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(२) हे योगीन्द्र- आपकि मिथिला नगरीके अन्दर प्रचन्ड दावानल (अग्नि) प्रज्वलित हो रही है उसमें गढ मढ म्हेल प्रासाद और सामान्य जनों के घर जल रहे है तो आप सामने क्यु नही जोते है अर्थात् आपके नेत्रों में बडी शीतलता रही हूई है कि आपके देखनेसे अग्नि शांत हो जाती है (मोहनिय कर्मकि परिक्षका प्रश्न है )
राजपाट धन धान्य किया हो उन्हीकों
( उ ) हे भूऋषि - है सुखसे संयमयात्रा कर रहा हूं मेरा कुच्छ भी नही जलता है । कारण जिन्होंने स्त्रियों आदिका परित्याग कर योग धारण किसी प्रकारकि संसारसे ममत्व भाव नही है तो फिर जलने कि. चिंता ही क्यों हों और मेरा जो ज्ञानदर्शनादि धन है उन्होंके जलानेवाली अग्नि समान्य कषाय है उन्हीकों तों में प्रथम ही मेरे कब्जा में कर ली है वास्ते है निर्भय होके सुख संयम यात्रा कर रहा हूं।
(३) प्रश्न- हे मुनीद्र आप दीक्षा लेना चाहते हो परन्तु पेस्तर नगरके गढ पोल भुगल दरवाजे वुरजो पर तोपो शस्त्रादिसे पका बन्धोबस्त करके फीर योग लो कि आपके राजका पूर्ण परि पालन आपके पुत्र ठीक तौरसे कर सकेगा ।
(३) हे जगदेव - मेने मेरा नगरका खुब मजबुत नात्रता कर लिया है यथातत्वश्ववन रूप मेरे नगर है तपश्चर्य बाह्या भित्तर रूप कीमाड है संवर रूप भोगल है क्षमा रूपीगढ शुभ मनोयोगका कोट, शुभ वचन योग रूपी बुरभो, शुभ काययोगका मोरचा बन्धा हुवा है, प्राक्रमकी धनुष्य, इर्षा समतिकि जीवा