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(२६) (१) प्रश्न-हे नमिरान यह प्रत्यक्ष देवलोक साइप्स मिथिगनगरीके म्हेल (प्रासाद) और सामान्य घरोंके अन्दर बडा भारी कोलाहल शब्द हो रहा है अर्थात् आपके योग लेनेपर इन्ही लोकोकों कीतना दुःख हुवा है तो आपको इन्ही लोकोंका रक्षण करना चाहिये क्युकि यह सब लोक आपके ही आश्रत रहे. हुवे हैं।
(उत्तर) है ब्रह्मण-यह सब लोक अपने स्वार्थ के लिये ही कोलाहाल शब्द कर रहे है न कि मेरे लिये । जैसे इस मिथिला नगरीके बाहर एक अच्छा सुन्दर पुष्प पत्र फल शाखा प्रति साखासे विस्तारवाला वृक्ष है उन्हों कि शीतल सुगन्धी छाया और मधुर फल होनेसे अनेक द्विपद चतुष्पद और आकाशके उडनेवाले पक्षी आनन्दमें उन्हीं वृक्षकि निश्रायमें रहते थे। किसी समय अति वेगके वायु चलनेपर वह वृक्ष तूट पडा उन्ही तूटे हुवे वृक्षकों देखके वह आश्रत जीव एकदम रौद्र आक्रन्दसे कोलाह करने लग गये अब सोचिये वह जीव अपने मुखके लिये दुःख करते है या वृक्ष तुट पडा उन्हीको तकलीफ हुइ उन्होंके छिये दुःख करता है । कहेना ही होगा कि वह जीव अपने ई स्वार्थके लिये रूद्धन करते हैं इसी माफीक मथिला नगरीके न. समुह रूडन करते हैं वह अपने स्वार्थके लिये ही करते तों मुजे भी मेरा स्वार्थ साधना चाहिये उन्ही असास्वते परीरकों
वाना मानना ही बडी मूलकि बात है वास्ते मेरी नगरनादि . नहीं है है एकेला ही हूं। .....