (३६) शुक्ल , ६ , , , (३७) कृष्णले. पितासे ० कृष्ण पुत्रका जन्म (३८) , , निल ,
ur a
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तेजो
पझ
(३९) ,
कापात , (४०) , (४१) , (४२) ,
शुक्ल , (४८) निल ६ लेश्याके छेसूत्र (५४) कापोत , ६ , " (६०) तेजो (६६) पद्म
, (७२) शुक्ल
६ , (१०८) मातापिता दोनोको सेमील ३६ सुत्र
पूर्वनो कर्म भूमिका २॥ द्विपके १२-२४-२४ एवं ६० बोल कहा था उन्हीकों १०८ गुणा करनेसे ६४८० भांगा होता है।
अकर्म भूमि मनुष्योंके गर्भ (१) कृष्णलेश्या० मातासे कृष्णलेश्या० गर्भ (१) " , निल " "
(४) , , तेमो , , (८) निललेश्या मातासे ४ सूत्र (१२) कापोत लेश्या० मातासे ४ सूत्र (१६) तेजोलेश्या ० मातासे ४ सूत्र (३२१ मातावत् पिताका भी १६ सूत्र (४१) माता और पिता दोनोंके साथ गर्मका १६ सुत्र
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[३३] एवं १८ सूत्र होता है जिन्होंको पूर्वो क ८० के साथ गुणा करनेसे ३८४० भांगा होता है
६४८० कर्मभूमिका भांगा ३८४० अकर्म भूमिका सर्व गर्भके भांगा- १०३२०
सेवंभंते सेवंभंते तमेवसच्चम् ।
थोकडा नंबर ७ मूत्र श्रीपन्नवणाजी पद १९.
(दर्शन पद ) वस्तुको अवलोकन कर उन्हीपर श्रद्धा ( प्रतित ) करना उन्हीका नाम दर्शन है। दर्शनमें मौख्य हेतू भूत मोहनिय कर्म है । मोहनिय कर्मका मूलसे क्षय होजानेपर सम्यग्दर्शनकि प्रप्ती होती है उन्हीको क्षायक दर्शन भी केहते है तथा मोहनिय कर्मको उपशम करनेसे उपशम दर्शनकि प्राप्ती होती है इन्ही दोनों दर्शनोंकों सम्यग्दर्शन कहा जाते है तथा मोहनिय कर्मका प्रवलोदय होनेपर वस्तुकी विप्रीत श्रहना होती है उन्हीको मिथ्या दर्शन केहते हैं तथा मिश्र मोहनिय कर्मोदय वस्तुमें सत्यासत्यकी कल्पना होती है उन्हीकों मिश्र दर्शन केहते है अर्थात् ।
(१) सम्यग्दर्शन-वस्तुको यथार्थ श्रद्धना । (२) मिथ्या दर्शन-वस्तुको विप्रीत श्रद्धना ।
(३) मिश्र दर्शन वस्तुमे सत्यासत्यका विकल्प करना अर्थात् सत्य वस्तु होनेपर सत्यासत्यकि कल्पना या असत्य वस्तु होनेपर मि सत्यासत्यकि कल्पना करना ।
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[३४] प्रत्येक दंडकके जीवोंमें कितने २ दर्शन है।
(१) सातोनरकमे पूर्वोक्त तीनो दर्शन है परन्तु सातवी नरकके उपर्याप्तामें एक मिथ्या दर्शन मोलता है।
(२) दश भुवनपतियोंमें पूर्वोक्त तीनों दर्शन है परन्तु पन्दरा परमाधामी देवोंमें एक मिथ्या दर्शन है।
(३) पांचस्थावर-पृथ्वीकाय अपूकाय तेउकाय वायुकाय बनास्पति काय इन्होंमें एक मिथ्या दर्शन है । .
(४) तीन वैकलेन्द्रिय वेरिन्द्रिय तेरिन्द्रिय चौरिन्द्रिय तथा असंज्ञी तीर्यच पांचेन्द्रिय-जलचर स्थलचर खेचर उनपुर भुजपुर इन्ही आठबोलोंके अपर्याप्ती अवस्थामें सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन और पर्याप्तावस्थामें दर्शन एक मिथ्यादर्शन है।
(५) संज्ञी तीर्यच पांचेन्द्रियमें दर्शन तीन पूर्ववत् ।
(६) मनुष्य असंज्ञी मनुष्य तथा छपन्न अन्तरद्विपोंके मनुष्योंमें दर्शन एक मिथ्या दर्शन, और तीस अकर्म भूमि युगल मनुष्योंमें दर्शन दो (१) सम्यग्दर्शन (२) मिथ्यादर्शन शेष पन्दरा कर्म भूमि मनुष्योंमें तीनों दर्शन पूर्वोक्त पावे
(७) बाणमित्र और ज्योतीषी देवोंमें तीनों दर्शन पूर्ववत
(८) वैमानिक देवोंमें तीन, कलिषी देवोंमें दर्शन एक मिथ्या दर्शन, नौग्रीवैगके देवतोंमें दर्शन दो पावे (१) सम्यग्दर्शन (२) मिथ्यादर्शन और पांचाणुत्तर वैमानके देवों में दर्शन एक स० शेष वैमानिक देवोंमें दर्शन तीनों पावें। ।
उपर कये हूवे सर्वस्थानों के अपर्याप्ता जीवोंमें मिश्र दर्शन नहीं मीलता है कारन मिश्र दर्शन हमेंसों पर्याप्ती अवस्था में ही
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[३५] होता हैं और सम्यग्दर्शन तथा मिथ्या दर्शन मृत्यू होके परभव गमन करते समय साथ ही चलता है परन्तु मिश्र दर्शन परभव साथ नही चलता है। (९) सिद्ध भगवान्में दर्शन एक सम्यग्दर्शन है । इति ।
सेवंभंते सेवंभंते तमेव सचम्
थोकडा नम्बर ८ सूत्र श्री पन्नवणाजी पद २१
(मरणांति समुहात) ... जीब मरणांतिक समुहातकर परभा गमन करते है उन्ही समय रहस्तेमें तेजप्त कारमण शरीर ही रहते है उन्हीं समय तेनस शरीर कि कितने विस्तारवाली अवगाहाना होती है वह इस थोकडा द्वारा बतलावेगा।
। मरणांतिक समुदघात और तेजसावगाहाना ।
समुच्चय जीव समु० एकेंद्रिय और पांच स्थावर जो मरणांतिक समुदघात करे तो विस्कंभ पहूलपने जाडी तो शरीर परिमःणे और लंबाई में जघन्य अंगुलके असंख्यातमें भाग उत्कृष्ट लोकान्त तक होती है___ तीन वैकलेंद्रिय और तीर्यच पांचेंद्रिय जाडी पहली तो शरीर परिमाणे लंबाईये ज० अंगु० असं ० भाग उ० तीरच्छा लोकान्त तक एवं मनुष्य परन्तु उत्कृष्ट मनुष्यलोक परिमाण ... नारकी और देवतोंमें विस्कंभ और. जाडी तो शरीर परिमाणे लम्बाईमें निचे यंत्र परिमाणे समझना
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मार्गणा
उत्कृष्ट जघन्य
अधोलोक | उर्धलोक । तीरछा लोक सातों नरक
१०००० जो० | सातवी नरक तक | पांडग वन तक | संभामणसमुद्र १. भुषन. व्यंतर जोतीपी)। अंगुलके तीजी नरकका | इसी पभारा पृथ्वी | सभरमणसमुद्रकी सुधर्म इशान देवलोक असं० भाग | चरमान्त
तक बाहारकि वेदिका तीजासे आठवा देवलोकन
पाताल कल शो | बारहा देवलोक | संभरमणसमुद्र
[३६]
| केदुजे तीजे भाग |
तक
तक
शलीलावती
स्व स्व वैमान | मनुष्य क्षेत्र
नवामासे बारहवा देव लोक तक नौग्रीवैग नव जोरवान भनुतर पैमान
विजयातक
तक
विद्याधरों
अधोलोक
स्व स्व वैमान
। मनुष्य क्षेत्र
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कि श्रेणी
प्राम
तक
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ..
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[३७ ]
थोकड़ा नं० ९ श्री पन्नवणा मूत्र पद २३ उ०१
(कर्मप्रकृती) हार-कितनी प्रकृती । कैसे बांघे २ कितने स्थान ३ कितनी प्रकृति वैदे ४ अनुभाग कितने ५
हे भगवान् । कर्मों की प्रकृती कितनी है ! कर्मोकी प्रकृती आठ हैं यथा ज्ञानवर्णीय, दर्शन वर्णीय, वेदनिय, मोहनीय, आयुप्य, नाम, गोत्र और अंतराय.
नरकादि २४ दंडकके जीवोंके कर्म प्रकृती आठ आठ है यावत् वैमानिक.
जीव आठ कमेकी प्रकृती किससे बांधता है ! ज्ञानार्णिय कर्मके उदयसे दर्शनावणिय कर्मकी इच्छा करता है अर्थात ज्ञानावर्णिय कर्मके प्रबल उदय होनसे सत्य वस्तुका ज्ञान नहीं होता इससे सत्य वस्तुको असत्य देखे. यह दर्शनावर्णियकी इच्छा की.
और दर्शनावर्णिय कनके उदयले दर्शन मोहनीय कर्मकी इच्छा हुई अर्थात अपन्यको सत्य कर मानना. इस दर्शन मोहनियसे मिथ्या. बका परलोदय होता है और मिथ्यात्वसे आठों कमीका बंध होता ई इप बाम्ने कमेकेि बंधका मूल कारण मिथ्यात्व है और मिथ्यावका मूल कारण अज्ञान है एवं नरकादि २४ दंडकके जीवोंके आट २ काका बंध समझना ।
ज्ञानावर्णिय कर्मोका बन्ध कितने स्थानपर होता है ? सासे माया लोभ ) द्वेषसे ( क्रोधमान ) इन राग द्वेषकी चार प्रक'तयोंको अर्थात् क्रोधमान माया लोभ इस चंडल चौकड़ीसे ज्ञाना
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[ ३८ ]
समझना
aff कर्मका बंध होता है एवं नरकादि २ इसी ग्राफक बहुवचनापेक्षा नी राग द्वेषसे कर्म चन्धता है नरकादि २५ में एक एन २५ बल और बहुवचन २५ वो कुल ५० घोल इतने अनावरणीयके हुए। इसी माफक दर्शनावणी आदि कर्म १९६ बल लगाने वा ४०० बोल हुवे ।
एक जीव ज्ञानावर्णीय कर्मवेदे ! कोई वेदे कोई नहीं वेदे ( केवली ) और नरकादि २३ दंडक नियमा वदे. मनुष्य कोई वेदे कोई नहीं रे (केवली) एवं २९ बोल बहु वचनका भी समझना एवं दर्शना वर्णिय मोहनिय तथा अन्तराय और वेदनिय, आयुष्य, नाम, गोत्र इन चार कर्मो का एक वचन या बहुवचनापेक्षा सब जीव निश्चय वेदे एवं ८ कर्मोके ४०० भांगे होते हैं.
अनुभाग द्वारा - हे भगवान ! जीव ज्ञानावर्णिय कर्म बान्धे रागद्वेषसे स्पर्श. आत्मा प्रदेशोंके साथ. विशेष कर बांधे और स्पर्श किये ज्ञानावर्णिय कर्मका संचय किये चितके एकत्र किये, ज्ञानावर्णिय कर्म उदय आने योग्य हुवे. विपाक प्राप्त हुवे. कलदेनेके सन्मुख हुवे. यहां भावार्थ यह है के जीवके कर्मो प्रेरक कोन है ? निश्चय नयसे जीव कर्मोका आकती है. कमका कर्ता कर्म ही है परन्तु यहां पर व्यवहार नयकी अपेक्षासे उत्तर देते हैं जीवने ही कर्म किया है. ( रागद्वेपसे) यावत् जीवने ही कर्म उदय निप्पन्न किये हैं. जीवने ही भोग रस पर्ने प्रणमाये हैं. जीवने ही उनको उदीर्णा की है. अन्य जीव होती है. वह अन्य जीव ही करते हैं.
भी कर्मे की उदीर्णी कमका उदय उदीर्णासे
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[३९] प्राप्त होने पर अज्ञाता (नरकादि गति) साता (देवादि गति) और जितनी स्थिति बन्धी है वह और जिः भवका बन्ध है वह भोगने लगता है. को पुल बन्छ या राज उदयो भने हैं ये भोगने लगा इस मा जोमाने का मन पडले हैं. यह ज्ञानावाणिय कर्मक विधाक अनुभाग दश प्रकार से भोगता है यथः
(१) श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा शब्द सुने नहीं. (6) अगर सुन भी ले तो समझे नहीं. ३) चक्षु इन्द्रिय द्वारा रूप देख सके नहीं. ४) अगर देखले तो समझे नहीं. (२) प्राणेन्द्रियद्वारा पुत्रोंको सून न सके. १६) अगर सुंध भी ले तो समझ न सके. (5) रसेन्द्रिय द्वार स्वाद न ले सके. (८) अगर म्वादले भी तो समझे नहीं. (६) अच्छे स्पर्शको वेदे नहीं। १०) अगर वेदे तो समझे नहीं
जो वेदले हैं वे पुद्गल एक या अनेक विशे पा. स्वभावसे बादलवत प्रणमते हैं. और उसे भोगते हैं. परन्तु ज्ञानवर्णीय कर्मक प्रबल उदयसे जान नहीं सक्ने यह ज्ञानवर्णिय कर्मका कल याने विपाक है कि जीवको अज्ञानी बना देता है.
(२) दर्शनावर्णिय कर्म उदय होनेसे जीवको नौ प्रकारका अनुभाग होता है.
(१) निद्रा सुखसे सोवे सुखसे जागे. (२) निद्रा निद्रा-मुखसे सोवे दुःखसे जागे.
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[ ४० ]
(१) प्रचला-बैठा बैठा निद्राले
(४) प्रचलाप्रचला - चलता हुवा निद्राले.
(१) स्थनद्धि - दिनका चिन्तन किया कार्य निद्रामें करे. इस निद्रामें वासुदेव जितना बल होता है.
(६) चक्षुदर्शनावर्णिय बराबर देख नहीं सकता.
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(७) अचक्षु दर्शनावर्णिय - चक्षुके सिवाय चार इन्द्रियोंसे सम्पूर्ण काम न ले सके ।
(८) अवधिदर्शनावर्णिय- अवधिदर्शनहोने न दे.
(९) केवल दर्शनावणिय केवल दर्शन होने नदे.
(३) इसी माफक वेदनी कर्म भी समझना परन्तु वेदनी कर्मके दो भेद है. साता वेदनी और असातावेदनी जिसमें सातावेदनी का अनुभाग ८ प्रकारका है.
(५) मनोज्ञश, रूप, गन्ध, रस, स्पर्श.
(६) मन हमेसा अच्छा रहना ( समाधी से ) (७) वचन हमेसा अच्छा रहना ( मधुर बोलने से ) (८) काय - अंगोपांग अच्छा होना ( हाथकी चतुरतादि ) असातावेदनीका इससे विप्रीत अशुभ फल समझना.
(४) मोहनिय कर्मके उदय अनुभागके पांच भेद हैं यथा. (१) मिध्यात्व मोहनीय- इसके उदयसे वस्तुकी विप्रीत श्रद्धा होती है.
(२) मिश्रमोहनीय - इसके उदयसे मिश्रभाव होता है. (३) सम्यक्त्व मोहनीय - इसके उदयसे वस्तुकी यथार्थ श्रद्धा
होती है परन्तु क्षायक सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होने देता.
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[ ४१ ]
(४) कषाय मोहनिय - इसके उदयसे अन्तानुबन्धी आदि १६ प्रकृतियोंका उदय होता है.
(५) नोकषाय मोहनीय - इसके उदयसे हास्यादि नौ प्रकृतिका उदय होता है.
(५) आयुष्य कर्मके उदय अनुभाग के चार भेद है.
(१) नारकीका आयुष्य वैदे
(२) त्रियंचका
(३) मनुष्यका (४) देवताका
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(१) इष्ट शब्दका मिलना
(२) इष्ट रुपा मिलना
(३) इष्ट गन्धका मिलना
(४) इष्ट रसका मिलना
(१),, स्पर्शका मिलना
(६),, गति (देवादि )
(७), स्थिति
(८),, शरीर लावण्य
""
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(६) नाम कर्मके उदय अनुभाग के दो भेद हैं. शुभ नाम कर्म और अशुभ नाम कर्म जिसमें शुभ नाम कर्मके अनुभाग १४ प्रकारके हैं.
(९) इष्ट यशोकीर्ति
(१०) इष्ट उत्थानादि बीर्य
(११) इष्टाकार
(१३) इष्ट स्वर
(१३) कन्त स्वर
(१४) प्रीय स्वर
(१५) मनोज्ञ स्वर
(१६) विशेष मनोज्ञ
अशुभ नाम कर्मके १६ बोल इससे विप्रीत समझना. (७)
गोत्र नाम कर्मके उदय अनुभागके दो भेद हैं. उंच गोत्र और
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(४) रुप
,
"
[४२] नीच गोत्र. जिसमें ऊंच गोत्रके ८ भेद है तथा निचगोत्रके आठ भेद, (ऊंचगौत्र)
(नीचगौत्र) (१) जाति विशेष उत्तम जातिमद (२) कुल , "
कुलमद (३) बल ॥ ॥
वलमद
रुपमद (५) तप , , .
तपमद (६) सूत्र , ,
सुत्रमद (७) लाभ , ,
लाभमद (८) एश्वर्य ,,, एश्वर्यमद (८) अन्तराय कर्मके उदय अनुमाग ५ प्रकारके हैं यथा
(१) दानान्तराय-दान दे न सके. (२) लाभान्तराय-लाभकी प्राप्ति न हो. (३) भोगा ,,-छती वस्तु भोग न सके. (४) उपभोगा ,,-वार २ मोग न सके. (५) वीर्या ,,-कोई काममें पुरुषार्थ कर न सके.
इति सेवं भते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नं० १० सूत्र श्री पन्नवणा पद २८ उ० २
(आहार पद) (१) जीव (२) भव्य ३) संज्ञी (४) लेश्या (५) द्रीट
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[४३ ]
(६) नि (७) कामाय २) योरः (१- उपयोग ११) ३ १२, शरीर १३, पीती इति.
समुच्चय नीव तथा और निज सायान् ः २६ बोलने सत्यमापन और बहन को मोल मालारक प्रत्येक कालपर उतारे भावर परन्तु जि. बोल में जो एंडक पावेगा उन्हीको ही गृहन किया जायेगा.
( जीवहार-एक जीव कशा आहारीक है या अनाह. रोक है ? म्यात आहारीक है म्यात अनाहारीक है कारण यहांपर समुचय जीवका प्रश्न होलसे स्यात शब्द रखा गया है क्योंकि परभवगमन करते समय या चौदवा गुणस्थान या सिद्धोंके जीवानाहारीक है शेषाआहारीक है.
एवं २४ दंडक भी समझना तथा सिद्ध भगवान् अनाहारी है । समुच्चय घणा जीव आहारीक भी घणा अनाहारीक भी घणा घणासिद्ध अनाहारीक है धणा नारकीके जीवों के उत्तरमे तीन भांगा होते है यथा (१) घणा नारकी मे न्याहारीक जीवों सदाकाल शास्वता है (२) अहारीक नारकी घणा ओर अनाहारीक एक जीव भीले (३) आहारीक नारकी घणा और अनाहारीक भी घणा एवं पांच स्थाबर वर्जके १२ इंडकमें तीन तीन भांगा कर नेसे ५७ भाणा हवे पांच स्थाबरोंके बहू, वचनमें आहारीक भी घणा अनाहारीक भो षणा इतिद्वारम् भांगा २७.
(२) भव्व-समुच्चय एक भव्य जीव और २४ दंडकोंके एकेक जीव, स्यात् आहारीक स्यात अनाहारीक । बहू वचन समुच्चय
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[४४] जीव ओर पांच स्थावरमें आहारीक भी घणा अनाहारीक मी घणा शेष १९ दंडकोंमें तीन तीन मांगा पूर्ववत् एवं ५७ भांगा एवं अमन जीवोंका भी पूर्व भव्ववत् १७ भांगा समझना । नो भव्व नो अभव्य एक जीव ओर घणा जीवों अपेक्षा आहारीक नही किंतु अनाहारीक है एवं सिद्ध भी समझना इतिहारम् ११४ भांगा..
(३) संज्ञीद्वार-समु० जीव १ और १६ दंडक एक वचन स्यात आहारीक स्यात् अनाहारीक बहू वचनापेक्षा जीवादि १७ दंडकमें तीन तीन भांगा होनासे ५१ भांगा होता है । असंज्ञी समु. जीव ओर २२ दंडक एक वचनापेक्षा स्यात् आहारीक म्यात अनाहारीक । बहू वचनापेक्षा समु० जीव ओर पांच स्थावरमें आहारीक घणा अनाहारीक भी घणा. तीन वैकले न्द्रिय और तीर्यच पांचेन्द्रिय इन्ही च्यार बोलोंमे तीन तीन भांगा पूर्ववत् एवं १२ भांगा तथा नारकी दश भुवनपति व्यंतर मनुष्य इन्ही तेरहा दंडकके प्रत्येक दंडकमें छे छे भांगा होते है । यथा--
(१) आहारीक एक (२) अनाहारीक एक (३) आहारीक एक अनाहारिक एक युगम् (४) , , , घणा (५) , घणा , एक (६) , , , घणा
एवं १३ दंडकके ७८ भांगा हुवे । नोसंज्ञी नोअसंज्ञी समु० जीव और मनुष्य स्यात् आहारीक स्यात् अनाहारीक ।
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[४] वह वचनापेक्षा समु० जीवमें आहारीक घणा अनाहारीक भी घका । मनुष्यमें भांगा ३ सिद्ध भगवान् एक या बहू वचन अनाहारी है सर्व भांगा ५१-१२-७८-३ एवं १४४ भांगे।
(४) लेश्याहार-स लेश्या समु० जील और २४ दंडक एक वचनापेक्षा स्याताहारीक स्यातानाहारीक बहुत वच. नापेक्षा समु० जीवों और पांच स्थावरमें आहारीक घणा अना. हारीक त्रिघणा शेष १९ दंडकके तीन तीन भांगा करनेसे ५७ एवं कृष्ण लेश्या परन्तु दंडक २२ ज्योतीषी वैमानिक वर्मके वास्ते भाग १७ दंडकका ५१ एवं निल लेश्याका ११ कापोत लेश्याका ५१ एवं तेजो लेश्या दंडक १८ समु० जीव और १८ दंडक एक वचनापेक्षा स्याताहारीक स्यातानाहारीक बहू वचनापेक्षा समु० जीव और १५ दंडकमें तीन तीन भांगा ४८ और पृथ्वी पाणी वनास्पतिमें छे छे भागा ( असंजीवत् ) एवं १८ मीलके १६॥ पद्मलेश्या समु० जीव और तीन दंडक एक वचन पूर्ववत् बह वचनापेक्षा तीन तीन भागा १२ एवं शुक्ल लेश्याका भी भांगा १२ तथा अलेश्य समु० जीव मनुष्य और सिद्ध एकवचन या बहू वचन सर्व मनाहारीक है भांगा ५७-५१-५१-५११६-१२-१२ कुल भागा ३०० द्वारम् ।
(६) द्रीष्टीवार-सम्यग्द्रीष्टी समु० जीव और १९ बंडक एक वचनापेक्षा स्याताहारीक स्यातना हारीक बहु वचनापेक्षा नमु० जीव और १६ दंडकमें तीन तीब मांगा ५१ और तीन वैलेन्द्रियमें छे छे भाग एवं १८ भांगा । मिथ्या द्रीष्टी समु.
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[ ४६ ] जीव और २४ दंडक एक बननापेक्षा पूर्ववत् बहू वचनापेक्षा समु० जीव और पांच स्थावर ये आहारीक घणा और अनाहारीक भी घणा शेष १९ दंडक ये भागा तीन तीन (१७) मिश्र द्रीष्टी समु० जीव और १६ दंडक एक वचन या बहू वचन आहारीकहै तथा सिद्ध भगवान् एक या बहू वचनापेक्षा अनाहारीक है सर्व भांगा ११-१८-१७ कुल १२६ द्वारम्.
(६) संयतिद्वार - संयति समु० जीव ओर मनुष्य एक वचनापेक्षा स्वाताहारीक स्थातनाहारीक ( केवली अपेक्षा ) बहू वचनापेक्षा तीन तीन भागा ६. असंयति सो मिथ्यातिवत् १७ भांगा. संयतासंयति समु० जीव और मनुष्य तथा तीर्यंच पांचेन्द्रिय एक या बहु वचनापेक्षा आहारीक है । नोसंयति नोअसंयति नोसंयतासंयति समु० जीव और सिद्ध भगवान् एक या बहू वचनापेक्षा अनाहारीक है । ६-५७ कूल ६३ भांगा हूवे इतिद्वारम्.
(9) कषायद्वार - सकषाय कोधकषाय मान माया लोभ कषाय प्रत्येकके समु० जीव और चौबीस चौबीस दंडक एक वचनापेक्षा स्वाताहारीक रयातानाहारीक । बहू वचनापेक्षा सकषाय १९ दंडक तीन तीन भांगा १७ क्रोध कषाय छे दंडक में तीन तीन १८, १३ दंडक देवतावों में छे छे भांगा ७८ एवं मान कषाय माया कषाय पांच दंडक में तीन तीन भांगा ११ - १५ नारकी देवतका १४ दंडक छे छे भांगा ८४-८४ एवं लोभ कषाय परन्तु नारकी छे भागां शेष १८ दंडक में तीन तीन भांगा १४ शेष सर्वकषायवे
म० जीव और पांच स्थावरमें आहारीक घणा और अनाहारी
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[४७] भी घणा । अकषाय समु० जीव मनुष्य और सिद्ध है जिसमें समु० जीव और मनुष्य एक वचनापेक्षा स्यात् आहरिक स्यात् अनाहारीक बहुवचन समु. आहारीक घणा अनाहारीक भी घणा मनुष्यमें भांगा ३ सिद्ध भागवान एक या बद् वचन अनाहारीक है। एवं ५७-१८-७८-१५-१५-८४-८४-६-५४-३ कुल ४१४ भांगा हूवे.
(८) ज्ञानद्वार-सज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतिज्ञानी समु० जीव और १९ दंडक एक वचन पूर्ववत् बहू वचन जीवादि तीन तीन भांगा परन्तु तीन वैकलेन्द्रिमें छे ले भागा १८-१८-१८ ५१-५१-५१ अवधिज्ञानमें मु० जीब और १६ दंडक है जिसमें तीर्यच पांचेन्द्रि एक या बहू वचन आहारीक है शेष एक वचन पूर्ववत् बहू वचन तीन तीन भांगा ४८ 1 मनःपर्यव ज्ञान समु० जीव और मनुष्य एक या बहूबचन आहारीक है । केवलज्ञान समु० जीव मनुष्य और सिद्ध निसमें समु० जीव और मनुष्य एक बचनापेक्षा स्यात् आहारीक स्यात् अनाहारीक बहू वचनापेक्षा समु० आहारीक घणा अनाहारीक भी घगा मनुष्यमें भांगा ३ सिद्ध एक या बहूत वचन अनाहारीक है। समु. अज्ञान मति अज्ञान श्रुतिअज्ञान जीवादि २४ दंडक एक वचनापेक्षा स्यात् आहारीक स्यात नाहारीक बहू वचनापेक्षा समु० जीव और पांच स्थावरमें आहारीक घणा अनाहारीक भी घणा शेष १९ दंडकमें तीन तीन भांगा ५७-५७-५७ । विभंगा ज्ञानी समु... जीव १६ दंडक जिसमें तीर्यच पांचेन्द्रिय और मनुष्य तो एक या बहू वचनापेक्षा आहारीक है शेष समु
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[१८]
जीव और १४ दंडक एक वचन पूर्व क्त् बहू वचनापेक्षा तीन तीन मांगा १५ । एवं ५४-१५३-४८-१-१७१-१९ भांगा ४७४ द्वारम् । ... (९) योगबार-सयोगि समु० जीव और २४ का मिथ्यात्वी वत् १७ एवं काययोगिका भी ५७ । वचनयोति समु० जीव और १९ दंडक और मनयोगमें समु० जीव की १६ दंडक एक या बहू वचनाहारीक है। अयोगि समु० जी मनुष्य और सिद्ध भलेश्या कि माफीक कल भांगा ११४ द्वारम् ।
. उपयोगबार-साकर और मनाकार दोनों समु० जीव और २४ दंडक एक वचनापेक्षा स्याताहारीक स्यातना हारीक बहू वचना पेक्षा समु. जीव पांच स्थावर आहारीक धणा अनाहारीक भी धणा शषे १९ दंडकये तीन तीन भांगा ६७.६७ कुल ११४ मांगा और सिद्ध भगवान् एक या बहू वचन आना हारी है इति द्वारम् ।
(११) वेदवार-वेद समु० जीव और २३ दंडक सयोगि माफीक भांगा १७ । त्रिवेदमें समु० जीव दंडक १५ एवं पुरुष वेद एक वचन पूर्व वत् बहू वचन जीवादि सीन तीन भांगा ४८--४८ नपुंसक वेदमें समु० जीव ११ दंडक एक वचन पूर्ववत बहू वचन समु० जीव पांच स्थावरमें आहारीक घणा अनाहारीक घणा छे दंडकये तीन तीन मांगा १८ भवेदी जेसे अकषायक्त भांगा ३ एवं ९७-९६-१८-३ कुल मांगा १७४ हवे इति द्वारम् । ..
का
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[१९] (१२) शरीरद्वार-सशरीरमे समु० जीव और २४ दंडक प्रयोगीवत १७ भांगा एवं तेन शरीरका ५७ एवं कारमाण शरीरका ९७ मांगां औदारीक शरीर समु० जीव और १० दंडक जिस्मे बासु० जीव और मनुष्यका तीन तीन भांगा ६ (केवली अपेक्षा) और नव दंडक, एक या बहूबचनापेक्षा आहारीक है । वैक्रय शरीर प्रमु० नीव और १७ दंडक माहारिक शरीर समु० जीव ओर मनुष्य, एक या बहू वचनापेक्षा आहारीक है तथा मशरीर समु० बीच ओर सिद्ध अनाहारिक है कुल भेगा १७७ द्वारम् । • (१३) पर्याप्तीद्वार-आहार पर्याप्ती शरीर पर्याप्ती इन्द्रिय पर्याप्ती श्वासोश्वास पर्याप्तो भाषा पर्याप्ती मन पर्याप्ती एवं के पर्याप्ती समु० जीव और म्व म्व दंडकापेक्षा एक या बहू बचनापेक्षा माहारीक है परन्न ममु. जीव ओर मनुष्यमे एक बचनापेक्षा स्याताहारीक स्यातनाहारीक है ओर बहूत वचनापेक्षा सीन तीन भांगा होता है कारण केवली समुदधात समय तीन समयनाहारीक भी होते है । भांगा ३६ । आहार अपर्याप्तो समु. नीव ओर २४ दंड क. एक या बहू वचनापेक्षा अनाहारी है शरीर भार्याप्ती स्यात् आहारीक स्यातनाहारीक उपरकी च्यार अपबोप्तीमे नारकी देवता ओर मनुष्य इन्ही १५ दंडकोंमे छे छे भांगा अहेना ९० शेषमे समु. जीव पांच स्थावर वर्नके तीन तीन भांगा बोना १२, भाषा और मनापर्याप्ती १५ दंडकमे छे छे भांगा ९० शेषमे तीन तीन भांगा १२ सर्व स्थान पर एक बचन स्याताहारीक सात् मनाहारीक बहू वचनापेक्षा उपर बताये मांगे होते हैं एवं ११.१६०-१५-१८०-१९कुल भांगा १००. हुवे इति द्वारम् ।
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[५] : आहार पदके १५बारके कुल भांगा। (१) समुच्चयद्वार भांगा ५७ (८) ज्ञानद्वार , ४७१ (२) भव्वद्वार , ११४ (१) योगद्वार , १९॥ (३) संज्ञीद्वार , १४४ (१०) उपयोगद्वार ११॥ (४) लेश्पाद्वार , ३०० (११) वेदद्वार (५) द्रष्टीद्वार , १२६ (१२) शरीरद्वार १७७ (१) संयतिद्वार , ६३ (१३) पर्याप्तीद्वार ६०० (७) कषायद्वार ४११ कुल भांगा २८७१ हवे ।
इति।
सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम्
थोकड़ा नं० ११ सूत्र श्रीपन्नवणाजी पद २९
( उपयोग पद) () उपयोग कितने प्रकार के हैं !
(३) उपयोग दो प्रकारके है यथा (१) साकर उगयोग (२), षणाकार उपयोग जिसमें साकर उपयोग ( प्रकारके हैं यथा (१) मतिज्ञान (१) श्रुतज्ञान (३) अवधिज्ञान (8) मनःपर्यवज्ञान (५) केवलज्ञान (६) मतिअज्ञान (७) श्रुतअज्ञान (८) विमंगज्ञान और मनाकार उपयोग ४ प्रकारका है (१) चक्षुदर्शन (२) अचक्षुदर्शन (३) अवधिदर्शन (8) केवलदर्शन ।
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[१]
... अब नरकादि २४ दंडक पर इन्हींको उतारते हैं।
दंडक
उपयोग
साकार / अनाकार
0
-
समुचय जीवमें १ नारकी १५ देवता
स्थावर १ वेन्द्रिय । १ तेन्द्रिय १ चौरेन्द्रिय १ तियच पाचेंद्रिय १ मनुष्य
Morar
Vurur or 00 our
C
सेवंभंते सेवंभंते तमेव सचम् ।
__ थोकड़ा नं० १२ - सूत्र श्री पन्नवणाजी पद ३०
(पासणिया उपयोग) (प्र) पासणिया (देखनेवाला) उपयोग कितने हैं।
(उ) पासणिया उपयोग दो प्रकारके हैं (१) साकर पासणिया (२) अनाकार पासणिया, जिसमें साकर पासणियाके ६ भेद हैं यथा श्रुतिज्ञान, भवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान, केवलज्ञान, श्रुतिअज्ञान विभभज्ञान और अनाकार पासणिया उपयोगके ३ भेद हैं
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[५२]
यथा चक्षूदर्शन अवधिदर्शन, केवलदर्शन ये दोनों उपयोग नरका दि दंडक पर उतारा जायेगा ।
दंडक
समुचय जीव १ नारकी ७ १३ देवता
५ पांच स्थावर
२ बेंद्रिय तेन्द्रिय १ चौरेंद्रिय
१ तिर्यच पाचेन्द्रिय
१ मनुष्य
उपयोग
साकार अनाकार पासणिया पासणिया
४
१
४
६
००
( प्र ) केवली है सो इस रत्नप्रभा नरकको आकार हेतू ओपमा द्राष्टांत वर्ण संस्थान परिमाण-करके जिस समयमें जानते हैं उसी समय देखते हैं या नही !
( उ ) केवली जिस समय रत्नप्रभा नारकीको पूर्वोक्त आकारसे जानते है उसी समय नहीं देखे ।
( प्र ) क्या कारण है !
( उ ) जो केवलियोंके साकार उपयोग है वह ज्ञान है और नाकार उपयोग है वह दर्शन है इस वास्ते निस समय में जानते हैं उस समय न देखे और जिस समय में देखते हैं उस समय
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[ ५३ ]
नहीं जाने भावार्थ यह है कि समय बहुत सुक्षम है एक समय में दो उपयोग ( ज्ञान और दर्शन ) नहीं होशक्ते हैं परंतु जिसी समय केवलियों के केवल ज्ञान है. उसी समय केवल दर्शन मौजूद है ज्ञान और दर्शन युगपत् समय मोजूद है जैसे रत्नप्रभा नारकी कही है वैसे ही ७ नारकी १२ देवलोक नौयँबैंक अनुत्तर वैमान इस पभारा पृथ्वी और परमाणु द्विप्रदेशी यावत् अनंत प्रदेशी स्कन्ध भी समझना. इस विषय पूर्वाचार्यों का भी मत्तन्तर हे देखो प्रज्ञांपना सूत्र |
(प्र) हे भगवान् । केवली अनाकार अहेतू यावत् अप्रमाण कर जिस समय रत्नप्रभा नरकको जानते हैं उसी समय देखें ! ( उ ) जिस समय जाने उस समय नहीं देखे भावना पूर्ववत् यावत् अनन्त प्रदेशी स्कन्ध तक समझना. सेवंभंते सेवंभंते तमेवसच्चम् |
थोकडा नम्बर १३
सूत्र श्री पन्नवणाजी पद ३१ ( संज्ञी पद )
(१) संज्ञी - संज्ञी जीवोंका आयुष्य बन्घा हूवा हो तथा मनके साथ इन्द्रियोंके उपयोग में वर्तता हो वह जीव पहेला गुणस्थानसे बारहवां गुणस्थान तक मीलते है ।
(२) असंज्ञी - असंज्ञी पणाका आयुष्य बन्धा है मन रहित इन्द्रिय वर्तें यह जीव पेहले दुसरे गुणस्थान में मीलते हैं ।
(३) नोसंज्ञी मोभसंज्ञी - इन्द्रियका उपयोग रहित अर्थात
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[५४] केवलज्ञान होनेपर इन्द्रियों के उपयोगकी जरूरत नही है वह जीव १३-१४ गुणस्थान या सिद्धोंके जीवोंको नो संज्ञीनो असंज्ञी कहा जाता है।
समुचय जीव और मनुष्य तीनों प्रकारके होते हैं संज्ञ:असंज्ञी-नोसंज्ञी नोअसंज्ञी।
पांच स्थावर तीन वैकलेन्द्रिय समुत्सम तीर्यच पांचेन्द्रिय और मनुष्य यह सर्व असंज्ञी मन रहीत है।
पेहली नरक दशभुवनपति व्यंतरदेव और छप्पन अन्तर - द्विपोंका मनुष्य संज्ञी होता है परन्तु कितनेक जीव अपर्याप्ताव
स्थामें असंज्ञी भी पाया जाते है कारण यहांसे असंज्ञी तीर्यच मरके उक्त स्थानों में जाते हैं उन्हीकों अपर्याप्ती अवस्थामें शास्त्रकारोंने असंज्ञी गीना है इसापेक्षा। ___ . ज्योतीषी देव, वैमानिकदेव और संज्ञीतीयंच पांचेन्द्रि तथा तीस अकर्मभूमि युगल मनुष्य यह सर्व संज्ञी मनवाले है । सिद्ध भगवान् नोसंज्ञी नोअसंज्ञी है ।
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नम्बर १४ सूत्र श्री पनवणाजी पद ३२
(संयति पद) (१) संयति-जिन्होंके अन्तानुबन्धीचोक, अप्रत्याख्यानि चोक, प्रत्याख्यानीचोक, एवं १२ तथा मिथ्यात्वमोहनि, मिश्र मोहनि, सम्यक्त्वमोहनिय, एवं १५ प्रकृतियोंका क्षय या उपशम
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[५५].
होनापर साधु मार्ग स्वकारकर समिति गुप्ती पांचमहावत चरण मतरी, करणसतरिके पालक हो उन्होंको संयति कहते है। वह मटा गुणस्थानसे चौदवा गु० तक मीलते है।
(२) असंयता-जिन्होंके व्रत पच्चरकाण कुछ भी न हो वह जीव पेहलेसे चौथा गुणस्थान तक मीलते है जिन्होंके तीन
(१) अनादि अनान्त अभव्यापेक्षा प्र० गु० (२) अनादि सान्त भव्यापेक्षा ,,
(३) सादि सान्त-पांचवेसे इग्यारवे गुणस्थान जाके पीछा पडे हुवे पेहलासे चौ०था गु० तक
(३) संयतासंयत-कुच्छ व्रत हों कुच्छ अव्रत न हो एसा जो पांचवे गुणस्थान व्रतते हुवे श्रावक लोक ।
(४) नोसंयति नोअसंयति नोसंयतासंयतासिद्धभागवान् ।
समुच्चय जीव संयति है असंयति है संयतासयत है नोसंयति नोअसंयति नोसंयतासंयत यह च्यारो प्रकारका है
नारकी देवता पाचस्थावर तीन वैकलेन्द्रिय असंज्ञी मनुष्य तीर्यच तथा युगल मनुष्य यह सर्व असंयति है कारण इन्होंके व्रत नही होते हैं।
संज्ञीतीर्यच पांचेन्द्रिय असंयति है तथा संयतासंयती भी हैं कारण तीर्यचोंको जातिस्मर्ण ज्ञान होनासे पूर्व भवमे जो व्रत लिया हो वह व्रत तीर्यचके भवमे भी पालण करते है वास्ते तीर्यचमे भी श्रवक मीलते है।
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[५६] - संज्ञी मनुष्यमे संवति असंयति संयतासंयति तीनो फार जीव मीलते है।
सिद्ध भगवान् नोसंयति नोअसंयति नोसंयतासंयति है।
(१) स्तोक संयति जीव (२) संयतासंयति असंख्यात्तगुण (३) नोसंयति नोअसंयति नोसंयतासंयति अनंतगुणा (४) असं इति अनन्तगुणा । इति ।
मेवंभंते सेवंभंते तमेवसचम् ।
थोकड़ा नं० १५ सूत्र श्री पन्नवणाजी पद ३४
(परिचारणा पद) (१) अणन्तर आहार (२) अभोगाहार (३) आहारके पुद्गकोंका जानना (४) अध्यवशाय (५) सम्यक्त्व द्वार (६) परिचारणा द्वार।
(१) अणन्तर-नारकीके नैरिया उत्पन्न होते समय जो माहारके पुद्गल गृहन करते हैं फिर शरीरको उत्पन्न करते है फिर पुद्गलोंको यथायोग्य परिणमाते है फिर इन्द्रियों निपजाते है फिर उर्ध्व अधोगमन या शब्दादि परिचारणा करते है फिर उत्तर वैक्रय रुप वैक्रय बनाते है इसि माफिक १३ दंडक देवतोंकों भी समझना परन्तु देवतोंमें पेहले वैक्रय करे बादमें शब्दादि परिचारणा करते है च्यार स्थावर तीन वैकलेन्द्रिय यह सात बोलोंमें वैक्रय न होना से नरकवत् पांच बोल केहना और वायुकाय तथा तीर्यच पांचेंद्रिं और मनुष्यमे नरकवत छे बोल केहना द्वारम् ।
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[५७] (१) अभोग-समुजीव आहार लेते है वह जानते हुवे या बनानते हुवे दोनों प्रकारसे लेते है, नरकादि १९ दंडकके जीवों दोनों प्रकार तथा पांच स्थावर अजानते हुवे भी आहार करते है । - (३) आहारके पुद्गल-नारकी आहार करते है वह आहारके पुद्गलोंकों नारकी न देखते है न जानते है कारण नारकी के रोम आहार है और पुद्गलों का बहुत सूक्ष्मपणा होनासे उपयोगकि इतनी तीव्रता नहीं है कि उन्हीं सूक्ष्म पुद्गलोंको जाने या देखे। इसी माकीक १० भुवनपति व्यंतर और जोतीषी देव तथा पांच स्थावर ए रोमाहारी है तथा बेरिन्द्रिय तेन्द्रियके चक्षू अभाव है। चौरिन्द्रिय कितनेक जीव न जाने न देखे परन्तु आहार करे और कितनेक जीव न जाने परन्तु देखे और थाहार करते है । तीर्यच पाचेन्द्रियको च्यार भांगा होते है।
(१) न जाने न देखे परन्तु माहार करे (असंज्ञी नैत्र हीन) (२) न जाने देखे आहार करे ( असंज्ञी नैत्रोंवाला )
(३) जाने न देखे ,, (संज्ञी नेत्र हीन ) .. (४) जाने देखे आहार करे ( संज्ञी नैत्रोंवाला)
इसी माफीक मनुष्यमें भी च्यार भांगा समझना और वैमानिक देव दो प्रकारके है (१) मायावान् वह मिथ्यात्वी (२) अमायवान् सम्यग्द्रीष्टी जो मिथ्यत्ववाला न जाने न देख माहार करे। सम्यग्द्रीष्टीके दो भेद है । (१) अणन्तर उत्पन्न हुवा न जाने न देखे ,, (२) परंपर उत्पन्न हुवा मिन्होंका दो भेद (१) अपर्याप्ता न जाने न देखे० (२) पर्याप्ता जिन्होंका दो भेद है (१) अनो,
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। ५८] पयोगवान् न जाने न देखे० (२) उपयोग वाले हैं वह जाने देखे ओर आहार करे विशेषो उपयोगवान् होनासे ।
(४) अध्यवशाय-अध्यवशा प्रत्येक जीवोंके असंख्याते असंख्याते हे वह प्रशस्थ अप्रशस्थ दोनों प्रकारके होते है वह २४ दंडकोंके जीवोंके हैं।
(१) अभिगम-सम्यक्त्ववान् जीव होते है वह वस्तुको यथार्थ जानते है (२) मिथ्यात्ववान् वस्तुको विप्रीत जाने (३) मिश्रवान् वस्तुको मिश्रभावे जाने नरकादि १६ दंडक मनवालोंको तीनों प्रकारका जान पणा होता है शेष ८ दंडक अर्थात् पांच स्थावर तीन वैकलेन्द्रियको एक मिथ्यात्व होनासे मिथ्याभिगम होता है आर वैकलेन्द्रिय अपर्याप्तावस्थामें सम्यग्दष्टी होता है परन्तु स्वल्पकाल होनेसे गौणपण है ।
(६) परिचारण-यह द्वार विशेष देवतावोंकि अपेक्षाहै देवता तीन प्रकारके है जिस्मे(१) भुवनपति व्यंतर ज्योतिषी सौधर्मशान देव लोकके देव, देवी और परिचारणा ( मैथुन ) सहित है (२) तीनासे बारहवा देवलोकके देव हे वह देवी रहीत और परिचारणा सहीत है (३) नौग्रीवैग और पांचानुतर वैमानके देव है वह देवी और परिचारण रहीत है परन्तु एसा देव नही हैं कि जिन्होंके देवी हो और परिचारणा रहीत हो।
परिचारणा पांच प्रकारकि है और उन्होका स्वामी
(१) कायपरिचारणा (मनुष्यकि माफीक) स्वामि भुवनपति व्यंतग्ज्योतीषी सौधर्मा ईशानदेवलोक के देव
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[५९] (२) स्पर्श परिचारण हस्तादिसेस्वामि तीजा चोथा देव बोलके देव।
(३) रूप परिचारणा-स्वामि पांचवा छठा देवलोकके देव । (४) शब्द परिचारणा-स्वामि सातवा आठवा दे० देव ।
(५) मन-परिचारणा स्वामि-नव-दश इग्यारवा बारहवा १. देव, शेष नौग्रीवैग वा पांचाणुत्तर वैमानका देव अपरिचारणा
- परिचारणा-जब देवतावोंको काय परिचारणाकि इच्छा होती है तब देव मनसे देवीकों स्मरण करते ही देवीका अंग कुरुकता है या आसनसे कुच्छ संकेत होनासे देवीको ज्ञान होता है कि मेरा मालीक देव मुजे याद करते है यह देवी उसी समय उत्तर वैक्रयसे अच्छा मनोहर द्रव्य शृगार कर देवके पास हाजर होती है तब वह कामातुर देव उन्हीं देवीके साथ मनुष्यकी माफीक काय परिचरणा ( मैथून ) सेवन करते है। ..
(प्र) हे स्वामिन् उन्हीं देवतावोंके वीर्यके पुद्गल है।
(उ) देवतोंके वीर्य है किन्तु मनुष्योंके जो गर्भ धारण वीर्य है वैसा देवोंके नहीं है परन्तु काम शान्त वीर्य देवतोंके है वह वीर्य देवीके श्रोत्तेन्द्रि चक्षुइन्द्रिय घणेन्द्रिय रसैन्द्रिय स्पशेन्द्रिय इन्हीं पांचों इन्द्रयपणे या मनपणे इष्टपणे मनोज्ञपणे विशेष मनो. ज्ञपणे शुभ शोभाग्य रुप योबन गुण(विषय) लावण्य कन्दर्प इन्हीं १७. बोलोपणे वारवार परिणमता है अर्थात् देवी देवताकोंको उन्हीं समय कामसे शान्ती होती है ।
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[६०] स्पर्शपरिचारण वाले देवों कि इच्छा होते ही देवी द्रव्य मनोहर रूप श्रृंगारकर पूर्ववत् तीजे चोथे देवलोकमें अपने स्वाद देवोंकी सेवामें हानर होती है वह देवता देवीके स्तनादिसे स्पर्क करतो ही कामसे शान्ती हो जाते है । देवताके वीर्यका पुद्गलदेवीके १७ बोलपणे परिणमते है अर्थात् हस्तादि स्पर्शसे देव देवीको शान्तपाण होता है।
रुप परिचारण वाला देवोंको इच्छा होते ही देवी द्रव्य मनो हर रूप वैक्रय अतित सुन्दराकार बनाके पांचवे छठे देवलोकके देवों पासे हाजर होती है वह देव उन्ही देवीका रूप देखतोही मनको शान्त कर लेते है । देवके वीर्यके पुद्गल देवीके १७ बोल पण परिणमते है। ___शब्द परिचारणा वाला देवोंकी इच्छा होते ही देवी वैक्रयसे मनोहर वैक्रय बनाके सातवा आठवा देवलोकके देवोंकी सेवामें हाजर होती है वहांपर अति मनोहर कण्ठ सुस्वर अर्थात् पञ्चम स्वरसे इस कदरका ग्यान करे कि वह कामोतुर देव उन्ही देवीका शब्द सुनते ही कामसे शान्त हो जाते हैं । देक्के वीर्यका पुद्गल देवीके १७ बोल पणे परिणमते है। ___ मनपरिचारणा-वालेके काम इच्छा होते ही देवीयों पेहला दूसरे देवलोकमें उन्हीं देवोंके सदिशा उभी रहे के अपना द्रव्य मनसे ही देवतावोंकी कामाग्निकों मन हीसे शान्त कर देती है । देवता देवीके मन मीलनेसे देवतोंकी शान्तपणा होते ही उन्होंका वीर्यका पुद्गललों बहासे छूटते है वह असंख्याते योजनके
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(शान देवोंके
[...] जन्तरे पर रही हुइ देवीयोंके पूर्वोक्त १७ बोलोपणे परिणमते है अर्थात् देवी उत्पन्न होनाका स्थाना पेहले दूसरे देवलोकमें है और देवता बोलानेसे आठवा देवलोक तक जा शक्ती है आगे मानेकी विषय देवीकी नहीं है । पेहले दूसरे देवलोकके देवोंके
में आति है अर्थात् उन्हीं देवीयोंको अपरिगृहीता देवीयोंके नामसे आलेखाइ जाती है। देवोके काममे देवलोकमे देवीकी स्थिति सुधर्म देवकि सौधर्ममे पल्योपमसे ७ पल्योपम
इशानमे १ पल्यो.से ९ पल्योपम मनत्कुमारके
सौधर्ममे
७ पल्यो० से १० पल्यो. महेन्द्र देवोंके इशानमे ब्रह्म देवोंके
१६, २० ॥ रुकत , इशानमे २५ ॥ १५ ॥ महाशुक्र देवोंके सौधर्ममे सहस्त्र , __इशानमे ३१ ॥ ३९ गणत , सौधर्ममे
१६, १० पणत , इशानमे ४१ , १५ , भरण , सौधर्ममे ४६ , ९० , अचुत देवोंके
इशानमे ५१ , १५ ॥
देवतावोंमे परिचारणके सुखौंकि अल्पा० ... (१) स्तोक काय परिचारणवालोंका सुख . (२) स्पर्श , अनंतगुणा
सौधर्ममे
पार
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(६२)
(३) रुप .
.. " (४) शब्द " " " (१) मन
" (६) अपरिचारणवालाका सुख , ,
. परिचारणवाला देवोंकी अल्प. (१) स्तोक अपरिचारणवाला देव (२) मन परिचारणवाला देव संख्यातगुणा (३) शब्द , असंख्यातगुणा (१) रुप " , " (९) स्पर्श " " " (1) काय , , " - सेवं भते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
- थोकडा नं० १६ श्री पन्नवणा सूत्र पद ३५
( वेदना पद ) शीत । द्रव्य २ शरीर ३ साता ४ दुःख ५ अभृगमीया ६ निंदा ७ .
(१) वेदना तीन प्रकारकी है-शीत वेदना, उप्ण वेदना, और शीतोष्ण वेदना । समुच्चय जीव तीनो प्रकारकी वेदना वेदते हैं।
पहिली, दूजी, तीनी नारकीमें उष्ण वेदना है कारण इन तीनों नरकके नेरीया शीत योनीके है । चौथी नारकीमें उष्ण वेदनावाले नेरीया बहुत है और शीत. वेदनावाले नेरीया कम है
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अर्थात् शीत, उष्ण दोनों वेदना है । पांचवीं में उष्ण वेदनावाले कम
और शीत वेदनावाले जादा है। छठी नारकीमें शीत वेदना है और सातमी नारकीमें महाशीत वेदना है। शेष असुरादि २३ दंडकमें तीनों प्रकारकी वेदना है । द्वारम् ।
(२) वेदना चार प्रकारकी है-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भवसे-समुच्चय जीव और २४ दंडकमें चारों प्रकारकी वेदना पावे।
(१) द्रव्य वेदना-इष्ट अनिष्ट पुद्गलोकी वेदना (२) क्षेत्र वेदना-नरकादि क्षेत्रकी वेदना (३) काल वेदना-शीत, उष्ण कालकी वेदना (४) भाव वेदना-अनुभाग रस मंद तिवादि । द्वारम्
(३) वेदना तीन प्रकारकी है-शरीरिक, मानसिक और शरीरी मानसिक । समुच्चय जीवोमें तीनो प्रकारकी वेदना है और संज्ञी सोलह (१६) दंडकमें भी तीन प्रकारकी वेदना पांच स्थावर तीन विकलेन्द्रियमें एक शरीरिक वेदना है । द्वारम् ।
(४) वेदना तीन प्रकारकी है-साता, असाता और साता. असाता समुच्चय जीव और २४ दंडकमें तीनों प्रकारकी वेदना है । द्वारम् . . - (५) वेदना तीन प्रकारकी है-मुख, दुःख और सुखदुःखसमुच्चय जीव और २४ दंडकमें तीनो प्रकारकी वेदना है। द्वारम् . ___(६) वेदना दो प्रकारकी है-आप्लूबगमीया (उदीर्णाकरके-- शीर लोच तथा तपश्चर्यादि करके) औपक्रमीया (उदय आनेसे)
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( ६४ )
तीर्थच पंचेन्द्रिय और मनुष्यके दोंनो प्रकारकी वेदना है। शेष २५ ison एक औपक्रमी वेदना है
द्वारम् |
(७) वेदना दो प्रकारकी है - निदा और अनिदा, नारकी १ भुवनपती १० व्यन्तर १ इन बारह दंडक में दोनों प्रकारकी वेदना है। कारण संज्ञी भूत ( जो यहांसे संज्ञी मरके गया है वह ) निदावेदना वेदे और असंज्ञी भूत ( असंज्ञी थरके गया: है वह ) अनिदा वेदना वेदे ।
पांच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय एक अनिदा वेदना वेदे कारण असंज्ञी है विर्यच पंनेन्द्री और मनुष्यमे दोनों प्रकारकी वेदना है। तथा ज्योतिषी वैमानिक में भी दोनो प्रकारकी वेदना है । कारण ये देवता दो प्रकार के होते है ।
(१) अमाई सम्यक दृष्टी - निदा वेदना वेदते हैं। (२) माई मिथ्यादृष्टीभ - निदावेदना वेदते हैं ।
सेवं भंते सेवं भते तमेव सच्चम् ।
थोकडा नंबर १७
श्री पन्नवणाजी सुत्र पद ३६ ( समुद्घात )
संसारी जीवोंके साथ अनादिकालसे पुद्गगलोंका संबन्ध है जो पुल जिस कार्यपणे परिणमते है उन्हीं पुद्गलोंको उसी नामसे पुद्गल बतलाये जाते हैं, जैसे कोइ पुद्गल वेदनिपणे परिणमे तथा कषाय पणे परिणमें तो इसी नाम ( वेदनी या कषाय ) से बतलाया जावे ।
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१५] को दस ग्रहन किया जाता है वह मामाका मदेशोंसे ग्रहन बते है । ग्रहन किये हुवे पुद्गलोंको शमको विषपणे परिणमा ना उन्हीकों समुद्घात केहते है वह इस घोडा बारे समावेगा।
(१) नामबारसमुदूधात सात प्रकारकी है यथा(१) वेदनी समु०-अवन्त वेदनाका होना (२) कषाय समु०-अति क्रोषादि काय करना । (३) मरणान्तिक समु०-मरती वखत आत्म प्रदेशोंका चलना (४) वैक्रिय समु०-आत्म प्रदेशोंको निकलके वैकिय बनावे (१) तेनत समु०-आत्मपदेशोकोनिकालके तेजस समु करे (६) आहारिक समु०-पूर्वधर मुनि आहारिक शरीर करे (७) केवली समु-केवली महारान करते हैं
यह सातों समुद्घातको अब प्रत्येक दंडकपर उतारते हैं कि किस २ दंडक कौन २ समुद्घात होती है।
(१) समुच्च जीवमें सातों समु. पावें
(१) नारकीमें समु० चार पावे वेदनी, कषाय, मांतिक, ! और वैक्रिय
(२) देवकाके १३ दंडकमें समु० ५ पावे तेजस समु. অমিঙ্ক।
(३) वायु.कायमें चार पावे नारकीवत्
(१) चार स्थावर, विन-विकलेन्द्रिमें तीन समु० पावे वेदनी, कलाय, मरण.
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[६६] (५) तियेच पंचेन्द्रिमें पांच पावे देवतावत् . (१) मनुष्यमें सात पावे (१) कालदरि
वेदनी समुद्घातका काल असंख्याते समयके अन्तर मुहू का एवं कषाय समु मर्णातिक समु० वैक्रिय समु० आहारिक समु। इन प्रत्येक छओं समुद्घातोंका काल अन्तर मुहूर्त अन्तर मुहूर्वका है और केवली समुद्घातका काल माठ समयका है।
(३) चौवीस दंडक एक वचनापेक्षा
एक नारकीके नेरीयेने वेदनी समुद्धात भूतकालमें अनन्ती की है भविष्यमें कोई करेगा कोई नही करेगा जो करेगा वह १-२-३ यावत संख्याती असंख्याती अनन्ती करेगा एवं यावत २४ दंडकमें कहना । कोई जीव नारकीका भविष्य में वेदनी समु. दूधात नहीं करेगा कारण यह प्रश्न नारकीके चर्म समय वालों की अपेक्षाका है फिर मनुष्य में आकर वहां वेदनी समुद्घात न करणे मोक्ष जाने वाला है। . जैसे वेदनी समु० कहा है वैसे ही कषाय, मर्णान्तिक, वै. क्रिय, तेजस समु० भी समझ लेना अर्थात् यह पांचों समु. २४ दंडकमे भूतकालमें अनन्ती की है मविष्यमें जो करेगा वह १-२-३ यावत् संख्याती असंख्याती अनन्नी करेगा।
एक नारकीके नेरियाने आहारिक समुद्घात भूतकालमें स्यात् की स्यात् नहीं की अगर करी है तो १-२-३ भविष्यमें करेगा तो १-२-३४ करेगा एवं यावत् २४ दंडक कहना परन्तु मनुष्यमें भूतकाल अपेक्षा १-२-३-१ करी है कहना । .
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[६७] एक नारकीका नेरियाने भूतकालमें केवली समुद्घात नहीं करी भविष्यमें करेगा तो एक एवं यावत १४ दंडक कहना परन्तु मनुष्यमें मूतकालमें करी हो तो १ भविष्यमें करेगा तो भी एक ही करेगा । इति सामान्य सूत्र ।
(४) घणा जीवोंकी अपेक्षा २४ दंडक। " घणा नारकी भूतकालमें वेदनी समु० अनन्ती करी और भविध्यमें भी अनन्ती करेगा एवं यावत् २४ दंडक कहना और इसी. तरह कषाय, मर्णान्तिक, वैक्रिय, तेमस समु. भी समझ लेना। ...घणा नारकी भूतकालमें आहारिक समुद्धात असंख्याती और भविष्यमें असंख्याती करेगा एवं वनस्पति, मनुष्य छोड़के शेष २१ दंडक समझना | वनास्पतिमें भूत भविष्य अनन्ती तथा मनुष्य में मूत भविष्यमें स्यात् संख्याति स्यात् असंख्याति । केवली समु० नरकादि २२ दंडक भूतकालमें करी नहीं भविष्यमें असंख्याति एवं वनास्पति भू० नहीं भवि० अनन्ती एवं मनुष्य भूतमें जो * करी हो तो १-२-२ उ० प्रत्यक सौ भविष्यमें स्यात् संख्याती स्यात असंख्याती।
(२) चौवीस दंडक पपरकी अपेक्षा।
एक एक नारकी भूतकालमें नारकीपणे वेदनी समु० कितनी करी ? अनन्ती, भविष्यमें कोई करेगा कोई न करेगा जो करेगा बह स्याते १-२-३ यावत संख्याती, असंख्याती स्यात् अनन्ती
नारकी नारकीपने भविष्यमें 1-२-3 कहा है सो विचारने योग्य .है टीकाकार संख्यावी असंख्याती कहते है कारण १०००० वर्षसे कम स्थिति नहीं है और प्रचुर वेदना वेदते है। .
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[६८] करेगा। एवं नारकी असुस्कुमारपणे याक्त वैमानिकपणे भी कहना।
एकेक ममुरकुमार देवता भूतकालमें नारकीपणे वेदनी समु. अनंती की है भविष्य में करेंगा तो स्यात् संख्याती स्यात् 'असंख्याती अनन्ती करेगा। .. मनुस्कुमार अमुस्कुमारपने वेदनी समु० भूतकालमें अनन्ती भविष्य में करेगा तो १-२-३ यावत् संख्याती, असंख्याती. या अनन्ती भी करेगा एवं यावत वैमानक तक समझना।
नागादि नौ कुमार भी असुस्कुमारकी माफक समझना मवि-- व्यके लिये स्वस्थानमें और औदारिकके दश दंडकमें १-२-३ यावत् अनन्ती परस्थान और वैक्रियके १६ दंडकमें स्यात् संख्याती स्यात असंख्याती स्यात् अनंती समझना । एवं याक्त, वैमानिक तक २४ दंडक २४ दंडक पने लगा लेना। भावना पूर्ववत्
एक १ नारकी नारकीपने भूतकालमें कषाय समु. अनंती करी भविष्यमें करेगा तो १-२-३ यावत् संख्याती, असंख्याती यावत् अनन्ती करेगा।
एक २ नारकी असुर कुमार पने भूतकालमें कषाय समु. अनन्ती करी और भविष्यमें करेगा तो स्यात् संख्याती, असंख्याती. अनन्ती करेगा एवं व्यन्तर, ज्योतिषी, तथा वैमानिक पने परन्तु भविष्यमें स्यात असंख्याती अनन्ती. करेगा (संख्यातीका स्थान नहीं है) .
पृथ्व्यादि औदारकके १० दंडकमें भूतकालमें अनन्ती भविष्य में स्यात करेगा स्यात् न करेगा करेगा वह स्यात् १.२.१
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[१९]
गाजत अनन्ती करेगा एवं १. भुवनपती भी कहना, परन्तु स्वस्थान और औदारिकके १० दंडक भविष्यमें, १-१-३ यावत अनन्ती कहना परस्थान और वैक्रियके १३ दंडकमें नारकी बत्
___एकेक पृथ्वीकाय नारकी पने कषाय समु० भूतकालमें अनन्ती करी और भविष्यमें जो करेगा वह स्यात् संख्याती, असंस्याती, अनन्ती करेगा एवं दश भुवनपती, व्यन्तर ज्योतिषी
और वैमानिक परन्तु भविष्यमें स्यातू असंख्याती अनन्ती करेगा 'पृथ्व्वादि औदारिकके १० दंडकमें भविष्यमें स्यात् १-२-३ यावत् संख्याती, असंख्याती, अनन्ती करेगा। एवं औदारिकके १. दंडक तथा व्यंतर, ज्योतिषी, वैमानिक असुर कुमारकी माफक समझना। - एकेक नारकी नारकी पने मोतिक समु. भूतकालमें अनन्ती करी भविष्यमें, स्यात करेगा स्यात् न करेगी जो करेगा वह स्यात् १-३-३ यावत् संख्याती, असंख्याती या अनन्ती करेगा एवं यावत् वैमानिक तक २४ दंडक कहना स्वस्थान परस्थान सब जगह १-२-३ कहना कारण मणौतिक समु० एक भवमें एक ही वार होती है
एकेक नारकी नारकी पने वैक्रिय समु. भूतकालमें अनंती करी भविष्यमें स्यात् करेगा स्यात् न करेगा जो करेगा वह स्यात. १-२-३ यावत संख्याती असंख्याती अनंती करेगा एवं २४ दंडक सतरा दंडक पने जैसे कषाय समु० कही है वैसे ही वैकित
.
.
.
-UPER
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[७] समु० समझना परन्तु वैक्रिय १७ दंडकमें ही कहना कारण स्थावर ३ विकलेंद्रियमें वैकिय नहीं है। पिकलायम वाकय नहीं है।
.. . ___एकेक नारकी नारकी पने तेजस समु. भूतकालमें एक भी नही करी और भविष्यमें एक भी नही करेगा कारण वहां है ही
नही।
___एकेक नारकी असुर कुमार पने मृतकालमें तेजस समु० अनन्ती करी और भविष्यमें जो करेगा तो, १-२-३ यावत संख्याती असंख्याती अनन्ती करेगा एवं तेजस समु०१५ दंडकमें, मर्णान्तिक समु०की माफक कहना। - . मनुष्य वर्भके एकेक २३ दंडकके जीव २३ दंडक पने आहारिक समु० नही करी और न करेगा।
एकेक तेवीस दंडकके जीव मनुष्य पने आहारिक समु. करी हो तो १-२-३ भविष्यमें करेगा तो १-२-३-४ ___ एकेक मनुष्य २३ दंडकमें आहारिक समु० नकरी न. करेगा। मनुष्य पने करी होतो १-२-३-४ और करेगा तो भी. १-२-३-४ करेगा। .. मनुष्य वर्जके एकेक २३ दंडकके जीव २३ दंडक पने केवली समु० न करी न करेगा मनुष्य पने नही करी परन्तु करेगा
तो १ करेगा। * एकेक मनुष्य २३ दंडक पने केवली समु० न करी न करेगा।
एकेक मनुष्य मनुष्य पने फेवली समु. करी हो तो एक और करेगा तो भी एक ही करेगा।
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[ ७१]
(६) घणा जीव आपसमें ।
घणा नारकी घणा नारकी पने वेदनी समु० भूतकालमें अनन्त करी और भविष्य में अनन्ती करेगा एवं २४ दंडक पने भी समझना शेष २३ दंडक भी नारकीवत समझना ।
जैसे वेदनी समृ० २४ दंडक पर कहा है इसी तरह कषाय, पर्णान्तिक, वैक्रिय, तेजस समु० भी समझ लेना परन्तु वैकिय समु० में १७ दंडक और तेजस समु० में १५ दंडक कहना ।
घणा नारकी मनुष्य वर्ग के शेष २३ दंडक पने आहारिक समृ० न करी और न करेगा । मनुष्य पने भूतकालमें असंख्याती भविष्य में भी असंख्याती करेगा । एवं वनस्पति वर्जके शेष २३ दंडक समझना वनस्पतिमें अनन्ती कहना |
एकेक मनुष्य २३ दंडक पने आहारिक समृ० न करी न करेगा और मनुष्य पने भूतकालमें स्यात् संख्याती स्यात् असंख्याती और भविष्य में भी स्यात् संख्याती स्यात् असंख्याती कहना । नरकादि २३ दंडक जीव नरकादि २३ दंडकपने केवली समु० न करी न करेगा मनुष्यपने नहीं करी अगर करेगा तो स्यात संख्याती स्यात असंख्याती ।
घणा मनुष्य २३ दंडकपने केवली समु० न करी न करेगा और मनुष्यपने करी हो तो स्यात् संख्याती असंख्याति और भवि
.
ष्यमें भी करेगा तो स्यात् संख्याती असंख्याती करेगा ।
(७) अल्पा बहुत्व- द्वार (१) समुचय अल्पा०
(१) सवसे स्तोक आहारिक समु० का घणी
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. [७] (२) केवली साल सगुणाः . (श तेज , अ# गुणा (४) वैलिय , , (५) मान्तिक, , अनेक (१) कषाय , , असे (७) वेदनी ,, वि० (८) असमोईया,, ,, असं०
(२) नरककी अल्पायहुस्व । (१) सबसे स्तोंक मर्णान्तिक समु• वाला (२) वैक्रिय समु० वाला असं० गुणा' (३) कषाय ,, ,, सं० (७) वेदनी ,, , सं० (१) असमोईया,, , सं०
(३) देवतामै समु० ५ अल्पा० (१) सबसे स्तोक तेजस समु० वाला (२) मान्तिक समु० वाला असं. (३) वेदनी " " " (8) कषाय " " स० (६) वैनिय , , , (६) मसमोईया " " "
(४) पृथ्व्यादिस्याघरकी अल्पा० (१) सबसे स्तोष मन्तिक समु. बाला (२) कषाय समुवामा ०. मुगा
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(३) वेदनी , वि. (७) असमोईया , मसं.
(५) वायु कायकी अल्पा (१) सगसे स्तोक वैकिय समु०, वाला, (२) मर्णात्मिक समु० वाला असं.. (१) कषाय , ,सं० (४) वेदनी: कि (५) असमोईया , असं०.
(६) वैकलेद्रियकी अल्पा (१) सबसे स्तोक मर्णातिक, समु०. वाले (२) वेदनी समु० वाले असं० गुणा (३) कषाय समु० वाले सं० , (४) अनमोईया मसं० ,
(७) तिर्यंच पंचेन्द्रियकी अल्पा (१) सबसे स्तोक तेजस समु० वाले (२) वैक्रिय समु० वाले पसं० ---.. (३) मर्णातिक ,, ,, असं० (४) वेदनी , , , " () कषाय , ,सं. . (६) अनमोईवावं. ....(4) मनुष्यकी अल्पा बहुत्व () सबसे स्तोम माहारिक समु.१ वाला (1) फेसी समुं० का २० गुगा ।
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[७] (३) तेनस , , . (४) वैक्रिय , सं० (५) मर्णातिक ,, ,, असं (९) वेदनी ,, , असं (७) कषाय , , सं० (८) असमोईया , सं.
सेव भंते सेवं भते तमेव सचम् ।
थोकडा नंबर १८ श्री पनवणाजी सूत्र पद ३३
(कषाय समुद्घात) कषाय समुद्घात चार प्रकारकी है यथा(१) क्रोध-पति कोषके उत्पन्न होनेसे (२) मान-अति मानके " " (१) माया अति मायाके . , , (४) लोम-अति लोभके , ,
नरकादि २४ दंडकमें कषाय समु० चारोंपावे इसका काल अन्तर मुहूर्तका है।
(१) एकेक जीवकी अपेक्षा २४ दंडकमें
एकेक नारकी क्रोध समुं० भूतकालमें मनन्ती करी है भविष्य कालमें कोई करेगा कोई न करेगा जो करेगा वह १-१-२ यावत संख्याती, असंख्याती, अनन्ती करेगा एव
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[७६] कार्यत् वैमानिक तक ९४ दंडक भी समझना। इसी तरह मान मंमा लोभ भी समझना चाहिये।
(१) घणा जीवोंकी अपेक्षा २४ दंडकमें। : ' . पणा नारकी क्रोध समु० भूतकालमें अनन्ती करी मविष्यमें . नन्ति करेगा एवं वैमानिक तक २४ दंडक समझना और शेष मान, माया, लोभको भी क्रोध समु० वत् समझना ।
(३) एकेक जीव आपसमें २४ दंडकपर ।
एक नारकी नारकी पने क्रोध समु. भूतकालमें अनन्ती करी । भविष्यमें स्यात् करे स्यात न करे जो करे वह १-२-३ यावत् सं• असं• या अनन्ति करेगा।
एकेक नारकी मसुर कुमार पने क्रोध समु० भूतकालमें भनन्ती करी भविष्यमें कोई करेगा कोई.न करेगा जो करेगा वह १-१-३ यावत् सं. असं अनन्ती करेगा एवं यावत वैमानिक तक २१ दंडक पने भी समझ लेना । ___ शेष १३ दंडकको वेदनी समु० की माफक २४ दंडक पर लगा लेना एवं मान, माया मर्णान्तिक समु० की माफक और लोभ काय समु० की माफक समझना परन्तु लोभमें नारकी अनुर कुमार पने १-२-३ २० असं० मनन्ती कहना।
(४) घणा जीव परस्पर २४ दंडक पर
घणा नारकी घणा नारकी पने क्रोध समु० भूतकालमें मन.. न्ती करी भविष्यमें अनन्ती करेगा इसी तरह यावत वैमानिक
तक २४ दंडकपने भी समझना एवं मान, माया, लोभी भी क्रोधबत् समझना।
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[ ७ ]
घणा असुर, कुमार नारकीपने, क्रोध समु० भूतकालमें गनती करी और भविष्य में कोई करेगा कोई नहीं करेगा जो करेगा वह सं० अ० अनन्त्री करेगा इसी तरह बावत, वैमानिक तक कहना एवं मान, माया, लोभी समझना ।
असुर कुमार वत् शेष २२ दंडक भी २४ दंडकपर लगा
सेना ।
अल्पाबहुत । (१) समुचय जीवकी
(१) सबसे स्तोक अकषाय वाले
(२) मान समु० वाले अनन्तगुणा
(१) क्रोष
वि०
"
(४) माया (१) लोम
"1
(1) असमोईया
""
19
""
91
39
99
(२) नारकीकी अल्पा ०
(१) सबसे स्तोक लोभ समृ० वाले
(२) माया समु० वाले सं० गुणा
सं०
(३) मान (४) क्रोध (५) असमोईया
सं०
39
बि०
वि०.
सं०
"
""
सं०
(३) देवताकी अल्पा● (१) सबसे स्तोक कोष समु० वाले
(२) मान समु० वाले सं० गुणा
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[७] (३) माया ,, सं० . (१) लोभ , , सं० (५) असमौईया सं० ..
(४) तिर्यचकी अल्पाय. (१) सबसे स्तोक मान समु• वाले (२) कोष समु० वाले वि. (३) माया , , वि. (४) लोभ , , वि. (१) असमोईया सं. .
(५) मनुष्यकी अल्पा (१) सवसे स्तोक अकषाई वाले (२) मान समु० वाले असं० गुणा (३) क्रोध , , वि. (४) माया ,, ,वि. (५) लोभ , , वि० (६) असमोईया सं०
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
थोकड़ा नं० १९ श्री पन्नवणाजी सूत्र पद ३६
(छमस्त समुधात) छदमस्त समुद्घात छे हैं (१) बेदनी (२) कषाय (6)
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[७८] मर्णान्तिक (1) वैक्रिय (१) तेजस (1). माहारिक समुद्घान इति ।
नारकी और वायुकायमें समु. चार पावे, तेजस, माहारि बनके देवता तिर्यच में समु. पांच पावे, आहारिक बनके औ चार स्थावार तीन विकलेन्द्रिमें तीन वेदनी, कषाय, मर्णातिर मनुष्यमें १ पावे।
(५०) हे भगवान् ! समुच्चय जीव वेदनी समु० करके छोडे हुवे पुद्गल कितने क्षेत्रको स्पर्श और कितना क्षेत्र अप स्पर्शा रहे !
(उ०) हे गोतम ! वेदनी समु० करतों विष्कंभ पने और पहूलपने अपने शरीर प्रमाणे होता है और उतने ही क्षेत्रको स्पर्श करता है शेष रहा हुवा क्षेत्र अस्पर्श है नो क्षेत्र स्पर्श किया है वह नियमा छेदिशीका हैं।
(प्र०) काल अपेक्षा पृच्छा !
(उ०) वेदनी समृ० करनेवाला १-२-३ समयके कालको स्पर्शे शेष काल अस्पर्श अर्थात् वेदनी समु० का काल अन्तर मुहूर्तका है परन्तु कृत काल १-२-३ समयका है वेदनी समु० कियेके बाद बे पुद्गल शरीरमें अन्तर मुहूर्त रहते हैं बाद शरीरसे छूटते हैं याने अलग होते हैं। ..
(१०) वेदनी समु०.से छुटे हुवे पुद्गलोंसे किसी प्रण, भूत, जीव, सत्वको तकलीफ होती है जब समु० करने वाले को कितनी क्रिया लगती है।
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[७९) (उ०) स्यात ३-४-५ क्रिया लगती है.
(१) अपने खराब योगोंसे तीन क्रिया (काईया, अधिकरणीया, पावसीया )
(२) पर जीवको तकलीफ होनेसे चार किया (परितापनीया) ___(३) पर मीवकी धात होनेसे पांच क्रिया लगती है (पाणईवाय) अधिक
इसके चार भांगो। (१) एक जीवको एक जीवकी स्यात् ३-४-५ क्रिया (२) एक जीवको घगा जीवोकी स्यात् ३-४-५,. (३) घणा जीवोंको एक जीवकी स्यात् ५-४-५ ,, (४) घणा जीवोंको घणा जीवोकी घणी ३-४-५, इसी माफक समुच्चय जीवोंकी तरह २४ दंडक भी समझना
(प्र०) समुच्चय जीत मर्णान्तिक समु० करते हुए की एच्छा ? . (उ०) क्षेत्र विक्रम और पहलतो शरीर प्रमाणे लम्बा एक दिशी में जघन्य अंगुलके असंख्य भाग उत्कृष्ट असंख्याता जोजन इतना क्षेत्र स्पर्श. शेष क्षेत्र अस्पी रहे कालकी अपेछा १-२-३ समय और विग्रह गती करे ते १-२-३-४ समयका काल स्पर्श शेष काल अस्पर्श हुआ रहे।
... ... मर्णान्तिक समु० के पुद्गल अन्तर मुहूर्त शरीर पने रहके पीछे वे पुद्गल छूटते है उनसे किसी भी प्राण, भूत, जीव, सत्वको तकलीफ हो तो समु० करनेवाले की क्रिया स्यातू १-४-५ लगे जिसके पूर्वोक १ मांगे कर लेना।
.
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180] एवं नारकी परन्तु क्षेत्र से ज० १७०० बोनन साधिक उ. असंख्याता जीमन (कारन पाताल काशीम उत्पन्न हो तो) कालसे १-२-३ समय शेष समुच्चयकी माफक। ... ....... इसी तरह शेष २३ दंडक समुच्चय बत परन्तु पांच स्थावर में काल विग्रहापेक्षा १-२-३-2 समयका कहना बाकीमें
१-२-३ समय काही है। ... (५०) समुच्चय जीव वैक्रिय समुद्घातकी एच्छा .
. (३०) कम्बा ज. अंगुलके सं० माम उ० सं० जोजन प्रमाणे एक दिशा वा विदिशा। कालसे १-२-३ समयका स्पर्शेर शेष अस्पर्शा और क्रिया पूर्वोक्त कहनी । स्यात् ३-४-५ औ. इनके मांगा १ पूर्ववत् ।
इसी तरह नारकी परन्तु मायाम एक दिशामें । . एवं वायु काय और तिर्यच पंचेन्द्रि भी समझना । बाकीदेवता मनुष्य समुच्चय वत् ।
इसी तरह तेनस समु० वैक्रिय समु० वत् समझना । मामाम अंगुलके असं में भांग होता है। एवं यावत् वैमानिक तक २१ दंडक, परन्तु तिर्यच पंचेन्द्रियमें एक ही दिशा कहना। मा. हारिक समु० समुच्चजीव और मनुष्य करे तो विष्कम और बाहुत्यपने तो शरीर प्रमाणे मायाम न० अंगुलके असं में भाग उ० सं० जोजन प्रमाण एक दिशीमें कालसे १-२-३ समय छोडनेका काल अन्तर मुहूर्त क्रिया पूर्वोक्त ३-१-६ और भांगा चार भी पूर्ववत् समझ लेना।
सेवं भंते से भैते तमेव सचम्।
.
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[ ८१ ]
थोकडा नम्बर १
सूत्र श्री पनवणाजी पद ३६ (केवली समुद्घात)
(प्र०) हे भगवान् ! अनगार भावित आत्माका घणी केवली समुद्घात करे जिसमें निर्जरा किये हुवे कर्म पुद्गल होते हैं वह सर्व लोक स्पर्श करे अर्थात सर्व लोकमें व्यापक हो जाते हैं ? उन सुक्ष्म पुगलोंको छदमस्त जीब वर्ण, गंध, रस स्पर्श करके नाणे देखे !
(उ० ) छद्मस्त नहीं जाणे नहीं देखे ।
कारण जैसे (हृष्टांत ) यह जम्बूद्वीप १ लक्ष योजनका है जिसकी परिधी ३१६२२७ योजन ३ गउ १२८ घमुष्य १३॥ अंगुल १ जव १ जूँ १ लीख ६ नालाग्रह ५ व्यवहारीया परमाणू साधिक होती है जिसको कोई महान ऋद्धिवान् शक्तीवान् देवता इस्तगत सुगन्ध पदार्थका डिब्बा लेकर तीन चिपटी बनावे इतनेमें उस सुगन्धी डिबेको हाथमें लिये हुवे २१ बार जम्बूद्दीपकी प्रद क्षिणा दे और उस सुगन्धी डिब्बीमेंसे निकले हुबे पुल जो जम्बूद्वीपमें व्याप्त है उन पुद्गलोंको छदमस्त नहीं देख सकता । वे अठ स्पर्शी होने पर भी इतने सुक्ष्म है तो कमौके पुद्गल तो चौ स्पर्शी है उसको छमस्त कैसे देख सकता है अर्थात् चौ स्पशी बहुत ही सुक्ष्म होते है उसको छमस्त नहीं देख सकता ।
केवली समु० किंस वास्ते करते है ? जिनके चार कर्म
: (बेदनी, आयुष्य, नाम, गोत्र ) बाकी रहे हैं इसमेंसे आयुष्य कर्म अरुप हो और वेदनी कर्म जादा हो उसको सम करनेके लिये केवली समुद्रघात करते है।
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[८२]
(प्र०) सब केवली समु० करते हैं ?
(उ०) सब केवली समु नहीं करते,अनन्ते केवली विना ही समु० किये जन्म, जरा मणके रोगको मिटा कर मोक्षमें गये है। . (प.) मोक्ष जाते समय कितने समयका आयुन करणा होता है ?
(उ०) असंख्याता समयका होता है (१०) केवली समु० को कितना समय लगता है ? (उ०) आठ समय लगता है (१०) किस समय किम योग पर प्रयूनता है (प्रव्रते) ?
पहिले समय-औदारिक काय योग ( दंड १४ रानलोक प्रमाण)
दूसरे समय-औदारिक मिश्र काय योग (कपाट करे) तीसरे समय-कार्मण काय योग (मथन प्रदेश) चौथे समय- , , , (आंतरा पूरे) पांचवे समय- , , , (आंतरा संग्रह) छठे समय-औदारिक मिश्र काय योग (मथनसंग्रह) सातवें समय-, , , (कपाट संग्रह) आठवें समय औदारिक काय योग (दंड संग्रह) (१०) केवली समु० करता हुवा मोक्ष नावे ? (३०) नहीं नावे
जिनके भायुष्यका छे महीना शेष रहनेपर केवल ज्ञान प्राप्त हुवा हो उनमेसे कोई केवली समु. करे कोई न करे।
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[३] (प्र०) केवली समुदघातसे निवृत होने बाद कौनसे योग
पर प्रयूजे !
(उ०) मनयोग (सत्य व्यवहार), वचनयोग (सत्य व्यवहार) काययोग (हलन चलन तथा पहिले लिये हुवे पाट पटल संधारादि ग्रहस्थको पीछा दे ।
(प्र०) सयोगी केवली मोक्ष जावे ? (उ०) नहीं नावे कारण अयोगी होनेसे भोक्ष होती है। (प्र०) मोक्ष जानेवाले पहिले योगोंका निरोध करते है ? (उ०) (१) मनयोग-संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्ताके जघन्य योगसे
असंख्यातमें भाग मनका योग रहा था उसका
निरोध करे। (२) वचनयोग-वेरिन्द्रिय पर्यप्ताके नघन्य योगसे
असंख्यात भाग बाकी रहा था उसका निरोध करे। (३) काययोग-सुक्ष्म पणग (निगोद ) जीवके ' पर्याप्ताके जघन्य योगसे असंख्यात भाग हीन
काययोग था उसका निरोध करे। अर्थात् पहिले मनयोग पीछे वचनयोग पीछे काययोग इस तरह निरोध करे । असंज्ञी (संग रहित) अयोगी, अलेशी चौदवें गुणस्थान पर अ इ उ कल यह पांच लघु अक्षर उच्चारण करे। इतनी स्थिति पूर्ण करके जन्म, जरा, रोग, सोग, भयको दूर करके केवली मोक्ष जाते है। इस लिये सयोगी केवली मोक्ष नही जाते है परन्तु अयोगी ही मोक्ष जाते है। श्रीरस्तु, कल्याणमस्तु ।
सेवं भते सेवं भते तमेव संचम् ।
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[]..
योकड़ा नं० २१ .
(सम्यक्त्वके ११ हार) (१) नामद्वार (१) लक्षणद्वार (३) आवणहार (९) पावणद्वारे (५) परिमाणहार (5) उच्छेदद्वार (७) स्थितिद्वार (८) अन्तरद्वार (९) निरन्तरद्वार (१०) आगरेसद्वार (१.१) क्षेत्र स्पः नाद्वार (१२) अल्यावहुतहार इतिः
(१) नामहार- सम्यक्त्व च्यार प्रकारकी होती है यथा क्षायक सम्यत्व, उपशमसम्य०, वेदकसभ्य०, क्षोपशमसम्य० ।
(२) लक्षणद्वार-क्षायक सम्यक्त्वके लक्षण जैसे अनंता. नुबंधी क्रोध मान माया लोम और मिथ्यात्वमोहनिय, मिश्रमोहनिय, सम्यक्त्वमोहनिय एवं ७ प्रकृतियोंका मूलसे क्षय करनेसे क्षीयक सम्यक्त्व की प्राप्ती होती हैं । पूर्वोक्त ७ प्रकृतियोंको उपशमानेसे उपशम सम्यक्त्वक प्राप्ती होती है। पूर्वोक्त ७ प्रतियोंसे ६ प्रकृतियोंको उपक्षमावे और एक सम्यक्त्वमोहनियको वेद उन्हींकों वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। पूर्वोक्त ७ प्रकृतियोंसे मनन्तानुबन्धी चौकको क्षय करें और तीनमोहनियोंको उपशमावे उन्हीको क्षयोपशम सम्यक्त्व कहते है।
(३) आवणहार-क्षायकसम्यक्त्व एक मनुष्यके भवमें भावे, शेष तीन सम्यक्त्व चारों गतिमें भावे ।
_ (७) पाक्ण बार-च्यारौ सम्यक्त्व च्यारों गतिमें पावे । कारण क्षायक सम्यक्त्व मनुष्यके भक्में ही आति है परन्तु सम्यक्त्व मानेके पेहला कीसी भी गतिका युध्य बन्ध गया हो
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[4]
सम्यक्त्व आह हो तो पूर्व बन्धे हवे आयुष्य के माफिक उन्हीं यतिमें जाना ही पड़ता है ।
(१) परिमाण द्वार - शायक सम्यके धणी अनन्ते मीले (सिद्धों की अपेक्षा) शेष तीन सम्यक्त्ववाले असंख्याते असंख्याते मी मीले ।
(६) उच्छेद द्वार-क्षायक सम्य० का उच्छेद की भी नहीं होता है शेष तीनों सम्य० कि भजना है ।
(७) स्थिति द्वार - क्षायक सम्य० सादि अन्त है अर्थात आदि है परन्तु अन्त नहीं है कारण क्षायक सम्य० आनेके बाद नहीं जाती है शेष दोय सम्य०कि स्थिति जघन्य अन्तरमईत उत्कृष्ट ६६ सागरोपम साधिक और उपशम सम्य० की जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरमहूर्त है ।
(८) अन्तर द्वार-क्षायक सम्य० का अन्तर नहीं हैं शेष तीनों सम्यका अन्तर पडे तो जघन्य अन्तर महूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोना आर्द्धा पुद्गल परावर्तन करते हैं अर्थात् सम्य० आने के बाद पीच्छी चली जावे और मिथ्यात्वमें रहे तो देशोना अर्द्ध पुद्गलसे अवश्य सम्ब० को प्राप्ती हो मोक्ष जावे ।
(९) निरंतर द्वार - जो जीवोंकों सम्य० आति है तो कहा तक आवे ? क्षायक सम्य० आठ समय तक निरंतर आवे । फिरतो अन्तर पडे ही । शेष तीन सम्य० आवलिका के असंख्यात में भाग समय हो इतनी टैम तक निरंतर आवे |
(१०) आगरेस द्वार - क्षायक सम्प० एक जीवको एक भव या घणा भवमें एक ही दफे आवे। आनेके बाद पीच्छी जांवे
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नहीं, उपशम सम्यक्त्व एक जीवको एक भवमें जघन्य एक वाद उत्कृष्ट दोय वार भावे और घणा भाव अपेक्षा जघन्य दोय वार उत्कृष्ट पांच बार आवे शेष दोय सम्य० एक भवापेक्षा जघन्य एक वार, घणा भवापेक्षा दोय वार और उत्कृष्ट असंख्यात वार आवे । कारण जीवोंके अध्यवशाय क्षोपशमयक भावमें हर समय बदलते रहेते है।
(११) क्षेत्रस्पर्शना द्वार-क्षायक सम्य० सर्व लोक क्षेत्रको स्पर्श करे कारण केवली समुद्घात करते है उन्हीं समय सर्व लोकमें अपना आत्म प्रदेश फेला देते है इसापेक्षा । शेष तीनों सम्यक्त्व सात रान कुच्छ न्यून. क्षेत्र स्पर्श करे।
(१५) अल्पा बहुत्व द्वार (१) स्तोक उपशम सस्यत्व वाले जीव है । (२) वेदक सम्य० वाले जीव संख्याअ गुणे है (३) क्षोपशम सभ्य० वाले जीव असंख्यात गुणे है (४) क्षायक सम्य० वाले अनन्त गुणे है (सिद्धापेक्षा) इति ।
मे मत सेवं भंते तमेव सचम् ।
थोकडा नं० २२...
(बलकि भल्पाबहुत ) .... पूर्वाचायोंके हस्तलिखित प्राचीन पत्रसे (१) स्वोक सुक्ष्म निगोदके अपर्याप्ताका बल (२) बार नियोदके अपर्याप्ताका बल असंख्यातगुरु : (३) मूल निगोदके प्राप्ताका बल, (४) र निनोदके ,
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[30]
(५) सूक्ष्म पृथ्वी कायके अपर्याप्ताका (६) , , पर्याप्ताका , (७) बादर पृथ्वी कायके अपर्याप्ताका बल , (८) ,, पर्याप्ताका ,, (९), वनस्पतिके अपर्याप्ताका , (१०),
पर्याप्ता , (११) तृण वायुका बल (१२) घणोदद्धिका , (१३) घणवायुका , (१४) कुंथबाका , . (१५) लीखका बल . पांचगुणो (१६) जु (युक) का बल दशगुणो (१७) कीडामकीडाका बछ । वीसुगुणो (१८) माखीका बल
पांचगुणो (१९) डंस मसगका बल दशगुणो (२०) भ्रमरका बल ... जीसगुणो (२१) तीडीका बल ... पचासगुणों (२२) चीडीका बल . . . . . साठगुणो (२३) पारेवाकों ,
पन्दरागुणो (२१) कागको बल ... - सौगुणो (२५) कुर्कटको , ..... सौगुणो (२६) सर्पको ,
हमारगुणो (२७) मयूरको, (२८) बंदरको ,
पांचसोगको
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हमारगुणो सौगुणो
बारहगुणो
[८८] (२९) गेटाको ,
सौगुणो (१०) मिडाको बल (३१) पुरुष (मनुष्य को बक (१३) वृषमको बल
बारहगुणो (३३) अश्वको बल
दशगुणो (३४) भेसाको बल (१५) हस्तीको बल
पांचसोगुणो (२६) सिंहको बल
पांचसोगुणो (३७) अष्टापदको बल दोयहनार गुणो (३८) बलदेवको बल दशलक्षगुणो (३९, वासुदेवको बल दोयगुणो (१०) चक्रवर्तको बल
दोयगुणो (४१) व्यंतरदेवोंका बल कोडगुणो (४२) नागादि भुवनपति देवोंका बल असं०गु० (४३) असुरकुमारके देवोंका बल असं गु० (४४) तारादेवोंका बल (४५) नक्षत्रदेवोंका , (४६) गृहदेवोंका , (४७) व्यन्तर इन्द्रका बल (४८) नागादि देवोंके इन्द्रोंका बल (४९) असुरदेवोंके , " (५०) ज्योतिषी
" (५१) वैमानिक देवोंका बल (१२) , इंद्रोंका , (५३) तीनकालके इंद्रोंसे भी श्री नेमिनाथ प्रभुके कनिष्टा
अंगुलीका वल अनन्तगुणा है । तत्त्वकेवलीगम्यम् । सेवं भंते सेवं भंते तमेव सचम् ।
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मरूस्थलमें मुनि विहारका लाभ । मारवाड फलोधी नगरमें मुनि श्री ज्ञानसुन्दरजी महाराजका चतुर्मास होनेसे धर्म कृत्यमें वृद्धि ।
(१) सं० १९७७ का चतुर्मासा १ तपम्या कि पंचरंगी एक
१ तपस्याका शिरपेच एक २०१ पर्युषणमें पौषद ६६५) पेहले पयुषणमें सुपनोकि आवन्द १२०९।) दुसरे पर्युषणमें सुपनोकि आवन्द
(२) सं० १९७८ का चतुर्मासा २ तपम्याकि पंचरंगी दोय
२ पौषदका शिरपेच दोय ५०१ पर्युषणोंमें पौषद
५ स्वामिवत्सल पौषदके
२ स्वामिवत्सल खीचंदमें २१००) पर्युषणों में सुपनोंकि आवन्द
४ ४ १) श्री भगवती और नन्दीसूत्रकि पूनाका ३४००० पुस्तकों छपी
और भी पूजा प्रभावना वरघोडा तथा निर्णोद्धारकि टी तथा ३४ आगोंकि वाचनादि धर्मकृत्य अच्छा हूवा है ।
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प्रकाशकमेघराज मुणोत
फलोधि (मारवाड)
॥ जलंदि किजिये ॥ श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुप्पमाला संस्थासे स्वल्य समयमें आज तक ५० पुप्प प्रसिद्ध होचुके है कार्य चालु है ।
जैन सिद्धांतके तत्त्वज्ञान मय शीवबोध भाग १-२-३ - ४-५-६-७-८-९-१०-११-१२-१३-१४
हिन्दी मेझर नामो-२०३ आगमोका प्रबल प्रमाणसे ३१, विषयका प्रतिपादन किया गया है साथमें त्रनिर्नामा लेखों का उत्तर भी दिया गया है। किंमत फक्त आठ आना ।
द्रव्यानुयोग प्रथम प्रवेशिका खास पाठशालाओंमें पढ़ाने लायक है। पाठशालामें टीपल खरचासे ही भेजी जाती है । लिखो-श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला
मु० फलोधी-मारवाड़।
मुदकमूलचन्द किसनदास कापड़िया,
"जैन विजय" प्रिन्टींग प्रेम, सर्व खपाटिया चकला, लक्ष्मीनारायणकी वाड़ी-सूरत ।
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manश्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प न.४८-४६nam
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शीघ्रबोध भाग १३-१४ वा
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लेखक मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी
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Page #207
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श्रीरत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प न. ४८-४६
श्रीरत्नप्रभसूरीधर सद्गुरुभ्यो नमः
अथ श्री
शीघ्रबोध या शाकमा प्रबंध.
भाग १३-१४ वा.
मंग्राहक. श्रीमदुपकेश : कमला ) गच्छीय मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी (५वरचन्दजी)
प्रकाशक
श्रीसंघफलोधी सुपनादिकी आवंदसे.
प्रबन्धकर्ता, शाह मेघाराजजी मोणोयत मु. फलोधी. प्रथमावृत्ति १००० ------- विक्रम संवत् १९७८
भावनगर-धी आनंद प्रन्टींग प्रेसमां शा. गुलाबचंद ललुभाइए छाप्युं.
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विषयानुक्रमणिका
शावकोध भाग १३ वा. ५ द्रव्यदिशा १८.... .... ... ....१०७ १ चौदा राजलोक.... .... .... .... .....१ ६ आहार प्रज्ञा.... .... .
....११३ २ नारक के द्वार २१.... .... ... ....६
७ बाष्टीया के बोल ४१.... ....११६ ३ भुवनपतियों के द्वार २१.... .... ....१३
४५.... ....१२२ ४ सयंतर दवो के द्वार २१.... ... .. २१
५२.... .. १२४ , ज्योतिषी देवों के द्वार ३१.... ....२७
३५. .. .. १२८ ६ मानिदेवो के द्वार २७ ... ....३७
२७. ....१३० ७ जम्युद्विप खंडादि १० ठार.... ....४७
शीन बोध भाग १४ वा. १३ ,, १ लवण समुद्र अधिकार.... .... ...८३
१३८ २ घातकिखंडादि .... .... .... ....८४ १५ लब्धि , २८.... ....१४० ३ नन्दीश्वर द्विप.... .... .... ...६५ १६ पुद्गल
.... ...१४२ ४ निगोद अल्पा० .... .... ....१०१ । १७ संख्यातादि २१ बोल ... ....१४६
१३५
.... ....
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३
संवत् १९७७ कि शालमें मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी महाराज का चतुर्मासा फालोधी नगरमे हूवा था आपश्री का सदुपदेश से ज्ञानवृद्धि के लिये निम्न लिखत पुस्तके प्रकाशित हुई है.
१००० शीघ्रबोध भाग श्वा शाहा रेखचन्दजी लीद्यमीलालजी कोचर की तर्फसे
१००० शीघ्रबोध भाग १ शाहा हरिचन्दजी फुलचन्दजी कोचर की तर्फसे ( आवृति २ जी )
2
१००० शीघ्रबोध भाग ८ वा शाहा अगरचन्दजी जोगराजजी लोढाकि तर्फ से.
१००० शीघ्रबोध भाग ६ वा शाहा सेसमलजी मीसरीलालजी गोलेच्छा तथा सुगनमलजी ढढाकी तर्फ से. ५००० सुबोधनियमावली अवृतिदुजी शाहा जुहारमलजी दीपचन्दजी वेदक तर्फ से.
४५०० द्रव्यानुयोग प्रथम प्रविशका शाहा घनसुखदासजी सकरणजी गोलेच्छाकि तर्फ से.
१००० हिंदी मेजकर नामो श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमालाकि तर्फ से.
१००० त्रण निर्नामा लेखों का उत्तर श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला कि तर्फ से.
१००० आनंदघन चौवीशी शाहा अगरचन्दजी जोगराजजी लोढाकी तर्फ से.
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१७५. श्रीसंघ फलोधी सुपनो आदि कि आवंदसे.
२००० तीर्थयात्रा स्तवन. १००० अमे साधु शामाटे थया. १००० नन्दीसूत्र मूलपाठः १५०० द्रव्यानुयोग प्रथम प्रवेशिका ७००० सात पुष्पो का गुच्छा एकजील्द
१००० स्तवन संग्रह भाग १ चो. मा. १००. स्तवन संग्रह भाग २ द्वि. आ. १०.० स्तवन संग्रह भाग ३ " १००० दान बत्तिमी १००० अनुकंपा चिसी १०.० प्रश्नमाला स्तवन
१००० विनति शनक १... शीघ्रबोध भाग १० का १००० शीघ्रबोध भाग ११ वा १००. शीघ्रबोध भाग १२ वा १.०० शीघ्रबोध भाग १३ वा १००० शीघ्रबोध भाग १४ वा १७५००
कार्य चन्नु है ॥
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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पुष्प नं. ४८.
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श्री रत्नप्रभसूरी सद्गुरुभ्यो नमः
अथ श्री
शीघ्रबोध या थोकमाप्रबंध.
भाग १३ वा.
थोकडा नम्बर १.
बहुश्रुती कृत १४ राज. जहाँपर पांचास्तिकाय है उन्हीको लोक कहा जाते है वह लोक असंख्याते कोडनकोड योजनके विस्तारवाला है उन्हींका परिमाणके लिये राजसंज्ञा दी गइ है. वह राज भी अमंग्य कोडोनकोड जोजनका है उन्ही राजका परिमाणसे १४ राज परिमाण लोक कह जाते है, वह उर्ध्व-अधोलोककि अपेक्षा है, परन्तु कितना उध्व वा अधोजानेपर कितने विस्तार आता है. वह सब इन्ही थोकडे द्वारा कहेगे ।
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वस्तुनिर्देशमें नय कि अपेक्षा अवश्य होती है, वह नय मौख्य दो प्रकारकि है. (१) निश्चयनय, (२) व्यवहारनय. जिस्मे निश्चयनयसे लोकका मध्यभाग प्रथम रत्नप्रभा नरकक अवकाश अन्तराके असंख्यातमे भागमें है. वास्ते अधोलोक संभूमितलासे साधिक सात राज है, और उर्ध्वलोक कुन्छ न्यून सात राज है तथा तीरच्छालोक जाडा १८०० योजनका है, परन्तु व्यवहारनयसे सात राज अधोलोक और सात राज उप्रलोक और तीरच्छालोक उर्ध्वलोकके सेमल माना जाता है, वह व्यवहारनयकि अपेक्षासे ही यहापर बतलाये जावेगा.
प्रथम च्यार प्रकारके राज होते है उन्हीको ठीक (२) समझना. (१) घनराज-एक राज लंबा, एक राज चोडा.एक राज जाड हो. (२) परतरराज-एक घनराजका च्यार परतरराज होता है. ( ३ ) सूचिराज--एक परतरराजका च्यार सचिराज
होता है. (४) खण्डराज-एक सूचिराजका च्यार खण्डराज होता है.
अधोलोक सात राजका जाडपणामें है और अधोलोकमें सात नरक है, वह प्रत्यक नरक एकेक गजकि जाडी है विस्तार यंत्रसे देखो.
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रत्नप्रभा
arn
नाम. | जाडी. | पहूंली. : धनराज. | परतर. | चि. खण्ड.
राज ४ राज १६ राज ६४ राज शार्करप्रभा
२५ ,,
४०० " वालुप्रभा
१०२४ ,, पंकप्रभा
४०० १६००, धूमप्रभा
५७६ २३०४, तमप्रभा
| ४२, १६६, ६७६ ,, २७०४, तमतमा०
,,| ४६ । १६६, ७८४ , अधोलोकमें सर्व धनराज १७५ परतरराज ७०२ सूचिराज २८०८ खण्डराज ११२३२ होते है.
संभूमितलासे १।। राजउर्ध्व जावे तब पेहला दुसरा देवलोक आता है जिस्मे श्रा दो राजउर्ध्व जावे तब एक राजविस्तार है वहांसे आदो राजउर्ध्व जाव तब १॥राजविस्तार है वहांसे पाव राज जावे तब २ राजविस्तार वहांसे पाव राज जावे तब २॥ राजविस्तार है वहां पर सुधर्म इशान देवलोक है. .
सौधर्म इशान देवलोकसे उर्ध्व एक राज जाते है वहांपर तीजा चांथा देवलोक आते है जिस्में आदा राज जावे तब तीन राजविस्तार है वहांसे आदा राज जावे
३१३६ ,.
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वहां च्यार गजविस्तार है वहां पर सनत्कुमार महेन्द्र देवलांक आता है,
सनत्कुमार महेन्द्र देवलोकसे पुण ०॥ गज उर्ध्व जावे तव पांचवा ब्रह्मदेवलोक आता है वह पांच गजका विस्तारवाला है।
पांचवा देवलोकसे पाय ०। राज उर्ध्व जाये तब छठा लंतक देवलोक आता है वह भी पांच राजके विम्तावाला है।
छठा देवलोकमे पाव ०) गज उर्च जाये तब मातवा महाशुक्र देवलोक आता है वह च्यार राजक विस्तारवाला है वहांसे पाव राज उर्ध्व जावे नव आठवा महम्र देवलोक च्यार गजके विस्तारवाला आता है ।
आठवा देवलोकसे श्रादा ॥ गज उर्ध्व जाता है तब नवमा दशवा देयलोक आता है वह तीन गजके विस्तारवाला है वहांसे आदा ०। राज उर्च जाता है तब इग्यारवा बारहवा देवलोक आता है वह अढाइ राजविस्तारवाला है।
इग्यारवा बारहवा देवलोकमे एक राज उर्व जाता है तब नव ग्रीवेग आता है जीम्मे ! राज तो ग्राढाइ गजका और || गज दो राजके विस्तारवाला है।
नव ग्रीवेगसे एक राज उर्व जाता है तब पांचाणुनः वमान पाता है जिसमें आदा : राज ता दोढ ।। गज और आदा !! राज एक राजविस्तारवाला है एवं मान राज उर्च लोक है जिम्के धनराजादि देवो यंत्रसे.
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सूचि. खण्ड ० ८ राज ३२ राज
१६ ,, २५
७२
१२८
- ३००
१००
Marswami
देवलोक जाडपण. । विस्तार. घन० परतर, संभमिसे । ॥ राज राज ॥ राज २ राज वहांसे वहांसे
,
१ ४ , सूधर्म इशान
01 , ! ॥ ,, १ ६ , वदांसे ०॥ ॥ ३ , ४ , १८, ३-४ देवलो ॥ ५ देवला
, १८, ७५ ६ देव०
६ , २५ ७ देव० ० , ४ , ४ , १६ ८ दे० १-१० दे० ११-१२ दे० ॥
। ३ १२॥ कहास । । ग्री०बै ॥
वहांसे ॥ अणुत्तर ५० ०॥
MarrMarurren
MN2020NNNNOMor 2000 ० ० --00 ० 09m
9* 700
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उर्ध्वलोकके सर्व धनराज ६३।। परतर २५४ सूचि १०१६ खण्डराज ४०६४ तीरच्छो लोक एक राजविस्तार वाला है जिस्में असंख्यातद्वीप समुद्र है परन्तु १८०० जोजनका जाडपणामें होनासे किसी राजकी संख्या नहीं है.
सम्पुरण लोकके घनराजादि संख्पा. (१) धनराज २३६ (३) मूचिराज ३२१ (२) परतरगज ६५६ (४) खण्डगज १५२६६
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ।
इति.
थोकडा नम्बर २
बहूतसूत्र संग्रहकर.
(नारकीके २१ द्वार) (१) नामद्वार (२) गोत्रद्वार (३) जाडपणा (४) पाइलपणा. (५) पृथ्वीपण्ड (६) करंडद्वार
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(७) पात्थडेद्वार ( = ) अन्तराद्वार ( ६ ) पात्थडे र अन्तरी : (१०) घणोदद्धि (११) घणवायु० (१२) तृणवायु ० १३) आकाशद्वार (१४) नरक र अन्तरो० (१५) नरकावासा ४६) अलोकान्तरो (१७) बलीयाहार (१८) क्षेत्रवेदना ० (१०) देववेदना० (२०) वैक्रयद्वार (२१) अल्पचहूतद्वार
(१) नामद्वार - गमा वनशा शीला अजना रीठा मघा माधवती.
C
(२) गोत्रद्वार - रत्नप्रभा शार्कर वालुकाप्रभा पंक प्रभा धूमप्रभा तमप्रभा और तमतमाप्रभा ।
(३) जाडपणो -- प्रत्यक नरक एकेक राजाकी जाडी है। (४) पालपणो - पहेली नरक एक राजविस्तारवाली हैं. दुसरी २॥ राज, तीसरी च्यार राज, चोथी पांच राज पांचमी के राज, छठी साडाळे राज, सातमी नरक सात राज के विस्तार में है परन्तु नारकिके नैरिया एक राजके विस्तार में है उन्हीको सनाली कही जाती है ।
(५) पृथ्वीपएडद्वार - प्रत्यक नारकी असंख्यात असंख्यात जोजनकि है परन्तु पृथ्वीपएड पेहली नरकका १८०००० दुसरीका १३२००० तीसरीका १२८००० चोथीका १२०००: पांचमीका ११८००० छठीका ११६००० सातमीका १०८००० योजनका है.
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(६) करंडद्वार - पेहली नरकमे ३ करंड है. (१) खरकरंड शोला जातका रत्नमय १६००० जोजनका (२) आयुलबहूल पाणीमय ८०००० जोजनका ( ३ ) पंकबद्दल कर्दममें ८४००० जोजनका सर्व १८०००० जोजनका पेहली नरकका पण्ट है शेष ६ नरकमें करंड नहीं है.
०
(७) पात्थडद्वार (८) अन्तराद्वार पेहली नरक १८०००० जोजनकी है जिसमें एक हजार जोजन उपर एक हजार जोजन निचे बेडके मध्य में १७८००० जो० है, जिसमें १३ पान्थडा और १२ अन्तरा है अन्तरोंमें २ उपरका अन्तरावर्जके शेष १ अन्तरों में दश जातका भुवनपतिदेव निवास करते हैं शेष नरक में भुवनपतिदेव नहीं है, पात्थडा है वह प्रत्येक पात्थड ३००० जोजनका है जिसमें उपर और निचे हजार हजार जोजन छोडके मध्य में १००० जोजन पण्ड है जिसमें नारकीके उत्पन्न होने योगकुंभीयों है इसी माफीक छठी नरक तक अपने अपने पृथ्वीuesसे १००० जो उपर १००० जी०
2
निचे छेडके शेष मध्यमें दुसरी नरक में ११ पान्थडा ४० अन्तर. तीसरी में & पात्थडा ८ अन्तरा, चोथीमें ७ पात्थड ६ अन्तर, पांचमिमें ५ पात्थडा ४ अन्तरा, छठी ३ पान्थडा २ अन्तरा, सातमी नरक १०८००० जिसमें ५२५०० उपर ५२५०० जो० निचे छोडके मध्यमें ३००० जोजनका एक पात्थड़ा है परन्तु अन्तरा नहीं है.
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(६) पात्थडेपात्थडे अन्तरद्वार-पेहली नरकके पात्थडे पात्थडे ११५८३१ दुसरा ६७०० तीसरी १२७५० चोथी १६१६६३ पांचमी २५२५० छठी ५२५०० सातमी नरकमें पात्थडा एक ही है.
(१०) घणोदद्धिद्वार प्रत्यक नरकपण्डके मिचे २०००० जो कि घणोदद्धि पकाबन्धा हूषा पाणी है.
(११) घणवायु-प्रत्यक नरकके घणोदद्धिके निचे असंख्यात २ जोजनकि धनवायु है पकाबन्धा हूवा वायु है.
(१२) तृणवायु-प्रत्यक नरकके घणवायुके निचे असंख्यात २ जोजनके तृणवायु पातला वायु है.
(१३) आकाश-प्रत्यक नरकके तृणवायुके निचे असंख्यात २ जो० का आकाश है अर्थात् आकाशके आधार तृणवायु है तृणवायुके आधार धनवायु है धनवायुके आधार घनोदद्धि है ननोदद्धिके आधारसे पृथ्वीपण्ड है.
(१४) नरक नरकके अन्तरा-एकेक नरकके विचमें असंख्यात असंख्यात जोजमका अन्तरे है.
(१५) नरकावासाद्वार-नरकावासा दो प्रकारके है ((१) असंख्यात जोजनके विस्तारवाला जिस्में असंख्यात नेरीया है (२) संख्यात जो जिस्में संख्यात नेरीया है सर्व नरकावासौंका पांच विभाग कर दीया जाय जिस्में च्यार विभाग तो
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संख्याता जोजनका है और एक विभाग संख्याते जोजन वाले है नरकावास पेहली नरकमें ३० लक्ष, दुसरी २५ लच तीसरी में १५ लक्ष, चोथीमें १० लक्ष, पांचमी ३ ल छठीमें पांचकम लक्ष, सातमी नरकमें महानरकावास ★ संख्याता जोजनका नरकावासाका परिमाण जेसे कोड शीघ्रगतिका देवता तीन चीमटी वजावे इतनामें जम्बुद्वीप के २१ प्रदिक्षणा दे वे इसी शीघ्रगतिसे चाले वह देवता जघन्य १-२-३ दिन उत्क० ६ मास तक चले तो कितनेक संख्या airch Rana अन्त वे और कितने अभी
नहीं आवे.
(१६) अलोक अन्तरा० (१७) बलीयाद्वार - अलोक और नारकी अन्तर है जिसमें तीन तीन प्रकारका गां चुडी माफी बलीया है वह यंत्र से देखो.
नरक रत्नः शा० वा०
अलोकअन्तरो १२जो. १२३ ।
बलीयासंख्या | ३
|३
दद्धि
वणवायु
वणवायु
117
४ |
१ ॥
१३३
पं० धूम० नम
१४३ | १५३
| ३ ३
३
१४
|३
१७
७३
१४||
५
1५1 ५॥ ५||
an 2112 ३५ १||३ | १ ।।। | १ |||
तल
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11
=
(
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११
(१८) क्षेत्रवेदनाद्वार - प्रत्यक नरकमें क्षेत्रवेदना दश दश प्रकारकी है अनन्त क्षुधा, पीपासा, शीत, उष्ण, रोग. शोक, ज्वर, कुडाशपणे, कर्कशपणे, अनन्त पराधिनपणे यह वेदना हमेसो होती है पेहली नरकसे दुसरी नरकमें अनन्त गुणी वेदना है एवं यावत छठीसे सातमी नरक में अनन्त गुणी वेदना है अथवा नरक के नामानुस्वार भी नरकमें वेदना है जेसे रत्नप्रभा खरकरंड रत्नोंका है तथा वह वेदना बहूत है और शार्करप्रभा में जमीन के स्पर्श तरवारकी धारासे अनन्त गुण तीक्षण है वालुकाप्रभाकी रेती के माफीक जल रही है, पंकप्रभा रौद्रमेद चरatar किचमचा हुवा है धूमप्रभामें शोमनिवासे अनन्त गुण खारो धूम है, है. तमप्रभामें अन्धार तमतमाप्रभा में घोरोनघौर अन्धार है इत्यादि अनन्त वेदना नरक में हैं.
(१६) देवकृत वेदना - पेहली, दुसरी, तीसरी नरकमें परमाधामी देवता पूर्वभव कृत पापोंको उदेश २ के मरते हैं चोथी पांचमी नरक अगर वैमानि देवोका वैर हो तो वैर लेनेको जाके वैदना करते हैं छठी सातमी नारकीमें नारकी पापसमे ही वन माफीक मरते कटते है देवकृत वेदनावाला नरकसे आपसमें वेदनावाला नारकी असंख्यातगुणा है. (२०) वैक्रयद्वार - नारकी जो बैक्रय बनता है वह
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चीलकुल खराव शस्त्रादि बनाते है या वज्रमुख कीडा बनाके दुसरे नारकीके शरीरमें प्रवेश होता है फीर बड़ा रूप बनाके शरीरके खण्ड खण्ड कर देते है.
(२१) अल्पाबहुत्वद्धार. (१) स्तोक सातमी नरकके नैरिया. (२) छठी नरकके नैरिया असं० गुणा. (३) पांचमी नरकके नैरिया अमं० गुणा (४) चोथी नरकके नरिया असं० गुणा (५) तीजी नरकके नैरिया असं० गुणा (६) दुसरी नरकके नैरिया असं० गुणा (७) पेदली नरकके नैरिया अमं० गुणा
इन्हीके सिवाय और भी द्वार है परन्तु वह लघु दंडकादि थोकडोंमें आजानेके सरवसे यह नहीं लीखा है. इति.
सेवं भंते सेवं भंते तमेव सच्चम् ,
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थोकडा नम्बर ३
बहूत सूत्रोंसे संग्रह.
( भुवनपतियोंके २१ द्वार.) (१) नामद्वार (८) चन्हद्वार । (१५) देवीद्वार (२) वासाद्वार (8) इन्द्रद्वार (१६) परीषदा० (३) राजधानी . (१०) सामानीक० (१७) परिचारणा (४) सभाद्वार ' (११) लोकपाल (१८) वैक्रयद्वार (५) भुवनसंख्या (१२) तावतेसका (१६) अवधिद्वार (६) बर्णद्वार (१३) आत्मरक्षक (२०) सिद्धद्वार (७) वस्त्रद्वार (१४) अनकाद्वार (२') उत्पन्नद्वार
(१) नामद्वार--असुरकुमार नागकुमार सुवर्णकुमार विद्युत्कुमार अग्निकुमार द्वीपकुमार दिशाकुमार उदद्धिकुमार वायुकुमार स्तत्कुमार.
(२) वासाद्वार--भुवनपति देवोका निवास कहां पर है ? यह रत्नप्रभानरक १८०००० जोजनकी है जिस्में १००० जो० उपर १००० जो नीचे छोडके मध्यमें १७८००० जो० जिस्में १३ पात्थडा और १२ अन्तरा है उन्होंसे ऊपरका दो अन्तरा छोडके १० अन्तरोमें दश जातके भुवनपतियोंकी
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राजधानी तीरच्छा लोकके द्वीप समुद्र में है यथा चमरेन्द्रकी राजधानी इस जम्बुद्वीपके मेरुपर्वतसे दक्षिणकी तर्फ असंख्यात द्वीप समुद्र चला जाने पर एक अरुणवर द्वीप पाता उन्हीमें १२००० जोजन जाने पर सूचक उत्पात पर्वन आवे वह पर्वन १७२१ जो० उंचा है ४३० जो० १ गाउ० धरतीमें है १०२२ मूल विस्तार ७२३ मध्य में ४२४ उपर विस्तारवालो है। वनखण्ड वेदीकासे सुशोभीत है उन्ही पर्वतके उपर एक मनोहर देवप्रासाद है उन्हीके अन्दर एक देव योग्य शय्या है देवता मृत्युलोकमें आने जाने के समय वहांपर ठेरते है। उन्ही पर्वतमे ६३५५५५०००० जोजन आगे चले जावे वहांपर एक दादग
आता है उन्हीके अन्दर ४०००० जोजन जावे वहांपर चमरेन्द्रकि चमरचंचा राजधानी आती है वह राजधानी १ लक्ष जोजन विस्तारवाली है ३१६२२७ । ३ । १२८ । १३ साधिक परद्धि वह कोट १५० जो० उंचा है मूलमें ५० जो० मध्यमें २५ जो० उपरसे १२॥ जो० उन्ही कोट उपर कोशीषा है एक गाउ विषम आदा गाउका उंचा है अच्छा शोभनिक है एकेक दिशीमें पांचसो पांचसो दरवाजा है वह २५० जो० उंचा १२५ पहला सर्व रत्नमय है राजधानीके मध्यभागमें १६०००० जो० विस्तारवाला एक गोल चौतरा है उन्हीके उपर ३४१ प्रासाद है मध्य प्रासाद २५० जो० का उंचा १२५ पहला है अनेक स्थंभ पुतली मौतफलकी मालासे
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शोभनीक है इत्यादि और भी निकायदेवोंकी गजधानी दक्षिण की तफ है इसी माफीक उत्तरदिशामें भी समझना जन्तु उन दिशाम दीगन्छउत्पात पबत है.
(४) मभाद्वार एकंक इन्दक पांच पांच सभा है (:) त्पान सभा १२) अभिशेष मभा (३) अलंकार ममा (४) ग्वाय सभा (५) माधी सभा.
। उन्पात मभा-दंबता उत्पन्न होनेका स्थान है.
(२) अभिशप सभाम इन्द्रका राजअभिशेष कीया जाता है.
३) अलंकार सभा-देवताक श्रृंगार करने योग यत्र
) व्यवाय सभा-देवताक योग धर्मशास्त्रका पुस्तक
५ सोधी सभा जहां जिनमन्दिर चैत्यर्थभ शस्त्रकोष आदि है और मुधर्म सभामें देवनाक इन्माफ कीया जाता र इत्यादि.
१५. भुवनसंग्याद्वार-भुवनपतियोंके भुवन ७७२००.०० जिन्ने ४,६०,००० भुवन दक्षिणदिशामें है ३६६००१७ उनकी नम है. दखो यंत्रम--
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१० भुवनपति.
असुरकु·
नागकु०
सूवर्णकु
O
विद्युत्कु०
अग्निकु०
द्विपकु ०
दिशा कु·
उदद्धिकु०
पवनकु०
स्तनत्कु०
दक्षिणदिशा.
३४
४४
३८
४०
४०
४०
४०
20 20
४०
५०
४०
"
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उत्तरदिशा.
३० लक्ष
४०
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३४
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३६
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३६
४६
Dom
३६
"
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"
33
"
34
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कुलभुवन.
६४
८४
७२
७६
७६
७६
७६
७६
६६
७६
ल
"
"
ܕܙ
"
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""
"
99
"
१६
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(६) बा. (७) वस्त्र, () चन्ह, (६) इन्द्र.
दश भ... वगा द्वार (१) अ० काला । २) ना, चावला १३ मा सवगा (2वि गाता (५) अ (६) द्वि गना १७) दिक पंडर (८) उ० सवर्ण (6) ५० श्याम (१८) स्त. मग
जिला
बस द्वार चन्द द्वार दल गान्द्र उतरन्द्र राता चुडामणि चमरेन्द्र बलेन्द्र निला नागफगा: घरगणन्द्र भूताइन्द्र धाला गुरुट वणुदेव ,, वणुदाली , निला
हरिकंत ., हरिसिंह ,.
! अग्निसिंह.. अग्नि-मानव., निला
। पूगा , विशेष्ट , निला
। जलकन ., जलप्रभ . सुपेत
। अभूतगति.. अमृतबहान,, पांच वर्ण मगर बलव ... प्रभंजन . सुपेन वदमान घोप , महाघोष ,
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१८
(१०) सामानीकदेव इन्द्रके उस
चमरेन्द्रकं ६४००० देव के ले हजार देव,
के ६००००
(११) लोकपाल इन्द्रोंके प्यार प्यार लोकपाल होते है.
देव होते है इन्द्रीके
के कोतवाल देव
(१२) तावतेसीका - राजगुरु माफीक शान्तिकारक देवसर्व इन्द्रोंके तेतीस तेतीस देव तावतिसका होते है
(१३) आत्मरक्षक देव-इन्द्रोंके आत्माकी रक्षा करनेवाले देव - चमरेन्द्रके २५६००० वलेन्द्रके २४०००० शेष इन्द्रोंके २४०००-२४००० देव.
(१४) अनिका- हस्ति, अब, रथ, महेष. पेटल, गंधर्व नृत्यकारक एवं ७ अनिका सर्व इन्द्रोंके होती है प्रत्यक अनिक कं देवसंख्या चमरेन्द्र के ८१२८००० देव, बलेन्द्रके ७६२०००० शेष १८ इन्द्रोंके ३५५६००० देव होते हैं.
(१५) देवीद्वार - चमरेन्द्र के पांच महेषी एकेकके ८००० का परिवार एवं ४०००० एकेक देवी आठ आठ हजार वैक्रय करे ३२००००००० एवं बलेन्द्र के शेष १८ इन्द्रोंके छे छे देवी एकेक के छे छे हजारका परिवार एवं ३६००० एकेक देवी के के हजाररूप वैक्रय २१६००००००
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१६
(१६) परिषदा-परिषदा तीन प्रकारकी है ( १ ) अभितरखास शला विचार करने योग वडेआदरसे बोलानेपर जिनमे जावे, (२) मध्यम - सामान्य विचार करने योग बोलानेपर वे परन्तु विगर भेज जावे, (३) बाह्य - उन्होंको हूकम दिया जाय की अमुक कार्य करो विगर बुलायों आना जाना अर्थात परया के हाजर होना ही पडता है.
| चन्द्र बलेन्द्र द्रक्षण नवेन्द्र उत्तर नवेन्द्र
देव भिंतर | २४०००
स्थिति २॥ पल्यों
ܕܪ
मध्यम
"
- स्थिति
.
बाह्य
स्थिति
"
देवी भिंतर ३५० " स्थिति
"
::
$1.
"
मध्यम
स्थिति
२८०००
२ पल्यों
वाह्य
स्थिति
३२०००
१ ॥ पल्यों
१ ॥ पल्यों
३००
१ प०
२५०
० ॥ प०
२०००० | ६००००
३॥ पल्यों १ पल्यों
५००००
०|| साधि
२४००० | ७००००
६००००
३ पल्यों |०|| साधि | ० | ५०
७००००
० || ५० न्यू
२२५
० ॥ प०
२००
२८००० ८००००
२॥ पल्यों ० ॥ प०
१७५
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२ ॥ प०
४००
२ प०
३५०
१ ॥ प०
० ॥ प० न्यू
१५०
० प० सा० ० || न्यून
१२५
१७५
० 1 प०
० साधिक
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(१७) परिचारण-भुवनपति देवोंके परिचारणा (मैथुन पांच प्रकारकी है यथा मनपरिचारणा रूप० शब्द. स्पर्श कायपचारण-मनुष्यकी माफीक देवांगनाके साथ भोगविलाश करे इति. देखो परिचारणापद.
(१८) वैक्रयद्वार-चमरेन्द्र वैक्रयकर भुवनपति देवदेवीसे सम्पुरण जम्बुद्वीप भरदे असंख्यातेकी शक्ति है एवं समानिक लोकपाल तावतीसका ओर देवी परन्तु लोकपाल देवीकी शक्ति संख्यातेद्विपकी है एवं बलेन्द्र परन्तु एक जम्बु. द्विप साधिक समझना शेष १८ इन्द्र एक जम्बुद्विप भरे ओर सबके संख्यातेद्विपकी शक्ति है देवतोंके वैक्रयका काल उ. १५ दिनका है.
(१६) अवधिद्वार-असुरकुमारके देवता अवधिज्ञानम ज० २५ जोजन उ० उर्ध्व सौधर्म देवलोक अघो० तीसरी नरक तीर्य असंख्याते द्वीप समुद्र शेष ह देव उ० उर्च जोतीपीयोंके उपरका तला अघो० पेहला नरक तीर्य संख्यातद्विप समुद्र देखे.
(२०) सिद्धद्वार-भुवनपतियोंमे निकल मनुष्य हो के एक समयमे १० जीवमोक्ष जावे देवीसे निकलके एक समय ५ जीव मोक्ष जावे.
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(२१) उत्पन्न-सर्व प्राण भूत जीव सत्व भुवनपति दवों देवी पणे पूर्व अनन्ति अनन्तिवार उत्पन्न हवे अर्थात देव होनपर भी जीवकी कुच्छ भी गरज सर नही वास्ते ज्ञानाधमकर आत्माको अमर बनानी चाहिये इति.
सेवभंते सेवभंते-तमेवसञ्चम् .
थोकडा नं. ४
वहृत सूत्रसे संग्रह.
(व्यंतर देवों के द्वार २१ )
१० नामहार (८) चन्हद्वार (१५) वैक्रयद्वार २) वासाद्वार (द) इन्द्रद्वार (१६) अवधिद्वार ३) नगरद्वार ११०) मामानीक देव (१७) परिचारणा १४) राजधानी (११) आत्मरक्षक (१८) सुखद्वार ५) सभाद्वार (१२) परिषदाद्वार (१६) सिद्धद्वार
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६) वर्णद्वार । ७) त्रसद्वार
(१३) देवीद्वार (१४) अनिकाहार
(२०) भवद्वार (२१) उत्पन्नद्वार
(१) नामद्वार-पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षम. किंनर, किंपुरष, मोहग, गभर्व, प्राणपुन्य, पाणपुन्ये इशीवाइ. भुवाइ कंडे. महाकंडे, कोहंड, पयंगदेवा, इति.
(२) वासाद्वार-व्यंतर देव काहापर रहते है ? यह रत्नप्रभा नरक जो १८०००० जोजनकी जाडपणावाली है जिस्म एकहजार उपर और एकहजार निच छोडनेमे मध्यमे १७८००० जोजन रहेती है इस्मे उपर जो एकहजार जोजनका पण्ड था उन्हीको एकसो जोजन उपर और एकमो जोजन निचे छेड देनासे मध्य ८०० जोजनका पण्ड है इन्हीके अन्दर जांणमित्र आठ जातका देवता निवास करते हैं यथा पिशाच यावत् गंधर्व और जो उपर १०० जोजनका पण्ड था जिम्म १० जोजन उपर और दश जोजन निचे छेडकर मध्यम ८० जोजनका पण्ड है जिम्भे आठ जताका व्यंतर देव निवास
करते है.
(३) नगरद्वार-दुसरेहारमें बताये हुवे स्थानमे तीरच्छा लोकमे बाणमित्र और व्यंतर देवतोंके असंख्याते नगर है वह
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नगर असंख्याते और संख्याते जोजनके विस्तारवाले है सर्व रत्नमय है परिमाण भुवनपतियों माफीक.
(४) राजधानीद्वार-बाणमित्र और व्यंतर देवोंकी राजधानीयों तीरच्छा लोकके द्वीप समुद्रोंमें है जेसे भुवनपतियोंके राजधानीका वर्णन कीया गया था उसी माफीक परन्तु विस्तारमे यह राजधानी कम है प्रायः १२ हजार जोजन के विस्तारवाली है सर्व रत्नमय है.
___ (५) सभाद्वार-एकेक इन्द्रके पांचपाच सभा है यथा (१) उत्पातसभा (२) अभिशेषसभा (३) अलंकारसभा (४) व्यवायसभा (५) सौधर्मसभा विस्तारभुवनपतिसे देखों.
(६) वर्णद्वार-देवतोंका शरीरका वर्ण-'यक्ष पिशाच मोहरग गंधर्व इन्ही च्यारोंका वर्ण श्याम है किंनरदेवोंको निलो वर्ण, राक्षस और किंपुरषको वर्ण धवलों भूतदेवोंको वर्ण कालो इसी माफीक व्यंतरदेवोंके समजना.
(७) वस्त्रद्वार-पिशाच राक्षस भूतके निलावस्त्र यक्ष · · किंनर किंपुरषके पीलावस्त्र मोहरग गंधर्वके श्यामवस्त्र.
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(८) चन्हद्वार, (६) इन्द्रद्वार.
भिम
देव. दक्षिण इन्द्र.. उत्तर इन्द्र. ध्वजपरचन्ह, पिशाचके दो इन्द्र कालेन्द्र | महाकालेन्द्र | कदंबवृक्ष भूतके दो इन्द्र सुरूपेन्द्र प्रतिरूपेन्द्र मुलनवृत्त यक्ष ,
पूणेन्द्र मणिभद्र ,, | वडवृक्ष राक्षस ,
महाभिम खटंगउपकर किन्नर , किंवर
किंपुरुष
| आशोकन किंपुरुष ,, सापुरुष महापुरुष | चम्पकवृत्त मोहरग , अतिकाय महाकाय
नागवृक्ष गन्धवे , गतिरति गतियश तुंबरूवृक्ष आणपुन्ये,, मनिहिंइन्द्र सामानीइन्द्र
कदंबवृक्ष गणपुन्ये,
धाइइन्द्र विधाइइन्द्र
सुलसवृक्ष ऋषिवादी, ऋषिइन्द्र ऋषिपाल. वडवृत्त भूतवादी, इश्वरइन्द्र महेश्वरेन्द्र
मुविच्छ विशाल | आशोकवृन महाकंड ,, हास्येन्द्र हास्यरति०
चम्पकवान पयंग , श्वेतेन्द्र महाश्वेतेन्द्र नागवन कोहडदेवा,,
पतंगपतिइन्द्र | तुंबरूवृक्ष
खटंग
कंडे
,
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: नामानीक द्वार एवं इन्द्रोंक च्यार न्यार हजार दव सामानीक है.
या मान-पत्र इन्द्राक गोल मोल हजार देव आमग्नक है.
परिषदा द्वार काय भुवनपनियांक माफीक. परिषदा. देव परिपदा. दवी परि। अभिनर || पल्या
माधिक मयम यान
प० न्यून
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माधिक
न्यून
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३ दली--प्रत्यक इन्द्रक बार बार दवा है एक दवन बार मार दीका परिवार है एक दवा हजार हजार कप चक्रय कर शती है
यानिका बार राजतरंगादि मान गान अनिका र प्रन्धक निकाके :'. देवता है मय इन्द्रांक समझना.
बैंकरदार --इन्द्र यामानीक और देवी एक
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जम्बुद्विप व्यंतर देव देवीका रूप वैक्रय बना शन है संख्यातकी शक्ति है.
(१६) अवधिद्वार-बाणमित्र देव अवधिज्ञानसे जा २५ जोजन उ० उर्ध्व जोतीषीयोके उपरका तला अधौ पेहली नरक तीर्य संख्यातेद्विप समुद्र.
(१७) परिचारणाद्वार-सर्व देवोंके पाच प्रकारकि परिचारणा है यथा मन, रूप, शब्द, स्पर्श. और कायपरिचारणा अर्थात् मनुष्यकि माफीक भोगविलाश करते है.
(१८) मुखद्वार-- यहा मनुष्यलोकमे कोइ मनुष्य युवक अवस्थामे मनमोहन युवक सुन्दर जोवन रूप लावण्यवानस मादि कर विदेशमें द्रव्यार्थी गया था वहमे मनोइच्छत द्रव्य लाया दोनोंकी परिपक्क जोवन अवस्थामें अवादित मुख भोगवे उन्होंसे व्यंतर देवोंका मुख अनन्तगुण है.
(१६) सिद्धद्वार-वाणमित्रों से निकलक मनुष्यभवकर एक समयमें १० ओर देवीमें निकलकं ५ जीव एक समय मोक्ष जाते है.
(२०) भवद्वार-बाणमित्र देव अगर संमाग्में भत्र करे तो १-२-३ उत्कष्ट अनन्त भव कर शक्त है,
(२१) उत्पन्नहार---सर्व ग्राण भून जीव सत्व बाण मित्र देवतों पणे एकवार नहीं किन्तु अनन्नी अनन्तीवार उत्पन्न
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२७
हुवे है इसीसें चैतन्यकि चैतनता प्रगट नहीं होती है वह तो पौद्गलीक सुख है खरा आत्मीक सुख श्री जिनेन्द्र देवोंके धर्मको अंगीकार करनेसे प्राप्त होता है. इति.
सेवभंते सेवंभंते-तमेवसच्चम्.
थोकडा नं. ५
--0000-- बहूत सूत्रोंसे संग्रह करके.
' ( जोतीषीयों के द्वार ३१) जोतीपी देव दो प्रकारके है (१) स्थिर, (२) चर जिस्में स्थिर जोतीषी पांच प्रकारके है चन्द्र सूर्य ग्रह नक्षत्र और तारा यह अढाइ द्वीपके बाहार अवस्थित है पकी इंटके संस्थान है सूर्य सूर्यके लक्ष जोजन ओर चन्द्र चन्द्रके लक्ष जोजनका अन्तर है तथा सूर्य चन्द्रके पचास हजार जोजनका अन्तर है, अन्दर का जोतीषीयोंसे आदी क्रन्तीवाला है हमेसोंके लिये चन्द्रके साथ अभिच नक्षत्र और सूर्यके साथ पुष्य नक्षत्र योग जोडते है. मनुष्य क्षेत्रकि मर्यादाका करनेवाला मानुसोतर पर्वतके चाहारकी तर्फसें लगाके अलोकसें ११११ जोजन उली तर्फ
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नक सर्व जोतीपी स्थिर है इन्हीका परिवार विगरह अन्दरके जोतीषीयों माफीक समझना. __अढाइद्वीपके अन्दर जो जोतीषी है वह चर-भ्रमण करनेवाले है और भ्रमण करनेमें ही कुशी मानते है उन्हीका विस्तारके लिये जोतीपी चक्रका थोकडा चन्द्रप्रज्ञाप्ती और सूर्यप्रज्ञाप्तीसें लिखेंगे परन्तु मामान्यतासे यहांपर ३१ द्वारमें जोतीपीयोंका थोकडा लिखा जाता है कि साधारण मनुष्यभि इन्हीका लाभ उठा सके. (१) नामद्वार ( २) गतिद्वार (२२) देवीद्वार (२) वासाद्वार (१३) तापक्षेत्रद्वार (२३) गतिद्वार (३) राजधानी (१४) अन्तर ,, (२४) ऋद्धिद्वार (४) सभा (१५) संख्या ., (२५) वेक्रय ,, (५) वर्णद्वार (१६) परिवार ,, (२६) अवधि ,, (६) वस्त्रद्वार (१७) इन्द्र , (२७) परिचारणाद्वार (७) चन्हद्वार (१८) सामानीकद्वार (२८) सिद्ध ., (८) वैमान पहूल (१६) आत्मरक्षक,, (२६) भव , (६) वैमान जाडपणा (२०) परिपदा ,. (३०) अल्पावहूत ., १०) वैमान वहान (२१) अनिकां ,, (३१) उत्पन्न । (११) मांडलाद्वार
(१) नामद्वार-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र, और तारा.
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(२) वासाद्वार-जोतीषी देवोंका तीरच्छालोकमें असंख्याता वैमान है वह वैमान संभूमिसे ७६० जोजन उर्ध्व जावे तब तारोंका वैमान आवे उन्ही तारोंके वैमानसे १० जोजन उर्घ जावे तब सूर्यका वैमान आवे अर्थात् संभूमिसे ८०० जोजन उर्ध्व जावे तब सूर्यका वैमान आता है. संभूमिसे ८८० जोजन उर्ध्व जावे अर्थात् सूर्य वैमानसे ८० जोजन उर्ध्व जावे तब चन्द्र बैमान आवे चन्द्रवमानसे ४ जोजन और संभूमिसे ८८४ जोजन उर्ध्व जावे तब नक्षत्रोंका वैमान आवे वहासे ४ जो० और संभूमिसे ८८८ जो० उर्ध्व जावे तब बुध नामा ग्रहका वैमान आवे वहासे ३ जो० संभूमिसे ८६१ जो शुक्र ग्रहका वैमान आवे, वहासे ३ जोजन ओर संभूमिसे ८६४ जो० बृहस्पतिग्रहका वैमान आवे, वहसे ३ जो० ओर संभूमिसे ८६७ मंगलग्रहका वैमान आवे, वहासे ३ जोजन और संभूमिसे ६०० जोजन उर्ध्व जावे तब शनिश्चर ग्रहका वैमान आवे अर्थात् ७६० जोजनसे ६०० जोजन बिचमें ११० जोजनका जाडपणे ओर ४५ लक्ष जोजनका विस्तारमें चर जोतीषी है. जोतीषी तारा | सूर्य चन्द्र नक्षत्र बुध शुक्र वृह | मंग शनि संभूमिसे |७६०८००८८०८८४८८८८६१/८६४८६७६००
जिस्मे तारोंके वैमान ११० जोजनमें सर्व स्थानपर है।
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१३. राजधानी--जोतीपी देवों कि गजधानीयों नीरछलोकमें असंख्याती है जमे इस जम्बुहिएके जातीय देव है उन्हों कि गजधानी असंख्यात द्विपसमुद्र जापा मग उन्न द्विप आता है उन्ही के अन्दर मार को विस्तारवाली है वडीही मनोहार मनमानिया माफीक है और जोतीषी दबाके द्विषा भी असंन्याने है शान्त वह द्विपा सर्व द्विपममुद्रोंके जोनीपीयोंका द्विपासमुद्रम है जय जम्बुद्विपके जोतीषीयोंके द्विपालवण समुद्रमें है और लवण समुद्रके जोतीषीयोंका द्विपा भी लवणसमुद्र में है तथा घान कि खएडद्विपके जोतीषीयोंका द्विपा कालोदद्धि समुद्र में है इमी माफिक सर्व स्थानपर समजना.
(४) सभाद्वार-जोतीषीदेवोंका इन्द्रोंके पांच पांच सभावों है (१) उत्पातसभा (२) अभिशेपसभा (३) अलंकारसभा (४) व्यवशायसभा (५) सौधर्मसभा यह ममा राजधानीयोंके अन्दर है वर्णन देखो भुवनपतियोंकों.
(५) वर्णद्वार-ताराके शरीर पांचों वर्णका है शेष तपा हूवा सूवर्ण जेसा है.
(६) वस्त्रद्वार--अच्छा सुन्दर कोमल मव वर्णका वन जोतीषीयोंके है.
(७) चन्हद्वार-चन्द्रके मुकटपर चन्द्रमांडलका चन्ह
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है सूर्यके मुकटपर ब्यमांडलका चन्ह है एवं ननत्र ग्रह तार उन्ही चन्द्रद्वारा वह देवता पेच्छाना जाता है.
(८) मानका पहलपणा (6) वैमानका जाडपणापक्र जोजनका ६१ भाग किंजे उन्हींग ५६ भाग चन्द्रका वैमान पहला है और २८ भाग जाडा है भूर्यका वैमान 3८ भागका पहला २४ भागका जाडा है । ग्रहका बैमान दो गाउका पहला एक गाउका जाडा है । नक्षत्रका बैमान एक गाउका पहला आदा गाउका जाडा है। ताराका वैमान आदा गाउका पहला पाव गाउका जाडा है सब स्फकट रत्नमय वैमान है.
(१०) वैमानवहान-यद्यपि जोतीषीयोंके वैमान आकाशके आधारसें रहेते है अर्थात् वैमानके पौद्गलोंके अगुरुलघु पर्याय है वह आकाशके आधारसे रहे शक्ते है । तद्यपि देव अपने मालकका बहुमानके लिये उन्ही वैमानोंको हमेशोंके लिये उठाये फीरते है कारन अढाइद्वीपके अन्दरके देवोंकि स्वभावप्रकृति गमन करनेकि है। चन्द्र सूर्यके वैमानकों शोला शोला हजार देव उठाते है जिस्में च्यार हजार पूर्व दिशाकी तर्फ मुह कीये हुवे सिंहके रूप, च्यार हजार दक्षिण दिशा मुह कीये हवे हस्तिके रूप, च्यार हजार पश्चिम दिशामें मुह कीये हवे वृषभके रूप, च्यार हजार उत्तर दिशामें मुह कीये हुवे अचके रूप एवं ग्रहवैमानकों ८००० देव उठाते है नक्षत्रके वैमानकों
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३२
४००० देव उठाते है ताराके वैमानको २००० देव उठाते है पूर्वादि दिशा पूर्ववत् समझना.
(११) मांडलाद्वार-जोतीषीदेव दक्षिणायनसे उनरायन गमनागमन करते है उसे मांडला केहते है अर्थात चलनकि सडककों मांडला केहते है वह मांडलोंके क्षेत्र ५१० जोजन है जिम्में ३३० जोजन लवण समुद्रमें और १९० जोजन जंबुद्वीपमें है कुल ५१० जोजन क्षेत्रमें जोतीपी देवोंका मांडला है चन्द्रका १५ मांडला है जिस्में १० मांडला लवणसमुद्र में और ५ मांडला जंबुद्विपमें है एवं मूयके १८४ मांडला है जिसमें ११६ लवणसमुद्रमें और ६५ मांडला जंबुद्विपमें है ग्रहका ८ मांडला है जिसमें ६ मांडला लवणसमुद्र में २ बुद्विपमें है जो जोतीघीयोंका जंबुद्विपमें मांडला है वह निषेड और निलवेत पर्वतके उपर है । चन्द्रमांडल मांडल अन्तर ३५ जोजन उपर : और सूर्य मांडल मांडल अन्तर दो जोजनका है इति.
(१२) गतिद्वार-सूर्य कर्के शंक्रात अर्थात् आमाढ श्रुत पूर्णमाके रोज एक महुर्तमें ५२५१-। इतनों क्षेत्र चाले तथा मक्रे शंक्रात अर्थात् पोष श्रुक्क पूर्णमाने एक महूर्तमें ५३०५ : इतने क्षेत्र चाल चले । चन्द्रमा कर्के शंक्रातमें एक महतमें ५०७३, ८ मळे शंकातने ५१२५- ५.
(१३) तापक्षेत्र-कर्के शंक्रातमें तापक्षेत्र १७५२६।:
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३३
उगते वयं ४७२६३: जोजन दुरो दृष्टिगोचर होता है म शंका नापक्षेत्र ६३६६३: । उगतो सूर्य ३१८३१५/ इष्टिगोचर होते है इति.
१४) अन्तराद्वार - अन्तर दो प्रकार होता है व्यायात - किसी पदार्थकि विमेंट आवे निव्यवात कमी प्रकारकी वाद न हो जिम्मे व्याघातापेक्षा जघन्य २६६ जोजना अन्तर है क्योंकी fris freवन्तपर्वतकं उपर
शिवरपर २५० जोजनका है उन्हीने चौतर्फ आठ र जोजन जातीपदेवरा चाल चालते हे वास्ते २६० उ १२२४२० क्योंकि १०००० जी० स्पर्वत है उन्होंने चौतफ ४४२१ जो दुग जोतीषी चाल चलते है १२२४२ जी० अन्तर है. अलोक और जातीपविक अन्तर २०११ ज. मंडलांपेक्षा अन्तरा मेरुपर्वतसे ४४८८० जी० अन्दरका मंडलका अन्तर है, ४५३३० जी० बाहारका मंडलके अन्तर है । चन्द्र चन्द्रके मंडल ३५ अन्तर है के मंडल के दो जोजनका अन्तर है। नित्र्याघातापेक्ष जघन्य धनुष्यका अन्तर उत्कृष्ट दो गाउका अन्तर है इति (१५) संख्याद्वार जम्बद्विप दो चन्द्र दो सूर्य, समुद्र व्यार चन्द्र च्यार सूर्य, घातकिखण्डद्विप १२ चन्द्रसूर्यकाल समुद्र ४२ चन्द्र ४२ सूर्य पुष्का
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द्धद्विपमें ७२ चन्द्र ७२ सूर्य, एवं मनुष्यक्षेत्रमें १३२ चन्द्र १३२ सूर्य । आगे चन्द्र सूर्यकि संख्या अम्नाय-जिस द्विप या समुद्रका प्रश्न करे उन्हीके पीच्छेका द्विपमें जितना चन्द्र हो उन्हीकों तीनगुणा कर शेष पिच्छलेको मेमल करदेना, जेम घातकीखण्डद्विपमें १२ चन्द्र है उन्हीकों तीनगुणा करनामे ३६ और पिच्छले जंबुद्विपका २ लवणसमुद्रका ४ एवं ६ को ३६ के साथ मीलादेनासे ४२ चन्द्र कालोदद्धिसमुद्र में हुवे ४२ को तीन गुणकर १२६ पिच्छला २-४-१२ एवं १८ मीलानेसे १४४ चन्द्र पुष्करद्विपमें हवा जिम्में प्रादा मनुष्य लोकमें होनामे ७२ गीना गया है इसी माफीक मव स्थानपर भावना रखने इति.
(१६ ) परिवारद्वार-एक चन्द्र या सूर्य के २ नक्षत्र ८८ ग्रह ६६६७५ क्रोडाकोड ताराका परिवार है शंका नारोंकी संख्याका क्षेत्रमान करनेमे इस लक्ष जोजनका क्षेत्रमें इतना नाग समावम हो नहीं शक्ता है ? इसके लिये पुर्वाचायाने कोडाकोडीको एक संज्ञारूपम मानी मालम होते है या किसी आचायाने नारोंका बैमानको उत्सदांगुलसे भी माना है नत्य कंवलीगम्य । इसी माफीक सब चन्द्र सर्व मया के भि समझना। न क्षत्रग्रहदवाका नाम बडेजातीपी चक्रसे देखों
(१७. इन्द्रद्वार-असंख्याता चंद्र सूर्य है वह सर्व इन्द्र है परन्तु क्षेत्र कि अपेक्षा एक चन्द्र इन्द्र दुसरा सूर्य इन्द्र है.
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३५
(१८) सामानीकद्वार-एकेक इन्द्र के च्यार च्यार हजार सामानीक देव है. ___(१६) आत्मरक्षक-एकेक इन्द्र के शोला शोला हजार आत्मरक्षक देव है.
(२०) परिषदा-एकेक इन्द्र के तीन तीन परिषदो हे अभिंतर परिषदा के ८००० देव, मध्यम के १०००० बाह्य की १२००० देव है और देवी तीनों परिषदा मे १००-१००
(२१) अनिकाद्वार-एकेक इन्द्र के सात सात अनिका प्रत्यक अनिका के ५८०००० देवता है पूर्ववत्.
(२२) देवी-एकेक इन्द्र के च्यार च्यार अग्र महेषि देवीयों है एकेक के च्यार च्यार हजार देवीका परिवार है प्रत्यक देवी च्यार च्यार हजार रूप वैक्रयकर शक्ती है ४००० १६००० ६४०००००० कुल देवी है।
(२३) गति-सर्वसे मंद गति चन्द्रकी, उन्होंसे । शीघ्र गति सूर्यकी, उन्हों से शीघ्र गति ग्रहकी, उन्होसे शीघ्र गति नक्षत्र कि, उन्होंसे शीघ्र गति तारोंकी है, अर्थात् सर्वसे मन्द गति चन्द्रकी ओर शीघ्रगति तारोंकी है।
(२४) ऋद्धि-सर्व से स्वन्पऋद्धि तारोंकी, उन्होसे महाऋद्धि नक्षत्र कि, उन्होंसे महाऋद्धि ग्रहकी, उन्हीसे महा
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ऋद्धि सूर्यकी, उन्होसे महाऋद्धि चन्द्रकी अर्थात् सर्वसे म्बल्य ऋद्धि तारोंकी ओर सर्वसे महाऋद्धि चन्द्र देवों की है।
(२५) वैक्रय-जोतीषी देव वैक्रयसे जोतीपी देवी देवता बनाके सम्पुरण जम्बुद्विप भर दे ओर संख्याता जम्बुद्विप भर देने कि शा है एवं चन्द्र सूर्य सामानीक और देवी भी समझना.
__ (२६) अवधिद्वार-जोतीषी देव अवधिज्ञानसे ज० संख्याते द्विप समुद्र देखे उ० भी संख्याते द्विप समुद्र दख उम्म अपने अपने ध्वजा। अधी पहली नरक देख तीरच्छा मंन्याने द्विपसमुद्र देखे।
२७) परिचारणा-जातीपी देवोंक परिचारणा पनि प्रकारकी है मनकी शब्दकी रूपकि स्पर्शकी कायाकी अथान जोतीषी देव मनुष्योंकी माफीक भोग विलाश करते है.
(२८) सिद्ध-जातीपीयोंसे निकल मनुष्यभव कर एक समय १० जीव मोक्ष जावे, देवी से निकल एक समयमे २० जीव मोक्ष जावे,
[२६] भवद्वार-जोतीषी देवासे निकल १-२-३ भत्र ओर उत्कष्ट करे तो अनंन्ताभव भी कर शक्ते है।
[३०] अल्पावहत्वद्वार स्तोक चन्द्र सूर्य उन्होमे नक्षत्र संख्यात गु० उन्होसे ग्रहसंख्या० गु० उन्होंने तारादेव संख्यात गु०
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[३१] उत्पन्न-हे भगवान् सर्व प्राणभूत जीव सत्व जोतीषी देवों पणे पूर्व उत्पन्न हूवा ? हे गौतम एकवार नहीं । किन्तु अनन्ती अनन्ती वार जोतीषी देवो पण उत्पन्न हूवा है परन्तु देव होना पर भी जीवकों आत्मीक सुख नही मीला श्रात्मीक सुख के दाता एक वीतराग है वास्ते उन्होंकी प्रा. ज्ञाका पाराद्धि बनना चाहिये इति.
सेवभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् .
थोकडा नम्बर ६. बहूतसूत्रसे संग्रहकर.
(वैमानिकदेवोंका द्वार २७ ) १ नामद्वार १० इन्द्रनाम द्वार | १६ देवीद्वार २ वासाद्वार. ११ इन्द्रवैमान , | २० वैक्रयद्वार ३ संस्थानद्वार १२ चन्हद्वार ,, | २१ अवधिद्वार ४ आधारद्वार ३ सामानीक ,, २२ परिचारणा ५ पृथ्वीपण्ड०१४ लोकपाल , | २३ पुन्यद्वार ६ वैमान उचपणो १५ तावत्रिसका ,, २४ सिद्धद्वार ७ वैमान संख्या १६ आत्मरक्षक , | २५ भवद्वार - वैमान विस्तार १७ अनिकाद्वार | २६ उत्पन्नद्वार है वैमान वर्णद्वार १८ परिषदाद्वार | २७ अल्पावहूत्व ,,
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३८ (१) नामद्वार-वैमानिकदेवोंका नाम यथा सौधर्मदेवलोक, इशान देवलोक सनत्कुमार० महेन्द्र० ब्रह्म० लंताक० महाशुक्र० सहस्र० अणत्० पाणत्. अरण० अचुतदेवलोक । । १२ । नौग्रीवैग भद्धे, सुभद्धे, सुजाये, सुमाणसे, सुदर्शने, प्रयदर्शने, आमोये, सुप्रतिवन्धे, यशोधरे, । ६ । पाचाणुत्तर वैमान-विजय, विजयन्त, जयन्त, अप्राजित, सर्वार्थसिद्ध, ।५। पांचमा देवलोकके तीसरा परतरमें नव लोकान्तीक तथा तीन कब्लिषीदेव मीलके सर्व ३८ जातका देवोंकों वैमानिकदेव कहा जाता है.
(२) वासाद्वार-संभूमिसे ७६० जोजन उर्ध्व जावे तब जोतीषीदेव आते है वह ११० जोजनके जाडपणामें अर्थात् ६०० जोजन संभूमिसे उर्ध्व जावे वहां तक जोतीषीदेव है वहांसे असंख्यात कोडनकोड उर्ध्व जावे तब वैमानिकदेवोंका वैमान आते है वहां वैमानिकदेवोंका निवास है उन्होंकि राजधानी ओर प्रत्यक इन्द्रके पांच पांच सभा स्वस्ववैमानमें है शकेन्द्र, ईशानेन्द्रके प्रासाद या इन्होंके लोकपाल तथा देवांगनाकि राजधानीयों तीरच्छालोकमें भी है।
[३] संस्थानद्वार-पेहला दुसरा तीसरा चोथा तथा भवमा दशमा इग्यारवा बारहवा यह आठ देवलोक आदा चक्रके संस्थान है अथवा कुंभकारका लागलके आकार है
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५-६-७-८ देवलोक मोर नौग्रीवैग है यह पूर्णचन्द्र के श्राकार एक दुसराके उपरा उपर है च्यार अणुत्तर वैमान तीखुणा च्यार दिशामे है सर्वार्थसिद्ध वैमान गोलचंद्र संस्थान है.
[४] आधारद्वार-वैमान और पृथ्वीपंड रत्नमय है परन्तु वह किसके आधार है ? पेहला दुसरा देवलोक घणोदद्धि के आधार है तीजा चोथा पांचवा घण वायु के आधार है छटा सातवा आठवा देवलोक घणोदद्धि घण वायु के आधार है शेष वैमान यावत् सर्वार्थसिद्ध वैमनतक केवल आकाश के ही आधार है.
(५) पृथ्वीपण्ड (६) वैमानकाउचा (७) वैमान और परतर (८) वर्ण. वमान पृॉपण्ड
२७०० जो | ५०० जो ३२ लक्ष | ५ वर्ण | १३ २७०० २६००,
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वर्ण । परतर
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१८२३००, ११ । २३००, १२ २३०० ,, ६०० है ग्री०, २२० ,, १००० ५ अणु, २१०० ,, ११००
(E) वैमान विस्तार-चैमान का विस्तार कितनेक (च्यार भागके ) असंख्यात जोजनके विस्तारवाले है कितनेक ( एक भागके ) संख्यात जोजनके विस्तारवाले है परन्तु सर्वार्थसिद्ध वैमान एकलक्ष जोजन विस्तारवाले है।
(१०) इन्द्रद्वार-बारह देवलोकोंका दश इन्द्र है और नौ ग्रीवैग तथा पांचाणुत्तर वैमानका देवोंके इन्द्र नहीं है अर्थात् अहमेन्द्र-सर्व देवता इद्र है वहापर छोटे वडेका कायदा नहीं है दश इन्द्रोका नाम यंत्रमें. ___ (११) वैमानद्वार-प्रत्यक इन्द्र तीर्थकरोंके जन्मादि कल्याणके लिये मृत्यु लोकमे आते है उन्ही समय वैमानमे बेठ के आते है उन्हीका नाम यथा-पालक वैमान, पुप्प वैमान,
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सुमागम, श्रीवन्म. नदीवर्तन, कामगमनामावमान मणोगम प्रीयगम विमल सर्वतोभद्र.
। ६२ । चन्ह. । १३ ) मामानीक, ( १४ ) लोकपाल, ::५) नाव० (15) आत्मरक्षकद्वार,
इन्द्र,
चन्ह. | माम
ला०ता अात्मा
३३६००
शानन्द्र
मुयर
मिट्ट
ब्रोन्टरका लंकेन्द्र दंडका
यह मेन्द्र
गणतन्द्र अन्नन्द गमा
! अनिकाद्वार-प्रत्यक इन्द्र के सात सात अनिका है. यथा--मन. तुरंग. ग्थ, वृषभ, पैदल. गन्धर्व नाटिक-नृत्यकारक प्रत्यक अनिकाके देव अपने अपने मामानीकदेवों में २७ गुण है जमे शक्रेन्द्र के ८४८८८ सामानीकदेव है उन्होंसें
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४२
१२७ गुण करनेसे १०६६८००० देव प्रत्यक अनिकाका होते है इसी माफीक सर्व इन्द्रोंके समझना.
(१८) परिषदाद्वार-प्रत्यक इन्द्रके तीन तीन प्रकारकि परिषदा होती है अभिंतर, मध्यम, बाह्यदेव देखो यंत्रमे. इन्द्र. | अभिंतर. - मध्यम. बाह्य. वी.
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शक्रन्द्र
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१००००
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०
०
इशानेन्द्र
०
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६०००
०
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शेष इन्द्रके
देवी नहीं. ( १६ ) देवीद्वार-शकेन्द्रके आठ अग्र महेपीदेवी है प्रत्यक देवीके शोला शोला हजार देवीका परिवार है १२८००० प्रत्यक देवी शोला शोला हजार रूप वैक्रय कर शक्ती है.२०४८०००००० इतनि देवी एक इन्दके भोगमें
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४३
श्री शक्ती है एवं इशानेन्द्रके भी समझना शेष देवलोकमें देवी उत्पन्न होने का स्थान नहीं है उर्ध्व नकके देवी पेहला दुसरा देवलोक में भागमें आती है देवीका उर्ध्व आठमा होता है.
चुत देवलोकके देवों रहेती है वह देवोंके देवलोक तक गमन
( २० ) वक्रयद्वार - शक्रेन्द्र वैमानिकदेवी देवतसे दो जम्बुद्विप भरदे असंख्यातेकी शक्ती है एवं सामानीक -लोकपाल - तावत्रिसका और देवी भी समझना. इशानेन्द्र दो जम्बु fire साधक परिवार तथा सनत्कुमार ४ जम्बु महेन्द्र ४ साधिकमेन्द्र = जम्बु लांतकेन्द्र आठ साधिक महाशुक्र २६ जम्बु० सहस्र २६ साधिक पान ३२ अतेन्द्र ३२ साधक जप कसे देवी देव बनाके भरदे कि शक्ती संख्या जम्बुद्विप भरदेनेकी है शेष वैक्रय नहीं करे.
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( २१ ) अवधिद्वार - अवधिज्ञान सर्व इन्द्र ज अंगुल असंख्यातमां भाग उ० उर्ध्व अपने अपने वैमानके ज तीच्छा असंख्याते द्विप समुद्र अधो शकेन्द्र उशानेन्द्र पेहला नरक देखे, सनत्कु महेन्द्र दुसरी नरक देखे, ब्रह्मेन्द्र लातकेन्द्र तीसरी नरक देखे, महाशुक सहस्र चोथी नरक देखे. अणतपत अरण अन पांचमी नरक देखे, नांग्रीवैगके देव छटी नरक च्यार अणुत्तर वैमान सातमी नरक तथा सर्वार्थसिद्ध वैमानका देवा तमनाली सम्पूर्ण जाने देखे.
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( २२ ) परिचारणाद्वार-सौधर्मशान देवलोकके देवोंको मन, शब्द, रूप, स्पर्श और कायपरिचारणा यह पांचो प्रकार कि परिचारणा है तीजा चोथा देवोंके स्पर्शपरिचारणा है पांचवा छठा दे० देवोंके रूपपरिचारणा है सातवा आठवा दे० दवोंके शब्दपरिचारणा है नव दश इग्यारा बारहवा देवलोकके दयोंके एक मनपरिचारणा है नौग्रीवेग और अनुत्तर वैमानके देवोंके परिचारणा नहि है विस्तार देखा परिचारणापदका धाकडामें.
(२३ ) पुन्यद्वार-जितना पुन्य व्यंतरदेव १०० वर्षमें क्षय करते है इतना पुन्य नागकुमारादि नव निकायके देव २०० वर्ष अमुरकुमार ३०० वप ग्रह नक्षत्र तारा ४०० चन्द्र सूर्य ५०० सौधर्मइशान १००० वर्ष सनत्कु० महेन्द्र २००० ब्रह्मेन्द्र लंतक ३०० महाशुक्र सहस्र ४००० अणतपणत अरण अचुत ५००० वर्षे पेहली त्रिक १ लक्ष दुसरी त्रिक २ लक्ष तीसरी त्रिक ३ लक्ष च्यार अणुत्तर ४ लक्ष सर्वार्थसिद्ध वैमानके देव ५ लक्ष वर्षमें इतना पुन्य क्षय करते है अर्थात् व्यंतरदेव भोगविलास हास्य कीतल्यादिमें १०० वर्षमै जीतना पुन्य क्षय करते है इतना पुन्य क्रमसर सर्वार्थसिद्ध वैमानके देव पांच लक्ष वर्षोंमें पुन्य क्षय करते है.
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(२४) सिद्धद्वार - वैमानिक देवोसे निकलके मनुष्यका भवमे आके एक समय १०८ सिद्ध होते हैं एवं देवीसे २० जीव सिद्ध होते हैं.
(२५) भवद्वार - वैमानिक देवोंमे जाने पर भी जीव संसारमं भव करे तो जघन्य १२ - ३ उ० संख्याते असंख्याते अनन्ते भव भी कर शक्ता है ।
(२६) उत्पन्नद्वार हे भगवान् सर्व प्राण भूत जीव सत्व वैमानिक देवता या देवीपणे पूर्व उत्पन्न हवा ! हे गोतम एक वार नहीं किन्तु अनन्त अनन्तिवार उत्पन्न हुवा है कहांतक कि० नौग्रीवैमनक | ओर च्यार अत्तर वैमानमे जाने के बाद संख्याते (२४) भव और सर्वार्थसिद्ध वैमान से एक भवमे निश्वय मोक्ष होता है ।
(२७) पाव दूतद्वार.
( १ ) स्तोक पांच अन्तर वैमनके व
(२) उपरकी त्रिदेव संख्यातगुणा.
( ३ ) मध्यम त्रिके देव
( ३ ) निचेकी त्रिके देव
( ४ ) बारहवा देवलोकके देव
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( ५ ) इग्यारवे
(६) दशवे
( ७ ) नवमे
( ८ ) आठवा असंख्यातगुणा
( ६ ) सातवा
(१०) घटे
(११) पाचवे
(१२) चोथे
(१३) तीजे
(१४) दुजे
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(१५) दुजे देवलोककी देवी संख्यातगुणी.
(१६) पेहला देवलोकके देवा
(१७)
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सेवंभंते सेवंभंते - तमेवसच्चम् .
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थोकडा नं. ७
सूत्रश्री जम्बुद्विपप्रज्ञाप्ती.
( खण्डा जोयण ) गाथा-खंडा जोर्यण वासा.
पवय कूडा तित्थ सेढीओ। विजय दह सलिलाओ,
पिंडए होइ संगहणी ॥१॥ इस लक्ष जोजनके विस्तारवाले जम्बुद्विपकों १. द्वारसे बतलाये जावेगे.
(१) खंडा-जम्बुद्विपका भरतक्षेत्र परिमाण कितने खंड होते है.
(२ ) जोयण-जम्बुद्विपका जोजन परिमाणे कितना खंड होता है.
(३) वासा-जम्बुद्विपमें मनुष्य रेहनेका कितना वासा है.
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( ४ ) पव्वय-जम्बुद्विपमें सास्वता पर्वत कितने है.
(५) कूडा-जम्बुद्विपमें पर्वतों उपर कूट है वहा कितने है.
( ६ ) तित्थ-जम्बुद्विपमें माघद्धादि तीर्थ कितने है.
(७) सेढी-जम्बुद्विपमें विद्याधरांकि श्रेणि कहां या कितनी है.
(c) विजय-महाविदेहक्षेत्रमें मनुष्य रहेनेकि विजय कितनी है.
(8) दह-जम्बुद्विपमें पद्मादि द्रह कितने है. ( १० ) सलिला-जम्बुद्विपमें गंगादि नदीयों कितनी है
उपर बतलाये हवे १० द्वारको शास्त्रकार विस्तारपूर्वक विवरण करते है.
(१) खंडा-तीरच्छालोकम जम्बुद्विप असंख्याते है परन्तु यहांपर जो हम निवास कर रहे है इमी जम्बुद्विपकि व्याख्या करेंगे.
__जम्बुद्विप गोल चुडि-चक्र-तेलका पुवा-कमलकि कर्णका और पूर्ण चन्द्रके प्राकार है वह पूर्व पश्चम एक लक्ष जोजनका पहला है इसी माफीक दक्षिणोत्तर भी एक लक्ष जोजनका लम्बा है ३१६२२७ जोजन तीनगाउ १२८ धनुष्य
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१३।। अंगुल एक यव एक युक एक लिख छ बालाग्र पांच व्यवहारीय परमाणु इतना विस्तारवाली परद्धि है। एक जगति (कोट) एक पद्मवर वदिका एक वनखंड च्यार दरवाजा कर अति शोभनिक है । इन्ही जम्बुद्विपका दक्षिण उत्तर भरतक्षेत्र परिमहा बंड किया जाय तो १६० खंड होता है यंत्र ।
तंत्र नाम. खंड. जोजन परिमाण. भरतक्षेत्र
५२६ +-६ चुतहेमबन्न पर्वत १०५२+१२ हेमनायवेत्र
२१०५+५ महाहेगवलपर्वत ४२१०+१० हरिवासवेत्र
८४२:+१ निपेडपात
१६-४२+२ महाविदह नत्र
३३६८४-४ निलवन्तान
१६८४२-२ रम्यकवास क्षेत्र
८४२१+१ रूपीपर्वत
४२१०+१० एरणवयक्षेत्र
२१०५+५ सीखरीपर्वत
१०५२+१२ एरभरतक्षेत्र १ । ५२६+६
६०+१००००० जोजन
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जोजनका १६ चा भागको कला केहेते है.
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प्रसंगोपात पूर्व पश्चिम लक्ष जोजनका मान.
क्षेत्रका नाम. जोजन परिमाण. मेरूपर्वत पहला
१०००० जोजन. पूर्व भद्रशाल वन
२२०२० । , आठ विजय
१७७०२ , ,, च्यार वस्कारपर्वत
२००० ,, तीन अन्तरनदी " सीतामूख बन २६२३ पश्चिम भद्रशाल वन
२२००० ॥ ,, आठ विजय
१७७०२ ,, च्यार वस्कार
२००० , ,, तीन नदी ,, सीतामुख वन २६२३ ,,
एवं १००००० जोजन-- (२) जोयणद्वार-एक लक्ष योजनके विस्तारवाले जम्बु. द्विपका योजन योजन परिमाणके गोल खंड किया जाय तो १०००००००००० इतने खंड होते है अगर योजन परिमाण समचौरस खंड किये जाय तो ७६०५६६४१५० खंड होनापर ३५१५ धनुष ओर ६० अंगुल क्षेत्र बडजाता है इति द्वारम्.
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१३) यामाद्वार--- इन्ही लक्ष योजनक विम्तार बाल जम्बुद्विप में मनुष्य रहनेका बासक्षेत्र ७ तथा १० है यथा
। भग्तक्षेत्र (२) परभरतक्षेत्र (३) महाविदहक्षेत्र इन्हीं तीन संत्रम कमभूमि मनुष्य निवास करते है और (१) दमयर २) दरगण वय (३) हरिबास (४) रम्यकवास इन्ही च्यार नत्रा अकमभूमि युगल मनुप्य निवास करने हैं एवं ७ तथा दश गीना जाये तो पूर्वजा महाविदहनत्र गौना गया है उन्हीक यार विभाग करन! :) पृव महाविदह । २ । पश्चिम महाविदः देयकम (४) उत्तर कम एवं । नत्र होता है । विवरण ----
नयोजन के विस्तार वाला डानम्वृद्धिप है जिन्हा चानक एक नि । कोट है यह जगति गार योजन के उनी है मनम ? २ मध्यम = उपर ' योजना विस्तार बाल है मय बनानाय में उन्दी जगति के कीनारपर एक. गौर जाल अथात-झगवाकी लंन श्रागड है बह ादा योजनक उनी नया अनुप कि चोटी काागा और कांगम
अगति उपाय च्यार गाजनके विस्तारवाला ई उन्हा ने मध्यभागम एक पद्मवखेदिका आदा याजनकी उनी ५५ धनुप कि चाही दानो तर्फ निला पनी का म्यामा पर अच्छ मृन्दर अकारवाली मनमोहक पुतलायों है और भि अनेक,
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५२
सुन्दर रूप तथा मौतफल की मालावों से सुशोभित है मध्यभागमे पद्मवर वेदिका श्राजानेसे दो विभाग हो गये है (१) अन्दर का विभाग (२) बाहार का विभाग जो अन्दर का विभाग है उन्ही के अन्दर अनेक जातिके वृक्ष जानेसे अन्दरका वनखंड कहा जाते हैं उन्ही के अन्दर पांच वर्ण के तृण रत्नमय है पूर्वादि दिशीका मन्द वायु चलने के राग ३६ रागणी मन और श्रवणको आनन्दकारी ध्वनी निकलती है उन्ही वनखंड में और भी छोटी छोटी बाबी और पर्वत आय है वह अनेक आसन पडे है वहाँ व्यंतर देव और देवीयों आते है पूर्वकृत पुन्यकों सुखपूर्वक भोगते है इसक बाहारका बन भी समझना परन्तु वहा तृण नही है ।
मरू पर्वत के यारों दिशा पैतालीस पैतालीस हजार योजन जानेपर प्यारो दिशा उन्ही जगतिके अन्दर या दर वाजा आते है वह दरवाजा आठ योजनके उचे च्यार योजन के चोड है दरवाजा उपर नवभूमि और सुपेतगुमट मर ध्वजा और आठ आठ मंगलीक है। दरवाजा दोनों तर्फ दो दो चौतरा है उन्हीके उपर प्रासाद तोरण चन्दनके कलसे कारी थाल आदि यावत् धूपके कुडच्छ और मनोहर रूपवाली पुतलियोंसे सुशोभीत है.
(१) पूर्वदिश में विजय नामको दरवाजो है. (२) दक्षिण दिशमें विजयन्त नामको दर
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(३) पश्चिमदिशमें जयन्तनामा दर० (४) उत्तरदिशमें अप्राजित नामा दर०
इन्ही चारों दरवाजोंके नामके च्यारों देवता एकेक पल्योपमकि स्थितिवाले है उन्हीकी राजधानी अन्य जम्बुद्विपमें है। अधिक विस्तारवालोको जीवाभिगमसूत्र देखना चाहिये ।
() भरतक्षेत्र-जहांपर हम बैठे है इन्हीकों भरतक्षेत्र केहते है । वह चुलहेमवन्तपर्वतसे दक्षिणकि तर्फ विजयन्त दरवाजासे उत्तरकि तर्फ पूर्व और पश्चिम जगतिके बाहार लवणसमुद्र है अर्द्धचन्द्रके आकार है मध्यभागमें वैताडयपर्वत
आनासे भरतक्षेत्रका दो विभाग कहाजाते है (१) दक्षिणभरत (२) उत्तरभरत ।
चुलहेमवन्तपर्वतपर पद्मद्रहसे गंगा और सिन्धुनदी उत्तर भरतका तीन विभाग करति हूइ तमस्रगुफा और खंडप्रभागुफाके निचे वैताडयपर्वतकों भेदके दक्षिणभरतका तीन विभाग करति हूइ लवणसमुद्रमें प्रवेश हुइ है इन्हीसे भरतक्षेत्रका के खंड भी कहाजाता है।
दक्षिणभरत २३८ जो० ३ कलाका है जिन्हीके अन्दर तीन खंड है मध्यखंडमें १४००० हजार देश है मौख्य मध्यभांगमें कोशलदेश वनिता (अयोध्या) नगरि है वह परिमाण अंगुलसे १२ जोजन लम्बी ह जोजन पहली है वनितानगरीसे उत्तरकि तर्फ ११४॥ १॥ वैताडयपर्वत है और ११४॥+१॥
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दक्षिणकी तर्फ बिजयन्त नामका दरवाजा है। पूर्व पश्चिमके दोनों खंडमें हजार हजार देश मीलाके दक्षिणभरतके तीनों खंडमे १६००० देश है इसी माफीक उत्तरभरतमें भि १६००० देश है इन्ही भरतक्षेत्रमें कालकि हानि वृद्धिरुप सर्पिणी उत्सर्पिणी मीलके कालचक्र है वह देखो. छे आरोका थोकडामें । एक सर्पिणीमें २४ तीर्थकर १२ चक्रवरत हबलदेव : वासुदेव ह प्रतिवासुदेव नियमत होते है । इति. .
(२) एरभरतक्षेत्र-भरतक्षेत्रकि माफिक है परन्तु भरतक्षेत्रकि मर्यादाकारक चुलहेमवन्तपर्वत है और एरभरतक्षेत्रकी मर्यादाकारक सीखरीपर्वत है शेष बराबर है इति.
(३) महाविदह क्षेत्र-निषेड और निलवन्त दोनों पर्वतोंके विचमे महाविदहक्षेत्र है वह पलंक के संस्थान है चक्र वरतकि ३२ विजयसे अलंकृत है । अगर महाविदेहक्षेत्रका च्यार विभागकर दिया जावेगें तो (१) पूर्व विदह (२) पश्चिम विदह (३) देवकूरू (४) उत्तर कूरू.
विदहक्षेत्रके मध्य भागमे मेरू पर्वत पृथ्वीपर १०००० जो के विस्तारवाला है उन्ही के पूर्व पश्चिम दोनु तर्फ बावीस बावीस हजार योजनका भद्रशालवन है। उन्हीसे दोनों तर्फ (पूर्व पश्चिम ) शोला शोला विजय है अर्थात् पूर्व विदहरूप १६ विजया और पश्चिम विदह रूप १६ विजय है।
मरू पर्वत १०००० जोजनका है उन्हीसे उत्तर दचिव
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अढाइसो अढाइसो जोजनका भद्रशालवन है वहांसे दक्षिणकि तर्फ निषेडपर्वत तक देवकूरू क्षेत्र और निलवन्त पर्वत तक उत्तर कूरूक्षेत्र है। एकेक क्षेत्र दोदो गजदन्तों कर आदा चन्द्राकार है इन्ही क्षेत्रोंमे युगल मनुष्य तीनगाउ कि अवगाहना और तीन पल्योपम कि स्थिति वाले है देवकूरूक्षेत्रमें कुड सामली वृक्ष चितविचित पर्वत १०० कंचनगिरि पर्वत पांचद्रह इसी माफीक उत्तरकूरूमे परन्तु वह जम्बु सुदर्शनवृक्ष है इति विदहेका च्यार भेद ।
निषेडपर्वत और महा हेमवन्तपर्वत इन्ही दोनो पर्वतोंके विचमे हरिवास नामका क्षेत्र है तथा निलवन्त और रूपी इन्ही दोनों पर्वतों के विचमे रम्यक्वास क्षेत्र है इन्ही दोनों क्षेत्रोंमे दो गाउकी अवगाहना और दो पल्योपम कि स्थिति वाले युगल मनुष्य रहे ते है।
महाहेमवन्त और चुलहेमवन्त इन्ही दोनों पर्वतों के विचमे हेमवय नामका क्षेत्र है तथा रूपी आर सीखरी इन्ही दोनों पर्वतों के विचमे एरणवयक्षेत्र है इन्ही दोनों क्षेत्रोंमें एक गाउकी अवगाहाना ओर एक पल्योपम कि स्थिति वाला युगल मनुष्य रेहेते है । एवं जम्बुद्विपमे मनुष्य रहेने के दश क्षेत्र है इन्हीको शास्त्रकारोंने वासा काहा है अब इन्ही १० क्षेत्रोंका लंम्बा चोडा बाहा जीवा धनुषपीठ आदिका परिमाण यंत्रद्वारा लिखा जाता है।
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क्षेत्रनाम
दक्षिणभरत
उतरभरत
हेमवयक्षेत्र
हरिवासक्षेत्र
महाविदह क्षेत्र देवकुरूक्षेत्र
उत्तरकुरूक्षेत्र
रम्यक्वासक्षेत्र
एरणवयक्षेत्र
दक्षिणएरभरत
उत्तरएरभरत
दक्षिणोतर पद्दूलापणा
२३८ जो० ३
२३८+३
बाह
०
धनुषपीठ
६७६६+१
१४४७१+६
१४५२८+११
३७६७४+१६ ३८७४०+१०
७३६०१+१७ | ८४०१६+४
१०००००
५३०००
५३०००
०
जीवा
६७४८+१२
१८६२+७।।
२१ ५+५ ६७५५+३
८४२१+१| १३३६१+६
३३६८४+४ | ३३७६७+७
११८४२+२
११८४२+२|
८४२१ + १ | १३३६१+६
७३६०१+१७
२१०५+५
६७५५+३
३७६७४+६
२३८+३ १८६२+७।। १४४७१+६
२३८+३
६७४८+१२
१५८११३+१६
६०४१८+१२
६०४१८+१२
८४०१६+४
३८७४०+१०
१४५२८+११
६७६६+१
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(४) पव्वयपर्वत-जम्बुद्विपमें २६६ पर्वत सास्वता है (२००) कञ्चनगिरिपर्वत-देवकूरू युगलक्षेत्रमें पांच द्रह है उन्ही द्रहके दोनों तटपर दश दश कञ्चनगिरिपर्वत सर्व सुवसमय है दश तटपर १०० पर्वत है इसी माफीक उत्तरकृरू युगलक्षेत्रमें १०० कञ्चनगिरि है एवं २०० ___ (३४) दीर्घवैताडय-चक्रवरतकी ३४ विजय अर्थात महाविदेहकि ३२ विजय एक भरत एक एरभरत एवं ३४ विजयके मध्यभागमें ३४ वैताडयपर्वत है।
(१६) वस्कारपर्वत-महाविदेहक्षेत्रके मध्यभागमें मेरूपवत आजानेसे महाविदहक्षेत्रके शोला शोला विजयरुप दो विभाग हूवे शोला शोला विजयके विचमें सीता सीतोदानदी आजानासे आठ आठ विजयरुप च्यार विभाग हवे उन्हीसे आठ विजयरुप एक विभागके सात अन्तर है जिस्मे च्यार वस्कारपर्वत और तीन अन्तर नदी है एक विभागमें च्यार वस्कारपर्वत है इसी माफीक च्यार विभागमें १६ वस्कारपर्वत है। ___(६) वर्षधरपर्वत-मनुष्य रेहनेका जो ७ क्षेत्र बतलाये है जिन्होके ६ अन्तरोमें छे पर्वत है अथवा सात क्षेत्रोंकि मर्यादा करनेवाले ६ वर्षधरपर्वत है यथा चुलहेमवन्त, महाहे
मवन्त, निषेड, निलवन्त, रूपी, और सीखरीपर्वत इति । .. (४) गजदन्तापर्वत-निषेड और निलवन्तपर्वतके पाससे
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५८ निकलते हुवे देवकूरू उत्तरकूरू युगलक्षेत्र और विजयके विचमें मर्यादा करनेवाले हस्तिके दन्तके आकार मेरूपर्वतके पास जायलागे है.
(४) वृतलवैताड्य पर्वत हेमवय, एरणवय, हरिवास, रम्यक्वास वह च्यार युगल मनुष्योंका क्षेत्र है इन्हीके मध्यभागमें च्यार वृतल वैताडयपर्वत है.
(४) चितविचितादि निषेडपर्वतके पासमें और सीतानदीके दोनो तटपर चित और विचित दो पर्वत है इसी माफिक निलवन्त पर्वतके पास में सीतोदानदीके तटपर जमग समग दो पर्वत है. (१) जम्बुद्विपके मध्यभागमें गिरिराज मेरूपर्वत है. इति.
(विवरण) __(१) दो सो (२००) कञ्चनगिरिपर्वत पचवीस जोजन धरतिमें १०० जोजन धरतिसे उंचा मूलमें १०० जो० लम्बा चोडा मध्यमें ७५ जो० उपरसे ५० जोजन विस्तारवाला है तीनगुणी जाझेरी परद्धि सर्व कञ्चनमय है। . (२) चौतीस दीर्घ वैताड्यपर्वत पचवीस गाउ धरतीमें है पचवीस जोजन धरतीसें उंचा पचास जो० विस्तारवाला है। उन्होंकि दोनो तर्फ बाह ४८८ जो० १६ कला है जीवा १०७२० जो० १२ कला धनुषपीष्ट १०७४३ जो० १५ कला है प्रत्यक वैताड्यपर्वतके अन्दर दो दो गुफावों है (१) तमसगुफा (२) खंडप्रभागुफा वह गुफा ५० जोजनकि लम्बी १२
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जोजनकि चोडी ८ जो० उंची है उन्ही गुफावोंके अन्दर दो दो नदीयों है (१) उमगजला (२) निगमजला - गुफावोंके दरवाजासें २१ जोजन गुफाके अन्दर जावे तब उगमजाल नदी वे वह तीन जोजनका विस्तारमें पाणी वह रहा है उन्हीके अन्दर कीसी प्रकारका पदार्थ कष्ट, कचरा, कलेवर पडजावे तो उन्हीकों तीन दफे इदर उदर भमाके बाहार फेंकदे इसी वास्ते उगमजला नाम है वहांसे दो जोजन आगे जानेपर निगमजला नदी तीन जोजनके विस्तारवाली जिसके अन्दर कोई भी पदार्थ पडे तो उन्हीकों तीन उच्छाला देके नदी के अन्दर रखलेवे वास्ते निगमजला नाम दीया है वहांसे २१ जो० जानेपर तमस्त्रगुफके उतरका दरवाजा आजाता है । परन्तु महाविदे क्षेत्रके ३२ वैताडयके बाहार जीवा धनुषपीष्ट नहीं है केहना वह पलक संस्थान है । लंबा विजयवत् ।
(३) शोलावस्कार पर्वत - चित्र, विचित्र, निलन, एक शेल, त्रिकुट, वैसमय, अञ्जन, मयाञ्जन, अंकावाइ, पवमाबाई, सीविष, सुहावह, चन्द्र, सूर्य, नाग, देव एवं ९६ पर्वत १६५६२ जो० २ कलाके लम्बा है पांचसो पांचसो जो० पहुला विस्तार है निषेड निलवन्तपर्वतों के पास में च्यारसो जोजनका उंचा और ४०० गाउका धरती में है वहांसें वढते वढते सीता सीतोंदा नदीयोंके पासमें उंचा पांचसो पांचसो जोजनका और ५०० पांचसो गाउका धरतीमें है । १६ कारपर्वतश्वके स्कन्धके श्राकार है.
(६) वर्षद्वारपर्वत यंत्र से देखो.
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पर्वत उचा धरतीमे| पहूलपणो | बाहा , जीवा । धनुष चूलहेमवन्त १०० २५/ १०५२ जो | ५३५० जो २४६३२ जो २५२३० जो. और सीखरी जोजन जो० । १२ कला | १५ कला | ०॥ कला ४ कला महाहेमवन्त २०० ५० ४२१० जो ६२७६ जो ५३६३१ जो ५७२६३ जो०
ओर रूपि | जो० | जो० | १० कला | ह कला | ६ कला | १० कला निषेड और | ४०० १०० १६८४२जो २०१६५ जो ६४१५६ जो १२४३४६ जो निलवन्त | जो० । जो । २ कला | २ कला | २ कला | ९ कला
(४) गजदन्ता पर्वत च्यार-गधमदर्न, मालवन्त विद्युत्प्रभा और सुमानस एवं ४ गजदन्ता निषड निलवन्त पर्वत के पास च्यारों पर्वत च्यार च्यारसो जोजनका उचा और सोसो जोजनका धरतीमे उडा तथा पांच पांचसो जोजनका पहला वहासे क्रमःसर हस्तीके दन्त कि माफीक उचापणे वढते वढते और पहूलपणे कम होते हवे मेरू पर्वतके पास आते हुवे पांचसो पाचसो जोजनके उचो ओर सवासे सवासे जोजन के घरतीमें उ० और पहूलपणे अंगुलके असंख्यातमेभाग रहा है लबाइमे ३०२०६ जो० ६ कालाका है च्यारो पर्वत रजमा
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(५) वृतल वैताड्य-सदावाइ वयडावाइ गन्यावाइ मालवन्ता यह च्यार पर्वत १००० जो० उचा २५० जो० रतीमें तीनगुणी साधिक परद्धि है धांनकी पायलीके आकार क हजार जो० पहला विस्तारवाले है। । (६) चितविचित जमग समग रह च्यार पर्वत देवकूरू उत्तरकूरू युगल क्षेत्रमे निषेड निलवन्तसे ८३४ जो० और एक जोजनका सात भाग करना उन्होंसे च्यार भाग दुरे है। वह १००० जो० उचा ओर २५० जो० धरतीमें उडे है मूलमे १००० जो० पहूला-विस्तारवाला है मध्य ७५० जो० उपरसे ५०० जोजन विस्तारवाला है. . (७) मेरुपर्वत–मेरूपर्वत जम्बुद्विपके मध्य भागमे है वह एक लक्ष जोजनका है जिस्मे १००० जोजन धरतिमे और ६६००० जो० धरतीसे उपर है मूलमे पहलो १००६० जो० एक जोजनका इग्यारी या दश भाग है। धरतिपर दश हजार जोजन विस्तारवाला है उपर इग्यारे जोजन के पीछे एक जोजन कम होते कम होते मेरू के सीखरपर एक हजार जोजन के विस्तावाला है सब जगा तीनगुणी जाझरी परद्धि है मेरूपर्वतके चौतर्फ एक पद्मवर वेदीका ओर एक वनखंड है वह वर्णन करने योग्य है। मेरुपर्वत के च्यार वन है यथा (१) भद्रशालवन (२) नन्दनवन (३) सुमानसवन (४) पंडकवन.
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(१) भद्रशालवन-मेरुपर्वतके चौतर्फ धरति उपर पूर्व पश्चिम २२००० बावीस हजार जोजन ओर उत्तर दक्षिण अढाइसो २५० जोजनका है एक वनखंड एक वेदीका चौतर्फ है श्यामप्रभाकर अच्छा शोभनिक है । मेरूपर्वत के पूर्व दिशा तर्फ भद्रशालवनमे ५० जोजन जावे तब एक सिद्धायतन (जिनमन्दिर ) आवे वह ५० जो० लम्बो २५ जो० चोडा ३६ जो० उचा अनेक स्थभा पुतलीयों आदिसे सुशोभीत है उन्ही सिद्धायतन के तीन दरवाजा है। वह आठ जोजनका उचा ओर च्यार जोजनका चोडा जीसपर सुपेत गुमटकर सोभायमान है उन्ही सिद्धायतन के मध्य भागमे एक मणिपीट चौतरो ८ जो० लंम्बो चोड। च्यार जो० जाडो सर्व रत्नमय है । उन्ही चौतराके उपर एक देवच्छादो ( जहा जिन प्रतिमा वीराजमान हे उन्ही को मूल गुभारा भी कहा जाते है ) वह ८ जो लंम्बा चौडा-साधिक आठ जो० उचा उचपणे है वर्णन करने योग्य है उन्ही के अन्दर त्रिलोक्य पूजनीक तीर्थकर भगवान कि प्रतिमावों पद्मासन विराजमान है यावत् धूपके कुडचे आदि रहे हुवे है। एवं दक्षिण एवं पश्चिम एवं उत्तर अर्थात् च्यारो दिशामें च्यार जिन मन्दिर पूर्ववत् समझना । मेरूपर्वत से इशान कोनमे भद्रशाल वनमे जावे तब च्यार नन्दा पुष्करणि वावी आति है पद्मा पद्माप्रभा, कुमुदा कुमुदप्रभा वह वावी ५० जो० लम्बी २५
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जो० चोडी १० जो० उढी वेदिका वनखंड तोरणादि करी संयुक्त है उन्ही च्यार वावीयों के मध्य भागमे इशानेन्द्रका प्रधान प्रासाद (म्हल ) है वह प्रासाद ५०० जो० उचा २५० जो० विस्तारवाला है यावत् सपरिवार के आसन सहित है । एवं अग्निकोनमें भी च्यार वावी है उत्पला, गुम्मा निलना उज्वला पूर्ववत् परन्तु इन्ही वावी के मध्य भागमे शकेन्द्रका प्रासीद है एवं वायुकोनमे च्यार वावी है लिंगा भिंगनाभा अञ्जना अञ्जनप्रभा-मध्यमे शकेन्द्रका प्रासाद सिंहासन सपरिवार समझना एवं नैऋतकोनमे च्यार वावी श्रीक्रन्ता श्रीचन्दा श्रीमहीता श्रीनलीता--मध्यभागमें प्रासाद इशानेन्द्रका समझन वावी-बावी के अन्तरामे जो खुली जमीन है उन्हों के उपर इन्द्रोंका प्रासाद है । भद्रशालवनमे आठ विदिशावोंमे आठ हस्तिकुट है वह १२५ जो० धरतीमे ५०० जो० धरतीसे उचा है मूलमे पांचसो जो० मध्यमे ३७५ जो० उपर २५० जो० विस्तारवाला है तीनगुणी झाझेरी परद्धि है । पझुत्तर, निलवन्त, सुहस्ति, अञ्जन गिरि, कुमुद, पोलास, विढिस, रोयणगिरि, इन्ही आठ कुंटोंपर कुंटकेनाम देवता ओर देवतोंका भूवन रत्नमय है उन्ही देवोंकी राजधानी आपनी अपनि दिशासे अन्य जम्बुद्विपमे जानापर अति है विजय देववत समझना भद्रशालवन वृक्ष गुच्छा गुमावेली तृण कर शोभाय
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मान है बहुतसे देवता देवी विद्याधरादि आवे है पूर्व संचित मुभ फलकों भोगवते हवे विचरे है।
(२) नन्दनवन-भद्रशालवनकी संभूमिसें ५०० जोजन उंचा मेरुपर्वतपर जावे वहाँ गोल बलीयाकार नन्दनवन आवे वह पांचसो जो० विस्तारवाला है मेरूपर्वतको चौतर्फ वीटा हुवा है अर्थात् वहांपर मेरूपर्वतकी एक मेखला निकली हुइ है उन्होके उपर नन्दनवन है । वेदिकावन खंड च्यार जिनमन्दिर १६ वावी ४ प्रासाद शक्रेन्द्र इशानेन्द्रका पूर्वभद्र शालवनवत् समझना और नन्दनवनमें 8 कुंट है नन्दनवनकुंट, मेरुकुंट, निषेडकुंट, हेमवन्त रजीतकुं० रुचित सागरचित० बज्र० बलकुंट जिस्में आठ कुट पांचसो पांचसो जो० उंचा यावत् आठो कूटपर आठ देवीका भुवन है मेघकरा, मेघवती, सुमेघा, हेममालनिदेवी, सुवच्छादेवी, वच्छमित्रादेवी, बज्रसेनादेवी, बलहकादेवी, आठों देवीयोंकि स्थिति एक पल्योपमकी है राजधानी अपनी अपनी दिशा तर्फ अन्य जम्बुद्विपमें समझना। बलकुट १००० जो उंचा है मूलमें १००० मध्यमें ७५० उपरसें ५०० जो विस्तारवाला है तीनगुणी साधिक परद्धि है बलदेवता राजधानी अन्य जत्बुद्विपमें है शेषभद्रशालवनवत् यावत् अच्छा सुन्दर है । देवदेवी प्रानन्द करते है.
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(३) सुमानसवन-नन्दनवनके तलासे ६२५०० जोजन उर्ध्व जावे तब सुमानस नामका वन आवे । वह पांचसो जोजन के विस्तारवाला मेरूपर्वतको चौतर्फ वींट रखा है वेदीकावन खंड च्यार जिनमन्दिर १६ वावी शकेन्द्र इशानेन्द्रका ४ प्रासाद पूर्ववत् समझना यावत् देवतादेवी आते है. . (४) पंडकवन-सुमानसवनसे ३६००० जोजन उर्ध्व
जावे तब मरूपर्वतके शिखर उपर पंडकवन आता है ४६४ जो० चक्रवाल चुडी आकार मेरूपर्वतकी चुलका (१२ जोजन) को चौतर्फ वीटरखा है । वेदीकाक्न खंड च्यारजिनमन्दिर १६ वावी शकेन्द्र इशानेन्द्रका च्यार प्रासाद पूर्ववत् समझना । पंडकवनके मध्यभागमें मेरुचुलका है वह ४० जोजनकी उंची है मूलमें १२ मध्यमें ८ उपरसे ४ जोजन विस्तारवाली है साधिक तीनगुणी परद्धि । सर्व वैखडीय रत्नमय है। एक वेदिका वनखंडसे वींटी हुइ है । उपरका तलो मणिजडित है मध्यभागमें एक सिद्धायतन एक गाउका लम्बा आदा गाउका चोडा देशोना गाउका उंचा अनेक स्थाभकर शोभनीक है मध्य मणिपीट देवच्छदा और पद्मासन जिनप्रतिमावों यावत् धूपकुडचा आदि। देवतादेवी वहांपर आते है या लब्धिधरमुनि भी जाते है त्रिलोक्य पूजनीक तीर्थकरोंकी सेवाभक्ति करते है.
पंडकवनमें च्यार दिशावोंमें च्यार अभिशेष शीलावों
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है जिन्होंकों उपर तीर्थंकर भगवान्का जन्माभिशेष इन्द्रमहाराज करते है । उन्होंके नाम-पंडूशीला, पंडूकबलशीला, रक्तशीला, रक्तकंबलशीला वह शीलाबों पांचसो जोजन लम्बी अढाइसो जो० चोडी च्यार जो० जाडी है अर्धचन्द्र के आकार सर्व कनकमय अच्छी सुन्दर है । वेदिकावन खंडदिसे सुशोभित है । उन्ही शीलावोंके च्यारो तर्फ अच्छा पागोतीया उन्होंके उपर तोरणादिसे और शीलावोंके उपरका तला अच्छा साफ है जिस्में पूर्वपश्चम शीलावोंके उपर दो दो सींहासन ५०० धनुषका लम्बा २५० धनु० चोडा जिसपर विदेहक्षेत्रके तीर्थंकरोंका जन्माभिशेष जो भुवनपति व्यंतर जोतीषी और वैमानीकदेवता करते है और उत्तरदक्षिणकी शीलापर एकेक सींहासन है उन्हीके उपर तीर्थंकरोंका जन्माभिशेष पूर्ववत् च्यार निकायके देवता करते है.
मेरूपर्वतके तीन करंड है (१) हेठेका (२) मध्यमका (३) उपरका जिस्में हेठला करंड १००० जो० धरतीमें है जिस्म २५० जो० पृथ्वीमय २५० जो० पाषाणमय २५० जो० वज्रमय २५० जो० शार्करा पृथ्वीमय है। मध्यमका करंड धरतीके उपर ६३००० जोजनका है जिस्में १५७५० जो० रजतमय १५७५० जो० रूपामय १५७५० जो० स्फटक रत्नमय १५७५० जो० अंकरत्नमय है उपरका करंड ३६०००
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बो० जमुणीया सुवर्णमय है एवं तीन करंड मीलाके १ लच जोजन परिमाण मेरूपर्वत है मेरूपर्वतके १६ नाम है। मन्दिरमेरू, मनोरम, सुदर्शन, सयंप्रभ, गिरिराज, रत्नोचय, शिलोचय, लोकमध्य, लोकनाभि, अवच्छर सूर्यावृतन, सूर्यावर्ण, उत्तम दिशादि वडेंसे इन्ही मेरूपर्वतका मन्दिर नामका देव एक पल्योपमकि स्थितिवाला है वास्ते इन्हीका मन्दिर नाम दीया है और देवादिको आनन्दका घर है तथा सास्वता नाम है इति.
( ५ ) कुंटद्वार-जम्बुद्विपमे ५२५ कुंट है जिस्मे १४६७ कुंट पर्वतोपर है यथा१ चुलहेमवन्तपर्वतपर कुंट ११ ८ शौलावस्कारपर्वत प्रत्यक २ महाहेमवन्तपर्वतपर , ८ पर्वत पर च्यार च्यार कुंट ६४ ३ निषेडपर्वत पर ,६ ६ विद्युत्प्रभा गजदन्ता पर , 8 ४ निलवन्तपर्वत पर , ६ १० मालवन्ता , ,,, ५ रूपिपवेत पर ,८ ११ सुमानस , , ७ ६ सीखरीपर्वत पर ,११ १२ गन्धभाल , , , ७ ७ चौतीस वैताडयपर्वत १३ मेरुपर्वतका नन्दनवनमे. है प्रत्यक पर्वतपर नव आये हुवे कुंटह नव............कुंट ३०६
एवं ४६७ तथा भद्रशालवनमे ८ हस्तिकुंट है देवकुरूमे ८ उतरकुरूमें ८ एवं २४ और ३४ चक्रवरत कि विजय में
6 6mm
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३४ ऋषभकुंट एवं ५८ सर्व मीलके ५२५ कुंट है जिस्मे छे वर्षधरपर्वतोंका ५६ शोलावस्कारोंका ६४ च्यार गजदन्ताका ३० नन्दनवनका ८ भद्रशालवनका ८ एवं १६६ कुंट प्रत्यक कुंट ५०० जोजनका उचा ५०० जो० मूल पहला शीखर पर २५० जोजन विस्तारवाला है ओर गजदन्ताके २ नन्दनवनका १ एवं ३ कुंट १००० जो० का उचा तथा मूलमे १००० जो० का पहला शीखरपर ५०० जो पहूल है एवं १६६ ___चौंतीस वैताब्यका ३०६ कुंट २५ गाउका उचा ओर मूल पहला तथा शीखर पर १२॥ गाउका पहूला है । जम्बुपीठका ८ सामली पीठका ८ ओर ऋषभकुंट ३४ एवं ५० कुंट
आठ जोजनका उचा आठ जोजनका मूलमे पहूला ओर शीखर पर ४ जोजका पहला है एवं कुल ५२५ कुंट समझना ।
उपर जो ५२५ कुंट कहे है इन्हीमें ७६ कुंट परतों जिनमंदिर है शेष ४४६ कुंट पर देवता और देवीयोंका भुवन है यथा-छ वर्षधरपर्वतों पर छे जिन मन्दिर-शोलावस्कार पर्वतों पर १६ जिनमन्दिर । च्यार गजदन्तों पर च्यार जिनमन्दिर पाठ देवकूर आठ उत्तरकूरू और चौतीस वैताड्य पर्वतो पर ३४ जिनमन्दिर एवं कुल ७६ जिनमन्दिर है इन्हीके सिवाय भद्रशालवनमे ४ नन्दनवनमे ४ सुमानसवनमे ४ पंडग वनके च्यार ४ मेरू चुलाका पर १ जम्बु वृक्ष पर १ सामली वृक्ष पर १
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एवं १५ मीलाके ५५ जिनमन्दिर सास्वता है परिमाण-छे वर्षधर शोलावस्कार च्यार गजदन्ता च्यार भद्रशाल च्यार नन्दनवन च्यार सुमानसवन च्यार पंडगवन एवं ४२ स्थानके जिनमन्दिर पचास पचास जो० लम्बा पचविस पचविस जो० चोडा छतीस छतीस जो० उचा अनेक स्थाभ पुतलीया हार आदिसे अच्छा शुशोभित सर्व रत्नोंमय है उन्ही जिनमन्दिरोंके तीन तीन दरवाजा है प्रत्यक दरवाजा आठ जोजनका उचा च्यार जो० पहला तोरण स्थाभ आदिसे अच्छा मनोहर है. ___ चौतीस वैताड्य आठ देवकूरू आठ उत्तरकूरूके पीठका तथा जम्बुवृक्षका एक सामलीवृक्षका एक और मेरूचुलुकाका एक एवं ५३ जिनमन्दिर एक कोषका लम्बा आदा कोषका पहला १४४० धनुषका उंचा सर्व रत्नमय है इन्ही सर्व सिद्धायतनों अर्थात् जिनमन्दिरोंमें त्रीलोक्य पूजनिक तीर्थकरोंकी शान्तमुद्रा पद्मासनमय मूर्तियों है उन्होंकी सेवाभक्ति अर्चनादि देवदेवी विद्याधर करते है.
शेष ४४६ कुंट तथा २०० कश्चनगिरि ४ वृतलवैताज्य ४चितविचित जमगसमग एवं सर्व ६५७ स्थानपर देवीदेवतोंका आवास ( भुवन ) है इति.
(६) तीर्थद्वार-जम्बुद्विपमें तीर्थ १०२ है वह लौकिक सास्वता तीर्थ है जिस समय चक्रवरत खंड साधनेकों जाते है
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तब वहांपर ठेरते है यह तीर्थाध्यष्टायक देवोंका अष्टमतप करते है या तीर्थंकरोंका जन्माभिशेषके लिये उन्ही तीर्थोंका जल औषधि आदि देव लाते है इत्यादि वह तीर्थका नाम-मागध, वरदाम और प्रभास एवं चक्रवरतकि ३४ विजयमें तीन तीन तीर्थ होनासे १०२ तीर्थ है.
(७) श्रेणी-जम्बुद्विपमें श्रेणी १३६ है यथा वैताज्यगिरि २५ जोजनका धरतिसें उंचा है उन्ही पर्वतके उपर धरतिसें १० जोजन उपर जावे तब विद्याधरोंकी २ श्रेणि (१) दक्षिण श्रेणि जिस्में ५० नगर है (२) उत्तर श्रेणि जिस्में ६० नगर आते है उन्ही विद्याधरोंकी श्रेणिसे दश दश जोजन उंचा जावे तब अभियोग देवोंकी दो दो श्रेणि आति है (१) दक्षिण श्रेणि (२) उत्तर श्रेणि वहांपर व्यंतरदेवता पूर्व कीये हवे सुकृतके फल भोगवते है एवं ३४ वैताड्यपर च्यार च्यार श्रेणि है सर्व मीलके १३६ श्रेणि होती है इति.
(८) विजयद्वार-जम्बुद्विपमें ३४ विजय है जहाँपर चक्रवर्त के खंडको विजय करते है अर्थात् के खंडमें एक छत्रराज करते है.
महाविदेहक्षेत्र एक है परन्तु उन्हीमें ३२ विजय अलग अलग है जिस्में १६ विजय मेरुपर्वतसे पूर्वकी तर्फ है और १६ विजय मेरुपर्वतसे पश्चिमकि तर्फ है जो पूर्व महाविदेहमें १६
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विजय है उन्हीके विचमें सीता नाम नदी है वास्ते सीतानीके उत्तर तटपर ८ विजय और दक्षिण तटपर आठ विजय है इसी माफीक पश्चिम महाविदेहमें सीतोदा नदीके दोनों तटपर आठ पाठ विजय है एवं विदेहक्षेत्र में ३२ विजय है उन्हीका नाम
___ पूर्व विदेह सीतानदी. | पश्चिम विदेह सीतोदानदी...
उत्तर तट. | दक्षिण तट. | उत्तर तट. | दक्षिण तट. १ कच्छ विजय वच्छ विजय | पद्म विजय | विप्रा विजय २ सुकच्छ , सुवच्छ ,, सुपन , | सुविप्रा " ३ महाकच्छ , महावच्छ,, महापद्म ,
महाविप्रा , ४ कच्छवती ,, वच्छवती,,
पद्मावती ,,
विप्रावती , ५ आव्रता , रमा , | संखा , वग्गु " ६ मंगला ॥ रमक · , कुमुदा , सुवग्गु " ७ पुरकला , रमणीक , | निलीना , | गन्धीला , ८पुष्कलावती,, मंगलावती,, | शलीलावती ,, गन्धीलावती,
प्रत्यक विजय १६५६२ जोजन दो कलाकी दक्षिणोतरमें लम्बी है और २२१२।।। जोजन पूर्व पश्चिममें चोडी है तथा एक भरतक्षेत्र और दुसरा एरवतक्षेत्र एवं चक्रवरतोंकी ३४ विजय समझना। इन्ही चौतीस विजयमें ३४ दीर्घ वैताज्य
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चौतीस तमस गुफा ३४ खंडप्रभागुफा ३४ राजधानी ३४ नगरीयों ३४ कृतमाली देव ३४ नटमाली देव ३४ ऋषभकुट ३४ गंगानदी ३४ सिन्धुनदी यह सर्व पदार्थ सास्वता है शेष नाम देखो जम्बुद्विप प्रज्ञाप्ती से इति.
(E) द्रहद्वार - जम्बुद्विपके अन्दर शोला द्रह है यथा पद्मद्रह, महापद्मद्रह, तीगीच्छद्रह, केशरीद्रह, महापुडरिकद्रह, पुडरिकद्रह, यह छे द्रह छे वर्षधर पर्वतोंके उपर है और पांच द्र देवकरू युगल क्षेत्रके अन्दर है निषेडद्रह, देवकुरूद्रह, सूर्य, सूलसह, विद्युत्प्रभद्रह तथा पांच द्रह उत्तरकूरू युगल क्षेत्र के अन्दर है निलवन्तद्रह, उत्तरकुरूद्रह, चन्द्रद्रह एरवरत द्रह मालवन्तद्रह एवं सर्व १६ द्रह जम्बुद्विपके अन्दर है ।
( १ ) पद्मद्रह - चुलहेमवन्त पर्वत २०५२ - १२ पहूल है जिन्होंका मध्य भागमे पद्मद्रह है वह पूर्व पश्चम एक हजार जोजनको, लम्बो और उत्तर दक्षिण में ५०० जोजनको चोडो दश जोजनको उढो परिपूर्ण निर्मल पाणीसे भरा हूवा है वह अनेक कमलों कर अच्छा शोभनिक है । कमलोंका विवरण |
द्रके मध्य भागमे श्रीदेवीका वढा कमल हैं उन्ही के चौतर्फ भंडारी देवोंका १०८ कमल है, च्यार कमल मेहत्तरीक देवीयोंका है, सात कमल श्रीदेवीके अनिका के अधिपति देवोंका
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है, ४००० कमल श्रीदेवीके सामान्यक देवोंका है, १६००० कमल श्रीदेवीके आत्मरक्षक देवोंका है, श्रीदेवीके अभिंतर परिषदाका ८००० मध्यम परिषदाका १०००० बाह्य परिषदाका १२००० एवं ३०००० कमल परिषदा देवोंका है, इतना कमलों के बाहार फीरता तीन कोट है, जिस्मे अन्दरके कोटमे ३२००००० कमल । मध्य कोटमे ४०००००० कमल । बाहारके कोटमें ४८००००० कमल है । सर्व मीलके १२०५०१२० कमल-पुष्प है | कमलका परिमाण श्रीदेवीका कमल एक जोजनका पहला आदा जोजनका जाडादश जोजन जलमें उंढा है दो कोष जलसे उंचा है सर्व उंचा दश योजन साधिक है । उन्ही कमलका मूल बज्र रत्नमय है अरिष्टरत्नमय कन्द वैडूर्यरत्नमय बाह्यका पत्र है जम्बुनान्द सूवर्णमय अन्दरका पत्र है तपाये हुवे सूवर्णमय कमलका केशरा है नाना प्रकार मणिमय कमल कि पुष्करणा है सूवर्ण कि कीरणका है वह कीरणका दो कोष की पहली लम्बी है एक कोषकी जाडी है उन्ही कीरणका के उपरका भाग अति सुन्दर मनोहर है। उन्ही के अन्दर श्रीदेवीका भुवन है वह भुवन एक कोष लम्बा और आदा कोष का पडूला है और देशोन एक कोषका उंचा है। अनेक स्थभापुतलीयों चन्द्रक्रन्तादि कर शोभनिक है वह देवोंको भी देखने योग्य है। उन्ही भुवनके तीन दरवाजा दक्षिण दरवाजो पूर्वदिशा० उत्तरदिशा वह दरवाजा ५०० धनुष्यका उंचा है अढाइसो धनुषका पहला है
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तोरण ध्वज आदि चित्रोर्से सुन्दर है उन्ही भुवनके मध्य भागमें एक मणिपीट चौतरा है ५०० धनुष लम्बा २५० धनुष चोडा उन्ही चौतरा उपर एक देवशय्या है वह वर्णन करनेयोग है यावत् वहां पर श्रीदेवी अपने देवदेवी के साथ पूर्वउपार्जित शुभ फलोकों भोगवती हूइ आनन्दमें रेहती है। यह पद्मद्रहके बाहार एक पद्मवेदिका और एक वनखंड कर वीटा हुवा है शेषाधिकार नदीद्वार में लिखेंगे इसी माफीक सीखरीपर्वतपर पुंडरिकद्रह भी समझना परन्तु उन्हीके देवी लक्ष्मिदेवीका भुवन या कमल है इसी माफीक देवकूरु उत्तरकूरु युगल क्षेत्रो में १० द्रहका भी वर्णन समझना परन्तु उन्ही द्रहो के बाहार वेदिका दो दो है कारण उन्ही द्रहों में सीता और सीतोदानदी वेदिकाक भेदके हमें आति है और वेदिकाकों भेदके द्रहसें निकलती है वास्ते वेदिका दो दो है शेष अधिकार पद्मद्रह माफीक समझना । १२ ।
(१३) महापद्मद्रह - महा हेमवन्तपर्वत के उपर मध्यभागमें २००० जो० लम्बा और १००० जो० चोडा दश जो० उढा महापद्म नामका द्रह है उन्होंपर हूँ नामा देवीका कमल तथा भुवन है परन्तु कमलका मान दुगुणा समझना इसी माफीक रूपिपर्वतपर महापुंडरिकनामा द्रह है परन्तु उन्हीपर बुद्धिदेवीका कमल और भुवन हूँ देवी माफीक समझना । १४ ।
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(१५) तीगच्छद्रह-निषेडपर्वत उपर मध्यभागमें तीगछनामा द्रह ४००० जो लम्बो २००० जो० चोडो दश जोजनका उढा है कमल भुवन वहांपर घृतिदेवीका है हूँ देवीसे हुगुण परिमाणवाला समझना इसी माफीक निलवन्तपर्वतपर केशरीद्रह भी समझना परन्तु वह कीर्तीदेवीका कमलभुवन समझना तथा युगलक्षेत्रका दश द्रहके नामवाले देवता मालिक है सब देवदेवीयोंकी एक पल्योपमकि स्थिति है और राजधानी अन्य जम्बुद्विपमें समझना शोला द्रहका सर्वे कमल १६२८०१९२० कमल सर्व रत्नमय है इति. द्रह नाम• पर्वत उपर. लम्बा. | चोडा. | उढा. | देवी. पनद्रह चुलहेम० | १००० | ५०० | श्रीदेवी महापद्म ,, महाहेम० | २०००
लक्ष्मि तीगच्छ ,, | निषेड’ | ४००० | २००० | १० घृति केशरी , निलवन्त | ४००० | २००० | १० बुद्धि महापुंडरिक,, रूपि । २००० | १००० पुंडरिक ,, | सीखरी |
कीती दशद्रह , जमनीपर १००० | ५०० | १० देवता १०
. (१०) नदीद्वार-जम्बुद्विपमें १४५६०६० नदी है जिस्में चुलहेमवन्तपर्वत उपर पद्मद्रह है उन्ही द्रहसे तीन नदी नीकली
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है जिसमें प्रथम गंगानदी-पद्मद्रहके पूर्वदिशाका तोरणसे पूर्वदिशामें ५०० जोजन चुलहेमवन्तपर्वतके उपर गइ वह गंगा वृतनकुट है उन्हीसे टकर खाती हूइ ५२३ जो० ३ कला दक्षिणदिशा पर्वत उपर गइ वहांसे जेसे घटके मुखसे जौरसे पाणी न पडता हो या तुटे हुवे मौतीयोंका हारकी माफीक मगरमच्छके मुंहके आकार जिहासे साधिक १०० जो० उपरसे गंगाप्रभासानामा कुंडमें पाणी पडरहा है वह जिहा आदाजोजन की लम्बी और सवाछे जोजनकी पहली है विकसा हूवे मगरमच्छके मुहके संस्थान है सर्व बन रत्नमय अच्छी सुन्दर आकावाली है जिह्वा-नालिकाको केहते है। चुलहेमवन्तपर्वतपर पद्मद्रहसे गंगानदी गंगाप्रभासकुंडके अन्दर पडति है वाँह गंगाप्रभासकुंड ६० जोजन लम्बो पहूलो १० जो० उढो है जिस्की रुपामय उपकंठा बज्र पाषाणमय तलो है, सुखसे अन्दर जाशके वेसा विवद प्रकारके रत्नकरा बन्धा हुवा है सुवर्णका मध्यभाग, रुपाकी वेलुरेत पात्थरी हूइ है गंभीर शीतल जलसे भरा हुवा है अनेक कमलोंके पत्रसे आच्छादित है बहूतसे कमल उत्पल कमल पन० नलिनंकुमुद० शतपत्र० सहस्रपत्रदि कमल उन्ही गंगाप्रभासकुंडके तीन दरवाजा है पूर्वदिशा दक्षिणदिशा पश्चिमदिशा तीनों दरवाजाके आगे पगोतीया है उन्होंको उपरका भाग रिष्टरत्नमय बैड्यरत्नमय स्थांमा सूवर्ण रुपाका पाटीया लोहीताक्ष रत्नोसें पाटीयोंकि सन्धी जोडी हुइ है
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बजरत्नोंका खीला है मणिरत्नका आलम्बन (हाथ पकडनेका) पागोतीयेंके उपर प्रत्यक प्रत्यक तोरण है वह तोरण अनेक मणि मोक्ताफलहार आदि अनेक भूषण तथा चित्र कर सुन्दर है उन्ही गंगाप्रभासकुंडके मध्यभागमें एक गंगाद्विपनामका द्विपा है । वह आठ जोजन लम्बा पहला है दो कोश पाणिसे उंचा है। सर्व बज्र रत्नमय अच्छो सुन्दर है। उन्ही द्विपका मध्यभाग पांच प्रकारके मणिसे मृदु स्पर्शवाला है उन्हीके मध्यभागमें गंगादेवीका एक भुवन है वह एक कोषका लम्बो आदा कोशका पहला देशोना एक कोशका उंचा है अनेक स्थांभापुतलीयों मौक्ताफलकी मालावों यावत् श्रीदेवीना भुवन माफीक मनोहर है वहां गंगादेवी सपरिवार पूर्व किये हुवे सुकृतके फल भोगवती हूइ विचरे है कुंडका या द्विपका और देवीका नाम सास्वता है अगर वह देवी चवतो दुसरी देवी उत्पन्न हूवे परन्तु नाम तो वहां ही गंगादेवी रहेता है। ___ गंगाप्रभासकुंडका दक्षिणके दरवाजेसें गंगानदी निकली हूइ उत्तर भरतक्षेत्रसे अन्य (छोटी) ७००० नदीयोंको साथ लेती हुइ वैताड्यपर्वतकी खंडप्रभागुफाके निचेसे दक्षिणभरतमें आती हूइ वहांसे ७००० नदीयों अर्थात् सर्व १४००० नदीयोंको साथमे लेके जम्बुद्विपकी जगतिको भेदती हूइ पूर्वका लवणसमुद्रमें जा-मीली है इसी माफीक सिंधुनामा नदी भी
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चुलहेमवन्तपर्वतका पछद्रहके पश्चिम तर्फसे निकली सिंधुप्रभाकुंडमें होके पूर्ववत् १४००० नदीयोंका परिवारसे पश्चिमके लवणसमुद्रमें परन्तु वहां तमसप्रभागुफाके निचासे तथा कुंडका नाम सिंधुकुंड तथा सिंधुदेवीका भुवन समझना एवं दोनों नदीयोंका परिवार २८००० नदीयों है। वह पर्वतपर निकलती आदा जोजनकि उंडी और ६। जोजनकी विस्तारवाली थी पीछे क्रमसर वढते वढते जहां लवणसमुद्रमें मीली है वहांपर पांच गाउकी उढी और ६२'। जो विस्तारवाली हुइ श्री. ___ चुलहेमवन्तपर्वतके पद्मद्रहके उत्तरके तोरणसे रोहीता नामकी नदी नीकलके रोहीतप्रभासनामा कुंडमें पडती है यह नदी हेमवय युगलक्षेत्रमें गइ है अधिकार गंगानदीके माफीक परन्तु नीकलती एक गाउकी उढी १२॥ जोजनका विस्तारवाली है तथा रोहीतप्रभासकुंडका विस्तार दुगुण १२० जोजनका समझना जहां लवणसमुद्र पासे १० गाउकी उढी १२५ जोजन विस्तारवाली है इसी माफीक महाहेमवन्तपर्वतपर महा पद्मद्रहसे रोहीतंसानदी हेमवय युगलक्षेत्रमें आइ है परिमाण सर्व रोहीता० माफीक इन्ही दोनों नदीयोंके २८००० नदीयोंका परिवार समझना । एवं ५६०००
महाहेमवन्तपर्वतका महापद्मद्रहका उत्तरका तोरणसे हरिक्रन्तानदी हरिवास युगलक्षेत्रमें गइ है वह निकलतों २
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गाउ उढी २५ जोजन विस्तारवाली हरिक्रन्तकुंड २४० जोजनको परिवार ५६००० शेष अधिकार गंगानदी माफीक समझना और निषेडपर्वतपर तीगच्छद्रहसे हरिसलीलानदी हरिवास युगलक्षेत्रमें आई है परिमाणादि सर्व हरिकन्तवत् परन्तु कुंडका नाम हरिसलीला है.
निषेड पर्वतपर तीगच्छद्रहके उत्तरके तोरण से सीतानामकी नदी एक जोजनकी उढी ५० विस्तारवाली सीताकुंड ४८० जोजनका है उन्ही के अन्दर आती हूइ देवकूरू युगल क्षेत्रका दो विभाग करती हूइ पांच द्रहको भेदती हूइ देवकुरुसे ८४००० नदीयों साथ लेती हूइ मेरुपर्वतके पास होके भद्रशालवनका दो विभाग करती हूइ पश्चिम महाविदहका मध्यभागमें चलती हूइ चक्रवरतकी १६ विजयके प्रत्यक विजयकि गंगा और सिंधुनदीयों सपरिवार अर्थात् चौदा चौदा हजार नदीयोंका परिवारसे गंगासिंधु नदीयों सीतानदीमें मीलती हूइ सर्व ५३२००० नदीयोंका परिवारसे पश्चिममें मुहकर लवणसमुद्र जा-मीली है।
एवं निलवन्त पर्वतपर केशरीद्रहसें सीतोदानदी उत्तरकुरु युगल क्षेत्र के पूर्ववत् ८४००० नदीयोंसे पूर्व महाविदहमें पूर्ववत् कुल ५३२००० नदीयोंके साथमें पूर्व मुहकर लवण समुद्र में जा-मीली है सीतावत् जेसे दक्षिणकी तर्फ से केहते आये है इसी माफीक उत्तरकी तर्फ भी समझना ।
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निलवन्तपर्वतके केशरीद्रहके उत्तरके तोरणसे नरकन्ता और रुपीपर्वतके महापुंडरिकद्रहके दक्षिणका तोरणसें नारीकन्ता यह दोनों नदीयों रम्यक्वास युगलक्षेत्रमें कुंड और देवीका नाम नदी माफीक विस्तार परिवार देखो यंत्रसें. :
रुपीपर्वतपर महापुंडरिकद्रहके उत्तरके तोरणसे रुपकुल नदी और सिखरीपर्वतपर पुंडरिकद्रहका दक्षिणका तोरणसे सूवर्णकुलानदी यह दोनों नदी एरणवय युगलक्षेत्रमें गइ है परिवारादि देखो यंत्रसे.
सिखरीपर्वतपर पुंडरिकद्रहके पूर्व और पश्चिम तोरणसे रता रक्तवति यह दो नदीयों एरवरतक्षेत्रमें गंगा सिन्धुवत् चौदा चौदा हजार नदीयोंके परिवारसे लवणसमुद्रमें प्रवेश कीया है नदीके माफीक कुंडका या देवीयोंका नाम समझना कुंड वा भुवनका अधिकार गंगादेवी माफीक है.
कोष्टक संकेत सूचिना:
नि० उ०-निकलतो उढी. प्र० उ०-समुद्र में प्रवेश होतो उढी. नि० वि०-निकलतो विस्तार.प्र० उ०-समुद्र में प्रवेश होतो विस्तार.
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"
महाहम०
महापा
"
rammarur pudra
नं. नदी..
गंगनदी सिन्धु " ३ | रोहिता "
रोहितंसा , | हरिकन्ता , हरिशलीला सीता "
सीतोदा , 8 | नरकन्ता "
नारिकन्ता ११) रुपकुला
सूवर्णकुला १३. रक्ता १४ रक्तवन्ती ७८ विदेहकी ६४,,
पर्वतसे. | द्रहसे. नि० उ०नि०वि०प्र० उ.प्र. वि. परिवार. चुलहेम पद्म । गाउ६। जो०१जो०६२॥ १४०००
जोजन १४००० ११ गाउ १२॥जो २॥जो. १२५/२८०००
| "जोजन २८००० राउ २५ जो.५ जो० २५०/५६०००
जोजन ५६००० ४ गाउ:५: जो.१०जो. ५०० ५३२०००
" जोजन ५३२००० २ गाउ २५ जो.५ जो०/२५०५६०००
जोजन | ५६००० १ गाउ १२ जो जो. १२५.२८०००
जन २८००० ॥गाउ६। जो जो०६२॥ १४०००
" जोजन १४००० धरतिपर
वन्त
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एवं सर्व मीली १४५६००० नदीयों परिवारकी हुइ तथा यंत्रमें १४-६४ मीलके ७८ मूल नदीयों हूइ.
महाविदेहक्षेत्रके च्यार विभागमें ३२ चक्रवरतकि विजय है जिस्का २८ अन्तरोंमें १६ तो वस्कारपर्वत पहले लिख आये है और १२ अन्तरमें बारह अन्तर नदी है यथागृहवन्ति, द्रहवन्ति, पंकवन्ति, तंतजला; मंतजला, उगमजला, क्षीरोदा, सिंहसोता, अन्तोबहनि, उपिमालनि, फेनमालनि, गंभीरमालनि य्ह १२ नदीयों प्रत्यक नदी १२५ जोजनकी चोडी है अढाइ जो० उढी है १६५९२ जोजन और दो कलाकि लम्बी है एवं सर्व मीलके १४५६०६० नदीयों जम्बुद्विपमें है यह थोकडा सामान्य बुद्धिवाला सुखपूर्वक समझ शके वास्ते संक्षेपसें ही लिखा गया है विशेष विस्तारकि इच्छावालोंके लिये गुरुमहाराजकी विनयभक्ति कर जम्युद्विप प्रज्ञाप्तीसूत्र श्रवण करना चाहिये इत्यलम् ।
॥ सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ॥
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श्री रत्नप्रमाकर शानपुष्पमाला पुष्प नं. ४६ शीघ्रबोध या थोकडा प्रबंध
भाग १४ वा.
-kokथोकडा नं. १
सूत्र श्री जीवाभिगमसे
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(लवणसमुद्राधिकार ) लवणसमुद्र-जम्बुद्विप एक लक्ष जोजनका है उन्हीके चौतर्फ बलीयाकार दो लक्ष जोजन विस्तारवाला लवणसमुद्र है जिनहोके अन्दर कि प्रद्धि जम्बुद्विपके परद्धि माफीक है मोर बाहार कि परद्धि १५८११३६ जोजन साधिक है लवणसमुद्रका पाणीका उढास जम्बुद्विप कि जगति (कोट) से ६५ जोजन लवणसमुद्रमें जावे तव एक जोजन उढा है पचाणवेसो ६५०० जोजन जगतिसे लवणसमुद्रमे जावे तब १०० जो० उढा तथा ६५००० जोजन जावे तब १००० जो० उढो श्रावे इसीमाफीक घातकि खण्डसे भि६५००० जो० लवणसमुद्रमे श्रावे तो १००० जो० उढो आवे दोनों तर्फ से ६५०००६५००० जो आनासे मध्यमे १०००० जोजन लवणसमुद्र
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१००० जोजन उठा है अर्थात् जम्बुद्विप कि जगति से चौतर्फ पचणवे पचाणवे हजार जोजन जानेपर चौतर्फ दश दश हजार जोजन लवणसमुद्र एक हजार जोजनका उढ़ा है वहासे पचणवे पचणावे हजार जोजन जानेपर घातक खंड द्विप आता है। लवणसमुद्रके च्यारों दिशामे च्यार दरवाजा है वह जम्बुद्विप माफीक समझना ।
लवणसमुद्रके मध्यभाग जो १०००० जोजनका गोल चक्राकार १००० जोजनके उदस पाणी है उन्ही लवणसमुद्रके मध्यभागमे च्यार पाताल कलशा है (१) पूर्वदिशामे वडवा मुख पातालकलशो (२) दक्षिणदिशा मे केतुनामा पाताकलशो (३) पश्चिमदिशामे जेपु (४) उत्तरदिशामें इश्वर पाताल कलशो | यह च्यारो कलसा लच लक्ष जोजन परिमाण लम्बा है मध्यभागमे लक्ष जोजन विस्तारवाला है कलशोका अधोभाग तथा उपरका मुख दश दश हजार जोजनका है उपर कि ठीकरी एक हजार जोजन कि जाडी है कलशोंका मुखपर हजार हजार जोजन लवण समुद्रका पाणी है । एकेक कलशाके बिचमे अन्तर २१६२६५ जोजनका है उन्ही प्रत्यक अन्तरामे १६२१ छोटे कलशा है च्यारो अन्तरोंमे ७८८४ छोटे कलशा है कारण एकेक अन्तरामे कलशोंकी नव नव श्रेणि है उन्ही श्रेणिमे कलशा २१५-२१६-२१७२१८-२१६-२२०२२१-२२२-२२३ एवं नव श्रेणिका १६७१ कलसा है च्यारो
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=
अन्तरा ७८८४ कलशा होता है वह सर्व छोटा कलशा एक हजार जोजनका लम्बा और मध्यभाग मे १००० विस्तार तथा
धो भाग या मुख सो सो जोजनका और दश जोजनकी • उपर ठीकरी है एवं सर्व ७८८८ कलशा है । उन्ही कलशोके तीन तीन भाग करना जिस्मे निचेके ती भागमे वायु है मध्यके ती भागमे वायु और पाणी है उपरके ती भागमे पाणी है । जो निचेका भागमे वायु है वह वैक्रय शरीर करे उन्ही समय उपरका पाणी उच्छलने लग जात है वह प्रत्यदिनमें दो बखत पाणी उच्छा ला देता है.
तब लवण समुद्रकि वेल (दगमाला) का पाणी उच्छलता है परन्तु तीर्थंकर चक्रवरतादि पुन्यवानका प्रभावसे एक बुंद भी निचि नहीं गिरती है अथवा यह लोकस्थिति है साखता भाव वर्तते है और च्यार पातालकलशोंका अधिपति च्यार देवता है कालदेव, महाकालदेव वेलवदेव, प्रभंजनदेव एक पोपaकि स्थिति तथा ७८८४ कलशोंका देवतोंकी आधा पयोकि स्थिति है । इति पातालकलशा ।
लवणसमुद्रमें पाणिका दगमाला १०००० जो० चोडा विस्तारवाला १००० जो ० उढा है १६००० जो० का उंचा है सर्व १७००० जो० का है । जब पाणि उच्छलता है तब दो कोश, उंची सीखा था- जाती है।
लवणसमुद्रके मध्यभाग अर्थात् दोनों तर्फ ६५००० ।
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६५.०० जोजन छोडदेनेपर मध्यभागमें १०००० जोजन लवणसमुद्रका पाणी उर्ध्व भीतकि माफीक :६००० जोजन उंचा चला गया है और १००० जो निचा उढा है उन्ही पाणीका जम्बुद्विपकि तर्फसे हाथमें चाटु लिये हुवे ४२००० देवता और दगमालके उपर ६०००० देवता तथा घातकि खण्डकि तर्फसे ७२००० देवता पाणीको धवा रहा है। एवं १७४००० देवता पाणीको धबा रहा है। इन्ही देवतोंकों वेलन्धर देव भी कहा जाता है कारण यह देव पाणीकी वेलकों धरनेवाला है तथा इन्ही दगमालाकों गोतीत्थ भी कहते है । ____उक्त वेलन्धर देवतोंका आवासपर्वत-जम्बुद्विपकी जगतिसे ४२००० जोजन च्यारो दिश लवणसमुद्रमें जावें तब पूर्वदिशमें गोथुम-दक्षिणमें दगाभास-पश्चिममें संख-उत्तरमें दगसीमा एवं च्यार पर्वत च्यारों दिशोमें है इशानकोनमे ककेटिक-अग्निकोनमे विद्युत्प्रभा-नैऋतकोनमे केलाश-वायुकोनमे अरूणप्रभ एवं च्यार पर्वत च्यारों कोनोंमे है एवं ८ पर्वत उचा १७२१ जोजन मूल पडूला १०२२ जोजन मध्यमे ७२३ जो.
ओर सीखरपर ४२४ जोजन विस्तारवाला है एकेक पर्वत के अन्तरो ७२११४६ है रत्न और कनकमय सर्व पर्वत है च्यार दिशाका च्यारों पर्वत वेलन्धर देवोंका है गोथभदेव, शिवदेव, संखदेव, मणोशीलदेव, इन्होंकी एक पल्यापमकि स्थिति है और विदिशाके पर्वतके नामका देव पन्योपम कि
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स्थितिवाले अनुवेलन्धर देवोंका पर्वत है इन्ही आठों पर्वतोपर वेलन्धरानुवेलन्धर नागराजा देवोंका आवास प्रासाद है सर्व रत्नमय देवतोंके योग्य वह प्रासाद ६२॥ जो. उचा ३१। जो. का चोडा अनेक स्थभ कर अच्छा सुन्दर है । इति ।
लववसमुद्रमे छपनान्तरद्विप है उन्हों के अन्दर पल्योपम के असंख्यात भागके आयुष्यवाला ओर ८०० धनुष्याक प्रावग्गहानावाले युगल मनुष्य रहेते है जम्बुद्विपके चुलहेमवन्त ओर सीखरी पर्वत के निश्राय (सामिपसे) लवणसमुद्रमें दोडोके आकार टापुवों कि लेन गइ है जैसे जम्बुद्विप कि जगतिसे ३०० जोजन लवणसमुद्रमें जावे तब पेहला द्विपा ३०० जोजनका विस्तारवाला आता है उन्ही द्विपासे ४०० जोजन तथा जगतिसे भि ४०० जो० जानेपरे दुसरा द्विपा ४०० जोजनके विस्तारवाला आता है। उन्ही द्विपासे ५०० जोजन तथा जगतिसे भी ५०० जोजन जानेपर तीसरा द्विपा ५०० जो० के विस्तारवाला आता है उन्ही द्विपासे या जगतिसे ६०० जोजन जानेपर चोथो ६०० जो विस्तारवाला द्विप
आता है। उन्ही द्विपसे या जगतिसे ७०० जो० जानेपर ७०० जो० विस्तारवाला पाचवा द्विप आता है उन्ही द्विपसे या जगतिसे ८०० जो० जानेपर ८०० जो० विस्तारवाला छठा द्विप आते है उन्ही द्विपसे या जगतिसे' १०० जो० जानेपर १०० जो० विस्तारवाला सातवा द्विप आता है सर्व लवणस
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मुद्रके ८४०० जोजन क्षेत्रमे युगल मनुष्योंका द्विपा है यह एक लेन (दाड ) पर ७ द्विप है इसी माफीक पूर्व लवणसमुद्रकी ४ दाडो ओर पश्चिम लवणसमुद्रकी ४ दाडो एवं आठ दाडो पर ५६ द्विपा है उन्हो मे रहेनेवाला युगल मनुष्योंका मनोर्वच्छीत सुख दश प्रकारका कल्पवृक्ष पूर्ण करते है इति । :
लवणसमुद्रके अधिष्टायक लवणस्वस्थिक देव का गोतम द्विप नामका द्विपा-जम्बुद्विपकि जगतिसे पंश्चिमदिशा १२००० जोजन लवणसमुद्रमे जावे तब १२००० जोजनके विस्तारवालों गोतमद्विपा आता है वेदिका वनखंड कर शोभनिक है उन्ही गोतमद्विपापर स्वस्थिकदेवका प्रासाद है वर्णन करने योग्य है वहापर देव निवास करते है इति ।
सूर्यका द्विपा-जम्बुद्विपका दो सुर्य ओर अन्दरका लवणसमुद्रका दो सूर्य एवं च्यार सूर्यका च्यार द्विपा गोतम द्विपा के च्यारो तर्फ है अर्थात् सूर्यके च्यारो द्विपोंसे वीटा हवा मध्य भागमे गोतमद्विपा है।
चंद्राद्विप-जम्बुद्विपकि जगतिसे पूर्वकि तर्फ लवणसमुद्रमे १२००० जोजन जानेपर दो जम्बुद्विपका चन्द्र दो अन्दरके लवणसमुद्रका चन्द्र एवं च्यारों चन्द्रका च्यारों द्विप है सूर्य और चन्द्रका द्विपा १२००० वाराह २ हजार जोजन विस्तारवाला है उन्ही द्विपोपर अपना अपना प्रासाद है वहाँपर देवता आते जाते निवास करते है ।
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धात कि खंड कि तर्फससे लवणसमुद्रमे १२००० जोजन आनेपर लवणसमुद्रके वेलके बाहारका पूर्वमे दो चन्द्र द्विपा और पश्चिममे दो सूर्य द्विपा बारह बारह हजार जोजनके विस्तारवाला है इन्ही १२ द्विपों उपर देवतोंका भुवन-प्रासाद है वह प्रत्यक प्रासाद ६२॥ जोजनका उचा ३१॥ जोजानके विस्तारवाला अनेक स्थाभादिसे अच्छा शोभनिक है लवणसमुद्रके चौतर्फ पदम्बर वेदिका है विजयादि च्यार दरवाजा है दरवाजे दरवाजे ३६५२८० का अन्तर है लवणसमुद्रमे ५०० जो० का मच्छ भी है।
इति लवणसमुद्राधिकार । सेवंभंते सेवभंते तमेव सच्चम् ॥
* थोकडा नम्बर २.
. सूत्र श्री जीवाभिगम प्र. ४.
~* *
(घातकिखंड द्विपादि) लवणसमुद्रके चौतर्फ बलीयाके आकार च्यार लक्ष जोजन विस्तारवाला घातकिखंड नामका द्विप है वह च्यार लग
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जोजनका पहला है ४११०६६१ जोजन साधिक परद्धि है उन्ही घातकिखंड द्विपमे उत्तर दक्षिण लम्बा च्यार लब जोजन । पूर्व पश्चिम एक हजार जोजनका पहला मूलमें एक हजार जोजन चोडा यावत् सीखरपर पांचसो जोजन परिमाणवाले दो इक्षुकार पर्वत प्राजानेसे घातकिखंडके दो विभाग हो गये है (१) पूर्व घातकिखंड (२) पश्चिम घातकिखंड इन्ही दोनों विभागके अन्दर दो मेरुपर्वत है वह मेरुपर्वत एक हजार जोजन धरतीमें उढा और ८४००० जोजन धरतीसे उंचा एवं ८५००० जोजनका प्रत्यक मेरु है । वह मेरुपर्वत च्यार वन करके अलंकृत है दुसरे पर्वत या वासा आदि सर्व जम्बुद्धिपसे दुगुणा समझना परन्तु क्षेत्रका लम्बा चोडा अधिक है और घातकिखंड द्विपमें १२ चन्द्र और १२ सूर्य सपरिवार है शेषाधिकार अढाइ द्विपका यंत्रमें लिखा जावेगा इति ।
घातकिखंड द्विपके चौतर्फ गोल बलीयाकार ८२०००० जोजनके विस्तारवाला कालोदद्धि नामका समुद्र है वह चौतर्फ आठ लक्ष जोजनका पहूला है ६१७०६०५ जोजन साधिक परद्धि है एक पद्माम्बर वेदिका एक वनखंड च्यार दरवाजा
और दरवाजे दरवाजे अन्तर २२६२६४६ जो है वह समुद्र हजार जोजनका उढा है अच्छा जलसे परिपूर्ण भरा हवा ।
कालोदद्धि समुद्रके चौतर्फ गोल बलीयाकार पुष्कर नामका द्विप है वह १६००००० जोजनका चौतर्फ विस्तार
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वाला है १६२६३८६४ जोजन साधिक परद्धि है एक वेदिका एक वनखंड च्यार दरवाजा है वर्णन पूर्ववत् इन्ही पुष्कर द्विपके मध्यभागमें मानुषोत्र नामका पर्वत बेठा हूवा सिंहके प्राकारके है वह १७२१ जोजनका धरतीसे उंचा ४३' धरतीमें १०२२ मूल पहूला ४२४ मध्य पहला ७२३ उपरसे पहला सर्व तपाये हूवा सूवर्णमें है वह पर्वत पुष्करद्विपका दो विभाग करदिया है ( १ ) अभिंतर पुष्कर्द्ध (२) बाह्य पुष्कर्द्ध गिसे अभितरका पुष्कर्द्ध द्विपमें मनुष्य निवास करते है अर्थात् मानुषोत्रपर्वतके अन्दर जो पुष्क क्षेत्र है उन्हीके अन्दर मनुष्य निवास करते है । बाहार केवलतीर्यच है ।
पुष्क क्षेत्रके मध्यभाग दक्षिणोत्तर दिशा आठ मार लक्ष जोजनका दो इक्षुकारपर्वत आठ आठ लक्ष जो० लम्बा एक हजार जोजनका. उंचा २५० जो० धरतीमें मूल हजार जो० का विस्तार सीखरपर पांचसो जोजनका विस्तारवाला दोनों पर्वत पुष्कार्द्ध द्विपका दो विभाग करदिया है [१] पूर्व पुष्काई [२] पश्चिम पुष्कार्द्ध । दोनों विभागमें दो मेरु यावत् घातकिखंड द्विपके माफीक सर्व पदार्थ समझना परन्तु क्षेत्रका परिमाणादि विस्तार क्षेत्र माफीक अधिक है।
जम्बुद्विप एक घातकिखंड द्विप एक पुष्काई आदा द्विप एवं अढाइद्विप और लवणसमुद्र एक कालोदद्धि एक यह दो
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६२
समुद्र अर्थात् अढाइद्विप दोय समुद्रको समय क्षेत्र भी कहाजाते. है कारन सिद्ध होता है सो इन्ही समय क्षेत्रसे ही होता है इन्ही अढाइद्विप के क्षेत्रका परिमाण:
१ जम्बुद्विप पूर्व पश्चिम मीलके १ लक्ष जो०
४ लक्ष जो०
८ लक्ष जो०
१६ लक्ष जो०
१६ लक्ष जो०
२ लवण समुद्र ” 19
३ घातकिखंड
15 "
४ कालोदद्धिसमु॰,”,” ५ पुष्कर्द्धद्विप
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गजदन्ता
विजया
मोटीनदी
१
६
१६
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३२
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15
एवं मनुष्यलोक - समयक्षेत्र - अढाइद्विप ४५ लक्ष जोजनका है जिन्होकि परद्धि १४२३०२४६ जोजन साधिक है अाद्विपमें जो मौख्य पदार्थ है सो यंत्रद्वार बतलादिया जाता है।
1)
पदार्थ. | (१) जम्बुद्विपमे. ! (१) घातकिखंड. | ० || पुष्कर्द्ध.
मेरूपर्वत
वर्षघर पर्वत
वस्कार पर्वत
17
१२
३२
८
६४
१८०
२
१२
३२
པ
६४
१८०
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ce
A
is
तीर्थ
२०४
श्रेणी
परिवारनदी
२६१२००० २६१२०००
३२ बैताडपर्वत
३४ वटवैताड वासा-क्षेत्र ७-१० १४-२०
१४-२० चन्द्रसपरिवार
७२ सूर्यसपरिवार
७२ १०२ २०४ ६८ १३६ १३६
१३६ १३६ कुलपर्वत
५४० ५४० कुलकुंट
१०५० १०५० कुलसिद्धायतन ११ १८२ । १८२ ____मानोषोत्र पर्वतके बाहार जो आठलक्ष परिमाण पुष्कर्द्ध क्षेत्र हे वह मनुष्य सुन्य है अन्दरका पुष्कर्द्ध क्षेत्र कि नदीयोंका पाणी मानोषोत्र पर्वतकों भेदके बाहारका पुष्कर्द्धमे जाता है।
आगेके द्विपसमुद्रका नाम मात्र लिखा जाते है सर्व द्विपसमुद्रोंके च्यार च्यार दरवाजा है जम्बुद्विपके जगति है
गुफा
२६६
५२५
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शेष द्विपसमुद्रोंके वेदिका ओर वनखंड है परिमाण तथा चन्द्र सूर्य यंत्रमे लिखते है जीतना चन्द्र है इतना ही सूर्य है एकेक चन्द्र सूर्यका परिवारमे २८ नक्षत्र ८८ ग्रह ६६६७५ कोडा कोड तारोंका परिवार समझ लेना।
अढाइद्विपके बाहार जोतीषीयों की चाल नही है मनुष्यका जन्म मृत्यु नही गाज विज वर्षाद बादर अग्नि भी नही है।
नाम
चन्द्रसूर्य
विस्तारपणो १ लक्ष जोजन
-
२"
"
ge 1
,
,
2m 1 c .
जम्बुद्विप लवणसमुद्र धातकिखंड कालोदद्धिसमुद्र पुष्करद्विप पुष्करसमुद्र वारूणि द्विप
" समुद्र क्षीर द्विप " समुद्र
१४४
४६२
१२८ २५६
१६८० ५७३६ १६५८४ ६६८६४
५१२
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६५
वृत दिप
१०२४ , २०४८ ,, ४०६६ ,, ८१६२,
, , , ,
२८८२८८ ७७६४२४ २६६११२० ६०८५६३२
इसु दिप " समुद्र
इति सात द्विप सात समुद्र । सेवंभंते सेवंभंते तमेव सञ्चम् ॥
थोकडा नम्बर ३
(सूत्र श्री जीवाभिगम प्र०३)
( नन्दीश्वर द्विप ) इतुसमुद्रके चौतर्फ गोल वलीयाके आकारे नन्दीश्वर द्विप है वह १६३८४००००० जोजनके विस्तारवाला है साधिक तीनगुण परद्धि है। नन्दीश्वर द्विपका भूमिविभाग अच्छा सुन्दर देवोंका मनको हरनेवाला है द्विपके मध्यभागमें च्यार पर्वत श्यामवर्णका अञ्जनगिरि पर्वत है पूर्वदिशामें पूर्वाञ्जगिरि। दक्षिणदिशामें दक्षिणाञ्जनगिरि । पश्चिमदिशामें पश्चिमाञ्जन
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६६
m
गिरि और उत्तरदिशामें उत्तराञ्जनगिरि है प्रत्येक भञ्जनगिरि १००० जो० धरतिमें ८४००० जो० धरतिसे उंचा है मूलमें साधिक दश हजार जो० धरतिपर दश हजार जोजन और सीखरपर एक हजार जोजनके विस्तारवाला है । साधिक तीनगुणी पद्धि है सर्व अरिष्ट ( श्याम ) रत्नमय है | प्रत्यक गिरिके सीखरका तला शममादलका तला माफीक साफ है | सीखरके तलाका मध्यभाग में एक सिद्धातन अर्थात् जिनमन्दिर है वह १०० जो० लम्बो ५० जो० चोडो ७२ जो० उंचा अच्छा सुन्दर रमणिय है उन्ही जिनमन्दिरके च्यारो दिशामें च्यार दरवाजा है वह १६ जो० उंचा ८ जो० पहूला च्यारो दिशा के दरवाजो के आगे च्यार मुखमंडप है वह १०० जो० लम्बा ५० जो० चोडा १६ जोजन साधिक उंचा है । च्यार दरवाजा १६ जो० उंचा ८ जो० चोडा. उन्ही मुखमंडप के आगे प्रेक्षापधरमंडप है वह १०० जो० लम्बा ५० जो० चोडा साधिक १६ जोजन उंचा है उन्हीके अन्दर जोजन विस्तारवाली मणिपिठ चौतरो है ( ठाणायंगवृत्ति) सिंहसन देवदुषवस्त्र तथा वज्रका अंकुश उन्हीके अन्दर घटमान घटमान मौक्ताफलकी मालावों फुदाकर शोभनिक है । उन्ही प्रेक्षपधर मंडपके आगे एक स्थुभ (छत्री) वह १६ जोजन साधिक विस्तारवाली है उन्हीके च्यारो दिशामें च्यार मणिपिठ चौतरा है उन्होंके उपर च्यार
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६७
बिन प्रतिमापद्मासन शान्तमुद्रा स्थुभ सन्मुख मुख किया हुवे विराजमान है । उन्हि स्थुमसे आगे एक मणिपिठ चौतरो है वह आठ जोजनके विस्तारवाला उन्होंके उपर चैत्य वृक्ष आठ जोजनको उचो है वर्णन करने योग्य है उन्होंके आगे ओर भी आठ जोजनका मणिपिठ चौतारा है उन्होके उपर महेन्द्र ध्वज ६४ जोजनकी उची ओर भी छोटी छोटी विजय विजयन्ति ध्वज है उन्होंसे आगे नन्दा पुष्करणी वावी १०० जो० लम्बी ५० जो० चोडी १० जो० उडी अनेक कमल पागोतीया तौरण चमर छत्र ध्वज कर शोभनिक है। उन्ही वावी के च्यारो दिशा च्यार वनखंड है यह मूल सिद्धायतनके एक दिशा के पदार्थ कहा है एसे ही च्यारो दिशीमे समझना तथा पूर्व दिशाके वनखंडमे १६००० गोल आसन १६००० चौखुणा आसन पडा हुवा है एवं पश्चिममे और दक्षिणोत्तर दिशामे आठ आठ हजार है वह देवतोंके आने जाने वखत वह बेठनेकों काम आते है। __ मूल जिनमन्दिरके मध्य भागमे एक मणिपिठ चातरो १६ जोजन लम्बो पहलो है उन्ही के उपर एक देवच्छंदो १६ जोजन लम्बो पहूलो साधिक शोला जोजन उचो है अच्छो सुन्दर सर्व रत्नमय है उन्ही मूल गुबारामे १०८ जिनप्रतिमा पद्मासन शान्तमुद्रा विराजमान है। एवं प्रत्यक जिनमन्दिरे
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१८
१२४ जिनप्रतिमावों है जेसे यह एक अञ्जन गिरिपर एक मन्दिर कहा है इसी माफीक च्यारो अञ्जनगिरिपर च्यार मन्दिर समझना सर्व पदार्थ रत्नमय वढा ही मनोहर है।
प्रत्यक अंजनगिरिपर्वत के च्यारों दिशामे च्यार च्यार वावी है वह वावी एक लक्ष जोजन लम्बी पचास हजार जो० चोडी ओर हजार जोजन कि उडी है पागोतीया तोरणादिसे सुशोभनिक है उन्ही वावी के अन्दर एकेक दद्धिमुख पर्वत है वह पर्वत १००० जो० उडा है ६४००० उचा है दश हजार जोजन मूलसे ले के सीखरतक पहूला विस्तारवाला है पलक संस्थान है । एवं च्यार अञ्जनगिरिके चौतर्फ १६ यात्रीयों है उन्ही के अन्दर १६ दधिमुखापर्वत और १६ पर्वतोंके उपर १६ जिनमंदिर है उन्होका वर्णन अञ्जनगिरि पर्वतोंके उपरका मन्दिर माफीक समझना.
___स्थानायांग वृतिमें प्रत्यक वावी के अन्तरे में दोदो कनकगिार है एवं १६ वावीयों के अन्तरामे ३२ कनकगिरि अर्थात् सूवर्णमय १८० : जोजनका उचा पलंक संस्थान पर्वत है प्रत्य कनकगिरि के उपर एकेक जिनमन्दिर अञ्जनगिरि माफिक है एवं च्यार अञ्जनगिरि १६ दद्विमुखा ३२ कनकगिरि मीलके ५२ पर्वतोंके उपर बावन जिनमन्दिर है ।
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६६
च्यार अञ्जनगिरि के अन्तरामे च्यार रतिगीरापर्वत है वह अढाइसो जोजन धरतिमे १००० जों० उचा सर्व स्थान हजार जोजन पहूला पलीक संस्थान है प्रत्यक रतीगीरापर्वत के च्यारों दिशामें च्यार च्यार राजधानीयों एवं १६ राजधानी है वह प्रत्यक राजधानी १००००० जो० के विस्तारवाली है ३१६२२७ । ३ । १२८ । १३ - १-१-१-६ भारी परद्धि है यावत् राजधानीका वर्णन माफीक समझना जिस्मे इशान और नैऋत्यकोन रतीगीरा के ८ राजधानीयों तो शक्रेन्द्र के ग्रमषियोंकि है ओर अनि ओर वायुकोन रतीगीरा के ८ राजधानीयों इशानेन्द्र के ग्रमेहपियोंकी है नन्दीश्वर द्विप आती है तब वह पर ठेरती है व नंदीश्वर द्विपका सर्व पदार्थ
कहते है ।
४
गिरिपर्वत अञ्जनरत्नमय. १६ दधिमुख पर्वत करत्नमय. ३२ कनकगिरिपर्वत कनकमय. ५२ जिनमन्दिर सर्वं रत्नोंमय. ६६५६ बावन मन्दिरों में जिन प्रतिमावें. २०८ मुखमंडप ५२ मन्दिर के दरवाजेपर.
२०८ प्रेचप घरमंडप
२०८ स्थुभ.
11
ܕܕ
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१०० ८१६ जिनप्रतिमावों स्थुभके चौतर्फ. २०८ चैत्यवृक्ष. २०८ महेन्द्रध्वज. २०८ पुष्करणि वावीयों. १६ वावीयों अञ्जनगिरीके चौतर्फ. ४ रतीगीरापर्वत. १६ राजधानीयों.
नन्दीश्वरद्विपके अन्दर बहुतसे भुवनपति बाणमित्रा जोतीषी और वैमानिकदेव पाखी, चौमासी, समत्सेरी या जिनकल्याणक दिने वहांपर एकत्र होते है जिनमहिमा भगवन् की मूर्तियोंकी भावभक्ति अर्चनपूजन करते है तथा जंघाचारण विद्या चारणमुनिभी वहांकि यात्रा करनेको पधारते है सूत्रोंमें बहूतसे विस्तारसे नन्दीश्वरद्विपका व्याख्यान किया है परन्तु भव्यात्मावोंके कंठस्थ करनेके लिये संक्षेपसे मुदासर वातों थोकडारूपमें लिखदि है वास्ते इन्हीकों पेस्तर कंठस्थ कर फीर बहू श्रुतियोंके पास शास्त्रश्रवण करो तोके वडा ही आनन्द आवेगा इति.
॥ सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ।।
----COOK--
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१०१
थोकडा नम्बर, ३
सूत्रश्री जीवाभिगमजी प्र९
-rowon
(निगोद ) शास्त्रकारों ने निगोद दो प्रकारकि वतलाई है ।
१ सूक्षमनिगोद-सूक्षमनिगोदके गोला असंख्याते है बह स्मपूरणलोक व्याप्त है.
२ बादर निगोद-जो लोकके दशभागमे है। जैसे कन्दमूल जमिकन्द कान्दा मूला लशण रतालू पंडालू आदो अडवी आलू आदि जिन्होंके सूचि अग्र भागमे अनन्त जीव होता है। - सूक्षमनिगोदके दो भेद है (१) निगोद जीवोंके शरीर (२) निगोदके जीव । जिस्मे निगोद जीवोंका शरीर असंख्याते है क्युकि निगोद जीवोंके तेजस ओर कार्माण शरीर तो प्रत्यक जीवोंके प्रत्यक शरीर है परन्तु औदारीक शरीर है वह अनन्त जीवोंका एक शरीर होते है वह औदारीक शरीर भि असंख्याते है अर्थात् निगोदके औदारीक शरीर असंख्याते है ओर
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प्रत्येक शरीरमें अनन्ते अनन्ते जीव है । वह असंख्याते शरीर है वह द्रव्यापेक्षा है परन्तु प्रदेशापेक्षा तो प्रत्यक शरीर के अनन्ता अनन्ता प्रदेश है क्युकि अनन्ता परमाणु वा एकत्र होनासे एक औदारीक शरीर बनता है। द्रव्यापेक्षा जो औदारीक शरीर है उन्हीका मि दो दो भेद है (१) पर्याप्ता (२) अपर्याप्ता एवं प्रदेशापेक्षा भि.
सूक्षमनिगोदका जीव है वह द्रव्यापेक्षा अनन्ता है और प्रत्यक जीव के असंख्याते असंख्याते आत्म प्रदेश है उन्हीका भी दो दो भेद है (१) पर्याप्ता (२) अपर्याप्ता एवं प्रदेशप्पेक्षा मि समझना.
बादर निगोद-जैसे सूक्ष्म निगोदका शरीर-जीव, द्रव्य, प्रदेश, पर्याप्ता अपर्याप्त के भेद उपर किया गया है इसी माफिक बादर निगोदका भि समझना.
भव्यात्मावोंको विशषः बोध के लिये शास्त्रकार सूक्षम बादर निगोद कि अल्पाबद्दूत्व कर बतलाते है। निगोदके शरीरकि अल्पाबहूवर.
(१) द्रव्यापेक्षा. (१) बादर निगोद के पर्याप्ता शरीर द्रव्य स्तोक. (२) " " अपयोप्ता ,, असं० गु०
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(३) सूक्षम " " " " " " (४) सूक्षम , पर्याप्ता , " संख्या० गु०
( २ ) प्रदेशापक्षा. (१) बादर निगोदके पर्याप्ता शरीर द्रव्य स्तोक. (२) , , अपर्याप्ता ,, ,, असं० गु० (३) सूक्षम , , , " " (४) , , पर्याप्ता , , संख्य० गु०
(३) द्रव्य ओर प्रदेशापेक्षा. (१) वादर निगोदके पर्याप्ता शरीर द्रव्य स्तोक. (२) , , अपर्याप्ता ,, , असं० गु० (३) सूक्षम , " " " " (४) , , पर्याप्ता , , संख्या० गु० (५) बादर , , , प्रदेश अनंतगु० (६) , , अपर्याप्ता , , असं० गु० (७) सूक्षम , " " " " (८) , , पर्याप्ता , " संख्य° गु०
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१०४ निगोदके जीवोंकि अल्पाबहुत्व ।
(४) द्रव्यापेक्षा.. (१) बादर निगोद पर्याप्ता जीव द्रव्य स्तोक.. (२) , , अपर्याप्ता ,, , असं० गु० (३) सूक्षम " " " " " । (४), , पर्याप्ता , " संख्या० गु०
(५) प्रदेशापेक्षा. (१) बादर निगोद पर्याप्ता जीव प्रदेश स्तोक. (२) " " अपर्याप्ता , " असं० गु० (३) सूक्षम " " " " " (४) , , पर्याप्ता ,, संख्य० गु०
(६) द्रव्य ओर प्रदेश. (१) बादर निगोद पर्याप्ता जीव द्रव्य स्तोक. (२) , , अपर्याप्ता ,, ,, असं० गु० (३) सूक्षम " " " " " (४) , , पर्याप्ता , " संख्या० गु० (५) बादर " " " प्रदेश असं० गु० (६) " " अपयोता " " " (७) सूक्षम " , " " " (८) " " पयांप्ता , " सल्या० गु०
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१०५ निगोदके शरीर और जीवोंकि अल्प० ।
(७) द्रव्यापेक्षा. (१) नादर निगोदके पर्याप्ता शरीर द्रव्य स्तोक. (२) , , अपर्याप्ता , , असं० गु० (३) सूचम " " " " " (४) , , पर्याप्ता ,, संख्य० गु० (५) बादर निगोदके पर्याप्ता जीव द्रव्य अनन्त गु० (६) , , अपर्याप्ता ,, , असं० गु० (७) सूचम " " " " " (८) , " पर्याप्ता , " संख्या० गु०
(८ ) प्रदेशापेक्षा. (१) बादर निगोदके पर्याप्ता जीव प्रदेश स्तोक. (२) , , अपर्याप्ता , " असं० गु० (३) सूक्षम , " , " (४) , , पर्याप्ता , , संख्या० गु० (५) बादर , , शरीर , अनन्तगुणा (६) , , अपर्याप्ता , " असं० गु० (७) सूक्ष्म " " " " " (८) , , पर्याप्ता , , संख्या० गु०
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१०६ (8) द्रव्य और प्रदेशापेक्षा... (१) बादर निगोदके पर्याप्ता शरीर द्रव्य स्तोक. (२), " अपर्याप्ता , " असं० गु० (३) सूक्षम , , , , (४) , पर्याप्ता , , संख्या० गु० (५) बादर , , जीव द्रव्य अनन्त गु० (६) , , अपर्याप्ता , , असं० गु० (७) सूक्षम " " " " " (८) , , पर्याप्ता ,, , संख्या० गु० (8) बादर , , जीव प्रदेश असं० गु० (१०) , , अपर्याप्ता , " " (११) सूक्षम " " " " (१२) , , पर्याप्ता , , संख्या० गु० (१३) बादर " , शरीर , अनन्त गु० (१४) , , अपर्याप्ता , " असं० गु० (१५) सूक्षम " " " " "। (१६) , , पर्याप्ता , , संख्या० मु०
॥ सेभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ॥
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१०७
थोकडा नं. ४.
सूत्र श्री आचारांग अध्य० १ उ०१
...GOOOOK
(द्रव्यदिशा भावदिशा) पांचमा गणधर सौधर्मस्वामि अपने शीष्य जम्बुस्वामि प्रत्ये कहेते है हे जम्बु इन्ही संसारके अन्दर कितनेक जीव एसे अज्ञानी है कि जिन्होंको यह ज्ञान नहीं है कि पूर्वभवमें में कोन था और कोन दिशासे में यहांपर आया हूं. दिशा दो प्रकारकि होती है (१) द्रव्यदिशा (२) भावदिशा.
(१) द्रव्यदिशा अढारा (१८) प्रकारकि है यथा (१) इन्द्रादिशा (पूर्वदिशा), (२) अग्निदिशा (अग्निकोन), (३) जमादिशा (दक्षिणदिशा), (४) नैऋतदिशा (नैऋतकोन), (५) वायुदिशा (पश्चिमदिशा), (६) वायुणा (वायुकोन), (७) सोमादिशा (उत्तरदिशा), (८) इसाना (इशानकोन), (९) विमलादिशा (उर्ध्वदिशा), (१०) तमादिशा (अधोदिशा) एवं दश दिशा है जिसमें च्यार दिशा च्यार विदिशा इन्ही आठोंका अन्तरा आठ दश दिशाके साथ मिलानेसे १८ द्रव्यदिशा होती है पूर्वोक्त जीवोंको यह ख्याल नहीं है कि इन्ही अढारा
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१०८
द्रव्यदिशासे में कौनसि दिशा या विदिशासें आया हूं जब द्रव्यदिशा है तो भावदिशाभी आवश्य होना चाहिये वास्ते शास्त्रकार भावदिशा केहते है.
१२) भावदिशा-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, तथा वनस्पतिकायके च्यार भेद है (१) मूल बीया-जिन्होंके मूलमें बीज रहेता है मूलादि, (२) कन्दबीया-जिस्के कन्दमें बीज रहेते है नागरमोथादि, (३) पोरबीया-जिस्के गाठ गाठके अन्दर बीज रहेते है इक्षुवादि, (४) स्कन्धबीया-जिस्के स्कन्धमें चीज रहेते है शाली आदि एवं ८ बेरिन्द्रिय, तेरिन्द्रिय, चौरिन्द्रिय और तीयंच पंचेन्द्रिय तथा मनुष्य च्यार प्रकारकेकर्मभूमि, अकर्मभूमि, अन्तरद्विपे और समुत्सम मनुष्य एवं १६ नारकि और देवता सर्व मीलके भावदिशा १८ होती है पूर्वोक्त जीवोंको यह ख्याल नहीं है कि में कौनसी दिशा
आया हूं और कौनसी दिशामें जाउंगा अगर में जीन्ही कुटम्बके साथ रक्त हो रहा हूं वह कुटम्ब कौनसी दिशा से आया है और कौनसी दिशामें जावेगा अज्ञानवत् जीवोंको इतना ज्ञान नहीं होता है इसी अज्ञानके जरिये जीवअनादि कालसे इन्ही भवचक्रमें भ्रमण करते है.
कितनेक जीव एसेभि होते है कि स्वयं जानलेते है कि में पूर्वभवमें अमुक गतिजतिमें था या अमुक दिशासें यहांपर
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१०६
आया हूं कारण जातिस्मरणादि ज्ञानसें जेसे मृगापुत्रकुमार या महाबलकुमारादि और कितनेक ज्ञानवन्तोंके पाससे सुननेसे जानते है जेसे मेघकुमार भगवान के पास अपना भव सुननेसे आना की में पूर्वभवमें हस्ती था इत्यादि ।
ज्ञानीपुरुषोंसे श्रवण करनेसे विशेष ज्ञान भी होसक्ते है तस्वदृष्टीसे बतलाये जाय तो सम्यक्त्व प्राप्तीके मौख्य च्यार
(१) आत्मवाद-आत्मा चैतन्य अरुपि अमूर्ति अखंड अमल शुद्धनिर्मल ज्ञानदर्शन चरित्रमय सद् चदानन्द असंख्यात प्रदेशमय सास्वत है निश्चय नयसे अकर्ता अभुक्त शुद्ध उपयोगमय है इन्हीसे शास्त्रकारोने पांच भुत बादी-या नास्तिक बादीयोंका निराकार कीया है।
(२) लोक वादी-जहां पांचास्तिकाय है उन्हीकों लोक कहाजाता है वह लोक असंख्याते कोडोन कोड योजनका है जिस्का भि तीन भेद है (१) उर्ध्वलोक ( बारह देवलोक नौग्रीवैग पांचानुत्तर वैमान ) (२) अधोलोक सात नारकरूप ( ३ ) तीरच्छो लोक जिस्मे जम्बुद्विपादि असंख्याते द्विप लवणसमुद्रादि असंख्याते समुद्र यावत् संभुरमण समुद्र तक तथा अधोलोक विशेष विस्तारवाला है तीर
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११०
च्छोलोक क्रमःसर संकोचीत और उप्रलोक पुनः विस्तारवाला है अर्थात् कम्बरके हथ लगाके नाचता वोपाके आकार लोक है वह भी द्रव्यापेक्ष सास्वत है और वर्णादि पर्यायापेक्ष असास्वत है इन्हीसे इश्वर वादीयोंका नीरकार कीया है ।
(३) कर्मवादी-कर्म अनादि से आत्माके गुणोंको रोक रखा है जैसे सूर्य तजस्वी है परन्तु वादलोंका अवरण आनासे तेजको रोक देता है वसे कर्म भी जीवके गुणोंको रोक देते हे जैसे
____ कर्म
-
ज्ञानावर्णीय दर्शनावर्णीय वेदनिय मोहनिय
आयुष्य नामकर्म गौत्रकर्म अन्तरायकर्म
आवर्ण द्रीष्टान्त । कौनसा गुणोंको रोके. घाणिका वहल ज्ञानगुणको रोके राजाका पोलीया दर्शनगुणको रोके मघुलीपत छुरी | अबाद सुखको रोके मदरापान पुरुष / क्षायक गुणको रोके केद कीया हुवा | अठलावगाहन गुणको रोके चित्रकार माफिक अर्ति गुणको रोके कुभकार , गुरू लघु गुणको रोके राजाका भंडारी | वीर्य गुणको रोके
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इन्ही आठो कर्मोने आत्माके आठों गुणोको रोक रखा है व्यवहारनयसे जीवके शुभाशुभ अध्यवशासे कर्मोका दल एकत्र होते है वह अवधाकलपक जानेपर जीवके रसविपाक उदय होते हुवे जीव सुख और दुःख भोगवते है ओर काल लब्धि प्राप्त कर कर्मोंसे मुक्त हो जीव मौक्षमे भी जाते है यह कर्मोका अस्तित्व बतलानेसे काल स्वभाव वादियोंका निराकार किया है.
(४) क्रिया बादी--जो जीव कर्म कर सहित है वह जीव सदेव क्रिया करताही रहेता है और वह शुभाशुभ क्रिया करनेसे शुभाशुभ कर्म रुप फल भी देती है अर्थात् सकर्मी जीवोंके क्रिया अस्तित्व भाव है ओर क्रिया का फल भी अस्तित्वभाव है यहांपर प्रक्रियावादीका निराकरण कीया है।
__ यह च्यार सम्यग्वाद है इन्हीको यथायोग्य जाननेसे ही सम्यग्द्रष्टीकेहलाते है इन्हीके सिवाय जो मनःकल्पत मत्तको धारण करनेवाले जीवोंको मिथ्याद्रष्टी कहा जाते है। वह अनादि प्रवाहमें परिभ्रमण करते आये है और करते ही रहेगो इस लिये भगवान्ने दो प्रकारकि प्रज्ञा फरमाइ है (१) वस्तुका स्वरुपका ज्ञानकर समझना, (२) परवस्तुका त्याग करना अर्थात् जीस आश्रव कर कर्म आरहा है उन्हीको रोकना चाहिये.
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कारण संसारके अन्दर एकेक जीव अन्य जीवोंकी घात करते है उन्होंका शास्त्रकारोंने के कारण बतलाया है.
(१) जीतव्य-आजीविकाके लिये आरंभादि करे । (२) प्रशंसा-जगत्में अपनि तारीफी करानेके लिये। (३) मान-दुसरेसे अधिक होनेका अभिमानके लिये । (४) पूजा-जनलोकोंके पाससे पूजा करानेके लिये। (५) जन्ममरण मिटानेके लिये या यज्ञहोमादि करणा। (६) दुःख मीटानेके लिये शरीरमें हुइ वेदना मीटाने के लिये।
यह छ कारणोंसे हिंसा करते है वह अनार्य कर्मके करनेवाले है उन्हीको भवन्तरे अहितका कारण-अबोधका कारण होगा कारण वह करनेवाले अज्ञानी निथ्यात्व अनार्य है और सम्यग्द्रष्टी तो पूर्वोक्त आरंभकों कर्मबन्धका हेतु जाने मोहकर्मकी गांठ जाने मरणका हेतु या नारकका हेतु जानते है इसी वास्ते समकितसार अध्ययनमें कहा है कि "समत्त दंसी न करोति पावं" इसी वास्ते प्रारंभ परिगृहसे मुक्त हो वीतरागाज्ञाका अाराधन करो इत्यादि ।
॥ सेवभंते सेवभंते तमेव सच्चम् ॥
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११३
थोकडा नं. ५
--***
(सूत्रश्री सूयगडायांगजी श्रु० २ अ०३) -X(@3+
( आहार )
जीवात्मा सचदानन्द निजगुणमुक्ता सदा अनाहारीक हैं यह निश्चय नयका वचन है। और जीवके अनादि काल से कर्मोका संयोग होनासे भिन्न भिन्न योनिमें नया नया जन्म धारण करते हुवे पुगलका आहार करता है यह व्यवहार नयका वचन है । व्यवहार नयसे जीव रागद्वेष की प्रवृति करते हुवे के कर्मबन्ध भी होता है उन्ही कर्मो का फल भवन्तरमे शुभा शुभ आवश्य भोगवना भी पडता है जाति अपेक्षा जीव पांच प्रकार के होते है यथा- एकेन्द्रिय, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरिन्द्रिय, यांचेन्द्रिय, जिस्मे एकेन्द्रियका पांच भेद है यथापृथ्वीका काय ते काय वायुकाय वनास्पतिकाय सर्व जीवों वनस्पतिकाय के जीवाधिक होनासे शास्त्रकारोंने प्रथम वनस्पतिकायका ही व्याख्यान करते है.
aaiपतिकाय च्यार प्रकारकी होती है यथा-
(१) गीया - वृक्षके अग्रभागमे बीज होता है.
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११४ (२) मूलबीया-मूलमे बीज जेसे कन्दा मूलाके (३) पोरबीया-गाठ गाठमे बीज इक्षुआदिमे (४) कन्धबीया-गहू चीणादिमे ..
इन्ही वनास्पतिकायके उत्पन्न होनेका स्थान दोय है (१) स्थलमे ( २ ) जलमे जिस्मेपेस्तर स्थलमे उत्पन्न होते है उन्हीका अधिकार लिखा जाते है.
पृथ्वीयोनिया वृक्ष पृथ्वीमे उत्पन्न होता है तब पेहला पृथ्वीकायके स्नग्धपुद्गलोंका आहार ले के अपना शरीर बन्धता है बादमे छे काया के जीवोंके मुक्केलगे पुद्गलोंका आहार लेते है वह आहार अपने शरीरपणे परिणमाते हुवे शरीरका वर्ण गन्ध रस स्पर्श नाना प्रकारका होते है यह प्रथम अलापक हुवे ।१।
पृथ्वीयोनिया वृक्ष मे वृक्ष उत्पन्न होता है तब पेहले उत्पन्न स्थानके स्नग्धका आहार ले के अपना शरीर बन्धते है बादमे के कायाके शरीरोंके पुद्गलोंका आहार ले के अपना शरीरके वर्ण गन्ध रस स्पर्श नाना प्रकारके बनाते है । २ । __ वृक्ष योनिया वृक्षमे वृक्ष उत्पन्न होता है तब पेहले अपने उत्पन स्थानके स्नग्धका आहार लेके शरीर बन्धता है बादमे के कायाके शरीरोंका पुद्गलोंसे अपने शरीरके नानाप्रकारके वर्णगन्ध रसस्पर्श बनाते है । ३ ।
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११५ वृक्ष योनियावृक्षौ दश बोल उत्पन्न होते है यथा-मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, साखा, प्रतिसाखा, पत्र, पुष्प, फल, बीज. यह १० बोल उत्पन्न होते पेहले अपने स्थानके स्निग्धका आहार लेके अपना शरीर बन्धता है बादमें के कायाके जीवोंका मुक्केलगा पुद्गलोंका आहार ले अपने शरीरका वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श नानाप्रकारके बनाते है । ४ ।
पृथ्वी योनिया वृक्षमें अञ्जोरा (एक जातिका वृक्षमें दुसरी जातिका वृक्ष उत्पन्न होता है उन्हीको अञ्जोरा केहते है) उत्पन्न होता है । १। वृक्ष योनियावृक्षमें अञ्जोरा उत्पन्न होता है ।२। अञ्जोरा योनियावृक्षमें अजोरा उत्पन्न होता है ।३। अञ्जोरा योनिया अजोरामें मुलादि १० बोल उत्पन्न होता है । ४ । एवं च्यारों अलापकमें उत्पन्न होते है । पेहले अपने उत्पन्न स्थानके स्निग्धके पुद्गलोंका आहार ले अपना शरीर बन्धते है बादमें छे कायाके शरीरोंके मुक्केलगा पुगलोंका आहार ले अपने शरीरका वर्ण, गन्ध, रस स्पर्श नानाप्रकारके बनाते है।
एवं च्यार अलापक तृण बनास्पतिका एवं च्यार अलापक औषदी ( २४ प्रकारका धन्य ) का एवं च्यार अलापक हरिकायका भावना पूर्ववत् समझना सर्व २० अलापक हूवे।
पृथ्वी योनियावृक्षमें भूइफोडा उत्पन्न होता है भावना पूर्ववत् एवं २१ ।
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जेसे पृथ्वी योनियावृक्षसे २१ अलापक हुवे है इसी माफीक उदक (पाणी) योनियावृक्षसे भी २१ अलापकके हेना परन्तु इकवीसमा अलापकमें भूइफोडाके स्थान उत्पलादि कमल समझना एवं ४२ अलापक हूवे । ___ पृथ्वी योनियावृक्षमें त्रसकाय उत्पन्न होती है । १ । वृक्ष योनियावृक्षों त्रसकाय उत्पन्न होती है । २ । वृक्ष योनियावृक्षमें मूलादिया दश बोल उत्पन्न होता है । ३ । एवं अञ्जोराका ३, तृणका ३, औषदीका ३, हरिकायका ३, भूइफोडाका १ एवं १६ इसी माफीक उदक योनियाका भी १६ अलापक मीलाके ३२ अलापक हुवे ।
वेद मोहनिय कर्मोदय मनुष्यकों मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है तब स्त्रि के साथ मैथुन कर्म सेवन करते है उन्ही समय माताका रौद्र पिताका शुक्र के साथसं योग होते है उन्हीके अन्दर जीव उत्पन्न होते है वह त्रिवेद पुरुषवेद नपुंसकवेद उत्पन्न होते ही पेहला माताका रौद्र पिताका शुक्रका आहार लेता है बादमे माता कि नाडी और पुत्र कि नाडी के साथ संबन्ध होनासे माता जो जो रसवती भोजन करती है उन्हीका एक विभाग पुत्र भी आहार करता है गर्भकाल पूर्ण हो तब
* पाणीमें कमलादि उत्पन्न होते है जिस्की योनि पाणीमें होती है।
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उन्ही पुत्रका जन्म होता है बादमे माताके दुद्ध सपीका आहार करता है फीर नाना प्रकारके त्रसस्थावरोंके शरीरके शुद्गलोंका
आहार कर के अपने शरीरका वर्णगन्ध रस स्पर्श नाना प्रकारका बनाता है । ७५
इसी माफिक जलचार जीव परन्तु जन्मतों पाणीका आहार लेते है । ७६ । एवं खेचर परन्तु जन्मतों माताका । पोखकों आहार लेवे । ७७ । एवं स्थलचर मनुष्यकी माफीक । ७८ । एवं उरपुरी सर्प परन्तु जन्मतों हवा (वायु) कों आहार लेवे । ७६ । एवं भूजपुर भी समझना । ८० ।
वीध्वंस चर्ममे क्रीडा करमीयादि जीव उत्पन्न होता है वह पेहला अपने उत्पन्न स्थानके स्नग्धका आहार लेवे यावत् पूर्ववत् सझना । ८१ । परसेवासे यू लीखादिका । ८२ । मल मूत्रमे समुत्सम जीवोंका । ८३।
त्रसस्थावर जीवोंके शरीरमे वायुकायाके योगसे अपकाय उत्पन्न हुवे पेहला उत्पन्न स्थानके स्नग्धका आहार लेवे शेष पूर्ववत् । ८४।
त्रसस्थावर योनिया उदकमे उदक उत्पन्न होता है ।८५॥ उदक योनियाउदकमे उदक उत्पन्न होता है । ८६ । उदक योनिया उदकमें त्रस प्राणी उत्पन्न होता है । ८७।
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त्रस स्थावर जीवोंका अचित तथा सचित शरीरमे अग्निकाय उत्पन्न हुवे | ८८। सस्थावर योनिया अग्निमे अग्नि उत्पन्न हुवे । ८६ । अग्नियोनिया अग्निमे अग्नि उत्पन्न होती है। ६० । अग्नि योनिया अग्निमें, सस्थावर जीव उत्पन्न होता है । ६१।
सस्थावर जीवोंका सचित अनित शरीरमे वायुकाय उत्पन्न होती है । ६२ । त्रसस्थावर योनिया वायुकायमे वायुकाय उत्पन्न होती है । ६३ । वायु योनियावायुमें वायुकाय उत्पन्न होती है । ६४ । वायु योनियावायुकायमें बस स्थावर उत्पन्न होता है । ६५।
स स्थावर जीवोंका सचित अचित शरीरमें पृथ्वीकाय उत्पन्न होती है । ६६ । त्रस स्थावर योनिया पृथ्वीकायमें पृथ्वीकाय उत्पन्न होती है । १७ । पृथ्वी योनियापृथ्वीमें पृथ्वीकाय उत्पन्न होती है । १८ । पृथ्वी योनियापृथ्वीकायमें बस स्थावर उत्पन्न होता है सर्व स्थानपर उत्पन्न होता है । वह पेहले अपना उत्पन्न स्थानके स्निग्धके पुद्गलोंका आहार लेता है बादमें छे कायाके शरीरके मुकेलगे पुगलोंका आहार लेके अपने शरीरका वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श नानाप्रकारके बनाते है।
नारकी कुंभीमें उत्पन्न होते है । १०० । देवता शय्यामें उत्पन्न होते है । १०१ । इति आहार अलापक ।
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११६
हे भव्यात्मन यह उपर लिखा योनिमें परिभ्रमण करता अपना जीव अनादिकाल से मारा मारा फीरता है इन्ही योनिको मीटानेवाला श्री वीतरागका ज्ञान है इन्हीकी सम्यक् प्रकारे आराधना करो तार्के फीर दुसरीवार योनिमें उत्पन्न होनाका कमही न रहे । रस्तु ।
॥ सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ॥
नं.
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थोकडा नं. ६
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( बहुश्रुति कृत. )
( प्रत्यक बोलपर ६२ बोल उतारा जायेगा )
मार्गणा.
समुच्चय जीवमें स० अपर्याप्ता
स० [अ० अनाहारी
७ | जीवभेद.
गुणस्थान. योग १५
१४ | १४ | १५ | १२ ६
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पां० पं० पर्याप्ता
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पां प० आहारीक चौरिन्द्रिमें
चौ० अपर्याप्ता
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१२१ ते पर्याप्ता ते० ५० आहारीक बेन्द्रिय बे० अपर्याप्ता बे० अ० अनाहारीक बे० अ० आहारीक बे० पर्याप्ता बे० प० आहारीक एकेन्द्रिय ए० अपर्याप्ता ए० अ० अनाहारीक ए० अ० आहारीक ए० फ्योता ए०प० आहारीक अनेन्द्रिय अ० पर्याप्ता अ० अनाहारीक . अ० आहारीक | १ | १ | ५७ २१ ॥ सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ॥ . .
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१२२ थोकडा नं. ७
(बहू श्रुतिकृत)
मार्गणा. समुच्चय जीवमे स० अपर्याप्ता स० अ० अनाहारीक स० अ० आहारीक स०प० अनाहारीक स० पर्याप्ता स. प० आहारीक पृथ्वीकायमे सकाय में पृ० अ० अनाहारीक पृ० अपर्याप्ता पृ० अ० श्राहारीक पृ०प० आहारीक पृ० पर्याप्सामे
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अ० अ० अनाहारीक
अ० अ० श्राहारीक
अ० पर्याप्ता
अ० प० आहारीक
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० अ० अनाहारीक
ते० अ० आहारीक
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व० अ० अनाहारीक व० अ० आहारीक व० पर्याप्ता व०प० आहारीक तसकायमें त० अपयोप्ता त० अ० अनाहारीक त० अ० आहारीक त० पर्याप्ता त०प० अनाहारीक त०प० आहारीक | ५,१३/१४/१२/६ ॥ सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ॥
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थोकडा नं. ८ ( बहुश्रुति कृत)
मार्गणा. जी. | गु. यो. उ. ले. सूक्ष्मेकन्द्रि अपर्यता
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..पयोप्ता मिथ्यात्व गुणस्थान अव्रती सम्य, सास्वदन प्रमत्त संयति , देशवती अप्रमत्त , निवृत्ति बादर,
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अनिवृति बादर गुणस्थान
सुक्षम संपराय उपशान्त मोह
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संयोगी केवली योगी केवल
सत्य मनयोगमें असत्य मनयोगमें
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सत्य वचनयोग में
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१२८
थोकडा नम्बर, ६
(बहुश्रुत कृत) मार्गणा.
द्रव्यात्मा कपायात्मा योगात्मा उपयोगात्मा ज्ञानात्मा दर्शनात्मा चारित्रात्मा वीर्यात्मा पुलाक निग्रन्थ बुकश , प्रतिसेवना, कषायकुशील,
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दारीक शरीर वैक्रय शरीर हारीक शरीर
तेजस शरीर
कारमाण शरीर
एक प्राणवाला जीवोमें
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तीन
च्यार
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आहार
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१३० थोकडा नं. १०
( बहुश्रुति कृत.)
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१ १४१४ १२ म०प० अनाहारीक म. प. आहारीक देवतावों में देवतावों अपर्याप्ता देव० अ० अनाहारीक दे० अ० आहारीक देव० पर्याप्ता देव० ५० आहारीक सिद्धभगवानमें ॥ सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ।।
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थोकडा नं. ११
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(बहू श्रुतिकृत) अलद्धिया उसे केहते है कि जिस्मे वह वस्तु न मीले जेसे मतिज्ञानका अलद्धिया केहनेसे जिन्ही जीवोंमे मतिज्ञान न मीलता हो जैसे पेहले तीजे तेरवे चौदवे इन्ही च्यार गुणस्थानमे मतिज्ञानका अभाव है इसी माफीक सर्व स्थानपर समझना ।
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मार्गणा. मतिज्ञानके अलद्धियामे श्रुतिज्ञानके. अवधिज्ञानके मनःपर्यवज्ञानके , केवलज्ञानके मतिअज्ञानके श्रुतिअज्ञानके विभंगाज्ञान • चक्षुदर्शनके अचक्षु. अवधिज्ञानके केवलदर्शन इन्द्रियका श्रोतेन्द्रियका चक्षुइन्द्रियका घ्रणेन्द्रियका रसेन्द्रियका. स्पर्शेन्द्रियका अनेन्द्रियका
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ज्ञानावर्णीयका दर्शनावर्णीयका वेदनियका मोहनियका आयुष्यका नामकर्मका गौत्रकर्मका अन्तरायका संवेदके त्रिवेदके पुरुषवेदके नपुंसकवेदके
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सकषायके क्रोधक मानक०
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॥ सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ॥ कृष्णलेश्या निललेश्या कापोतलेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ललेश्या अलेश्या संयोगिका मनयोगिका काययोगि अयोगि वचन सम्यक्द्रष्टी मिथ्याद्रीष्टी भिश्रद्रीष्टी संज्ञीका असंज्ञीका संसारका
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१३५ थोकडा नं. १२
( बहूश्रुति कृत) मार्गणा. ज्ञानावर्णीयकर्ममें दर्शना० ,, वेदनिय ,, मोहनिय ,"
आयुष्य ," नामकर्ममें गौत्रकर्ममे अन्तरायकर्ममे वज्रऋषभनाराच संहनन ऋषभनाराच० ॥ नारचसंहनन अर्द्धनाराच. कालकास० छेवट स०
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________________ ... r ur ur wr or ur ur wr wr or ur wr_wr or ur wrom ur Aur ur ur ur 20, 222222 022-2222222222 m raor marr wr-2 urwr ur v. . 10 rrrArumr or orm 137 // सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् // , , , बेहडायोनिमें मिश्रयोनिमें क्रियावादी अक्रियावादी अज्ञानबादी विनयबादी आर्तध्यान रौद्रध्यान धर्मध्यान शुक्रध्यान वेदनि समुद्घात मरणन्तीक , आहारीक , केवली . , कषाय वैक्रय तेजस
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________________ 138 थोकडा नम्बर. 13 (बहुश्रुत कृत) | فيه | ه م ur or سه له mn Cm xcc www or or له مه मार्गणा वासुदेवकी आगति हाश्यादि सम्यक् द्रीष्टी . अवती मनयोगमें एकान्तसंज्ञी सम्य० अवती अप्रमत्त हाश्यादिमें तेजोलेशी एकेन्द्रिमें अमर गुणस्थानमें अमर गु० छमस्थ अमर गु० चरमान्त यथाक्षात-संयोगि गुण० चमरान्त संयोग गु० चमरान्त छद्रस्थ गु० 0 س r or or 1 w w w w or w 22IMAm/MMMMM. w , ur 942u . . . w w or w w w م x ع س ~ 2 ع 3 S م
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________________ 136 2 - x or or सकषाय गुणस्थान चरमान्त | 14 सवेद गु० च० व्रतीछमस्थ गुरु अप्रमत्त छद० हाश्यादि संयती हाश्यादि अप्रमत्त व्रती सकपाय व्रती सवेद व्रती छद्मस्थ सम्य० सवेद सम्य० सकषाय परभव जाता जीवमें wn 6 6 Cre swm G - - 2 9 9 9 9 222222222222 9 9 9 2 2 m mmmmmmmmmmm or or or ur ur 2 // सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् //
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________________ अमव्य Mes . . . . . . . . . भव्य |'hes . . . . . . . . . . .. hamm --- - - थोकडा नं. 14 (बहुश्रुत कृत) (28 लब्धि) मार्गणा. आमोसहि लब्धि विप्पोसहि संभिन्नश्रोता , जलोसहि खेलोसहि सव्वोसहि अवधिज्ञान ऋजोमति विपुलमति केवलज्ञान चरण अरिहंत orar r ur 2 - 0.
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________________ गणधर चक्रवर्त बलदेव वासुदेव आहारीक : : : + + + + + : : वैक्रय पुलाक the core or o a + + + तेजोलेश्या शीतलेश्या कोठबुद्धि बीजबुद्धि पूर्वधर . " पदानुसारणी , आसीवीस. " क्षीरमंजुषा , अक्षीणमाणसी , tercers per a : + + + : // सेवभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् //
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________________ थोकडा नं. 15 ( पुद्गलपरावर्तन) असंख्याते वर्षका एक पल्यापम होता है दश कोडाकोड पन्योपमका एक सागरोपम होता है दश कोडाकोड सागरोपमका एक उत्सर्पिणी काल तथा दश कोडाकोड सागरोपमका एक अवसर्पिणी काल होता है इन्ही उत्सर्पिणी अवसर्पिणीकों मीलाके वीस कोडाकोड सागरोपमकों शास्त्रकारोंने एक कालचक्र कहा है एसे अनन्ते कालचक्रका एक पुद्गलपरावर्तन होता है वह प्रत्यक जीवों भूतकालमें अनन्ते अनन्ते पुद्गलपरावर्तन कीये है विशेष बोधके लिये पुद्गलपरावर्तनकों च्यार प्रकारसे बतलाते है. यथा-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव / प्रत्यकके दो दो भेद है (1) सूक्ष्म, (2) बादर. वह इस थोकडा द्वारा बतलाया जावेगा. ( 1 ) द्रव्यापेक्षा बादर पुद्गलपरावर्तन-लोकमें रहे हुवे द्रव्य जिन्हीको जीव ग्रहन करते है वह आठ वर्गणा द्वारे अहन करते है यथा-औदारीकशरीर द्वारे, वैक्रयशरीर द्वारे, आहारीकशरीर द्वारे. तेजसशरीर द्वारे, कार्मणशरीर द्वारे, श्वासो. श्वासद्वारे, भाषा द्वारे, मन द्वारे, इन्ही आठ वर्गणासे एक
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________________ 143 माहारीक शरीर वर्गण छेडदेना कारण एक जीव अधिकसे अधिक आहारीक शरीर करे तो च्यारसे ज्यादा न करे, वास्ते सर्व लोकका द्रव्य ग्रहनका अभाव है। शेष 7 वर्गणासे अनुक्रमे एकेक जीव सर्व लोकका द्रव्यको अनन्ती अनन्ती वार ग्रहण कर छोडा है अर्थात् औदारीक शरीर वर्गणासे सर्व लोकका द्रव्य अनन्तीवार ग्रहन कर छोड़ा एवं वैक्रय तेजस० कार्मण० श्वासोश्वास० भाषा० ओर मनवर्गणासे सर्व लोकका द्रव्यको अनन्तीवार ग्रहन कर छोडा इन्हीको द्रव्यापेक्षा बादर पुद्गलपरावर्तन केहते है ।इसमें अनन्तों काल लगता है (2) द्रव्यापेदा सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन-पूर्वोक्त बतलाइ हुइ सात वर्गणासे प्रथम जीव औदारीक वर्गणासे लोकका द्रव्य ग्रहन करना प्रारंभ कीया है वह क्रमःसर सर्व लोकका द्रव्य केवल औदारीक वर्गणासे ही ग्रहन करे अगर वीचमें वैक्रयादि छ वर्गणासे द्रव्य ग्रहन करे वह गीनतीमें नहीं जैसे औदारीक शरीरका भाव कर तो वीचमें वैक्रय शरीरका भव करे यहांपर आचार्यों महाराजका दो मत्त है एक केहते है कि औदारीक वर्गणासे द्रव्य ले तो वीचमें वैक्रयादि वर्गणासे द्रव्य लेवे वह मीनतीमें नहीं किन्तु औदारीक गीनतीमें है इसरोंका मत्त है कि औदारीक वर्गणासे द्रव्य ले तो वीचमें . वैक्रयादि वर्गणासे द्रव्य लेवे तो औदारीकसे और
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________________ 144 वैक्रयसे लिये हुवे सर्व द्रव्य गीनतीमे नही अर्थात् फीरसे औदारीक वर्गणाद्वारे द्रव्यग्रहन करे तात्पर्य यह है कि औदारीक वर्गणाद्वारे द्रव्यग्रहन करतों जहँ तक सम्पुर्ण लोकके द्रव्य औदारीक वर्गणाद्वारे ग्रहन करे वहातक वीचमे दुसरी वर्गणा न आवे वह एक वर्गण कही जावे / इसीमाफीक वैक्रय वर्गणासे द्रव्यग्रहन करतो वीचमे औदारीकादि वर्गणासे द्रव्य लेवेतों गीनतीमे नही परन्तु सर्व लोकका द्रव्य वैक्रयसेही लेवे वीचमे दुसरा भव नकरे तो गीनतीमे आवे इसी माफीक सातों वर्गणासे क्रमःसर सम्पुरण लोक द्रव्यग्रहन करे उन्हीकों द्रव्यापेक्षा सूक्षम पुद्गल परावर्तन केहते है. (3) क्षेत्रापेक्षा चादर पुदलपरावन-असंख्याते कोडो न कोड योजनके विस्तारवाला यह लोक है जिन्ही के अन्दर रहे हवे आकाश प्रदेश भी असंख्याते है उन्ही आकाश प्रदेशोंको एकेक समय एकेक प्रदेश निकाला जावे तो असंख्याते कालचक्र पुर्ण हो जावे इतने आकाश प्रदेश है.. .. एक आकाशप्रदेश पर जीव जन्ममरण कीया है वह गीनतीमे और फीरसे उन्ही आकाशप्रदेशपर मेरे वह इन्ही पुद्गलपरावर्तन कि गीनतीमे नही आवे इसी माफीक अस्पर्श किये हुवे आकाशप्रदेश पर जन्ममरण करते हुने सम्पुरण लोकाकाशप्रदेशोंको स्पर्श करे / जीव जन्ममरण करता है वह
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________________ असंख्याते प्रदेशपर करता है तद्यपि यहाँपर मौख्यता एकही प्रदेशकी गीनी गइ है। इसी माफीक प्रत्येक प्रदेशपर जन्ममरण करते हुवे सम्पुरण लोक पुरण करदे उन्हीको क्षेत्रापेक्षा बादर पुद्गलपरावर्तन केहते है तात्पर्य यह हूवे कि एकेक प्रदेशपर भूतकालमें जीव अनन्तीवार जन्ममरण कीया है बादर पुद्गलपरावर्तनमें काल अनन्ता लगता है। ( 4 ) क्षेत्रापेक्षा सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन-पंक्तीवन्ध आ. काश प्रदेशको श्रेणि केहते है वह श्रेणियों लोकमें असंख्याती है जिस आकाशप्रदेशपर जीव जन्मा है उन्ही आकाशप्रदेशकि पंक्तीवन्ध श्रेणिपर जन्ममरण करता जावे इन्हीसे सम्पुरण श्रेणि पुरण करदे अगर वीचमें विषमश्रेणि अर्थात् श्रेणि बहार जन्म करे तो गीनतीमें नहीं एक प्राचार्य महाराजकी मान्यता है कि जीतना विषमश्रेणि भव करे वह गीनतीमें नहीं दुसरे आचार्योंकी मान्यता है कि वहांतक जितने शमश्रेणि विषमश्रेणि भव कीया है वह सर्वही गीनतीमें नहीं है / तत्त्व के वलीगम्य इसी माफीक श्रेणि पुरण करे पीछे उन्हीके पासकि श्रेणिपर जन्ममरण करे वीचमें विषमश्रेणि न करे तो गीनतीमें अगर करे तो. गीनतीमें नहीं इसी माफीक सम्पुरण लोककि श्रेणियोंको क्रमःसर पुरण करे उन्हीको क्षेत्रापेक्षा सूक्ष्म पुद्गल परावर्तन केहते है बादरसे सूक्ष्म काल अनन्तगुणो लागे है।
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________________ (5) कालापेचा बादर पुद्गलपरावर्तन-वीस कोडाकोड सागरोपमका एक कालचक्र होता है उन्हीका समय असंख्याते है एक कालचक्रके पेहला समयमें जीव जन्ममरण कीया फीर दुसरा कालचक्रके पेहला समयमें जन्ममरण करे वह गीनतीमें नहीं परंतु अन्य अस्पर्श समयके अन्दर जन्ममरण करे वह गीनतीमें आवे इसी माफीक जन्ममरण करते करते सम्पुरण कालचक्रके सर्व समयोंपर जन्ममरण करे उन्हीको कालापेक्षा बादर पुद्गलपरावर्तन केहते है। उन्हीमें भी काल अनन्त पुरण होते है। ___(6) कालापेक्षा सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन-पूर्वोक्त कालचक्रके प्रथम समय जन्ममरण कीया और दुसरे कालचक्रके दुसरे समय जन्ममरण करे तो गीनतीमें शेष समयमें जन्ममरण करे तो गीनतीमें नहीं इसी माफीक तीसरा कालचक्रका तीसरा समयमैं चोथा कालचक्रके चोथा समयमें एवं क्रमासर समयमें जन्ममरण करे तो गीनतीमें आवे किन्तु विचमें अन्य समयमें जन्ममरण करे तो सब भव गीनतीमें नहीं इसी माफीक सम्पुरण कालचक्रकों पुरण करदे उन्हीकों कालापेक्षा सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन केहते है बादरसे सूक्ष्मकों काल अनन्तगुणा लगता है। (7) भावापेक्षा बादर पुद्गलपरावर्तन-कर्मोके अनु
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________________ * भाग तथा सर्व स्थितिका स्थान असंख्याते है उन्ही असंख्याते स्थानपर जन्ममरण करे जेसे एक स्थान जन्ममरण कर स्पर्श लिया है अब दुसरी दफे उन्ही स्थानपर अनेकवार जन्ममरण करे वह गीनतीमें नहीं आवे परंतु नहीं स्पर्श कीये हुवे स्थानको स्पर्श कर मरे वह गीनतीमें आवे इसी माफीक अस्पर्श कीये हुवे सर्व स्थानोंको जन्ममरण द्वारे स्पर्श करते करते सर्व अध्यवशय स्थानको स्पर्श.करे उन्हीको भावापेक्षा चादर पुद्गलपरावर्तन केहते है / कालपूर्ववत् (8) भावापेक्षा सूक्ष्मपुद्गल परावर्जन-पूर्वोक्त जो अध्यवशयेके असंख्याते स्थान है उन्हीको क्रमासर स्पर्श करे जेसे प्रथम स्थानको स्पर्श कीया बादमें कालान्तर दुसरेको स्पर्श करे अगर विचमे अन्यस्थानको जन्ममरण कर स्पर्श करे वह गीनतीमे नही परन्तु क्रमःसर करे वह गीनतीमे आवे एवं तीजो चोथो पांचमो छटो यावत् क्रमःसर चरमस्थान स्पर्श करे इन्ही को भी अनन्तोकाल लागे है उन्हीको भावारुपेक्षासूक्ष्मपुद्गल पवावतर्न कहेते है और कितनेक आचार्योंकी यहभी मन्यता है कि जो नारककि जघ० 10000 वर्ष कि स्थितिसे लगाके 33 सागरोपमकी स्थितिका असंख्याते स्थान है उन्ही सर्वको अस्पर्श * कोस्पर्श कर सव स्थानोंको जन्ममरणद्वारे पुरण कर देवे एवं देवतोंमे 31 सागरोपम तथा मनुष्य तीर्यचमे ज. अन्तर
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________________ 148 मदतसे तीनपल्योपम तक के स्थिति स्थानको पूर्ववत् जन्ममरण कर पुरण कर दे उन्हीको भावापेक्षा बादर पुद्गलपरावर्तन केहेते है और पूर्वोक्त स्थिति स्थानोंकों क्रमासर 1-2-3 यावत् चरमान्त समयतक जन्ममरणसे स्पर्श कर सम्पुरण स्थिति स्थानपुरण करे उन्हीको भावापेक्षासूक्ष्मपुद्गलपरावर्तन केहते है ग्रन्थान्तर वर्ण गन्धरस स्पर्श अगुरुलघुपर्या इन्ही पुद्गलोंकों जन्ममरणद्वारे अस्पर्शको स्पर्श करे ( पूर्ववत् ) उन्हीकों भावापेक्षावादर पुद्गलपरावर्त्तन और क्रमासर पुद्गलोंकों स्पर्श करे उन्हीकों भावापेक्षा सूक्ष्मपुद्गलपरावर्तन केहेते है. द्रव्य क्षेत्र काल भाव इन्ही च्यारों प्रकार पुद्गलपरावर्तन के बादरकों अनन्ताकाल लगता है और जो बादरकों काल लगता है उन्हीसे भी सूक्ष्मको अनन्तगुणा काल लगता है (विस्तार देखो भगवतीजीके पुद्गलपरावर्तनका थोकडासे ). प्रत्येक संसारी जीव भूतकालमें द्रव्यक्षेत्रकालभावसे अनन्ते अनन्ते पुद्गलपरावर्तन कर आये है। . एक दफे सम्यक्त्व प्राप्ती हो जाते है तो फीर वह संसारमें रहे तो देशोना अर्द्ध पुद्गलसे ज्यादा नहीं रहेता है इस लिये भव्यात्मावोंकों इस वैरागमय थोकडेपर आवश्य ध्यान देना चाहिये कारन वीतरागके धर्मवीनो अपना जीव भी इसी आरापर संसारमें अनन्ते पुद्गलपरावर्तन कर
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________________ 146 आया है उन्ही श्रमको दुर करनेके लिये इस समय मनुष्य जन्मादि अच्छी सामग्री मीली है वास्ते श्रीसर्वज्ञ प्रणित् परमोत्तम धर्मका आराधन कर पुद्गलोकों जलाजली देके अपना निज स्थानको स्वीकार करना चाहिये / // सेवेभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् // थोकडा नं. 16 (संख्यातादि 21 बोल) शास्त्रकारोंने संख्याते असंख्याते और अनन्तेका 21 भेद कर बतलाये है जिस्मे संख्यातेके तीन भेद है (1) जघन्य संख्याते (2) मध्यम संख्याते (3) उत्कृष्ट संख्याते / जघन्य संख्याते दोय रूपकों केहते है मध्यम संख्याते तीन च्यार पांच छे सात यावत् उत्कृष्ट संख्यातेमें एक रूप न्युन हो / उत्कृष्ट संख्यातेके लिये च्यार पालोंका द्रष्टान्त कर बतलाते है। ... पाला च्यार प्रकारके है (1) शीलाक (२)प्रतिशीलाक (३),महाशीलाक (4) अनवस्थित / प्रत्येक पाला एक लव जोजनका लम्बा चोडा तीन लव-शोला हजार दोय सो सजाबीश जोजन तीन गाउ एकसो अटाविश धनुष्य साहातेर
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________________ अंगुल एक यव एक युक एक लिख के बालान पांच व्यवहारीया परमाणु इतनी परद्धि है दश हजार जोजनका उंडा उन्ही पाताके आठ जोजनकी जगती / जगतीके उपर आदा जोजनकी वेदिका है गोल आकार अर्थात् धान्यवरणकि पाइलीके आकार पाला होते है। PAREEEEEE 11 शीलाको प्रतिशीलाको पालों HIDD पालों 4 अनवस्थित ३महाशीलाक पालों पालों . : अनवस्थित पालों कहनेका मतलब यह है कि जिन्होंकी एक स्थित नहीं है वह आगे चलके बतलाया जावेगा। अनवस्थित पालों एक लक्ष योजनके विस्तारवालाकों सरसवके दाणोंसे पुरण वरे कि फीर जिस्के उपर एक दाणा नहीं ठेर सके। उन्ही भरे हवे पालेको कोई देवता हाथके अन्दर लेके एक सरसव दाणा द्विपमें एक समुद्रमें नाखतों नाखतों चला जावे जहांतक वह पाला खाली न हो जावे,
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________________ पालाका चरमदाना जीस द्विपमें या समुद्रमें डाला है वहां अनवस्थित पाला जीस द्विप या समुद्रमें बीलकुल खाली हो गया है उन्ही द्विप या समुद्र जीतना लम्बा चोडा विस्तारवाला भोर दश हजार जोजनका उंडा पाठ जोजनकि जगती प्रादा जोजनकि वेदिकावाला पाला बनाके सरसवके दानोंसे भरे फीर वहांसे उठाके आगेके द्विप समुद्रमें एकेक दाना डालते डालते चला जावे जहांतककि वह पाला खाली न हो अर्थात् उन्ही पालामें शेष एक दाना रहे वहांपर उन्ही पालाको छोडदे ओर जो एक दाना रहा था उन्हीकों शीलाक नामका पालामें डालदे / कारणकि जो पेहले लक्ष जोजन परिमाणवाला पाला था उन्हीका परिमाण हो जानेके कारण पेहला दाना नहीं डाला था परंतु दुसरे दफे अनवस्थित होनेसे चरमदान डाला गया है। जिस द्विप या समुद्रमें अनवस्थित पाला खाली हवा था उन्ही द्विप या समुद्र जीतने विस्तारवाला ( उंडा जगती वेदिका पेहलेवत् ) पाला बनावे वह सरसवसे भरके आगेके द्विप समुद्रमें एकेक दाना डालते डालते चले जावे उन्ही पालामें यावत् चरमका एक दाना रहे वह शीलाक पालामें * साल देवे जब शीलाक पालामें दो दाना जमा हूवे / फीर बीस द्विप वा समुद्रमें वह अनवस्थित पाला खाली हवा है उतना विस्तारवाला पाला बनाके सरसबके दानासे भर भागेके विप सबद्रमें एकेक दाना डालते डालते चले जावे पालामें
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________________ 152 चरमदाना रहे वह लेके शीलाक पालामें डालदे तब शीलाक पालामें तीन दाने जमा हुवे / जिस द्विप वा समुद्रमें अनवस्थित पाला खाली हुवा था उन्ही द्विप या समुद्र जीतना विस्तारवाला पाला बनाके सरसवके दानासे भरके आगेका द्विप समुद्रमें एकेक दाना डालते डालते चला जावे शेष चरमका दानाशीलाक पालामें डाले तब शीलाकपालामें च्यार दाने जमा हुवे। इसीमाफीक अनवस्थित पाला कि नवीनवी अवस्था होते एकेक दाना शीलाकमे डालते डालते लक्ष जोजनके विस्तारवाला शीलाकपाल भी समपुरण भरा जावे तब अनवस्थित पालाकों जहाँ खाली हूंवा है वहाही छोड दे और शीलाकपालको हाथमे ले के एकदाना द्विपमे एकदाना समुद्रमे डालते डालते शेष एकदाना रहे वह प्रतिशीलाकमे डाल देना अवशीलाक खाली पडा है पीछा अनवस्थितका पाला जो कि शीलकका चरमदाना जिस द्विप या समुद्रमे पडाथा उन्ही द्विप या समुद्र जीतना अनवस्थित पाला वनाके सरसबके दानेसे. भरके द्विप समुद्रमे डालता जावे शेष एक दाना रहे वह फीरसे शीलाकपालामे डाले एकेक दाना डाल के पहले कि माफीक शीलाकको भरदे फीर शीलाक को उठाके एकेक दाना द्विप वा समुद्र में डालते डालते शेष एक दाना रहे वह प्रतिशीलाकमे डाले तब प्रतिशीलाकमे दो दाना जमा हुवे फीर अनवस्थित पालासे एकेक
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१५३
दाना डालके शीलाक पालाको भरे ओर शीलकके एकेक दाना प्रतिशीलाकमे डालते जावे इसीमाफीक करते करते प्रतिशीलक पाला लक्ष जोजनके परिमाण वाला भी सीखा साहित भरा जावे तब अनवस्थित ओर शीलाक दोनोको छोडके प्रतिशीलाकको हाथमे लेके एक दाना द्विपमे एक दाना समुद्रमे डालते डालते शेष एक दाना रहे वह महा शीलाकमे डलदेना जीस द्विपमे प्रतिशीलाक पाला खाली हुवा है इतना विस्तारवाला ओर भी अनवस्थितपाला वनाके सरसवसे भरके
आगेके द्विप समुद्रमे एकेक दाना डालता जावे पूर्ववत् अनबस्थितपालासे शीलाकपालाको एकेक दानासे भरदे ओर शीलाक भरा जावे तब शीलाकसे प्रतिशीलाक भरदे और प्रति शीलाक पालासे पूर्ववत् एकेक दना डालते डालते महाशीकको भरदे आगे पांचमो कोइ भी पाला नहीं है इसी वास्ते महाशीलाक पाला भरा हुवा ही रेहेना देवे ओर पीच्छले जो अनवस्थित पालासे शीलाक भरे ओर शीलाक पालासे प्रतिशीलाक भरदे प्रतिशीलाक खाली करनेको अब महाशीलाकपालामे दाना समावेस नही हो शक्ता है वास्ते प्रतिशीलाक भी भारा हुवा रहे और अनवस्थित पालासे शीलाका पाला भर देवे आगे प्रति शीलाकमें दाना समावेश हो नहीं शके इसी वास्ते शीलाक पाला भी भरा हुवा रहे और अनचस्थित पाला भरा हवा है वह शीलाक पालामें दाना समावेश
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१५४ हो नहीं शके वास्ते अनवस्थित पाला भी भरा हूवा रहे इसी माफीक च्यारो पाला भरा हुवा है अब जो पीछे द्विप समुद्रमें सरसवके दाना डाला था उन्ही सर्व दोनोंको एकत्र कर एक रासी बनावे उन्ही रासीके अन्दर पूर्व भरे हुवे च्यारों पालोंके सरसव दाने मीला देवे उन्ही रासीके अन्दरसे एक दाना निकलकर शेष रासी है वह उत्कृष्ट संख्याते है अर्थात् दोय दानोंको जघन्य संख्याते कहते है और पूर्व जो बनलाये हवे तीन पालोंसे द्विप समुद्रमें सरसबके दाने ओर च्यार पाले भरे हुवे दानोंकों मीलाके एक रासी करे तीन दानोंसे लगाके उन्ही रासीमें दो दाना कम हो वहांतक मध्यम संख्याते होते है ओर रासीमें एक दाना कम होना उन्हीकों उत्कृष्ट संख्याते कहे जाते है और वह रहा हवा एक दाना रासीमें मीलादे अर्थात् समपुरण रासीकों जघन्य प्रत्येक प्रसंख्याते केहते है अर्थात् पेहला डाले हुवे द्विप समुद्रके सर्व सरसव एकत्र करके भरे हुवे च्यारों पालोंके सरसव भी साथमें मीलाके सबकी एक रासी बनादे उन्ही रासीकों जघन्य प्रत्येक असंख्याते कहेते है ओर उन्ही रासीसे सरसवका एक दांना निकाल लेवे तब शेष रासीकों उत्कृष्ट संख्याते केहते है अगर दो दाना रासीसे निकाल लेवे तब शेष रासीकों मध्यम संख्याते कहते है।
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प्रत्येक जघन्य असंख्यातेकि जो रासी है उन्हीकों रासी अभ्यास करे यथा - कोई आचार्योंका मत्त है कि जितना दाना रासीमें है उन्हीकों उतना गुणा करना जेसे कल्पनाकि रासीमें १०० दाना हो तो सोकों सोगुणा करनेसे १०००० होता है। दुसरा आचार्यों का मत है कि रासीमें जितने दाने है उन्हीकों उतनीवार गुणा करना जेसे रासीमें १० दानोंकि कल्पना कि जाय ।
१-१-१-१-१-११-१-१-१
१०-१०-१०-१०-१० -१०-१०-१०-१०-१०
( १ ) १०० प्रथम दशकों दशगुणा करतों. ( २ ) १००० सोकों दशगुणा. (३) १०००० हजारकों दशगुणा. (४) १००००० दशहजारको दशगुणा (५) १०००००० लचको दशगुणा (६) १००००००० पूर्वकों दशगुणा
(७) १००००००००
(८) १००००००००० (६) १००००००००००
(१०) १००००००००००० 15 - 19 यह तो कम्पनाकि रसी इ परन्तु जो जघन्य प्रत्येका
99 11
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99 99
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संख्याते कि रासकों इसीमाफिक असंख्याते वार गुणे करतों जो रासी आवे उन्हीको जघन्य युक्ता असंख्याते केहेते है अगर उन्ही रासीसे दो दाने निकाल के फीर रासीकी पृच्छा करे तो वह दो दाने कम कीये हूइ रासी मध्यम प्रत्येक प्रसंख्याते है अगर उन्ही रासीमे एक दाना डालके पृच्छा करे तों उत्कृष्ट प्रत्येक असंख्याते है और दुसरा दाना डाल दे तो जघन्य युक्ता असंख्याते होते है। (एक आविलका के समय परिमाण)
जघन्य युक्ता असंख्याते कि जो रासी है उन्हीकों पूर्ववत् रासी अभ्यासकर रासीसे दो दाने निकालके पृच्छा करतों वह रासी मध्यम युक्ता असंख्याते है अगर एक दाना डालके पृच्छा करते उत्कृष्ट युक्ता असंख्याते है ओर रहा हूवा एक दाना डालके पृच्छा करे तो जघन्य असंख्याते असंख्याता
जघन्यासंख्याते असंख्यात कि रासीको रासी अभ्यास पूर्ववत् करे उन्ही रासीसे दो दाना निकालके पृच्छा करे तों शेष रासी मध्यमासंख्याते असंख्यात है एक दाना रासीमे मीला दे तो उत्कृष्ट असंख्याते असंख्यात होता है और दुसरा दाना जो मीला दे तो जघन्य प्रत्येक अनन्ता होता है.
__ जघन्य प्रत्येक अनन्तों कि रासीकों पूर्ववत् रासी अभ्यास करे. उन्ही रासीसे दो दाना निकालके शेष रासी कि
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पृच्छा करे तो वह रासी मध्यम प्रत्येक अनन्त है अगर एक दाना रासीमे मीलाके पृच्छा करे तो उत्कृष्ट प्रत्येक अनन्सा होता है और दुसरा दाना मीलाके पृच्छा करे तो जघन्ययुक्त्ता अनन्ते होते है. .
___ जघन्य युक्ता अनन्ते कि रासीको रासी अभ्यास पूर्ववत करे उन्ही रासीसे दो दाना निकालके पृच्छा करतो मध्यमयुक्ता अनन्ता होता है उन्ही रासीमें एक दाना डालके पृच्छा करतों उत्कृष्ट युक्ता अनन्ते होते है ओर दुसरा दाना डालके पृच्छा करतो जघन्य अनन्ते अनन्ता होता है यह विधि अनुयागद्वार सूत्रयुक्त कही है।
मत्तान्तर एक आचार्यमहाराज केहते है कि जो उपर चोथो जघन्ययुक्ता असंख्याते है उन्हीका वर्ग करना जीतनेकों जीतने गुणा करना जेसे दशकों दशगुणा करनेसे १०० होता है इसी माफीक असंख्यातेकों असंख्यातगुणा करनेसे जोरासी हो उन्हीकों सातमा जघन्य असंख्याते असंख्यात केहते है अर्थात् रासीसे दो दाना निकालनेसे पांचमा मध्यम युक्ता असंख्याता होता है एक दाना मीलादेनेसे उत्कृष्ट युक्ता असंख्याते होते है दुसरा दाना मीलानेसे जघन्य असंख्याते . असंख्यात होता है।
जघन्य असंख्याते असंख्यातकि जो रासी है उन्ही
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सीको तीन दफे वर्ग करना जेसे कि पांचों पेहले वर्ग करनेसे २५ होता है दुसरी दफे २५ को वर्ग करनेसे ६२५ होता है तीसरी दफे ६२५ को ६२५ गुणासे ३६०६२५ होता है इसी माफीक सातमा बोल जो असंख्याते असंख्यात है उन्ही को त्रीवर्ग करके उन्हीके साथ १० बोल मीलाना.
(१) धर्मास्तिकाय के सर्वप्रदेश. (२) धर्मास्तिकाय के सर्वप्रदेश. (३) लोकाकशस्तिकायके सर्वप्रदेश. (४) एक जीवके आत्मप्रदेश.
(५) कर्मोंकि स्थितिबन्ध अध्यवसाय स्थान.
(६) अनुभाग - शुभाशुभ प्रकृतिके रसविभाग. (७) मन वचन काया के योगस्थान अर्थात् वीर्य अंस. (८) कालचक्र के समय.
(६) प्रत्येक जीवोंका शरीर.
(१०) निगोद जीवोंका शरीर ( असंख्याते औदारीक शरीर है वह )
पूर्वोक्त रासीके अन्दर यह दश बोल मीला के रासीकों तीनंवार पूर्ववत् वर्ग करे वह रासीसे दो दाने निकाल के पृच्छा करे तो आमा मध्यम असं० असंख्यात होता है एक दाना डाल के पृच्छा करे तो उत्कृष्ट संख्या असंख्यात होता है
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और दुसरा दाना डालकं पृच्छा करे तो जघन्य प्रत्येक अनन्ते होता है उन्ही रासीको और भी पूर्ववत् त्रीवर्ग करके दो दाना निकालनेसे मध्यम प्रत्येक अनन्ते होता है एक दाना मीलादेनासे उत्कृष्ट प्रत्येक अनन्ते होते है और दूसरा दाना मीलादेनेमे जघन्ययुका अनन्ते होते है ( इतने अभव्य जीव है )
जघन्य युक्ता अनन्ते को त्रीवर्ग-पूर्ववन् तीनवार वर्ग करके जो गमी आवे उन्ही रासीसे दो दाना निकालके शेष गमीकी पृच्छा करे तो वह रामी पांचमा मध्यम युक्ता अनन्ता होता है एक दाना डालके पृच्छा करे तो जघन्य अनन्त अनन्ता होता है ।
जवन्य अनन्त अनन्त को और भी तीनवार वर्ग करे तो भी उन्कट अनन्त अनन्न न हो उन्ही रामीकं अन्दर ६ बाल और भी मीलावे यथा--
। मिद्धोंक सब जीव ( अनन्त है ) - निगोदकं जीव : म मादर निगाट ) ... वनाम्पनिक जीव । प्रत्येक और साधारण ) : । भूत भविष्य वतमान कालका समय :: परमाणु बादि सब पर स्कन्ध ६) लोकालोक के याकामा देश
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पूर्वोक्त रासीके अन्दर यह ६ बोल मीलाके ओर भी तीनवार वर्ग करना ओर वह वर्ग रासी हो उन्हीके अन्दर केवलज्ञान केवलदर्शनके सर्व पर्याय मीलानेसे उत्कृष्ट अनन्ते अनन्त होता है परन्तु लोकालोकमे एसा कोई भी पदार्थ नही है वास्ते शास्त्रकारोने यह सर्व को आठमा मध्यम अनन्ते अनन्तमे ही गीना है तत्त्वकेवलीगम्य ।
२१ बोलोकी संख्या. (३) संख्याते के तीन बोल जघन्य मध्यम उत्कृष्ट
(६) असंख्याते के नव बोल ( १ ) जघन्य प्रत्येक असंख्याते, (२) मध्यम प्रे० अ, (३) उ० प्र० अ०, (४) जघन्ययुक्ता असंख्याते, (५) म युक्ता असं०, (६) उ० यु० असं०, (७) जघन्य असंख्याते असंख्यात, (८) मध्यम असंख्याते असं० (६) उत्कृष्टासंन्याते असंख्यात इति.
(8) अनन्ते के नव बोल ( १ ) जघन्य प्रत्येक अनन्ता (२) मध्यम प्र० अनन्ते (:) उ० प्र० अनन्ते (४) ज० युक्ता अनन्ते ( ५ ) मध्यम युक्ता अनन्ते (६) उत्कृष्ट युक्ता अनन्ते (७) जगन्य अनन्ते अनन्ता (८) मध्यमानन्ते अनन्ता (६) 0 उत्कृष्टानन्ते अनन्ता इति.
॥ सेवंभंते सेवंभंते तमेव सच्चम् ॥
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हीसाब १६७७ का.
.
जमा.
नावे.
... ६५॥ पहेला पर्युषणमें सुपनादिकी श्रा- । १७७॥ नन्दीसूत्र १००० का. वन्दका.
१०३।। अमे साधु शा माटे थया १०००। १२०॥ दुजा पर्युषणमें सुपनादिका आ- ३५९। सात पुष्पोंका गुच्छ १००० वन्दका.
६१॥ शीघ्रबोध भाग १० वा १००० .. ४- आठवा भागकी बचत.
२७३।। शीघ्रबोध माग ११ वा १००० १७५, भगवतीसूत्रकी पूजाका रु. ३२५ २७३॥ शीघ्रबोध भाग १२ वा १००० के अन्दरसे.
। शीघ्रबोध भाग १३ वा १००० २०३६॥
शीघ्रबोध भाग १४ वा १०००
२३६। द्रव्यानुयोग प्र-प्र. १५०० . श्री संघके सेवक,
१३- शीघ्रबोध भाग ९ का लागता. मेघराज मोणोयत..
२०३६॥ मु० फलोधीवाला.
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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला पुष्प नं० ५१
शीघ्र बोध भाग १५ वा
लेखक:मुनिश्री ज्ञानसुन्दरजी
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विषयानुक्रमणका। . विपय। १ प्रश्न ७१ उत्तराध्ययन अ०२९ २ नमिराज ऋषीके प्रश्नोत्तर ३ केशी गौतमके प्रश्नोतर ४ प्रदेशी रामाके प्रश्नोत्तर ५ रोहा मुनिके प्रश्नोत्तर ....
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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुप्पमाला पुष्प नं० ५१
श्री रत्नप्रभामूरि सद्गुरुभ्योः
अथश्री
शीघ्रबोध
अथवा थोकडा प्रबन्ध भाग १५ वां
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संग्राहकः----- श्रीमदुपकेश (कमला) गच्छीय मुनि श्रीज्ञानसुन्दरजी (गयावरचन्दजी)
प्रकाशकः-- शाहा हीरबन्दी फूलचंदजी कोचर मु० फलांधी (मारवाड)
--0000--- प्रथमा वृत्ति १००० वीर संवत् २ ४ ४ ८
विक्रम सं० १९७८
जेर विजय प्रेस-सूरतमें मूलचंद किसनदास कापडियाने
मुद्रित किया ।
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________________ प्रस्तावना। प्यारे वाचक वृन्दों। शीघ्रबोध भाग 1-2-3-4-5-6-7-8-9-1011-12-13-14 आप लोगोंकि सेवामें पहुंच चुका है / आज यह 15 वां भाग आपके कर कमलों में ही उपस्थित है। इन्ही 15 वा भागके अन्दर पूर्व महाऋषियों ,स्वआत्म-कल्याण और पर आत्मावोंपर उपकार करनेके लिये तथा आत्मसत्ता प्रगट करनेवाले महात्वके प्रश्न तथा प्रश्नोके उत्तर सिद्धान्तोद्वारे शकलित किये थे। उन्होंकों सुगमताके साथ हरेक मोक्षाभिलाषीयोंके सुख सुख पूर्वक समझमें आशके इस हेतुसे मूलसूत्रोंसे भाषान्तर कर आप कि सेवामें यह लघु किताब भेजी जाती है आशा है कि आप लोग इस आत्म कल्याणमय प्रश्नोत्तर पढ़के पूर्व महाऋषियोंके उदेशको सफल करोगे शम् /
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श्री रत्नप्रभसूरि मद्गुरुभ्योनमः शीघ्रबोध भाग १५ वां।
प्रश्नोत्तर नं० । सूत्र श्री उत्तराध्ययनजी अध्य० २९
(७३ प्रश्नोत्तर)- . आत्म कल्याण करनेवाले भव्यात्मावोंके लिये निम्नलिखत प्रश्नोत्तर बडे ही उपयोगी है वास्ते मौक्ताफलके मालाकि माफिक हृदयकमलके अन्दर स्थापित कर प्रतिदिन सुधारस पान करना चाहिये।
(१) प्रश्न-संवेग ( वैराग ) संसारका अनित्यपना और मोक्षकि अभिलाषा रखनेवाले भीवोंको क्या फलकि प्राप्ती होती है।
(उत्तर) संवेग ( वैराग ) कि भावना रखनेसे उत्तम धर्म करनेकि श्रद्धा होगा। उत्तम धर्मकि श्रद्धा होने पर संसारीके पौलीक सुखोंको अनित्य समझेगा अर्थात परमवैराग्य भावकों प्राप्त होगा। जब अन्तानुबंधी क्रोध मान माया लोभका क्षय करेगा, फिर नये कर्म न बन्धेगा इन्हीसे मिथ्यात्वकि बिलकुल विशुद्धि होगा। जब सम्यक् दर्शनकि आराधना करता हुवा उसी . मवमें मोक्ष जावेगा, आगर पेस्तर किसी गतिका आयुष्य बन्ध भी गया हो तो भि तीन भवों में तो आवश्यहि मोक्ष जावेगा। . . (२) प्रश्न-निर्वेद (विषय अनाभिलाषा ) भाव होनेसे पीजोहो क्या फलकि प्राप्ती होती है ?
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(उ०) निर्वेद होनेसे जीव जो देवता मनुष्य और तीर्यक सम्बन्धी कामभोग है उन्होंसे अनाभिलाषी होता है फिर शब्दादि सर्व कामभोगोंसे निवृति होता है फिर सर्व प्रकारके भारम्भ सारम्भ और परिग्रहका त्याग कर देते है एसा त्याय करते हुवे संसारका मार्गको बीलकुल छेदकर मोक्षका मार्ग पर सीधा चलता हुवा सिद्धपुर पटनकों प्राप्त कर लेता है।
(३) प्रश्न- धर्म करनेकि पूर्ण श्रद्धावाले भीवोंको क्या फल ? . (उ०) धर्म करनेकि पूर्ण श्रद्धावाले जीवोंको पूर्व भवमें साता वेदनिय कर्म किये जिन्होंसे इस भवमें अनेक पौदगलीक सुख मोला है उन्होंसे विरक्त भाव होते हुवे गृहस्थावासका त्याग कर श्रमण धर्मको स्वीकार कर तप संयमादिसे शरीरी मानसी दुःखोंका छेदन भेदन कर माव्याबाद सुखोंमें लोक अग्र भागपर विराजमान हो जाते है।
(४) प्रश्न-गुरु महाराज तथा स्वधर्मी भाइयोंकी शुश्रषा पूर्वक सेवा भक्ति करनेसे जीवोंको क्या फल होता है ?
(उ) गुरु महाराज तथा स्वधर्मी भाइयोंकि शुश्रषापूर्वक सेवा भक्ति करनेसे जीव विनयकि प्रवृतिको स्वीकार करता है इन्हीसे जो बोध बीजका नाश करनेवाली आसातनाकों मूलसे उखेड देता है अर्थात आसातना नहीं करनेवाला होता है। इन्हींसे दुर्गतिका निरूद्ध होता है तथा गुरु महाराजादिकी गुण कीर्ति करनेसे सद्गति होती है सदगति होनेसे मोक्षमार्ग (ज्ञान दर्शन चरित्र) को विशुद्ध करता है और विनय करनेवाला लोकमें प्रशंस्या करने लायक होता है सर्व कार्यकि सिद्धि विनयसे होती,
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है एक भव्यात्मावोंको विनय करता हुवा देखके अन्य जीवोंको भी विनय करनेकि रुचि उत्पन्न होती है। अंतिम विनय भक्तिका ‘फल है कि जन्मनरा मरणादि रोगोंको क्षय करके मोक्षकों प्राप्त
कर लेता है। . (५) प्रश्न-लगे हुवे पापकि आलोचना करनेसे जीवोंको क्या फल होता है।
(उ०) लगे हुवे पापकि आलोचना करनेसे जो मोक्षमार्गमें विघ्नभूत और अनन्त संसारकि वृद्धि करनेवाले मायाशल्य, निदानशल्य मिथ्या दर्शनशल्यको मुलसे निष्ट कर देते है । इन्होंसे जीब सरल स्वभावी हो जाते है सरल स्वभावी होनेसे जीक स्त्रिवेद नपुंसकवेद नही बन्धे अगर पेहले बन्धा हुवा हो तो. निज्जरा (क्षय) कर देते है। वास्ते लगे हुवे पापकि आलोचना करने में प्रमाद बिलकुल न करना चाहिये । ___ (६) प्रश्न:-अपने किये हुवे पापकि निद्या करनेसे क्या फल होता है ?
(उ०) अपने किये हुवे पापकि निद्या करनेसे जीवोंको पश्चाताप होता है अहो मैंने यह कार्य बूरा किया है । एसा 'पश्चाताप करनेसे जीव वैराग्य भावकों स्वीकार करता है एसा 'करनेसे जीव अपूर्व गुणश्रेणिका अवलम्बन करते हुवे जीव दर्शन मोहनिय कर्मकों नष्ट करता हूवा निज आवास (मोक्ष) में पहुंच जाता है।
(७) प्रश्न-अपने किये हूवे पापोंकों गुरु महारानके आगे घृणा करते हुवे जीवोंको क्या फल होता है ?
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... (उ०) अपने किये हुवे पापोंको गुरु सन्मुख घृणा करनेसे प्रथम तो अपनि आत्माको विशूड बनानेके लिये निज दोष प्रगट करनेका स्थान मीला है इन्हींसे अप्रस्थ योगोंका निष्ट करता हुवा प्रशस्थ योगोंको स्वीकार करता है एसे करनेसे जीवोंके ज्ञानावर्णीय दर्शनावर्णीय कर्मोका दल आत्माके ज्ञानदर्शन गुणको रोक रखा है उन्ही कर्मदलको निष्ट करता है इन्हीसे अपूर्व ज्ञानदर्शन गुणकि प्राप्ती होती है।
(८) प्रश्न-सामायिक ( पटावश्यकसे पेहलावश्यक ) करनेसे 'क्या फल होता है ?
(उ०) सा० शत्रु मित्रोंपर समभाव रूप जो सामायिक करते हैं उन्ही जीवोंको सावध-पापकारी योगोंका वैपार नहीं रहता है. अर्थात नवा कर्मोका बन्ध नहीं होता है।
(९) प्रश्न-चौवीस तीर्थंकरोंकि स्तुतिरूप चोविस्थो (दुसरा वश्यक) करनेसे क्या फल होता है ?
(अ) चौवीस तीर्थकरोंकि स्तुति करनेसे दर्शन (सम्यक्त्व) विशुद्ध होता है अर्थात् गुणी जनोंका गुण करनेसे अन्तःकरणा स्वच्छ हो जाता है ।
(१०) प्रश्न-गुरुमहाराजको द्वादशावतन वन्दन (तीसरावश्यक) करनेसे क्या फल होता है ?
(3) गुरु वन्दन करनेसे जीवोंके निचगौत्रका बन्धनहीं होता है अगर पेहला हवा होतो क्षय हो जाता है और उच्च गोत्र यशोकीर्ति शुभ शौभाग्य मुस्वर आदि अच्छे प्रकृतीयोंकि प्राप्ती होती है अर्थात गुरवादिकों वन्दन करनेसे अपनि धुता
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और दुसरेका बहूमान होता है इन्होंसे जीव कोसे लघुभूत होता है।
(११) प्रश्न-प्रतिक्रमण ( चोथावश्यक ) करनेसे जीवोंकों क्या फल होता है ?
(उ) प्रतिक्रमण करनेसे जो जीवोंके व्रतरूपी नाबाके पतिः चार रूप हूवा छेद्र उन्हींका निरूद्ध होता है एसा करनासे जीवोंकों आश्रव और सवले दोषोंसे निवृतिपना होता है इन्होंसे मष्टप्रवचन कि माता रूपी संयम तपके अन्दर समाधिवान्त पणे विचारे।
(१२) प्रश्न-कायोत्सर्ग (पांचमावश्यक) करनेसे क्या फल होता है ?
(उ) कायोत्सर्ग करनेसे जीव मूत वर्तमान काल के प्रायश्चितको विशुद्ध करता है जैसे मारके बहान करनेवालेका भार उतर जानेसे सुखी होता है वेसे ही प्रायश्चित उतर जानेपर जीव मी सुखी हो जाते है।
(१३) प्रश्न-पच्चक्खान (छटावश्यक) करनेसे क्या फल होता है।
(उ) पञ्चक्खान करनेसे जीवोंकि इच्छाका निरूद्ध होता है ऐसा होनेसे सर्व द्रव्यसे ममत्वभाव मीट जाता है ममत्व न रहनेसे जीव शीतलीभूत होके संयमके अन्दर समाधिपने विचरता है।
(१४) प्रश्न - "थाइथुइ मंगलं" चैत्यवन्दन करनेसे क्या फक होता है ?
. () चैत्यवन्द्रन करनेसे जीवोंको बोधबीज रूपिचार दर्शन चरित्र कि प्राप्ती होती है इन्होंसे अन्तः क्रिया करके मोक्ष
..
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(८) पदकी आराधन करते है तथा शेष कर्म रेहमानेपर वैमानिक देवोंमें जाने योग्याराधना होती है वहांसे मनुष्य होके मोक्ष जाता है ।
(१५) प्रश्न-काल प्रतिलेखन ( प्रतिक्रमण करने के बाद स्वद्याय करनेके लिये आकाशकि १० अस्वद्यायका प्रतिलेखन) करनेसे क्या फल होता है ?
(उ) कालप्रतिलेखन करनेसे जीवोंके ज्ञानावर्णिय कर्मका क्षय होता है कारण कालप्रतिलेखन करने पर सर्वसाधु सुन पूर्वक सुत्रोंका पठन पाठन कर शक्ता है इन्होंसे ज्ञानपदकी आराधना होती है ?
(१६) प्रश्न-लगे हुवे पापोंका गुरु मुखसे आगमोक्त प्रायश्चित लेनेसे जीवोंको क्या फल होता है ? .... (उ) गुरु मुखसे पापोंका प्रयाश्चित लेनेसे पापोंसे विशुद्ध होते हुवे निरातिचार हो जाते हैं इन्हीसे आचार धर्मका आराधिक होते हुवे मोक्ष मार्गकोंनिर्मल करता है । ' (१७) प्रश्न-किसी भी जीवोंके साथ अनुचित वर्ताव होने पर उन्हिसे माफी अर्थात् क्षमत्क्षामणा करनेसे जीवोंको क्या फल होना है।
(उ) किती० सर्व जीवोंसे क्षमत्क्षामणा करनेसे अन्तःकरणसे प्रशस्थ भावना होती है प्रशस्थ भावना होनेसे सर्व प्राण मृत जीव सत्वसे मित्र भावना उत्पन्न होता है इन्होंसे अपने भावोंकि विशुद्धि होती है और सर्व प्रकारके मयसे मुक्त होते हुने निर्भय होके निज स्थानको प्राप्त कर लेते हैं।
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( ९ )
(१८) प्रश्न- स्वाद्याय (आगमोकि आवृति) करनेसे क्या फल
होता है ?
( 3 ) स्वाद्याय करनेसे जीवोंका अध्यवशाय ज्ञान रमणता में रहते हैं इन्हीं से ज्ञानावर्णिय कर्मका क्षय होता है तथा सर्व दुःखके अन्तः करनेमें यह सूत्रोंकि स्वद्याय मौख्य कारण भूत है ।
(१९) प्रश्न-वाचना सूत्रोंकि वाचना देना तथा वाचना लेनेसे जीवोंको क्या फल होता है ?
(3) सूत्रक वाचना देनेसे कर्मोकि निर्जरा होती है और - सूत्र धर्म कि अनासातना अर्थात सूत्रोंका बहुमान होता है वाचना देने से तीर्थ धर्मका आलम्बन होता है तीर्थ धर्मका आलम्बन करता इंवाजीव कर्मोंकि महान् निर्जरा और संसारका अन्तः करता है शासनका आधार ही आगमोंकि वाचना पर रहा हुवा है वाचना देने लेने से ही शासन आमोध चल रहा है वास्ते वाचना देने लेने में समय मात्रका प्रमाद न करना चाहिये ।
(२०) प्रश्न- ज्ञान वृद्धिके लिये तथा शंका होनेपर प्रश्न पूच्छते है उन्नीं जीवोंको क्या फल होते है ।
( उ ) प्रश्न पुच्छने से सूत्र अर्थ और सूत्रार्थ विशुद्ध होते हैं और जो शंका होनेसे कक्षामोहनिय उत्पन्न हुई थी वह प्रश्न पुच्छनेसे निष्ट हो जाती है चित्त समाधि होने पर नये नये ज्ञान कि प्राप्ती होती है ।
(२१) प्रश्न- सिद्धान्तों को वारवार पठन पाठन करनेसे क्या फल होता है ?
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(१०)
(3) सिद्धान्त विस्मृत हो गये सूत्रार्थ कि स्मृति होती है वारवार पठनपाठन करनेसे अक्षर लब्धि तथा पदानुस्वारणी लब्धियोंकि प्राप्ती होती है।
(९९) प्रश्न-अनुपेक्षा- सुत्रार्थ पर प्रति समय उपयोग देता हुवा अनुभव ज्ञानकी विचारण करते हुवे जीवोंको क्या फल होता है।
(३) अनुपेक्षा-अनुभव ज्ञानसे विचारणमें उपयोग कि प्रवृति होनेसे आयुष्य कामकों छोड़के शेष सातों कौका धन प्रबन्ध होतो शीतल करे, दीर्घकालकि स्थितिवाले कर्मोको स्वल्पकालकि स्थितिवाला कर देते है, तीव्र रसवाले कार्मोको मंद रस वाला कर देते है बहुत प्रदेशवाले कर्मोको स्वल्पप्रदेशवाला करे, आयुष्य कर्म स्यात् बन्धे ( वैमानिकका ) स्यात् न बन्धे (मोक्ष जावे तो) मासाता वेदनिय वारवार नहीं बन्धे इस धारापार संसार समुद्रको शीघ तिरके पारपामें अर्थात् अनुपेक्षा है वह कर्मोके लिये बड़ा भारी शस्त्र है ।
(२३) प्रश्न-श्रोतागणको धर्म कथा सुनानेसे क्या फल होता है।
(उ) धर्मकथा केहनेवाला हमारों गमे जीवोंका उद्धार करता है इन्होंसे कर्मों कि महान् निर्जरा होती है और साथहीमें शासनकी प्रभावना होती है इन्सोंसे भविष्यमें अच्छे फलका अस्वादन, करता इवा मोक्ष जावेगा।
(२४) प्रश्न-सुत्रोंकि माराधना करनेसे क्या फल होता है।
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(उ) सूत्रोंकि सेवा भक्ति पूजन पठन पाठन करनेसे जीवोंको जो संसारमें भ्रमन करानेवाला अज्ञान है उन्सोंकों निष्ट करता हुवा सर्वप्रकारका कलेसकों करकर आप समाधिमावसे उत्तम स्थान प्राप्त करता है ?
(२५) प्रश्न- श्रुतज्ञान पर एकाग्रमनकों लगा देनेसे क्या फल होता है।
(3) श्रुत ज्ञान पर एकाग्र चित्त लगा देनेवालेकों पाप वैपारों में जाते हुवे मनका निरूद्ध होता है नये कर्म नहीं बन्धते हैं पूर्व कर्मोकि निजरा होती है भविष्यमें निर्मल ज्ञानकि प्राप्ती होती है।
(२६) प्रश्न-सत्तरा प्रकार के संयम आराधन करनेसे क्या फल होता है ? .
(उ०) संयम (शत्रु मित्र पर समभाव) पालनेसे जीवोंके आश्रवरूपी नालासे नये कर्म आना बन्ध हो जाता है।
(२७) प्रश्न-बारह प्रकारके तप करनेसे क्या फल होते है ?
(उ०) तपश्चर्य करनेसे जीवोंके पूर्व कालमें संचय किये इवे कर्मोका क्षय होता है कारण तप है वह इच्छाका निरूद्ध करना है और इच्छाका निरूद्ध करना वहा ही कर्मोंकी निर्जर है .. (२८) प्रश्न-पुराणा कर्मोका क्षय होनेसे जीवोंकों क्या फल होता है ?
(उ०) पुराणा कर्माका क्षय होनेसे जीवोंकि मन्तः क्रिया होती है अन्तीम क्रिया होनेसे जीव अनन्तकालकि सौं : कोसे प्रीत थी उन्हीको तोडके मोक्षमें पधार जाते है।
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(१२) (१९) प्रश्न-सुखशय्या में सयन करनेसे क्या फल होता है।
(उ०) सुख शय्यापर सयन करनेसे जीवोंके जो चंचलता चपलता अधीर्यता आतुरतादि प्रकृतियों है उन्होंका निष्ट होजाता है इन्होंसे कोमलताभाव होजाते है तब पर जीर्वोको दुखी देखते ही कम्पा होती है और सुख शय्याका सेवन करनेसे शोक रूपी दु. श्मनका नाश होता है इन्हीसे चारित्र मोहनीय कर्म मूलसे चला जाता है तब सुख शय्याके अंदर चरित्र धर्मसे रमणता करता हुवा श्रेणीका अवलम्बन करके शिव मन्दिर पर पहुंच जाते है ।
(३०) प्रश्न-अप्रतिबंद्ध (गृहस्तादिका परिचयत्याग ) होनेसे क्या फल होता है। . (उ०) अप्रतिबंध होनेसे निःसंग ( संगरहित ) होजाता है निःसंग होनेसे चित्तका एकाग्रपणा रेहता है चित्तका- एकाग्रपणा रेहनेसे राग द्वेष तथा इन्द्रियोंकी विषयका तीस्कार होता है एसा होनेसे जीब आनन्दचित्तसे स्वकार्यसाधन करता हुवा अप्रतिबन्धपणे विचरे ?
(३१) प्रश्न-पशु नपुंसक स्त्रियों रहित मकान में रेहनेसे क्या फल होता है।
(उ०) एपा मकान में रेहनेसे चरित्रकी गुप्ती अच्छी तरहेसे पल शकती है और विगई आदिसे त्याग करनेकी इच्चा होती है १ श्री स्थानायांग सूत्रके चतुर्थ स्थानेमे च्यार मुख शय्या है । 11) निग्रन्थके वचनों में शंका कक्षा न करना । (२) काम भोगकि अमिलाषा रहित होना । (३) शरीरकि शुभषा विभूषा न करना । (४) आहार पानीकि शुद्ध गवेषना करना ।
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ईन्होंसे. ब्रह्मचर्य व्रतकी विशुद्धता करते हुवे जीव अष्ट कर्मोकी गंठीको छेदके मोक्ष जाते है ?
(३२) प्रश्न-विषय कषायसे विरक्त होनेसे क्या फल होता है ?
(उ.) विषय कषायसे विरक्त होनेसे जीव पाप कर्म नहीं करते है इन्होंसे अध्यवशाय रूपी शस्त्र तीक्ष होते है । उन्होंसे च्यारगतिरूप विष वेलीको तत्काल छेदके संसारसे विमुक्त हो भाते हैं।
(१३) प्रश्न-संभोग-साधुवोंके तथा साध्वियोंके आपसमें वस्त्रपात्र वाचना आहार पाणी बादि लेने देनेका समोम होता है उन्होका त्याग करनेसे जीवोंको क्या फल होता है ।
(उ०) संभोगका त्याग करनेसे जीव अवलम्बन ( आसा) का क्षय करता है अर्थात् संभोग होनेसे एक दूसरेकी साहिताकी मासा करते है और त्याग करनेसे आप निरालम्बन होजाते है। निरालम्बन होनासे अपनी स्व सत्तापर ही कार्य करनेमें पुरुषार्थ करते है और अपना ही लाभमें संतुष्ट रहते हुवे दुसरी मुख शय्या: का माराधन करते हुवे सिंहकी माफीक विचरे । .
(३४) प्रश्न-औपधिवस्त्र पात्रादिका त्याग करनेसे क्या फल होना है। ... (उ) औपधिके त्याग करनेसे "अपलिमत्थ" अर्थात औपधि है वह संयमका पलिमंत्थ हैं कारण औपधि रखनेसे उन्होंको देखना संरक्षन करनादि अनेक विकल्प करना पडता है उन्होंसे निवृति
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(१४) होनेसे शीतोष्ण कालमें किसी कीस्मकि तृष्णा नहीं रहेती है इन्होंसे आनन्द मगलसे संयम यात्रा निर्वाहा शक्ते है ।
(३५) प्रश्न-सदोष आहारपाणोका त्याग करनेसे क्या फल होता है ?
. (उ) सदोष आहारादिका त्याग करनेसे जिन्ही जीवोंके शरीरसे बाहार बनता था उन्ही जीवोंकी अनुकम्पाको स्वीकार करता हूवा अपने जीवनेकी आसाका परित्याग करते हुवे जो आहार संबन्धी कलेश था उन्होंसे भी निवृति होके सुख समाधीके अन्दर रमणता होती है।
(७६) प्रश्न-कषाय (क्रोधादि)का त्याग करनेसे क्या फल होता है ?
(उ) कषायका त्याग करनेसे जीव निकषाय अर्थात् वीतराग भावी होजाता है वीतरागी होनासे सुख और दुःखको सम्यक् प्रकारे जानता हूवा अकषाय स्थानपर पहुंच जाता है । - (३७) प्रश्न-योगों ( मन वचन कायके वैपार )का त्याग करनेसे क्या फल होता है ?
(उ) योगोंका त्याग करनेसे जीव अयोगावस्थाको स्वीकार करता है अयोगी होनेपर नवा कर्म नहीं बन्धते है चवदमें गुण. स्थान अयोगीगुणश्रेणीपर छडते हुवे पूर्व कर्मोकी निर्जरा करें शीघ्र ही मोक्षमें जाते है।
(३) प्रश्न-शरीर ( तेजस कार्मणादि)का त्याग करनेसें
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. (१५) (उ) तेनस कार्मण शरीर जीवोंक अनादिकालसे साथ ही लगे हुवे हैं और मोक्ष जाते समये ही इन्होंका त्याग होते हैं वास्ते तेजप्स कार्मण शरीरका त्याग करनेसे सिद्ध मतिश्यको प्राप्त करते हूवे लोकके अग्र भाग पर जाके विराजमान होनाते है अर्थात् अशरीरी होजाते है। ___ (३९) प्रश्न-शिष्यादिकि साहिताका त्याग करनेसे क्या फल होता है ?
(उ०) साहिता लेना (इच्छा) यह एक कमजोरी ही है वास्ते साहिताका त्याग करनेसे जीव एकत्व पणाको प्राप्त करते है एकत्व होनेसे जीवको काम क्रोध कलेश शब्दादि नही होता है स्वसत्ता प्रगट हो जाती है इन्होंसे तप संयम संवर ज्ञान ध्यान समाधि आदिमें विघ्न नही होता है निर्विघ्नता पूर्वक आत्म कार्यको साधन कर शक्ता है।
(१०) प्रश्न-भात्त पाणी (संथारा) का त्याग करनेसे क्या फल होता है ?
(उ०) आलोचना करके समाधि सहित भात पाणीका त्याग करनेसे जीवोंके जो अनादि कालसे च्यारों गतिमें परिभ्रमण करानेवाले भव थे उन्होंकि स्थितिका छेदन करते हुवे संसारका अन्तं कर देता है।
(४१) प्रश्न-स्वभाव (अनादि कालसे अठारे पाप सेवनरूप प्रवृत्तिका त्याग करनेसे क्या फल होता है ? . (७०) स्वभावका त्याग करनेसे अठारे पॉपसे निवृत्ति हो माती है इन्होंसे जीवोंकों सर्व व्रतीरूप स्वपणतिमें रमणता होती
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(१६) है इन्होंसे जीव शुक्लध्यान रूपी अपूर्व कारण गुणस्थानका आवलम्बन करते हुए च्यार धनघाती (ज्ञानावर्णिय, दर्शनवर्णिय, मोहनिय, अन्तराय कम) कर्मोका क्षय कर प्रधान केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्षमें जाता है।
(४२) प्रश्न-प्रतिरूप-श्रद्धायुक्त साधुके लिंग रजो हरण मुखस्त्रादि धारण करनेसे क्या फल होता है।
(उ०) साधु लिंग धारण करनेसे द्रव्ये आरंभ सारंभ समारंभ तया परिग्रह आदि अनेक कलेशोंका खजांना जो संसारिक बन्धनसे मुक्त होता है भावसे अप्रतिबंध विहार करते हुवे राग द्वेष कषाय विषयादिसे विमुक्त होता है जब लघुभूत ( हलका ) होके अप्रमतगजपर आरूढ होके माया शल्यादिको उन्मुल करते हुवे बनेकोगम जीवोंका उद्धार करते है कारण साधुका लिंग जग जीवोंको विसवासका भाजन है और कर्म कटकका नाश करनेमें मुनिपद साधक है समिती गुप्ती तपश्चर्य ब्रह्मचर्य मादि धर्म कार्य निर्विघ्नतासे साधन हो सक्ते है इन्होसे स्वपर मात्मावोंका कल्याण कर परंपरा मोक्षमे जाते है।
(४३) प्रश्न-व्ययावच्च-चतुर्विध संघकि व्यवावच्च करनेसे क्या फल होता है।
(3) चतुर्विध संघकि व्ययावच्च करनेसे-तीर्थकर नाम गौत्र उपार्जन करते हैं कारण व्ययावच्च करनेसे दुसरे जीवोंको समाधी होती है शासनकि प्रभावना होति है भवान्तरमें यश कीर्ति शरीर सुन्दर मजबुत संहननकी प्राप्ती होती है यावत् तीर्थ पद भोगवके मोक्षमे जाते है।
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(४४) प्रश्न-ज्ञानादि सर्व गुण संपन्न होनेसे क्या फल होत है ?
(उ) ज्ञानादि सर्वगुण संपन्न होनेसे फिर दुसरी दफे संसारमें जन्म मरण न करे अर्थात शरीरी मानसी दुःखोंका अन्न कर मोक्षमें जावे । ___ (४५) प्रश्न- राग द्वेष रहित (वीतराग) होनेसे क्या फल होता है। . (उ०) राग द्वेष रहित होनेसे धन धान्य पुत्र कलत्र शरीर आदि पर मस्नेह दूर हो जाता है तब शब्द रूप गन्ध रस स्पर्श इन्होंके अच्छे होने पर राग नहीं बुरे होने पर द्वेष नहीं उत्पन्न होते हैं अर्थात् अच्छा और बुरे निद्या और स्तुतिसर्व पर शमभाव हो जाते है । ..
(४६) प्रश्न-क्षमा करने से जीवों को क्या फल होता हैं।
(उ) क्षमा करनेसे जीवोंके परिसह रूप जो महान् शत्रु है उन्हीको क्षमा रूपी कवच (शस्त्र से पराजय कर देता है पराजय करनेसे स्वपर आत्मावोंका शीघ्र कल्याण होता है । शान्ति करनेके रिये यह एक परम औषधी है।
(४७) प्रश्न-निर्लोभता रखनेसे क्या फल होता है। ... (उ) निर्लोभता रखनेसे अकिंचन भाव होता है इन्होंसे जो नीवोंके आकाश प्रदेशकि माफोक अनंती तृष्णा लग रही है उन्हों को शांत कर देता है।
(४८) प्रश्न मईव (कोमलता) गुण प्राप्त होनेसे क्या फल होता है।
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(१८) (उ०) कोमरता होनेसे जीव मान रहित होता है मान रहित होनेपर उहतता दूर होती है इन्होंसे जीव अष्ट प्रकारे जो दम है उन्होंसे हमेश दुर रेहता है इसीसे भवान्तरमें उच्च जाति कुलमें उत्पन्न होता हुवा सम्यक् ज्ञानादिकों प्राप्ती कर स्वकार्य साधन करेता हुवा विचरेगा।
(४९) प्रश्न-अर्जव-माया रहीत होनेसे जीवों को क्या कल होता है।
(उ०) मायारहित होनेसे भावका सरल भाषाका सरल कायाका सरलपना होता है इन्हों से योग ( मनवचन काया ) अवि संवाद (समाधि) पने रेहता है एसा होनेसे त्रिवेद नपुंसक वेद नही बन्धता है । भवान्तरमें सम्यक्त्वकी प्राप्ती होते ही कर्म शल्यको निकाल अवस्थित स्थान स्वीकार करेगा।
(५०) प्रश्न-भाव सत्य होनेसे जीवोंको क्या फल होता है।
(उ०) भाव सत्य होनेसे जीवों का अन्तःकरण विशुद्ध होता है अन्तःकरण विशुद्ध प्रवृति करते हुवे अरिहंत धर्मका आराधन करनेकों सावधान होगा एसे होनेसे भवान्तरमें भी चरित्र धर्मका भाराधीक होगा।
(५१) प्रश्न-किरण सत्य होनेसे क्या फल होता है ?
(उ०) करण सत्य होनेसे जीव जेसे मुहसे केहते है वेप्साही कार्य करके वतला देते है जेसे प्रतिलेखनादि क्रिया कहे उसी मुतावीक करते भी है। "(५२) प्रश्न-योग सत्य होनेसे जीरोंकों क्या फल होता है। (उ०) योग (मनवचनकाया) सत्य होनेसे जीवोंके योगोंकि
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( १९ ) विशुद्धता होती है विशुद्ध योगोंसे प्रशस्थ क्रिया करते हुवे चारित्र धर्मकि आराधना होती है।
(१३) प्रश्न- मनकों पापोंसे गुप्त रखनासे क्या फल होता है ? (उ०) मनकों पापोंसे गुप्त रखने से मनका एकत्वपना होता है मनका एकत्वापना होने से जो मन संबन्धी पाप आता था वह रूक गया और मनोगुप्तरूप जो संयम था उन्होंका आराधीक होता है।
(१४) प्रश्न- वचनगुप्ती रखनेसे क्या फक्र होता है ? ( उ० ) वचनकि गुप्ती रखनेसे को प्यार प्रकारकि विकभा करनेसे पाप आता था उन्होंकों रोक दीया और वचनसे जो करने योग ज्ञान ध्यान पठनपाठन स्वद्यायदि कार्यका आराधीक होता है ।
(११) प्रश्न - काय गुप्ती करनेसे क्या फल होता है ? ( उ० ) कायागुप्ती रखनेसे जो काया अयत्नासे हलन चलनादिसे आते हूवे' आश्रवको रोक देता है और विनय व्यवच आसन ध्यानदि कायासे करने योग संयम क्रियाका माराधीक होता है ? (१६) प्रश्न- मनके कल विकलकों मीटाके एकान्त निश्चल ध्यानादि सत्य कार्य में स्थापन करने से क्या फल होता है। ( उ० ) मनको० एकत्वता होती है एकत्वता होनेसे अनुभव ज्ञानपर्यव निर्मक होता है ज्ञानसे जो अनादि कालके मिथ्यात्व पबंद था उन्होंका नाम होता है एसा होनेसे विशुद्ध दर्शनकि प्राप्ती होती है।
(१७) प्रश्न- वचन - सावध क श आदि दोष रहीत स्वपा
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( २० )
यादिके अन्दर स्थापन करनेसे क्या फल होता हैं ?
( उ० ) वचन • मर्यादाको जनने वाला होता है मर्यादाको जानने से जीवदर्शनको विशुद्ध करता है । दर्शन विशुद्ध होनेसे दुर्लभपनेका नास करता हुवा सुलभ बोधीपना उपार्जन करता है।
(१८) प्रश्न- काया के अयत्न आदि दोषों को दुर कर व्यावचादिकमे स्थापन करनेसे क्या फल होता है ।
( उ० ) काया ० इन्होंले चरित्र पर्यवकों विशुद्ध करता है चरित्र पर्यव विशुद्ध होनेसे जीव यथाक्षात चरित्र कि आराधना करते है इन्होंसे वेदनिया में आयुष्यकर्म नामकर्म गोत्रकमक क्षय कर मोक्ष जाता है ।
(५९) प्रश्न- अज्ञानकों नष्टकर ज्ञाम संपन्न होनेसे क्या फल होता है ?
( उ० ) ज्ञानसंपन्न होने से जीव जीवादि पदार्थकों यथावत समझे यथावत् समझने से जीव संसार भ्रमनका नाम करे जेसे सूतके डोरा सहित सुइ होनेसे फीरसे हस्तगत हो शक्ती है इसी माफीक ज्ञान सहित जीव कभी संसारमे रेहता होतों भी कभी मोक्ष जाशकता है । अर्थात् ज्ञानवन्त जीव संसार मे विनास पांमे बहीं और ज्ञानसे विनय व्ययावच्च तप संयम समाधी क्षमादि अनेक गुप्पोंकी प्राप्ती ज्ञानसे होती है ज्ञानी स्वसमय पर समयका ज्ञाता होनेसे अनेक भव्य जीवोंका उद्धार कर शक्ता है ।
(६०) प्रश्न- मिथ्यात्वका नास करनेसे- दर्शन संपन्न होता है उन्होंको क्या फल होता है । :
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(२१)
(४०) दर्शन संपन्न होनेसे जीव जो संसार परि भ्रमनका -मूल कारण अन्तानुबंधी कोषमान माया लोभ और मिथ्यात्व मोहनिय है उन्होंका मूलसे ही उच्छेद कर देता है एसा करते हुये च्यार धन धाती कर्मेका नाश करते हुवे केवल ज्ञानदर्शनको उपार्जन करते है तब लोकालोकके भावको हस्तांमलकी माफिक देखता हुवा विचरता है ।
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(६१) प्रश्न- अव्रतका नाश करके चरित्र संपन्न होता है 'उन्होंका क्या फल होता है ।
( उ० ) चरित्र ( यथाक्षात ) संपन्न होने से जीव शलेसीकरण वाला चौदवा मुणस्थानको स्वीकार करता है चौदवा गुणस्थानको स्वीकार करते हुवे अंतः क्रिया करके जीव सिद्ध पदकी प्राप्ती कर लेते है ।
(६२) प्रश्न- श्रोतेन्द्रियकों अपने कबजे में करलेनेसे क्या फल होता है ।
( उ ) श्रोतेन्द्रियकों अपने कबजेमें करलेनेसे अच्छा और बुरा शब्द श्रवण करनेसे रागद्वेषजो कमौका बीज है उन्होंकी उत्पती नही होती है इन्होंसे नये कर्मोका बन्ध नही होता है पुराणे बन्धे हुवे कर्मों की निर्जरा होती है ।
(६३) प्रश्न- चक्षु इन्द्रिय अपने कबजे करनेसे क्या फल होता है ।
( उ ) चक्षु इन्द्रिय अपने कबजे करनेसे अच्छे और बुरे रूप देखनेसे रांग द्वेष न होगा। इन्हीसे नये कर्म न बधेगा और पुराणे बन्धे हुवे है उन्होंकि निर्जरा होगा
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(२२) (६४) प्रश्न-घणेन्द्रिय अपने कबजेमें रखनेसे क्या फल होता है।
(उ) घणेन्द्रिय अपने कबजेमें रखनेसे अच्छे और बुरे? गन्ध पर राग द्वेष उत्पन्न न होगा इन्हीसे नये कर्म न बन्धेगा और जो पुराणा बन्धा हुवा कर्म है उन्होंकि निर्जरा होगा।
(६५) प्रश्न-रसेन्द्रिय अपने कबजे करनेसे क्या फल होगा।
(उ) रसेन्द्रिय अपने कबजे करनेसे अच्छे और बुरे स्वाद पर राग द्वेष न होगा-इन्होंसे नये कर्म न बन्धेगा पुराणे बन्धे हुवे कर्मोकी निर्जरा करेगा।
(११) प्रश्न-स्पर्शेद्रिय अपने कबजे करनेसे क्या फल होगा।
(उ) स्पशेंद्रिय अपने कबजे रखनेसे अच्छे और बुरे स्पश पर राग द्वेष न होगा इन्होंसे नये कर्म न बन्धेगा पुराणे बन्के हुवे कर्म है उन्होंकी निजरा होगा।
(६७) प्रश्न-क्रोध पर विजय करनेसे क्या फल होता है।
(उ) क्रोधपर विजय अर्थात् क्रोधकों जितलेनेसे जीवोंकों क्षमा गुणकि प्राप्ती होती है इन्होंसे क्रोधावरणीय * कर्मका नया बन्ध नही होता है पुरणे बन्धे हुवे कर्मोकी निजीरा होती है।
(६८) मानपर विनय करनेसे क्या फल होता है ।
(उ) मानको जित लेनेसे जीवोंकों मईव (कोमलताविनय) गुणकि प्राप्ती होती हैं इन्होंसे मानावरणीय कर्मका नया बन्ध न होगा पुराण बन्धा हूवा है उन्होंकि निर्जरा होगा।
. *कोध मान माया और लोभ यह मोहनीय कर्मकि प्रकृति है वास्ते क्रोधावरणीय केहनेसे मोहनिय कर्म ही समझना एवं मान माया लोग।
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(२३) (६९) प्रश्न-मायाको विजय करनेसे क्या फल होता है। ..
(उ) मायाको जितलेनेसे जीवोंको सरलता निष्कपट भावोंकी प्राप्ती होती है इन्होंसे मायावरणीय नये कर्मोकी बन्ध नही होता है और पुरणे बन्धे हुवे कर्मोका निर्जरा होती है।
(७०) प्रश्न-लोभका विनय करनेसे क्या फल होता है। .
(उ) लोभ जित लेनेसे जीवोंकों निर्लोभता गुणकि प्राप्ती. होती है इन्होंसे लोभाव णीय कर्मका नये बन्ध न होगा पुरणे. बन्धे हूवे कर्मकी निर्जरा होगी।
(७१) प्रश्न-रागद्वेष और मिथ्यात्वशल्यका परित्याग करनेसे क्या फल होता है।
( 30 ) रागद्वेष मिथ्यात्वशल्यका त्याग करनेसे जीर ज्ञानदर्शन चरित्रकि आराधना करनेको सावधान होता है ऐसा. होनेसे जो अष्टकर्मोकि गंठो है उन्होंको छेदन भेदन करनेको तैयार होता है जिस्मे मी प्रथम मोहनिय कर्मकि अठावीस प्रति है उन्होंकि घात करता है बादमें ज्ञानावर्णीय कमकी पांच प्रकृती
और दर्शनवर्णिय कर्मका नब प्रकृति और अन्तराय कर्मकि पांच प्रकृति इन्हीं च्यार धन धातीये कर्मों की नाप्त कर देता है इन्हीं च्यारों कर्मो का नास (क्षय ) करनेसे अनुत्तर प्रधान निस्के आवरण नहीं है वह भी आनेके बाद फिर जाता नहीं है वेसा उत्तम केवल ज्ञानको प्राप्त कर लेते है तब संयोग केवली होते है उन्होंको सपराय कर्मका बंध नही होता है परन्तु इरिया वहो कर्य प्रथम समय बंध दुसरे समय वेदना तीसरे समय निर्जर हो एस दो समय वाल कर्मोका बन्द होता है फोर चौदवे गुणस्थार
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(२४) जावे पर जीव कोका अबन्धक हो जाते है।
(७२) प्रश्न-अबन्धक होनेसे जीवोंका क्या फल होता है ? ___ (उ०) अवन्धक होनेसे अर्थात् अन्तर महूर्त आयुष्य रहनेसे योगोंका निरूद्ध करते हुवे सुक्षम क्रियासे निवृति और शुक्ल घ्यानके चोथे पायेका ध्यान करते हुने प्रथम मनोयोगका निरूद्ध पीच्छे वचन योगका निरूह पीच्छे काय योगका निरूद्ध करके पांच हूस्वाक्षर " अ इ उ ऋ ल" का उच्चारण कालमें समुत्सम क्रियाका निरूद्ध और शुक्ल ध्यानके अंदर वर्तते आयुष्य कर्म वेदनिय कर्म नामकर्म गोत्रकर्म इन्हीं च्यारों कर्मोको संयुग क्षयकर देता है।
(७३) प्रश्न-चारों अघातीये कोका क्षय करनेसे क्या फल होता है ? - (उ०) च्यारों अघातीये कर्मीका क्षय करनेसे जीव जो.. अनादि कालका संयोग वाला तेजस कारमण और औदारीक पहतीनों शरीरको छोडके शमश्रेणी प्राप्त अस्पर्श प्रदेश उर्व एक समय अविग्रहगतिसे ज्ञानके साकारोपयोग संयुक्त सिद्ध क्षेत्रमें अनन्ते अव्वावाद सुखोंमें विराजमान हो जाते है ।
__ यह ७३ प्रश्नोत्तर भव्यात्मावों के कण्ठस्थ करनेके लिये विस्तार नहीं करते हूवे मूल सूत्रसे संक्षेपार्थ ही लिखा है अधिक अभिलाषा रखने वाले आत्म बन्धुओंकों गुरुमुखसे यह अध्ययन अवश्य श्रवण करना चाहिये । इत्यलम् ।
- संवं भंते सेवं भते तमेव सचम् ।
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(२५)
प्रश्नोत्तर ०२ सूत्र श्री उत्तराध्ययनजी अध्य० ९ .
(श्री नमिरान ऋषि) . प्रत्येक बुद्धि नमिराजाकि कथा विस्तारसे है परन्त हमारेको यहांपर प्रश्नोत्तर ही लिखना है वास्ते संक्षिप्त परिचय करा देना उचित समझा गया है यथा-मिथिलानगरीका नरेश नमिराजके शरीरमें दाह ज्वर होनानेसे पतिको भक्ति के लिये १.०८ राणीयों बावनाचन्दनको घसके अपने स्वामिके शरीरपर शीतक लेपन
रही थी उन्ही समय सब राण योंके हाथमें रत्नोंके ककयोंकी झणकार (भवान) रानाको नागवार गुजरने पर हुकुम दे दीया कि यह अवान मुझे अधिक तकलीफ दे रही है तब सब राणीयोंने अपने स्वामिका हुकूम होनेपर मात्र एकेक चुडी रखके शेष सर्व खोलके रखदी इतनेमें खका बन्ध होनेसे रामाने पुछा कि क्या अब वह झनकार नहीं है राणीयोंने कहा स्वामिनाथ हमने शोभाग्यके लिये एकेक चूडी ही रखी है इतनेमें तो नमिरानाको यह ज्ञान हुवा कि बहुत मोलने पर ही दुःख होता है अलम् अपनेको एकेला ही रहना चाहिये यह एकत्व भावना करते ही जाति स्मरण ज्ञान होगया आप परमयोगीराजा होके मिथिला नगरीको छोड बगीचेमें जाके ध्यानारूढ होगये ।
उन्ही समय प्रथम स्वर्गके सौवर्मेन्द्रने अवधिज्ञानसे देखा कि एकदम वगेर किसीके उपदेश नमिरानने योग धारण किया है। चलो इन्होंकि पारक्षा तो करे । तब इन्द्रने ब्रह्मणका रूप परम करके निमिराज ऋषिके पास आया और प्रश्न करता हुई।
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(२६) (१) प्रश्न-हे नमिरान यह प्रत्यक्ष देवलोक साइप्स मिथिगनगरीके म्हेल (प्रासाद) और सामान्य घरोंके अन्दर बडा भारी कोलाहल शब्द हो रहा है अर्थात् आपके योग लेनेपर इन्ही लोकोकों कीतना दुःख हुवा है तो आपको इन्ही लोकोंका रक्षण करना चाहिये क्युकि यह सब लोक आपके ही आश्रत रहे. हुवे हैं।
(उत्तर) है ब्रह्मण-यह सब लोक अपने स्वार्थ के लिये ही कोलाहाल शब्द कर रहे है न कि मेरे लिये । जैसे इस मिथिला नगरीके बाहर एक अच्छा सुन्दर पुष्प पत्र फल शाखा प्रति साखासे विस्तारवाला वृक्ष है उन्हों कि शीतल सुगन्धी छाया और मधुर फल होनेसे अनेक द्विपद चतुष्पद और आकाशके उडनेवाले पक्षी आनन्दमें उन्हीं वृक्षकि निश्रायमें रहते थे। किसी समय अति वेगके वायु चलनेपर वह वृक्ष तूट पडा उन्ही तूटे हुवे वृक्षकों देखके वह आश्रत जीव एकदम रौद्र आक्रन्दसे कोलाह करने लग गये अब सोचिये वह जीव अपने मुखके लिये दुःख करते है या वृक्ष तुट पडा उन्हीको तकलीफ हुइ उन्होंके छिये दुःख करता है । कहेना ही होगा कि वह जीव अपने ई स्वार्थके लिये रूद्धन करते हैं इसी माफीक मथिला नगरीके न. समुह रूडन करते हैं वह अपने स्वार्थके लिये ही करते तों मुजे भी मेरा स्वार्थ साधना चाहिये उन्ही असास्वते परीरकों
वाना मानना ही बडी मूलकि बात है वास्ते मेरी नगरनादि . नहीं है है एकेला ही हूं। .....
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( २७ )
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(२) हे योगीन्द्र- आपकि मिथिला नगरीके अन्दर प्रचन्ड दावानल (अग्नि) प्रज्वलित हो रही है उसमें गढ मढ म्हेल प्रासाद और सामान्य जनों के घर जल रहे है तो आप सामने क्यु नही जोते है अर्थात् आपके नेत्रों में बडी शीतलता रही हूई है कि आपके देखनेसे अग्नि शांत हो जाती है (मोहनिय कर्मकि परिक्षका प्रश्न है )
राजपाट धन धान्य किया हो उन्हीकों
( उ ) हे भूऋषि - है सुखसे संयमयात्रा कर रहा हूं मेरा कुच्छ भी नही जलता है । कारण जिन्होंने स्त्रियों आदिका परित्याग कर योग धारण किसी प्रकारकि संसारसे ममत्व भाव नही है तो फिर जलने कि. चिंता ही क्यों हों और मेरा जो ज्ञानदर्शनादि धन है उन्होंके जलानेवाली अग्नि समान्य कषाय है उन्हीकों तों में प्रथम ही मेरे कब्जा में कर ली है वास्ते है निर्भय होके सुख संयम यात्रा कर रहा हूं।
(३) प्रश्न- हे मुनीद्र आप दीक्षा लेना चाहते हो परन्तु पेस्तर नगरके गढ पोल भुगल दरवाजे वुरजो पर तोपो शस्त्रादिसे पका बन्धोबस्त करके फीर योग लो कि आपके राजका पूर्ण परि पालन आपके पुत्र ठीक तौरसे कर सकेगा ।
(३) हे जगदेव - मेने मेरा नगरका खुब मजबुत नात्रता कर लिया है यथातत्वश्ववन रूप मेरे नगर है तपश्चर्य बाह्या भित्तर रूप कीमाड है संवर रूप भोगल है क्षमा रूपीगढ शुभ मनोयोगका कोट, शुभ वचन योग रूपी बुरभो, शुभ काययोगका मोरचा बन्धा हुवा है, प्राक्रमकी धनुष्य, इर्षा समतिकि जीवा
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घीयताकी पाणच, सत्यताका कवच, (शस्त्र ) अप्रमाद रूपी गन्धहस्ती, ज्ञान रूपी अश्व, अष्टादश शिलांगरथ धारी युक्त रख, अध्यवशाय अन्तःकरण भावना रूपी बाणोंसे भरा हुवे रथोंको देखके कोई भी दुस्मन मेरे पास नहीं आशक्ता है । हे भूऋषि मोहनरेन्द्रकि शैन्याको चकचुरकरदी है तो अब कोनसा दुस्मन मेर रहा है ! हे भूऋषि असार संसारके अस्थर पदार्थोके लिये सम्राम करनेको मुनि हमेशा दुर ही रहते है परन्तु भाव सग्राम कर्म शत्रुवोंको पराजय करनेके लिये हमेशा तैयार रहते हैं ।
. (४) प्रश्न-हे जितेन्द्र-इस दुनियोंके अंदर एक समान्य मनुष्य भी अपने जीवन में एकेक नाम्बरीके कार्य करते है तो आप तो महान् राजेश्वर हो वास्ते आपको इस अक्षय पृथ्वीपर अच्छा सुंदर सीखर बंध झाली झरोखे वाला प्रासाद (म्हेल) मोकि आपके पुत्रादिके क्रीडा करने योग्य एसा मकान बानके एक बड़ा भारी नाम कर । हे क्षत्री फोर आपकों दीक्षा लेना उचित है ? . (उ०) हे ब्रह्मदेव-जिन्होंको रस्तेमें ठेरना हो वह मकान कराते है म्हैतो इन्ही मकानोंको छोडा है और इच्छित मकान (मोक्ष-शिव मंदिर ) में जाके ठेरूगा, हे ब्रह्मण मकान बनानेसे ही नाम्वरि नहीं होती है यह तो बाल क्रीडावत् मकान और नाम्बरी है परन्तु जो मकान और नाम्बरी अक्षय है उन्होंको माम करनेकि कोषीस करना यह वडी भारी नाम्बरी है वास्ते मुजे मकान बनानेकि ज़रूरत नहीं है मेरे तो इच्छित मकान बना हुवा तैयार है वहा ही नाके म्है ठेरूंगा।
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( २९ )
(५) प्रश्न - हे क्षमावीर - आपके नगरीकों उपद्रव्य करनेवाले तस्कर चौर लुटेरा बटपाडा दगाबाज आदि अनेक है उन्होंकों अपने इनामे कर फोर योग लेना ?
(उत्तर) हे भव्य-संसारकी उल्टी चाल है जो भाव चौर (विषयकषाय ) है उन्हीकों तों निज धन चौराने में साहिता करतें है और जो द्रव्य चौरकि अपनि वस्तुवकों नहीं चौरानेवाल हैं उन्हीको पकड केदकर देते है परन्तु म्है एसा नही हू कि जो चौर नही है उन्हीकों पकडने में मेरा अमूल्य समय खोदुं म्है तों मेरे असली मालके चौरानेवाले ( विषय कषाय) चौरोंकों मेरे अधिन कर लिया है अब मेरा धन चाहे चाडेचौकमें क्यु न पडा रहै मुजे भय है ही नहीं अर्थात् निर्भय होके मेरा धनका रक्षण करता हूं।
(६) प्रश्न- आत्मवीर - आपके वैरी भूमि या अन्य राजा को कि अबी तक आपकि आज्ञा नही मानि है आपको नमस्कार नही कीया है उन्हीकों सग्राम द्वारा पराजय कर अपने अधि बनाके फीर दीक्षालो तांके पीछे आपके पुत्रादिको कोई तरह कि तकलीफ न हो ?
( उ० ) है रौद्राक्ष धारक - जो हजारकों हजार गुण करनेसे दशलक्ष होते है इतने सुभटोंकों पराजय करलेना दुष्कर नहीं है: परन्तु एक अपनि आत्मापर विजय करना बहुत ही दुष्कर है जिन्ही पुरुषोंने एक आत्माको जीतली हो तो फीर दूसरोंके लिये सग्राम करने कि क्या जरूरत है मैंनेखों ज्ञान आत्मासे अनाकों भगा दीया है और दर्शनात्मा से मोड़ोकों अपने कब्जे कर लिया:
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(३०) है वस सब वैरी भूमिया दुस्मनों मेरी आज्ञामे ही वर्तते है वास्ते मुजे. संग्राम करने कि कोई मी जरूरत नहीं है।
(७) प्रश्न- हे रानन्-आपने उच्च कुलमे अवतार लिया है तौ भवान्तरेमे अच्छे मोक्ष सुखके देनेवाला एक 'यज्ञ' करावों और श्रमणशाक्यादि तापसोंकों और ब्रह्मणों को भोजन करवाके दक्षिणा देके फीर योग लेना। ... . (उ.०) हे भूऋषि-प्राणीयों के बद्धरूप नो. 'यज्ञ' करामातों दुनीयोंमें प्रगट ही अकृत्य है कारण यज्ञमें तो गन अश्व माता पिता बकरादिका बलीदान किया जाता है इन्ही घोर हिंस्यासे तो बीवोंकि दुर्गति ही होती है अच्छे मनुष्योंकों यह न करने लायक ही नहीं है । और एसे यज्ञ कर्मके करनेवाले श्रमण शाक्यादिको भोजन कराना यह भी यज्ञ कर्मकों उतेभित करता हैं और संसारीक भोग भोगवना यह विष समान फल देनेवाला है यह तुमारा केहना बीलकुल अयोग है हे ब्रह्मग तुही विचार यह संयम कितने उच कोटीका है अगर कोई मनुष्य प्रतिमास दश दश लक्ष गायों का दान दे तथा सुवर्णनय पृथ्वोका भी दार देता है । उन्होंसे भी संयम अधिक फलवाला है। कारण संयम पालने वाला तो दश लक्ष क्या परन्तु सर्व जगत् जन्तुओंकों अप. यदान दिया है वास्ते सर्व प्रशंसनीय संयम ही है उन्हीकों अंगीकार करते हुवे सर्व जीवोंको अभय दान देता हुवा भाव यज्ञ करता हूया म्है आत्म सुखोंका ही अनुभव कर रहा हूं।
(क) प्रश्न-ह पराधीश-गृहस्थाश्रम ब्रह्मचार्याश्रम भीक्षावृत्याश्रम और वनवासाश्रम यह च्यारांश्रमके अन्दर गृहस्थाश्रम ही
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(३१) उत्तम है कारण शेवाश्रमको आधारभूत है तो गृहस्थाश्रम ही है। परन्तु गृहस्थाश्रमका निर्वाह करना बड़ा ही दुष्कर है कायर पुरु'पोंसे गृहस्थाश्रम चलना बड़ा ही मुशकल है गृहस्थाश्रमें तों
सूरवीर धीर पुरुषोंसे ही चल शक्ता है। हे नरनाथ दीक्षा तों प्रगट ही कायरता बसला रही है कि भिक्षावृतिसे आनीवत्र करना इतना ही नही बल्के कृषांनी लोकोंकों भी निंद्या करनेयोग है वास्ते तुमारे जेसा वीर पुरुषोंकों तो गृहस्थाश्रम हीमें रहेके पौषद आदि करना योग्य है ?
(उत्तर) हे ऋघि गृहस्थाश्रम हे वह सर्व सावद्य ( पाप वैपार सहित ) है और जिन्होंकि यह श्रद्धा है कि दीक्षासेमी गृहस्थाश्रम अच्छा है उन्होंको जो गृहस्थाश्रममें रेहकर मासमासोपवाप्त करके कुषाम भाग उतना भोजन करते हुवे भी 'संयम के शीलमें भागमे नही आशके हैं कारण संयम निर्वद्य है और गृहस्थाश्रम सावध है वास्ते वीर पुरुषोंकों संयम ही स्वीकार करने योग्य है और मोक्षरूपी फलका दातार ही संयम है नकि गृहस्थाश्रम ।
(९) प्रश्न-हे नराधिप-अगर आपकों दीक्षा ही लेना हो तो पेस्तर आपके खनांनामे मणिमाणक मौकाफल चन्द्रक्रन्तामणि
सी तांबा पीतल वस्त्रमूषण और शैन्यके अन्दर गन सच सुमट मावि सर्व मजबुत भरके फीर दीक्षा लो। .......... ... (उचर) हे लोमानन्द-इन्ही मणिभोक्ता फलादिसे कीसी प्रकारकि तृप्ती नही होती है जेसे कीसी अमी- मनुष्यको एक
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(३२) सुवर्णमय मेरुपर्वत बनाके दे देवे तथा सर्व पृथ्वी सुवर्णमया करके दे दे तो भी उन्ही लोभी पुरुषकी तृष्णा कवी शान्त न होगी कारण लोकमे द्रय तो असंख्यावों है और जीवोंकी तृष्णा आकार शसे भी अनन्त है । है-ब्रह्मदेव केवल धनही नहीं बल्के इन्ही मारापार पृथ्वीकों सुवर्णकि बनाके अन्दर शालीगोधम जवज्वार झांसी सुवर्ण चान्दी आदि लोभानन्दको देदी जावे तो भी शान्त होना असंभव है परन्तु ज्ञानी पुरुषों तो इन्हीं नाश भय तृष्णाको एक महान् दुःखका खनाना समझके परीत्याग किया है वह ही परम सुख विलासी हुआ है वास्ते मुजे खनावा भरनेकि जरूर नहीं है । मेरा खजाना भरा हूवा है।
(१०) प्रश्न हे भोगेन्द्र यह प्रत्यक्ष भोग विलास रान अन्तेवर (स्त्रियों ) आदि सब देवत के माफीक ऋद्धि आपको मोली है इन्होंको तो आप त्याग न करते है और मवांतरमें अधिक सुखोंकि ममिलाषा रखते है यह ठीक नहीं है अगर आगे न मीलने पर आपको और संकल्प विकल्प तो करना न पडेगा यह भी विचार आपको पहला करना चाहिये अर्थात् यह मीले हुवे काम भोगको भोगवो फिर दीक्षा लेना के दोनों भोगोंको अधिकारी बना सकेंगे।
(उत्तर ) हे विप्र-यह मनुष्य संबन्धी काम मोग देखनेमे सुन्दर देखाइ देता है परन्तु परिणामसे शल्य सादृश है विष माइश है असीविषसर्प सादृश है किंपाकके फल साढश है भोग मोगवति पर अच्छा. लगता है परन्तु अब उन्हों भोगसे कर्म क्या है वह उदय होता है तब महान दुःख नरक निगोदमे
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(३३)
भोगना पडता है गरवीण मात्तसुखा, 'बहुकालदुःखा " भोग भोगवना तोदुरा रहा परन्तु भोगोंकि अभिलाषा करनेवालों को भी नरकादि अधोगति होती है। है विप्र यह नासमान सडन पडन विध्वं अन जिन्होंका धर्म है एसा काम भोग जगत में क्रोधमान माया लोभ प्रेम कलेशका मूल स्थान है पूर्व महाऋषियों इन्ही काम भोगोंका बड़ा भारी ठीस्कार किया है। सत्पुरुषोंके आचारने योग नहीं है वास्ते इन्हीं भोगोंकों भुंग समझके ही मैंने परित्याग किया है ।
इन्ही दश प्रश्नोंद्धार सौधर्मेन्द्र ब्राह्मणके रूपमें 'नमिराजऋषि' कि पारक्षा करो परन्तु आत्माके एक प्रदेश मात्रमें क्षोभ करनेको असमर्थ हुवा तब इन्द्रने उपयोगसे द्रढ धर्मी समझके इन्द्र ने अपना असली रूप बनाके महात्मा नमिराजऋषिकों वन्दन नमस्कार करके बोलता हूवा - हे महा भाग्य आपने निज दुस्मन क्रोधमान माया होमादिकों ठीक कब्जे कर रखा है। हे धीरवीर आपने अपना क्षान्त दान्त भनैव मार्दव च्यारों महासुमटोकों पासमे रखके मोक्षगढ पहुंचनेकि ठीक तैयारी कर रखी है इत्यादि अनेक स्तुतियों करते हुवे इन्द्र अपना मन मुगट और जलहलते कुंडल सहीत अपना शिर मुनिश्रीके चरणकमलोंमें झुकाके नमस्कार करके बोलता हूवा । हे भगवान आप इस लोक में भी उत्तम पुरुष हो कि छते भोगोंकों त्याग कर योग लीमा है और परलोकमें भी आप उत्तम होंगे कि इस संसारका अन्त कर मोक्ष जावेंगे। हे प्रभो आप जगत रक्षणं दीनबन्धु भवतारक स्वपरात्म उद्धारक हों। आपके स्तवनादि करने से मध्यामायका कल्याण होता है इसी माफीक इन्द्रा जन्म पवित्र
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(३४)
करते हुवे मुनि बन्दन कर आकाश मार्ग गमन करते हुवा श्रीनमिरानऋषि प्रत्यक बुद्धि तप संयमादि पाराधन कर जन्म भरा मरण रोग शोक मीटाके अन्तिम श्वासोश्वासको छोड़के लोकायामागमे सास्वता सुखों में विराजमान हो गये। शम् .
प्रश्नोत्तर नम्बर ३ सत्र श्री उत्तराध्यायनजी अध्य० २३
( केशी गौतमके प्रश्नोत्तर) तेवीसवा तीर्थकर श्री पार्श्वनाथनीके संतानीक अनेकगुणाकत अवधिज्ञान संयुक्त केशीश्रमण भगवान बहूतसे शिष्यमंडलके परिवारसे भूमंडलकों पवित्र करते हुवे सावत्थी नगरीके वंदुरूवन उद्यानमें समौसरन करता हूवा अर्थात् उद्यानमे पधारे । ... चरम तीर्थकर भगवान वीर प्रभुके जेष्ट शिष्य इन्द्रभूति “गौतमस्वामि" अनगार अनेक गुणोलंकृत च्यारज्ञान चौदा पूर्व धारक बहुतसे शिप्यमंडलके परिवारसे पृथ्वीमंडलको पवित्र करते हले सावत्थी नगरीके कोष्टक नामके उद्यानमें समौसरण करते हूवे-ठेर है. . दोनों महापुरुषों के शिष्य समुदाय बड़े ही भद्रक और विनयवान से शालके वृक्ष के परिवार भी चालका ही होते है। एक समय दोनों भगवन्तोंके शिष्य एकत्र होनेसे यह शंका उत्पन्न हुई कि की पार्श्वनाथ प्रभुः भौर श्री बीर भगवान दोनों परमेघरोंने एकही काला (मोक्षका) यह धर्म फरमाया हे तो फीर यह प्रत्यक्षमें इतना पातायु मो कि पार्श्वनाथ प्रमुके शिष्योंक च्यार महाव्रत
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(३५)
रुपी धर्म और पांचों वर्णके वस्त्र वह भी अपरिमित तथा स्वल्प या बहु मूल्यके भी रक्षशक्ते हैं और भगवान वीर प्रभुके संतानों के जांच महात्रतरूपी धर्म तथा मात्र श्वेतवर्ण के वस्त्र वह भि परिमीत परिमाण और स्वल्प मूल्यके रखते हैं इस शंकाका समाधानके लिये अपने अपने गुरु महारानके पास आके निवेदन किया-भगवान गौतमम्वामिने पार्श्वनाथजीके संतानकोजष्ट (बड़े) समझके आप अपने शिप्यमंडलको साथ लेके आप तंदुक बनमें आने लगे कि जहां पर के शीश्रमण भगवान विरानते थे। ____ उन्ही समय बहुतसे अन्यमति लोक भी एकत्र हो गये कि आज जैनोंके आपसमें क्या चर्चा होगा और इन्ही दोनोंके अन्दर सच्चा कौन है । मनुष्य तो क्या परन्तु आकाशमें गमन करये हूये विद्याधर और देवता भी अदृष्टरूपसे आकाशमें चर्चा सुननेकों उपस्थित हो गये। ____ इदर भगवान गौतनस्वामिकों आते हुवे देखके केशीश्नमण भगवान अपने शिप्यमंडलका लेके सामने गये और बड़ेही आदर सत्कारसे अपने स्थानपर ले आये और पंच प्रकारके तृणोंका मासन गौतमस्वामिकों बेठनेके लिये तैयार किया तत्पश्चित् केशीश्रमण और गौतमस्वामि दोनों महाऋषि एक ही तक्खतपर विराजमान हूवे, जेसे आकाशके अन्दर सूर्य और चन्द्र शोभनिक होते हैं इसी माफीक केशीगौतम शोभने लगे।
सभा चतुर्विधसंघ, देवता, विद्याधर, और अन्यमति लोकोंसे चकारबन्ध भराई गई थी और लोक राह देख रहे थे कि अब क्या चर्चा होगा । वह एक चित्तसे ही सुनना चाहिये ।
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केशीश्रमण मगवान मधुर स्वरसे बोले कि । हे महाभाग्य । अगर आपकी इच्छा हो तो म्है आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहाता हूं?
गौतमस्वामि विनयपूर्वक बोले कि-हे भगवान । मेरे पर अनुग्रह करावे अर्थात् मापकि इच्छा हो वह प्रश्न पूछनेकी कृपा करे।.. : _ (१) केशीश्रमण भगवानने प्रश्न किया कि हे गौतम । पाचप्रभु और वीरभगवान दोनोंने एक ही मोक्षके लिये यह धर्म रस्ता (दीक्षा) बतलाते हुवे पार्श्वप्रभु च्यार म्हाव्रत रूपी धर्म और वीरभगवान पांच महाव्रतरूपी धर्म वतलाया है तो क्या इस्मे आपको आश्चर्य नहीं होता हैं।
(उ०) गौतम स्वामि नम्रता पूर्वक बोलते हुवो कि हे भगवान् । पहेला तीर्थकर श्री आदिनाथ भगवान्के मुनि सरल (माया रहीत) थे किन्तु पहेले न देखनेसे मुनियों का आचार व्यवहारको समझना ही दुष्कर था परन्तु प्रज्ञावान् होनेसे समझनेके बाद आचारमें प्रवृति करना बहुत ही सहेन था और चरम तीर्थकर वीरभगवान्के मुनि प्रथम तो जडवत् होनेसे समझना ही दुष्कर और वक्र होनेसे समझे हुवेकों भी पालन करना अति दुष्कर है वास्ते इन्ही दोनों भगवा
के मुनियोंके लिये पांच महाव्रतरूपी धर्म कहा है और शेष २१ तीर्थकरोंके मुनि प्रज्ञावान होनेसे अच्छी तरहसे समझ भी सकते है
और सरल होनेसे परिपूर्णाचारकों पालन भी कर सकते थे वास्तें इन्ही २१ भगवान्के मुनियों के लिये च्यार महावत रूपी धर्म कहा है। पांच महाव्रत केहनेसे स्त्रि चोथ व्रतमें और परिग्रह धन धान्यादि
चमें व्रतमें गीना है परन्तु प्रज्ञावान्त समझ सकते है कि जब
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(३७)
किसी पदार्थ पर ममत्व भाव नहीं रखना तो फिर स्त्रितों ममत्व mani एक सीवर बन्ध प्रासाद ही है वास्ते स्त्रिकों और परिग्रहकों एक ही व्रतमें माना गया है। हे भगवान् इस्मे किंचत ही आश्चर्यकि बात नहीं है दोनों भगवानोंका वेय तो एक ही है । यह उत्तर श्रवण करके परिषदाकों बड़ा ही संतोष हुवा था !
यह उत्तर श्रवण करके भगवान् केशीश्रमण बोले कि हे गौतम इस शंकाका समाधान आपने अच्छा किया परन्तु एक प्रश्न मुझे और भी पुच्छना है ।
गौतमस्वामिने कहा कि भगवान आप अवश्य कृपा करावे । (२) हे गौतम श्रीपार्श्वपने साधुर्वेके लिये 'सचेल' वस्त्र सहित रहना वह भी पांचों वरणके स्वरूप वह वहु मूल्य अपरिमितमर्यादावाले वस्त्र रखना कहा है और भगवान वीरप्रभुने 'अचेल ' वस्त्र रहित अर्थात् जीर्ण वस्त्र वह भी श्वेत वर्ण और स्वल्प मूल्यवाला रखना कहां है इसका क्या कारण है ?
(उत्तर) हे भगवान् मुनियोंकों वस्त्रादि धर्मोपकरण रखनेकी आशा फरमाई है इसमें प्रथम तो साधुलिंग है वह बहुतसे जीवोंकों विश्वासका भाजन है और लिंग होनासे भव्यात्मावों धर्मपर श्रद्धा रखते हुवे स्वात्म कल्याण कर सकते हैं दुसरा मुनियोंकी चित्तवृत्ति कबी अस्थिर भी हो जावे तो भी रूपाल रहेगा कि साधु हु दीक्षतहु यह अतिचारादि मुझे सेवन करने योग नहीं है अर्थात् अतिचारादि लगाते हुवे चिन्ह देखके रूक जायेगा । वास्ते यह धर्म उपकरण संगमके साधक है इसमें पार्श्वमभुकें
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संतान सरल और प्रज्ञावन्त होनेसे उन्होंकों किसी भी पदार्थ पर ममत्व भाव नहीं है और वीरमगवानके मुनि, जड़ और वक होनेसे उन्होंके लिये उक्त कायदा रखा गया है परन्तु दोनोंका धेय, एक ही है कि धर्मोपकरण मोक्षमार्ग साधन करने में साहितामूळ जानके ही रखा जाता है।
केशीश्रमण-हे गौतम आपने इस शंकाका अच्छा समाधान किया परन्तु और भी मुझे प्रश्न करना है। परिषदा भी श्रवण करके बड़े ही आनन्दको प्राप्त हुई है। .
गौतम-हे भगवान आप कृपा करके फरमाइये । । (३) हे गौतम ! इस संसार चक्रवालमें हजारों दुस्मनों हैं उन्ही दुस्मनों (वरी) के अन्दर आप निवास किस प्रकारसे करते है और वह दुस्मन आपके सन्मुख युद्ध करनेकों बराबर आते हूके
और हुमला करते हुवे कि माप दरकार नही रखते हुवे भी. दुस्मनोंकों केसे पराजय करते हुवे विचरते हो ।
() हे भगवान-जो दुस्मन है वह सर्व मेरे जाने हुवे हैं इन्ही दुस्मनोंका एक नायक है उन्हीको म्है मेरे कब्जेमें प्रथमसे ही कर रखा है और उन्ही नायकके च्यार. उमराव है. वह तो हमेंशके लिये मेरे दाश ही बन रहे हैं और उन्ही नायकके रानमें पांच पंच है वह मेरे आज्ञाकारी ही है. इन्ही दुस्मनोंमें यह १-४-६=१० मुख्य योद्धा है इन्हीकों अपने कब्जेमें कर लेने पीछे विचारे दुसरे दुस्मन तो उठके बोलने समर्थ भी काहासे हो के इस वास्ते महै इन्ही दुस्मनोंका पराजय करता हुवा. मुखपूर्वक बानन्दमें विचरता हु।
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(१०) हे गौतम-आपके दुस्मन-एक नायक च्यार उमराव पांच पंच कोन है और कीसकों पराजय कीया हैं ?
(उ०) हे भगवान् दुस्मनोंका नायक एक 'मन " है यह आत्माका निज गुणको हरण करता है इन्हीको अपने कब्जे कर लेनेसे 'मन' के च्यार उमराव क्रोध मान माया और लोभ यह मेरे आज्ञाकारी बन गये हैं जब इन्ही पांचोकों आज्ञाकारी बना लिये तब हीसे पांच पंच 'पांच इन्द्रिय' है उन्होंका सहनमें पराजय कर' लिया, बस इन्ही १० योद्धोंको जीत लेनेसे सर्व दुस्मन अपने भादेशमें हो गये हैं वास्ते म्है दुस्मनोंके अन्दर निर्भय विचरता है।
- यह उत्तर श्रवण करने पर देवता विद्याधर और मनुष्योंकों बड़ा ही आनन्द हुवा है और भगवान् केशीश्रमण बोलते हुवे है प्रज्ञावन्त आपने मेरा प्रश्नका अच्छा युक्तिपूर्वक उत्तर दीया परन्तु मुझे एक प्रश्न और भी करना है ?
गौतम-हे महाभाग्य आप.अनुगह कर अवश्य फरमावे..
(४) प्रश्न-हे गौतम-इस आरापार संसारके अन्दर बहुतसे जीव निवड़ बन्धनरूपी पासमें बन्धे हुवे दृष्टीपीचर हो रहे है तो आप इस पाससे मुक्त होंके वायुकि माफिक अप्रतिबन्ध विहार करते हो ? ..(उ०) हे भगवान्-यह पाप्त बड़ी भारी है. परन्तु है. एक तीक्षण धारावाला शस्त्रके उपायसे इन्ही पासकों छेदभेद कर मुक्त दुवा अप्रतिबन्ध विहार करता हूँ। ___(प्र०) हे गोतम आपके कोनसी. पास और कोनसे. शस्त्रसे
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(४०)
(उ०) हे महाभाग्य-इन्ही घौर संसारके अन्दर रागद्वेष पुत्र कलीत्र धनधान्यरूपी जबरजस्त पास है उन्हीकों जैन शासनके न्यास और सदागम भावोंकि शुद्ध श्रद्धना अर्थात् सम्यग्दर्शनरूपी बीक्षण धारावाले शस्त्रसे उन्ही पासकों छेदन भेदन कर मुक्त हूवा मानन्दमे विचर रहा हु । अर्थात् रागद्वेष मोहरूपी पासकों तोडनेके लिये सदागमका श्रवण और सम्यग् श्रद्धनारूप सम्यग्दर्शनरूपी शस्त्र हे इन्हीके जरियेपाससे मुक्त हो शक्ता है। . हे गौतम-आप तो बड़े ही प्रज्ञावान हो और यह प्रश्नका उत्तर अच्छी युक्तिसे कहके मेरा संशयको ठीक समाधान किया परन्तु एक और भी प्रश्न पुच्छता हुं। . - गौतम-हे भगवान मेरे पर अनुग्रह करावे। .. (५) प्रश्न-हे भाग्यशाली ! जीवोंके हृदयमें एक विषवेलि होती है जिन्होंके फल विषमय होता है उन्ही फलोंका अस्वादन करते हुवे जगत् जीव भयंकार दुःखके भानन हो जाते हैं, तो हे गौतम मापने उन्हीं विष वेल्लिको मूलसे केसे उखेडके दूर कर, केसे अमृतपान करते हो ? ..(उ०) हे भगवान् ! म्है उन्हीं विषवेल्लिको एक तीक्षण कुदालेसे जड़ा मूलसे उखेड दी, अत्र उन्ही विषमय फलका भय न रखता इवा जैन शासनमें न्यायपूर्वक मार्गका अवलम्बन करता हुवा विचरता हु। ... (प्र०) हे गौतम आपके कोनसी विषवेल्लि और कोनसा कुदालसे उखडके दुर करी है ?
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. (उ०) हे केशीश्रमण-इन्ही घौर संसारके अन्दर रहे हुवे मज्ञानी जीवोंके हृदयमें तृष्णारूपी विषवेल्लि है वहवेल्लि भवभ्रमणरूपी विष्मय फल देनेवाली है परन्तु म्है संतोषरूपी वीक्षण धारावाला कुदालासे जडा मूलसे नष्ट करके जैन शासनके न्याय माफीक निर्भय होके विचरता है।
(६) प्रश्न-हे गौतम-इस रौद्र संसारके अन्दर प्राणीयोंके हृदय और रामरोमके अन्दर भयंकर जाज्वलामान अग्नि प्रज्वलीत होती हुई प्राणीयोंकों मूलसे जला देनी है, तो हे गौतम आप इस ज्वलत अग्निकों शान्त करते हुवे कैसे विचरते है। ___ (उ०) हे भगवान् ! यह कोपित अग्नि पर है महामेष धाराके जलको छांटके बीलकुल शान्त करके उन्ही अग्निसे निर्भय विचरता हु।
(प्र०) हे गौतम आपके कोनसी अग्नि और कोनसा जल है ?
(उ०) हे भगवान्–कषायरूपी अनि मज्ञानी प्राणीयोंको जला रही है परन्तु तीर्थकररूपी महामेधके अन्दरसे सदागम रूपी मूशलधारा जलसे सिंचन करके बीलकुल शान्त करते हुवे है निर्भय विचरता हु। ... (७) प्रश्न-हे गौतम-एक महा भयंकर रौद्र दुष्ट दिशाविदशामें उन्मार्ग चलनेवाला अश्व जगतके प्राणीयोंकों स्वइच्छीत स्थानपर ले जाते है तो हे गौतम आप भी ऐसे अपरारूढ होने पर भी आपको उन्मार्ग नही ले जाते हुवा भी तुमारी मरजी माफीक अश्व चलता है इसका क्या कारण है ? . . . . A (उ०) हे भगवान् ! उन्ही अश्वका स्वभाव तो रौद्ध भयंकार और दुष्ट ही है और अज्ञान प्राणीयोको उन्मार्गमें लेनाके बड़ा
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(२) ही दुःखी बना देते है परन्तु म्है उन्ही मचके मुहमे एक जबरजस्त लगाम और गलेमे एक बडा रसा डाल दिया है कि जिन्होंसे सिवाय मेरी इच्छाके कीसी भी उन्मार्ग बीलकुल ना भी नही शैकता है अर्थात् मेरी इच्छानुस्वार ही चलता है। . ... (घ) हे गौतम,आपके अश्व कोन और लगाम रसा कोनसा है ? ... (उ) हे. मगवान ? इस लोकमें बडा साहसोक रौद्र उन्मार्ग चलनेवाला 'मन' रूपी दुष्टाश्च है वह अज्ञानी जीवोंकों स्वइच्छा घुमाये करता है परन्तु म्है धर्मशिक्षण रूपी लगाम और शुभ. ध्यान रूपी रसासे खेचके अपने कब्जे कर लिया है कि अब किसी प्रकारके उन्मार्गादिका भय नही रखते हवा म्है आनन्दमें विचरता हु । हे प्रज्ञवान, आपने अच्छी युक्तिसे यह उत्तर दिया हैं परन्तु एक प्रश्न मुझे और भी पुच्छना है ? परिषदाकों बडा हो मानन्द होता है। -- मौतम हे क्या रुपाकर फरमावे ।
(८) हे गौतम इस लोकके अन्दर भनेक कुपन्य ( खराब मार्ग ) और बहुतसे जीव अच्छे रहस्तेका त्याग कर कुपन्थकों स्वीकार करते है । उन्हीसे अनेक शरीरी मानसी तकलीफो उठाते है में है गौतम माप इन्हीं कुपंथसे वचके सन्मार्ग पर कीस तरहे
. . (उ) हे भगवान-इस लोकके अन्दर जीतने सन्मार्ग और 'उन्मार्ग है वह सर्व भरे जाने हवे है अर्थात सुपंथ कुपन्थको महै ठीक ठीक जानता हु इसी वास्ते कुपन्थका त्यागकर सुपन्थ पर छानसे चलता हु।
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(५) हे गौतम इस लौकमें कोनसा अच्छा और बुरा
(उ) हे महाभाग्य-इसी लौकमें अनेक मत्त मत्तौतर स्वच्छेद निनमति कल्पना इन्द्रियपोषक स्वार्थवृत्तिसे तत्वके अज्ञात लोकाने पंथ चलाये है अर्थात ३११ पाषांडोंके चलाये हुवे रहस्तकी कुष न्य कहेते है और सर्वज्ञ भगवान निस्टहीतासे जगतोडारके लिये तत्त्वज्ञानमय रस्ता बतलाया है वह सुपंथ है वास्ते है कुपन्थका त्याग करता हुवा सुंदर संदबोध दाता मुपन्थ पर ही चलता हुवा मात्मरमणता कर रहा हु।
हैं गौतम यह उतर आपने ठोक युक्तिद्वार प्रकाश कीया परन्तु एक और भी प्रश्न मुझे पुच्छनका है।
हे क्षमा गुणालंकृत भगवान फरमायो ?
(८) हे गौतम-इस धौर संसारके अन्दर महा पाणीका बैंगके अंदर बहुतसे पामर प्राणायों मृत्युको प्राप्त होते है तो इन्हीको सरणांभुत एसा कोई द्विपको आप मानते हो ? ..
. (उ) हे भगवान-इन्ही पाणीक महां वैगसे बचाने के लिये एक बडा भारी वीस्तारवाला और शौम्य प्रकृति सुंदराकर महा डिंपा है। वहां पर पाणीका वेग कबी नहीं आता है उन्ही द्विपाका आवलम्वन करते हुवे जीवोंकों पाणीका वेग सबन्धी कोसी प्रकारका भय नही होता है ? .. () हे गौतम वह कौनसा दिपा ओर पाणी हैं।
() हे भगवान इस रौद्र संसाराणवमें जन्म जरा मृत्यु रोग शोक मादि रूपी पाणीका महा बैग है इस्म भनेक प्राणीयों
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गौतम वह कोनसा साराणवमे जन्म
प्राणीयों
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(४४) शरीरी मानसी दुःखका अनुभव कर रहे है । जिस्में एक सुन्दर विशाल अनेक गुणागर धर्म नामका द्विप है अगर पाणीका बैगके दुःख देखते हुवे भी इन्ही धर्मद्विपका अवलम्बन कर ले तो इन्ही दुःखोंसे बच शक्ता है । अर्थात् इस धौर संसारके अन्दर जन्म . मृत्यु आदिके दुःखी प्राणीयोंकों सुखी बननेके लिये एक धर्महीका अवलम्बन है और धर्महीसे अक्षय सुखकि प्राप्ती होती है।
हे गौतम थापकि प्रज्ञा बहुत अच्छी है । यह उत्तर मापने ठीक दीया परन्तु एक प्रश्न मुझे और भी पुच्छनेका है।
हे कृपासिन्धु आप अवश्य कृपा करावे ।
(१०) प्रश्न-हे गौतम-महा समुद्र के अन्दर पाणीका वैग (चक्र) वाडाही जोर शौरसे चलता है उन्हीके अन्दर बहुतसे पाणीयों डुबके मृत्यु सरण हो जाते है और उन्ही समुद्र के अन्दर निवास करते हुये, आप नावापरारूढ हो केसे समुद्रों तीर रहे हो।
(उ०) हे भगवान् उन्ही समुद्रके अन्दर नवा दो प्रकारकि है (१) छेद्र सहित कि जिन्होके अन्दर वेठनेसे लोक सुमुद्रमे टुब मरते है (२) छेद्र रहीत कि जिन्होंके अन्दर बेठके आनन्दके साथ समुद्रको तिर सकते है।
(प्र.) हे गौतम--कोनसा समुद्र और कोनसी आपके नावा
(उ०) हे भगवान-संसार रूपी महा समुद्र है। निस्मे औदारीक शरीर रूपी नावा है परन्तु नावामें आश्रवद्वाररूपी छेन्द्र है जो जीव आश्रवद्वार सहित शरीर धारण कीया है वहतों संसार समुद्रमें दुब जाता है और आश्रवद्वार रोक दीया है ऐसा
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(४५) शरीर रूपी नावापरारूढ हुवा है वह संसार- समुद्रसे तीरके. पार हो जाता है । हे भगवान् म्है छेद्र रहीत नावापरारूढ होता इस ही समुद्रतिर रहा हु।
हे गौतम यह उत्तर तो आपने ठीक युक्ति सर पाया परन्तु एक प्रश्न मुझे और मी करना है।
हे स्वामिन् आप कृपा कर फरमावे ।
(११) प्रश्न हे-गौतम इस भयंकार संसारके अन्दर घौरोनधौर अन्धकार फेल रहा है जिसके अन्दर बहुतसे पाणीयों इदरके उदर धके खाते भ्रमण कर रहे हैं उन्होंको रस्ता तक भी नहीं मीकता हैं तो हे गौतम इन्ही अन्धकारमें उद्योत कोन करेगा क्या यह बात आप जानते हो ? ___(उत्तर) हे भगवान-इन्ही घौर अन्धकार के अन्दर उद्योत करनेवाला एक सूर्य है उन्ही सूर्य प्रकाश होनेसे अन्धकारका नाश हो जाता है तब उदर इधर भ्रमन करनेवालोको ठीक रस्ता मानम हो जायगा।
(4) हे गौतम-अन्धकार कोनसा और उद्योत करनेवाला सूर्य कोनसा ?
(3.) हे भगवान इस आरापार लोकके अंदर मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकार है जीस्मे. पामर प्राणीयों अन्धा होके इदर उधर भ्रमण करते है परन्तु जब तीर्थकररूपी. सूर्य केवलज्ञान रूपी प्रकाशमें भव्यात्मावोंको सम्यग्दर्शन. रूप अच्छा सुंदर रहस्ता मीबजावेगा उन्ही रहस्तेसे सीधा स्वस्थान पहुंच मानेगा। यह उबर मुनके देवादि परिषदा प्रभचिंत हो रही थी।
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. हे गौतम यह आपने ठीक कहा परन्तु एक और भी प्रभ मुझे करना है । गौतम-फरमावो भगवान। ... (१२) प्रश्न-हे गौतम यह अनादि प्रवाह रूप संसारके मंदर बहुतसे प्राणीयों शरीरी और मानसी दुःखोंसे पिडीत हो रहे है उन्होंके लिये आप कोनसा स्थान मानते हो कि जहांपर पहुंच जानेसे फीर जन्म मरण ज्वाररोग शोककि वेदना.बीलकुल ही न होने पावे। . (उ०) हे भगवान इस लौकमें एक एसा भी स्थान है कि नहापर पहुच जानेके बाद किसी भी प्रकारका दुःख नही होता है।
() हे गौतम ऐसा कोनसा स्थान है ?
(उ०) हे मगवान-जो लोकके अग्र भागपर नो निवृत्तिपुर (मोक्ष) नामका स्थान है वहां पर सिद्धावस्थामें पहुंच जाने पर किसी प्रकारका जन्म ज्वार मृत्युवादि दुःख नहीं है अर्थात कर्मरहित होकर वहा जाते है वास्ते अब्बावाद मुखोंमें वीराजमान हो जाते है। - केशीस्वामि-हे गौतम आपकि प्रज्ञा बहुत अच्छी है और अच्छी युक्तियों द्वारा आपने यह १२ प्रश्नोंका उत्तर दीया है। परिषदा भी यह १२ प्रश्न सुनके शांत चित्त. और वैरागरसका पान करते हुवे जिन शासनकी जयध्वनिके शब्द उच्चारण करते हुवे विसर्जन हुई।
शासनका एक यह भी कायदा है कि जब तीर्थकरोंका शासन प्रचलित होता है तब पूर्व तीर्थकरों के साधु विचरते है वे जबतक
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(४७) वर्तमान तीर्थंकरोंके शासनको स्वीकार न करे वहां तक केवलज्ञान होवे, वास्ते भगवान के शीश्रमण पार्श्वप्रभुके संतान थे और इस समय शासन भगवान वीर प्रभुका प्रचलित था वह भगवान केशी. श्रमणको केवलज्ञान प्राप्त कि कोशीषसे वीर प्रभुका शासनकों स्वीकार कीया अर्थात् पेहले च्यार महाव्रत रूपी जो धर्म था वहा भगवान गौतमस्वामिके पास पांच महाव्रतरूपी धर्मकों स्वीकार करके तप संयममें अपनी आत्माको लग देनेसे शासन रूपी वृक्ष मे केवलज्ञान रूपी फलको प्राप्ती स्वल्पकालमें ही हो गई थी। भगवान केशीश्रमण केवल पर्याय पालते हुवे चरमश्वासोश्वासका त्याग कर अक्षय सुख रूपी सिद्धपुरपाटनमें अपना स्वराज करने लग गये अर्थात् मोक्ष पधार गये है । इतिशम् ।
प्रश्नोत्तर नम्बर ४ सूत्र श्री रायपसेणीजी
( केशीश्रमण और प्रदेशी राजा) चरम तीर्थकर भगवान वीरप्रभु अपने शिष्य समुदायसे पृथ्वीमंडलको पवित्र करते हुवे अमलकम्पानगरीके अम्रशाल नामके उद्यानमें पधारे थे। उन्ही समय सुरियाभदेव अपनि ऋद्धि सहित भगवान्कों वन्दन करनेकों आया था भगवान्कों वन्दन नमस्कार करके गौतमादि मुनिवरोंके आगे भक्ति पूर्वक ३२ प्रकारके नाटक कर स्वस्थान गमन करता हुवा । तत्पश्चित् भगवान् गौतमस्वामिने प्रश्न किया कि हे करूणासिन्धु यह सुरियामदेव पुर्व भवमें कोनथा कीसनगरमें रहता था और क्या
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(४८) संकृत कार्य किया कि जिन्होंसे प्रभावके यह देवता संबन्धी महान् ऋद्धि ज्योति क्रन्तीकों प्राप्त हुवा है इस पर भगवान फरमाते हैं कि हे गौतम ! एकाग्रचित्त कर सुनो। इन्हीं जम्बुद्विपके. मरतक्षेत्रमें केकह नामका हा निनपद देशमें श्वेनाम्बिका नामकी नगरी थी धनधान्य मनुष्यों कर अच्छी शोभनिक होनेसे अमरापुरकी औपमा दी जाती थी उन्ही नगरीके बाहर मृगवन उद्यान
वह मी वृक्ष लत्ता वेल्लि फल पुष्प और निर्मल जलसे परीपूर्ण भरा हुवा होद वापीकर अच्छा सुन्दर मनोहर था। उन्ही श्वेता मिका नगरके अन्दर अधर्मका अन्तेवासी नास्तिक शिरोमणि एसा प्रदेशी नामका राना था और रानाके सूरिक्रन्ता नामकी राणी थी वह राजाकों परमवल्लभ थी उन्ही राणीके अंग जात और प्रदेशी रामाका पुत्र सुरिकान्त नामका रामकुमर था वह कुमर राजकार्य चलाने में बड़ा ही कुशल था। रामा प्रदेशीके चित्त नामका प्रधान था वह च्यारों बुद्धियोंमें बड़ा ही निपुण था और राजके कार्य करनमें अच्छी सलाह देने में दुसरे राजावों के साथ व्यवहार चलाने में दीर्घदृष्टीवाला था।
एक समय राजा प्रदेशीके सावत्थी नगरीका जयशत्रु राजाके साथ कुच्छ कार्य होनेसे चित्त नामका स्वप्रधानकों बोलाके आदेश करता हुवा कि हे चित्त प्रधान आप सावत्यी नगरीका जयशत्रु रामा पास भावों और यह मैटणा हमारी तर्फसे देके यह कार्य पर पीच्छे अलदिसे मावों, चित्त नामका प्रधान अपने मालक (राजा) कि माशाको सनिय शिरपर चडाके राज प्रदेशीके दीये हुवे भेटणोकी और फराब हुने पावन स्वीकार कर अपने स्वान
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पर माये स्नान मंजन कर अच्छे बस्त्र मूषण धारण करके अपने साथ लेने योग्य मुभट स्थ माविकों लेके चित प्रधान साक्वी नगरी गया सावत्थी नगरीके राजा जयशत्रुने भी प्रधानजीका अच्छा सत्कार किया प्रदेशी राजाका मेटणा मादर पूर्वक स्वीकार करके प्रदेशी राजाके कार्यमें प्रवृति करने लगा। - सावत्थी नगरीके कोष्टक नाम उद्यानमें श्री पाचप्रभु चोथे पाट पार विराजते हुवे केशीश्रमण भगवान* भपये शिष्य मंडलके परिवारसे पधारते हुवे, यह खबर नगरीमें होनेसे धर्मा भिलाषी पुरुषों महात्मावोंकि सेवाभक्ति और व्याख्यान श्रवर्ष करनेकों जा रहे थे। उन्हीं समय चित्त प्रधान भी इस बातको जानके आप भी केशीश्रमण भगवानके पास पहुंच गये। आये हुवे परिषदा वृन्दकों धर्मकथा कहेते हुवे भगवान केशीश्रमण संसारका स्वरूप अनित्य दर्शया और धर्मका महत्व बतलाया, यह धर्म दो प्रकारका है (१) साघु धर्म सर्वबती (२) श्रावक धर्म देशवती है, भव्य यथाशक्ति धर्मको स्वीकार कर प्रतिज्ञा पूर्वक आज्ञा पालन करनेसे जीव आराधीक होता है और आराधीक होनेपर अधिकसे
*केशीस्वामि समकालिन दोय हुवे है। गौतमस्वामिके साथ चर्च करी थी वह केसीश्रमण पार्श्वनाथजीके संतान मुनिपद धारक थे तीन ज्ञाप संयुक्त अन्तिम मोक्ष पधारे थे। और प्रदेशी राजाको प्रतिवोध दिवा - वह केशीश्रमण पार्श्वनाथजी संतान थे परन्तु आचार्य पद धारक यार ज्ञान संयुक्त अन्तिम बारहवे देवलोक पधारे थे। बास्ते दोनों केशीष समकालिन हुवे थे परन्तु हे भिन्न भिन्न एसा शासो द्वारा तया पार्थ पटापली द्वारा संभव होता है। यहा प्रदेशी राजाको प्रतिबोध करनेवाले केपीक्षण च्यार मन संयुक्त पार्थनापजीके चौथे पाट भाचार्य थे . . ..
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(१०) अधिक भव करे तो मी १५ भवोंसे ज्यादा नही करे इत्यादि देशनादी जिस्मे कीसने दीक्षा कीसीने श्रावक व्रत लेके अपने आने *स्थान गये। . चित्त प्रधान व्याख्यान श्रवण करके बड़ा आनंदीत हुवा
और गुरू महाराजके पाप्त श्रावकके १९ व्रत धारण किये। कितनेक रोज रेहनेपर प्रदेशी राजाका कार्य होजानेसे जयशत्रु राज प्रेमदर्शक भेटणा तैयार कर चित्त प्रधानको कार्य हो जानेका समाचार कहेके वह भेटणा देके रमा देता हुवा । चित्त प्रधान रवानेकि तैयार करके भगवान केशीश्रमणके पासमे अ या अपने रवाने होनेका अभिप्राय दर्शाते हुवे भगवानसे श्वेताम्बिका पधारनेकि विनती करी कि हे भगवान आप श्वेताम्बिका पधारों इसपर गुरु महाराजने पुर्ण ध्यान न दीया तब दूसरी तीसरीवार और मी विनती करी ! तब केशी भगवान बोले कि हे चित्त प्रधान तु जानता है कि एक अच्छा सुन्दर बन हो और उन्हीमे मधुर फलादि पाणी भी हो परन्तु उन्ही वनके अन्दर एक पारधी रेहता हो तो वनचर या खेचर जानवर आशक्ता है ? नही आवे, इसी माफोक तुमारे श्वेताम्बिका नगरी अच्छी साध्वादिके आने योग्य है परन्तु वहा नास्तिक प्रदेशी राना पारधि तुल्य है वास्ते साधुवोंका माना केसे बन शक्ता है।
नम्रतापूर्वक चित्त प्रधान बोला कि हे भगवान आपकों प्रदेशी राजासे क्या मतलब है श्वेताम्बिका नगरीमें बहुतसे लौक घनाम बसते है और बडेही श्रद्धावान है हे भगवान आप पधारो भापकों बहुतसा मसानपान खादीम स्वादिम वस्त्र पात्र पाट पटका
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(५१) शय्या संथाराकि आमंत्रण करके वेहारावेंगे और आपकि बहुत सेवा भक्ति करेगे तो फिर आपको प्रदेशी रानासे क्या करना है हे भगवान आपके पधारनेपर बहुत ही उपकार होगा कारण यहांके लोग बडे ही भद्रीक प्रकृतिवाले हैं वास्ते आवश्य पधारों ऐसी आग्नेपूर्वक विनतिको श्रवण करते हुवे भगवान केशीश्रमणने फरमाया कि हे चित्त अवसर जाना जायगा । इतना केहेनेपर प्रधानजीको उमेद हो गइ कि गुरु महाराज मावश्य पधारेंगे। - चित्तप्रधान सावत्थीसे रवाना होके श्वेताम्बिका पाते ही पहला वनपालकके पासे. जाके केह दीया कि स्वल्पही कालमे यहा ‘पर पार्श्वनाथ संतानीये केशीश्रमण पधारेगे उन्होंकों मकान पाट 'पाटला आदिक सत्कार पूर्व देना और अच्छी तरहेसे सेवा भक्ति करना जब महात्मा यहा पर विराजमान होजावे तब तुम हमारे पास भाके हमको खबर दे देना इत्यादि ।
चित्त प्रधान अपने स्थानपर आके रस्तेका श्रम दुर कर राजा प्रदेशीके पास जाके नम्रतापूर्व भेटणा देके सर्व समाचारोंसे राजाकों संतुष्ट काँगा
.. . . यहां केशीश्रमण भगवान अपने शिष्य मंडलसे विहार
करते २ श्वेताम्विका नगरी पधार गये । वनपालकने महात्मावौकों देखतों ही बडा ही आदर सत्कारसे वन्दन नमस्कार करके उतरबेन स्थान और पाटपाटलादिसे मक्ति करके फिर नगरमे जहा चित प्रधान रहेते थे वहां आके हर्ष वदनसे वधाइ देताहुवा की है प्रधानजी जिन महा पुरुषोंकि आप रहा. देख रहे थे वेही भगवान
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(५२) उद्यानमे पधार गये है उन्होंको मकान पाटपाटला ज्ञय्या संथारा देके मैं आपके पास आया हूं।
चित्त प्रधान आनन्दीत चित्तसे वनपालककों वधाइदेके नगर निवासीयोंको खबर कर दी उसी समय हजारों लोकोंके साथ प्रधानजी केशीश्रमणजी महाराजको वन्दन करनेको आये भक्ति पूर्व वन्दन कर धर्मदेशना सुनी मुनियोंको गौचरी आदिसे खुक मुख साता उपनाई । श्वेतांबिका नगरीमें आनंद मंगल वर्त राहा था।
एक समय चित्त प्रधान गुरू महाराजसे अर्ज करी कि हे भमान आप हमारे प्रदेशी राजाकों धर्म सुनावों । मुझे खसरी है कि आपका प्रभाव शाली व्याख्यान श्रवण करनेसे प्रदेशी राजक अवश्य आपका पवित्र धर्मको स्वीकार करेगा? ' हे चित्त प्रधान च्यार प्रकारके नीव धर्म सुनाने लायक नहीं होते है यथा-(१) साधु मुनिराज आते है ऐसा सुनके सामने क जाता हो (२) मुनिराज उद्यानमें मा जाने पर भी वहां जाके. वन्दन न करता हो (३) मुनिराज अपने घर पर आ जाने पर भी वन्दन भक्ति न करता हो (४) मुनिराज रस्तेमें सामने मीक, जाने पर भी वन्दन भक्ति न करता हो । हे चित्त तुमारे प्रदेशी रानामें च्यारों बोल पाते हे अर्थात् प्रदेनी राजा हमारे पास ही नहीं आवे तो मैं धर्म कैसे सुना सक्ता हूं।
चित्त प्रधान बोला कि हे भगवान हमारे वहां कम्बोज देशके च्यार मच आये हैं उन्हीकों फीरानेके हेतुसे मैं प्रदेशी राजाकों आपके पास के आउंगा फीर आपके मनमाना धर्म प्रदेशी
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(५३) राजाको सुनाइये ! इतना केहके कदन कर चित प्रधान अपने स्थान गया।
एक समय वह च्यार अधोंसे स्थ तैयार कर मंगलमें घूमनेके नामसे राजा प्रदेशीकों चित्त जंगलमें ले आया इधर उधर स्थकों फीराते बहुत टैम हो जानेसे राजाका जीव घबराने लग गया, तब प्रधानसे राजाने कहा कि हे चित्त स्थको पीछा फोरालों धूपसे मेरा जीव धबराता है अगर यहां नजीकमें शीतल छाया हो तो वहांपर चलों इतनेमें चित्त प्रधान बोला महारान यह नजिकमें अपना उद्यान है वहां पर अच्छी शीतल छाया है । प्रदेशी राजाने कहा कि एसा हो तो वहां ही चलो। इतनेमें प्रधानजीने रथकों सीधा ही जहां पर केशीश्रमण भगचान विराजते थे । उन्होंके पासमें प्रदेशी राजाकों ले आये एक मकांनमें रानाको ठेरा दिया। श्रम दुर हो जानेपर रानाने दृष्टि पसार किया तो उदर केशोश्रमण भगवान विस्तारवाली परिषदां को धर्मदेशना दे रहे थे। उन्होंको देखके प्रदेशी राजा बोला हे चित्त यह जड मूंद कोन है और इन्हों कि सेवा करनेवाले इतने जडमूंड काहासे एकत्र हुवे है ।
चित्त प्रधान बोला है नराधिप यह जैन मुनि है। धर्म देशना दे रहे है। इन्होंकि मान्यता है कि जीव और काया भिन्न भिन्न है। इसपर प्रदेशी राजा बोला है चित्त क्या यह साधु अच्छे लिखे पढे है अपनेकों वहां पर जाने योग्य है अर्थात् अपने प्रश्न करे तो वह उत्तर देवेगा।
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चित्त प्रधन बोला हे नरेश्वर ये मुनि अच्छे ज्ञाता है वहा पर जाने योग्य है आपके प्रश्नोंका उत्तर ठीक तौर पर दे देवेगे वास्ते आप आवश्य पधारों इतना सुननेपर राजा प्रदेशी चित्तप्रधानको साथमें लेकर केशीश्रमण भगवानके पासमें आया परन्तु प्रदेशी वन्दन नहीं करता हुवा मुनिके आगे खडा रहा । .. प्रदेशीराजा बोला हे स्वामिन् क्या आप जीव और शरीरकों अलग अलग मानते हो ?
केशीश्रमण बोले हे राजन् जैसे हासलके चोरानेवाला उन्मार्ग जाता है और उन्मार्गका ही रस्ता पूछता है इसी माफीक हे राजन् तूं भी हमारा हासल चौराते हुवे बेअदबीसे प्रश्न करते है । हे महीपति पेहला आपके दीलमें यह विचार हुवा था कि यह कोण झडमूंड है और कौन झडमूंड इन्होंकी सेवा करते है । इतनेमें राजा प्रदेशी विस्मत होते हुवे पुच्छा कि हे भगवान आपने मेरे मनकी बात कैसे जानी ? केशीश्रमण बोले कि हे राजन् जैन शासनके अन्दर पांच प्रकारके ज्ञान है यथा
(१) मतिज्ञान-मगजसे शक्तियों द्वारा ज्ञान होना। (२) श्रुतिज्ञान-श्रवण करनेसे ज्ञान होना । (३) अवधिज्ञान-मर्यादायुक्त क्षेत्र पदार्थोका देखना।
(४) मनःपर्ययज्ञान-अढाई द्विपके संज्ञी जीवोंके मनका भाव जानना।
(५) केवलज्ञान-सर्व पदार्थोंकों हस्ताम्बलकि माफीक देखना और जानना।
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इस्में मुझे केवल ज्ञान छोडके शेष च्यार ज्ञान है उस्मे मनः पर्यव ज्ञानद्वार मैं तुमारे मनकि सर्व वातों जानी है। ... राजा प्रदेशी बोला हे भगवान मैं यहा पर बेठु ? ..
. केशीश्रमण बोले हे राजन् यह वगेचा तुमारा ही है। ... राजा प्रदेशीके दीलमे यहतो निश्चय हो गया कि यह कोई चमत्कारी महात्मा है अब ठीक स्थान पर बेठके राजा बोला कि हे भगवान आपकि यह श्रद्धा द्रीष्टी प्रज्ञा और मान्यता है कि जीव और शरीर अलग अलग है ? हे राजन् हमारी श्रद्धा यावत् मान्यता है कि जीव और शरीर जुदे जुदे है और इस बातको हम ठोक तौर पर सिद्ध कर शक्ते है ।
प्रदेशी गना बोला कि अगर आपकी यह ही श्रद्धा मान्यता हो तो मैं आपसे कुच्छ प्रश्न करना चाहता हुं ?
हे राजन् जेसी आपकी मरजी हो ऐसा ही करिये ।
(१) प्रश्न-हे भगवान मेरी दादीजी हमेशोंके लिये धर्म पालन करती थी और उन्होंकी मान्यता भी थो कि जीव और शरीर जुदा जुदा है हो आपके मान्यतासे धर्म करनेवाले देव लोकमें देवता होना चाहिये और मेरे दादनी भी देवतोंमें ही गये होगेअगर मेरे दादनी देवलोकसे आके मुझे केहे कि हे वत्स मैं धर्म करके देवावतार लिया हूं वास्ते तुं भी इस अधर्मकों छोडके धर्मकर तांके दुःखसे बचके देवतावोंका सुख मीलेगा हे महाराज एसा मुझे आके केहदेवें तों मैं आपका केहना सच समझु कि हमारे दादोजीका शरीरतों यहा पर रहा और जीव देवतोंमें गया इस लिये जीव रीर. अलग अलग है अगर मेरे दादीजी एसा न कहे तो मेरे
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माना हुवा ठीक ही है कि जीव और शरीर एक ही है अर्थात् मांचतत्वसे यह पुतला बना हुवा है जब पांचोतत्व अपने २ रूपमें मील जाते है तब पुतला विवास हो जाता है यह मेरी मानता ठीक है !
. (उत्तर) हे राजन् कोई मनुष्य स्नान कर चंदनादि सुगन्ध क्दासे शरीर लेपन करके देव पूजन करनेको जा रहा हैं, रस्तेमें कोई पाखाना (टटी) में उभा हुवा मनुष्य उन्हीं देव पूजन करनेकों जाते हुवे मनुष्यकों पाखानेमें बोलावे तो जा शक्ता है ? नही भगवान इस दुर्गन्धके स्थानमें वह केसे जावे अर्थात् नही नावे । हे राजन् वह दुर्गन्धके स्थान पर जाना नही इच्छता है तो देवताओंतों परम् आनंदमें उत्तम पदार्थोके भोग विलासमें मग्न हो रहे है इन्ही मनुष्य लोक कि दुर्गन्ध ४००-५०० योजन उर्ध्व जाती है वास्ते देवता मनुष्य लोकमें आना नही चाहते है। हे राजन्
और भी सुन देवता मनुष्य लोकमें मानेकि अभिलाषा करते भी च्यार कारणोंसे नही माशक्ते है यथा
(१) तत्कालके उत्पन्न हुवे देवताओंके मनुष्योंका संबंध छुट जाता है (विस्मृत) और वहां देव देवीयोंसे नया संबन्ध हो माते है इसीसे देवता आ नही शक्ता है ।
(२) तत्कालका उत्पन्न हुवा देवता-देवता संबन्धो दिव्य मनोहर काम भोगोंमे मुीत हो जाते है वास्ते यहांके सडन बहन निध्वंसन काम भोगोंका तीस्कार करते है वास्ते आ नही
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(३) तत्कालका उत्पन्न हुवा देवतावोंक आज्ञाकारी देव देवीयों एक नाटिक करते हे उन्हीकों देखनेमे लग जाते है वह सुखपूर्वक देखनेवालोको ज्ञात होता है कि महुर्त मात्रका नाटिक है परन्तु यहाँ २००० वर्ष क्षीण हो जाते है वास्ते देवता आ नही शक्ते है।
() तत्कालके उत्पन्न हुवा देवतावों मनुष्य लोकमे आना चाहे परन्तु मृत्यु लोक कि दुर्गन्ध ४००-५०० योजन ऊर्ध्व आती है वास्ते दुर्गधके मारे देवता यहां पर आ नही शक्ता है।
वास्ते हे राजन् तूं इस वातकों स्वीकार करले की जीव और शरीर भिन्न भिन्न है। __(२) प्रश्न हे भगवान् आपने यह युक्ति तो ठीक मीलादि परंतु मेरे दादाजी मेरे माफीक बडे ही अधर्मी थे लोहीसे हाथ हमेशों लीप्त ही रहते थे जीव मारनेमे कीसी प्रकार कि घणा नही लाते थे वह आपकि मान्यता माफीकतों नरकमे ही गये होगे हे भगवान् अगर मेरे दादाजी नरकसे आके मुझे केहदे कि हे वत्स मेने वहुतसे अधर्म किये थे वास्ते नरकमे दुःख देख रहा हु परन्तु अब तुम अधर्म न करना अगर अधर्म करोगे तो मेरे माफीक तुम भी नरकमें दुःख देखोंगे एसा आके मेरा दादनी मुझे कहेतों मैं आपकि वातको सच मानु नही तों मेरी मानी ठीक है ? . - (उत्तर) हे राजन् आपकि परम वल्लमा सूरिकन्ता नामकि
राणो है उन्होंके साथ कोई लंपट पुरुष काम भोग सेवन करता • होतो तु उस लंपटकों क्या दंड करेगा ? हे भगवान् उस लंपटको मैं मारू पीटू केद करूं । हे राजन् अगर वह लंपट कहे कि मजे क्षण. मात्र छोडतों मैं मेरे पुत्रादिसे मील आउ तो तुम
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उन्हीं लंपटकों छोड दोगे ? नहीं भगवान् एसे अकृत करनेवालोंको केसे छोडा जावे अर्थात् एक क्षण मात्र मी नहीं छोडु । इसी माफीक हे राजन् नारकिके नैरियोंकों भी क्षण मात्र यहां आनेको नहीं छोड़ा जाता है और भी सुनो नारकीके नैरिये यहां आना चाहते है तद्यपि च्यार कारणोंसे नहीं आ शक्ते है यथा... (१) तत्काल उत्पन्न हुवा नारकीके महावेदनिय कर्मक्षय नहीं हुवे वास्ते आना चाहते हुवे भी आ नहीं शक्ते है अर्थात वहां वेदना भोगवनी ही पडती है।
(२) तत्कालोत्पन्न हूवे नारकी परमाधामी देवताओंके आधिन हो रहे है वह देवता एक क्षीण मात्र भी उन नारकीकों विसरामा नहीं लेने देते है वास्ते नहीं आ शक्ते है।
(३) तत्कालोत्पन्न हूवे नारकी किये हुवे नरक योग्य कर्म पूर्ण भोगव नहीं शक्या वास्ते नारकी आ नही शक्ते है। .
(४) नारकीका मायुष्य बन्धा हुवा है वह पुरणक्षय नहीं कीया है वास्ते आना चाहते हुवे भी नारकीके नैरिया यहां पर आ नहीं शक्ते है।
इस वास्ते हे राजन् तू मानले कि जीव और काया भिन्न.. भिन्न है।
(३) प्रश्न- हे भगवन् एक समय मैं सिंहासनपर बेठा था उन्ही समय कोतवाल एक चौरकों पकडके मेरे पास लाया मैंने उसी जीवते हुवे चौरको एक लोहा कि मजबुत कोठीमें प्रवेश कर उपरसे ढकणा बन्ध कर दिया और एसी मजबूत कोठीकों कर दी कि वायुकायकों भी उसी कोठीमे आने जानेका च्छेद्र नही
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रहा फीर कितनेक समय होजानेसे. उन्ही कोटीको इदर उदर ठीक तलास करनेपर काही भी छेद्र न पाये कोठीकों खोलके देखा तो वह चौर मृत्यु प्राप्त दृष्टीगोचर हुवा तब म्हैने निश्चय कर लिया कि जीव और शरीर एक ही है क्युकि अगर जीव जुदा होता तो कोटोसे निकलने पर छेद्र अवश्य होता परन्तु छेद्र तो कोइ भी देखा नहीं वास्ते हे भगवान् मेरा मानना ठीक है कि जीव काया एक ही है ?
(उत्तर ) हे राजन् यह तेरी कल्पना ठीक नहीं है कारण जीव तो अरूपी हैं और जीव कि गति भी अप्रतिहत अर्थात् किसी पदार्थ से जीवकी गति रूक नहीं शक्ती है मगर कोठोके छेद्र न होनेसे ही आपकी मति भ्रम हो गई हो तो सुनो । एक कुडागशाला अर्थात् गुप्त घरके अन्दर एक ढोल डाके सहित मनुष्यकों बेठाके उन्होंका सर्व दरवाजा और छेद्रोंकों बीलकुल बन्ध कर दे ( जेसे आपने कोटीका छेद्र बन्ध किया था) फिर वह मनुष्य गुप्त घरमें ढोल मादल बनावे तो हे राजन् उन्ही बानाकी आवाज बाहारके मनुष्य श्रवण कर शक्ते है ? हां भगवन् अच्छी तरहेसे सुन शकते है। हे राजन् वह शब्द अन्दरसे बाहार पाये उन्होंसे गुप्त घरके कोइ छीद्र होता है ? नहीं भगवन् तो हे राजन् यह अष्ट स्पर्शवाले रूपी पौदगल अन्दरसे बाहार निकलनेमें छेद्र नहीं होते है तो जीव तो अरूपी है उन्होंके निकलनेसे तो छेद्र होवे ही काहासे वास्ते हे प्रदेशी तु समझके मान ले के जीव और शरीर अलग अलग है।
(४) हे भगवन् एक समय कोतवाल एक चौरको पकड़के मेरे पास लाया हैं उन्हीं चौरको मारके एक लोहाकी कोटीमें डाल
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दिया और सर्व छेद्रको बन्ध कर दिये फीर कितनेक समयके बाद कोटीकों देखा तो एक भी छेद्र नहीं हूवा कोटीको खोलके देखा तो अन्दर हजारों जीव नये पेदा हो गये। हे भगवन् जब कोटीके छेद्र नहीं हुवे तो जीव काहासे आये इसी वास्तें मेरा ही मानना ठीक है कि जीव और काया एक ही है।
(उ) हे राजन् आपने अग्निमें तपाया हुवो एक लोहाका गोलेकों देखा है ? हां प्रभो मैंने देखा है। हे राजन् उन्हीं लोहोका गोलेके अन्दर अग्नि प्रवेश होती है ? हां दयाल प्रवेश होती है। हे राजन् क्या अग्नि प्रवेश होनेसे लोहाका गोलेके छेद्र ही होता है ? नहीं भगवन् छेद्र नहीं होता है। हे राजन् जब यह बादर अग्नि लोह गोलाके अन्दर प्रवेश हो जानेपर भी छेद्र नहीं हूवे तो जीव तो अरूपी सुक्षम है उन्हींको लोहाकी कोटीमें प्रवेश होते छेद्र काहाशे होवे वास्ते समझके मान ले जीव काया जुदी जुदी है। .
(५) हे स्वामीन आप यह बात मानते हो कि सर्व जीव अनन्त शक्तिवाले है ? हां राजन् सर्व जीव अनन्त शक्तिवान् है। तो हे भगवान एक युक्क पुरुष जीतना वजन उठा सके इतनाही वमन वृद्ध क्युं नही उठा शक्ता है । अगर युवक और वृद्ध दोनों बराबर वजन उठा शके तो म्हें आपका केहना मानु, नही तो मेरा ही माना हुवा ठीक है ?
(उत्तर) हे महीपाल-जीवों अनन्त शक्तिवान् है परन्तु कर्मरूपी औषधीसे वह शक्तियों दख रही है अब औषधी (कर्म) बीलकुल दूर हो जायेंगे तप अनन्त शक्ति अर्थात् मात्म वीर्य
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(६१.). प्रगट हो जायगा और आपका बो केहना है कि युवक और वृद्ध बराबर वजन क्यों नही उठा शक्ते है ? हे राजन् आप जानते है कि अगर कोई दो मनुष्य युवक बलवान बरावरके है जिसमें एकके पास नवी कावड मजबुत वांस और रसी आदी सामग्री है और दुसरे मनुष्यके पास पुराणी कावड सडे हुवे बांस और रसी आदि सामग्री है। हे राजन् वह दोनों पुरुष बराबर वजन उठा शक्ते है नही भगवान् वह बराबर केसे उठा शक्ते हैं कारण उन्होंके कावडमें तफावत है, हे राजन दोनों पुरुष बराबर होने पर कावडकि तफावत होनेसे बराबर वजन नही उठा शक्ते इसी माफक जीव तों बसबर शक्तीवाला है परन्तु कावड रुप शरीर सामग्रीमें युवक
और वृद्धका तफावत है वास्ते वह बराबर वनन नही उठा शके । इस हेतुसे समझ लो राजन् कि जीव और काया अलग अलग है।
(६) प्रश्न हे भगवान् जीव सर्व सरखे मानते होतो जेसे एक युवक पुरुष बाणफेके इसी माफोक वृद्ध पुरुष बाणफेके तो मैं मानु कि जीव और काया अलग अलग है नहीं तों मेरा माना हुवा ही ठीक है ? ___(उत्तर) हे राजन् दो पुरुष बराबर शक्तो वाले है जिस्मे एकके पास बाण तीर धनुष्यदि नवी सामग्री है और दुसरे पुरुषके पास पूरणी सामग्री है तो दोनों पुरुष बराबर होनेपर क्या बाणकों बराबर फेक सका है ? नहीं भगवान् । क्या कारण ? सामग्री: नवी पुरणीका ही कारण है ? हे राजन् इस हेतुसे समझे की. युवक पुरुषके शरीर संहनन सामग्री नवी है वह बाण जोरसे पला शक्ता है । और वृद्ध पुरुषके शरीर संहनन सामग्री पुराणी
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(18) होजानेसे इतना वेगसे बाण नहीं फेंक शक्ता है वास्ते समझके मानलोकि जीव और काया अलग अलग है। ... (७) हे भगवान् एक समय कोतवाल जीवता हुवा चौरकों मेरे पास लाया, मैं उन्हीं जीवता हुवा चौरके दोय तीन च्यार 'पंच यावत् संख्याते खंड करके खंड खंडमें जीवकों देखने लगा परन्तु मेरे देखने तो जीव कहीं भी नहीं आया तो मैं जीव
और शरीरकों अलग अलग केशे मानु अर्थात् मेरा माना हुवा ही ठीक है ?
(उत्तर) हे राजन् कठीयाडोंका समुह एक समय एकत्र मीलके एक वनमें काष्ट लेनेकों गये थे वह सर्व एक स्थान पर स्नान मज्जन देव पूजन कर भोजन करके एक कठोयाडाकों कहा कि हम सब लोक काष्ट लेने को जाते है और तुम यहा पर रहो यहाँ जों अग्नि है इन्हों कि सरक्षण करो और टैम पर रसोइ तैयार रखना अगर अग्नि बुन भी ज वे तो यह जो आरणकि लकडी है इन्होसे अग्नि निकाल लेना । हम सब लोक काष्ट लावेगे उन्होंके अन्दरसे कुच्छ ( थोडा थोडा ) तुमकों भी देदेकें बरावर बना लेवेगे एस करके सर्व लोक वनमें काष्ट लेनेको चले गये । बाद मे पीछे रहा हुचा कठीयाडा प्रमादसे उन्ही अग्निका संरक्षण कर नही सका। अग्नि बुन जाने पर आरंणकि लकडीयों लाके उसके दोय तीन च्यार पंच यावत् संख्याते खंड करके देखा तो काही भी अनि नही मीली तब सर्व कठीयाडोंको असत्य समझता हुवा निरास होके बेठ गया । इतनेमें वह सब लोक काष्ट लेके आया और देखा तो अग्नि भी नही भारणकि लकडीयों भी सब तुटी हुइ पड़ी
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है और वह कठीयाडा भी निराप्त हुवा बेठा है उन्होसे पुच्छा तो सव घृतांत कहा तब सर्व कठीयाडे कोपित होके बोले हे मुढ ? हे तुच्छ ? यह तुमने क्या कीया इत्यादि तीस्कार कीया बाद मे वह सर्व कठीयाडे लकडी तत्त्वके जानकार ठीक क्रिया कर अग्निको प्रगट कर भोजनादिसे सुखी हुवे । उन्ही प्रथम कंठीयाडेके माफीके हे मुंढ प्रदेशी, हे तुच्छ प्रदेशी, तत्त्वसे अज्ञात है प्रदेशी तु भी कंठीयाडेकी माफीक करता है।
हे भगवान् यह विस्तारवाली परिषदके अन्दर मेरा अपमान करना क्या आपके लिये योग्य है ?
हे प्रदेशी आप जानते है कि परिषद कितने प्रकारकी होती है ? ____ हां भगबन मैं जानता हु कि परिषदा च्यार प्रकारकी होती है यथा (१) क्षत्रीयोंकी परिषदा (२) गाथापतियोंकी परिषदा (३) ब्राह्मणोंकी परिषदा (४) ऋषीयोंकी परिषदा।।
हे प्रदेशी आप जानते हो कि इन्हीं च्यार प्रकारके परिषदाकी आतातना करनेवालोंको क्या दंड दीया जाता है ? .
हां भगवन् मैं जानता हु कि आसातना करनेवालोंको दंड
(१) क्षत्रीयों के परीषदाकी आसातना करनेवालोंको शुली पासी केद आदिका दंड दीया जाता है।
(२) गाथापतियोंके परिषदाकी आसातना करनेसे लकडी लाटो हस्त चपेटादिका दंड दिया जाता है।
(१) ब्राह्मणों के परिषदाकि आसातना करनेसे अकोष वचन मादिसे तिरस्कार किया जाता है।
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( ६४ )
(४) ऋषियोंके परिषदा कि आसातना करने से मुंढ तुच्छ आदि शब्दोंका दड करते है हे प्रदेशी आप जानते हुवे ऋषियोंकि आसातना करते हो और दंड मीलने पर अप्रके अपमानका दावा करते हो अर्थात् हे राजन् आप जानते हुवे ही मेरेसे प्रतिकुल प्रश्न करने है यह बात केशीश्रमण मनःपर्यव ज्ञानसे प्रदेशी राजाके मनकी वातकों जाणी थी कि प्रदेशी राजा समझ जाने पर भी प्रतिकुल प्रश्न करते है । इस लिये मुंढ तुच्छ ज्ञब्दोंकि सजा दी थी।
हे भगवान् है आपका प्रथम ही व्याख्यासे समझ गया था परन्तु प्रतिकुल प्रश्न कीये. वगेर मेरे और मेरा पक्ष वालोंको विशेष ज्ञान मील नही शक्ता है वास्ते विशेष ज्ञान प्राप्तिके इरादासे ही मेने यह प्रतिकुल प्रश्न कीये है ।
हे राजन् आप जानते है कि लौकमे व्यवहारीयें कितने प्रकार के होते है ?
हां भगवान् है जानता हू कि व्यवहारीये प्यार प्रकारके होते है यथा
(१) जेसे कीसी साहुकारका रुपिया लेना है वह मागनेकों जाने पर दैनदार रूपीया देवे और साहुकारका आदर सत्कार करे वह प्रथम व्यवहारीया है (२) मागने पर रुपया दे देवे परन्तु सत्कार न करे यह भी दुसरे व्यवहारीया ही है (३) मागने पर रुपीया न देवे परन्तु नम्रतापूर्वक सत्कार करके कहे की है अमुक सुदतमें आपके रूपया सुत सहीत देउगा वह तीसरा व्यवहारीया है.
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' (१) मामनेपर रूपीया न देवे और सत्कार भी न करे और उलटा तीस्कार करे वह अब्बवहारीया है।
हे प्रदेशी आप भी इन्ही च्यार व्यवहारीयों के अन्दर दुसरा. व्यवहारीया हो कारण कि आप मनमें तो ठीक समझ गये हो । परन्तु बाहरमें आदर. सहार नहीं कर शक्ते हो हे प्रदेशी जब मनमे समझ ही गये वो अब लज्जा किस बातकि है खुलमखुला धर्मको स्वीकार क्यों न कर लेते हो ।
(८) प्रश्न हे भगवन् आप हस्ताम्बलकि माफीक प्रत्यक्षमे मुझे जीव और शरीर अलग अलग बतलादो तो म्है अबी आपका हना मान शक्ता हु नही तों मेरा माना हुवा ही धर्म अच्छा है ?
(उत्तर) केशीश्रमण उत्तर दे रहे थे इतनेमे एक वृक्षके पत्र गोरसे चलने लगे तब केशीस्वामि प्रदेशी रानासे पुच्छा कि हे प्रदेशी यह वृक्षके पत्र क्यु चल रहे है तब प्रदेशी बोला कि हे भगवान् गायुकायके प्रयोगसे वृक्षका पत्र चल रहे है | केशी स्वामिने काहा हे प्रदेशी वायुकायाको कोइ अम्बले जीतनी वायुकाय दीखा शक्ता है प्रदेशीने काहा नही भगवन् वायुकाय बहुत सूक्षम है। केशी स्वामिने काहा हे प्रदेशीच्यार शरीर संयुक्त वायुकाया भी नही दीखा शके तो अरूपी जीवकों हस्ताम्बल कि माफीक केसे बता शके हे प्रदेशी छदमस्थ जीवों दश पदार्थोकों नही देख शक्ते हैं
... (१) धर्मास्तिकाय जो जीव पुद्गलोंको चलन साहीता देवी है
(२) मधर्मास्तिकाय मों जीव पुदलोंकों स्थिर होनेमे महिला देती है।
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(३) आक शस्तिकाब जो जीवाजीवों स्थान देती है। (४) शरीर रहीत जीव को नहीं देख शक्ता है ? (५) परमाणु पौदगल कोनही देख शक्ता है ! (६) शब्दके पौदंगल कोनही देख शक्ता है ? (७) गन्धके पौदगल कोनही देख शक्ता है ! (८) यह भव्य है या अभव है , (९) इसी भवमें मोक्ष जावेगा या नही मावेगा? ..
(१०) यह जीव तीर्थकर होगा या नही होगा ? - इन्हीं १० बोलोंको छदमस्थ नहीं जाने, परन्तु देवी भगवान् जान शक्ते है वास्ते हे प्रदेशी तु समझ ले जीव और शरीर अलग अलग है।
(९) पश्न-हे भगवान आपके शासनमें सर्व जीव एक ही सारखा-बराबर माने गये है तो यह प्रयक्ष लोकमें हस्ती महाकाल बाला होता है जिन्होंके महारम्भ क्रिय-कर्म-आश्रव देखने में पाते है और कुंथवेका स्वरूप शरीर है और उन्होंके स्वल्पारम्भ किया-कर्म-अश्रय देखने में आते है तो फोर जीव बराबर केसे माना नावे वास्ते मेरा माना हुवा ही तत्व ठीक है ? .. (३०) हे प्रदेश हस्ती और कुंथवेका बीवतों सदी है. पान्तु जीवों के पुन्य पापकी प्रकृतियों भिन्न भिन्न होनेसे शरीर न्यूनाधिक होता है जेसेकि एक कुडागशाला-गुप्तघर होता है। जिनके अन्दर एक दीपक कर दिया जाब और उनोंके उपर का विस्तारवाला दाद देर ही दान प्रकाश उन्हीं उसके अन्दर ही पडेगा और उन्हीसे कुच्छ कम स होवा में
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(६७) प्रकाश भी कम पडेगा और उन्हीसे ही कम ढक होगा तो प्रकाश भी कम पडेगा अर्थात् जीतना ढक होगा उतना ही प्रकाश पडेगा नात्पर्य यह हुवा कि । दीपकमें प्रकाश है परन्तु उपरके ढक झोगा उतना ही विस्तारमें प्रकाश पडेगा दीपक माफीक नीव है और ढक माफीक नाम कर्मोदय शरीर मीला है जीतना शरीर होगा उतनेमें जीव समावेस हो जायगा इसीमें-कर्मों के अनुस्वार शरीरकी ही न्युनाधिकता है वास्ते समझके मान लो कि जीव काय अलग अलग है।
(१०) प्रश्न-हे भगवान् आपकों युक्तियों बहुत ही आति है और युक्तिपूर्वक आपका केहना ही सत्य है परन्तु मेरे बाप दादोंसे चले आये धर्मको म्है किस्तरेसे त्यागन करू मुझे लोक जया कहेगा ?
(उत्तर) हे रानन्-आपने लोहा वाणीयाका दष्टांत सुना है ! नही भगवान मेने लोहाबाणीयाका द्रष्ठांत नहीं सुना है ! हे राजन् लो अब सुनों ! एक नगरसे बहुतसे वेपारी लोक द्रव्यार्थी गाडोंमें कीरयाणों लेके विदेशको रवाने हुवे जिस्मे एक लोहा वाणीया भी था " आगे चलते एक लोहाकि खान आई तब सर्व चपारी लेको लोहाकों ले लीये, आगे चलने पर एक तांबाकि खान भाइ सब लोकोंने लोहाको छोडके तांबाको ले लीया और अपने साथ चलनेवाला" लोहा वाणीयाकों, भी कहे दीया कि हे भाई यह सांबा लोहासे अधिक मूल्य वाला है । वास्ते लोहाको छोडके तुम भी इस तांबाको ले लो । लोहा वाणीयांने उत्तर दीया कि एकको छोड़े और दूसरेको महन कोन करे खेर । बागे चलने पर चान्द्री कि
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(६८) मलानभाइ तो सब लोकोंने. ताबांको छोडके चान्दी लेली और पेहलाकि माफीक लोहाणीयानेतों लोहा ही रखा आगे चलनेपर सुवर्ण लेलीया लोहावाणीयाने तो अपनी ही सत्यताको कायम रखी, आगे चलते हुवे एक रत्नोंकि खान आइ सब जीणोंने सुवणको छोड़के रत्न पहन कर लिया और हित बुद्धिसे । लोहावाणीयाकों काहा हे भाइ अपना हठको छोड दो इस स्वल्प मूल्यवाला बोहाकों छोडके यह बहु मूल्य रत्नोंको ग्रहन करों अबीतो कुच्छ नहीं वीगडा है अपने सब बराबर हो जावेगे तुम रत्नोंकों ग्रहन करलों उत्तरमे लोहावाणीयाने कहा कि बढ़ी हासी कि बात है कि तुमने कितने स्थान पर पलटा पलटी करी है तो क्या मुजे आप एसा ही समझ लिया नही ? नही ? कबी नही ? म्है आप कि माफीक नही हू मैंने तो जो लेलीया वह ही लेलीया चाहे कम मूल्य हो चाहे ज्यादामूल्य हो म्हेतो अब लीया हुवा कबी छोड़ने वाला नहीं है। वस सब लोक अपने अपने घर पर आये रत्नोंवालेतो एकाद रत्नकों वेचके बड़े भारी प्रसादके अन्दर अनेक प्रकारके मुखोंको विलसने लग गये और यह लोहा वाणीया दालीद्री ही रेह गये अब दुसरोंका मुख देखके बहुत पश्चाताप झुरापा करने लगा परन्तु अब क्या होता है । हे राजन् तु भी लोहावाणीवाका साथी हो रहा है परन्तु याद रखीये फीर लोहावाणीयाकी ससफीक तेरेकों मी पश्चातापन करना पडे इसको ठीक विचारलेना ? . प्रदेशी राजा बोला कि हे भगवान् आपके जैसे महान पुरुषोंका समागम होनेपर कीसी जीवोंकों पश्चातप करनेका भावकाश ही नहीं रेहेता है तो मेरे पर तो आपने
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बड़ी ही कृपा करी है अब इस भवमें तो क्या परन्तु भवान्तरम भी मेरे पश्चाताप करनेका काम नही रहा है। हे भगवान् में अच्छी तरहसे समझ गया कि आपका फरमान सत्य है जेसे आपने फरमाया वेसे ही जीव और काया अलग अलग हैं यह बात मेरे ठीक ठीक समझमें आगइ है अब तो म्है आपकि वाणीका 'प्यासा हो रहा हूं वास्ते कृपा कर केवली परूपीत धर्म मुझे सुनावे। केशीश्रमण भगवानने विचित्र प्रकारकी धर्मदेशना देना प्रारंभ किया। हे राजन तीर्थकरोंने मोक्षका दरवाजे च्यार बतलाये है यथा दान धर्म, शोलधर्म, तपश्चर्यधर्म, भावधर्म निस्मे भी दान धर्मको प्रधान बतलानेके लिये स्वयं तीर्थकरोंने प्रथम वर्षी दान देकेही योगारंम धारण कीया है जब मनुष्योंके सूमतारूपी हृदयके कमड खुलके हृदयमे उद्धारताका प्रवेश होता है तब दुसरे अनेक गुण स्वयंही आ जाते है इत्यादि केहके फीर केहेते है कि हे राजन् भगवन्तोंने साधुधर्म और श्रावक धर्म यह दो प्रकारके धर्म भक्षय -मुखका दातार बतलाये है इसपर खुब ही विस्तार हो शक्ता है परन्तु यहापर हम प्रश्नोत्तरका ही विषयकों लिख रहे है वास्ते इतना ही केहना ठीक होगा कि केशीश्रमण भगवान्ने विचित्र देशना राजाको सुनाई।
प्रदेशी राजा धर्म देशना श्रवणकर हर्ष हृदयसे बोला कि हे भगवत् दीक्षा लेनेकों तो म्है असमर्थ हु आप कृपाकर मुझे श्रावकके १२ व्रतोंकि कृपा करा दीनीये । तब केशीश्रमण मग सबने प्रदेशी राजाकों सम्यक्त्व मूह ब्रोंका उच्चारण कराया।
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प्रदेशी राजाने सविनय सम्पत्त्व मूल ब्रतोंकों धारण कर अपने सातार जानेको तैयार हूवे । . देशीस्वामि बोले कि हे प्रदेशी राजा आप जानते हों कि गाचार्य कितने प्रकार के होते है ?
हां भगवन् म्है जानता हु आचार्य तीन प्रकार के होते है (१) कलाचार्य (२) शिल्पाचार्य (३) धर्माचार्य । ___ हे राजन् इन्ही तीनों आचार्योंका बहु मान केसे किये जाते है वह भी आप जानते है।
हां भगवन् म्है जानता हु कि कलाचार्य और शिल्पाचार्यकों द्रव्य वस्त्र भूषण माला भोजनादिसे सत्कार किया जाता है और धर्माचार्यकों वन्दन नमस्कार सेवा भक्तिसे सत्कार किया जाता है।
हे राजन् आप इस बातकों जानते हुवे मेरे साथमे प्रतिकुल वरताव कराथा उन्होंकों वगर क्षमत्क्षामना और वन्दन किये ही “जानेकि तैयार करती है। ___हे भगवान् म्है इन्हीं बातको ठीक ठीक जानता हूं परन्तु यहाँ पर क्षमत्क्षमन और वन्दना आदि करनेसे म्है ही जानुगा परन्तु मेरा इरादा है कि कल सूर्योदय म्है मेरे अन्तेवर पुत्र उमराव और च्यार प्रकारकी शैन्य लेके बड़े ही उत्सवके साथ आपकों वन्दन करनेको भाउगा और वन्दन करूंगा। : यह सुनके केशीश्रमण भगवानने मौन व्रतको ही स्वीकार बोला था क्युकी इस कार्यमें साधुवों को हां या ना नहीं केहना
- दुसरे दिन राजा प्रदेशी अपने सर्व कुटुम्ब और च्यार प्रकार
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न्याको बड़ ही आडम्बके साथ केशी स्वामिकों वंदन कस्मेको माया इसीसे बहुतसे अन्य लोकोंको भी धर्मपर श्रद्धा हुई भावानकों कन्दन नमस्कार कर भगवान कि मुधारस देशनाका पालकर पीच्छा जाने लगा, इतनेमें केशीस्वामि बोलकि हे राजन रमणीकका अरमणीक न होना ?
प्रदेशी राजा बोला कि हे भगवान रमणीक और भरमगोक किसकों केहते है ? हे राजन जेसे कोई करसानिका क्षेत्र खलामें भनाज पकता है उन्ही समय बहुतसे पशु पंखो और मनुष्य याचक आदिके आने जानेसे बह खेतखला अच्छा रमणीक होता है जब अनाजादि करसानी लोक अपने घरपर ले जाते है फीर उन्हीं क्षेत्रखलामें कोई भी नही आता नही जाता उन्ही समय वह क्षेत्रखला अरमणीक हो जाता है। इसी माफीक क्षुक्षेत्र इसी माकीक उद्यान भी समझना और नाटिकशाला भी समझना तात्पर्य यह है कि हे राजन म्है यहापर हु वहां तक तुम धर्म पर अच्छी श्रद्धा और मेरी सेवा भक्ति करते है यह तुमारा रमणीकपया है परन्तु मेरे चलेजानेपर यह धर्म भावना छोड़ दोगे तो मरमणीक हो जावोगे वास्ते मैं आपकों केहता हूँ कि मेरे चले जानेपर अरमणीक न होना अर्थात् धर्मभावनाको छोडना नहीं ।
बराबर धर्मकार्य शासनकार्य आत्मकार्य हमेशके लिये करते रहना - प्रदेशी राजा बोला कि हे भगवान इस बातकि आप खातरी रखो ' में रमणीकका अरमणीक कवी नही होवुगा हे भगवान् मेरे श्वेतांनिगरोके आश्रित ७००० । ग्राम है जिन्हीकि नाकाबानी
दाश ) मेरे रानभोवर और शैन्यादिकके उपभोगमें लगनेके
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(७२)
सिवाय बचत खनानेमें जमा होती थी . परन्तु म्है आपका उद्धार वृतिका धर्म श्रवण किया है वास्ते मेरी भावना है कि इन्ही ७.०० ग्रामोंकि आवन्दके च्यार भाग करूगा निस्मे एक भाग तो अंतेवर आदिकों, एक भाग शैन्याकों, एक भाग खनानामें जमां, और एक भागकि विशाल दानशाला करवायके प्रतिदिन असान पान खादिम स्वादिम बस्त्रादि दान देता रेहूगा और शील, व्रत पञ्चरकान पौषद उपवासादि धर्मक्रिया करता रहुगा वास्ते हे भगवान आप पुरणतये खातरी रखिये म्है रमणीकका अरमणीक कवी मी नही होहुगा । यह बात केशीश्रमण ध्यान पूर्वक श्रवण करके राजाको दढ धर्मी जाना । प्रदेशी राजाने केशीश्रवण भगवानकों वंदन नमस्कार कर अपने स्थानपर चला गया तत्पश्चात् राजा संसारको असार समझता हुवा उन्ही अस्थिर राजपाटकि सार संभल न करता हुवा अपने आत्मकल्याणके कार्य करता रहा अर्थात् श्रावकके व्रतोंको ठीक तरहे पालन कर रहा था।
केशीश्रमण भगवान वहांसे विहारकर अन्य जिनपद देशमें गमन करते हुवे । देखिये संसारकि सवार्थवृति जब प्रदेशी राजा मात्मकार्यमें ध्यान लगा देनेसे राज अंतेवरकि सार संभार करना. छोड दीयाथा, तब सुरिकता राणीने दुष्ट विचार कियाकि यह राजा तो मेरी और राजकि कुछ भी सारसंभार नहीं करता है अर्थात् मेरे साथ काम भोग नही भोगवता है तो मेरे क्या कामका अगर एसाही हो तो म्है इन्हीकों विष-शस्त्र तथा अग्निका प्रयोगसे जांनसे मार डालु और मेरा पुत्र सुरिकान्तकों राज देदु,
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एसा विचार करति हुइ कितनेक समय राजाका छेद्र देखती रहीं परन्तु एसा मोखा ही नमोला तब राणी अपने पुत्र सुरिकान्तको बोलवाके सर्व वात कही कि अगर म्है और तुं दोनों मीलके राजाकों मार देवे तो तेरेको राज म्है देदुगी । यह बात कुमर सुनि तो खरी परन्तु इस बात का आदर न किया मनमे मली भी न समझी
और वहांसे उठके चला गया। पीच्छे राणीने विचार किया कि यह पुत्र न जाने अपना पिताको केह देगा तो मेरी सब बात राजा जान लेगा वास्ते मुझे कोई उपाय कर राजाकों विष देना ही उचित है। ___इस समय राजा छट छट पारणा करता था जिस्मे बारह छट हो गया था और तेरवा छेटका पारण था उन्ही समय सूरिकान्ना राणी पारणेकि आमंत्रण करके विषयुक्त भोजन खीला दीया वस स्वस ही समयमें राजाके शरीरमें विषका विस्तार होने लगा राजाने जान लिया कि यह सब मेरे किया हुवा कर्मही उदय हुवा है भलो यह राणी तों विष प्रयोगसे एक मेराही प्राणोंका नाश करती है परंतु मेने तो बहुतसे प्राणोंका नाश किया है वास्ते सम परिणामोंसे ही सहन करना उचित है ऐमा विचारके आप तृणके संस्थारे पर बेठके श्री सिद्ध भगवानको नमस्कार किया. और आपने धर्माचार्य श्री केशीश्रमण भगवानकों भी नमस्कार किया अर्थात् वंदन नमस्कार कीया तत्पश्चात् आठारा पापस्थानकि आलोचन करके सर्व प्रकारसे १८ पापस्थान और च्यार प्रकारे आहारका त्याग करके समाधि पूर्वक चरम श्वासोश्वास और नाश मान शरीरको त्यागन करता हूवा अन्तमें कालधर्मको प्राप्त हवा।
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राजा प्रदेशीने अज्ञान दशा में बहुत ही पापकर्म किये थे परन्तु नः सम्यक्त्वरूपी मुण श्रेणीका भावलम्बन किजा उसी समबसे अन्तिम क्षमारूपी वसे सर्व असुभ कर्मोका नाश कर भाप सौधर्म देवलोकके अंदर साढा बारह लक्ष योजसके विस्तारवाले सूरियाम नामका वैमानके अधिपति सूरिवाम नामके देवपणे उत्पन्न हुवा था मुरियाभ देवकि रूद्धि और वैमानका विस्तार अन्य थोकड़ा द्वारा लिखा जावेगा। . भगवान-गौतम स्वामिसे केहते हुवे कि हे गौतम पूर्व भवमें अपरिमित्त क्षमा प्रदेशी रानाने कि थी उसी प्रदशी रानाका जीव यह मुरियाभ देव है जो कि अबी नाटिक करके गया है यह महा ऋद्धि ज्योति कान्ति प्राप्त होनेका कारण सम्यक्त्व सहित क्षमा ही है।
हे भगवन् यह सुरियाम देव देवभवसे काहा जावेगा ? हे गौतम महाविदह क्षेत्रमें दृढपइनो होके मोक्षमें जावेगा।
॥ इतिशम् ।।
प्रश्नोत्तर नम्बर ५ सूत्र श्री भगवतीजी शतक १ उद्देशा ६
(रोहा मुनिके प्रश्न) सर्वज्ञ भगवान वीर प्रभुके शिष्य जो कि प्रकृतिका भद्रीक और प्रकृतिका विनीत होनेसे स्वाभावसे ही क्रोष मान माया लोम सवाल थे और भी अनेक गुण संयुक्त ऐसा " रोहा नामका युनि.आगे आने शाम ध्यानमें सदैव रमनता करता था। एक .
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समय रोहा मुनिको प्रश्न उत्पन्न हूवा । तब भगवान के पाप्त आके नम्रता पूर्वक बन्दन नमस्कार कर प्रश्न करता हूवा कि
(प्र०) हे भगवान ! पेहला लौक और पीच्छे अलोक हवा पाकि पेहला अलोक और पीच्छे लोक हवा था !
(उ०) हे रोहा ! जिस पदार्थकी आदि और अन्त नहीं तो उसको पहिले और पीच्छे कैसे कहा जाय । इसी माफीक लौका लौककी भी आदि अन्त नहीं है वास्ते पेहले या पीछे नहीं कह शक्ते । परन्तु दोनों सास्वते हैं। क्योंकि आकाश सास्वता है.
और आकाशके साथ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल यह पांचों द्रव्य है इन्हींको लोक कहते हैं और जहांपर केवल आकाश द्रव्य ही है वह अलौक कहा जाता है । जब आकाश सास्वता है तब आकाशके अन्दर रेहने वाले पांचों द्रव्य भी सास्यते हैं इस्में भी द्रव्यास्सिकमयकि अपेक्षा सास्वत है और पर्यायास्ति नयकि अपेक्षा जो अगुरु लघु पर्याय है वह असास्वत है और लोकमें जो भकतम पदार्थ है वह द्रव्या-- पेक्षा सास्वत है क्योंकी इस लोकको किसीने बनाया नहीं और इसका विनास भी कबी होगा नहीं। और मो कृतम पदार्थ है. उसकी आदि भी है और अन्त भी है। इस वास्ते यह लोकालोक सास्वत पदार्थ है। .
(प्र०) हे भगवान् ! पहेला जीव और पीछे अनीव हुवा है ... कि पेहला अजीव और पीछे जीव हुका है ?
(उ०) हे रोहा ! 'जीव और अनीव यह दोनों सास्वते पदार्थ हैं क्योंकि जीव और मनोव अनादि कासे लोक व्यापक
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है। अजीवके पांच भेद हैं। धर्मास्ति काय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय पुद्गगास्तिकाय और काल। अगर पहले जीव मानते हैं तो आकाशविना जीव कहां ठेरा था, धर्मास्ति विना जीव गमन केसे कर शके, अधर्मास्ति विना जीव स्थिर केसे रहशके । अगर पहेले अजीव मानते हैं तो जीव विना धर्मास्ति . किसकों साहिता देती थी, अधर्मास्ति किसको स्थिर करती थी इत्यादि अनेक दोषण उत्पन्न होते हैं । वास्ते केवल ज्ञानसे सम्यक् प्रकार देखनेवाले अनन्त तीर्थंकरोंने जीव अन व दोनों अनादिकालके सास्वते पदार्थ कहे हैं। न किसीने उत्पन्न किया है न कबी विनास होगा । इसी माफोक सिद्ध और संसारी इसी माफीक मोक्ष और संसार भो सास्वते पदार्थ कहे हैं । इसीकी पुष्टीके लिये निम्न प्रश्न पर विचार करा। __.. (प्र०) हे भगवान ! पहेला कुकड़ी हुई या ईडा तथा पहेला इंडा हुवा कि कुकड़ी?
(उ०) हे रोहा। कुकड़ी भी सास्ती है और ईड़ा मी सास्वता है क्योंकि कुकड़ी विना ईड़ा हो नहीं सकता है और इंडा विना कुकड़ी हो नहीं सकती वास्ते ज्ञानी पुरुषोंने अनादिकालसे कुकड़ी और ईड़ाकों स स्वता बतलाया है।
(१०) हे भगवान । पेहला लोकांत पीछे अलोकांत है कि पहला अलोकान्त और पंछे लोकान्त है ? . . (उ०) हे रोहा ! दोनों सास्वते है । भावना पूर्ववत । ।
(३) एवं लोकान्त और सातवीं नरकका आकाशान्त । .
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(७७) . (२) एवं सातवीं नरकके आकाशान्त और सातवीं नरकके तृण वायु । . (३) एवं सेतवीं नरक का तृणवायु और सातवीं नरकका घनवायु। : (१) एवं सातबीं नरकका धनवायु और सातवीं नरकका धनोदडि। : (५) एवं सातवीं नरकका घनोदद्धि और सातवीं नरकका पृथ्वी पिंड।
(६) एवं सातवीं नरकके पृथ्वीपिंड और छठी नरकका बाकाशान्त ।
(१०) एवं तृणवायु, घनवायु, घनोदद्धि, पृथ्वीडि पाचोंबोल।
(१५) पांचवीं नरकका भी पांचों बोळ इसी माफो। . .. .. (२०) चौथी नरक के पांचों बोली भी इसी माफीक । (२५) तीनी , " " (३०) दुनी , , , (३५) पहेली ,
" एवं लोकान्त और द्विपान्त जम्बुद्धिपादि असंख्याते और समुद्र लवणादि असंख्याते एवं भरतादि सर्व क्षेत्र सर्व अलावा बोकान्त साथे संयोग कर देना तथा नरकादि २४ दंडक षटूद्रव्य छैलेश्या आठकर्म तीनद्रीष्टी च्यारदर्शन पांचज्ञान तीनअज्ञान,
चारसंज्ञा, तीनयोग दोयउपयोग सर्वद्रव्य, सर्वप्रदेश, सर्व पर्याय । प्रश्नोत्तर सर्व पूर्वकि माफीक करना अब चर्म प्रश्नके
(4) हे भगवान । लोकान्त पहला और काल पीछे हैं !
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(७४) (उ) हे रोहा। दोनों सास्वते पदार्थ है । जेसे द्विप समुद्रसे लेके कल तक के प्रश्न लोकान्तके साथ किये है इसी माफीक अलौकान्त के साथ भी संयोम लमाः देना । जैसे लोकान्त और अलौकान्त के साथ प्रश्नोत्तर बतलाये हैं इसो माफोक द्विपके साथ निचेके सर्व संयोग जोड देना फोर हिपको छोड समुद्र के साथ सर्व संयोग कर देना फीर समुद्रको छोड भरतादि क्षेत्रके साथ सर्व निचेके चोलोका संयोग कर देना यावत् सर्व पर्यायसे कालके -साथ संयोग कर देना।
- इसी प्रश्नों के उत्तर द्वारा इश्वरवादी नों लोक इश्वर बनाया कहते है अर्थात सर्व पदार्थ इश्वरने बनाया है इसका निराकार किया है। क्योंकि ईश्वर कीसी पदार्थका कर्ता नही है कारण ईश्वर कर्म रहित सचिदानंद अमूर्ति अरूपी स्वगुण मोक्ता है उनकों तो किसी प्रकारका कार्य करना रहा ही नहीं है और ऐसा मो कुंभकारकि माफीक जगत कार्य करता रहे तो उनमें ईश्वरत्व प्राप्ती मानना भी मिय्यात्वका कारण है कारण नगतके घटपटादि पदार्थ सर्व सास्वत है और कतम वस्तु जो बनाते है वह कोवाड़े जीव ही बनाते हैं और ईश्वर तो कर्म रहीत है वास्ते ईश्वर नाव कर्ता नहीं है । जीव स्वयं कर्मों अनुस्वार शुभाशुभ फलका मोशन है और जब तप संयमसे शुभाशुभ कर्मोकों नास करेगा तब ईया कप हो जाना। . .......... ..!
हा मीने इन्ही प्रश्नोंका उत्तर सुनके आनय भावी पामेलामवाय का ध्यान रखा हुए
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.. इतने में मौतमत्वामीको प्रश्न उत्पन्न हुई। वे मी मममनले पास आये और वंदन नमस्कार करके बोले ! . . . .
(५०) हे भगवान । लोक स्थिति कितने प्रकारको है ?
(उ०) हे गौतम ! लोकस्थिति आठ प्रकारको है । यथा . (१) आकाशके आधारसे वायु रहा हुवा है अर्थात मास सके आधार तृण वायु है और तृणवायुके आधार धनवायु है।
(२) वायुके आधारसे पाणी रहा है (घनोददि) । (३) पाणी के आधार पृथ्वी रही हुई है अर्थात् भो नरक पिंड है वह बचा धनं माफीक पाणोके आधार रहा हुवा है। (४) पृथ्वीके आधार बस स्थावर जीव रहे हुवे हैं।
(५) अनीव-जीवोंका संग्रह रहा उपचरितनयापेक्षा भी । रादि अनीव जीवोंको संग्रह कीया है।
(६) जीव कोकों संग्रहकर रखा है। ..
(७) अनीवकों जीव संग्रह करता है अर्थात् जीव भाषामन पणे पुद्गलोंको संग्रह करता है।
(८) जीव कर्मोको संग्रह करता है। (प्र) हे भगवान । यह लोक स्थिति कीस प्रकारसे है।
(उ) हे गौतम । जेसे कोई चमडे की मसक वायुकाव भरके उपरका मुहपके डोरेसे बन्ध करदे । और उसी मसकके मध्य भागने पके होरासे कसके बांध दे फीर उपरका डोरा खोलके माधे भागकि चायुको निकालके उसके बदले पानी भरके उपरका मुह बांको विचमें नो डोरी बांधी शो उसको पी सोको वा वायुके उपर
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(८०) जानी रह सका है। इसी माफीक वायुके आधार पाणी और पका पाणीके माधार पृथ्वीही हुई है यावत् जीवकर्मोकों संग्रह कीया है।
: (अ) हे भगवान् । सूक्षम अपकाय हमेशा वर्षती है। -: (उ) हे गौतम । सुक्षम अपकाय हमेशा वर्षती है वह उर्ध्व बधो तीरच्छी दिशामें हमेशा वर्षी है । परन्तु जैसे स्थूल अपकाय दीर्घ काल ठेरती है इसी माफीक सूक्ष्म अपाय दर्घकालनहीं ठेरती है । सुक्ष्म केहनेका कारण यह है कि वह स्थूल द्रष्टीवालोंके द्रष्टीगोचर हो न ही शक्ती है परन्तु है. एक बार अपकायकि जातीमे । रात्री समय अधिक ठेरती है दिनके अन्दर सूर्यका आताप होनेसे शीघ ही विध्वंस हो जाती है वास्ते साधु साध्वी तथा सामायिक पौषदमें श्रावक रात्री समय खुले आकाशमें नही ठेरते है अगर कारणात् जाना होतो भी कम्बली आदिसे शरीर अच्छांदन करते है । वे अहिंसात्मीक धर्मका पालन करते है।
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मरु स्थलमें मुनि विहारका लाभः ।
मारवाड फलोधी नगरमें मुनिश्री ज्ञानसुन्दरनी महाराज का चतुर्मास होनेसे धर्म कृत्यमें वृद्धि । (१)-सं० १९७७ का चतुर्मासा।
१ तपस्या कि पंचरंगी एक
१.. तपस्याका शिरपेच एक २०१ पर्युषणमें पौषद ६६५१) पेहले पर्युषणर्मे सुपनोकि आवन्द १२०९) दुसरे पर्युषण में मुफ्नोति मावन्द (२)-सं० १९७८ का चतुमासा।
२ तपस्याकि पंचरंगी दोय.
२ पौषदका शिरपेच दोय ९०१ पर्युषणमें पौषदः।
. स्वामिवत्सल पौषदके
र स्वामीवत्सल खीचंदमें: . - १९००) पर्युषणों में सुपनों कि आवन्द
१४१) श्री भगवती और नन्दीसुत्रकि पूजाका ३४.०० पुस्तकों छापी
और भी पुजा प्रभावना वरघोडा तथा निर्णोद्धारकि टीपों · तथा ३६ आगमोंकि वाचनादि धर्मकृत्य अच्छा हुआ हैं और • ज्ञान पंत्रमिक रोज १२५ श्रोता वर्गने सम्पत्त मूल व्रत धारण किया है. शम् ।
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________________ प्रकाशक:मेघराज मुणोत फलोधि ( मारवाड) -- ॥जलदि किजिये // श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला संस्थासे स्वरूप समयमें आन तक 11 पुष्प प्रसिद्ध होचुके है कार्य चालु है। जैन सिद्धांतके तत्वज्ञान मय शीघबोध भाग 1-2-34-5-1-7-8-9-10-11-12-13-14-15 हिन्दी मेझर नामो-२०१ आगमोका प्रबल प्रमाणसे 31 विषयका प्रतिपादन किया गया है साथमें त्रण निर्नामा लेखोंका उत्तर भी दिया गया है / किंमत फक्त आठ आना / ___द्रव्यानुयोग प्रथम प्रवेशिका खास पाठशालाभोंमें पढ़ाने लायक है / पाठशालामें टोपल खरचासे ही भेजी जाती है। लिखो:-श्री रत्नप्रभाकर ज्ञान पुष्पमाला। मु० फलोधी-मारवाड। - मुद्रकमूलचन्द किसनदास कापडिया, "जैन विजय " प्रिन्टींग प्रेस, खपाटिया चकला, लक्ष्मीनारायणकी वाड़ी-सरत /