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चित्त प्रधन बोला हे नरेश्वर ये मुनि अच्छे ज्ञाता है वहा पर जाने योग्य है आपके प्रश्नोंका उत्तर ठीक तौर पर दे देवेगे वास्ते आप आवश्य पधारों इतना सुननेपर राजा प्रदेशी चित्तप्रधानको साथमें लेकर केशीश्रमण भगवानके पासमें आया परन्तु प्रदेशी वन्दन नहीं करता हुवा मुनिके आगे खडा रहा । .. प्रदेशीराजा बोला हे स्वामिन् क्या आप जीव और शरीरकों अलग अलग मानते हो ?
केशीश्रमण बोले हे राजन् जैसे हासलके चोरानेवाला उन्मार्ग जाता है और उन्मार्गका ही रस्ता पूछता है इसी माफीक हे राजन् तूं भी हमारा हासल चौराते हुवे बेअदबीसे प्रश्न करते है । हे महीपति पेहला आपके दीलमें यह विचार हुवा था कि यह कोण झडमूंड है और कौन झडमूंड इन्होंकी सेवा करते है । इतनेमें राजा प्रदेशी विस्मत होते हुवे पुच्छा कि हे भगवान आपने मेरे मनकी बात कैसे जानी ? केशीश्रमण बोले कि हे राजन् जैन शासनके अन्दर पांच प्रकारके ज्ञान है यथा
(१) मतिज्ञान-मगजसे शक्तियों द्वारा ज्ञान होना। (२) श्रुतिज्ञान-श्रवण करनेसे ज्ञान होना । (३) अवधिज्ञान-मर्यादायुक्त क्षेत्र पदार्थोका देखना।
(४) मनःपर्ययज्ञान-अढाई द्विपके संज्ञी जीवोंके मनका भाव जानना।
(५) केवलज्ञान-सर्व पदार्थोंकों हस्ताम्बलकि माफीक देखना और जानना।