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इन्ही आठो कर्मोने आत्माके आठों गुणोको रोक रखा है व्यवहारनयसे जीवके शुभाशुभ अध्यवशासे कर्मोका दल एकत्र होते है वह अवधाकलपक जानेपर जीवके रसविपाक उदय होते हुवे जीव सुख और दुःख भोगवते है ओर काल लब्धि प्राप्त कर कर्मोंसे मुक्त हो जीव मौक्षमे भी जाते है यह कर्मोका अस्तित्व बतलानेसे काल स्वभाव वादियोंका निराकार किया है.
(४) क्रिया बादी--जो जीव कर्म कर सहित है वह जीव सदेव क्रिया करताही रहेता है और वह शुभाशुभ क्रिया करनेसे शुभाशुभ कर्म रुप फल भी देती है अर्थात् सकर्मी जीवोंके क्रिया अस्तित्व भाव है ओर क्रिया का फल भी अस्तित्वभाव है यहांपर प्रक्रियावादीका निराकरण कीया है।
__ यह च्यार सम्यग्वाद है इन्हीको यथायोग्य जाननेसे ही सम्यग्द्रष्टीकेहलाते है इन्हीके सिवाय जो मनःकल्पत मत्तको धारण करनेवाले जीवोंको मिथ्याद्रष्टी कहा जाते है। वह अनादि प्रवाहमें परिभ्रमण करते आये है और करते ही रहेगो इस लिये भगवान्ने दो प्रकारकि प्रज्ञा फरमाइ है (१) वस्तुका स्वरुपका ज्ञानकर समझना, (२) परवस्तुका त्याग करना अर्थात् जीस आश्रव कर कर्म आरहा है उन्हीको रोकना चाहिये.