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पंजाबकेसरी न्यायांमोनिधि जैनाचार्य १००८
श्रीविजयानंदसूरी गारकृत
नवतत्त्वसंग्रह
उपदेशबावनी
हीरालाल र. कापडिया
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अर्हम् ।
प्रातःस्मरणीय पंजाबकेसरी न्यायांभोनिधि
श्रीविजयानन्दसूरिवरविरचित
॥ नवतत्त्वसङ्ग्रह ॥
तथा
उपदेशबावनी
संपादक प्रो० हीरालाल रसिकदास कापडिया, एम् ए.
प्रथम संस्करण
वि. सं. १९८८]
वीरसंवत् २४५८
[इ. स. १९३१
सर्व हक खाधीन]
आत्मसंवत् ३६
[All rights reserved
मूल्य
रु.४.
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प्रकाशक-हीरालाल रसिकदास कापडिया
भगतवाडी, भूलेश्वर,
मुंबई.
मुद्रक-रामचंद्र येसू शेडगे,
निर्णयसागर मुद्रणालय. २६।२८, कोलभाट लेन, मुंबई.
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1
DD
न्यायाभोनिधि जैनाचार्य १००८ श्रीमद्विजयानंदमूरिपट्टधर श्रीमहावीर जैन विद्यालय मुंबई, श्री आत्मानंद जैन गुरुकुल पंजाब गुजरांवाला, श्री वरकाणा पार्श्वनाथ
जैन विद्यालय (मारवाड) इत्यादि अनेक संस्थाओंके उत्पादक
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MEDICI
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॥
आचार्य १०८ श्रीमद्विजयवल्लभसूरिजी महाराज. जन्म बडौदा. दीक्षा राधनपूर.
आचार्यपद लाहौर. सं. १९२७ कार्तक सुदि २. सं. १९४३ वैशाख सुदि १३. सं. १९८१ मार्गशीर्ष सुदि ५. पालनपुर निवासी पारी डाह्याभाई सूरजमल तरफथी तेमना वडील बंधु
स्व. झवेरी मणिलाल सूरजमलना स्मरणार्थ.
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निवेदन.
संवेगी दीक्षा अंगीकार कर्या पहेला परंतु ढुंढक (स्थानकवासी) मतना परित्यागनी भावनाना अद्भव अने स्थिरीकरण बाद प्रथम कृति तरीके जेनी विश्वविख्यात पंजाबकेसरी न्यायांभोनिधि
पिक्यानन्दसूरीश्वरना वरद हस्ते 'विनोली' गाममा वि. सं. १९२७ मां रचना थइ ते आ. नावखसंग्रहने प्रकाशित थयेलुं जोइ कोइ पण सहृदयने आनंद थाय ज. तेमां पण वळी मारा सद्गत पिताना सतीर्थ्य अने धर्मस्नेही तेमज मारा प्रत्ये पूर्ण वात्सल्यभाव राखनारा आचार्य श्रीविजयबल्लमसूरिए मोहमयी' नगरीमा अग्र स्थान भोगवता श्रीगोडीजी महाराजना उपाश्रयमां आपेला सदुपदेशनु आ मुख्य परिणाम छे' ए स्मरणमा आवतां मारा जेवाने अधिक आनंद थाय छे. अगाउथी प्राहक तरीके नाम नोंधावी नकल दीठ चार रुपिया श्रीविजयदेवसूर संघ (पायधुनी, मुंबई )नी पेढीमा भरी जे ग्राहकवर्गे आ प्रकाशनमा जे आर्थिक प्रोत्साहन आप्यु छे तेटले अंशे आ प्रकाशनरूप पुण्यात्मक कार्यमां तेमनो हिस्सो छे, एम मारे कहेवू ज जोइए. आ कार्यमा २५१ नकलो नौधाबवानी जे पहेल श्रीविजयदेवसूर संघनी पेढीना कार्यवाहकोए करी ते बदल तेमने धन्यवाद घटे छे. विशेषमा प्रकाशन माटे रकम एकठी करी आपवामां ए पेढीना ते वखते मेनेजिंग ट्रस्टी तरीके श्रीयुत मणीलाल मोतीलाल मूळजी तरफथी ए पेढी द्वारा जे अनुकूलता करी आपवामां आवी तेनी आभारपूर्वक नोंध लेवामां आवे छे. आ ग्रंथ धारेला समये बहार पडवाना कार्यमा केटलाक. अनिवार्य प्रसंगोने लइने जे विलंब थयो ते बदल हुं दिलगीर छु. आ ग्रंथ तैयार करवामां जे हस्तलिखित प्रति मने काम लागी छे ते झंडियाला गुरु (Jandiala Guru) ना भंडारनी ७४ पत्रनी छे. तेमज ते कर्ताए स्वहस्ते लखेली जणाय छे. एमां पीळी हरताळनो केटलेक स्थळे उपयोग करायो छे अने कोइक स्थळे प्रन्थकारे पोते ते सुधारेली जोवाय छे. आ प्रति मने मेळवी आपवानुं जे स्तुत्य कार्य श्री विजयवल्लभसूरिए कयं ते साहित्यप्रचार अंगेनी तेमनी सक्रिय सहानुभूतिना प्रतीकरूप छे. एम कडा विना नहि चाले. आ प्रमाणे आ ग्रंथना प्रकाशनकार्यमां तेमनी तरफ़थी जे विविध प्रकारनो सहकार मळ्यो छे ते बदल हुं तेमनो अत्यंत ऋणी छु. एना स्मरणलेश तरीके आ संस्करणमा तेमनी प्रतिकृतिने सानंद अग्र स्थान आपुं छ. दक्षिणविहारी मुनिराज श्रीअमरविजयना विद्वान् शिष्य मुनि श्रीचतुरविजये आ ग्रन्थना १३६ पृष्ठ सुधीनां द्वितीय वेळानां शोधनपत्रोनी तेमना उपर मोकलायेली एकेक नकल तपासी मोकली छे ते बदल तेमनो सानंद उपकार मानवामां आवे छे..
आ संबंधमां श्रीविजयवल्लभसूरि कथे छ के-"चौमासे बाद हुशिआरपुरसें विहार करके दिल्ली शहर तरफ गये, और संवत् १९१४ का चौमासा, दिलीसे विहार करके जमना नदीके पार "बिनौली" गाममे जा किया, जहां भी कितनेही लोकोने सनातन जैनधर्मका श्रद्धान अंगीकार किया. इस चौमासेमें श्रीआत्मारामजीने बनाना शुरू किया; संवत् १९२५ का चौमासा श्रीआत्मारामजीने "बडौत" गाममें किया; जहां "नवतत्त्व" ग्रंथ समाप्त किया; जिस प्रेथको देखनेसेंही ग्रंथकर्ताका बुद्धिवैभव मालुम होता है."
आ टिप्पणमा प्रन्थ 'बडौत'मां.सं. १९९५मा पूर्ण थयानो जे उल्लेख छ ते विसंवाही छे. आ संबंधा श्रीविजय. बल्लभसूरिनुं सादर लक्ष्य खेचतो तेओ सूचवे छे के "मने जेवं याद रहेल तेवू लखायेल, कारणकै आचार्यश्रीना खर्गवास पछी जीवनचरित्र लखवामां आवेल छे. एथी स्खलना होवानो संभव छे. माटे ग्रंथकार पोताना हस्तलिखित पुस्तकमा ज पोते जे संवत् लखे छे ते ज खरो समजतो."
२ जुभो "श्री आत्मानंद प्रकाश" (पु. २७, अं. २, पृ.३६-३८). ३ एमनी शुभ नामावली अंतमा भापेली छ।
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निवेदन
नवतत्वसंग्रह ए नाम ज कही आपे छे तेम आ ग्रंथमा जीवादि नव तत्त्वोनुं खरूप आलेखवामां आव्युं छे, परंतु विशेषता ए छे के श्रीभगवतीसूत्र प्रमुख विविध आगमोना पाठोनी अत्र संकलना करवामां आवी छे. अनेक मुद्दानी वस्तुओ यंत्ररूपे कोष्ठक द्वारा रजु कराइ छे जेथी आ ग्रंथनी महत्तामा असाधारण वृद्धि थइ छे. आ ग्रंथना कर्ताए बार विविधवर्णी 'चित्रो वडे एने अलंकृत कों छे. आ ग्रंथनी मुख्य भाषा हिंदी गणाय जोके केटलीक वार संस्कृत, प्राकृत अने गुजराती प्रयोगो एमां दृष्टिगोचर थाय छे; कोइक वेळा तो पंजाबी शब्दो पण नजरे पडे छे. आवी परिस्थितिमा तेमज अंतमां अतिशीघ्रताए आ ग्रंथ मुद्रित कराववो पड्यो तेथी मारे हाथे जो यथेष्ट संशोधनादि द्वारा आने पूर्ण न्याय न अपायो होय तो सहृदय साक्षरो क्षमा करशे एटली मारी तेमने विनति छे. मूळ कृतिमांना आंतरिक स्वरूपमा भाग्ये ज स्वल्प परिवर्तन करवू अने ते पण खास आवश्यकता होय तो ज करवु एवी श्रीविजयवल्लभसूरिनी सूचना तरफ पण तेमनुं सविनय ध्यान खेंचीश. आ ग्रंथमा कया कया विषयो आलेखाया छे तेनुं निरीक्षण करवा मारी पाठकमहोदयने विशिष्ट विनति छे. मने पोताने तो एम स्फुरे छे के आ ग्रंथमा अतिसूक्ष्म वस्तुओनी भाषा द्वारा प्रथम जगुंथणी थइ छे एटले जेमने आगमो जोवाजाणवानो शुभ प्रसंग मळयो न होय तेमने आमांथी घणुं न जाणवानुं मळशे.
विशेषमा उपदेशबावनी प्रसिद्ध करवानुं वचन अपायुं हतुं नहि, छतां श्री विजयवल्लभसूरिनी सूचनाने मान आपी ते सुरम्य तेमज सुश्लिष्ट पद्यमय लघु प्रन्थने पण अत्र स्थान आपवामां आप्युं छे.
प्रन्थप्रणेतानी तेमज तेमना प्रथम शिष्यरन स्व. मुनिवर्य श्रीलक्ष्मीविजयनी प्रतिकृतिओ श्रीयुत लालचंद खुशालचंद (बालापुर ) तरफथी, ग्रन्थकारना हस्ताक्षरनी तेमज प्रवर्तक मुनिराज श्रीकांतिविजयनी श्रीयुत दोसी कालीदास सांकलचंद (पालनपुर) तरफथी, शांतमूर्ति मुनिराज श्रीहंसविजयनी श्रीयुत कांतिलाल मोहनलाल (पालनपुर ) तरफथी, स्व. मुनिवर्य श्रीहर्षविजयनी लाला मानिकचंद छोटालाल दुग्गड (गुजरांवाला) तरफथी अने श्रीविजयवल्लभसूरिनी श्रीयुत राह्याभाइ सूरजमल तरफथी पूरी पाडवामां आवी छे ते बदल तेमने तेमज जेमणे ए कार्य माटे पोताना ब्लॉकोनो उपयोग करवा दीधो छे तेमने पण हार्दिक धन्यवाद घटे छे.
___ अंतमां आ निवेदनने वधु न लंबावतां आ ग्रंथना प्रणेताना जीवननी जे आछी रूपरेखा हवे पछी आलेखवामां आवे छे तेमाथी उद्भवता बोधदायक पाठो जीवनमा उतारवार्नु सामर्थ्य प्रकटे एटली अभिलाषा पूर्वक विरमवामां आवे छे.
भगतवादी, भूलेश्वर, मुंबई.
चारित्र्याकांक्षी वीरसंवत् २४५७
हीरालाल रसिकदास कापडिया. भाद्रपद कृष्ण पंचमी
१जुओ हस्तलिखित प्रतिना खास करीने पत्रांक-१६ ब, ३२ ब, ३३ २, ३४ ब, ३७ अ, ५. अ, ५० ब, ५२ ब, ५३ अ, ५३ ब तथा ५४ अ. आ चित्रोनुं मुद्रणकार्य चित्रशाळा मुद्रणालय (पुना)मां थयु छे. वळी लिथो तरीके एक फॉर्म पण सांज तैयार करावायो छ...
२मारा पिता एमने पोताना गुरुदेव तरीके सन्मानता हता. ..
३ ख. श्रीविजयकमलसूरि तेमज उपाध्याय श्रीवीरविजयनी पण प्रतिकृतिओने अत्र सानंद स्थान अपात, किन्तु तेने लगता ब्लॉको मेळववा पूर्ण प्रयास करवा छतां ते न मलवाथी ए इच्छा सफळ थइ शकी नथी.
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श्रीयुत लालचंद खुशालचंद (बालापुर ) तर्फसे गुरुभक्तिनिमित्ते
मातत्यामामानिधि जैनाचार्य श्री श्री श्रीमहिजामानन्द सूरि आत्मारामजी) मदनराज
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प्रगटकना जनजात्मानसमा
योगा भोगानुगामी द्विज भजन जनि शारदारक्ति रक्तो, दिग्जेता जेतृजेतामतिनुतिगतिभिः पूजितो जिष्णुजिकैः । जीयाद्दायादयात्री खलबलदलनो लोललीलस्वलज्जः | केदारौदास्यदारी विमल मधुमदोद्दामधाम प्रमत्तः ॥
Lakshmi Art, Bombay, 8.
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→* ग्रन्थप्रणेतानी जीवनरेखा:
आर्हत शासनना शृङ्गाररूप, अने अमूल्य ग्रन्थोना विधाता, जैनाचार्य न्यायाम्भोनिधि विजयानन्द सूरीश्वरनुं रोचक, सार्थक अने बोधदायक जीवनचरित्र अत्यार सुधीमां विविध स्थळेथी
विबुधोने हाथे आलेखायेलं होवा छतां आ स्वर्गस्थ महात्माना गुणानुवाद गाइ मारा जीवननी क्षणोने सफळ करुं एवी अभिलाषाथी तेमज आ ग्रंथनुं संपादनकार्य स्वीकारती वेळा ग्रन्थप्रणेतानी जीवनदिशा दर्शाववानी करेली प्रतिज्ञाना पालनार्थे हुं मारी मन्द मति अनुसार आ महामंगलकारी कार्यमां प्रवृत्त थाउं छु. आ प्रसिद्ध जैन महर्षिनो जन्म आजथी ९४ वर्ष उपर एटले वि. सं. १८२३ ना चैत्र मासना शुक्ल पक्षमां प्रतिपदा गुरुवारे, पंजाबना जिल्ला फिरोजपुरनी तहसील जीरामां आवेला 'लेहरा' गाममां थयो हतो. 'कपूर ब्रह्मक्षत्रिय' जातिना अने सामान्य स्थितिना गणेशचन्द्रनी धर्मपत्नी रूपादेवीने एमनी माता थवानो अद्वितीय प्रसंग प्राप्त थयो हतो. आ गुणज्ञ दंपतीए आत्माराम एवं एमनुं शुभ नाम पाडी आनंद अनुभव्यो हतो. जन्मसमयथी ज एमनां सौन्दर्यने अलोकिकता वरेली हती. एमना वदनकमलना दक्षिण भागमांनुं रक्तिमापूरित चिह्न सुवर्णभूमिकामां पद्मराग मणिना जेवुं कार्य करतुं हतुं. एमना पिताश्री विशिष्ट प्रकारनी विद्वत्ताथी विभूषित न हता तेमज एमना जन्मस्थळमां कोइ पाठशाळा पण न हती; तेथी बालक्रीडामां लगभग दश वर्ष एमने व्यतीत करवां पड्यां. एवामां एक ग्रामीण पंडित पासे एमने हिंदी भाषानो अभ्यास करवानी तक मळी. परंतु शिक्षानी प्रारंभिक दशामां ज पिता परलोकवासी बन्या, जोके त्यार बाद एमना पिताना 'जीरा' निवासी अने 'ओसवाल' जातीय सन्मित्र जोधाल एमने पोताना गाममां अभ्यासार्थे लइ गया. आ वखते एमनी उम्मर चौद वर्षनी हती. पिताना सदाना वियोगे एमना विचारोमां पुष्कळ परिवर्तन पेदा कर्यु. पदार्थोनी यथार्थ स्थितिनुं एमने भान थवा लाग्यं. वैराग्यरंगथी एमनुं हृदयक्षेत्र रंगायुं अने एणे जीवनपलटानुं कार्य कर्यु. 'जीरा' मां ढुंढक पंथना साधुओनी साथेना विशेष परिचयथी एमणे १७ वर्षनी सुकुमार वये, ए फिरकाना श्रीयुत जीवनराम साधु पासे 'मालेरकोटला' मां ढुंढक मतनी दीक्षा अंगीकार करी. भोगी मटी एओ योगी बन्या. आ प्रमाणे एमनी स्थितिमा - आत्मोन्नतिना क्षेत्रमां परिवर्तन थयुं, परंतु नाम तो तेनुं ते ज राखवामां आव्युं.
एमनी प्रतिभानो प्रभाव एटलो बधो हतो के तेओ रोज बसे त्रणसे श्लोको कंठस्थ करी शकता. आथी एमणे टुंक समयमा 'ढुंढक' मतने मान्य बत्रीसे सूत्रो कंठस्थ करी लीधां. वीस वर्षनी उम्मरमां तो 'ढुंढक' मतनां रहस्यभूत तत्त्वोथी एओ पूर्ण परिचित बनी गया. थोडा वखत पछी 'रोपड़ निवासी पंडित श्रीसदानंद अने 'मालेरकोटला 'ना वासी पंडित श्रीअनंतराम पासे एमणे व्याकरणनो अभ्यास कर्यो. त्यारबाद 'पट्टी' निवासी पंडित श्रीआत्माराम पासे न्याय, सांख्य,
१ आ सर्वमां मुनिरन श्रीवल्लभविजय ( अत्यारे श्रीविजयवल्लभसूरि तरीके ओळखाता ) ने हाथे आलेखायेलुं भने तत्वनिर्णयप्रासादमां प्रसिद्ध थयेलं जीवनचरित्र विशेषतः मननीय जणाय छे. २ एमनी जन्मकुंडळी माटे जुओ तत्त्वनिर्णय० (पृ. ३५). ३ एना वंशवृक्ष माटे जुओ तस्वनिर्णय० (पृ. ८४ ).
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ग्रन्थप्रणेतानी जीवनरेखां वेदान्तादि दर्शनशास्त्रोन अध्ययन करवानी एमने सोनेरी तक मळी. विविध दार्शनिक साहित्य तेमज व्याकरणादिनो अभ्यास थतां यथार्थ सत्यनुं एमने दर्शन थयु. आथी खोटी रीते मूर्तिपूजादिनो अपलाप करनारा ढुंढक मतनो एमणे परित्याग कर्यो. केटलाक कदाग्रही स्थानकवासी साधुओए अने गृहस्थोए एमने हेरान करवामां कच्चास न राखी, परंतु ए बधां कष्टो तेओ समभावे निर्भयतापूर्वक सहन करी गया, केमके "सत्ये नास्ति भयं कचित्" ए वाक्य उपर एमने पूर्ण श्रद्धा हती. एमने एवो अटल विश्वास हतो के जो हुं साचे मार्गे चालु छ तो समग्र ब्रह्माण्डमां एवी कोइ शक्ति नथी के जे मने नाहक सतावी शके. स्थाने स्थाने जैन धर्मनो विजयडंको वगाडतां अने अनेक स्त्रीपुरुषोने सन्मार्गे दोरवता एओ पंजाबमाथी '१५ साधुओ साथे नीकळ्या अने श्रीअर्बुदाचळ, श्रीसिद्धाचळ (पालीताणा) वगेरे तीर्थोनी यात्रा करी 'अमदावाद'मा वि. सं. १९३२ मां पधार्या. आ समये वेष तो ढुंढक साधुनो हतो. केवळ मुखवस्त्रिका उतारी नांखवामां आवी हती. अहीं गणि श्रीमणिविजय महाराजश्रीना शिष्य मुनिरत्न गणि श्रीबुद्धिविजय (बुटेरायजी महाराजश्री) पासे एमणे तपागच्छनो वासक्षेप लीधो अने एमने गुरु तरीके खीकार्या. आ समये एमनी उमर ३९ वर्षनी हती. दीक्षासमये आनन्दविजय एवं एमनु नाम राखवामां आव्यु, परंतु आत्मारामजी ए ज पूर्व- नाम विशेषतः प्रचलित रह्यु. एमनी साथे आवेला १५ साधुओ एमना शिष्य अने प्रशिष्य बन्या. 'अमदावाद'थी विहार करी विविध तीर्थस्थानोनी यात्रा करता, मतांतरीय विद्वानो साथे शास्त्रार्थ करी तेमने निरुत्तर करता, जैन शासननी विजयपताका देशे देशे फरकावता, अने स्याद्वादमार्गना यशःपुंजनो विस्तार करता तेओ वि. सं. १९४३मां 'सिद्धाचळजी' आवी पहोंच्या. बहु जनोनी प्रार्थनाथी एमनुं चातुर्मास अहीं ज थयु. एमनो सत्यपूर्ण अने सारगर्भित उपदेश, एमर्नु निर्मळ अने निष्कलंक चारित्र, एमनी अद्भुत प्रतिभा, विश्वधर्म बनवानी योग्यतावाळा जैन धर्मना प्रचार माटेनी एमनी तालावेली इत्यादि एमना सद्गुणोथी आकर्षाइने एमना दर्शन-वन्दनार्थे तथा तीर्थयात्राना निमित्ते विविध देशोमांथी आवेला लगभग ३५००० सज्जनो समक्ष देवोने पण दुर्लभ अने अनुमोदनीय 'आचार्य' पदवी श्रीजैन संघे एमने उत्साह अने आनंदपूर्वक अी अने एमनुं श्रीविजयानन्दसूरि एवं नाम स्थाप्यु. वि. सं. १९४५ मा एमणे 'महेसाणा'मां चातुर्मास कर्यु. आ समये संस्कृतज्ञ डॉ. ए. एफ. रुडॉल्फ हॉर्नेल नामना गौरांग महाशये एमने जैन धर्म संबंधी
१ एमनां नामो नीचे मुजब छे
(१) विश्नचंद (लक्ष्मीविजय), (२) चंपालाल (कुमुदवि०), (३) हुकमचंद (रंगवि०), (४) सलामतराय (चारित्रवि०), (५) हाकमराय (रत्नवि०), (६) खूबचंद (संतोषवि०), (७) घनैयालाल (कुशलवि०), (6) तुलशीराम (प्रमोदवि.), (७) कल्याणचंद (कल्याणवि.), (१०) नीहालचंद (हर्षवि०), (११) निधानमल (हीरवि०), (१२) रामलाल (कमलवि.), (१३) धर्मचंद (अमृतवि०), (१४) प्रभुदयाल (चंद्रवि०) अने (१५) रामजीलाल (रामवि०).
अत्र कौंसमां सूचवेलां नामो संवेगी दीक्षा लीधा बाद पाडवामां आव्यां हता. - २ ज्यारे एओ उपदेश आपता त्यारे कोइ प्रश्न करतो ते तेओ पूर्ण गंभीरताथी सांभळता अने तेनो शांत चित्ते संतोषकारक उत्तर आपता. प्रश्नकार खधर्मी होय के परधर्मी होय, जिज्ञासु होय के टिखली होय परंतु तेनुं दिल दुभाव्या विना तेओ तेने संतोष पमाडी निरुत्तर बनावता. आ संबंधमा जुओ सरस्वती मासिक (भा. १६, खण्ड १) तेमज एमांथी उद्धृत संक्षिप्तजीवन (पृ. ११-१५)
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प्रन्थप्रणेतानी जीवनरेखा केटलाक प्रश्नो 'अमदावाद'निवासी श्रावक शाह मगनलाल दलपतराम द्वारा पूछ्या. एनो उत्तर मळतां ए महाशयने पूर्ण संतोष थयो. त्यारबादना प्रश्नोत्तरोनुं सक्रिय परिणाम शु आव्यु तेना जिज्ञासुने डॉ. हॉर्नलने हाथे संपादन थयेला सटीक उपासकदशांगमा ए विद्वाने जे कृतज्ञताप्रदर्शक निम्नलिखित पयो आ सूरिवरने उद्देशीने रच्यां छे तेनुं मनन करवा हुं विनवू छु:
"दुराग्रहध्वान्तविभेदभानो !, हितोपदेशामृतसिन्धुचित्त ।। सन्देहसन्दोहनिरासकारिन् !, जिनोक्तधर्मस्य धुरन्धरोऽसि ॥ १ ॥ अज्ञानतिमिरभास्कर-मज्ञाननिवृत्तये सहृदयानाम् । आहेततत्त्वादर्श-ग्रन्थमपरमपि भवानकृत ॥२॥ आनन्दविजय ! श्रीमन्नात्माराम ! महामुने।। मदीयनिखिलप्रश्न-व्याख्यातः ! शास्त्रपारग! ॥ ३ ॥ कृतज्ञताचिह्नमिदं, ग्रन्थसंस्करणं कृतम् ।
यत्नसम्पादितं तुभ्यं, श्रद्धयोत्सृज्यते मया ॥ ४ ॥" वि. सं. १९४८मां आ डॉ. हॉर्नेल महोदय एमना दर्शनार्थे 'अमृतसर' आव्या. अहो तेमनी सुजनता! वि. सं. १९४९मां 'चिकागो'मां भरवामां आवनार सर्वधर्मपरिषद्ने अलंकृत करवानुं एमने आमंत्रणपत्र मळ्यु; प्रतिकृति तेमज जीवनचरित्र माटे पण अभ्यर्थना करवामां आवी. परंतु नौकानो आश्रय लीधा विना 'अमेरिका' जवू अशक्य होवाथी, श्रीयुत वीरचंद राघवजी गांधी बार ऍट् लॉ ए महाशयने पोतानी प्रतिकृति, संक्षिप्त जीवनचरित्र अने जैन सिद्धान्त विषयक निबंध आपी पोताना प्रतिनिधि तरीके पसंद कर्या. थोडो वखत पासे राखी एमना सुवर्ण जेवा ज्ञानने श्रीविजयानन्दसूरिए सुगन्धनो योग अर्यो. 'मुंबई'ना जैन संघे श्रीयुत गांधीने अमेरिका मोकल्या. “The World's Parliament of Religions" नामना पुस्तकना २१ मा पृष्ठमा एमनी प्रतिकृति आपी निम्नलिखित उद्गारो मुद्रित कराया छे:
“No man has so peculiarly identified himself with the interests of the Jain community as Muni Ātmārāmji. He is one of the noble band sworn from the day of initiation to the end of life to work day and night for the high mission they have undertaken. He is the high priest of the Jain community and is recognised as the highest living authority on Jain religion and literature by oriental scholars".
वि. सं. १९५३ ना जेठ मासनी सुद बीजे 'गुजरांवाला' गाममा एओ आल्या. आ समये त्यांना जैनोए एमर्नु अपूर्व खागत कयु. ज्वराक्रान्त देह होवा छतां एमणे धर्मोपदेश आप्यो, परंतु
आ एमनो अंतिम उपदेश हतो. हवे फरीथी 'भारत'वर्षना भाग्यमां आ महात्मानो ब्रह्मनाद श्रवण कर. वानो सुप्रसंग मळे तेम न हतुं. सप्तमीनी रात्रिए नित्यकर्म समाप्त करी सूरिवर्य निद्राधीन बन्या. एम करतां बार वाग्यानो समय थयो. आ वखते दशे दिशामां शांतता अने निश्चलतार्नु साम्राज्य स्थपायेलं हतुं. कायर मृत्युमां एवी ताकात न हती के आ महर्षिना अखंडित तेजनी ते सामे थइ शके.
१जे समये महाराजश्रीनो खर्गवास थयो तेवारे अष्टमी थती हती; एथी एमनी निर्वाणतिथि अष्टमी गणाय छे.
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अन्यप्रणेतानी जीवनरेखा आथी ते धीरे धीरे गुप्त रूपे पोतानी कुटिल जाळ पाथरी रह्यो हतो. निर्भय सूरिवर तो क्यारना ए खस्थ बनी मृत्युनु स्वागत करवानी तैयारी करी रह्या हता. आवे वखते पण एमना शरीरनी शोभा चन्द्रकान्तिने हास्यास्पद बनावी रही हती. एमना मुखमांथी 'अर्हन्' शब्दनो दिव्य ध्वनि नीकळी रह्यो हतो. सामे बेठेलो शिष्यपरिवार आ सर्वोत्तम नादन उत्सुक हृदये पान करी रह्यो हतो. एटलामा समय पूरो थयो. लो भाइ अब हम जाते हैं, अर्हन् एम कहेतां कहेतां ए सूरीश्वर खर्गे संचर्या. मनोहर रात्रि भयानक रूपे परिणमी. शांत रस करुणरूपे परिवर्तन पाम्यो. बीजे दिवसे एमना देहनो अग्निसंस्कार करवामां आव्यो. आ प्रमाणे एमना स्थूल देहनो अस्त थयो, परंतु साधुताना साचा आदर्शनी एज देह द्वरा आचरी बतावेल ज्योति तो सदाने माटे उदयवंती बनी गइ.
आ प्रातःस्मरणीय सूरिवर्य विद्वानोना निःसीम प्रेमी हता. 'विद्याव्यासंगने लइने एमने हाथे बहु ग्रंथोनो उद्धार थयो छे. अनेक जनोने एमणे सन्मार्गी बनाव्या छे. तेमां खास करीने 'पंजाब' देश उपर एमनो पारावार उपकार छे. ए देशने उद्देशीने एमने जैन धर्मना जन्मदाता तरीके संबोधी शकाय. एमनी यशःपताकारूप त्यांना अनेक जैनमंदिरो आजे पण आ वातनी साक्षी पूरी रह्या छे. 'सिद्धाचल'मां एमनी पाषाणमयी प्रतिमा स्थापवामां आवी छे ए एमना प्रत्येना सज्जनोनो प्रेम जाहेर करे छे. अमदावाद, पाटण, वडोदरा, जयपुर, अंबाला, लुधियाना वगेरे स्थलो एमनी मूर्ति तेमज चरणपादुकाथी विभूषित बन्यां छे ए एमनी धर्मसेवानो प्रताप छे. 'गुजरांवाला' शहरमा एमनी स्मृतिरूपे भव्य समाधिमंदिर बनावायु छे ए त्यांनी जनतानुं मन एमनी तरफ केटलं आकर्षायेलं हतुं ते सूचवे छे. - जैन साहित्यने समृद्ध बनाववा तेमणे केवो सतत प्रयास कर्यो छे ए तेमनी नीचे मुजब तत्वनिर्णयप्रासादगत जीवनचरित्रने आधारे रजु कराती विविध कृतिओ कही रही छेः
(१) नवतत्त्वसंग्रह सं. १९२४-२५, (२) आत्मवावनी सं. १९२७, (३) चोवीसजिनस्तवन सं. १९३०, (४) जैनतत्त्वादर्श सं. १९३७-३८, (५) अज्ञानतिमिरभास्कर सं. १९३९-४१, (६) सत्तरभेदी पूजा सं. १९३९, (७) सम्यक्त्वशल्योद्धार सं. १९३९-४१, (८) वीसस्थानक पूजा सं. १९४०, (९) जैनमतवृक्ष सं. १९४२, (१०) अष्टप्रकारी पूजा. सं. १९५३, (११) चतुर्थस्तुतिनिर्णय (भा. १) सं. १९४४, (१२) श्रीजैनप्रश्नोत्तरावली सं. १९४५, (१३) चतुर्थस्तुतिनिर्णय (भा. २) सं. १९४८, (१४) नवपदपूजा सं. १९४८, (१५) स्नात्रपूजा सं. १९५० अने (१६) तत्वनिर्णयप्रासाद सं. १९५१.
___ अंतमां एटलं ज निवेदन करीश के आत्मभावमा रमण करनार श्रीविजयानन्द सूरीश्वरनो जन्म सार्थक थयो छे. जेमने एमना दर्शननो लाभ मळ्यो छे तेमनी नेत्रप्राप्ति सफळ थइ छे. जेमने एमनो सुधामय उपदेश सांभळवानी तक मळी छे तेमना कर्ण धन्यपात्र छे. जे माताए आ सूरिरत्नने जन्म आप्यो तेमने सहस्रशः धन्यवाद अने वन्दन घटे छे. जे जैन संघे एमनुं गौरव कयु छे ते विचक्षण संघने मारा प्रणाम छे. जे 'भारत' भूमि आवा महात्माओनी जीवनभूमि बने छे ते बहुरला वसुन्धरा सदा जयवंती वर्तों.
- १सन्मतितर्क जेवा प्रौढ ग्रन्थनु एमने पठन कर्यु हतुं एम मानवानां खास कारणो मळे छे.
२२०००० स्त्रीपुरुषोने धर्ममार्गे चढाववा उपरांत एमणे केटलाए स्थानकवासी साधुओने पण जैन धर्मनी प्रशस्त नौकाना कर्णधार बनाव्या. ३ उपदेशबावनी ते आ ज होय एम जणाय छे.
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विषय
निवेदन
ग्रन्थप्रणेतानी जीवनरेखा
नवतत्त्वसंग्रह
१ जीव-तत्त्व
२ अजीव तत्त्व
३ पुण्य-तत्त्व
४ पाप-तत्त्व
५ आसव-तत्त्व
६ संवर-तत्त्व
७ निर्जरा-तत्त्व
८ बन्ध-तत्त्व
९ मोक्ष-तत्त्व
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उपदेश बावनी ग्राहकोनी शुभ नामावली
विषयानुक्रम
-56018
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2000
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DIFO
पृष्ठांक
३-४
५-८
१-२५०
१-११७
११७-१३५
१३६-१३९
१३९
१३९-१४०
१४०-१७५
१७५-१९५
१९५-२४१
२४१-२५०
२५१-२५८
२५९-२६२
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जैनाचार्य १००८ श्रीमद्विजयानन्दसूरि ( श्रीआत्मारामजी ) महाराजके मुख्य शिष्य
१०८ श्रीमान् श्रीलक्ष्मीविजयजी महाराज
मेडता (मारवाड) के वासिंदे पुष्करणा ब्राह्मण. स्वर्गवास १९४० पाली (मारवाड).
मुनिमहाराज श्रीहर्षविजयजी, आचार्यमहाराज श्रीविजय कमलसूरिजी, श्रीहंस विजयजी महाराजजी के गुरुदेव, संघाडा के सर्व साधुओं के आद्य विद्यागुरु.
बालापुर जील्ला आकोला (वराड) निवासी शेठ लालचंद खुशालचंदकी तर्फसे गुरुभक्ति निमित्ते.
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न्यायाम्भोनिधि–पञ्चनदोद्धारक - जैनाचार्य - १००८ श्रीमद्विजयानन्दसूरीश्वरविरचितः
॥ नवतत्त्वसङ्ग्रहः ॥
श्रीमत्सर्वज्ञाय नमः ।
शुद्धज्ञानप्रकाशाय, लोकालोकैकभानवे ।
नमः श्रीवर्धमानाय, वर्धमान जिनेशिने ॥ १ ॥
अथ नवसंग्रह 'लिख्यते, प्रथम 'जीव' तत्व लिख्यते - पन्नवणा पद १.
( जीवभेद )
नरकनाम - रत्नप्रभा १ शकर ( रा ) प्रभा २ वालु ( का ) प्रभा ३ पंकप्रभा ४ धूम्रप्रभा ५ तमा ६ तमतमा ७.
पृथ्वीभेद - कृष्ण मृत्तिका १ नीली मट्टी २ एवं पांच वर्णकी मट्टी ५ पांडु ६ पनगधूल ७ कंकर ८ रेत ९ लवण १० रांग ११ लोह १२ तांवा १३ सीसा १४ रूपा १५ स्वर्ण १६ हीरा १७ हरिताल १८ सिंगरफ १९ मनसिल २० पारा २१ मूंगा २२ सोवीरांजन २३ मोडल २४ सर्व जातिके रत्न - पन्ना माणक आदि, सूर्यकांत आदि मणी इति.
* “नेरइया सत्तविहा पन्नत्ता, तंजहा - रयणप्पभापुढविनेरइया १ सक्करपभा० २ वालुयभा० ३ पंकष्पभा० ४ धूमप्पभा० ५ तमप्पभा० ६ तमतमप्पभा० ७" । (प्रज्ञा० सू० ३१ )
"सन्हवायरपुढविकाइया सत्तविहा पन्नत्ता, तंजहा - किण्हमत्तिया १ नीलमत्तिया २ लोहियमत्तिया ३ हालिहमत्तिया ४ सुकिल्लमत्तिया ५ पांडुमन्तिया ६ पणगमत्तिय ७, सेत्तं सण्हबादरपुढविकाइया" । ( सू० १४ ) “खरबायरपुढविकाइया अणेगविहा पत्ता, तंजहा - पुढवी १ य सक्करा २ वालुया ३ य उवले ४ सिला ५ य लोणूसे ६-७ । अय ८ तंव ९ तर १० य सीसय ११ रुप १२ सुवन्ने १३ य वइरे १४ य ॥ १ ॥ हरियाले १५ हिंगुलए १६ मणोसिला १७ सासगंजणपवाले १८-२० । अब्भपडलब्भवालुय २१-२२ वायरकाए मणिविहाणा ॥ २ ॥ गोमेजए २३ य रुपए २४ अंके २५ फलिहे २६ य लोहियक्खे २७ य । मरगय २८ मसारगल्ले २९ भुयमोयग ३० इंदनीले ३१ य ॥ ३ ॥ चंदण ३२ गेरुय ३३ हंसगब्भ ३४ पुल ३५ सोगंधिए ३६ य बोद्धव्वे । चंदप्पभ ३७ daलिए ३८ जलकंते ३९ सूरकंते ४० य ॥ ४ ॥ ( प्रज्ञा० सू० १५ )
१ लखाय छे। २ आ प्रकारे । ३ कलाइ धातु ।
४ हिंगळोक ।
५ परवाळा । ६ अबरख ।
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श्रीविजयानंद सूरिकृत
[ १ जीव
अप्काय - ओस १ पांला २ धुंयर ३ गैंडा ४ हस्तणु ५ वर्षानो ६ स्वभावे शीतल ७ स्वभावे उष्ण ८ खारा पाणी ९ खट्टो पाणी १० लवणवेत् खारा ११ वारुणसमुद्रोदग १२ खीरोदग १३ घृतोदग १४ इक्षुरसवत् १५ कूप आदि जलाश्रयना. *
*
२
तेजस्काय - अंगारा १ ज्वाला २ मुँमर ३ अर्ची ४ उल्मुक ५ लोहपिंड मिश्रित ६ उल्कापातनी अग्नि ७ बिजली ८ भुभर ९ निर्घात अग्नि १० अरण आदि काष्ठ घसने से उपनी ११ सूर्यकांत मणीसे उपनी अग्नि १२ इत्यादि जाननी
वायु ( काय ) - दशो दिशना वायु १० उत्कलिका ११ मंडलि वायु १२ गुंजा १३ झखड १४ झंझा १५ संवर्तक वायु १६ घनवात १७ तनुवात १८ शुद्ध वायु १९ इत्यादि " ज्ञेयम्. +
वनस्पति प्रत्येक - ओम्र आदि वृक्ष १ बैंगण आदि गुच्छा २ गुल्म-वनमल्लिका आदि ३ लता - चंपक आदि ४ वल्ली - कोहल आदि ५ पर्व - इक्षु आदि ६ तृण-दर्भ आदि ७ वलयाकेतकी आदि ८ हरि ( त ) - तंदुली प्रभृति ९ ओषधि सर्व जातनां धान्य १० कमलादि ११ कुण - भूमिस्फोट आदि १२.
अनंतकाय लिख्यते - हलदी १ आर्द्रक २ मूली ३ गाजर ४ आलू ५ पिंडालू ६ छेदे पछे (बाद) वधे ७ नवा अंकूरा ८ कृष्ण कंद ९ वज्र कंद १० सूरण कंद ११ खेलूडा १२ इत्यादि, पनवणापदात् ज्ञेयं लक्षणम्. *
* "बादरआउकाइया अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा - उस्सा १ हिमए २ महिया ३ करए ४ हरतए ५ सुद्धोदए ६ सीतोदए ७ उसिणोदर ८ खारोदए ९ खट्टोदए १० अंबिलोदप ११ लवणोदए १२ वारुणोदय १३ खीरोदए १४ घओदए १५ खोतोदए १६ रसोदए १७" । (प्रज्ञा० सू० १६ )
+ "बादरतेऊकाइया अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा - इंगाले १ जाला २ मुंमुरे ३ अच्ची ४ अलाए ५ सुद्धागणी ६ उक्का ७ विजू ८ असणी ९ णिग्याए १० संघरिससमुट्ठिए ११ सूरकंतमणिणिस्सिए १२" । (प्रज्ञा० सू० १७ )
+ "बादरवाङकाइया अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा - पाइणवाए १ पडीणवाए २ दाहिणवाए ३ उदीणवाए ४ उडवाए ५ अहोवाए ६ तिरियवाए ७ विदिसीवाए ८ वाउब्भामे ९ वाउक्कलिया १० वायमंडलिया ११ उक्कलियावाए १२ मंडलियावाए १३ गुंजावाए १४ झंझावाए १५ संवट्टवाए १६ घणवाए १७ तणुवाए १८ सुद्धवाए १९" । (प्रज्ञा० सू० १८ )
-
|| “पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइया दुवालसविहा पन्नत्ता, तंजहारुक्खा १ गुच्छा २ गुल्मा ३ लता ४ य वल्ली ५ य पव्वगा ६ चेव । तण-वलय-हरिय-ओसहि- जलरुह - कुहणा ७-१२ य बोद्धव्वा ॥ १ ॥” (प्रज्ञा० सू० २२ )
$ "साहारण सरीरबादरवणस्सइकाइया अणेगविहा पन्नत्ता तंजहा - अवए १ पणए २ सेवाले ३ लोहिणी ४ मिहुत्थु ५ हुत्थिभागा ६ (य) । अस्सकन्नि ७ सीहकन्नी ८ सिउंढि ९ तत्तो मुसुंढी १० य ॥ १ ॥ रुरु ११ कुंडरिया १२ जीरु १३ छीर १४ विराली १५ तहेव किट्टीया १६ | हालिद्दा
१ हिम । २ धूमस । ३ करा । ४ पृथ्वीने भेदीने तृणना अग्र भाग उपर रहेनारुं पाणी । ५ जेम । ६ तणखा । ७ उंबाडियं । ८ जाणवुं । ९ आंबो । १० पन्नवणाना पदथी लक्षण जाणवुं ।
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह बेइंद्री-पूरा १ (पायु)कम(मि) २ कुक्षिकम ३ गंडोला ४ गोरोमा ५ निकुरिषा ६ मंगल ७ वंसीमुख ८ सूचिमुख ९ गोजलोक १० जो(जलो)क ११ संख १२ लघु संख १३ कौडी १४ घोघे १५ सीप १६ गजाइ १७ चंदणग १८ मातृवाहा १९ समुद्रलीख २० संवुक-संखविशेष २१ नंदियावर्त २२ इत्यादि जान लेना.*
तेइंद्री-उपविता १ रोहणी २ कुंथुया ३ कीडी ४ उइंस माकड ५ दंसक ६ उद्देही ७ फलवेंटी ८ बीजवेंटी ९ जूंका १० लीख ११ कानसिलाइ १२ कानखजूरा १२ 'पिसू १३ इंद्रगोप १४ हस्तीसौंडा १५ सुरसली १६ तूंरतुवक १७ चीचड.
चतुरिंद्री-अंधक १ पोतिक कोच्छलीया २ माखी ३ डांस ४ उडणा( उडणेवाले) कीडा ५ पतंग ६ ढंकुण ७ कुकुड ८ कुहण ९ नंदावर्त १० संगरडा ११ कृष्ण पांखना १२ एवं पांच वर्णनी पांखना १६ भमरा १७ भमरी १८ टीड १९ विछु २० जलविछु २१ गोवर माहिला कीडा २२ अक्षिवेद आंख मे पडे २३ इत्यादि. १७ सिंगबेरे १८ य आतूलुगा १९ भूलए. २० इय ॥२॥ कंबूयं २१ कन्नुक्कड २२ सुमत्तओ २३ वलइ २४ तहेव महुसिंगी २५ । नीरुह २६ सप्पसुयंधा २७ छिन्नरहा २८ चेव बीयरुहा २९ ॥३॥ पाढा ३० मियवालुंकी ३१ महुररसा ३२ चेव रायवत्ती ३३ य । पउमा ३४ माढरि ३५ दंतीति ३६ चंडी ३७ किट्टी ३८ त्ति यावरा ३९॥४॥ मासपण्णी ४० मुग्गपण्णी ४१ जीवियरसहे ४२ य रेणुया ४३ चेव । काओली ४४ खीरकाओली ४५ तहा भंगी ४६ नही ४७ इय ॥ ५॥ किमिरासि ४८ भद्द ४९ मुच्छा ५० णंगलई ५१ पेलुगा ५२ इय । किण्हे ५३ पउले ५४ य हढे ५५ हरतणुया ५६ घेव लोयाणी ५७ । कण्हे कंदे ५८ वजे ५९ सूरणकंदे ६० तहेव खल्लूरे ६१ । एए अणंतजीवा जे यावन्ने तहाविहा ॥६॥” (प्रज्ञा० सू०२४)
साधारणतुं लक्षण"चकागं भजमाणस्स, गंठी चुन्नघणो भवे । पुढविसरिसेण भेएण, अणंतजीवं वियाणाहि ॥१॥ गुढसिरागं पत्तं सच्छीरं जंच होइ निच्छीरं। जंपिय पणट्रसंधि अणंतजीवं वियाणाहि ॥२॥" (सू०२५)
* "बेइंदिया अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा-पुलाकिमिया १ कुच्छिकिमिया २ गंडूयलगा ३गोलोमा ४णेउरा ५ सोमंगलगा६ वसीमुहा ७ सूइमुहा८गोजलोया ९ जलोया १० जालाउया ११ संखा १२ संखणगा १३ घुल्ला १४ खुल्ला १५ गुलया १६ खंधा १७ वराडा १८ सोत्तिया १९ मुत्तिया २० कलुयावासा २१ एगओवत्ता २२ दुहओवत्ता २३ नंदियावत्ता २४ संबुक्का २५ माइवाहा २६ सिप्पिसंपुडा २७चंदणा २८ समहलिक्खा २९"। (प्रज्ञा०स०२७)
"तेइंदियसंसारसमावन्नजीवपन्नवणा अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा-ओवया १ रोहिणिया २ कुंथू ३ पिपीलिया ४ उद्दसगा ५ उद्देहिया ६ उक्कलिया ७ उप्पाया ८ उप्पडा ९ १० कट्ठहारा ११ मालुया १२ पत्ताहारा १३ तणबेटिया १४ पत्तवेंटिया १५ पुप्फटिया १६ फलबेटिया १७ बीयवेंटिया १८ तेवुरणमिंजिया १९ तओसिमिजिया २० कप्पासडिमिंजिया २१ हिल्लिया २२ झिल्लिया २३ झिगिरा २४ किंगिरडा २५ बाहुया २६ लहया २७सुभगा २८ स सुयबेटा ३० इंदकाइया ३१ इंदगोवया ३२ तुरुतुंबगा ३३ कुच्छलवाहगा ३४ जूया ३५ हालाहला ३६ पिसुया ३७ सयवाइया ३८ गोम्ही ३९ हथिसोंडा ४०” । (प्रज्ञा० सू० २८) ___ "चरिंदियसंसारसमापन्नजीवपन्नवणा अणेगविहा पनत्ता, तंजहा-अंधिय १ पत्तिय
१चांचड। २ धान्यमां उत्पन थतां लाल रंगनां जीवडां।
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवपंचेंद्री तिर्यंच-जलचर-मत्स्य आदि १ स्थलचर-गो आदि २ खेचर-हंस आदि ३ उरपर-सर्प आदि ४ भुजपर-गोह नकुल 'गिलेरी किरली आदि ५ इति अलम्.
मनुष्य-कर्मभूमिज १५ अकर्मभूमिज ३० अंतरद्वीपज ५६ (१०१) संमूछिम.*
भवनपति-असुरकुमार १ नागकुमार २ सुवर्णकुमार ३ विद्युत्कुमार ४ अग्निकुमार ५ द्वीपकुमार ६ उदधिकुमार ७ दिक्कुमार ८ वायुकुमार ९ स्तनितकुमार १०. पंदरे परमाधार्मिक असुरकुमारभेद.
व्यंतर-पिशाच १ भूत २ यक्ष ३ राक्षस ४ किन्नर ५ किंपुरुष ६ महोरग ७ गंधर्व ८.
जोतिषी-चंद्र, सूर्य, ग्रह ८८, नक्षत्र २८, तारे एवं पांच भेद जोतिषी. २ मच्छिय ३ मसगा ४ कीडे ५ तहा पयंगे ६ य । ढंकुण ७ कुक्कड ८ कुकुह ९ नंदावत्ते १० य सिंगिरडे ११ ॥१॥ किण्हपत्ता १२ नीलपत्ता १३ लोहियपत्ता १४ हालिदपत्ता १५ सुकिल्लपत्ता १६ चित्तपक्खा १७ विचित्तपक्खा १८ ओहंजलिया १९ जलचारिया २० गंभीरा २१ णीणिया २२ तंतवा २३ अच्छिरोडा २४ अच्छिवेहा २५ सारंगा २६ नेउरा २७ दोला २८ भमरा २९ भरिली ३० जरुला ३१ तोट्टा ३२ विंछुया ३३ पत्तविच्छुया ३४ छाणविच्छुया ३५ जलविच्छुया ३६ पियंगाला ३७ कणगा ३८ गोमयकीडा ३२"। (प्रज्ञा० सू०२९) __ * "मणुस्सा दुविहा प० तं०-संमुच्छिममणुस्साय गब्भवतियमणुस्सा य ।...... गम्भवकंतियमणुस्सा तिविहा प० तं०-कम्मभूमगा १ अकम्मभूमगा २ अन्तरदीवगा ३ ।......अंतरदीवगा अट्ठावीसविहा प० तं०-एगोरुया १ आहासिया २ वेसाणिया ३ णंगोला ४ हयकन्ना ५ गयकन्ना ६ गोकन्ना ७ सक्कुलिकन्ना ८ आयंसमुहा ९ मेंढमुहा १० अयोमुहा ११ गोमुहा १२ आसमुहा १३ हत्थिमुहा १४ सीहमुहा १५ वग्घमुहा १६ आसकन्ना १७ हरिकन्ना १८ अकन्ना १९ कण्णपाउरणा २० उक्कामुहा २१ मेहमुहा २२ विजमुहा २३ विजुदंता २४ घणदंता २५ लट्रदंता २६ गूढदंता २७ सुद्धदंता । सेत्तं अंतरदीवगा। (यादशा एव यावत्प्रमाणा यावदपान्तराला यन्नामानो हिमवत्पर्वत. पूर्वापरदिग्व्यवस्थिता अष्टाविंशतिविधा अन्तरद्वीपास्तादृशा एव तावत्प्रमाणा तावदपान्तरालास्तनामान एव शिखरिपर्वतपूर्वापरदिग्व्यवस्थिता अपि, ततोऽत्यन्तसहशतया व्यक्तिभेदमनपेक्ष्य अन्तरद्वीपा अष्टाविंशतिविधा एव विवक्षिताः)......अकम्मभूमिगा तीसविहा प० तं०-पंचहिं हेमवएहिं, पंचहिं हिरण्णवएहि, पंचहिं हरिवासे हिं, पंचहिं रम्मगवासेहि, पंचहिं देवकुरूहि, पंचर्हि उत्तरकुरूहिं ।......कम्भभूमगा पन्नरसविहा प० तं०-पंचहिं भरहेहिं, पंचहिं एरवएहिं, पंचहिं महाविदेहिं"। (प्रज्ञा० सू० ३७)
१ खिस्कोली। २ गिलोदी। ३ एटले पर्याप्त । ४ समवायांगना १५ मा स्थानकमां एनां नामो नीचे मुजब आपेलां छ:
"अंबे १ अंबरिसी २ चेव, सामे ३ सबले ४ त्ति आवरे । रुद्दोवरुद्दकाले ५-७ अ, महाकाले ८ त्ति आवरे ॥१॥ असिपत्ते ९ धणु १० कुंमे ११, वालुए १२ वेअरणीति १३ अ। खरस्सरे १४ महाघोसे १५, पते पन्नरसाहिआ ॥२॥"
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह वैमानिक-सुधर्म १ ईशान २ सनत्कुमार ३ महेन्द्र ४ ब्रह्म ५ लांतिक ६ महाशुक्र ७ सहस्रार ८ आनत ९ प्राणत १० आरण ११ अच्युत १२, नव ग्रैवेयक ९, पांच अनुत्तरविजय १ विजयंत २ जयंत ३ अपराजित ४ सर्वार्थसिद्ध ५ एवं सर्व २६.* इत्यादि जीवभेद जान लेना.
(संख्याद्वार) पूर्वोत्पन्नसंख्या-मनुष्य वर्जी २३ 'दंडकमे असंख्याते, वनस्पतिमे अनंते, मनुष्यमै संख्याते वा असंख्याते इति संख्याद्वारम्. ___* "देवा चउन्विहा पन्नत्ता, तंजहा-भवणवासी १ वाणमंतरा २ जोइसिआ ३ वेमाणिआ४।... भवणवासी दसविहा प० तं०-असुरकुमारा १ नाग०२ सुवन्न० ३ विजु० ४ अग्गि० ५ दीव० ६ उदहि०७दिसा०८वाउ०९थणिय०१०।......वाणमंतरा अविहा प० त०-किन्नरा१किंपुरिसा २ महोरगा ३ गंधव्वा ४ जक्खा ५रक्खसा ६ भूया ७ पिसाचा ८।...जोइसिया पंचविहा प० तं०चंदा १ सूरा २ गहा ३ नक्खत्ता ४ तारा ५।...वेमाणिआ दुविहा प० तं०-कप्पोवगा १ य कप्पाईया य ।...कप्पोवगा बारसविहा प० तं०-सोहम्मा १ ईसाणा २ सणंकुमारा ३ माहिंदा ४ बंभलोया ५ लंतया ६ महासुक्का ७ सहस्सारा ८ आणया ९ पाणया १० आरणा ११ अचुया १२।... कप्पाईया दुविहा प० तं०-गेविजगा य अणुत्तरोववाइया य ।...गेविजगा नवविहा प० तं०हिट्ठिमहिट्ठिमगेविजगा १ हिटिममज्झिम०२ हिट्टिमउवरिम० ३ मज्झिमहेट्टिम० ४ मज्झिममज्झिम० ५ मज्झिमउवरिम०६ उवरिमहेट्रिम०७ उवरिममज्झिम०८ उवरिमउवरिम०९।...अणुत्तरोववाइया पंचविहा प० तं०-विजया १ वेजयंता२ जयंता ३ अपराजिता ४ सव्वासिद्धा ५"। (प्रज्ञा०सू०३८)
१ते ते जातिना समुदायतुं ग्रहण करवा माटे (तजातीयसमूहप्रतिपादकलार्थ) 'दंडक' शब्द योजायो छे. जेने विषे जीव पोते करेलां कर्मोनो दंड पामे ते 'दंडक' कहेवाय छे. आ संबंधमां एवो पण खुलासो नजरे पडे छे के एकार्थक सरखो पाठ जेमा आवतो होय ते 'दंडक' कहेवाय छे. जेमके उख, नख, णख, वख, मख वगेरे धातुओ गतिवाचक होवाथी ते 'दंडक' धातुओ कहेवाय छे. कुले दंडको चोवीस छे. तेनां नामो माटे श्रीभगवतीसूत्र (सू. ८)नी व्याख्या करतां श्रीअभयदेवसूरि नीचे मुजवनी गाथार्नु टांचण करे छः--
__ "नेरइया १ असुराई १० पुढवाई ५ बेदियादओ ३ चेव ।
पंचिंदियतिरिय १ नरा १ वंतर १ जोइसिय १ वेमाणी १॥" मोटे भागे 'नेरइया' शब्द द्वारा साते नरकने लगता सरखा पाठो-आलापको-सूचवाया छे, माटे ते एक दंडक जाणवो. 'असुरकुमारा जाव थणियकुमारा' इत्यादि शब्दो वडे जुदा जुदा आलावाओ सूचवायेला होवाथी एना दश दंडको गणाय छे. एवी रीते एकेन्द्रियना अधिकारमा प्रायः 'पुढविकाइया' इत्यादि शब्द वडे पृथक् पृथक् आलावाओ सूचवाया छे, तेथी एना पांच दंडको गणाय छे.
नरकना सात, व्यंतरना आठ, ज्योतिष्कना पांच अने वैमानिकना २६ भेद होवा छतां ए प्रत्येकना एकेक ज दंडक गणाय छे, ज्यारे भुवनपतिना दश दंडको गणाय छे तेनो शो हेतु छे ? आनो उत्तर एम सूचवाय छे के असुरकुमार अने नागकुमार बच्चे नरकना प्रस्तर (पाथडा)नुं तेमज नारकी जीवोनुं अंतर छे, एवी रीते नागकुमार अने विद्युत्कुमार वच्चे, एम भुवनपतिना अन्य भेदो आश्री छे. आq अंतर नारक, व्यं तर वगेरेना संबंधमा नथी तेथी, ते प्रत्येकनो एकेक दंडक गणाय छे, जोके रत्नप्रभा अने शर्कराप्रभा वचे तेना आधारभूत घनोदधि, धनवात, तनुवात अने आकाशY आंतरूं छे.
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
( १ ) अथ पूर्वोत्पन्नसंख्या लिख्यते
श्रीपन्नवणा शरीरपद १२ मे वा अनुयोगद्वारे ( सू० १४२ ) तथा 'पंचसंग्रहे च कथितम् .
प्र
थ
5
मा
न
मे
दू
जी
न
र
पांचवी नरक
छट्ठी नरक
सातवी नरक बादरपर्याप्त तेजस्काय
क
तीसरी नरक श्रेणि के असंख्यातमे भाग.
थी नरक
प्रत्येक निगोद पृथ्वीकाय
अष्काय
प्रतरके असंख्यातमे भागमे जितने आकाशप्रदेश आवें ती ( इ ) तने जीव प्रथम रत्नप्रभा नरकमे है.
प्रतरका स्वरूप अने (और) श्रेणिका स्वरूप कथ्यते - सात रजु लंबी अने सात रजु चौडी अने एक प्रदेशकी मोटी इसकूं | तो घनीकृत लोककी एक प्रतर कहीये अने सात रजु प्रमाण लंबी अने एक प्रदेश प्रमाण चौडी अने एक प्रदेश प्रमाण मोठी इसकूं घनीकृत लोककी एक श्रेणिछ कहीये । जिहां कही समुच्चये प्रतर अने श्रेणिका मापा है तिहा ( वहां) ऐसी प्रतर अने श्रेणि जाननी. इत्यलं विस्तरेण.
श्रेणिके असंख्यातमे भागमे जितने | आकाशप्रदेश आवे तितने दूजी नरक में नारकी जान लेने.
33
35
55
99
०
पर्याप्ते लोकके असंख्यातमे भाग.
१ पंचसंग्रहमां पण कां छे । २ कहेवाय छे ।
श्रेणि अंगुल प्रमाण चौडी अने सात रज् प्रमाण लंबी तिस श्रेणीमे असत् कल्पना करके श्रेणि २५६ कल्पीये. तिसका प्रथम वर्गमूल काढीये तो १६ होइ (वे ). दूजा (सरा) वर्गमूल काढीये तो ४ निकले है तिस दूजे वर्गमूलकं पहिले वर्गमूलसं गुण्या ६४ होइ. तिण चौसठ ६४ श्रेणि असी सूची नीपजे. तिस सूचीमे जितने प्रमाण तो चौडी अने सात रजु लंबी आकाशप्रदेश हे तितने पहिली नरकमे
नरकके नारकी कम करके इतने नारकी जान लेने.
[ १ जीव
श्रेणिके प्रदेशांका वर्गमूल काढत जब वारमा वर्गमूल आवे तिस बार १२ मे वर्गमूलका भाग पूर्वोक्त श्रेणिके प्रदे शांकू दीजे जो हाथ आवे तितने नारकी दूजी नरकमे जानने एवं सर्वत्र ज्ञेयम्.
श्रेणिका १० मा वर्गमूल भाग हाथ लगे. श्रेणि ८ व ( मा ? ) मूल भाग हाथ लगे. श्रेणि ६ छठो वर्गमूलका भाग
श्रेणि ३ तीजो वर्गमूलका भाग
33
श्रेणि २ दूजे वर्गमूलका भाग " किंचिभ्यून धनावलिके समय प्रमाणं.
| लोकके असंख्यातमे भाग.
13
39
३ विस्तारथी । ४ सर्व स्थळोमां । ५ कंइक ओछा ।
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
तेजो वायु
•ia trib bet
बादर अप-1 र्याप्त पृथ्वी अप् तेज वायु प्रत्येक निगोद सू. असंख्याते लोकके प्रदेशप्रमाण. असंख्याते लोकके प्रदेशप्रमाण. क्ष्म पर्याप्ता
अपर्याप्ता पृथ्वी अप निगोद
प्रतरके असंख्यातमे भागमे कोडा कोड एक प्रतर अंगुल के असंख्यातमे भागमें असंख्यात जोजन प्रमाण तो चौडी अने एक बेंद्री आदिक स्थापीये. इम स्थापना सात रजु प्रमाण लंबी ऐसी एक श्रेणी करता घनीकृत लोकनी एक प्रतर संपूर्ण लीजे. तेहने प्रदेशोकी असत् कल्पना भरायें इतने बेंद्री, तेंद्री, चौरेंद्री है; अथवा ६५५३६ की करीये. तिसके वर्गमूल आवलिकाके असंख्यातमे भागमें जितने काढीये. प्रथम वर्गमूल २५६ का, दुजा समय आवें तितने कालमें एकेक बेंद्री, १६, तीजा ४, चौथा २. ए कल्पना करके तेंद्री, चौरेंद्री अपहरीये तो असंख्याती चार वर्गमूल है. पिण (किन्तु) परमार्थ अवसर्पिणी उत्सर्पिणीमें संपूर्ण एक थकी (से) असंख्याते वर्गमूल नीकले. प्रतरके बेंद्री अपहरे जावे. एवं तेंद्री, ते सर्व वर्गमूल एकठा कर्या. अत्र तो २७८ |
चौरिंद्री पिण जान लेने. एह समास अने हुइ पिण परमार्थथी असंख्याते वर्गमूल
| पिछना 'अनुयोगद्वार'ना समास एक ही प्रमाण तो चौडी श्रेणीया अने सात
जानना. केवल प्रकारांतर ही है. परं रजु लंबीया. एहवी बेंद्रीयानी सूची परमार्थथी एक ही समजना. इत्यलं निपजे. तिस सूचीमे जितने आकाश
विस्तरेण. प्रदेश है तितने बेंद्री जीव जान लेने. इति अनुयोगद्वारात् शेयं तथा पन्नवणा | पद बारमेथी है.
__एक प्रदेशी श्रेणी सात रजु प्रमाण लंबी तिसमे सु अंगुल प्रमाण प्रदेश लंबे लीजे; तिसमे असत् कल्पना करे के २५६ प्रदेश; तिसका प्रथम वर्गमूल १६, दूजा वर्गमूल
४ का, तीजा २ का. तिस तीजे कू पहिले श्रेणिके असंख्यातमे भाग.
वर्गमूलसू गुण्या ३२ होइ. परमार्थ तो असंख्यात का जानना. तिस ३२ प्रदेशके खंडकू एक संमूच्छिम मनुष्यके शरीर करके अपहरीये जो एक मनुष्य और हूइ तो सात रजु लंबी श्रेणिके प्रदेश अपहरे
जाये. ते तो नही है. गर्भज पांचमे वर्गके घन प्रमाण. मनुष्य १ आ प्रमाणे अनुयोगद्वारथी जाणवू ।
tr F REE ENE
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PAAN
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवभवनपति | प्रतरके असंख्यातमे भाग नभःप्रदेश अंगुल प्रमाण श्रेणीके प्रथम वर्गमूल | तुल्य जानने.
के असंख्यातमे भाग प्रदेश प्रमाण.
संख्याते योजन प्रमाण खंड एकेक प्रतरके असंख्यातमे भाग.
| व्यंतरे करी अपहरता संपूर्ण प्रतर अपहरे. | इहां संख्याते जोजन प्रमाण खंड चतुरस्र.
२५६ अंगुल का खंड चउरस. तितना खंड एकेक जोतिषी करके अपहर्या संपूर्ण प्रतर अपहराय. घनीकृत सर्वत्र है.
अंगुल प्रमाण चौडी सात रजु प्रमाण लंबी श्रेणी तिसकी असत् कल्पना २५६ श्रेणी, तिसका प्रथम वर्गमूल १६ का, दूजा वर्गमूल ४ का, तीजा २ का. तीजे वर्गमूलकू दूजे वर्गमूलसू गुण्या ८ होइ. | परमार्थथी तो असंख्याती है. इम कल्पना| स्वरू(प) ८ श्रेणि प्रमाण चौडी, सात रजु लंबी सूची नीपजे. तिस सूचीमे जितने आकाशप्रदेश है तितने सौधर्म ईशान देवलोकके देवता है वर्तमान कालमे. इत्यलम्.
श्रेणिका ग्यारमा वर्गमूल काढीने तिस
ही श्रेणिके प्रदेशांकू ग्यारमे वर्गमूलका सनत्कुमार महेन्द्र श्रेणीके असंख्यातमे भाग है. | भाग दीये जो हाथ लगे तितने देवता है.
एवं जितर(ना)मा वर्गमूल होवे तिस ही
का भाग. ब्रह्मदेव
श्रेणिका ९ मा मूल. श्रेणिके प्रदेशो भाग.
| - Anth
लांतक
महाशुक्र
सहस्रार
आनतादि४ प्रैवेयक ९
श्रेणि ७ स्वमूल. भाग उपरवत्. श्रेणि ५ स्वमूल. भाग देना उपरवत्. श्रेणि ४ स्वमूल. भाग उपरवत् देले]णा. पल्योपमके असंख्यातमे भाग गमयप्रमाण. पल्योपमके बृहत्तर असंख्यातमे भाग. पल्योपमके अतिवृहत्तम असंख्यातमे भाग. संख्याते, क्षेत्रइस्वत्वात्.
अनुत्तर ४
संख्याते.
सर्वार्थसिद्ध
१ आकाश-प्रदेश।
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मुनिमहाराज १०८ श्रीमान् श्रीहर्षविजयजी
ओसवाल रावलपिंडी (पंजाब) के वासिंदे. स्वर्गवास दिल्ही शहर, तारीख १ अप्रेल १८९०; उमर वर्ष ५०
वर्त्तमान आचार्य श्रीविजयवल्लभसूरिजी के गुरुदेव. श्रीलक्ष्मीविजयजी महाराजके बाद में संघाडा सर्व साधुओंके विद्यागुरु
गुजरांवाला (पंजाब) निवासी लाला मानिकचंद छोटालाल दुगाडकी तर्फसे गुरुभक्ति निमित्ते.
Jain Educa
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
एह यंत्र श्री*प्रज्ञापना' थकी तथा ए यंत्र 'प्रज्ञापना, श्री अनुयोगद्वार'थी | श्री अनुयोगद्वार'थी.
तथा श्रिी पंचसंग्रहे श्वेतांबर आनायके
ग्रंथ थकी जान लेना. ___ *"नेरइयाणं भंते ! केवइया वेउब्वियसरीरा पन्नत्ता? गोयमा!दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-बद्धलगा य मुक्केल्लगा य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा, असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणिहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखिजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजइभागो, तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलपढमवग्गमूलं बितीयवग्गमूलपडुप्पण्णं अहव णं अंगुलवितीयवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ सेढीतो" । (सू. १७८) "असुरकुमाराणं भंते ! विक्खभसूई अंगुलपढमवग्गमूलस्स संखेजतिभागो......एवं जाव थणियकुमारा"। (सू.१७९) पुढविकाइयाणं भंते! केवइया ओराति यसरीरगा प०? गो०! दुविहा प० तं०-बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य, तत्थं णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा, असंखेजाहिं उस्सपिणिओसप्पिणिहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेजा लोगा,...... तेया कम्मगा जहा एएसिं चेव ओरालिया, एवं आउकाइयतेउकाइया वि । वाउकाइयाणं भंते! केवतिया ओरालियसरीरा प०१ गो०! दु०प० तं-बद्धेल्लगा य मुक्केल्लगा य, दुविहा वि जहा पुढविकाइयाणं ओरालिया, वेउब्वियाणं पुच्छा, गो० दु० तं०-बद्धेल्लगा य मुक्कल्लगा य, तत्थ णं जे ते बद्धेल्लगा ते णं असंखेजा, समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा पलितोवमस्स असंखेजइभागमेत्तेणं कालेणं अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया,......वणप्फइकाइयाणं जहा पुढविकाइयाणं, णवरं तेयाकम्मगा जहा ओहिया तेयाकम्मगा। बेइंदियाणं भंते ! केवइया ओरालिया सरीरगा प०? गो०! दु० त०-बद्ध० मुके०, तत्थ णजे ते बद्धल्लुगा ते णं असंखेजा, असंखेजार्हि उस्सपिणिओसप्पिणिहिं अवहीरंति कालतो, खेत्ततो असंखेजाओ सेढीओ पयरस्स असंखेजइभागो, तासि ण सेढीणं विक्खंभसूई असंखेजाओ जोयणकोडाकोडिओ असंखेजाई सेढिवग्गमूलाई । बेइंदियाणं ओरालियसरीरेहिं बद्धेल्लगेहिं पयरो अवहीरति, असंखेजाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं कालतो, खेत्ततो अंगुलपयरस्स आवलियाते य असंखेजतिभागपलिभागेणं,...... एवं जाव चरिंदिया । पंचिदियतिरिक्खजोणियाणं एवं चेव ।......मणुसाणं भंते! केवइया
ओरालियसरीरगा प०? गो०! दु० तं०-बद्धे० मुक्के०, तत्थ णं जे ते बद्धल्लगाते णं सिय संखिज्जा सिय असंखिज्जा, जहण्णपदे संखेजा संखेजाओ कोडाकोडीओ तिजमलपयस्स उवरि चउजमलपयस्स हिट्ठा, अहव णं छट्ठो वग्गो अहव णं छपणउईछेयणगदाइरासी, उक्कोसपए असंखिज्जा, असंखिजाहिं उस्सपिणिओसप्पिणीहिं अवहीरंति कालतो, खेत्तओ रूवपक्खित्तेहिं सेढी अवहीरई, तीसे सेढीए आकासखेत्तेहिं अवहारो मग्गिजइ असंखेजा असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं कालतो, खेत्ततो अंगुलपढमवग्गमूलं तइयवग्गमूलपडुप्पणं,......। वाणमंतराणं जहा नेरइयाणं ओरालिया आहारगा य, वेउब्वियसरीरगा जहा नेरइयाणं, नवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसई संखेजजोअणसयवग्गपलिभागो पयरस्स......। तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई बिछप्पन्नंगुलसयवग्गपलिभागो पयरस्स, वेयाणियाणं एवं चेव, नवरं तासि णं सेढीणं विक्खंभसूई अंगुलवितीयवग्गमूलं
लपडुप्पन्न अवणं अंगुलतइयवग्गमूलघणप्पमाणमेत्ताओ सेढीओ,......।" (सू०१८०)
पंचसंग्रहना द्वितीय 'बंधक' द्वारनी गाथाओ"पत्तेय पजवणकाइया उ पयरं हरंति लोगस्स । अंगुलअसंखभागेण भाइयं भूदगतणू य ॥४३॥ आवलिवग्गो अंतावलीय गुणिओ ह वायरो तेऊ। वाऊ लोगासंखं सेसतिगमसंखया लोगा॥४४॥ पज्जत्तापजत्ता बितिचउअस्सन्निणो अवहरंति । अंगुलासंखासंखप्पएसभइयं पुढो पयरं ॥४५॥ सन्नी चउसु गईसु पढमाए असंखसेढि नेरइया। सेढी असंखेजंसो सेसासु जहुत्तरं तह य ॥४६॥ संखेजजोयणाणं सहपएसेहिं भाडओ पयरो। वंतरसरहिं हीरइ एवं एकेकमेएणं॥४७॥
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव(२) वृद्धि-हानि भगवती श०५, उ०८ __ वडंति
होयंति जीव नरकादि वैमानिक २४ उत्कृष्ट आवलि असंख्य भाग उत्कृष्ट आवलि असंख्य भाग सिद्ध | उत्कृष्ट ८ समय
. जघन्य सर्वत्र १ समय
१ समय विरह सर्वत्र अद्धा सिद्धक विरह तुल्य. छप्पन्न दोसयंगुलसूईपएसेहि भाइओ पयरो। हीरइ जोइसिएहिं सट्टाणे त्थीउ संखगुणा ॥४८॥ अस्संखसेढिखपएसतुल्लया पढमदुइयकप्पेसु । सेढिअसंखंससमा उवरिं तु जहोत्तरं तह य ॥४९॥ सेढीएकेकपएसरइयसूईणमंगुलप्पमियं । घम्माए भवणसोहम्मयाण माणं इमं होइ॥५०॥ छप्पन्नदोसयंगुलभूओ भूओ विगिज्झ मूलतिगं। गुणिया जहुत्तरत्था रासीओ कमेण सूईओ ॥५१॥ अहवंगुलप्पएसा समूलगुणिया उनेरइयसूई। पढमदुइया पयाई समूलगुणियाई इयराणं ॥५२॥ अंगुलमूलासंखियभागप्पमिया उ होति सेढीओ। उत्तरविउव्वियाणं तिरियाण य सन्निपज्जाणं ॥५३॥ सामण्णा पज्जत्ता पणतिरि देवेहि संखगुणा । संखेज्जा मणुया तहि मिच्छाइगुणा वि सटाणे ॥५४॥ उकोसपए मणुया सेढी रूवाहिया अवहरंति । तईयमूलाहएहिं अंगुलमूलप्पएसेहिं ॥ ५५॥"
* आ तेमज आ पछीनां चे यंत्रो परत्वे नीचे मुजबर्नु सूत्र छ:
जीवा णं भंते ! किं वटुंति, हायंति, अवट्ठिया? । गोयमा! जीवा णो वडंति, नो हायंति, अवद्विया। नेरइया णं भंते ! किं वडंति, हायंति, अवट्रिया? । गोयमा! नेरइया वटुंति वि, हायंति वि, अवट्टिया वि; जहा नेरइया एवं जाण वेमाणिया। सिद्धाणं भंते ! पुच्छा, गोयमा! सिद्धा वटुंति, नो हायंति, अवट्रिया वि॥ जीवाणं भंते! केवतियं कालं अवट्रियावि ]? । सवद्धं । नेरइया णं भंते ! केवतियं कालं वखंति ? । गोयमा! जहन्नेणं एग समयं, उक्को आवलियाए असंखेजतिभागं, एवं हायंति, नेरइया णं भंते ! केवतियं कालं अवट्ठिया ? । गोयमा! जह० एगं समयं, उको० चउ. व्वीसं मुहुत्ता, एवं सत्तसु वि पुढवीसु वटुंति हायति भाणियव्वं, नवरं अवट्ठिएसु इमं नाणत्तं, तंजहा-रयणप्पभाए पुढवीए अडतालीसं मुहुत्ता, सक्कर० चोद्दस रातिंदियाणं, वालु० मासं, पंक० दो मासा, धूम० चत्तारि मासा, तमाए अट्र मासा, तमतमाए बारस मासा । असुरकुमारा वि० वर्द्धति हायति जहा नेरइया, अवट्ठिया जह० एकं समयं, उक्को अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, एवं दसविहा वि; एगिदिया वहृति वि हायंति वि अवट्ठिया वि, एएहिं तिहि वि जह० एकं समय, उक्को आवलियाए असंखेजतिभागं, बेइंदिया वहूति हायंति तहेव, अवट्रिया जह० एकं समय, उक्को० दो अंतोमुहुत्ता, एवं जाव चउरिंदिया, अवसेसा सब्वे वर्ल्डति हायंति तहेव, अवट्ठियाणं णाणत्तं इमं, तं० संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं दो अंतोमुहुत्ता, गब्भवतियाणं चउव्वीसं मुहुत्ता, संमुच्छिममणुस्साणं अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, गभवतियमणुस्साणं चउव्वीसं मुहुत्ता, वाणमंतरजोतिससोहम्मीसाणेसु अट्रचत्तालीसं मुहुत्ता, सणंकुमारे अठारस रातिदियाई चत्तालीस य मुहु०, माहिंदे चउवीसं राति० वीस य मु०, बंभलोए पंचचत्तालीसं राति०, लंतए नउति राति०, महासुक्के
१ वधे छ। २ घटे छ। ३ काळ।
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तत्व ]
नारकी
रत्नप्रभा
शकर (रा) प्रभा
वालुक (का) प्रभा
पंकप्रभा
धूम्रप्रभा
तमप्रभा
तमतमप्रभा
भवनपति १०
एकेंद्री ५
विगद्री ३
सम्मूच्छिम पंचेंद्री "तिर्यच
गर्भज पंचेंद्री तिर्यच
सम्मूच्छिम मनुष्य
गर्भज मनुष्य
नवतत्त्वसंग्रह
(३) * अवस्थित (ति) यत्रम् - जीवानां सर्वाद्वा
उत्कृष्ट २४ मुहूर्त
जोतिषी
४८
सु (सौ) धर्म ईशान
१४ दिनरात्रि
१ मास
२
53
33
33
33
35
19
33
33
33
33
33
33
33
४
८
२
23
#3
२४
""
१२
४८ मुहूर्त आवलिके असंख्यात
अंतर्मुहूर्त (?)
33
35
""
२४ मुहूर्त
४८
33
33
सनत्कुमार
महेंद्र
ब्रह्मलोक
लांतक
महाशुक्र
सहस्रार
आनत प्राणत
आरण अच्युत
(०) पहिली त्रिक मध्यम त्रिक
उपर त्रिक
विजयादि ४
सर्वार्थसिद्ध
सिद्ध
उत्कृष्ट ४८ मुहूर्त
33
35
"3
,, १८ दिन ४० मुहूर्त
२४ दिन २० मुहूर्त
४५ अहोरात्र
९० रात्रिदिन
""
53
""
"3
33
55
33
33
39
31
35
33
१६०
२०० रात्रि
संख्याते मास
संख्याते वर्ष
सौ,”
33
33
""
55
११
हजार "
लाख
33
33
पल्योपमनो असंख्यातमो भाग
४८
33
33
व्यंतर जघन्य सर्वत्र एक समय इति. सट्ठि रातिंदियसतं, सहस्सारे दो रार्तिदियसयाई, आणयपाणयाणं संखेजा मासा, आरणच्चुयाणं संखेजाई वासाई, एवं गेवेजदेवाणं विजय वेजयं तजयंत अपराजियाणं असंखिजाई वाससहस्लाई, सव्वट्टसिद्धे य पलिओ मस्स [अ] संखेजतिभागो, एवं भाणियव्वं, वहुति हायंति जह० एवं समयं, उक्को॰ आवलियाए असंखेजतिभागं, अवट्टियाणं जं भणियं । सिद्धा णं भंते! केवतियं कालं वर्द्धति ? | गोमा ! जह० एवं समयं, उक्को० अड्ड समयाः केवतियं कालं अवट्टिया ? गोयमा ! जह० एकं समयं, उक्को० छम्मासा ॥
1
जीवाणं भंते! किं सोवचया, सावचया, सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया ? । गोयमा ! जीवाणो सोवचया, नो सावच्या, जो सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया । एगिंदिया ततियपए, सेसा जीवा चउहि वि पदेहि वि भाणियव्वा । सिद्धाणं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा सोवचया, १ जीवोनी सर्व काळ अवस्थिति छे ।
पल्योपमानो संख्यातमो भाग
६ मास
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१२
श्रीविजयानंदसूरिकृत
(४) * (सोपचय आदि) भग० २ सोवचया
सोवचया
जीव
पकेंद्री ५ वर्जी नरक उत्कृष्ट आवलिके | उत्कृष्ट आवलिके आदि वैमानिक पर्यंत असंख्यातमे असंख्यातमे
१९. दंडक
भाग
भाग
एकेंद्री ५
सिद्ध
८ समय
ए उत्कृष्ट कालना यंत्र, जघन्य सर्वत्र १ समय ज्ञेयम्.
०
०
पंचेंद्री १६ दंडक
पृथ्वी आदि ४ विगकेंद्री ३
वनस्पति १ सिद्धे च
स्त्रीसमुच्चय तथा १५ दंडकें जूदी जूढ़ी
33
0
०
०
०
श०५, उ० ८
सोवचयसावचया निरुव० निरवचया
(५) ( कृतादि युग्म ) भग० श० १८, उ० ४
जघन्य पद
कृतयुग्म १
कृतयुग्म १
उत्कृष्ट आवलिके असंख्यातमे
भाग
सर्वाद्धा
०
मध्यम पद
कृतयुग्मादि ४ युग्म
33
"3
०
""
[ १ जीव
सर्वाद्धा
उत्कृष्ट आपापणे विरहप्रमाण
ज्ञातव्यम्
०
६ मास
उत्कृष्ट पद
त्रौ (यो) ज
द्वापरयुग्म
O
णो सावचया, णो सोवचयसावचया, निरुवचयनिरवचया । जीवा णं भंते! केवतियं कालं निरुवचयनिरवचया ? | गोमया ! सवद्धं । नेरतिया णं भंते! केवतियं कालं सोवचया ? गोयमा ! जह० एक्कं समयं, उक्को० आवलियाए असंखेजइभागं । केवतियं कालं सावचया ? । एवं चेव । केव तियं कालं सोवचयसावचया ? एवं चेव । केवतियं कालं निरुवचयनिरवचया ? । गोयमा ! जह० एकं लमयं, उक्को० बारस मु०, एर्गिदिया सव्वे सोवचयसावच्या सव्वद्धं, सेसा सव्वे सोवचया वि सावचया विसोवचयसावच्या वि निरुवचयनिरवच्या वि जह० एगं समयं, उक्को० आवलियाए असंखेज्जतिभागं अवट्टिएहिं वक्कंतिकालो भाणियव्वो । सिद्धा णं भंते केवतियं कालं सोवचया ? गोयमा ! जह० एकं समयं, उक्को० अट्ठ समया, केघतियं कालं निरुवचयनिरवचया ? जह० एक्कं, उ० छम्मासा" । (सू० २२२ )
+ "नेरइया णं भंते! किं कडजुम्मा, तेयोगा, दावरजुम्मा, कलियोगा ? । गोयमा ! जहन्नपदे कडजुम्मा, उक्कोसपदे तेयोगा, अजहन्नुकोसपदे सिय कडजुम्मा १ जाव सिय कलियोगा ४, एवं जाव थणियकुमारा । वणस्सइकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! जह० अपदा, उक्को० य अपदा, अजह० सिय कडजुम्मा जाव सिय कलियोगा । बेइंदिया णं पुच्छा, गोयमा ! जह० कड०, उक्को० दावर०, अजह० १ वृद्धि सहित । २ हानि सहित ।
कृतयुग्म १
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तत्त्व
]
नवतत्त्वसंग्रह
१३
(६)(*योग विषयक अल्पबहुत्व) भग० श० २५, उ०१ योग । सूक्ष्म । बादर
बेइंद्री । तेइंद्री | चौरिंद्री | असंज्ञी | संशी
बेइंद्री एकेंद्री एकेंद्री
पंचेंद्री पंचेंद्री २ असंख्य जघन्य अपर्याप्ता योग स्तोक
३ असं. " (थोडा) गुणा ।
४ असं. ५ असं. ६ असं. ७ असं. जघन्य पर्याप्ता योग ८ असं. ९ असं. १४ असं. १५ असं १६ असं. १७ असं. १८ असं. उत्कृष्ट अपर्याप्ता योग १० असं. | ११ असं १९ असं २० असं. २१ असं. २२ असं. २३ असं. उत्कृष्ट पर्याप्ता योग १२ असं. | १३ असं. | २४ असं. २५ असं. २६ असं. २७ असं. २८ असं. सिय कड० कलियोगा, एवं जाव चतुरिंदिया, सेसा एगिदिया जहा बेदिया, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जाव वेमाणिया जहा नेरइया, सिद्धा जहा वणस्सइकाइया । इत्थीओ णं भंते! किं कड? पच्छा, गोयमा! जह० कडजुम्माओ, उक्कोसिय कडजुम्माओ अजह० सिय कडजुम्माओ जाव सिय कलियोगाओ, एवं असुरकुमारित्थीओ वि जाव थणियकुमारइत्थीओ, एवं तिरिक्ख जोणियइत्थीओ, एवं मणुसित्थीओ, एवं जाव वाणमंतरजोइसियवेमाणियदेवित्थीओ" । (सू० ६२४) ____ * “सव्वत्थोवे सुहुमस्स अपजत्तगस्स जहन्नए जोए १, बादरस्स अपज० जह० जोए असंखेजगुणे २, बेदियस्स अपज० जह० जोए असं०३, एवं तेइंदियस्स ४, एवं चउरिदियस्स ५, असन्निस्स पंचिंदियस्स अपज जह० जोए असं०६, सन्निस्स पंचिं० अपज. जह० जोए असं० ७, सुहमस्स पज्जत्तगस्स जह० जोए असं०८, बादरस्स पज० जह० जोए असं०९,सुहमस्स अपजत्तगस्स उक्कोसए जोए असं० १०, बादरस्स अपज उक्को० जोए असं० ११, सुहुमस्स पज० उक्को जोए असं० १२, बादरस्स पज० उक्को० जोए असं० १३, बेदियस्स पज० जह० जोए असं० १४, एवं तेदिय, एवं जाव सन्निपंचिंदियस्स पज० जह० जोए असं० १८, बैंदियस्स अपज० उक्को० जोए असं० १९, एवं तेदियस्स वि २०, एवं चउरिदियस्स वि २१, एवं जाव सन्निपंचिं० अपज० उक्को० जोए असं० २३, बंदियस्स पज. उक्को० जोए असं० २४, एवं तेइंदियस्स वि पज० उक्को० जोए असं० २५, चउरिदियस्स पज० उक्को० (जोए) असं० २६, असन्निपंचिंदियपजत० उक्को० जोए असं० २७, एवं सन्निपंचिं० पज० उक्को० जोए असं० २८" । (सू० ७१७)
११४ मा पाना उपरना सातमा यंत्र संबंधी सूत्र नीचे मुजब छ:
"सव्वत्थोवे कम्मगसरीरजहन्नजोए १, ओरालियमीसगस्स जहन्नजोए असं० २, वेउवि. यमीसगस्स जहन्नए असं० ३, ओरालियसरीरस्स जहन्नए जोए असं०४, वेउब्वियसरीरस्स जहन्नए जोऐ असं०५, कम्मगसरीरस्स उकोसए जोए असं०६, आहारगमीसगरस जह० जोए असं०७, तस्स
व उकोसए जोए असं०८, ओरालियमीसगस्स ९, वेउव्वियमीसगस्स १०, एएसिणं उक्को० जोए होण्ड वितले असं०, असच्चामोसमणजोगस्स जह० जोए असं०११, आहारसरीरस्स जह० जोए असं० १२, तिविहस्स मणजोगस्स १५, चउव्विहस्स वयजोगस्स १९, एएसि णं सत्तण्ह वि तुल्ले जह जोए असं०, आहारगसरीरस्स उक्को० जोए असं० २०, ओरालियसरीरस्स वेउव्वियस्स चउव्विहस्स य मणजोगस्स चउव्विहस्स य वइजोगस्स एएसि णं दसण्ह वि तुल्ले उक्को० जोए असं०३०"। (सू०७१९)
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योग १५ |
जघन्य योग
सत्य मन असत्य
मिश्र व्यवमन हारमन वचन वचन वचन हार
योग १ मनयोग २ योग ३ योग ४ योग ५ योग ६ योग ७ वचन ८
१२ असं
ख्य गुणा
१२
तुल्य
(७) पंदर योग परत्वे अल्पबहुत्व भग० श० २५, उ० १
सत्य असत्य मिश्र व्यव- औदा
औदा- - वैक्रिय
वैक्रिय
मिश्र
१२
१४
उत्कृष्ट
तुल्य योग
१०
तुल्य
१२ १२
१२
असंख्य तुल्य तुल्य तुल्य तुल्य
१० १२
ཉྪཱ 』
रिक८रिक ९ मिश्र १०
30
४
असंख्य
गुणा
११
आहा आहारक- कार्मण
रक १३ मिश्र १४
+
२
११ ७ असंख्य
३ ५ असंख्य असंख्य असंख्य असंख्य गुणा
१५
१ स्तोक
१४
१४
१४
१४
९
१४ ९
तुल्य
१४ १४ १४ १४ तुल्य | तुल्य | तुल्य तुल्य तुल्य तुल्य तुल्य असंख्य तुल्य तुल्य असंख्य गुणा * पंदरमा पाना उपरना आठमा यंत्र संबंधी सूत्र नीचे
मुजब छे:
"सव्वत्थोवा सुहुमनिओयस्स अपजत्तस्स जहन्निया ओगाहणा १, सुहुमवाउक्काइयस्स अपजत्तगस्स जह० ओगा० असंखेजगुणा २, सुहुमतेऊअपज्जत्तस्स जह० ओगा० असं० ३, सुहुमआऊअपज० जह० ओगा० असं० ४, सुहुमपुढविअपजत्त० जह० ओगाο असं० ५, बादरवाउकाइयस्स अपजत्तगस्स जह० ओगा० असं० ६, बादरतेऊ अपजत्तजहन्निया ओगा० असं० ७, बादरआउअपजत्तजहन्निया ओगा० असं० ८, बादरपुढवीकाइयअपजत्तजहन्निया ओगा० असं० ९, पत्तेयसरीरवादरवणस्सइकाइयस्स वादनिओयस् एएसि णं पजत्तगाणं एएसि णं अपजत्तगाणं जह० ओगा० दोण्ह वि तुला असं० १०-११, सुहुमनिगोयस्स पज्जत्तगस्स जह० ओगा० असं० १२, तस्सेव अपजत्तगस्स उक्कोसिया ओगा० विसेसा १३, तस्स चैव अपजत्तगस्स उक्को० ओगा० वि० १४, सुहुमवाउकाइयस्स पजत्तग० जह० ओगा० असं० १५, तस्स चेव अपजत्त० उक्को० ओगा० वि० १६, तस्स चैव पजत्त० उक्को० वि० १७, एवं सुहुमतेउक्काइस्स वि १८/१९/२०, एवं सुहुमआउक्काइस्स वि २१ २२ २३, एवं सुदुमपुढविकाइयस्स विसेसा २४/२५/२६, एवं बादरवारकाइयस्स वि० २७/२८|२९, एवं बादरतेऊकाइयस्स वि० ३०/३१/३२, एवं बादरआउकाइयस्स वि० ३३ ३४ ३५, एवं बादरपुढविकाइयस्स वि० ३६ ३७ ३८, सव्वेसिं तिविहेणं गमेणं भाणियव्वं, वादरनिगोयस्स पज्जत्तगस्स जह० ओगा० असं ३९, तस्स चेव अपजत्तगस्स उक्को० ओगा० विसेसाहिया ४०, तस्स चेव पज्जत्तगस्स उक्को० ओगा० विसेसाहिया ४१, पत्तेयसरीरबादरवणस्सइकाइयस्स पजत्तगस्स जह० ओगा० असं० ४२, तस्स चेव अपजत्त० उक्को० ओगा० असं० ४३, तस्स चेव पज्जत उक्को० ओगा० असं० ४४ " । ( सू० ६५१ )
१३ ८ असंख्य ६ असंख्य
गुणा
श्रीविजयानंदसूरकृत
[ १ जीव
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
(८)(*सूक्ष्म पृथ्वीकायादिकी अवगाहना भग० श० १९, उ० ३)
अपर्याप्ता जघन्य पर्याप्ता जघन्य अपर्याप्ता उत्कृष्ट | पर्याप्ता उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद १ स्तोक १२ असं । १३ वि १४ वि
१
सूक्ष्म वायु
२ असं
१५ असं
१६ वि
१७ वि
सूक्ष्म तेउ
३ असं
१८ असं
१९ वि
२०वि
सूक्ष्म अप्
४ असं
२१ असं
२२)
२३ वि
सूक्ष्म पृथ्वी
५ असं
२४ असं
२५ वि
२६ वि २९ वि
वादर वायु
२७ असं
२८ वि
बादर तेउ
३० असं
३१ वि
३२ वि
६ असं ७ असं ८ असं ९ असं
बादर अप्
३३ असं
३४ वि
३५वि
३६ असं
३७वि
३८ वि
बादर पृथ्वी
बादर निगोद ११. प्रत्येक वनस्पति
१० असं
३९ असं
४० वि ४१ वि ४३ असंख्य ४४ असंख्य गुणा
११ तुल्य
४२ असं
काइया (कायिकी)
__ अहिगरणी पाउ(दो)सिया (आधिकरणिकी) (प्राद्वेषिकी)
परिताप
प्राणातिपात
कारण
सारंभ
सारंभ
सारंभ
समारंभ
आरंभ
काइया संबंध
.
नियमा
नियमा
भजना
भजना
अहिगरणिया
नियमा
पाउ(दो)सिया
नियमा
पारितापनिका
नियमा
प्राणातिपात
नियमा
* "जस्स णं भंते ! जीवस्स कातिया किरिया कजइ तस्स अहिगरणिया किरिया कजति, जस्स
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"
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव(१०) पन्नवणा पद २२ मे (*सू० २८४) क्रियायत्रम् आरंभिता । परिग्रह | मायाप्रत्यया
मिथ्यादर्शन-1 अप्रत्याप्रत्यया ख्यान.
अनंत प्रत्याख्यान चौक संज्वलन ४ कारण
अप्रत्याप्रमाद
मिथ्यात्व - ख्यान ४ गुणस्थान कौनसेमें संबंधारंभ
भजना नियमा भजना भजना परिग्रह नियमा .. मायाप्रत्यया
भजना
भजना मिथ्यादर्शन नियमा नियमा नियमा
नियमा अप्रत्याख्यान
भजना प्रत्यया अहिगरणिया किरिया कजति तस्स कातिया कजति ? । गो०! जस्स णं जीवस्स कातिया किरिया कजति तस्स अहिगरणी किरिया नियमा कजति, जस्स अहि० किरिया क० तस्स वि काइया किरिया नियमा कजति, जस्स णं भंते! जीवस्स काइया कि० तस्स पादोसिया कि०, जस्स पादोसिया कि० तस्स काइया किं क०। गो०! एवं चेव, जस्स णं भंते ! जीवस्स काइया किरिया कजइ तस्स पारियावणिया किरिया कजइ जस्स पारियावणिया किरिया कजइ तस्स कातिया किरिया कजइ?। गो०! जस्स णं जीवस्स काइया कि० क० तस्स पारितावणिया सिय कन्जइ सिय नो कजइ, जस्स पुण पारियावणिया कि० क० तस्स काइया नियमा कजति, एवं पाणाइवायकिरिया वि, एवं आदिल्लाओ परोप्परं नियमा तिण्णि कजंति, जस्स आइल्लाओ तिन्नि कति तस्स उवरिल्लाओ दोन्नि सिय कज्जंति सिय नो कजंति, जस्स उवरिल्लाओ दोण्णि कजंति तस्स आइल्लाओ नियमा तिण्णि कजंति, जस्स णं भंते जीवस्स पारियावणिया किरिया कजति तस्स पाणातिवायकिरिया क०, जस्स पाणाति० क० तस्स पारियावणिया कि० क०? । गो०! जस्स णं जीवस्स पारियावणिया कि० तस्स पाणातिवातकिरिया सिय कसिय नोक०, जस्स पुण पाणातिपातकिरिया क० तस्स पारियावणिया किरिया नियमा कजति"। (प्रज्ञा० सू० २८२)
* "कतिणभंते किरियाओ पण्णत्ताओ? गो०!पंच किरियाओ पं० तं०-आरंभिया, परिग्गहिया, मायावत्तिया, अपञ्चक्खाणकिरिया, मिच्छादसणवत्तिया, आरंभिया णं भंते ! किरिया कस्स कजति ?
अण्णयरस्स वि पमत्तसंजयस्स. परिग्गहियाणं भंते! किरिया कस्स कज्जह?। गो०! अण्णय रस्स वि संजयासंजयस्स, मायावत्तिया णं भंते! किरिया कस्स क०? गो! अण्णयरस्सावि अपमत्तसंजयस्स, अपच्चक्खाणकिरिया णं भंते! कस्स क०?। गो०! अण्णयरस्स वि अपच्चक्खा णिस्स, मिच्छादसणवत्तियाणं भंते! किरिया कस्स क०? गो०! अण्णयरस्सावि मिच्छादंसणिस्स। ...जस्सणंभंते! जीवस्स आरंभिया किया क० तस्स परिग्गहिया किंक०? जस्स परिग्गहिया किय तस्स आरंभिया कि०?। गो०! जस्स णं जीवस्स आरंभिया कि० तस्स परिसिय क० सिय नो क० जस्स पुण परिग्गहिया कि० तस्स आरंभिया कि० णियमा क०, जस्स णं भंते! जीवस्स आरंभिया कि० क० तस्स मायावत्तिया कि० क० पुच्छा, गो०! जस्स णं जीवस्स आरंभिया कि० क० तस्स माया० कि० नियमा क०, जस्स पुण माया० कि० क० तस्स आरंभिया कि० सिय क० सिय नो क०, जस्स णं भंते! जीवस्स आरंभिया कि० तस्स अपञ्चक्खाणकिरिया पुच्छा, गो०! जस्स जीवस्स
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देव
नक्तस्वसंग्रह (११) *भगवती शते १ उद्देशे २कालयन्त्रम्
शून्य काल | अशून्य काल | मिश्र काल | संतिष्ठन काल नारकी ३ अनंत गुणा
| १ सर्व स्तोक
२ अनंत गुणा २ असंख्यात गुणा १२ मुहूर्त
१ सर्व स्तोक अंततिथंच
४ अनंत गुणा मुहूर्त त्रस आश्री मनुष्य ३ अनंत गुणा १ सर्व स्तोक
१ सर्व स्तोक १२ मुहूर्त सर्व स्तोक
|३ असंख्येय गुणा
१२ मुहूर्त १ (१२) अथ षट् लेश्या द्वार उत्तराध्ययन ३४ मे वा श्रीपन्नवणा पद १७ परथी ज्ञेयं नाम । कृष्ण लेश्या | नील लेश्या कापोत लेश्या तेजोलेश्या पद्म- शुक्ल लेश्या
३ । ४ लेश्या ५ ६ वर्ण द्रव्य- काली घटा १ महिष अशोक वृक्ष १ अलसीना फूल हिंगुल १ हरिताल संख१ लेश्या शंग गुली २ शकटना नील चासना १ कोकिलानी धातु १ हलद्री अंकरत्न २ अपेक्षा २ खंजन ३ नेत्रनी पंक्षे २ वैडूर्य मणि पंक्ष२ परेवानी पाषाण वि-२ सण ३ मचकुंद
कीकी ४ इन सदृश ३ शुक पंक्ष ४ ग्रीवा ३ ऐसा शेष रक्त असन ए पुष्प दधि वर्ण कृष्ण ऐसा वर्ण वर्ण उगता सूर्य वृक्षना| रूपाना
तेजोलेश्या पुष्पवत् हारवत्
वर्णतः । पीत | शुक्ल आरंभिया कि० तस्स अपञ्च० सिय क० सिय नो क०, जस्स पुण अपञ्च० क० तस्स आरंभिया कि० णियमा क०, एवं मिच्छादसणवत्तियाए वि समं, एवं पारिग्गहिया वि तिहिं उवरिल्लाहिं सम संचारे. तब्वा, जस्स माया कि० तस्स उवरिल्लाओ दो वि सिय कजंति सिय नो कजंति, जस्स उवरिल्लाओ दो कजंति तस्स माया० नियमा क० जस्स अपन० कि० क० तस्स मिच्छा०कि० सिय का सिय नोक०, जस्स पुण मिच्छा० कि० तस्स अपच्च० कि० णियमा कजति"। (सू० २८४) ___ * "नेरइयसंसारसंचिट्ठणकाले णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ? । गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तं०सुन्नकाले, असुन्नकाले, मिस्सकाले ॥ तिरिक्ख जोणियसंसारपुच्छा, गो० ! दुविहे प० तं०-असुन्नकाले य मिस्सकाले य, मणुस्साण य देवाण य जहा नेरइयाणं ॥ एयस्स णं भंते! नेरइयसंसारसंचिढणकालस्स सुन्नकालस्स असुन्नकालस्स मीसकालस्स य कयरे कयरे हिंतो अप्पा वा बहुए था तुल्ले पा विसेसाहिए वा? । गो०! सव्वत्थोवे असुन्नकाले, मिस्सकाले अणंतगुणे, सुन्नकाले अर्णतगुणे ॥ तिरिक्ख० भंते ! सव्व० असुन्न०, मिस्स० अणंत०, मणुस्सदेवाण य जहा नेरइयाणं ॥ एयस्स णं भंते ! नेरझ्यस्स संसारसंचिट्टणकालस्स जाव देवसंसारसंचिटणजाव विसेसाहिए वा। गो० ! सव्व० मणुस्ससंसारसंचिट्ठणकाले, नेरइयसंसार० असंखेजगुणे, देवसंसार० असं०, तिरिक्खजोणिए अणेत." ॥ (सू० २३)
१ पांख।
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३
सता जैसी/>व
श्रीविजयानदंसूरिकृत
[१ जीवनाम कृष्ण लेश्या । नील लेश्या कापोत लेश्या तेजोलेश्या पद्म- शुक्ल लेश्या
२
३ ४ लेश्या५६ रस द्रव्य- कटुक उंब १ नींब २ यथा त्रिकूट रस तरुण आम्ररस पक्क आम्र घर यथा खजूर लेश्या अर्कपत्र इसके १ हस्ती पीपलना कचा केविट रस १ वारुणी रस १ आश्री | रससे अनंत गुण रस एहथी अनंत फल रस पाका कौठ मद १ द्राख रस २ कटुक रस गुणाधिक इनथी अनंत फल २ रस पुष्पका खंड रस ३
गुणा कषायला इनसे अनंत मद२ मिसरी रस है गुणाधिका मधु मद्य रस इनसे
विशेष ३ अनंत गुणा सिरका इनसे अनंत
गुणा गंध मृतक गौ १ मृतक
पूक सुगंधद्रव्य- श्वान २ मृतक सर्प
वत् तथा ए लेश्या | ३ इनके दुर्गध से
>व सुगंध पीआश्री अनंत गुणाधिक
सुगंध इनसे म्
अनंत गुणा स्पर्श | करवतनी धार १
| यथा दूर | द्रव्य- | गौ जिह्वा २ साम
वनस्पति ए ए लेश्या वनस्पतिना पत्र
| म्रक्षण २ आश्री इनके स्पर्शसे अनंत
शिरीष कु- चव कर्कश स्पर्श
सुम इनसे अनंतसा
कोमल है जघन्य १ मध्यम २ परिणाम
उत्कृष्ट ३ इनका ९ समुच्चय फेर २७ फेर ८१ फेर २४३ इस तरे
व असंखवे २ करणा नियमन करणाके
इतने परिणाम है लक्षण । २१ बोल १५ बोल । १२ बोल । १३ बोल १२ बोल १८ बोल विशिष्ट । पांच आश्रवना ईर्ष्या-पर गुन वांकां वोले १ नीचा वर्ते पतले आर्त रौद्र लेश्यानी | सेवनहार ५ तीन असहन १ अभि- वक्राचारी २ १ अचपल क्रोध १ वर्जे २ धर्मअपेक्षा गुप्तिये अगुप्ति ३ निवेशकी १ तप निवडमाया ३२ अमाइ ३ मान २ ध्यान ३
इह षटकायना अविरति रहित १ कुशास्त्री असरल ४ अकुतूहल ४माया ३ शुक्ल ध्यान लक्षण है। तीव्र आरंभी १ । १मायावी १ | अपने दोष विनयवंत ५लोभ ४ ध्यावे ४
१ कोठ।
तेव
个
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तत्त्वे
नवतत्त्वसंग्रह
दान्त
| त्मा ६
पठन समिता ११
का सामा०० कोने
उपशम तथा वीत.
नाम । कृष्ण लेश्या । नील लेश्या कापोत लेश्या तेजोलेश्या पद्म- शुक्ललेश्या १ २
३ ४ लेश्या ५, ६ पिण सर्वकू अहितकारी १ अहीकाता (?) आच्छादक ५/विनय करे | प्रशांत प्रशांत देवता साहसिक अनविचारें, समाचार विषये कपटसें प्रवर्ते ६ देमतेंद्री चित्त ५ चित्त ५ आदिके कार्यकारी १ जीव-| निर्लज १६ मिथ्यादृष्टि ७ शास्त्र |
दमितासाथ | हिंसा करता शंके विषयका लांपट्य ७ अनार्य ८ पढीने उप- शुभ | आत्मा ६ व्यभि- नही १ वा इसलोक १ द्वेषी १ शठ १ उत्प्राशक ९ धान तप- योगवान् पांच चार परलोकीना कष्टनी जात्यादि मवान् आग लोक वान् ८ प्रिय ७ शास्त्र समिति नही. शंका नही ते निद्धंस-१ रस लोलुप | लक आदिमे धर्मी ९ दृढ विशिष्ट परिणामी कहिये १ १ सातागवेषी । फसे ऐसे धर्मी १० उपधान तीन गुप्ते उत्कट अजितेंद्रिय १ सूग १ आरंभीसें | बोले ९ दुष्ट पापसे डरे तपवान् गुप्ता १४ रहित १ एवं २१ । अवरति १ वचन बोले १०/११ मोक्षा-८ अल्प- सराग १५
भाषी ९ अथवा बोल क्षुद्रिक १ अन- चौर ११ भिलाषी १२ भार अशुद्ध.
विचारे कार्यना मत्सरी पर- शुभ योग- वान् १० राग १६ कारणहार ते संपद असहन वान् एवं जितेंद्रिय उपशांतसाहसिक १ - १२ द्रव्यके | तेजो ना ११५ वान् १७
लक्षण सहचर करके परिणाम | पाले जितेन्द्रिय तिसके उरंगते अर्थात् | श्याना १८ एतदपि तद्रूप होना सोलक्षण जान धणी अनगारप्र(परिणाम लेना
अनागा- | स्येति कहिये सर्वत्र अनगारस्य एतत् लक्षणम्
सम्भवति, नान्य
स्थति स्थान स्थान असंख्य प्रकर्ष कितने ? जितने अपकर्ष रूप असंख्य उत्सर्पिणी अशुभना अवसर्पिणीनासमय अशुभ तुल्य.क्षेत्रतः असंख्य शुभना लोकके प्रदेश नमःशुभ ८ प्रदेश तुल्य । - स्थिति | जघन्य १० सागरो- जघन्य ३ साग- जघन्य १ नारकीनी पम पल्योपमका रोपम पल्योप- | सहस्रवर्ष
१ इन्द्रियना उपर काबू राखनार । २ साधुनु आ। ३ साधुमां आ संभवे छे, नहि के अन्यने विषे। ४ आ पण साधुनुं लक्षण छ।
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२०
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवकृष्ण लेश्या । नील लेश्या कापोत लेश्या तेजोलेश्या पद्म-शुक्ललेश्या
नाम
असंख्यातमा भाग मना असंख्यातमा उत्कृष्ट ३ अधिक उत्कृष्ट ३३ भाय अधिक | सागरोपम सागरोपम उत्कृष्ट १० सागरोपम पल्योपमना
| पल्योपमना असंख्यातमा
असंख्यातमा भाग अधिक भाग अधिक जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त →एवम् एवम्
साय
तिर्यंच
एवम्
एवम् ->एवम्
जघन्य
मनुष्य
एवम्, केपली अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देश ऊन पूर्व
कोटि
भवनपत्ति ज० दश हजार ज० कृष्णकी ज नीलकी ज० दश व्यस्तर वर्ष, उ० पल्योपममा उत्कृष्टसे १ समय उत्कृष्टसे १ हजार वर्ष, असंख्यातमे भाग अधिक समय अधिक उ०१
पल्योपमनाउ०पल्योप- सागरोपम असंख्यातमे मना असंख्या- झंझेरी अने भाग तमे भाग
| व्यंतरकी स्वयं ऊह्यम् ज० पल्यो
पमना ८ जोतिषी
भाग; उ० १ पल लक्ष वर्ष अधिक
ज०
ज०१०
तेजोकी सागरोपम
उत्कृष्टी १समय
वैमानिक
पल्योपमः
उ०२ सागरोपम झझेरी
से समय समय अधिक अधिक: उ०३३ उ०१०
सागरो- सामरोपम
पम् अंत मुहूर्त अधिक
१अधिक।
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________________
नवतत्त्वसंग्रह
नाम |
कृष्ण लेश्या | नील लेश्या कापोत लेश्या तेजोलेश्या पद्म- शुक्ललेश्या
गामी सुगतिगामी
गति १० दुर्गतिगामी | दुर्गतिगामी | दुर्गतिगामी सुगतिगामी
आयुने अंते है | अंतमुहूर्त शेष आयु थाकते नर भव जहां जाता तिस भव आयु ११ न करे तदा | सदृश लेश्याका स्वरूप होवे तिस लेश्याके प्रथम समय अथवा
चरम समय काल अंतर्मुहूर्त लेश्या वीती है अने अंतर्मुहूर्त ही है खंध १२ अनंत प्रदेशी अनंत प्रदेशी | अनंत प्रदेशी अनंत | अनंत | अनंत
प्रदेशी प्रदेशी प्रदेशी अवगाहना
असंख्य असंख्य असंख्य असंख्य प्रदेश | असंख्य प्रदेश असंख्य प्रदेश
| प्रदेश प्रदेश प्रदेश वर्गणा १४ अनंती वर्गणा एवम् । एवम् एवम्
एवम् अल्पबदुत्व ३ असंख्य गुणी
४ असंख्य द्रव्यार्थ वर्गणा २ असंख्य गुणी० १ स्तोक
गुणी
गुणी प्रदेशा १५ विशुद्ध १६) ___ अविशुद्ध । अविशुद्ध अविशुद्ध | विशुद्ध | विशुद्ध | विशुद्ध
| असंख्य ६ असख्य
| गुणी
अप्रशस्त
अप्रशस्त
अप्रशस्त
प्रशस्त | प्रशस्त प्रशस्त
शान १८ | २।२।४ । २।३।४ । २।३।४ २।३।४ २।३।४।२।३।४।१ क्षेत्र १९
। २ बहु ३ बहु । ४ बहु | ५ बहु ६ बहु ऋद्धि २० १ स्तोक
| ३ बहु । ४ बहु । | ५ बहु | ६ बहु
१ स्तोक अल्पबहुत्व ७ विशेष | ६ विशेष ५ अनंत गुण | ३ संख्या २ संख्या ६ अलेश्यी
| ४ अनंत अथ स्थितिका खुलासा-समुच्चय कृष्ण लेश्याकी स्थितिमे ३३ सागरोपम अंतमहत अधिक ते पूर्वापर भवनी अपेक्षा है. अने नारकीने ३३ सागरोपम पूरी कही ते नरक भवनी अपेक्षा सूत्र है. इसी तरेह देवतानी लेश्यामे पद्म आदिकमे तिस भव अने पूर्वापर भवनी अपेक्षा सूत्रकारनी विवक्षा है. एह समाधान उत्तराध्ययनकी अवचूरिसें जान लेना.
___ भाव थकी १६ बोलकी (का) अल्पबहुत्वम् १ जीवके योगस्थान जघन्य आदि सर्वसे स्तोक. २ एकेक कर्मप्रकृतिके मेद असंख्य गुणे,
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________________
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव३ कर्म स्थिति स्थान जघन्य आदि असंख्य गुणे. ४ पट् लेश्या स्थान स्थितिरूप असंख्य गुणे. ५ अनुभागबंधके अध्यवसाय असंख्य गुणे. ६ कर्म प्रदेश दलरूप असंख्य गुणे. ७ रस छेद जीव राससे अनंत गुणे. ८ मनःपर्यायज्ञानके पर्यव अनंत गुणे. ९ विभंगज्ञानके पर्यव अनंत गुणे. १० अवधिज्ञानके पर्याय अनंत गुणे. ११ श्रुतअज्ञानके पर्याय अनंत गुणे. १२ श्रुतज्ञानके पर्याय विशेष अधिक. १३ मतिअज्ञानके पर्याय अनंत गुणे. १४ मतिज्ञानके पर्याय विशेष अधिक. १५ द्रव्यकी अगुरुलघु पर्याय अनंत गुणे. १६ केवलज्ञाननी पर्याय अनंत गुणे कर्मग्रन्थात्
(१३) (लेश्याका अल्पबहुत्व)
अल्पबहुत्व कृष्ण लेश्या नील लेश्या कापोत लेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ल लेश्या
जीव विवि ४ अनंत ३ असंख्यात २ संख्यात १ स्तोक नारकी
१ स्तोक
२ असंख्यात ३ असंख्यात वनस्पतिकाय ।४वि
३वि २अनंत १स्तोक पृथ्वीकाय १
४ वि ३वि २ असंख्यात । १ स्तोक अप २ तेजस्काय वायुकाय ३वि २वि । १ स्तोक विकलेन्द्रिय ३ १ तिर्यंच पंचे
६वि । ५वि ४ असंख्यात ३ संख्यात २ संख्यात १ स्तोक न्द्रिय २ संमूच्छिम
३वि २वि १ स्तोक पंचेन्द्रिय तिर्यंच ३गर्भज पंचेन्द्रिय
४ संख्यात | ३ संख्यात २ संख्यात १ स्तोक . तिर्यच ४ तिर्यंच स्त्री । ६वि
४सं सं २सं १ स्तोक संमूच्छिम तिर्यंच
७ असं पंचेन्द्रिय ५गर्भज तिर्यंच ६वि ५वि ४सं
१ स्तोक . पंचेन्द्रिय
५वि
वि
सवि
२सं
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
२३
अल्पबहुत्व कृष्ण लेश्या नील लेश्या कापोत लेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ल लेश्या
वि
७ असं
५वि
४सं
३सं
२सं
स्तोक
८वि
७सं
५सं
१ स्तोक
११ वि
१० सं
६सं
४सं
२सं
१४ वि
१३ असं
संमूच्छिम तिर्यंच
। पंचेन्द्रिय ६ तिर्यच स्त्री ६वि गर्भज तिर्यच
९वि पंचेन्द्रिय ७ तिर्यंच स्त्री | १२ वि संमूछिम तिर्यच पंचेन्द्रिय
| १५ वि । ८ गर्भज पंचेन्द्रिय
९वि तिर्यंच तिर्यंच स्त्री १२ वि तिर्यंच पंचेन्द्रिय
१२ वि समुच्चय ९तिर्यंच स्त्री ८ वि तिर्यच १२ वि
८ वि
७सं
५सं
३सं ।
१ स्तोक
११ वि
१० सं
६सं
४सं
२सं
११ वि
१० असं
५सं
३सं
१ स्तोक
८वि
७सं
६सं
११ वि
१० अनंत
४सं ३सं । १ स्तोक ४सं २ असं २ असं १ स्तोक
८ वि
१० तिर्यंच स्त्री
१ देवता
५सं ६सं ६सं
९वि ५वि
४वि
२ देवी
३वि
२वि
७सं ३ असं १ स्तो ६सं ३ असं
४सं
देवी
८वि
७वि
१० सं
५वि
४ वि
९सं
| २ असं
स्तोक
३ देवता ४ भवनपति देव
५ व्यंतर देव ६ भवनपति देवी ७ व्यंतर देवी
४वि
२ असं
१ स्तो
| ४वि
३ वि
२ असं
१ स्तो
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________________
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव
अल्पबहुत्व कृष्ण लेश्या नील लेश्या कापोत लेश्या तेजोलेश्या पद्मलेश्या शुक्ल लेश्या
भवनपति देव व्यंतर देव
१ स्तो
२४
८ भवनपति देवी
९ व्यंतर देवी
१० जोतिषी देव
१० जोतिषी देवी
११ वैमानिक देव
११ वैमानिक देवी
१२ भवनपति
१२ व्यंतर
१२ जोतिषी
१२ वैमानिक
१३ भवन० देवी
१३ व्यंतर देवी
१३ जोतिषी देवी
१३ वैमानिक देवी
१४ भवन० देव
१४ भवन० देवी १४ व्यंतर देव १४ व्यंतर देवी १४ जोतिषी देव
१४ जोतिषी देवी
१४ वैमानिक देव
१४ वैमानिक देवी
५ वि
८ वि
0
०
०
०
७ व
११ वि
0
o
५ वि
९ वि
०
०
९ वि
१२ वि
१७ वि
२० वि
०
0
0
०
४ वि
७ वि
०
०
०
०
६ वि
१० वि
०
O
८ वि
वि ८ वि
०
०
८ वि
११ वि
१६ वि
१९ वि
०
०
०
०
३ असं
६ सं
0
०
0
O
५ असं
९ असं
०
०
३ असं
७ वि
०
०
७ असं
१० सं
१५ असं
१८ सं
०
०
O
०
२ सं
१ स्तो
२ सं
३ असं
सं४
४ असं
८ असं
१२ सं
३ असं
२ असं
६ असं
१० सं
१ स्तो
५ असं
६ सं
१३ असं
१४ सं
२१ सं
२२ सं
३ असं
४ सं
०
०
0
Q
२ असं
Co
०
०
०
०
२ असं
0
०
०
०
0
0
०
०
O
०
२ असं
०
०
०
Q
१ स्तोक
०
Q
Q
०
१ स्तोक
0
0
O
०
0
०
Q
०
O
०
१ स्तोक
०
मनुष्यमे ९ बोलकी अल्पबहुत्व तिर्येचवत् जान लेनी, दशमे बोलकी अल्पबहुत्व मनुव्यदंडकमे नहि है. इस वास्ते ९ बोलकी तिर्यचवत् अल्पबहुत्वं ज्ञेयम्. एह यंत्र * श्रीप्रज्ञापनाजीके १७ मे पदथी अने दूजे उद्देशेथी षट् लेश्या की अल्पबहुत्व है.
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________________
शान्तमूर्ति मुनिमहाराज श्रीमान् हंसविजयजी महाराज
जन्म :
संवत् १९१४
आषाढ वद
अमावास्या
बडौदा, गुजरात.
मुनिपद:
संवत् १९३५
माह वदि ११
अम्बाला शहर,
पालनपुर निवासी कान्तिलाल तरफथी तेमना पिताश्री स्व. झवेरी मोहनलाल वस्ताचंदना स्मरणार्थे.
पंजाब.
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह (१४) श्रीपन्नवणा २ पदात् स्थानयंत्र क्षेत्र द्वारम् स्वस्थानेन
उपपातेनजीवांके भेद रहने करके उपजने करके
समुद्धात आश्री
पृथ्वी १ अप् २ तेज ३ वायु ४ वनस्पति ५.ए ।
५ सूक्ष्म पर्याप्ता ५ अपर्याप्ता ५. एवं १० बोल
सर्व लोकमे
सर्व लोकमे
सर्व लोकमे
बादर पृथ्वी १ अप् २ || लोकके असंख्यातमे वायु ३ वनस्पति ४. ए चारों का अपर्याप्ता
भागमे
सर्वमिंल्लोके- सर्वलोके असंख्यलोकके सर्व लोकमे - प्रदेशतुल्यत्वात्
बादर तेजस्काय अपर्याप्ता १
मनुष्यलोक
सर्व लोकमे
मनुष्यलोकके २ ऊवं कपाट तिर्यर
लोकका तट लोकके असंख्य भाग स्तोकत्वात्
लोकके असंख्यातमे
भाग
बादर तेजस्काय
पयोप्ता १ बादर वायुकाय
पयोप्ता १ बादर वनस्पति पर्याप्ता १
एवम्
एवम्
लोकके घणे असंख्य भागमे लोकके असंख्यमे
भाग
सर्व लोकमे बहुतमत्वात्
सर्व लोकमे
शेष सर्व जीव
एवम्
एवम्
(१५)*श्रीपन्नवणा अवगाहना २१मे पदात् स्पर्शनाद्वारम् १ समग्र लोकमां असंख्य लोकना प्रदेशोनी बराबर होवाथी। २ अल्प होवाथी। ३ अत्यंत अधिक होवाथी ।
* “जीवस्सणं भंते मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पं०? गो०! सरीरपमाणमेत्ता विक्खभवाहल्लेणं आयासेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजभागो, उक्कोसेणं लोगंताओ लोगंते। एगिदियस्स णं भंते ! मारणंतिय० सरीरो० पं०? गो०! एवं चेव, जाव पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० वणप्फइकाइयस्स । बेइंदियस्स णं भंते! मारणंतिय० पं०? गो० ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगुलस्स असंखे०, उक्को तिरियलोगाओ लोगते, एवं जाव चउरिंदियस्स । नेरइयस्स णं भंते ! मार० जह० सातिरेकं जोयणसहस्सं, उक्को० अधे जाव अहेसत्तमा पुढवी, तिरियं जाव सयंभुरमणे समुद्दे, उडे जाव पंडगवणे पुक्खरिणीतो। पंचिंदिय. तिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! गो०! जहा बेइंदियसरीरस्स । मणुस्सस्स णं भंते ! गो० ! समयखेत्ताओ लोगंतो । असुरकुमारस्स णं भंते ! जह० अंगुलस्स असं०, उक्को० अधे जाव तच्चाए पुढवीए हिछिल्ले
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________________
Peoedeoreoledioediesleedeeo पालनपुरनिवासी दोसी काळीदास सांकळचंद तरफथी तेमना पिताश्री
_स्व. दोसी सांकळचंद दलछाचंदना स्मरणार्थे.
Eeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeeee
aredeoeseDoodledeseededesesedeseseDER
प्रवर्तक मुनिवर्य श्रीमान् कान्तिविजयजी महाराज.
जन्म सं. १९०७ कार्तक सुद ३
वडोदरा
दीक्षा सं. १९३६ माह सुद ११
अंबाला
प्रवर्तकपद सं. १९५७ माह सुद १५
पाटण
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________________
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[ १ जीव
९ ग्रैवे.
644
5
मरणांत भवन०
स्था विकलेंद्री व्यंतर समुद्धात
३-८
यक नारकी जोतिषी तेजस देवलोक देवलोक
र तिर्यंच सौधर्म अवगाहना ईशान
अनुत्तर ५ पंचेन्द्री १०००
| अंगुलके अंगुल असं अंगुल असंयोजन | असंख्या- ख्यातमे ख्यातमे भाग भाग स्त्रीसे भोग
अंगुलके साधिक तम माग स्वीभोग करी वयावर असल्याएवम एवम
ग विद्याधर असंख्यापाताल- स्व आभरण बालभाग करी । कलशकी
| करी मरी तिहां योनिमे श्रेणि | तमे आदि तिहां उपजे पहिला वीर्य
भाग भीति आश्री अपेक्षा(से) अन्य वीर्यमे है तिहां उपजे जीजी नर
पातालसातमी
कलशके अधोउत्कृष्ट
कका चरम नरक
उपरले २ ग्राममे ग्राममे भागे
प्रमाण
अधो
अध
बिलासपमण समुद्रकी
स्वयंभूरमण
मनुष्य क्षेत्र समुद्र वेदादिकांत समुद्र
तिरछा स्वयंभूरमण स्वयंभूरमण
मनुष्य क्षेत्र
। ईषत्
अच्युत
ऊर्ध्व ऊंचा
अपना
पंडग वन वापीमे
प्रारभार | अच्युत
विमान पली दवलाक वारसा देव०
वारमा देव० विमान रज |
चरमंते तिरियं जाव सयंभुरमणसमुदस्स वाहिरिल्ले वेइयंते, उडे जाव इसीपब्भारा पुढवी, एवं जाव थणियकुमारतेयगसरीरस्त । वाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणगा य एवं चेव । सणंकुमारदेवस्स णंभंते ! जह० अंगु० असं०, उक्को० अधे जाव महापातालाणं दोच्चे तिभागे, तिरियं जाव सयंभुरमणे समुद्दे, उढे जाव अञ्चुओ कप्पो, एवं जाव सहस्सारदेवस्स अञ्चुओ कप्पो । आणयदेवस्स णं भंते ! जह० अंगु० असं०, उक्को जाव अधोलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेत्ते, उर्दु जाव अक्षुओ कप्पो, एवं जाव आरणदेवस्स अच्चुअदेवस्ल एवं चेव, णवरं उढे जाव सयाई विमाणाति । गेविजगदेवस्स णं भंते !० जह० विजाहरसेढीतो, उक्को० जाव अहोलोइयगामा, तिरियं जाव मणूसखेत्ते, उर्ल्ड जाव सगातिं विमाणाति, अणुत्तरोववाइयस्त वि एवं चेव" । (प्रज्ञा० सू० २७५)
(१६) श्रीपन्नवणा पद ३३मेथी समुद्धातयंत्रम्
मरणा
७ समुद्धात
.
वेदनी कषाय
वैक्रिय तैजस आहारक केवल
असमवहता
३ नरक
४ गति
स्वामी ।
० ४ गतिना ४ गतिना ४गतिना ४ गतिना
१ मनुष्य १ मनुष्य
।
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
मरणां
७ समुद्धात
.
वेदनी | कषाय
वैक्रिय
तैजस आहारक केवल
असमवहता
तिक
विना
काल
.
अंतर्मुहूर्त अंत०
अंत०
अंत०
अंत०
८ समय
अंत०
जघन्य अनंती अनंती अनंती अनंती अनंती
अतीत काले
उत्कृष्ट
करेवीन नही१
जघन्य ही बीजो
आगे
करे
करेगा, ते
अनंती
उत्कन
अनंत
अनंत
अनंत
अनंत
को
अल्पबहुत्व
०
२ संख्ये ८ असं० ५अनंत ७ विशेष ६ असं० ४ असं० ३ असं० १ स्तोक गुण
य गुणा गुणा
क्षेत्र
विष्कंभ बाहुल्य
शरीर शरीर शरीर शरीर प्रमाण
प्रमाण प्रमाण | प्रमाण
शरीर शरीर सर्व प्रमाण | प्रमाण लोक
आयाम लांबपणे
विग्रह समय संख्या ३ ३ ३ ३ ३ . . क्रिया
(१७) केवल(लि)समुद्धातयंत्रं प्रथम आउजी(आवर्जी)करण करे-आत्माकू मोक्षके सन्मुख करे; पीछे समुद्धात करे. जिस समयमे आत्मप्रदेश सर्व लोकमे व्याप्त करे तिस समये अपने अष्ट रुचक प्रदेश लोकरुचक पर करे इति स्थानांगवृत्तौ। समय १२ ८ समय | समय समय समय | समय |
समय " | औदारिक आदारिक कार्मण कार्मण कार्मण मिश्र मिश्र औदारिक | दंड करे कपाट करे
मंथान अंतर अंतर | मंथान | कपाट | दंड संहरे करे । पूरे | संहरे | संहरे । संहरे । शरीरस्थ
७ समय
समय
करण
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________________
९८
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव
समय ८ । समय
| समय
समय
समय । समय
समय
समय
समय
लोकांत ! लोकांत लोकांत लोकांत लोकांत लोकांत लोकांत
लोकांत
अधो
पूर्वे
शरीर
शरीरप्रमाण
शरीर- प्रमाण
शरीरप्रमाण
प्रमाण
शरीर प्रमाण
पश्चिम उत्तर दक्षिण
लोकांत
जीव
अभ्यंतरे लोका- लोकाप्रदेश | शरीरसे बाह्य स्तोक
सर्व शरीरमे
सर्व
अभ्यंतर वाह्य काश काश
स्तोक स्तोक तुल्य
| तुल्य (१८) श्रीपन्नवणा पद ३६ने सात समुद्धात अल्पवहुत्वम्
वेदनी । कषाय मरणांतिक वैक्रिय । तैजस | आहारक
केवल
नरक
३ संखे । ४ संखे १ स्तोक २ असं० | ३ असं.
२ असं. ५संखे
भवनपति पृथ्वी
३विशेष २संखे
१ स्तोक
अप्
अग्नि
वायु
४वि
३सं
२ असं
१स्तोक
वनस्पति । ३
विसं
१स्तोक
२ असं
३संखे
बेइंद्री तेंद्री चौरिंद्री
तिर्यंच
४ असं.
पंचेंद्री
३ असं | २ असं०
१ स्तोक
मनुष्य
६ असं
७सं
। ५ असं
४सं । ३सं
व्यंतर
३ असं
४सं
२ असं । ५सं
१स्तोक
0
जोतिषी वैमानिक
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________________
तत्त्व ]
क्रोध द्वार संख्या
४ वि
१ स्तो
२ वि
33
33
55
55
31
"
"
""
१ स्तो
35
33
नवतत्त्व संग्रह
(१९) पन्नवणा कषायपदे अल्पबहुत्वम्
मान
३ सं
२ सं
१ स्तो
"
33
33
33
33
23
55
33
२ सं
35
53
माया
२ सं
३ सं
53
23
35
"3
37
"
""
35
33
३. सं
"
35
लोभ
१ स्तो
४ वि
33
33
33
"3
33
59
33
55
"
४ वि
39
35
अकषाय
०
O
०
०
0
०
०
0
०
०
०
१ स्तो
०
०
आचारांगात् षोडश (१६) संज्ञाखरूप
१ आहार संज्ञा - आहार अभिलाषारूप तैजसशरीरनामकर्म असाताके उदय. २ भयसंज्ञा - त्रासरूप मोहकर्म की प्रकृति के उदय. ३ मैथुनसंज्ञा - १ स्त्री २ पुरुष ३ नपुंसक इन तीनो वेदांके उदय, ४ परिग्रहसंज्ञा - मूर्च्छारूप मोहनी (य) कर्म के उदय. ५ सुखसंज्ञा - सातावेदनी (य) के उदय करके. ६ दुःखसंज्ञा - दुःखरूप असातावेदनी (य) के उदय. ७ मोहसंज्ञामिथ्यादर्शनरूप मोहकर्मके उदय, ८ विचिकित्सा संज्ञा - चित्त विप्लुतिरूप मोहनी (य) अनें ज्ञानावरणी (य) के उदय ९ क्रोधसंज्ञा -- अप्रतीति ( अप्रीति ? ) रूप मोहकर्म के उदय. १० मानसंज्ञा - गर्वरूप मोहकर्मके उदय. ११ मायासंज्ञा - वक्ररूपा मोहकर्मके उदय. १२ लोभ
१ आचारांगमांथी सोळ संज्ञाओनुं खरूप ।
२९
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________________
३० श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवसंज्ञा-गृद्धिरूपा मोहकर्मके उदय. १३ शोकसंज्ञा-विप्रलाप वैमनस्यरूपा मोहकर्मके उदय. १४ लोकसंज्ञा-स्वच्छंदे घटित विकल्परूपा लोकरूढि-श्वान यक्ष है, विप्र देवता है, काकाः पितामहः) अर्थात् काक दादा पडिदादा है, मोरकी पांखकी पवनसे मोरणीके गर्भ होता है इत्यादि रूढि लोकसंज्ञा. ज्ञानावरणी(य)का क्षयोपशम मोहनी(य)के उदयमं है. १५ धर्मसंज्ञा-क्षात्यादिसेवनरूपा मोहनी(य)के क्षयोपशमसे होय. १६ ओघसंज्ञा-अव्यक्त उपयोगरूपा, वेलडी रूंख पर चडे है. ज्ञानावरणी(य) क्षयोपशमसे है. उपरी १५ संज्ञा तो संज्ञी पंचेंद्री, सम्यग्दृष्टि वा मिथ्यादृष्टिने है यथासंभव. ओघसंज्ञा एकेंद्रादि जीवांके जान लेनी. ए सर्व नियुक्ती. (२०) अथ आहारादि संज्ञा ४ यंत्रं स्थानांगस्थाने ४ उद्देशे ४
वा पन्नवणा संज्ञापद ४ संज्ञा नाम | १ आहारसंज्ञा | २ भयसंज्ञा ३ मैथुनसंज्ञा | ४ परिग्रहसंज्ञा नारकी । २ संख्येय गुणे | ४ संख्येय गुणे १ स्तोक सर्वेभ्यः ३ संख्येय गुणे तिर्यम्
२ संख्येय गुणे | १ सर्वसें स्तोक मनुष्य २ , १ स्तोक सर्वेभ्यः ४, ३ संख्येय गुणे देवता | १ स्तोक सर्वेभ्यः २ संख्येय गुणे - ३ ,, ४ , कारण ४४ कोठेके रीते हूया धी(धैर्यहीनात् । मा
| मांस रुधिरकी
पुष्टाइसें मूच्छा होनेते (सें) चार २ क्षुधा लगनेसें भयके उदय वेदके उदयते (सें)
| उदयते(सें)
उपगरणके आहारके देखे सुनेसें
देखनेसेंला ५४ देखे सुनेसें आहारकी चिंता
कामभोगकी उपगरणकी चिंता करे(रने से भयकी चिंतासें चिंतोना
करे(रने से करनेसें (२१) सांतर निरंतर द्वारम् गतिभेद नारकी तिर्यच मनुष्य
देवता अंतर जघन्य १ समय
१ समय १ समय | १२ मुहूर्त
१२ मुहूर्त १२ मुहूर्त जीवसंख्या जघन्य
| १ जीव एक समये | प्रतिसमय अनंते १ जीव एक समय १ जीव एक समय उपजे
उपजे | उपजे उपजे १ झाड । २ नियुक्तिने विषे। ३ वधाथी। ४ धीरज ओछी होवाथी ।
लोभके
भयके वस्तुके स्त्रीके देखे सुनेसे देखे सुनेसें
, उत्कृष्ट
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________________
सत्त्व
नवतत्त्वसंग्रह
३१
गतिभेद
नारकी
तिर्यंच
मनुष्य
देवता
भाग
" उत्कृष्ट
जीवसंख्या उत्कृष्ट श्रेणिके असंख्यातमे
पल्यके असंख्यमे श्रेणिके असंख्य मे अनंते उपजे भाग
भाग निरंतर प्रमाण जघन्य २ समय निरंतर सर्व अद्धा । |२ समय निरंतर २ समय निरंतर आवलिके असंख्यमे
आवलिके असं आवलिके असं. " " उत्कृष्ट भाग
ख्यमे भाग | ख्यातमे भाग जीवसंख्या जघन्य
२ जीव दो समयामे अनंते समयसे । २जीव दो । २जीव दो उपजे
उपजे | समयामे उपजे समयामे उपजे श्रेणिके असंख्यमे
पल्यके असंख्यमे श्रेणिके असंख्यमे भाग सर्व अद्धा
भाग
भाग सांतरोववन्नगा | २ असंख्य गुणे
२ असंख्य गुणे २ असंख्य गुणे निरंतरोववनगा स्तोक
१ स्तोक १ स्तोक (२२) भाषाके पुद्गल ५ प्रकारे भेदाय ते यंत्रम् पन्नवणा पद ११ - भेद खे(ख)डा भेद १ प्रतरभेद २ चूर्णि(ण)भेद ३ अनुतडिता भेद ४ उत्करिका भेद ५
अन्नके आटेकी सोलो एरिंडकी मटरकी भाषाके खंड भाषा बोल्यां पछे
मूंग उडदकी फली बोल्यां पछे
7 सूकेसे दाणा होय भेदाय
भेदाय • अल्पबहुत्य ५ अनंत गुणे ४ अनंत गुणे ३ अनंत गुणे २ अनंत गुणे । १ स्तोक
भाषाखरूपयंत्रं प्रज्ञापना पद ११ आदि-भाषाकी आदि जीवस्यु. २ उत्पत्ति-भाषाकी उत्पत्ति औदारिक १ वैक्रिय २ आहारि(र)क ३ शरीरसें. ३ भाषाका संस्थान-भाषाका संस्थान वज्रका आकार. जैसे वज्र आगे पीछे तो विस्तीर्ण होता है अने मध्य भागमे पतला होता है ऐसा संस्थान भाषाका. कस्मात् ? लोकव्यापे तदलोक सरीषा संस्थान है. ४ ( स्पर्श)-भाषाके पुद्गल तीव्र प्रयत्नसे बोलनहारके लोकके षट् दिग चरम अंतकुं चार समय में स्पर्श. ५ द्रव्य-भाषा द्रव्यथी अनंतप्रदेशी स्कंध लेवे. ६ क्षेत्र-भाषा क्षेत्रथी असंख्य प्रदेश अवगाह्या स्कंध ग्रहण करे. ७ काल-भाषा कालथी यथायोग्य अन्यतर स्थिति सर्व प्रकारनी. ८ भाव-भाषा भावथी वर्ण ५, गंध २, रस ५, स्पर्श ८ एह ग्रहण करे. ९ दिशा-भाषाके पुद्गल पटू ६ दिशाथी लेवे.
१शाथी।
लोहेके खंडवत् अभ्रकके पुलवत तरे(ह) भाषा वत वेड हो कर
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव१० स्थिति-भाषाकी स्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त. ११ अंतर-भाषाका अंतर जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट वनस्पति काल. १२ ग्रहण-भाषाके पुद्गल कायायोगसें ग्रहण करे. १३ व्युत्सर्ग-भाषाकी वर्गणाकू वचनयोगसे तजे-छोडे. १४ निरंतर-भाषाके पुद्गल प्रथम समये लेवे, दूजे समय नवे ग्रहण करे अने पीछले छोडे. एवं प्रकारे तीजे ४।५।६ यावत् अंतर्मुहूर्त ताई लेवे पीछेके छोडे; अंतसमये ग्रहण न करे, पीछले छोडे. इहां पहले समय तो लेवे ही अने चरम समयमे छोडे अने मध्यके असंख्य समयामे ले(वे) वी अने छोडे वी. ए दो बातें एकेक समयमे होवे.
(२३) शरीर पांचका यंत्रं श्रीप्रज्ञापना पद २१ मेथी.
नाम १
औदारिक १ | वैक्रिय २
| आहारक ३
तैजस ४ .
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मनुष्य १ स्वामी २
४ गतिना चौदपूर्वधर
४गतिना गतिना जीव तिर्यंच २
मनुष्य
२ मूले सम० संस्थान ३ ६ षट् १, हुंड २ उत्तर समचतुरस्र नाना संस्थान नाना संस्थान
नाना अंगुलके असं- | अंगुलके असं जघन्य
देशोन १ हस्त
| अंगुलके असं- अंगुलके असंप्रमाण ख्यमे भाग | ख्यमे भाग
| ख्यमे भाग ख्यमे भाग उत्कृष्ट | १००० योजन
१,००,००० |१ हस्त प्रमाण १४ रजु प्रमाण सर्व
सर्व लोक तपस योजन
प्रमाण
पुदल
शा५। दिशासे
६ षट् दिशासे ६ षट् दिशासे
३१४५/६ दिशासे
કાકા दिशासे
चयना ५
औदारिक
भजना है।
भजना है
नियमा है। नियमा है
वैक्रिय
परस्पर
पांच शरीरका संयोग द्वार ६
भजना है नियमा है
आहारक
तैजस
भजना है
भजना है
भजना है
कार्मण
अल्प
बहु
४ अनंत गुणा ४ अनंत गुणा
| ३ असंख्येय | २ असंख्येय | १ सर्वेभ्यः द्रव्यार्थे गुणा गुणा
स्तोक प्रदेशार्थ
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१ बधाथी।
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नवतत्त्वसंग्रह
३३
नाम १
प्रदेशार्थे
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जघन्य
० औदारिक १ | वैक्रिय २ | आहारक ३ | तैजस ४ | कार्मण ५ द्रव्यार्थे | द्रव्यार्थे ३ असं० गुणा २ असं० गुणा १ स्तोक अनंत गुणा ७ अनंत गुणा प्रदेशार्थे
| ६ असंख्येय उभय
(४ अनंत गुणा
४ असंख्येय । १ स्तोक
२ विशेषाधिकार विशेषाधिक अवगाह
४ असंख्येय उत्कृष्ट २संख्येय गुणा ३ संख्येय गुणा १ स्तोक |
४ असंख्येय नाकी अल्प
गुणा बहुत्वम्
जघन्य । १ स्तोक
| ३ असंख्येय ४ असंख्येय २ विशेषाधिकार विशेषाधिक गुणा
८ असंख्येय उत्कृष्ट ६संख्येय गुणा ७ संख्येय गुणा : विशेषाधिक ८ असंख्येय
गुणा
गुणा
योनियंत्र पन्नवणा पद ९ थी १ संवृत योनि ते ढंकी हुइ; देव, नरक, स्थावरनी. २ विवृत-उघाडी योनि, विकलेंद्रीनी. ३ संवृतविवृत-ढंकी वी उघाडी वी, विकलेंद्री वा गर्भजवत्. ४ सचित्त योनि-जीवप्रदेश संयुक्त, स्थावरादिवत्नी. ५ अचित्त-जीव रहित योनि, देवता नारकीनी. ६ मिश्र योनि-सचित्त अचित्तरूप, गर्भजनी. ७ शीत योनि-शीत उत्पत्तिस्थान, नारक आदिनी. ८ उष्ण योनि-उष्ण उत्पत्तिस्थान नरक, तेजस्काय आदिकनी. ९ शीतोष्ण-उभय उत्पत्तिस्थान; मनुष्य, देव, आदिकनी. १० शंखावर्त योनि, स्त्रीरत्नकी; जीव जन्मे नहि. ११ कूर्मोन्नत योनि-कछुवत् ऊंची; तीर्थकर, चक्री, बलदेव (और) वासुदेवनी माता. १२ वंशीपत्रा योनिः पृथगजननी माता, सामान्य स्त्रीनी.
(२४) ८४ लाख योनिसंख्या पृथ्वीकाय
द्विइंद्री
२ लाख
तेइंद्री तेजस्काय
चौरिंद्री वायुकाय
देवता बादर निगोद
नारकी सूक्ष्म निगोद " "
तिर्यंच पंचेंद्री प्रत्येक वनस्पति
मनुष्य
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श्रीविजयानदंसूरिकृत
[१ जीव, (२५) कुल १९७५००००००००००० एक कोडाकोडी ९७५० लाख कोड कुल है.
पृथ्वी - १२ लाख कोटि जलचर १२॥ लाख कोटि अप्
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खेचर वायु वनस्पति. ..२८ . भुजग
मनुष्य तेंद्री
देवता चौरिंद्री
नारकी ..
अथ संघयणस्वरूपम् १ वज्रऋषभनाराच संहनन-अस्थिसंचय, वज्र तो कीली १, ऋषभ-परिवेष्टन २, नाराच-उभय मर्कटबन्ध ३, दोनो हाड आपसमें मर्कटबंधस्थापना, ऋषभ उपरि वेष्टनस्थापना. वज्र उपरि तीनो हाडकी भेदनेहारी कीली ते स्थापना. काली रेषा वज्र कीली है.
२ ऋषभनाराच-ऋषभनाराचमे उभय मर्कट बंध १, नाराच उपरि वेष्टन, कीली नही. स्थापनाऽस्य..
३ नाराच-मर्कटबंध तो है; अने वेष्टन अने कीली एह दोनो नही. स्थापना. ४ अर्धनाराच-एक पासे कीली अने एक पासे मर्कटबंध ते अर्धनाराच स्थापना.
५ कीलिका-दोनो हाडकी वींधनेहारीनि केवल एक कीली, मर्कटबंध नही ते. कीलिकाकी स्थापना. . ६ सेवार्त्त-दोनो हाडका छैहदाही स्पर्श है, ते सेवार्त. छेदवृत्त छयट्ट इति नामांतर, स्थापना.
अथ षट् संस्थानखरूप यंत्रं स्थानांगात् १ समचतुरस्र-सम कहीये शास्त्रोक्त रूप, चतुर् कहीये चार, अस्र कहीये शरीरना अवयव है जेहने विषे ते समचतुरस्रः सर्व लक्षण संयुत एक सो आठ अंगुल प्रमाण ऊंचा. -
२ न्यग्रोधपरिमंडल-न्यग्रोध-वडवत् मंडल नाभि उपरे. परि कहीये प्रथम संस्थानके लक्षण है; एतावता वडवत् नीचे नाभि ते लक्षण हीन बड उपरे सम तैसे नाभि उपर सुलक्षणा.
३ सादि-नाभिकी आदिमे एत(ट)ले नाभिसे हेठे लक्षणवान् अने नाभिके उपरि लक्षण रहित ते 'सादि' संस्थान कहीये.
१ एनी।
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प्रथम देवलोके
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह ४ कुब्ज-हाथ, पग, मस्तक तो लक्षण सहित अने हृदय, पूठ, उदर, कोठा एह लक्षण हीन ते 'कुब्ज' संस्थान.
५ वामन-जिहा हृदय, उदर, पूट ए सर्व लक्षण सहित अने शेष सर्व अवयव लक्षण हीन ते 'वामन'; कुञ्जसे विपरीत.
६ हुंड-जिहा सर्व अवयव लक्षण हीन ते 'हुंड' संस्थान कहीये. (२६) १४ बोलकी उत्पाद (उत्पात) भगवती (श०१, उ० २, सू०२५). असंयत भव्य द्रव्यदेव. चरणपरिणाम शुना मिथ्यादृष्टि भव्य वा जघन्य | उत्कृष्ट अभव्य द्रव्ये क्रियाना करणहार, निखिल समाचारी अनुष्ठान युक्त, द्रव्य- भवनपतिमे उपरले ग्रैवेय. लिंगधारी पिण समदृष्टीना अर्थ न करणा ते निखिल क्रिया केवलसे उपजे कमे २१मे देव अविराधितसंयम. प्रव्रज्याके कालसे आरंभी अभग्नचारित्रपरिणाम
सर्वार्थसिप्रमत्त गुणस्थानमे वी चारित्रकी घात नही करी.
द्धिमे २६ -विराधिक संयत. उपरलेसे विपरीत अर्थ अने सुकुमालका जो दूजे
प्रथम देवदेवलोके गई सो उत्तर गुण विराधि थी इस वास्ते अने इहां विशिष्टतर भवनपतिमे |
लोक संयम विराधनाकी है.
श्रावक आराधिक. जिसने व्रत ग्रहण थूलसें लेकर अखंड व्रतको १२ मे खर्गे पालक श्रावक विराधक श्रावक. उपरिले अर्थसे विपरीत अर्थ जानना.
भवनपतिमे जोतिषीमे तापस पडयो हूये पत्रादिके भोगनेहारे बालतपस्वी 'असंही. मनोलब्धि रहित अकाम निर्जरावान्
व्यंतरमे कंदर्पि. व्यवहारमे तो चारित्रवंत भ्रमूह वदन मुख नेत्र प्रमुख अंग
प्रथम देवमटकावीने औरांकू हसावे ते कंदर्पिक
लोके चरगपरिव्राजक. त्रिदंडी अथवा चरग-कछोटकाय; परिव्राजककपिल मुनिना संतानीया.
स्वर्ग किल्बिषिक. व्यवहारे तो चारित्रवान् पिण ज्ञानादिके अवर्ण बोले,
छठे देवलोके जमालिवत्.
८ मे देवतिर्यंच. गाय घोडा आदिकने पिण देशविरति जानना इति वृत्तौ.
। लोके आजीविकामति. पाखंडि विशेष आजीविका निमित्त करणी करे, गोशालाना शिष्यानी परें. .
| १२ मे स्वर्ग आभियोगिक. मंत्र यंत्रे करी आगलेकू वश करे. विशेषार्थ वृत्तौ. , स्खलिंगी दर्शनव्यापन्न. लिंग तो यतिका है, पिण सम्यक्त्वसे भ्रष्ट
|२१ मे देवहै, निह्नव इत्यर्थः.
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ब्रह्मलोके ५
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव(२७) कालादेशेन सप्रदेशी अप्रदेशी (कालकी आ अ भ नो सं अनो स क ते प अ स मि मिसं अदे नो स क्रोमा लो अ अपेक्षासे हा णा व्य भ शी सं सं लेष्ण जो झ ले म्याथ्याश्र य सं शसं क ध न म क सप्रदेशी अप्रदेशी)
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मनुष्य सिद्धानां राहियसंजमासंजमाणं ४ विराहियसंजमासंजमाणं ५ असन्नीणं ६ तावसाणं ७ कंदप्पियाणं ८ चरगपरिव्वायगाणं ९ किब्विसियाणं १० तेरिच्छियाणं ११ आजीवियाणं १२ आभिओगियाणं १३ सलिं: गीणं दसणवावनगाणं १४ एएसिणं देवलोगेसु उववजमाणाणं कस्स कहिं उववाए पण्णत्ते? गोयमा! अस्संजयभवियव्वदेवाणं जहन्नेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं उवरिमगेविजएसु १, अविराहियसंजमाणं जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं सन्चट्ठसिद्धे विमाणे २, विराहियसंजमाणं जहनेणं
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नवतत्त्वसग्रह ।
भगवती श० ६, उ०४, सू० २३९ आम म के ओम वि स म का असा अस स्त्री न अ स औ आ अ आभा आश भा चिति व नः व घति में यो न य यो का ना वे पु पु वे श दा क्रि हा श हा षाहारी षा
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[? 前列。 (२८) आहारी अणाहारिक आम नो सं अ नो स ते प अ स मिमि सं अ श्रानोस को मा लो असम रि अव्यी शीशी ले ले शी ग त य क य षामा क पानी श्रु 可可可可可可可可可可动“三
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीब(२९) चरम अचरम यंत्र भगवती श०१८, उ०१, सू० ६१६ १ | आहार २ संशी ७ असंही ८ | अणा- | भ | अ | नोभव- नोसन्नी| अकजसलेशी १० यावत् शुक्ल लेशी १६ हारी ३ वम सिद्धिक ६ (नोसंक्षी) पायी मिथ्यादृष्टि १९ मिश्रदृष्टि २० सम्य
| नोअ-
व | नोअभवसंयत २१ असंयत २२ संयता दृष्टि १८
३० संयत-श्रावक २३ सकषायि २५/ सज्ञानी
सिद्धिक ६ यावत् लोभकषायि २९ मति: ३१
| नोसंयत अलेशी शानी ३२ यावत् मनःपर्यवशानी साकारो ४
नोअसंयत | ३५ अज्ञानी ४० सयोगी ४१ ।।
नोसंयतायावत् कायायोगी४४ सवेदी ४८ पयुक्त
संयत यावत् नपुंसकवेदी ५१ सशरीरी ४६ अना
अशरीरी ५३यावत्कार्मणशरीरी ५८पांच कारोपपर्याप्ती ६४ पांच अपर्याप्ती ६९ युक्त ४७
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अचरम | अचरम अवरम
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चरम दंडके
अचरमा
अचरम सिद्धा-अचनाम् रम
अचरम ० ० | अचरम | अचरम अचरम (३०) पढम अपढम यंत्रम् भगवती श. १८, उ. १, सू० ६१६ भा | आहारक २ भव्य २४ अणाहारी ३/ सम्यग नोभव- नोसंही अ. | मिश्रदृष्टि व अभव्य ५ संज्ञी ७ असं-साकारोप-वधि १८सिद्धिया नोअ
२० १ज्ञी ८ सलेशी १० यावत् ।
संयत शुक्ललेशी १६ मिथ्यादृष्टि युक्त ४६ सज्ञानी (क) नो संज्ञी | षा१९ असंयत २२ सकषायी अनाकारो- २३ अभव- ९ संयता. २४ यावत् लोभकषायी पयुक्त ४७
सिद्धिक अलेशी
संयत २१ अज्ञानी ३७ यावत् |
नोसंयत १७
२३ विभंगज्ञानी ४० सयोगी
मतिज्ञान
नोअसं- केवल४१ यावत् कायायोगी
यत ज्ञानी । ४४ सवेदी ४८ यावत्
यावत् नपुंसकवेदी ५१ सशरीरी
नोसं. ३६ मनःपर्यवः ५३ औदारिक ५४ वैक्रिय
यतासं. अयोगी
ज्ञानी ५५ तैजस आहारक
यत २४, ४५
आहारक ५६ ५७ कार्मण ५८
अशरीरी
शरीर पांच पर्याप्ती ६४ पांच
अपर्याप्ती ६९
४६
- १ आनुं लक्षण भगवती (सू. ६१६)नी निम्नलिखित गाथामां नजरे पडे छे:
"जो जेण पत्तपुव्वो भावो सो तेण अपढमो होइ । सेसेसु होह पढमो अपत्तपुवेसु भावेसु ॥"
|
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नवतत्त्वसंग्रह
82
अपढम
अपढम पढम
पढम
पढम
पढमा अप
अपढम ढम
अपढम
पढम अपढम
द्विानाम्
पढम
| पढम
पढम
. जिसकूँ एक समय उपज्या हूया है सो 'अप्रदेशी' जानना अने जिसकू द्वि आदि समय वंत पर्यंत हुये है सो 'सप्रदेशी' जानना. इन चारो यंत्रोमे जिस दंडकमे जो बोल है तिसकी पेक्षा जानना अपनी विचारसें. अथ प्रथम अप्रथमका लक्षण-जिसने जो भाव पहिले पाम्या ''प्रथम' जिसने द्वि आदि वार पाम्या सो 'अप्रथम'. अथ चरमअचरम लक्षण गाथा__ "जो जं पावहिति पुणो भावं सो तेण अचरिमे होइ (अचरिमो होति?)।
अचंतविओगो जस्स जेण भावेण सो चरिमो ॥" 'जीवाहारग १-२ भव ३ सण्णी ४ लेसा ५ दिहि ६ य संजय ७ कसाए ८ । णाणे ९जोगुवओगे १०-११ वेए १२ य सरीर १३ पजत्ती १४॥" ए मूल गाथा (पृ०७३३)।
(३१) भगवती श० २६, उ० १ (सू० ८२४) सम्यत्तवे १ वाद मिश्रे२वाद मिथ्यात्वे ३ वाद ओधिके ४ वाद अलेशी १ सम्यग्दृष्टि २ समुच्चयज्ञानी३
कृष्णपक्षी १ सलेशी प्रमुख ७ शुक्लपक्षी ८ संज्ञा यावत् केवलज्ञानी सम्यग्- |
| मिथ्यादृष्टि २ ४.१२ सवेदी १३ क्रोधादि स्त्री पुरुष मनुष्य २
अशानी ३ मति- नपुंसक १६ सकषायी प्रमुख पांच । नासशापयुक्त. मिथ्यादृष्टि श्रत अन्नानी ४-५/२२ उपयोग दो २३ सयोगी प्रमख
र ४६ अवेदी १० अकषायी ११ अयोगी १२
विभंगशानी ६ ४, एवं सर्व बोल २७ हुये. सम्यग्दृष्टि १ पंचेन्द्री.ज्ञानी२ मति
कृष्णपक्षी आदि सलेशी प्रमुख उपरला २७ तिर्यंच | ज्ञानादि ३. "
उपरला ६ बोल बोल जानना एवं बोल ५. भवनपति
ए २७ माहिथी पद्म १ शुक्ल २ . व्यंतर
लेश्या नपुंसकवेद ३, ए ३
वरजीने शेष बोल २४ तेजो १ पद्म २ शुक्ल ३ स्त्रीवेद १ पुरुषवेद २, ए ५ वरजी शेष बोल
बावीस २२
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नरक
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
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सम्यक्त्वे १ वाद मिश्रे २वाद मिथ्यात्वे ३ वाद औधिके ४ वाद
सम्यग्दृष्टि १ चैमानिक 34 शानी २ मति सम्यग्-कृष्णपक्षी आदि ए २७ माहिथी कृष्ण आदि ३ शानादि ३, मिथ्यादृष्टि उपरला छ बोल
| लेश्या नपुंसकवेद् ४, ५४ वरजी एवं बोल ५.
शेष २३
ए २७ माहिथी कृष्ण आदि ३ लेश्या जोतिष |३३
| पद्म ४ शुक्ल लेश्या ५ नपुंसकवेद
६, ए ६ वरजी शेष २१ वाद ।
एक क्रियावादी अज्ञानवादी अक्रिया १ अज्ञान क्रिया १ अक्रिया २ अज्ञान ३
। लामे १ विनयवादी २ विनय ३ वाद विनयवादी ४ आयुबंध | मनुष्य तिर्यंच | आयु नही | मनुष्य तिर्यंच | क्रियावादी मनुष्य तिर्यंच कृष्ण
क्रियावादी आयु | बांधे | आयु चारों आदि तीन ३संक्लिष्ट लेश्यामे आयु बांधे एक वैमानिकना
गतिका बांधे; न बांधेः शेष बोलमे वर्तता आयु नव मनुष्यमे अलेशी
देवता, नारकी बांधे. वैमानिकना शेष ३ समव१ केवली २ अवेदी
मनुष्य तिर्यंचना सरण च्यारों गतिका देवता नारकी
क्रियावादी मनुष्य-आयु बांधे; शेष ३ अकषायी ४
समवसरण मनुष्य तिर्यंचना एकेंद्री अयोगी ५एवं पांच
विकलेंद्रीमे समवसरण २ अक्रिया बोलमे आयु न बांधे
| १ अशान २ विकलेंद्रीमे सज्ञानी देव नारकी क्रिया
मति श्रुतज्ञानी आयु न बांधे. अनेरो वादी आयु बांधे
एकेंद्रीमे तेजोलेश्यामे आयु न बांधे, मनुष्यना
| शेष बोलमे आयु बांधे मनुष्य, तिर्यंचना; तेउ, वायु, तिर्यंचना आयु यांधे ॥ क्रियावादी १ मिश्रदृष्टी २ शुक्लपक्षी ३ ए निश्चय भव्य, शेषमे भजना । इति प्रथमोद्देशकः अनतरोव० १ अनंतो गाढा २ अनतरो
आहार ३ अनंतर पजत्तगा ४. एहमे आयु २४ दंडके न बांधे. बोल जौनसे नही पावे अलेश्यादि १२ सो जान लेने और सर्व प्रथम उद्देशवत्.
अचरममे अलेशी १ केवली २ अयोगी नही और सर्व उद्देशाप्रथमवत् क्षेयं. द्वारगाथा-"जीवा १ य लेस्स२पक्खिय ३दिट्टी४ अन्नाण५ नाण ६ सन्नाओ७।
वेय ८ कसाए ९ उवओग १० जोग ११ एक्कारस वि ठाणा ॥"
(भग० सू०८१०)
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________________
जीव ओघे
जीव अघि
५शान
भजना
३भजना
२नि
२०
३भ
३भ
२६
तत्त्व] नवतत्त्वसंग्रह
४३ (३२) (गति वगैरेमे ज्ञान अज्ञान, भगवती श०८, उ० २, सू० ३१९-३२१)
३ अज्ञान || पृथ्वी आदि
२नि | भजना
५ काय नारकी भवन
त्रसकाय पति व्यंतर ३ नियमा
अकाय जोतिषी वैमानिक
सूक्ष्म पृथ्वी आदि ५ . २नि
बादर ५भ २३ । विगलेंद्री३ | २नि । २नि
नोसूक्ष्मनो
१नि
बादर तिर्यंच पंचेंद्री
जीव पर्याप्ता ५भ मनुष्य
३भ
पर्याप्ता नारक सिद्ध
३नि ३ नि १नि
भवनपति वाटे वहते
व्यंतर जोतिषी ३ अज्ञान
ज्ञान पांच गतिना
वैमानिक
पर्याप्ता नरक गति
३भ देवगति ३ नि
पृथ्वी आदि ५ २०
पर्याप्ता तिर्यंच गति २नि २नि
विगलेंद्री
२३ मनुष्यगति ३भ - २नि
पर्याप्ता
पंचेंद्री तिर्यंच सिद्धगति १नि
२४
३भ
पर्याप्ता इन्द्रिय ज्ञान | अज्ञान
मनुष्य पर्याप्ता । ५भ ३भ . सइंद्री ४भ ३भ
अपर्याप्ता जीव ३भ ३भ एकेंद्री
२नि
अपर्याप्त नरक ३नि बेंद्री, तेंद्री चौरेंद्री ३
व्यंतर अपर्याप्ता
पृथ्वीकाय पंचेंद्री ४भ ३भ
आदि ५
२ नि अनिंद्री १नि
अपर्याप्ता
बेंद्री, तेंद्री, काय
अज्ञान चौरेंद्री २नि
२नि सकाय । ५भ । ३भ
अपयोप्ता १ नारक, भवनपति अने व्यंतरमांत्रण अज्ञाननी भजना।
22 PM
भवनपात । ३नि
२ नि
C
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________________
४४
२२
२३
२५
२६
१
२
३
४
१
२
३
१
२
३
१
२
४
६
9V
९
१०
११
तिर्यच पंचेंद्री अपर्याप्ता
मनुष्य अपर्याप्ता
जोतिषी वैमानिक अपर्याप्ता
नोपर्याप्त-नोअपर्याप्त
नरक भवस्था
तिर्यच भवस्था
मनुष्य भवस्था
देव भवस्था
अभवस्था
भव्य
अभव्य
नोभव्य-नोअभव्य
संज्ञी
असंज्ञी
नोसंज्ञी - नोअ.
संज्ञी
ज्ञानलब्धि
तस्य अलब्धि
मतिश्रुतक लब्धि
तेयोः अलब्धि |
अवधि-लब्धि
तस्य अलब्धि
मनः पर्यव-लब्धि
तस्य अलब्धि
केवल-लब्धि
२ नि
३ भ
३ नि
१
३ नि
३ भ
५भ
३ नि
१ नि
५भ
0
१ नि
४ भ
२ नि
१ नि
५भ
0
४ भ
१ नि
४ भ
४ भ
४ भ
४ भ
१ नि
श्री विजयानंदसूरिकृत
२ नि
२ नि
३ नि
०
३ भ
३ भ
३ भ
३ भ
०
३ भ
३ भ
०
३ भ
२ नि
०
०
३ भ
०
३ भ
०
३ भ
०
३ भ
०
१२
१३
१४
१५
१७
१८
१९
२०
१
२
३
20
५
६
७
३-६
१०
| तस्य अलब्धि
सम्यग मिथ्यादर्शन लब्धि
८
तस्य अलब्धि
१ चारित्र लब्धि
२
तस्य अलब्धि
११
१२
१
तस्य अलब्धि
अज्ञान लब्धि
तस्य अलब्धि मति श्रुत
| अज्ञान लब्धि
तयोः अलब्धिकौ
विभंग लब्धि
२
तस्य
अलद्धिया
| दर्शन लब्धि
तस्य अलब्धि
सम्यग्दर्शनलब्धि
तस्य अलब्धि
मिथ्यादर्शन लब्धि
सामायिक आदि ४ चारित्र लब्धि
अलब्धि
यथाख्यात
लब्धि
तस्य अलब्धि
चरित्राचरित्र
लब्धि
| तस्य अलब्धि
४ भ
०
५ भ
०
५ भ
०
५ भ
५ भ
०
५ भ
०
O
५ भ
०
५ भ
५ भ
४ भ
४ भ
५ भ
५ भ
५ भ
३ भ
५ भ
[ १ जीव
३ भ
३ भ
0
३ भ
०
३ नि
२ नि
३ भ
०
0
३ भ
३ भ
३ भ
३ भ
३ भ
८
३. भ
०
३ भ
०
३ भ
०
३ भ
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________________
तत्त्व ]
३-७
१०
११
१२
१३
१४
१५
१६
१
२
३
४
५-६
७-८
९
१०
११
१२
१
२-३
४
५
مو
६
७-८
दान आदि ५ लब्धि
तस्य अलब्धि
बालवीर्य लब्धि
तस्य अलब्धि
पंडितवीर्य
लब्धि
तस्य अलब्धि
| बालपंडितवीर्य लब्धि
तस्य अलब्धि
इन्द्र लब्धि
तस्य
ध
श्रोत्रेन्द्रिय लब्धि
तस्य अलब्धि
चक्षुरिन्द्रिय प्राणेन्द्रिय लब्धि
तस्य अलब्धि
जिवेन्द्रिय लब्धि
तस्य अलब्धि
स्पर्शनेन्द्रिय लब्धि
तस्य अलब्धि
साकार उपयोग
मति श्रुत
साकार०
| अवधि साकार०
मनः पर्यव
साकार०
| केवल साकार०
मति अज्ञान श्रुतअज्ञान साकार०
५ भ
१ नि
३ भ
५ भ
५ भ
४ भ
३भ
५ भ
४ भ
१ नि
४ भ
१ नि
२ भ
४ भ
१ नि
२ भ
४ भ
१ नि
४ भ
१ नि
५भ
४ भ
४ भ
४भ
१ नि
०
नवतत्त्व संग्रह
३ भ
०
३ भ
०
०
३ भ
०
३ भ
३ भ
०
३ भ
२ नि
३ भ
२ नि
३ भ
२ नि
३भ
0
३ भ
0
०
०
०
३ भ.
९
१०
११
१२
१३
१४
१
२
३
20
५
१
६
6 ू
विभंग साकार
अनाकार उप
योग
चक्षुर्दर्शन
अनाकार०
१
२
अचक्षुर्दर्शन
अनाकार०
अवधिदर्शन
अनाकार०
सलेश्यी
कृष्ण आदि ५
शुक्ल लेश्या
८
अश्य सकषायी
१
२-५ क्रोध आदि ४
६
अकषायी
१
सवेदी
२-४ स्त्री पुं नपुंसक
अवेदी
आहारिक
अनाहारी
०
५भ
४भ
केवलदर्शन अनाकार०
सयोगी
५भ
मनयोगी
५भ
वचनयोगी ५भ
काययोगी
अयोगी
४ भ
४भ
१ नि
५भ
१ नि
५भ
४भ
५भ
१ नि
४ भ
४ भ
५भ
४ भ
४ भ
५ भ
५भ
४ भ
४५
३ नि
३भ
३भ
३.भ
३भ
०
३भ
३भ
३भ
३भ
०
३.भ.
३.भ.
३भ
O
३भ
३भ
०
३ भ
३भ
०
३ भ
३भ
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________________
४६
श्री विजयानंदसूरिकृत
[ १ जीव
(३३) (द्रव्यादि अपेक्षासे ज्ञानका विषय भग० श०८, ३०२, सू० ३२२ )
जाणे देखे
क्षेत्री
कालथी
भावधी
सर्व क्षेत्र
सर्व काळ
मति
सर्व भाव
सर्व क्षेत्र
सर्व काळ
सर्व भाव
श्रुत
जघन्य - अंगुलका जघन्य - आवलिकानो जघन्य - अनंता भाव; असंख्यातमा भाग; असंख्यातमो भाग; | उत्कृष्ट सर्व भावके उत्कृष्ट - लोक सरीषा उत्कृष्ट - असंख्य उत्स- अनंतमे भाग जाणे असंख्य अलोकखंड | पिंणी अवसर्पिणी
देखे
अवधि
केवळ
"मति अज्ञान श्रुत अशान
विभंग
द्रव्यथी
आंदेशे सर्वद्रव्य
उपयोगे सर्व
अनंतानंत प्रदेशी
मनः पर्यव स्कंध, एवं उत्कृष्ट पिण
जघन्य - अनंत रूपी द्रव्य अने उत्कृष्टसर्व रूपी द्रव्य
सर्व द्रव्यम्
परिग्रह द्रव्य
0
29
39
ज्ञानी मति श्रुत ज्ञानी
अवधिज्ञानी
समयक्षेत्र ऊंचा नीचा, अधोलोकना नवसे, ९ योजन
(क्षु) लक सर्व क्षेत्र
परिग्रह
"3
39
अंतर जघन्य
अंतर्मुहूर्त
39
जघन्य-पल्योपमनो असंख्यातमो भाग;
एवं उत्कृष्ट पि
"3
सर्व काळ
परिग्रह
स्थितिज्ञान - ज्ञानी दुप्रकारे - ( १ ) सादि - अपर्यवसित, (२) सादि - सपर्यवसित. सादिसपर्य० जघन्य - अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट -६६ सागर झाझेरा. मति श्रुत जघन्य - अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट६६ सागर झाझेरा. अवधि जघन्य - १ समय, उत्कृष्ट ६६ सागर झाझेरा. मनः पर्यव जघन्य - १ समय, उत्कृष्ट - देश ऊन पूर्व कोड. केवल सादि अपर्यवसित.
अज्ञानी त्रिधा - ( १ ) अनादि अपर्यवसित, (२) अनादि सपर्यवसित, (३) सादि सपर्यव सित, जघन्य - अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट - अर्धपुद्गल देश ऊन.
मति, श्रुत एवं उपरवत् त्रिधा ज्ञातव्यानि विभंगज्ञानी जघन्य -१ समय, उत्कष्ट - ३३ सागर देश ऊन पूर्व कोड अधिकम्.
(३४) ( अंतरद्वार जीवाभिगम प्रति०९, ३०२, सू० २६७ )
मनः पर्यवज्ञानी
१ ओघथी, सामान्यथी । २ ए प्रमाणे उपरनी पेठे ऋण प्रकारे जाणवां ।
99
"
59
अनंता भाव; सर्व भावने अनंतमे भाग
सर्व भाव
परिग्रह
99
59
अंतर उत्कृष्ट
देश ऊन अर्ध पुद्गलपरावर्त
37
35
33
Page #70
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________________
तस्य ]
केवलज्ञानी
अज्ञानी
श्रुत अज्ञानी
विभंगज्ञानी
ज्ञान अज्ञान
मति ज्ञान
श्रुत ज्ञान
अवधि
मनः पर्यव
केवल
मति अज्ञान
श्रुत अज्ञान
विभंग ज्ञान
नवतत्त्वसंग्रह
अंतर जघन्य
अल्पबहुत्व
३ वि
४ वि तु ३
२ असं
१ स्तोक
५ अनंत
२ अनंत
तुल्य २ अनंत
१ स्तोक
०
अंतर्मुहूर्त
"
19
८ की अल्पबहुत्व
३ वि
४ वि तुल्य
२ असं
१ स्तोक
५ अनंत
६-७ अनंत
तुल्य ६
४ असं
अंतर उत्कृष्ट
(३५) (अल्पबहुत्वद्वार प्रज्ञापना प० ३, सू० ६८ )
पर्यव अल्पबहुत्व
४ अनंत
3,,
२,
१ स्तोक
५ अनंत गुण
Q
६६ सागर झाशेरा
३ अनंत गुण
२ अनंत
१ स्तोक
23
वनस्पति काळ अनंता
४७
८ का पर्यव अल्प
बहुत्व
७ वि
५ वि
३ अनंत गुण
१ स्तोक
८ नंत
६ अनंत
४ अनंत
२ अनंत
द्वार गाथा - " जीव १ गति ५ इंदी ७ काय ८ सुहम्म ३ पत्त ३ भवत्थ ५ भवसिद्धिय ३ सन्ना ३ लद्धी ७ उवओग १२ जोगिय ५ । १ । लेसा ८ कसाय ६ वेदे ५ य आहारे २ नाण गोयरे १७ काले १ अंतर १० अप्पाबहुयं ८ पज्जवा ८ चैव दाराई ॥ २२ ॥” ज्ञानस्वरूपं नन्दी प्रज्ञापना आवश्यकनिर्युक्ति भगवती नन्दीवृत्तिसे लिख्यतेमतिज्ञानके मुख्य भेद - १ अवग्रह, २ ईहा, ३ अवाय, ४ धारणा.
अर्थ अवग्रह आदि चारांका - सामान्यपणे अर्थने ग्रहे ते अवग्रह. यथा कोइ मार्गमें जातां दूरसे कोइ ऊंचीसी वस्तु देखी इम जाणे इह कुछ तो है ते 'अवग्रह' ज्ञेयं । अवग्रहमें जे पदार्थ ग्रह्मा है तिसका सद्भूत अर्थ विचारे जो इह कया वस्तु है स्थाणु- उंठ है अथवा पुरुष है ऐसी विचारणा करे सो 'ईहा' जाननी. ईहा अनंतर काल पदार्थनो निश्चय करे जो इह तो हाले चाले इस वास्ते पुरुष है, पण स्थाणु नही ते 'अवाय.' धारणा ते अवाय अनंतर कार्ले निर्णीत जे अर्थ तेह घरी राखे ते. यथा ओही पुरुष है जो मैं देखा था ते 'धारणा' धारणाके भेद - १ अविच्युतिधारणा, २ वासनाधारणा, ३ स्मृतिधारणा. अर्थ तीनोंका - जो अर्थ धार्या है सो
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________________
४८
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव उपयोगथी क्षणमात्र च्युति-भूले नही ते 'अविच्युतिधारणा' है. स्थिति अंतर्मुहूर्तनी. जे वस्तुने उपयोग था तेह तो भ्रंस हुया है पणि संस्कार रह गया है पुष्पवासनावत् तेहने 'वासनाधारणा कहीये. स्थिति संख्यात असंख्यात कालनी. कालांतरे कोइक तादृश अर्थ(ना) दर्शनथी संस्कारने प्रबोधेकरी ज्ञान जागृत हुया जे में एह पूर्वे दीठा था ऐसी जो प्रतीति ते 'स्मृतिधारणा' ज्ञेयं
स्थिति अवग्रह आदि ४ की-अवग्रह एक समय वस्तु देख्यां पछे विकल्प उपजे है स्मा (१). ईहा अंतर्मुहूर्त विचाररूप होणे ते. अवाय अंतर्मुहूर्त निश्चय करणे करके. धारण वासना [श्री] संख्य असंख्य काल आयु आश्री. अवग्रहके दो भेद हे. दोनोका अर्थव्यंजनावग्रह. 'व्यंजन' शब्दना तीन अर्थ है. 'व्यंजन' शब्दनी व्युत्पत्ति करीने विचार लेना श्रोत्रादिक इन्द्रिय अने शब्दादिक अर्थनो जे अव्यक्तपणे-अप्रगटपणे संबंध तेहने 'व्यंजन कहीये. अथवा व्यंजन शब्दादिक अर्थने पिण कहीये. अथवा व्यंजन श्रोत्रादिक इन्द्रियने पिण कहीये. एतले एहवा शब्दार्थ नीपना-अप्रगट संबंधपणे करी ग्रहीये ते 'व्यंजनावग्रह' कहीये एह व्यंजनावग्रह प्रथम समयथी लेई अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल जानना. २ अर्थावग्रह. प्रगटपणे अर्थग्रहण ते 'अर्थावग्रह' कहीये. ते एक समय प्रमाण. ___ व्यंजनावग्रह चार प्रकारे-१ श्रोत्र इन्द्रिय व्यंजन अवग्रह, २ घ्राण इन्द्रिय व्यंजन अव ग्रह, ३ रसना इन्द्रिय व्यंजन अवग्रह, स्पर्शन इन्द्रिय व्यंजन अवग्रह.
चार इन्द्रिय प्राप्यकारी कही तेहसू व्यंजनावग्रह होय. वस्तुने पामीने परस्परे अडकीने प्रकाश करे ते 'प्राप्यकारी' कहीये. अथवा विषय वस्तुथी अनुग्रह उपघात पामे ते 'प्राप्यकारी कहीये. ते नयन वर्जित चार इन्द्रियां जाननी. नयन, मन ते अप्राप्यकारी है, श्रोत्रेन्द्रियव्यंजना क्ग्रह-श्रोत्रेन्द्रिये अव्यक्तपणे शब्दना पुद्गल प्रथम समयादिकने विषे ग्राहीइ है ते 'श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह.' इसीतरे घ्राण, रसन, स्पर्शनके साथ अर्थ जोड लेना. . अर्थावग्रह ६ भेदे-१ स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रह, २ रसनेन्द्रियार्थावग्रह, ३ घाणेन्द्रियार्थावग्रह ४ चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रह, ५ श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रह, ६ नोइन्द्रियार्थावग्रह. स्पर्शनइन्द्रिये करी प्रग टपणे स्पर्श सित पुद्गलने ग्रहीये ते 'स्पर्शेन्द्रियार्थावग्रह.' एवं सर्वत्र जानना. नोइन्द्रिय मन है
ईहा षट् भेदे-१ स्पर्शेन्द्रियेहा, २ रसनेन्द्रियेहा, ३ घ्राणेन्द्रियेहा, ४ चक्षुरिन्द्रियेहा, ५ श्रोत्रेन्द्रियेहा, ६ नोइन्द्रियेहा. स्पर्शन इन्द्रिये करी गृहीत जे अर्थ तेहनुं विचारणा ते 'स्पर्शन-इन्द्रिय-ईहा.' एवं सर्वत्र. : अवाय ६ भेदे-१ स्पर्शनेन्द्रियावाय, २ रसनेन्द्रियावाय, ३ घाणेन्द्रियावाय, ४ चक्षुरि न्द्रियावाय, ५ श्रोत्रेन्द्रियावाय, ६ नोइन्द्रियावाय. स्पर्शन इन्द्रिये गृहीत वस्तु विचारी तिसका निश्चय करना ते 'स्पर्शनेन्द्रियावाय.' एवं सर्वत्र ज्ञेयं. '. धारणा षट् भेदे-१ स्पर्शनेन्द्रियधारणा, २ रसनेन्द्रियधारणा. ३ प्राणेन्द्रियधारणा ४ चक्षुरिन्द्रियधारणा, ५ श्रोत्रेन्द्रियधारणा, ६ नोइन्द्रियधारणा. स्पर्शन इन्द्रिये जे वस्तु ग्रही विचारी निश्चय करी धरी राखनी ते 'स्पर्शनेन्द्रियधारणा'. एवं सर्वत्र.
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________________
तत्त्व ]
नवतत्त्व संग्रह
४९
एछ चोक चौवीस अने चार व्यंजनावग्रह एवं २८ भेद श्रुतनिश्रित मतिज्ञानके है, अने अश्रुतनिश्रित मतिना भेद औत्पत्तिकी आदि ४ बुद्धि सो तिनका विस्तार नन्दी से ज्ञेयं. तथा श्रुतनिश्रित मतिज्ञानके ३३६ भेद है सो लिख्यते - १ बहुग्राही, २ अबहुग्राही, ३ बहुविध - ग्राही, ४ अबहुविधग्राही, ५ क्षिप्रग्राही, ६ अक्षिप्रग्राही, ७ अनिश्रित, ८ निश्रित, ९ असंदिग्ध, १० संदिग्ध, ११ ध्रुव, १२ अध्रुव इनका अर्थ- कोइ एक क्षयोपशमना विचित्रपणाथी अत्रग्रह आदिके करी एक वेला बजाया जो भेरी, शंख प्रमुख तेहना शब्द न्यारा न्यारा जाणे ते 'ग्रह' अने एक अव्यक्तपणे तुर्यनी ही ज ध्वनि जाणे ते 'अबहुग्राही'. अने जे
स्त्री प्रमुख बजाया मधुर आदि घणा पर्याये करी शंख प्रमुखनी ध्वनि जाणे ते 'बहुविधग्राही'. तेहथी एक विपर्यय जाणे ते 'अबहुविधग्राही'. जे शब्द आदि कह्या ते क्षिप्र-उतावला जाणे ते 'क्षिप्रग्राही.' अने एक वली विमासीने मोडा जाणे ते 'अक्षिप्रग्राही'. एक लिंगे जाणे ते 'निश्रितः' ध्वजा देखी देहरा जाणे. विपर्यय जाणे 'अनिश्रित.' जे संशय विना जाणे ते 'असंदिग्ध . ' संशय सहित जाणे ते 'संदिग्ध' अने जे एक वारनो जाण्यो सदा जाणे पिण कालांतरे परना उपदेशनी वांछा न करे ते 'ध्रुव' कहीये. विपर्यय 'अध्रुव ' एह बारे भेदसू पहिले २८ भेदक गुणीये तो ३३६ मतिज्ञानना भेद होय है.
१ ईहा, २ अपोहा, ३ विमर्शा, ४ मार्गणा, ५ गवेषणा, ६ संज्ञा, ७ स्मृति, ८ मति, ९ प्रज्ञा - मतिके एकार्थ (क) नाम. एह नव मतिके नाम है.
अथ मतिज्ञान नव द्वार करी निरूपण करीये है
१ संत ० ( सत्० ) छता पद प्ररूपणा - मतिज्ञान किहां किहां लाभे ? २ द्रव्यप्रमाण - एक कालसे कितने जीव मतिज्ञानवंत लाभे १ ३ क्षेत्र - मतिज्ञानवंत कितने क्षेत्रमे है ? ४ स्पर्शनामतिज्ञानवान् कितना क्षेत्र स्पश्यें है ? ५ काल - मतिज्ञान कितना काल रहै है ? ६ अंतरमतिनो अंतर. ७ भाग– मतिज्ञानी अन्यज्ञानीयोके कितमे ( ने १) भाग १ ८ भाव - मतिज्ञान षट् भावमे कौनसे भावे है १ ९ अल्पबहुत्व - मतिज्ञान पूर्वप्रतिपन्नाप्रतिपद्यमान, इनमे घणे कौनसे अने स्तोक कौनसे ?
(३६) छतापद द्वार वीसे भेदे यंत्र
पृथ्वी अपू तेज वायु वनस्पति
नास्ति
सकामे ३
अस्ति
एकांत काययोगे
नास्ति
सत् पद प्ररूपणा मति है वा नहीं ? २० द्वारे
बारो गति मे १
है
केंद्री बेंद्री तेंद्री चौरेंद्र प्राये
नही
पंचेंद्रिीमे २
अस्ति
१ अल्प ।
७
एकांत वचने काये
35
जहां तीनो योग एकठेमे ४
स्त्री पुरुष नपुंसक
वेदे ५ अनंतानुबंधी चौकडी मे
-
अस्ति
अस्ति
नही
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________________
५०
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव
संशीमे
वारां कषायमे ६ अस्ति केवलदर्शनमे १० नास्ति
पर्याप्तामे
अस्ति पहिली तीन भाव
लब्धि अपर्याप्तामे नास्ति संयत ५ मे ११ अस्ति
नास्ति लेश्यामे
साकार अनाकार उपरली तीन
सूक्ष्ममे मे १२ लेश्यामे ७ अस्ति
। अस्ति
बादरमे १७ । आहारी अनाहारी सम्यक्त्वमे
मे १३ मिथ्यात्व ५ मे ८ नास्ति भाषालब्धिवानमे , असंझीमे प्राये १८ नास्ति मति आदि
जिसके भाषाकी अस्ति
भव्यमे ज्ञानमे
अस्ति नास्ति लब्धि नही १४
अभव्यमे १९ नास्ति केवलज्ञानमे ९ नास्ति प्रत्येक शरीरीमे अस्ति
चरममे अस्ति चक्षु आदि३
साधारण शरीदर्शनमे अस्ति रीमे १५ नास्ति
अचरममे २० नास्ति इति सत्पद द्वार १ २ द्रव्यप्रमाणद्वार-मतिज्ञानी सदा असंख्याता लाभे इति. ३क्षेत्रद्वारे-मतिज्ञानी सारे एकठे करे तो लोकके असंख्यातमे भाग व्यापे. ४ स्पर्शनाद्वार-मतिज्ञानी लोकके असंख्यातमे भाग स्पर्श क्षेत्र जो एक प्रदेश ते स्पर्शना सात प्रदेशकी होती है. ५ कालद्वारमतिज्ञानकी स्थिति जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट ६६ सागरोपम झझेरा. उपयोग आश्री मतिज्ञानी स्थिति अंतर्मुहूर्त. ६ अंतरद्वारे–मतिका अंतर, जघन्य अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देश ऊन अर्ध पुद्गलपरावर्त. ७ भागद्वार-मतिज्ञानी सर्व ज्ञानी अनंतमे भाग अने सर्व अज्ञानीके अनंतमे भाग. ८ भावद्वार-मतिज्ञान क्षयोपशम भावे है. ९ अल्पबहुत्वद्वार-नवा मतिज्ञान पडि वधनेवाले स्तोक है अने पूर्वे पडि वध्या असंख्यात गुणे. इति मतिज्ञान. अलम्.
अथ श्रुतज्ञानस्वरूप लिख्यते-१ अक्षर श्रुत, २ अनक्षर श्रुत, ३ संज्ञी श्रुत, ४ असंज्ञी श्रुत, ५ सम्यक् श्रुत, ६ मिथ्या श्रुत, ७ अनादि श्रुत, ८ अपर्यवसित श्रुत, ९ सादि श्रुत, १० सपर्यवसित श्रुत, ११ गमिक श्रुत, १२ अगमिकश्रुत, १३ अंगप्रविष्ट श्रुत, १४ अनंगप्रविष्ट श्रुत.
अथ इन चौदका अर्थ लिख्यते-१ अक्षर श्रुत. जीवसे कदापि न क्षरे ते 'अक्षर'. तेह अक्षर श्रुत तीन प्रकारका है. संज्ञाक्षरं. जाणीये जिस करी ते 'संज्ञा' कहीये तेह- कारण जे अक्षर-पंक्ति तेहने 'संज्ञाक्षर' कहीये. ते ब्राह्मी लिपि आदि करी अष्टादश (१८) भेदे ए द्रव्यश्रुत कहीये. एहथी भावश्रुत होता है. भावश्रुतका कारणने 'द्रव्यश्रुत' कहीये. २ व्यंजनाक्षरं. 'व्यंजन' ते अकारादि अक्षरना उच्चारने कहीये. ते अर्थका व्यंजक है-बोधक है. एतले अकारादि अक्षरना उच्चारने 'व्यंजन' कहीए. ते व्यंजन अक्षरश्रुत अनेक प्रकारका है. एक मात्राये उचरीए ते 'हव' कहीये. दो मात्राये उचरीये ते 'दीर्घ कहीये. तीन मात्राए उचरीए ते 'प्लुत' कहीये.
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह इत्यादिक भेद जैनेन्द्र व्याकरणसे जानना. ए पणि द्रव्यश्रुत कहीये. ३ लब्ध्यक्षरं. अक्षर उचखानी लब्धि अथवा अक्षरार्थ समजावनेकी लब्धि ते 'लब्ध्यक्षर' कहिये. तथा लब्ध्यक्षरश्रुत छ प्रकारे है. स्पर्शनेन्द्रियलब्ध्यक्षरं. स्पर्शन-इन्द्रिये मृदु, कर्कश आदि स्पर्श पामीने अक्षर जाणे जे अर्क, तूल आदि ऊर्ण, वस्त्र आदिक शब्दार्थने विचारे ते 'स्पर्शनेन्द्रियलब्ध्यक्षर' श्रुत कहीये. एवं पांचे इन्द्रियनी विषयका समझना. एवं मनकी वस्तु के अक्षर समझने ते 'नोइन्द्रियलब्ध्यक्षर' श्रुत.
अथ दूजा भेद अनक्षर श्रुत-जिहां स्पष्टपणे अक्षर भासे नही तेहने 'अनक्षर श्रुत' कहीये. ते उच्छ्वास निःश्वास निष्ठीवन काश क्षुत सीटी आदिक अनेक प्रकारे जानना. . अथ संज्ञी श्रुत-जेहने संज्ञा हुइ तेहने 'संज्ञी' कहीये. तेहनो श्रुत ते 'संज्ञी श्रुत' कहीये. ते संज्ञी श्रुत तीन प्रकारना है. तेहना स्वरूप यंत्रात्(३७) संज्ञीश्रुतखरूपयंत्रम् (३८) असंज्ञीश्रुतखरूपयंत्रम्
जो प्राणीने पूर्वापर अर्थनी दीर्घ ही विचारणा हूइ पूर्व इम था, संप्रति दीर्घ जे प्राणी पूर्वापर विचार न जाणे कालिकी इम है, आगे एवमस्तु-इम होवेगी
कालिकी तिसकू 'दीर्घकालि(की) उपदेशे उपदेशेन पर ऐसा विचारे तेहने 'दीर्घकालिकी
उपदेशेन करी असंज्ञी' कहीये. ते संमूछिम संज्ञी
उपदेशेन-उपदेश करी संज्ञी' कहीए. ते गर्भज मनुष्य, तिर्यंच, देव,
असंक्षी पंचेन्द्रिय मनुष्य, तिर्यंच, विकले. नारकी, मनःपर्याप्तिना धारक जा
न्द्रिय, एकेन्द्रिय जानना. ____ नना. इति दीर्घकालिकी जे प्राणी स्वदेह पालनेके अर्थे इष्ट
जे प्राणी वदेह पालनेके अर्थे इष्ट आहार आदिमें प्रवर्ते, अनिष्टथी
__ हेतु वस्तु आहार आदिकके वास्ते प्रवर्ती निवर्ते इतनाही जाणे पिण ओर उपदेशेन
| उपदेशेन न शके अने अनिष्ट थकी निवर्ती न कछु पूर्वापर अर्थ न जाणे तेहने संज्ञी हेतूपदेशेन संज्ञी कहीये.' ते संमू- असंज्ञी शके ते स्थावर-नाम-कर्मके उतर
करी तेहने हितो(हेतू)पदेशे करी छिम पंचेन्द्रिय मनुष्य, तिर्यंच, | विकलेन्द्रिय प्राणी जानना.
असंज्ञी' कहीये. दृष्टिवाद० जे प्राणीने सम्यग्दृष्टि हुइ. दृष्टिवाट जे प्राणीने मिथ्यादृष्टि प्रबल हुइ दृष्टिवाद
वाद वीतराग भाषित वचन उपरि रुचि उपदेशेन
उपदेशेन वातरागना वचन अनेकांत-स्याद्वासंक्षी हुइ ते 'दृष्टिवादोपदेशे करी संज्ञी.'
दरूप जाण्यां नही ते प्रथम गुणस्थाचौथे गुणस्थानसे प्रारंभी सब जीव ।
| असंही
नवर्ती जीव जानना. ते दृष्टिवाद ज्ञेयं.
। उपदेशे करी असंज्ञी. ___ अथ पांचमा भेद सम्यक्श्रुतना कहीये है. सम्यक्श्रुतं जे श्रीजिनेन्द्र देवने वचन अनुसारे गौतम आदि गणधर रचित जे द्वादश अंग ते 'सम्यक्श्रुत' कहीये. तथा चौदा पूर्व धारीनो रच्यो यावत् दशपूर्वधारीनो रच्यो ते पिण 'सम्यक्श्रुत' जानना. दश पूर्वमे किंचित न्यून हुइ तेहनो भाष्यो सम्यकश्रुत हुइ अने नही पिण हुइ, "अभिन्नदसपुवि जस्स समसुयं तेण परं भयणा" इति वचनात.
१ रु। २ ऊन। ३ अभिन्नदशपूर्वाणि यस्य समश्रुतं तेन पर भजना ।
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५२
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव. अथ छट्ठा भेद-'मिथ्याश्रुतं'. मिथ्यादृष्टिनो भाष्यो जे भारत आदि वेद ४ प्रमुख जानना. इहां वली एक विचार है. सम्यक्श्रुत जो मिथ्यादृष्टि पढे तो 'मिथ्याश्रुत' कहीए. ते कोइ नयभेद समजे नही, रुचि पिण न हुइ तिवारे अनेकांत• एकांत परूपीने विघटा देवे, इस वास्ते 'मिथ्याश्रुत' कहीये. अने जो सम(म्यग्दृष्टि मिथ्याश्रुत पढे तो ते 'सम्यक् श्रुत' कहीए. ते शास्त्र भणीने पूर्वापर विचारे तिवारे अणमिलता लागे वेदमे पूर्वे तो इम कह्या है जे"न हिंसेत् (हिंसात्) सर्वभूतानि" पीछे फिर ऐसे कह्या है "यज्ञे पशून् हिंसेत्" ऐसा देखीने विचारे जो ए वचन तो परस्पर बाधित है तो धन्य श्रीवीतराग त्रिलोकपूजित जिहनी वाणी अनेकांत-स्याद्वादरूप किहां ही बाधित नही. एह छहा भेद श्रुतना.
सादि श्रुत सातमा द्रव्ये, क्षेत्रे, काले, भावे करी चार प्रकारका है. द्रव्यथी एक पुरुष आश्री श्रुतनी आदि है. जिहां सम्यक्स पाइ तहांसे आदि है. क्षेत्रथी पंच भरत, पंच ऐरवतनी अपेक्षा आदि है। प्रथम तीर्थकरने उपदेशे प्रगट हूया. कालथी अवसर्पिणी कालना त्रीजा आराके अंते, उत्सर्पिणीमे त्रीजे आरेके धुरे उपजे इस अपेक्षा आदि है. भावथी. अत्र भाव ते उपयोग कहीए, जद(ब) श्रुतमा उपयोग दीया तिहां आदि कहीये. इति सप्तमं.
द्रव्यथी क्षेत्रथी । कालथी भावथी
एक पुरुष आश्री | पंच भरत, पंच | अवसर्पिणीमे सपर्यवसित सम्यक्त्व वमी वा ऐरवते जिनशासन पंचमे आरेके अंते, | उपयोग नही तदा श्रुतयंत्रं ८ | केवल पाम्या तदा विच्छेद आश्री अंत उत्सर्पिणीमे चौथेमे अंतश्रुत ज्ञाननो
अंत श्रुतनो. श्रुतनो अनादि | घणे पुरुष आश्री विदेह आश्री अनादि नोअवसर्पिणी- ! क्षयोपशम भाव श्रुत ९ | अनादि श्रुत जानना सर्वाद्धा तीर्थ नोउत्सर्पिणी आश्री
आश्री प्रवाह सदा
अनादि सर्व पुरुष आश्री सर्व क्षेत्र आधी नोअवसर्पिणीअनंत दशमा
| क्षयोपशम भाव
नोउत्सर्पिणी आश्री अंत नही श्रुतनो अंत नहीं ।
अंत नही
| आश्री अंत नहीं . गमिक श्रुत एक सदृश सूत्र है, पिण किंचित् विशेष पामीने वार वार उचरे ते 'गमिक श्रुत' कहीए. ते बाहुल्येन दृष्टिवाद जानना. अगमिक श्रुत बारमा. गमिकथी विपरीत ते 'अगमिक' ते आचारांग आदि जानना कालिक श्रुत इति. अंगप्रविष्ट द्वादशांगी जानना. अनंगप्रविष्टके दो भेद-आवश्यक. अवश्य करीये ते 'आवश्यक ते सामायिक आदि पडू अध्ययन. दूजा भेद आवश्यकातिरिक्तं. ते आवश्यकथी भिनना दो भेद-कालिक मे दिवस निशानी प्रथम पश्चिम
१ मोटे भागे।
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तस्व]
नवतत्त्वसंग्रह पोरसीमै पढीये ते 'कालिक'-उत्तराध्ययन आदि, नंदीसे जानना. उत्कालिक दशवैकालिक प्रमुख जानना. इन १४ भेदमे लौकिक लोकोत्तर भेद है सो समज लेना. एह चौदा भेद पुरा हूये.
अथ श्रुतज्ञान लेनेकी विधि लिख्यते
सुस्सूसइ पडिपुच्छइ
सुणेइ । गिण्हह । ईहए । अपोहइ | धारेइ
करेह
राखें,
से करे ए
शिष्य सिद्धांत संदेह पडे तथा जे गुरु पीछे जे संदे ते अर्थ वळी ते अर्थ पीछे ते पछे जे अनुलेनेहार होवे विनय करी संदेहना | हनो अर्थ पूर्वापर | विचारीने अर्थष्ठान जिस तो प्रथम एक नमन होकर अर्थ कहै ते गुरे कह्या ते विरोध टा पछी निश्चय हियेमे | विधिसे चित्तपणे गुरुना फरक
फेरकर पूछे अछीतरे अर्थ रूडी ळीने हद- करे एहजार कहा है
एदूजा गुण. सावधान परे ग्रहण यमे विचार वात इम ही तिस विधि: मुहथीनीकल्या
होकर सुणे. कर रखे. ना करे. है. वचन सांभलने
आठमा गुण वांछे ए प्रथम
न हुइ. जानना. गुण है.
(४१) सात प्रकारे शास्त्र सुननेकी विधियंत्रं मूअ१ । हुंकार २ वाढक्कार ३ पडिपुच्छ ४ विमंसा ५ पसंगपराय परीयण ठिय प्रथम जद शिष्य दूजी वार अर्थ तीजी वार गाढा चौथी वार पांचमी वार छठी वार ते सातमी वारे गुरु कन्हे अर्थ सुणीने मस्तक प्रगट बोले हे संदेह ऊठे ते अर्थ अर्थके पार गुरुनी परे सुणे तद विनय | नमाय कर भगवन् ! ए वात तो प्रश्न | हियेमे | जाय. शिष्य अर्थ करी शरीर संको- हुंकारा देवे. इम ज है, | पूछे.
विचारे.
कहै. ची मौन करे.
अन्यथा नही. अथ शिष्य प्रते गुरु सिद्धांतना अर्थ किस रीतसे कहे ते वात कहीए है. गाथा
"सुत्तत्थो खलु पढमो बीओ निज्जुत्तिमीसओ भणिओ।
तइओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगो॥" सुत्त पहिला गुरु सूत्रना अक्षरार्थ मात्र अछीतरे प्रकाशे; तिहां विशेष काइ न कहइ. किस वास्ते ? पहिला विशेष कहतां शिष्यनी बुद्धि मूढ हो जावे, कुछ भी समजे नही. पीछे दूजी वार अर्थ जाण्या पीछे नियुक्ति सहित सूत्र विशेष वखाणे. ते विशेष रूडी परे जाण्या पीछे वली तीजी वारे शिष्यने निरवशेष ते सूत्र माहिला विशेष अने सूत्रमे जो न कह्या गम्य शेष आदि सगला प्रकाशे. ए सिद्धांतना अनुयोग कहीए अर्थ कहेवानी विधि जाननी. इति श्रुतज्ञानस्वरूप संक्षेपथी संपूर्ण.
१ सूत्रार्थः खलु प्रथमो द्वितीयो नियुक्तिमिश्रको भणितः । तृतीयश्च निरवशेष एष विधिर्भवत्यनुयोगः ॥
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव. अथ अवधिज्ञानस्वरूप कथ्यते-अवधिना भेद असंख्य, अनंत है. ते सर्वका स्वरूप नाही लिख्या जावे है। इस वास्ते चौदे भेदे अवधिज्ञाननउ निक्षेप कहीए स्थापना कहुं हुं (१) अने पंदरवे द्वारे ऋद्धिप्राप्त कहीए लब्धिवंत, तिस वास्ते कितनीक लब्धिना स्वरूप कहसु. अवधिना चौदे द्वारका नाम यंत्रसे जानना... १ अवधि-अवधिज्ञानना प्रथम द्वारे नाम आदिक भेद कथन करियेंगे. २ क्षेत्रपरिमाण-अवधिज्ञानका क्षेत्रपरिमाण कथना. ३ संस्थान-अवधिज्ञानका संस्थान-आकारविशेष कहना. ४ अनुगामी-अनुगामी एक अवधि लोचननी परे धणीके साथ जावे ते 'अनुगामी' अने जे धणीके साथ न जावे ते 'अननुगामी' तेहना स्वरूप. ५ अवस्थित जैसा अवधि उपज्या है तितना ही रहै, वधे घटे नही ते 'अवस्थित'. ६ चल-वधे घटे परिणामविशेषे ते 'चल' अवधि कहीये. ७ तीव्र मंद-कितनाका अवधि चोखा ते 'तीव्र', डोहलारूप ते 'मंद' कहीये. ८ प्रतिपाति-अवधिनो उपजणो विणसनो ते 'प्रतिपाति'. ९ ज्ञान-ज्ञानद्वारे वखाणवो. १० दर्शन-दर्शनद्वारे वखाणवो. ११ विभंग-मिथ्यात्वीका अवधिज्ञान ते 'विभंग.' १२ देश-अवधि देश थकी उपजे अने सर्व थकी उपजे. १३ क्षेत्र-क्षेत्र विषे संबद्ध असंबद्ध विचाले अंतर हूइ ते. १४ गति-गइंदिकाये मतिज्ञानवत् वीस द्वारे. १५ ऋद्धिप्राप्त-लब्धिका खरूप. एह सामान्य प्रकारे द्वारनामार्थकथनम्. (४२) अथ प्रथम अवधिज्ञानना नामद्वारमे नामादि छ प्रकारे
स्थापनासार्थकयंत्रं नाम-अवधि स्थापना-अवधि द्रव्य-अवधि क्षेत्र अवधि काल-अवधि भव-अवधि | भाव अवधि
१ २ ३ ४ ५ ६ । नाम-अवधि स्थापना-अवधि द्रव्य-अवधि जिस क्षेत्रमे तथा काल- भव-अवधि भाव-अवधि जीवका अथवा अवधिशानीये अवधिज्ञाननो रहीने अवधि. जिस नारकीने | क्षयोपशम
अजीवका जे द्रव्य अथवा धणी पुरुष अवधिशाने कालमे अवधि भवे अथवा आदि भावे जे 'अवधि' ऐसा क्षेत्र दीठा है |जिस अवसरमे करी वस्तु उपजे ते | देवताने |
| अवधिज्ञान नाम देवे ते तिसका जो असावधान | देखे 'काल-अवधि भवविषये |
उपजे ते 'भाव
अवधि;' 'नाम-अवधि आकार अथवा होय तथा ते 'क्षेत्र- अथवा जिस जे अवधिः
अथवा जे अथवा अवधि अवधिनो धणी उपयोग रहित अवधि' | कालमेशान उपजे द्रव्यनापर्याय ऐसा जो नाम जे पुरुष तेहनो 'अवधि' शब्द कहीए. | अवधिका ते 'भव- तेहने 'भाव' ते 'नाम- जे आकार उचरे ते 'द्रव्य
व्याख्यान अवधि' ज्ञान कहिये ते भाव अवधि' कहीए. स्थापीये ते | अवधि.'
करे-प्रकाशे ते कहिये | आश्री जे स्थापना-अवधि
'काल-अवधि
अवधि ते ... . .
भाव-अवधि.' कहीये.
कहीये
इति सप्तार्थ.
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह , ____ अथ दजा क्षेत्रपरिमाणद्वार कहे है-तीन समयका उपनो आहारक सूक्ष्म पनक फलिननो जीव तेहनो शरीर जितना बड़ा होवे म्है (है ?) तितना अवधिज्ञानी जघन्य क्षेत्र देखे. हिवै सूक्ष्म पनक जीव कह्या ते कैसा ते कत कहे है. सहस्र योजन प्रमाण शरीर जे मत्स्य हुइ ते मत्स्य मरीने पहिले समय आपणा शरीर नऊ कडाह संहरीने सहस्र योजन प्रमाण प्रतर कहीये. मांडा (मादा) रूप थइ अने बीजे समये ते शरीर नउ प्रतर संहरीने सहस्र योजन प्रमाण सूचीने आकारे हुये अने तीजे समये ते सूचीरूप शरीर संहरीने सूक्ष्म रूप थइने ते मत्स्यनो जीव आपणा शरीर बाहिर जे पनग हूये तिस माहे उपजे ते 'सूक्ष्म पनक' कहीए. जब तीन समयका उपना आहार करे तेहनो शरीर जितना बडा होवे तितना क्षेत्र अवधिज्ञानी जघन्य जाणे. इति जघन्य अवधिक्षेत्रम्.
अथ अवधिका उत्कृष्ट क्षेत्र कहीये है-श्रीअजितनाथने वारे पंदरे कर्मभूमे उत्कृष्टा घणा मनुष्य हुइ अने अग्निनो आरंभ मनुष्य ज करे तिस वास्ते बादर अग्निना जीव पिण घणा हुइ ते बादर अने सूक्ष्म अग्निका जीवांकी श्रेणि माडीइ ते श्रेणि इतनी बडी नीपजे लोकमे व्यापी अलोकमे लोक सरीषा. असंख्याता खंड व्यापे ते श्रेणि अवधिज्ञानीने शरीरे लगाइने चारो ओर फेरीये तिस श्रेणिने चारो ओर असंख्य रज्जु परमाणु जितना क्षेत्र स्पा है तितना क्षेत्र उत्कृष्ट परम अवधिज्ञानी देखे. अलोकमे देखने योग्य वस्तु तो नही, पिण शक्ति इतनी है जो कर वस्तु होती तो देखता. इति उत्कृष्ट अवधिक्षेत्रम्.
अथ अवधिज्ञान आश्री क्षेत्रनी वृद्धिये कितना काल वधा अने कालनी वृद्धिये कितना क्षेत्र वधे ते (४३) यंत्रात्क्षेत्रथी जाणे
| ते कालथी कितना जाणे? १ अंगुलके असंख्यातमे भाग १ ते आवलिके असंख्यमे भाग , संख्यातमे ।
, , संख्यातमे भाग एक अंगुल प्रमाण क्षेत्र
एक आवलिका ऊणी पृथक अंगुल क्षेत्र देखे
, पूरी जाणे एक हस्त " "
अंतर्मुहूर्तनी वात जाणे , कोश , ,
एक दिवस ऊणी किंचित् , योजन , ,
पृथक् दिवस ९ ताई २५ , " "
एक पक्ष किंचित् न्यून
७
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव
-
क्षेत्रथी जाणे
ते कालथी कितना जाणे? भरतक्षेत्र परिमाण देखे
अर्ध मास कालथी जंबूद्वीप देखे ते
एक मास झाझेरा अढाइ द्वीप परिमाण देखे
एक वर्ष कालथी रुचक द्वीप तेरमा
पृथक् वर्ष संख्याते द्वीप देखे ते
संख्याता कालकी वात १४ - संख्याते वा असंख्य द्वीप १४ कालथी असंख्य काल
संख्याते योजन परिमाण द्वीप समुद्र असंख्याते देखे असंख्य योजन परिमाण द्वीप संख्याते देखे.
हिवै द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव एह चारोमे वृद्धि हुइ कौनसेकी वृद्धि हुइ अने कौनसे की न हुइ ते (४४) यंत्रम्काल वधे क्षेत्र वधे द्रव्य वधे
पर्याय वधे द्रव्य , क्षेत्र काल भजना काल भजना
काल भजना द्रव्य वधे भाव , भाव , पर्याय वधे
द्रव्य " इस यंत्रका भावार्थ-काल आश्री जिवारे अवधिज्ञान वृद्धि हुई तदा क्षेत्र, द्रव्य, पर्याय एह तीनो वधे अने क्षेत्रकी वृद्धि हुये कालकी भजना कहनी-बधेवी अने नही वी वधे. किस वास्ते ? क्षेत्र अतिसूक्ष्म है अने काल स्थूल-मोटा कह्या है तिस वास्ते जो घणा क्षेत्र वधे तो काल वधे अने जो थोडा क्षेत्र वधे तो काल कुछ भी नही वधे इति भावः. वली क्षेत्रनी वृद्धि होय तो द्रव्य अने पर्याय निश्चय ही वधे. किस वास्ते ? क्षेत्रथी द्रव्य अतिसूक्ष्म है. एक आकाशप्रदेश क्षेत्रमे अनंता द्रव्य समा रहा है. अने द्रव्यथी पर्याय अतिसूक्ष्म है. कसात् ? एक द्रव्यमे अनंती पर्याय पीत रक्त आदि है तिस वास्ते क्षेत्र वधे द्रव्य, पर्याय दोनो वधे. तथा द्रव्य अने पर्यायके वधे क्षेत्र कालके वधनेकी भजना. द्रव्य अने पर्याय सूक्ष्म है अने क्षेत्र काल मोटा है इस वास्ते वधे अने नही पिण वधे. तथा द्रव्य वधे पर्याय निश्चय वधे अने पर्याय वधे द्रव्य वधे वी अने नही पिण वधे.
१ शाथी।
-
क्षेत्र
,
क्षेत्र
,
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dिeo:edeoledeodecealeeDoeD:60त पालणपुरनिवासी दोसी काळीदास सांकळचंद तरफथी तेमनां मातुश्री
स्व. बाई परसनबाईना स्मरणार्थे.
Seoedeooooooes@
व्यवगणारदविवार ययदगलास्वरुपहलीकसवलोका
लगलकरीनस्थाहै नकलकिमरदै। कालवगानादगाएतकला
तिकदीटोलकीपारीन्पारीवर्गरणा नदारीकच्योरपवर्गरंगा५ वगणादिसरीषा२श्यनाथोकडाकही।
तिवायरपरकालश्नावशीध्वारा नदारिकयोग्यवगा६
कारेदतेकिमएकपरमाएकएकलाश्मनि ननयाऽमोग्पवर्गा७
तनापरमाएफयादेतहनीएकवाजानना
दादीपरमाएफमिलरददैतदनांजीवर्गm विकिय योग्यवर्गणा
श्मतीनतीननीतीजीएक्वारश्नीश्मसंख्या
तिपरभाकयेशुसंरवपरमाएफयेथनंतपर नन्नयाऽयोग्यबरिणा
माएकटयेतेव्हनीन्पारीश्वगलाजाननाममश्य! शव्दारकयोग्पनगरा१०
वगणाधनंतीहासदातिश्च्यवगाथा
क्षिधाश्रीजेपरमायावधवामोटाड्य| क्याअयोग्पवरणा विश्राकामापदेचारप्सातेसवनीएकवगा||
एमदोपदेशरप्लानीड्जीवाश्मतालगे। तिनसओग्पदगण १२
लिनाजोलगभूसंरवपदेशव्यापेतहनीन्पारी
वर्गलाषाश्रीअरपातीरुश्दै तथाका ननय अयोग्पवर्गा३
लाधीतएकपरमाएफदोपुरमाएफएवंतीनचा नाषायोग्यवहा १४ रसरवतिसरयातेधनंतेमरमाएफएफवेमि
लरसिदैनमेजितन्याकीएकसमयकीरिष ननसाऽयोग्पवगण २५
तितिनसर्वकीएकवगएणएकदासमयी शनधारणयोग्पवर्गार रहतेव्हनीजीवरिणामअसंरक्समयसि
तिलगञ्चसंख्यातीवगणाजानलेनोश्तयाला शेनयश्रोग्पवगरणार
वाश्रीदिजपरमाएफया कितनककालाकिन मनयोग्पवगणार
नाहीधवलाकितनानीला कितनापालाश्मव
गंधरसस्पकिरीजपरमारकन्याराऊ उनयायोग्पवर्गणा र तिसर्वनापारीअनंतीवगणाजाननी एवं४व] कर्मयोग्यवगण)२०
गएmaयाकितनाकपुलरकंधयोनापरमाए
अनेदादरंपरिणामेतेनदारिकशरीरनेत्र वगण २१
याम्पतिसवास्तग्दारिकश्चयोग्पगलाय
कहीये तिसचीवधिकसरपुलस्कंध अद। योग्पकरबगरा २२
रकवारीरनेपरिणमावायोग्यतेनदारीकयो। श्योरपकववm२३ ग्पवगातेधीशधिकपुऊलमबरकरार
सूक्ष्मपरगामीदेतेमदारिकनेयोग्पनहोत्री कवदा २४
निवकियात्रीयोनापरमागअनेदादरपण वन्पतरवगरणा२५ रिएण्मतिसवास्तवकियोकामनंदीश्रा
विश्सवास्तेननयाऽयोग्पवरणाकहीये एवं श्रुन्पतरचमणरक्ष
कर्मयोग्पवर्गाताश्तीनतीनवगरणजानना कवानंतरदगार एकअयोग्परजीयारपरतीजीनयाश्योरम तलवगामिप्रस्कंधारअन्दारिकंवएववर्गारण्टोती विज्ञमलारकंधशा
नायरमीझववगनास्वरुपकर्मवादिनामी
Co@soeeDoe3 @eeCe@@eo:Core@eo)
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जैनाचार्य श्री १००८ श्रीविजयानंदसूरीश्वरजीकृत नवतत्त्वसंग्रहनी
स्वहस्ते लखेली प्रति उपरथी. Dedeolediedeletedlediedledlede0
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तत्त्व]
नंवतत्त्वसंग्रह हिवै पीछे कालथी क्षेत्र सूक्ष्म कह्या ते कितरमे भाग सूक्ष्म है ते वात कहीये है. प्रथम तो काल सूक्ष्म. एक चुटकी वजातां असंख्य समय वीते. तेह थकी क्षेत्र असंख्यात गुणा सूक्ष्म. एक अंगुल मात्र क्षेत्रमे जितने आकाशप्रदेश है ते समय समय एकेक काढता असंख्याती अवसर्पिणी बीते. क्षेत्रथी द्रव्य सूक्ष्म अनंत गुणा. एकेक प्रदेशमे अनंते द्रव्य है. ते द्रव्यथी पर्याय सूक्ष्म अनंत गुणी. एकेक द्रव्यमे अनंती है.
अथ हिवै जदा पहिला अवधिज्ञान उपजे तदा पहिला कौनसा द्रव्य देखे ते वात कहीये है-ते पुरुष आदिकने जद पहिला अवधिज्ञान उपजे ते पहिला तैजस शरीर योग्य जे द्रव्य अने भाषा योग्य जे द्रव्य ते दोनोके विचाले जे अयोग्य द्रव्य है, ते द्रव्य कैसा है ? कुछ भारी है, कुछ हलका है ते 'गुरुलघु कहीये अने जे भारी पिण न हुइ अने हलका पिण न हुइ ते 'अगुरुलघु' कहीये. जघन्य अवधिज्ञानना धणी गुरुलघु, अगुरुलघु ए दोनोही देखे. एक कोइ तैजस शरीरके समीप है ते गुरुलघु है अने जे भाषाद्रव्यके समीप है ते अगुरुलघु है. पीछे जे जघन्य अवधि कह्या तिसके स्वरूपके वास्ते वर्गणाका स्वरूप लिख्यते
- (१) द्रव्यवर्गणा, (२) क्षेत्रवर्गणा, (३) कालवर्गणा, (४) भाववर्गणा, (५) औदारिक अयोग्य वर्गणा, (६) औदारिक योग्य वर्गणा, (७) उभय अयोग्य वर्गणा, (८) वैक्रिय योग्य वर्गणा, (९) उभय अयोग्य वर्गणा, (१०) आहारक योग्य वर्गणा, (११) उभय अयोग्य वर्गणा, (१२) तैजस योग्य वर्गणा, (१३) उभय अयोग्य वर्गणा, (१४) भाषा योग्य वर्गणा, (१५) उभय अयोग्य वर्गणा, (१६) आनप्राण योग्य वर्गणा, (१७) उभय अयोग्य वगेणा, (१८) मन योग्य वर्गणा, (१९) उभय अयोग्य वर्गणा, (२०) कर्म योग्य वर्गणा, (२१) ध्रुव वर्गणा, (२२) योग्य ध्रुव वर्गणा, (२३) अयोग्य ध्रुववर्गणा, (२४) अध्रुववर्गणा, (२५) शून्यतरवर्गणा, (२६) अशून्यतरवर्गणा, (२७) ध्रुवानंतरवर्गणा, (२८) तनुवर्गणा, (२९) मिश्र स्कंध, (३०) अचित्त महास्कंध.
अथ वर्गणा स्वरूप-इह लोक सर्व अलोक लग पुद्गले करी भर्या है. ते पुद्गल किम किम है ते कहीये है. पुद्गलकी न्यारी न्यारी वर्गणा है. 'वर्गणा' शब्दे सरीषा सरीषा द्रव्यना थोकडा कहीए. ते वर्गणा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावथी चार प्रकारे है. ते किम ? एक परमाणु एकला इम जितना परमाणुया है तेहनी एक वर्गणा जाननी. दो दो परमाणु मिल रहे है तेहनी दूजी वर्गणा. इम तीन तीननी तीजी. एवं चार चारनी. इम संख्याते परमाणुये, असंख्य परमाणुये, अनंत परमाणुये तेहनी न्यारी न्यारी वर्गणा जाननी. इम द्रव्यवर्गणा अनंती होय है. इति द्रव्यवर्गणा. अथ क्षेत्र आश्री जे परमाणुया अथवा मोटा द्रव्य एके आकाशप्रदेशे रह्या ते सर्वनी एक वर्गणा. एम दो प्रदेशे रयानी दूजी वर्गणा. इम तां लगे लेना जां लग असंख्य प्रदेश व्यापे. तेहनी न्यारी न्यारी वर्गणा क्षेत्र आश्री असंख्याती हुई है. तथा काल आश्री ते एक परमाणु, दो परमाणु एवं तीन, चार, संख्याते, असंख्याते, अनंते परमाणु एकठे
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवमिले रहे है. इनमे जितन्याकी एक समयकी स्थिति है तिन सर्वकी एक वर्गणा. एकत्र दो समय रहै तेहनी दजी वर्गणा. इम असंख्य समयस्थिति लग असंख्याती वर्गणा जान लेनी. तथा भाव आश्री तेहि ज परमाणुया कितनेक काला, कितना ही धवला, कितना नीला, कितना पीला इम वर्ण, गंध, रस, स्पर्श करी जे परमाणु न्यारा न्यारा हुइ ते सर्वनी न्यारी न्यारी अनंती वर्गणा जाननी. एवं ४ वर्गणा. तथा कितनाक पुद्गलस्कंध थोडा परमाणु अने बादर परिणाम है ते औदारिक शरीरने अयोग्य है तिस वास्ते 'औदारिक अयोग्य वर्गणा' ५ कहीये. तिसथी अधिकतर पुद्गलस्कंध औदारिक शरीरने परिणमावा योग्य है ते 'औदारिक योग्य वर्गणा.' ६ तेहथी अधिक पुद्गलमय स्कंध सूक्ष्म परिणामी है ते औदारिकने योग्य नही अने क्रिय आश्री थोडा परमाणु है अने बादर परिणाम है तिस वास्ते वैक्रियके काम नही आवे; इस वास्ते 'उभय अयोग्य वर्गणा' ७ कहीये. एवं कर्म योग्य वर्गणा ताइ तीन तीन वर्गणा जाननी:-एक अयोग्य, दूजी योग्य, तीजी उभय अयोग्य. अर्थ औदारिकवत्. एवं वर्गणा २० होती है. अथ २१ मी ध्रुववर्गणाना स्वरूप-कर्मवर्गणाथी अधिक पुगलमय एकोत्तर वृद्धि अनंत परमाणुरूप ध्रुववर्गणा है. इह वर्गणा चउदा रज्वात्मक लोकमे सदैव पामीये, इस वास्ते 'ध्रुव वर्गणा' २१ कहीये. पिण एह एकोत्तर वृद्धिये वधती अनंती जाननी. पीछे औदारिकादि वर्गणा जगमे सदैव लामे तिस वास्ते तिनका नाम 'योग्य वववर्गणा' २२ कहीये. अने ए २१ मी वववर्गणा अतिसूक्ष्म परिणाम बहुद्रव्यमय भणी औदारिकादिने योग्य नही, तिस वास्ते इसकीही संज्ञा 'अयोग्य ध्रुववर्गणा' २३ है. ते ध्रुववर्गणाथी अधिक पुद्गलमय वली एक अध्रुववर्गणा है. ते पुद्गलद्रव्य चउदे रज्वात्मक लोकमे कदे पामीये कदे नहि पामीये, इस वास्ते इसका 'अनुववर्गणा' २४ नाम. एह पिण एकोत्तर वृद्धि वाधती अनंती जाननी. एह पिण औदारिकादिकने योग्य नही, सूक्ष्म अने बहुद्रव्यत्वात्. तिसथी अधिक पुद्गलमय 'शून्यतर वर्गणा' हे. शून्यतर क्या कहीये? एक परमाणु, दो परमाणु, तीन परमाणु इम एकेक परमाणु करी वर्गणा वधे तां लगे जां लगे अनंता परमाणु मिले पिण ए वगेणा वधतां वीचमे. एकोत्तर वृद्धिनी हाण पडे अने वली पांच सात परमाणु लगे एकोत्तर वृद्धि वधे अने वीचमे वली एकोत्तर वृद्धिनी हाण पडे इम एकोत्तर वृद्धि आश्री वीचमे शून्य पडे; इस वास्ते 'शून्यतर वर्गणा.' २५ एह पिण अनंती जाननी. तथा तिसथी अधिक पुगलमय अशून्यतर वर्गणा है. ते वर्गणामे एकोत्तर वृद्धि आश्री वीचमे शून्य न पडे; इस वास्ते 'अशून्यतर वर्गणा' २६ ऐसा नाम. एह पिण औदारिकादिने योग्य नही. तेहथी अधिक पुद्गलमय चार प्रकारे 'ध्रुवानंतर वर्गणा' है. इस जगतमे सदैव लामे, तिस वास्ते ध्रुव अने आरंभ्या पीछे एकोत्तर वृद्धिका अंतर न पडे, इस वास्ते अनंतर दोनो मिली 'ध्रुवानंतर' नाम. चार भेद मोटा. एकोत्तर वृद्धिये अंतर पडे पहिली. एक फेर एकोत्तर वृद्धि अनंत लग वधीने फेर मोटा अंतर ए दूजी. एवं चार जान लेनी. २७ ध्रुवानंतरथी अधिक पुद्गलमय एकोत्तर वृद्धिये वधती चार 'तनु १. कश्चित् । २ घणां द्रव्यमय होवाथी ।
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह वर्गणा' है. ते पिण ध्रुवानंतर वर्गणावत् बीच बीच अंतर पडनेसे चार प्रकारे जाननी. ते
औदारिक आदि पांच शरीरने योग्य तो नही पिण अगले पुगलके विछडनेसे अने नवे पुद्गलके मिलनेसे घटती वधती शरीरने योग्यता अभिमुख हुइ तिस वास्ते ते 'तनु वर्गणा' २८ नाम. ध्रुवानंतर वर्गणावत् चार भेद जानने. तेहथी अधिक पुद्गलमय एक मिश्र स्कंध है. एह स्कंध घणा सूक्ष्म है अने कुछक बादर परिणाम है. इन दोनो परिणामके वास्ते 'मिश्र स्कंध' नाम. तेहथी अधिक पुद्गलमय 'अचित्त महास्कंध' है. ते घणा पुद्गल एकठा मिली ढिग रूप होता है. ते 'अचित्त महास्कंध' विस्रसा परिणामे करी केवलिसमुद्धातनी परे चउदे रज्यात्मक लोक व्यापे अने चार समयमे पीछे फिर कर स्वस्थानमे आवे. इम सर्व समय आठ जानने. एह स्कंध कदे हूये अने कदे नही बी होय. पुद्गल तो सर्व अचित्त ही है, तो इसका नाम 'अचित्त स्कंध' कयुं कह्या इति प्रश्न. अथ उत्तरम् केवली जद समुद्धात करे तदा जीवना प्रदेशे करी मिश्र जे कर्मना पुद्गल तिण करी सर्व लोक व्यापे ते 'सचित्त कर्म पुद्गल' कहीये. तिसके टालने वास्ते 'अचित्त' शब्द कीधा. इति संक्षेप करके वर्गणा वरूपम्.
इण औदारिक आदि द्रव्यमे कौनसा गुरुलघु है अने कौनसा अगुरुलघु है ए वात कहीये है. औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस ए चार द्रव्य अने तैजस द्रव्यके नजीक जे द्रव्य है (ते) सर्व द्रव्य 'गुरुलघु' है, बादर परिणाम करके अने कार्मण, मनोद्रव्य, भाषाद्रव्य, आनप्राणद्रव्य अने भाषाद्रव्यके समीपका द्रव्य ते सर्व सूक्ष्म परिणाम करके 'अगुरुलघु' कहीये. जघन्य अवधिक विषयके ए गुरुलघु अने अगुरुलघु द्रव्य जाने देखे.
हिवै द्रव्यकी वृद्धि हूया क्षेत्र, काल कितना वधे ए वात कहीये है. (४५) यंत्रसे इसका स्वरूप
क्षेत्रथी
कालथी मनोद्रव्य देखते लोकका संख्यातमा भाग | पल्योपमका संख्यातमा भाग
द्रव्यथी
कर्मद्रव्य ,
-
ध्रुवानंतर वर्गणा, शून्यतर
| चौद रज्वात्मक लोक देखे । पल्योपम किंचित् न्यून देखे वर्गणा आदि देखे तैजस, कार्मण शरीर तैजसः योग्य भाषायोग्य वर्गणा देखे. असंख्य द्वीप, समुद्र देखे
___असंख्य काल देखे __ अथ परमावधि ज्ञानना धणी उत्कृष्टा कौनसा सूक्ष्म द्रव्य देखे ते वात कहीये हैक्षेत्रके एक प्रदेशे रह्या परमाणु द्वयणुक आदिक द्रव्य परमावधिनो धणी देखे. अने कार्मण शरीर देखे. कार्मण शरीर असंख्याते प्रदेश नियमा अवगाहवे है. उत्कृष्ट अवधिनो धणी जितना अगुरुलघु द्रव्य जगमे है ते सर्व देखे. जो तैजस शरीर अवधिनो धणी देखे तो कालथी नव भव लगे देखे, ते नव भव असंख्य काल प्रमाणके जानने.
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवहिवै परमावधिनो धणी कितना क्षेत्र जाणे अने कितना काल जाणे ए वात कहीये है. (४६) यंत्रम्द्रव्यथी । क्षेत्रथी कालथी
भावधी सूक्ष्म, बादर सर्व सव सर्व लोक अग्निके सर्व...
व असंख्याती अवसर्पिणी एकेक द्रव्य प्रते संख्याता रूपी द्रव्य देखे
जीवाकी सूची प्रमाण | ___ अलोकमे देखे उत्सर्पिणी काल देखे| पर्याय देखे परमावधि
एह अवधि मनुष्य आश्री कह्या. हिवै तिर्यच आश्री भवधिज्ञान कहीये है. पंचेन्द्रिय तियंच अवधिज्ञाने करी औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस ए सर्व द्रव्य देखे अने इसके मापेका क्षेत्र, काल, भाव आपे विचारणा कर लेनी. एह मनुष्य तिर्यचने क्षयोपशमक अवधिज्ञान कह्या.
(४७) हिवै भवप्रत्यय नारकी देवताना अवधिमे प्रथम नारकीना अवधि क्षेत्र यंत्र लिख्यते
विषय | रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा पंकप्रभा | धूमप्रभा | तमप्रभा | तमतमप्रभा जघन्य ॥ गाउ ३ गाउ | २॥ गाउ | २ गाउ १॥ गाउ १ गाउ ॥ गाउ उत्कृष्ट । ४, ३॥ , ३ , २॥ , २ , १॥ , १ ,
असुर-जघन्य २५ योजन, उत्कृष्ट असंख्य द्वीप समुद्र. नव निकायव्यंतर-जघन्य २५ योजन, उत्कृष्ट संख्याते द्वीप. जोतिषी-जघन्य संख्याते द्वीप, उत्कृष्ट संख्यतर द्वीप. सौधर्म ३-४ ५-६ - ७-८
| ९-१२ । ६ अवेयक ३ ग्रैवेयक ५ अनुत्तर ईशान खर्ग स्वर्ग स्वर्ग स्वर्ग रत्नप्रभाका दूजीका त्रीजीका चौथीका पांचमीका छठीका सातमीका किंचित् नीचलाचरम नीचला
चरम अंत
चरम अंत न्यून लोक अंत चरम अंत
| सर्व 'सौधर्म' देवलोकथी नव अवेयक पर्यंत जघन्य अंगुलके असंख्यमे भाग देखे. पूर्व भव अवधि अपेक्षा सर्व विमानवासी ऊंचा तो अपनी ध्वज ताई देखे अने तिरछा असंख्य द्वीप, समुद्र देखे. असंख्यातके असंख्य भेद है.
(४८) हिवै आयु आश्री अवधिज्ञान कितना होवे है ते यंत्रात् ज्ञेयं. अर्ध सागरथी ओछी आयुवाला । संख्याते योजन प्रमाण देखे उत्कृष्ट पूरी अर्ध सागरनी आयुवाला देवता अर्ध सागरसे उपरांत जिसकी आयु है ते
असख्य
"
"
"
-
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नवतत्त्वसंग्रह (४९)
जघन्य अवधि
सर्व
उत्कृष्ट अवधि
बाह्य
मध्यम
| अभ्यंतर अवधि अस्ति अस्ति
देश अवधि
अवधि
देव नरक
अस्ति
तिर्यंच | अस्ति
अस्ति
मनुष्य
अस्ति
अस्ति
अस्ति (५०)
अनुगामी
अननुगामी
वर्धमान
हीयमान
प्रतिपाति
अप्रति- अव- | अनवपाति स्थित स्थित अस्ति
देव नरक
अस्ति
मनुष्य
,
अस्ति
| अस्ति । अस्ति । अस्ति
" | "
अस्ति
तिर्यच
ए यंत्र दोनो प्रसंगात. तथा उत्कृष्टा अवधिज्ञान दो प्रकारे है-एक प्रतिपाति, दूजा अप्रतिपाति. जो उत्कृष्टा चौद रज्वात्मक लोक लगे व्यापे पिण अगाडी अलोकमे एक प्रदेश तक (भी) व्यापणेकी शक्ति नही तां लग अवधिज्ञान 'प्रतिपाति' कहीये; अने जे अवधि अलोकमे एके प्रदेशे व्यापे ते 'अप्रतिपाति.' इति क्षेत्रप्रमाण द्वार द्वितीय.
हियै तीजा संस्थान द्वार-जघन्य अवधिज्ञानका संस्थान पाणीके बिंदुवत् गोल है. अने उत्कृष्ट अवधिज्ञान वर्तुल आकारे ज हुइ, पिण कुछक लांबे आकारे हुइ. कमात् ? शरीरके चारों ओर अग्निके जीवांकी सूची फेरणे करी उत्कृष्ट अवधिका क्षेत्र कह्या है. अने शरीरका कोठा तो वर्तुल नही किन्तु कुछक लांबा है, इस वास्ते उत्कृष्ट अवधिज्ञानका संस्थान वर्तुल अने कुछक लांबा है. मध्यम अवधिज्ञानका संस्थान विचित्र प्रकारना है. ते यंत्रसे जानना. किंचित् संस्थान ज्ञानका.
(५१) (नारक आदिका अवधिका संस्थान) नारकीनो
भवनपति मनुष्य व्यंतर जोतिषी १२ देवलोक अवयक ५ अनुत्तर त्रापाने आकारे धान्य नाना पडहा झालर ते मृदंगने फलनी बालिकानो जिस करके | भरणेका प्रकारना बीचमे तो डोरूवजंतर आकारे चंगेरी- चोल जे बालनदीना पाणी ठेका तेहने संस्थान मोटा अने तेहने । एक पासे वत कने माथे उपर तरीये ते 'त्रापु'] संस्थाने असंख्य दोनो पासे संस्थाने चौडा, दूजे पिहरणनी परे कहिये तद्वत् भेदे सम तेहने
पासे
शरीरे पहेरे संस्थाने
सांकडा
तद्वत्
अवधि
तियच
संस्थाने ।
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव____ भवनपति व्यंतरनो अवधिज्ञान ऊंचा घणा अने और देवताके नीचा घणा तथा नारकी, जोतिषीने तिरछा षणा अने मनुष्य, तिर्यचने ऊंचा बी हुई अने नीचा बी होवे अने थोडा वी होवे अने घणा बी होवे; तिस वास्ते विचित्र कहा. इति संस्थानद्वार ३. . हिवै चौथा अनुगामीद्वार. अवधिज्ञान दो प्रकारे है. एक अनुगामिक १ अननु. गामी २. जिस पुरुषकू अवधिज्ञान उपना ते पुरुषके साथ ही अवधिज्ञान चाले, अलगन रहे; जिम हस्तगत दीवा जिहां जाय तिहां साथ ही आवे तिम अवधिज्ञान पुरुषके साथ ही आवे ते 'अनुगामिक'; अने जे अवधि पुरुषको जौनसे क्षेत्रे उपना है ते अवधिज्ञान तिस हीज क्षेत्रे रहै, पुरुष साथ अन्यत्र जगे न जाय जिम सांकले बांध्या दीवा जिहां है तिहां ही रहै तिम ते अवधिज्ञान जिस क्षेत्रे उपना तिहां ही प्रकाश करे, पुरुष चले साथ न चले अने तेही पुरुष जदि फिरकर तिस ही क्षेत्रमे आवे तदा अवधिज्ञान फेर होवे ते 'अननुगामिक' अवधिज्ञान कहीये. हिवे तेहना स्वरूप लिखीये है
अनुगामी १ अननुगामी २ मिश्र ३ मिश्र कया कहीए ? जे अवधिज्ञान उपना एक पासेका तो तिहां ही रहै अने दूजे पासेका पुरुषके साथ चाले ते 'मिश्र' अवधिज्ञान कहीये. फिरकर तिस ही क्षेत्रमे आवे तो चारो ओर फेर देखने लगे है. एह अवधि मनुष्य, तिर्यचने होता है. ए अनुगामी द्वार ४. (५२) हिवे अवस्थित द्वार पांचमा कहीये है.
| क्षेत्र आधी | उपयोग आश्री गुण आश्री । पर्याय आश्री लब्धि आश्री स्थिति | स्थिति १ स्थिति २ .
स्थिति ४ । स्थिति ५ अवधि-३३ सागरोपम अंतर्मुहूर्त उपरांत आठ समयसे | पर्याय सात लब्धि आश्री शानकी अनुत्तर विमानके एक द्रव्यमे उप- उपरांत गुणमे | समय प्रमाण ६६ सागर पांच प्रकारे देवता आश्री योग नही रहै है| उपयोग नही | उपयोग रहै । साधिक
हिवै चल द्वार ६-जे अवधिज्ञान वधे वी अने घटे बी ते 'चल' अवधिज्ञान कहीये. ते छ प्रकारे वधे अने छ प्रकारे हान होय ते.
___(५३) यंत्रसे स्वरूप हान अने घृद्धिका जाननासंख्या ....... असंख्य | संख्यात | संख्यात | असंख्य भाग २ भाग ३ ।
अनंत गुण
गुण ५ असत् १०० १०० अधिक
१००
१०० कल्पना ९९ असत् ९९ ९८ कल्पना १००
१००
९०
हीन
१००
१००
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तत्त्व ]
नवतत्त्वसंग्रह
६३
(५४) हि ए छ प्रकार मे अवधिज्ञाननी वृद्धि हान कितने प्रकारे है ते यंत्रमे स्वरूप लिख्या
संख्या
हान ६
प्रकारे,
वृद्धि ६
प्रकारे
क्षेत्र आश्री हान काल आश्री हान द्रव्य आश्री हान | पर्याय आश्री हान वृद्धि वृद्धि वृद्धि वृद्धि
१ छ ।
असंख्य भाग हानि वृद्धि, असंख्य गुण हानि वृद्धि, संख्यात
असं० भाग हा० वृ० अनंत भाग हा० वृ० षटू प्रकारे हान वृद्धि असं० गुण हा० वृ० अनंत गुणा हा० वृ० छ प्रकारका स्वरूप सं० भाग हा० वृ० | २ द्रव्य घणा वधे यंत्र से जानना घटे अस्मात् २
सं० गुण हा०
वृ० ४
भाग हा० वृ०, संख्यात गुण हा० वृ० ४
इति छठा चल द्वार संपूर्णम् ।
हिवै ७ मा तीव्र मंद द्वार कहीये है - किताएक अवधिज्ञान फाडारूप हुई थोडासा दीसे अने बीचमे वली न दीसे, थोडेसे अंतरमे फेर दीसे. स्थापना :: इम फाडा रूप जानना. जिम जालीमे दीवेका तेज पडे छिद्रमे तो तेज है अने ओर जगे नही ते तेज फाडा फाडा रूप दीसे तिम जे अवधिज्ञाने करी किहां दीसे अने किहां नही दीसे, लगत मार प्रकाश न हुइ ते 'फाडारूप' अवधिज्ञान कहाता है, ते अवधिज्ञानना फाडा कितना होवे ते वात कहीये है
एक जीवने अवधिज्ञानका फाडा संख्याता अने असंख्याता हुइ पिण ते जीव जदा एक फाडा देखे तदा सर्व ही फाडा देखे. जिस वास्ते जीवके उपयोग एक ज होय है. एक वार दो उपयोग न हुइ, तिस वास्ते सर्व फाडयांमे एक वार एकठा ही उपयोग जानना. हिवै ते फाडा तीन प्रकारना है - कितनाक तो अनुगामिक १, कितनाक अननुगामिक २, कितनाक मिश्र ३. तीनाका अर्थ उपरवत्। तथा ते फाडा वली तीन प्रकारे है- एक प्रतिपाति है १, कितनेक अप्रतिपाति २, कितनेक मिश्र ३. हिवै जे अवधि उपजीने फाडारूप ते कितनाक काल रहीने विणसे ते फाडा 'प्रतिपाति' कहीये १; कितनाक न विणसे ते 'अप्रतिपाति' २; अने जे कितनेक फाडे प्रतिपाति अने अप्रतिपाति ते 'मिश्र' ३. ए अवधि मनुष्य, तिर्यंचने हुइ पिण देव, नरकने नही. अनुगामी अप्रतिपाति फाडारूप अवधिज्ञान 'तीव्र' चोखे परिणामे करी उपजे ते फाडा 'तीव्र' कहीये है. अने अननुगामी प्रतिपाति फाडारूप अवधि मंद परि णा करी उपजे है, तिस वास्ते 'मंद' कहीये है. इति तीव्र मंद द्वार ७.
अथ प्रतिपाति द्वार - अवधिज्ञानका एक समयमे उपजणा अने विणसना कहीए है, जे अवधि जीवके एके दिशे उपजे ते 'बाह्य' अवधिज्ञान कहीये. अथवा जे जीवके सर्व फा (पा) से फारूप अवधि हुइ ते 'बाह्य' अवधिज्ञान कहीये. ते बाह्य अवधिका उपजणा अने विणसना अने दोनो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव आश्री एक समयमे हूइ ते किम द्रव्य आश्री ते बाह्य
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवअवधि एक समयेसे उपजणा बी विणसना बी अने दोनो वात पिण हुइ है. दावानलने दृष्टांते करी जिम दवानल एक पासे बूझे अने दूजे पासे वधे तिम कितनाक अवधिज्ञान एक पासे नवा उपजे अने दूजे पासे आगला अवधि विणसे, इस वास्ते एक समयमे कदे दो वात पिण होय है. तथा कितनाक अवधिज्ञान जीवके शरीरके थकी सर्व पासे प्रकाश करे ते शरीर विचाले फाडा कुछ बी नही होय ते 'अभ्यंतर' अवधि कहीये. जिम दीवानी कांति दीवाथी अलग नही है, चारो ओर प्रकाश करे तिम अवधि पिण ऐसा हूये ते 'अभ्यंतर' अवधिज्ञाननो उत्पाद अने विनाश ए दो वाते एक समयमे न होवे, एके समयमे एक ज वात हूइ. जिम दीवा उपजे एक समय अने विणसनेका अन्य समय तिम अभ्यंतर अवधिके एक समय एक ही वात होय. हिवै अवधिज्ञाने करी जदा एक द्रव्य देखे तदा पर्याय कितना देखे ए वात कहीये है-जदा एक द्रव्य परमाणु प्रमुख अवधि करी देखे तदा द्रव्यना पर्याय संख्याता देखे अने असंख्याता देखे; जघन्य तो चार पर्याय-रूप, रस, गंध, स्पर्श ए चार देखे. एह आठमा उत्पाद प्रतिपातद्वार संपूर्णम्. (५५) हिवै ज्ञान दर्शन विभंग एह तीन द्वार कहे है, ते यंत्रम्शान १ दर्शन २
विभंग ३ जिस अवधिशाने करी विशेष | सामान्य जाणे, पिण विशेष न समदृष्टिका तो ज्ञान कहीए अने जाणे ते 'साकार ज्ञान' कहीए. जाणे ते 'अनाकार दर्शन' कहीए मिथ्यात्वीके ते 'विभंगज्ञान' कहीए. स्वामी-समदृष्टि मिथ्यादृष्टि समदृष्टि मिथ्यादृष्टि । मिथ्यादृष्टि
भवनपतिसे लेकर नव अवेयक पर्यंत ते सर्व देवताना अवधिज्ञान अने विभंग ज्ञान क्षेत्र, काल आश्री दोनो सरीखा जानना. द्रव्य, पर्याय आश्री विशेष कुछ है. चोखे ज्ञान विना विशेष न जाणे ते समदृष्टिके चोखा है अने 'अनुत्तर' विमानवासी देवताने अवधिज्ञान होय है पिण विभंग नही. ते पांच 'अनुत्तर' विमानवासी देवताके जे अवधिज्ञान हुइ ते क्षेत्र, काल आश्री असंख्य विषय करके असंख्याता जानना; अने द्रव्य, पर्याय विषय आश्री ते ज्ञान अनंता कहीए. ए ज्ञान, दर्शन, विभंगरूप तीन द्वार वखाणेया. इति द्वारम् ९।१०।११.
अथ १२ मा 'देश' द्वार लिख्यते-नारकी, देवता अने तीर्थकर पति]नो ज्ञानथी अबास हुइ एहने शरीर संबंध प्रदीपनी परे सर्व दिशे प्रकाशक इनका अवधिज्ञान जानना. एतले नारकी, देवता, तीर्थकर ए अवधि करी सर्व दिशे देखे तथा शेष तिर्यंच, मनुष्य देशथी बी देखे अने सर्वथी बी देखे. तथा नारकी, देव, तीर्थंकर एहने अवधिज्ञान निश्चय होय; ओरोंके भजना जाननी. ए बारमा देशद्वार.
अथ क्षेत्रने मेले अवधिज्ञानका संख्यात असंख्यातपणा कथ्यते-जे अवधि जीवना शरीरसूं संबद्ध हुइ दीवानी कातिनी परे अलग न हूइ ते 'संबंध अवधिज्ञान' कहीए; अने जे
१ कहेवाय छ।
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तत्त्व] नवतत्त्वसंग्रह
६५ अवधि शरीरथी अलग होय ते अवधि 'असंबंध' कहीए. ते असंबंध अवधिका धणी दूरसे तो देखे पिण नवजीकसे न देखे. ते जीव अने अवधिज्ञानका क्षेत्रके विचाले अंतर पडे इति भावः.
हिवै जे संबद्ध अवधिज्ञान होय तेह नउ क्षेत्र आश्री संख्याता अने असंख्याता योजन प्रमाण विषय है तिम जे असंबद्ध अवधिज्ञान होवे तिसका क्षेत्र आश्री इम हीज विषय जाननी, परंतु ते धणीके अने अवधिके क्षेत्रके विचाले अंतर पडे ते (५६) यंत्रसे-..... असंबद्ध अवधि ४ संख्यात योजन | संख्यात योजन | असंख्य योजन असंख्य योजन ____अंतर ४ संख्यात योजन अंतर असंख्य योजन अंतर संख्येय , , ,
एह असंबंध अवधिके ४ भंग है अने जे संबद्ध अवधि हूइ ते कितनाक तो लोकसंबंधे लोकान्ते जाय लागे पिण अलोकमे नही गया अने जो अलोक संबंध हूइ तो अलोकमे लोक सरीखा खंड असंख्याता व्यापे. इति १३ मा क्षेत्रद्वार संपूर्णम्. - हिवै गतिद्वार १४ मा. ते गति आदिक वीस द्वारे यथासंभवे मतिज्ञानवत् विचारणा इति. हिवै अवधि लब्धिसे अवधिज्ञान होय है. प्रसंगात् शेष लब्धिका स्वरूप लिख्यते१ आमोसहि-जिनके शरीरके स्पर्शे सर्व रोग जाये. २ विप्पोसहि-विट्नसवण अर्थात् वंडीनीति लघुनीति ही औषधि है. ३ खेलोसहि-श्लेष्म जिनका औषधि है. ४ जल्लोसहि-जिनकी मयल ही औषधि है. ५ सयोसहि-शरीरका अवयव सर्व औषधिरूप है. ६ संभिन्नसोउ-एक इन्द्रिये करी सर्व इन्द्रियांनी विषये जाणे. ७ ओहि-सर्व रूपी द्रव्य जिस करी जाणे ते अवधि. ८ उजुमइ-अढाइ अंगुल ऊणा मनुष्यक्षेत्रमे मनके भाव जाणे. ९ विउलमइ-संपूर्ण मनुष्यक्षेत्रमे मनके भाव जाणे. १० चारण-विद्यासे विद्याचारण, तपसे जंघाचारण आकाशमे उडे. ११ आसीविस-शाप देणे की शक्ति ते 'आशीविष' लब्धि. १२ केवली-केवलज्ञान, केवललब्धि. १३ गणहर-गणधरपणा पामे ते गणधरलब्धि. १४ पुव्वधर-पूर्वाणां ज्ञान होना ते 'पूर्व' लब्धि. १५ अरिहंत-त्रैलोक्यना पूजनीक ते 'तीर्थकर' लब्धि, १६ चक्कवट्टी-चक्रवर्तिपणा पामे ते 'चक्रवर्ति' लब्धि. १७ बलदेव-बलदेवपणा पावणा ते 'बलदेव' लब्धि. १८ वासुदेव-वासुदेवपणा पावणा ते 'वासुदेव' लब्धि. १९ खीर-महु-सप्पिरासव-खीर-चक्रवर्तीना भोजन, महु-मिश्री दूध, सप्पि-घृत ऐसा मीठा वचन. २० कोठबुद्धि-जैसे कोठेमे बीज विणसे नही तैसे सूत्रार्थ विणसे नही. २१ पयाणुसारी-एक पदके पटनेसे अनेक पद आवे. २२ बीयबुद्धि-एक पदके पढनेसे अनेक तरे के अर्थ जाणे. २३ तेयग-जिणे तपविशेषे करी तेजोलेश्या उपजे. २४ आहारग-चवदेपूर्वधर आहारक शरीर करे (जब) शंका पडे. २५ सीयलेसायशीतलेश्या उपजे तपविशेषे करी. २६ वेयव्वदेह-घणे रूप करवानी शक्ति. २७ अक्खीणमहाणसी-आहार जां लगे आप न जीमे तां लगे ओर जीमे तो खूटे नही. २८ पुलाय-चक्रवर्ती आदिकनी सैन्या चूर्ण करनेकी शक्ति.
१ पासेथी। २ पुरीष । ३ मूत्र। ४ मेल। ५ पूर्वोर्नु ।
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवअर्हत, चक्री, वासुदेव, बलदेव, संमिन्नश्रोत, चारण, पूर्वधर, गणधर, पुलाक, आहारक (ए) दश लब्धियां भव्यस्त्रीने नही होती है. शेष १८ हुवै तथा ए अने केवली, ऋजुमति, विपुलमति एवं तेरह लब्धियां अभव्य पुरुषने न हुवै, शेष पंदर हुवै. तथा अभव्य स्त्रीयांने पिण १३ ए अने मधुक्षीराव लब्धि एवं चौद नही हुवै, शेष १४ हुवै. ए पंदरे द्वारे कही अवधिज्ञान वखाण्या.
मनःपर्यवज्ञानको दो भेद-अजुमति १ विपुलमति २. केवलज्ञानका एक भेद है. एह पांच ज्ञानका स्वरूप लेशमात्र लिख्या, विशेष नंदीमे.
(५७) अथ 'उपमा प्रमाण लिख्यते-असंख्याताका मापे आठ. पल्योपमा
| कूवा योजन १ लांबा चौडा तिसकी परिधि ३ योजन साधिक. इह योजन प्रमाणांगुलसे है. तिसकू वादर पृथ्वीके शरीर तुल्य रोमखंडसे भरिये ठांस कर जिसे (अग्निसे) जले नही, जलसे वहे नही, चक्रीसैन्याके उपर चलनेसे दबे नहीं; तिसमेसुं सौ सौ वर्ष गये एकेक खंड काढीये. जब 'रीता होवे सर्व कूवा तद एक पल्योपम कहीये. दस कोडाकोडी कूये खाली होइ तद एक सागरोपम शेयं.
FIE
अंगुल
घन
सूची
| पल्योपमके छेद जितने होइ उतने ठिकाणे पल्योपमके समय लिखके
आपसमे गुणाकार कीजे. जो छेहदे आवे सो सूची अंगुलके प्रदेशांकी अंगुल
गिणती. तिसके छेद ६५५३६।१६ छेद. प्रतर
पल्य समय १६ छेद ४ १६/१६/१६/१६/ सूची अंगुल ६५५३६ प्रदेश | सूची अंगुलका वर्ग सो प्रतर अंगुल ४२९४९६७२९६; छेद ३२. .
प्रतर अंगुल ४२९४९६७२९६ कू सूची अंगुल ६५५३६ थी गुण्या घन अंगुल अंगुल होय. २८१४७४९७६७१०६५६, तिसके छेद ४८.
पल्यके छेद जितने होइ तिनका असंख्यमा भाग लीजे. तितने
ठिकाने पर घन अंगुलके प्रदेश रखकर आपसमे गुणाकार कीजे. जो | लोकाकाश-छेहदे आवे सो लोकाकाशके श्रेणी एकके प्रदेश होइ. ७९२२८१६२५१. श्रेणि ४२६४३३७५९३५४३९५०३३६, छेद ९६.
पल्य छेद असंख्य भाग घन अंगुल छेद छेद लोकाकाश-श्रेणि
सम१६/४] २ २८१४७९७६७१०६५६/४८/४८ छेद ९६ लोक
लोकश्रेणिका वर्ग कीजे सो लोकप्रतर. तिसके छेद १९२. प्रतर लोक- | १९२ छेद प्रतरके है. तिनकू श्रेणि छेद ९६ सुं गुणाकार कर्या 'लोक
घनका घनं होय. तिसके छेद २८८ अंक. सर्व असत् कल्पना जानने. १ साली।
-
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तत्त्व ]
नवतत्त्व संग्रह
६७
अथ प्रकारांतरसुं श्रेणि करनेकी आम्नाय - जघन्य प्रतर असंख्यातकूं दुगणा करे, उस पर पल्योपमकी वर्गशलाकाकूं भाग दीजे. जो हाथ आवे उसकूं घनांगुलकी वर्गशarat भेल दीजै सो लोकाकाशकी श्रेणिकी वर्गशलाका हूई. इसकी असत् कल्पनाका (५८) यंत्रसे स्वरूप जानना -
दूणा
जघन्य प्रतर असंख्य
छठ्ठा वर्ग ७९२२८१६५१४९६४३३७५९३५४३९५०३३६
२
२
१
५
६
(५९) श्री अनुयोगद्वार (सू० १४६ ) से संख्य असंख्य अनंत स्वरूपं
संख्यात
जघन्य
उत्कृष्ट
१
अ
सं
ख्या
ལ 』
भ. श्र
नं
पल्की वर्ग- भाग देतें घनांगुल भेला कीये हाथ लगे वर्गशलाका
शलाका
0
परित्त
युक्त
असंख्य
परित्त
35
""
39
35
35
33
मध्यम
99
33
59
35
युक्त
त
अनंत
33
15
एकका वर्ग भी एक तथा घन भी एक. गुणाकार एके से जिस राशि कीजीये सो जौं की त्यों रहै तथा एक भाग जिस राशिकूं दीजीये सो वी जौं की त्यों रहे. तिस कारणसे एका गिणतीमे नही. दूयेसे गिणती. सो दूया 'जघन्य संख्याता' कहीये. इसथी आगे ३|४|५ यावत् उत्कृष्ट संख्यातेमेसुं एक ऊणा होइ तहा ताइ सर्व 'मध्यम संख्याता' जानना, अब उत्कृष्ट संख्याता लिखी ये है 'विस्तरात्
99
39
33
33
33
सरसो १; यवमे ८, अंगुलमे ६४, हाथमे १५३६, दंडमे ६१४४, कोशमे १२२८८०००, सूची - योजनमे ४९१५२०००, प्रतर-योजनमे २४१५९१९१०४००००००, घन-योज - नमे ११८७४७२५५७९९८०८००००००००००
35
विष्कंभ एक लाख योजन, गभीरपणा १०००, परिधि ३१६२२७ योजन झझेरी वेदका ८ योजन. शिखा २८७४८ योजनकी.
००००
O
१ अनवस्थित पाला. २ शलाका पाला ३ प्रतिशलाका पाला. ४ महाशलाका पाला.
१ विस्तारथी ।
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६८०
दूजा कांड
योजन
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवअथ पाला १ तिसके योजन योजन प्रमाण खंड करणेकी आम्नाय लिख्यते-इहा पाला एक योजन, लक्ष विष्कम जंबूद्वीप समान, जिसका भूमिमे अवगाढपणा १००० योजन तिस पालेकी तीन कांड तीनमे प्रथम कांड १००० योजनके अवगाढपणेका, दूजा कांड ८ योजनको जाडपणेका, तीजा कांड २८७४८ योजनकी सिखा, तिसका मूलमे विष्कंभ तथा परिधि जंबूद्वीप समान, उपरि जाके सिखा बंधे तिहा सरसोका दाणा १ उसके उपरि दाणा दूजा नव हरे (रहे?).
(६०) इन तीन कांडका घन खंड यंत्रम्१ संख्या ३ कांड | विष्कंभ | अवगाढ घनयोजन प्रमाण खंड
प्रथम कांड एक लाख १००० ७९०५६९४१५० योजन ॥ कोस ६॥ हाथ १००० भूमिमे योजन मूल योजन
गुण्या करू ७२०५६९४१५०४३९ योजन १ कोस १६२५ धनुष घनयोजनके खंड हूये.
७९०५६९४१५० योजन १॥ कोस ६२॥ हाथ ८ भूमिसे उपरि
गुणा कर्या ६३२४५५५३२०३ योजन २ कोस १२५ वेदका ताइ
धनुष इतने धनयोजन प्रमाण खंड हूये. | कांड तीजा
२७७७७११६१६ योजन परिधिका छट्ठा बांटा ..-" वेदका से उपरि ,
तिसका वर्ग होइ इसकू सिखातूं २८७४८ गुणा सिखा ताइ
योजन
कर्या घनयोजन प्रमाण खंड ७९८५३६५३५३६७६८. अथ इन तीनो कांडाके घन योजन मिलाइये तदा अंक चवदे होय ८७८२२५९३२४०४१० ए समस्त पालेके धनयोजन हूये. एक घनयोजनमे ११८७४७२५५७९९८०८०००,०००, ००० सरसों तिस थकी गुणाकार कीजे तब अंक अडतीस आवे. तितने १ पालेमे सरसुं जानने. अंक अग्रे-१०४२८६९१९४४५२१४५५२२८९७५८४१२८ ०००००० ००००० अंक.
- अनवस्थित पालेकू असत्कल्पनाथी कोइ उठावै दाणा १ द्वीपमे, दाणा १ समुद्रमे इस तरे जंबूद्वीप आदिकमे प्रक्षेपे करी ठाली होवे तदा एक दाणा अनवस्थितका तो नही ओर दाणा १ शलाका पालामे प्रक्षेपिये. अब जहां ताइ दाणे द्वीप समुद्रामे गये है तिण सर्व ही द्वीप समुद्रां प्रमाण पाला कल्पीये. तिणथी आगेके द्वीप समुद्रामे एकेक दाणा प्रक्षेपिये जदा रीता होय तदा १ दाणा शलाकामे फेर प्रक्षेपिये. ऐसेही अनवस्थित पालेके भरणे अने रिक्त करनेसे एकेक दाणे करी शलाका भरीये. अने जिहां छेहडला दाणा गया है तितने द्वीप समुद्रां प्रमाण अनवस्थित पाला भरीये भरके उठाइये नही, किन्तु शलाका पाला उठाइये. उठा करके ते अनवस्थित पल्यांक ते क्षेत्रथी आगे एक एक दाणा अनुक्रमे द्वीप समुद्रने विषे प्रक्षेपीये. जदा तिसका अंत आवै तदा प्रतिशलाका पालेमे प्रथम प्रतिशलाका प्रक्षेपी पर्छ
ज्यां सुधी । २ खाली।
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह वली अनवस्थित पाला उठाके जिस जगे शलाका पाला पूरा हूया था ते क्षेत्रथी आगे द्वीप समुद्रामे एकेक सरसों अनुक्रमे प्रक्षेपीये. पछे वली शलाका पालामे एक दाणा प्रक्षेपीये. इसी तरे वली अनवस्थित पाला भरणे अने रीता करणेसे शलाका भरीये. तदा अनवस्थित अने शलाका ए दोनो भयो हुँता; पछे शलाका पाला उठाइने पूर्वोक्त प्रकारे आगले द्वीप समुद्रामे प्रक्षेपीये. पछे वली एक दाणा प्रतिशलाका पालामे प्रक्षेपीये. एवं अनवस्थित पालेके भरणे रीते करणेसे शलाका पाला भरीये अने शलाकाके भरणे रीते करणेसे प्रतिशलाका भरीये. जदा प्रतिशलाका १ शलाका २ अनवस्थित ३ एवं तीनो पाले भरे होइ तदा प्रतिशलाका पाला उठाइने तिमज आगले द्वीप समुद्रामे प्रक्षेपीये. जिहा पूरा होय तदा १ दाणा महाशलाका पालेमे प्रक्षेपीये. फेर शलाका पाला उठाइने तिमज आगे संचारीने प्रतिशलाका पल्यमे वली एक सरसव प्रक्षेपीये. पछे अनवस्थित उठाइने तिम ज शलाका पालानी समाप्तिना क्षेत्र आगे द्वीप समुद्रामे प्रक्षेपी तदा शलाका पल्यमे वली एक दाणा प्रक्षेपीये. एवं अनवस्थित पाला उठावणे अने प्रक्षेपणे करी शलाका पल्य भरणा तथा शलाका पल्यने उपाडवे प्रक्षेपवे करी प्रतिशलाका पाला भरणा. तथा प्रतिशलाका पालाने उपाडवे प्रक्षेपवे करी महाशलाका पल्य भरणा. इम करता जदा चारो ही पल्य भर्या हुइ और अनवस्थितादि चारो पालोंके जितने दाणे द्वीप समुद्रांमे प्रक्षेप करे है वे भी सर्व जब चारो पालोमे मेलिए तदा उत्कृष्ट संख्यातेसे एक सरसव अधिक होय है. तिस एक सरसों सहित कीयां 'जघन्य परित्त असंख्याता' होय. इस जघन्य परित्त असंख्यकू अन्योन्य अभ्यास कीजे तिसमेसुं दोय दोय निकासिये. तहा ताइ 'मध्यम परित्त असंख्याते' होय. तिसमे एक भेलीये तब 'उत्कृष्ट परित्त असंख्याता' होय. तिसमे एक और मिले तब 'जघन्य युक्त असंख्य' होय. _अन्योन्य अभ्यासकी आम्नाय-यथा ५ का अन्योन्य अभ्यास करणा है. प्रथम ५ कू विषे २ दीजे स्थापना-१११११. एकेकके उपरि वै ५।५ पांच पांच दीजे.
स्थापना-१९९१५ अब उपरिकी पंक्तिके अंकाकू आपसमे गुणाकार कीजे. स्थापना
५ २५ १२५ ६२५ ३१२५ छेल्ला गुणाकार करते जे राशि आवे सो उत्पन्न राशि जाननी. इस तरे अन्योन्य अभ्यासकी रीति जाननी.
जघन्य युक्त असंख्य प्रमाण एक आवलिके समय है. तिसका अन्योन्य अभ्यास करे तो अने दोय निकासिये तो तहा ताइ 'मध्यम युक्त असंख्याते' कहीये.
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवतिसमे एक भेले 'उत्कृष्ट युक्त असंख्याते' होय. उत्कृष्ट युक्त असंख्यातेमे एक मेलीये तब 'जघन्य असंख्यात असंख्याते' होय. इसका अन्योन्य अभ्यास कीजे. तिणमेसु दोय निकासिये तहां ताइ 'मध्यम असंख्यात असंख्याते' होय. उसमे एक भेले तब 'उत्कृष्ट असंख्यात असंख्याते' होते है. मत्यंतरे च
___ अनेरा आचार्य वली 'उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यातानो स्वरूप इम कहे है यथा जघन्य असंख्यात असंख्यातानी राशिनो वर्ग करीये, पछे ते वर्गित राशिना वली वर्ग करीये, पछे वली वर्गराशिना वर्ग करीये. इम तीन वार करके तिसमे दस बोल असंख्यातांके भेलीये. ते कौनसे ? (१) लोकाकाशना प्रदेश, (२) धर्मास्तिकायना प्रदेश, (३) अधर्मास्तिकायना प्रदेश, (४) एक जीवना प्रदेश, (५) सूक्ष्म बादर अनंतकाय वनस्पतिना औदारिक शरीर, (६) अनंत. कायना शरीर वर्जीने शेष पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, प्रत्येक वनस्पतिकाय अने त्रसकाय इन सबके शरीर, (७) स्थितिबंधना कारणभूत अध्यवसाय ते पिण असंख्याता, (८) अनुभागबंधके अध्यवसाय, (९) योगच्छेद प्रतिभाग, (१०) उत्सर्पिणी अवसर्पिणीरूप कालना समय. एवं १० बोल पूर्वोक्त त्रिवर्गित राशिमे प्रक्षेपके फेर सर्व राशि तीन वार वर्ग करीये; जे राशि हूये तिसमेसु एक काढ्या 'उत्कृष्ट असंख्यात असंख्याता' होय.
(६१) मध्यम असंख्यात असंख्यातमे जे पदार्थ है तिनका यंत्रम्., बादर पर्याप्त तेजस्कायसे लगाय के सर्व निगोदके शरीरपर्यंत ए सर्व मध्यम असंख्यात
असंख्याते. क्षेत्रथी २
सूक्ष्म अपर्याप्त जीवके तीसरे सेमेकी अवगाहना जितने क्षेत्रमे होवे तहांसे लगाय परम अवधिज्ञानका क्षेत्र ए मध्यम असंख्यात असंख्याते जानने. इहां प्रदेशा आश्री जानना.
सूक्ष्म उद्धार पल्योपमके समयथी लगाय ४ स्थावर वनस्पति विनाकी कायस्थितिके कालथी ३
समय ए सर्व मध्यम असंख्य असंख्य जानने.
सूक्ष्म निगोदके जीवके योगस्थानसूं लगाय के संशी पर्याप्तके अनुभाग बंधके अध्यवसा. । यके स्थानक ए सर्व मध्यम असंख्यात असंख्याते. इति नव बोल असंख्याताके जानने.
उत्कृष्ट असंख्यात असंख्यातमे एक भेलीये तब 'जघन्य परित्त अनंता' होय. तिसका पूर्ववत् अन्योन्य अभ्यास कीजे. तिसमेसुं दोय निकासिये तहां ताइ 'मध्यम अपरित्त अनंता' होय. तिसमे एक भेलीये तब 'उत्कृष्ट परित्त अनंता' होय. उत्कृष्ट परित्त अनंतेमे एक भेलीये तब 'जघन्य युक्त अनंता' होय. अभव्य जीव इतने है. तिसका पूर्ववत् अन्योन्य अभ्यास कीजे. तिसमेसु दोय निकासिये तहां ताइ 'मध्यम युक्त अनंता' होय. तिसमे एक भेलिये तब 'उत्कृष्ट युक्त अनंता' होय. तिसमे एक भेले 'जघन्य अनंत अनंत' होय. इसथी आगे सर्व 'मध्यम अनंत अनंता' जानना. उत्कृष्ट अनंत अनंता नही.
अनेरा आचार्य वली इम वखाणे है-जघन्य अनंत अनंता पूर्वली परे तीन बार १ मतांतर प्रमाणे तो। २ समयनी।
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७०
तत्व]
नवतत्त्वसंग्रह वर्ग करी पीछे ए छ बोल अनंता प्रक्षेपीये. तद्यथा-(१) सर्व सिद्ध, (२) सर्व सूक्ष्म बादर निगोदना जीव, (३) सर्व वनस्पतिना जीव, (४) तीनो कालके समय, (५) सर्व पुद्गल, (६) सर्व लोकालोकाकाश प्रदेश. एवं बोल छ प्रक्षेपी सर्व राशिकू त्रिवर्ग करीये. जो राशि हुई तो पिण उत्कृष्ट अनंत अनंता न हूवे. तिवारे पछी केवलज्ञान दर्शनना पर्याय प्रक्षेपीये. इम कर्या उत्कृष्ट अनंत अनंता नीपजे. इस उपरांत और वस्तु नही. एणी परे एकेक आचार्यना मतने विषे कह्या. अने श्रीसूत्रना अभिप्रायथी जो उत्कृष्ट अनंत अनंता नही. तत्व केवली जाणे. इति अनुयोगद्वार(स. १४६)वृत्तिवाक्यप्रमाणात् अत्र लिखिता असाभिः ।
(६२) मध्यम अनंत अनंतेमे जो जो पदार्थ है तिनका यंत्रम
सम्यक्त्वके प्रतिपातिसे लगायके सर्व जीव तथा दोप्रदेशी स्कंधसे लेकर सर्व पुद्गल मध्यम अनंत अनंतेमे जानने.
आहारक शरीरके विखरे थके जितने स्कंध होय तिनकू 'मुक्केलगा' कहीये. सो अनंत क्षेत्रथी २ स्कंध है. तिणोने जितना क्षेत्र स्पर्शा तिससु लगायके सर्व आकाशके प्रदेश ए सर्व
मध्यम अनंत अनंते जानने. कालथी ३, अर्ध पुद्गलपरावर्तथी लगायके तीनो कालके समय ए सर्व मध्यम अनंत अनंते जानने. भावथी ४
| सूक्ष्म अपर्याप्त निगोद जीवके जघन्य अज्ञानके पर्याय तिणसे लगायके केवलज्ञानके
पर्याय ए सर्व मध्यम अनंत अनंते जानने. अथ जंबूद्वीपके उपरि सरसूं शिखा चढे तिसकी आम्नाय लिख्यते गोम(म्मट)सारात् दोहा-धान तीन है सुकओ, बादरनीका जोइ ।
नौ ९ दस १० ग्यारह ११ भाग, इह जो परिधिका होइ ॥१॥ वेधक कहीये पुंजको, तासो करि गुणकार। परिधि छठे भाग कृति, धन फल कयौ निहार ॥२॥
(६३) स्वरूपयंत्रं सुक धान गेहु आदि बादर धान चणा आदि नीका धान सरसो आदि
वेध १
वेध १
CWN
परिधि९
परिधि १० ए घन फल ए घनफल १३ ए घनफल १ अनुयोगद्वारनी वृत्तिना वाक्यना आधारे अहीं अमे लखेल छ। २ गोम्मटसार नामना दिगंबरीय ग्रंथमाथी ।
१३
३६
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७२
[१ जीव
श्रीविजयानंदसूरिकृत (६४) वर्गके छेदांका स्वरूप निरूपक यंत्रम्
प्रथम
दूजा
तीजा
वर्ग अंक
२५६
स्थापना
स्थापना
स्थापना
स्थापना ८,४,२
१२८,६४,३२,१६,८,४,२
अथ लोकोत्तर गिणती लिख्यतेचौपाइ-लोकोत्तर गिणती सिद्धांत, जासौ संख असंख अनंत ।
ताके भेद दोइ मन मानि, छेद गिणतओ वरग प्रमानि ॥१॥ छेद राशिका आधा आधा, जब लग अंतमे एक ही लाधा।
राशिकू आपही सौ गुणाकार, 'वरग' कहे इह बुद्धिविचार ॥२॥ दोहा-धारा तीन ही जानीये, वरगधार घनधार ।
होइ घनघनाधार इम, पंडित कहे विचार ॥ १॥ (६५) अथ इन तीनो धारका जो प्रयोजन है सो यंत्रं गोमट्ट(म्मट)सारात् वर्गशलाका वर्गधारा
छेदशलाका
१६
३२
६४
१२८
२५६
संख्याते
६५५३६ ४२९४९६७२९६ १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६
३९ अंक आवै
७८ , , संख्याते संख्याते वर्ग जाइये तब जघन्य परित्त असंख्याते आवै
संख्याते वर्ग जाइये तब जघन्य युक्त असंख्याते आवै असंख्याते | असंख्याते वर्ग जाइये तब जघन्य असंख्य असंख्याते आवै ।
असंख्याते वर्ग जाइये तब सूक्ष्म अद्धापल्योपमके समय होय
असंख्य वर्ग जाइये तब सूची अंगुलके प्रदेश १ विरीया वर्ग कीजे तब प्रतर अंगुलके प्रदेश
असंख्य वर्ग जाइये तब जघन्य परित्त अनंत होय ..१वार।
असंख्याते
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तत्व
नवतत्त्वसंग्रह
असंख्याते
असंख्यात अनंत
असंख्य वर्ग जाइये तब जघन्य युक्त अनंत आवे अनंत वर्ग जाइये तब जघन्य अनंत अनंते आवे
अनंत वर्ग जाइये तब जीवास्तिकाय अनंते वर्ग जाइये तब पुद्गलास्तिकाय ___ अनंते वर्ग जाइये तब अद्धा-काल अनंते वर्ग जाइये तब सर्व आकाश श्रेणिके प्रदेश १ विरिया वर्ग कीजे तब सर्व आकाश प्रतरके प्रदेश
अनंते वर्ग जाइये तब धर्मास्तिकायके पर्याय __ अनंत वर्ग जाइये तव १ जीवके पर्याय
अनंते वर्ग जाइये तब जघन्य अज्ञानके पर्याय अनंत वर्ग जाइये तब क्षायिक सम्यक्त्वके पर्याय
वर्ग अनंते जाइये तब केवलज्ञान(के) पर्याय
बगेशलाका
घनधारा - ८
दशलाका
६४
१२
२४
४०९६ १६७७७२१६
२८१४७४९७६७१०६५६ ७९२२८१६२५१४२६४३३७५९३५४३९५०३३६ गर्भज मनुष्य
५८ अंक
११६ अंक ___ असंख्य वर्ग जाइये तब घनांगुलके प्रदेश आवै असंख्य वर्ग जाइये तब लोकाकाश श्रेणिके प्रदेश आवै १ विरिया वर्ग कीजे तब लोकाकाश प्रतर प्रदेश आवै
घनाघन धारा
८
असंख्य
असंख्य
वगेशलाका
छेदशलाका
MINI
२६२१४४ ६८७१९४७६१३६
२२ अंक
७२
४१॥
२८८
५७६
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________________
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१जीव
-
असख्य
-
-
२२७
१०५२ असंख्य ____ असंख्य वर्ग जाइये तब लोकाकाश प्रदेश आवै
" , , , तेउकायके सर्व जीव राशि
, ,, , तेउकायकी कायस्थिति समय १ विरिया वर्ग कीने तब परम अवधिज्ञानका क्षेत्र आवै असंख्य वर्ग जाइये तब स्थितिबंधके अध्यवसाय
" ,, ,, अनुभागबंधके , _,,, , निगोदके शरीर औदारिक
,,, , निगोदकी कायस्थिति दोहा-च्यारि ४ आठ ८ ओ पांचसे, बारह ५१२ आदि कहंत ।
धारा तीनो जाणिये, आगे वर्ग अनंत ॥१॥ चौपइ-कृत धारामे वर्ग विचार, ताके घन लइये धनधार ।
घनाधन धारामे तस बंद, इम भाषे सवही जिनचंद ॥१॥ दोइ २ तीन ३ अरु नौ ९ है छेद, आदि तिहुं धारा इम भेद । आगे दुगुण दुगुण सब ठाम, वरग कृति घन वृन्दो नाम ॥२॥ दने कृतिमे तिगुने घणा, नौ गुण छेद घनाधन तणा। इक इक धारा तीन प्रकार, गुण १पुनि भाग २ अयसि ३ निहार ॥३॥ छेद जोग है इस गुणकार, तस विजोग है भागाहार ।
निजसम थल थापीजे रास, अन्नो अनताको अभ्यास ॥४॥ दोहा-पहिले विरलन देय पुनि, तासौ है उत्पन्न ।
विरलन जाहि विषे(ख)रीये, देय उपरजो दिन ॥ चौपइ-विरलन राशि करो गुणाकार, देय छेद सौ बुद्धिविचार।
जो आवे सो छेद प्रमाण, उत्पन्न राशि इह विद्यमान ॥१॥ विरलन राशि स्थापना-४।१११ १. देय राशि स्थापना-४ ४ ४ ४ देय राशिक
छेद २ सें देय राशिकू गुण्या लब्ध ८ छेद. इतने उत्पन्न राशिके २५६ छेद होय. दोहा-अर्ध अर्ध जो छेदको, कीजे सो कृति रास ।
अपने छेद समान ही, वर्ग होय अभ्यास ॥१॥ राशि १६, छेद ४. चौथे ठिकाणे उत्पन्न राशि १८४४७४४०७३७०९५५१६१६.
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७५
उपकरण
तस्वं]
- नवतत्त्वसंग्रह (६६) अथ इन्द्रियस्वरूपयंत्रम् प्रज्ञापना १५ मे पदे | निवर्तन | अभ्यन्तर | ५ इन्द्रियांका संस्थान कदंब पुष्प आदिका कह्या है. अंगुलके इन्द्रिय | इन्द्रिय १ असंख्य भाग.
बाह्य इन्द्रिया८ इन्द्रिय कर्ण २, नेत्र २, नासिका २, जिह्वा १, स्पर्श १, इनका आकार
संस्थान नाना प्रकारे. खड्ग धारा समान स्वच्छतर पुद्गल समूह रूप जैसे खड्गधाराके | "सार पुद्गल काम करे है तैसे इन्द्रियाके सारता तिनके व्याघातसे
_अंधा, बहिरा आदि होता है. अभ्यंतर
अभ्यंतर उपकरण शक्तिरूप जानने. लब्धि | श्रोत्रेन्द्रिय आदि विषय सर्व आत्माके प्रदेशामे तदावरणीय कर्मका
क्षयोपशम. उपयोग ख ख विषयमे लब्धिरूप इन्द्रियाके अनुसारे आत्माका व्यापार ते 'उपयोग
इन्द्रिय' कहीये. इति नन्दीवृत्तौ. (६७) श्रीमज्ञापना पद १५ से इन्द्रिययन्त्रम् इन्द्रिय
जघन्य आदि
| श्रोत्रेन्द्रिय चक्षु | प्राण रसनेन्द्रिय | स्पर्शन संस्थान
कदंब पुष्पका मसूर चंद्र । अतिमुक्त छु (खु) रप्प नाना संस्थान
अंगुल असंख्य जाडपणा
भाग विस्तार
एवम्
पृथक् अंगुल शरीरप्रमाण स्कंध
अनंत प्रदेश →ए अवगाहन असंख्य
प्रदेश अवगाहना २ संख्येय गुणा १ स्तोक ३ संख्य | ४ असंख्य
५संख्यस्वरूप प्रदेश ७ संख्येय | ६ अनंत ८ संख्येय ९ असंख्येय १० संख्येय कर्कश गुरु २ अनंत । १ स्तोक ३ अनंत | ४ अनंत | ५ अनंत
मृदु लघु ९ अनंत गुणे १० अनंत गुणे ८ अनंत गुणे ७ अनंत गुणे ६ अनंत गुणे स्पृष्ट स्पृष्ट अस्पृष्ट स्पृष्ट
स्पृष्ट प्रविष्ट
प्रविष्ट - अप्रविष्ट प्रविष्ट प्रविष्ट प्रविष्ट जघन्य अंगुल असंख्य →ए विषये
| उत्कृष्ट । १२ योजन | लाख योजन| नव योजन | नव योजन | नव योजन १ नन्दीसूत्रनी वृत्तिमा।
.
.
एवम्
.
टीकामे
SER
व
म्
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रसना
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव(६८) अथ इन्द्रियांकी उत्कृष्ट विषय श्रोत्रेन्द्रिय । १२ योजन ८०० धनुष्य ____ चक्षु लक्ष , ५९०८, २९५४ धनुष्य घ्राण ९ , ४०० , २०० , १०० धनुप्य | ५१२
। १२८ , ६४ ध. स्पर्शन ९ ,, ६४०० ३२०० , १६०० , ८०० ध. ४०० ध. श्रोत्रेन्द्रिय पंचेन्द्रिय
दूय चौरेंद्री। तीनेंद्री। बेइंद्री | एकेंद्री संज्ञी असंही
(६९) अथ श्वासोच्छ्वासखरूपयंत्रम् आणमंति ध्यानमे जो ऊंचा सास (श्वास ) लेवे सो 'आणमंति' कहीये. पाणमंति
ध्यानमे जो नीचा सास लेवे सो 'पाणमंति' कहीये.
ध्यान विना जो ऊंचा सास लेवे सो 'उसास' (उच्छ्वास). निसास
ध्यान विना जो नीचा सास लेवे सो 'निःश्वास' कहीये.
(७०) (द्रव्यप्राणादि) भावप्राण ४ द्रव्यप्राण १०
भावप्राण ४
द्रव्यप्राण १० ज्ञानप्राणसे ५ इन्द्रिय
सुखप्राणसे श्वासोच्छज्ञानप्राण १
सुखप्राण ३ प्राण उत्पत्ति ५
वास प्राण १ वीर्यप्राणसे मनबल, जीवितव्यप्राण ४ | जीवितव्यप्राणसे वीर्यप्राण २
वचन, काया __ सर्व ४ हूये | आयु प्राण; एवं १० (७१) *आठ आत्मा भगवती श० १२, उ०१० (सू० ४६७)
उसास
4
| द्रव्यात्मा कषायात्मा योगात्मा उपयो: ज्ञानात्मा दर्श: चारि वीर्यात्मा
गात्मा यात्मा १ . नियमा नि नि नि नि नि नि कषायात्मा २ भजना . भ भ भ भ भ भ योगात्मा ३ | भ नि . भ भ भ | भ । भ उपयोगात्मा ४ नि नि नि . नि नि नि | नि। ज्ञानात्मा ५ दर्शनात्मा ६ | नि नि । नि नि नि | . नि । नि चारित्रात्मा ७ वीर्यात्मा ८ भ नि नि भ भ भ नि | . *अल्पबहुत्व-"सम्वत्थोवाओ चरित्सायाओ, नाणायाओ अणंतगुणाओ, कसायाभो अणंत०,
14
424
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________________
७७
देव
नाम
REFERE POETEEEEE
| हजार
अ
लके
पूर्व उ० देश
पुद्गल
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह (७२) भगवती श० १२, उ०९ (सू० ४६१-४६६), पंच देव पंच गुण आग तिर्य- मनु- देवगति स्थिति रूप काल संतिष्ठन अं | अल्प- | अव
विकु- करा काय- त बहुत्व गाह
कहा जावे स्थिति र
ना भव्य
युग- सर्वार्थ- ज० अंत- ज०४ जा-ज० अंत-ज० दश ४. ज० अंगुद्रव्य
| सिद्धि मुहूर्त; १,२,३ तके मुहूर्त; हजार वर्जी २५ उ० तीन उ० देव- उ० तीन
असंख्य देवलो- पल्योपम असं- तामे पल्योपमा
ख्या भागः कादि
उ० उ० वनस्पति
हजार काल
योजनकी सर्व देव-ज० सात ज०७०० ज०१
ज०७ तानो सो वर्षः ।
न वर्ष: उ० सागर आव्यो उ० चार- त्यागे ८४ लक्ष झझेराः स्तोक लक्ष पू- अ
उ० ५०० चैनी
ऊन अर्ध
धनुः
ध्यकी . धर्म- साधु युग- वैमानिक ज० अंत
वैमा- ज०१
ज० पृथ- ३ ज०१ वायुला प्रमुख मुहूर्त, निक- समय; कपल्यो संख्या | हाथ नरक वर्जा ने शेष सर्व ४ उ० देश , मे उ० देश पम; उ० त
झझेरी
'ऊन ऊन पूर्व तथा ऊन पूर्व
उ०५०० आवे कोटि मोक्षे कोटि पुद्गल ज०७२ शक्ति मुक्ति- ज०७२
ज०७ वर्ष उ० तो है, वर्षेउ०
हस्तकी वैमा८४ लक्ष परंतु ८४ लक्ष
गुणा | उ०५०० निकधी पूर्वनी विकुर्वे नही
ष्यकी ज० दस ज० पृथ्वी ज० दस ५०० ध. ५ ज०१ हजार १,२, अप् हजार नुष्यकी अ हस्तकी वर्ष; उ० उ० वनः वर्ष; उ० ज० अंत- सं उ०७
अ. पति ३३ सा- मुहूर्तः | ख्या हाथ; गरोपम संख्य M गरोपम उ० वन- त उत्तर
स्पति- गु वैक्रिय
लाख प्यमे
योजन जोगायाओ वि०, वीरियायाओ वि उवयोगदवियदसणायाओ तिन्नि वि तुल्लाओ वि०" भगवती सू०.४६७..
१ एकमां।
अध
Emo
धनुष्य
REEEEE
EENET
- Asi
धनु
T
tivation
३३ सा
काल
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________________
७८
श्रीविजयानंदसूरिकृत
(७३) (पुद्गलपरावर्तन ) भगवती श० १२, उ० ४ ( सू० ४४८ )
तैजस
भौदारिक १ वैकिय २
पुगलपरावर्तन ७
स्तोक काल सर्वमे किस
का ?
५
थोडा पुद्गल कौनसा [कस्य ] अनंत
गुणा
अने बहुता कौनसा ?
३
अनंत
6)
४
20
अनंत
१
स्तोक
प्रारंभकालयंत्रम्
प्रथम २ ३
५
६
समय समय समय समय समय समय
१
आ आ आ आ आ आहार हार हार हार हार हार
शरीर शरीर शरीर शरीर शरीर
इन्द्रि - इन्द्रि इन्द्रि इन्द्रि
य
य
य य
सासो सासो सासो
पुद्गल
भाषा भाषा
मन
३
२
अनंत
६ अनंत गुणा
(७४) अथ पर्याप्तियंत्रम्
सर्व
पर्याप्तिका
समय
समुच्चयकाल
3:5
99
कार्मण ४ ५
33
१ स्तोक
O
७
अनंत
विक
अंतर्मुहूर्त - न्द्रिय
०
एके
न्द्रिय
मनपुद्गल वचनपुद्गल आनप्राण
६
७
१ २
स्वामी स्तोक असं
ख्य
ल
ब्धि
अपर्य
५ अनंत गुणा
0
संज्ञी
पंचे- आ- शरीर इन्द्रि
य
हार
न्द्रिय
३ अनंत २ अनंत
33
33
33
०
समाप्तिकालयंत्रम्
१३ वि शेष अधि
क
O
125
६ अनंत
13
""
0
33
33
39
घ
श्वा
४ ५ ६ विशे- विशे- वि.
ष शेष
च्छ्
वास
[१ जीव
124
35
४
अनंत
४
अनंत
भाषा मन
'निश्चयनयमतेन सर्व पर्याप्ति एक साथ प्रारंभे पिण व्यवहार नय मते एक समयांतर. आहार पर्याप्तिने एक समय लगे अने अन्य सर्वने अंतर्मुहूर्त कालम् पृथक् पृथक्.
१ निश्चय नयना अभिप्राय अनुसार ।
19
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________________
तत्त्व]
-
द्वार
नवसत्त्वसंग्रह (७५) (पर्याप्ति अपर्याप्ति षटु) मेद पर्याप्ति षट् ६ . अपर्याप्ति षटू ६
प्रारंभ- समाप्ति- प्रारंभ- समाप्ति| सर्व पर्याप्ति अनुक्रमसे पूरी सर्व एक साथ अनुक्रमसे पूरी
साथ मांडे करे लब्धि अपर्याप्त
४ साथ मांडे | ३ पूरी करे पर्याप्ता लब्धि अपर्याप्त
५साथ मांडे
४ अनुक्रमे पूरी | करे
मांडे
एकेन्द्रिय
४ साथ मांडे ४ अनुक्रमे पूरी
|
करे
बेइंद्री, तेइंद्री,
चौरिद्री,
असंही लब्धि पर्याप्त ५ साथ मांडे
३।४।५ अनुक्रमे पंचेंद्री
पूरी करे गर्भज मनुष्य,
करण अपर्याप्त ६ साथ मांडे," " गर्भज तिर्यंच
६ अनुक्रमे पूरी पंचेंद्री
करण पर्याप्त नैरयिक १
करण अपर्याप्त देवता
करण पर्याप्त |, , ,६ पूरी करे |
(७६) पर्याप्तिके सर्व कालकी अल्पबहुत्व आहार पर्याप्ति १ शरीर पर्याप्ति २ इन्द्रिय पर्याप्ति ३ वाला भाषा पर्याप्ति ५ मन पर्याप्ति ६
|, , , ५अनुक्रमे पूरी
२ असंख्य ३ विशेष अधिक | ४ विशेष
४वि.काल करे
कालका
|"
"
"
"
"
"
"
" " " " ५विशेष किञ्चित् न्यून
६ विशेष
अधिक ६ अधूरी ते
किश्चित् न्यून " " | ६ तुल्यम्
"
"
"
"
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________________
o
मन ६
.
.
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीब(७७) श्रीप्रज्ञापना पद २८ मेथी पर्याप्ति खरूपयंत्रमिदम् पर्याप्ति ६ । आहार १ शरीर २ । इन्द्रिय ३ | श्वासोच्छ्- |
भाषा ५
वास ४ अपर्याप्ति अपर्याप्त अपर्याप्त । अपर्याप्त अपर्याप्त अपर्याप्त अपर्याप्त आहारक नियमात् आहारी आहारी आहारी आहारी आहारी अनाहारी | अनाहारी | अनाहारी | अनाहारी | अनाहारी | अनाहारी अनाहारी
(७८) आहारयंत्र पन्नवणा पद २८ द्वार
स्वामी
संख्या - सचित्त १
तिर्यंच १
मनुष्य २ अचित्त २
| देव १, नरक, २, तिर्यंच
३, मनुष्य ४ मिश्र ३ तिर्यंच १, मनुष्य २ ओज१ अपर्याप्त अवस्थामे १ रोम २ - रोम पर्याप्त २
बेंद्री, तेइंद्री, चौरेंद्री, कवल ३
तिर्यंच पंचेंद्री, मनुष्य आभोगनिवृत्तितः
रोमआहारी
कवल आहारी अनाभोगनिवृत्तितः
ओज आहारी, रोम आहारी
how
na
#wem
w hostor s
houston
मनोश अमनोज्ञ
देवता आदिक नरक आदिक
१०.
अथ १४ गुणस्थान स्वरूप लिख्यते-(१) मिथ्यात्व गुणस्थान, (२) साखादन गु., (३) मिश्र गु., (४) अविरति सम्यग्दृष्टि गु., (५) देशविरति गु., (६) प्रमत्त संयत गु., (७) अप्रमत्त संयत गु., (८) निवर्त्य बादर (अपूर्वकरण १) गु., (९) अनिवर्त बादर (अनिवृषि) गु., (१०) सूक्ष्म संपराय गु., (११) उपशांतमोह गु., (१२) क्षीणमोह गु., (१३) मयोगी केवली गु., (१४) अयोगी (केवली) गु. इति नाम.
__ अथ लक्षण–प्रथम गुणस्थानका लक्षण-कुदेव माने; कुदेवके लक्षण-यथ विषयी होवे, पुण्य प्रकृति भोग ले, राग द्वेष सहित होवे तेहने देव माने १. कुगुरु-चारित्र, धर्म रहित जे अन्यलिंगी तथा खलिंगी गुणभ्रष्ट, परिग्रहना लोभी, अभिनिवेशकी(शी), पॉA महाव्रते
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह रहित तेहने गुरु माने. धर्म-यथार्थ आत्मपरिणति केवलिभाषित अनेकांत-स्थाद्वादरूप जिम है तिम न माने, अपनी कल्पनासे सद्दहणा करे, पूर्व पुरुषांका मत भ्रंश करे, सूत्र अर्थ विपरीत कहै, नय प्रमाण न समजे, एकांत वस्तु प्ररूपे, कदाग्रह छोडे नही ते. मिथ्यात्वमोहनीयके उदये सत्पदार्थ मिथ्या भासे जैसे धत्तुरा पीये हूये पुरुपकू श्वेत वस्तु पीत भान होवे तथा जैसे ज्वरके जोरसे भोजनकी रुचि नही होती है तैसे मिथ्यात्वके उदय करी सत् पदार्थ जूठा जाने है ते प्रथम गुणस्थानके लक्षण.
जैसे पुरुषने खीर खंड खाके वम्या, पिण किंचित् पूर्वला खाद वेदे है तैसे उपशमसम्यक्त्व वमतां पूर्व सम्यक्सका खाद वेदे है. इति द्वितीय. - जैसे 'नालिकेर' द्वीपका मनुष्यका अन्नके उपरि राग नही, अने द्वेष बी नही तिनोने कदे अन्न देख्या नही इस वास्ते, ऐसे जैन धर्म उपरि राग बी नही द्वेष बी नही ते मिश्र गुणस्थानका लक्षण जानना. इति तृतीय.
अठारें दूषण रहित सो देव, पांच महाव्रतधारी शुद्ध प्ररूपक सो गुरु, धर्म केवलिभाषित स्याद्वादरूप. चौकडी दूजीके उदये अविरति है इति चतुर्थ.
१२ (१) अनुव्रत पाले, ११ पडिमा आराधे, ७ कुव्यसन, २२ अभक्ष्य टाले, ३२ अनंतकाय वर्जे, उभय काले सामायिक, प्रतिक्रमणा करे, अष्टमी, चौदस, अमावास्या, पूर्णमासी, कल्या. णक तिथि इनमे पोषध करे ओर तिथिमे नही अने इकवीस गुण धारक ए (पांचमाका) लक्षण. ____ छठा-सतरे भेदे संयम पाळे, पांच महाव्रत पाले, ५ समिति, ३ गुप्ति पाले, चारित्रिया, संतोषी, परहित वास्ते सिद्धान्तका उपदेश देवे, व्यवहारमे कले (रह?) कर चौदा उपगरणधारी परंतु प्रमादी है. एह लक्षण छठेकों.
सातमे-संज्वलन कषायना मंदपणाथी नष्ट हुया है प्रमाद जेहना, मौन सहित, मोहके उपशमावनेक अथवा क्षय करनेकू प्रधान ध्यान साधनेका आरंभ करे, मुख्य तो धर्मध्यान हुइ, अंशमात्र रूपातीत शुक्ल ध्यान पिण होवे है, षडावश्यक कर्तव्यसे रहित, ध्यानारूढतात.
अष्टमा-क्षपक श्रेणिके लक्षण-आसन अकंप, नासिकाने अग्रे नेत्रयुगल निवेशी कछुक उघाड्या है नेत्र ऐसा होके संकल्प विकल्परूप जे वायुराजा तेहथी अलग कीना है चित्त, संसार छेदनेका उत्साह कीधा है ऐसा योगीन्द्र शुक्ल ध्यान ध्यावा योग्य होता है पीछे पूरक ध्यान, कुंभक ध्यान, स्थिर ध्यान ए तीनो शुक्ल के अंतर वमे है. इति अष्टम लक्षण,
नवमे गुणस्थानके नव भाग करके प्रकृति क्षय करे. इति नवमा. दसमे सूक्ष्म लोभ संज्वलन रह्या और सर्व मोहका उपशम तथा क्षय कीया. सर्वथा मोहके उपशम होणे करके उपशांतमोह गुणस्थान कहीये है. ११ मा. सर्वथा मोहके क्षय होणे ते क्षीणमोह गुणस्थान कह्या. १२ मा. १ ध्यानमा आरूढ होवाथी।
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८२
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवच्यार घातीया कर्म क्षय किया, केवल ज्ञान, केवल दर्शन, यथाख्यात चारित्र, अनंत वीर्य इन करके विराजमान, योग सहित इति सयोगी.
मन, वचन, काया योग संघीने पांच इख अक्षर प्रमाण काल पीछे मोक्ष. (७९) आगे गुणस्थान पर नाना प्रकारके १६२ द्वार है तिनका स्वरूप यंत्रसे
१ । २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ |१०१२|१२|१३१४ १ | जीव मेद | १४ | ७ | १२१| ११ | १ | १ १ १ १ १ १ २ योग १५ १३ १३ | १० | १३ ११ १३ ११ ९ । ९ ९ ९९७० ३ | उपयोग १२ ५ ५। ६ ६ ६ ७ ७ ७ ७७/७७२२
जीवभेदमे दूजे गुणस्थानमे बादर एकेंद्रीका भेद १ अपर्याप्त कह्या है सो इस कारणते एकेंद्रीमे सास्वादन सम्यक्ख है अने सूत्रे न कही तिसका समाधान-एकेंद्रीमे सास्वादन कोइक कालमे होइ है, बहुलताइ करके नहीं होती, इस कारण ते सूत्रमे विवक्षा नही करी. अने कर्मग्रंथमे कोइ कालकी विवक्षा करके कह्या है. इस वास्ते विरोध नही. एह समाधान भगवतीकी वृत्तिमे कहा है, दुजे गुणस्थानमे अपर्याप्तका भेद है ते करण अपर्याप्ता जानने, लब्धि अपर्याप्ता तो काल करे है. अने दुजे गुणस्थाने अपयोप्ता काल नही करे. तथा योगद्वारमे पांचमे छठे गुणस्थानमे औदारिकमिश्र योग कर्मग्रंथे न मान्यो, किस कारण १ ते तिहां वैक्रिय आहारककी प्रधानता करके तिनो ही का मिश्र मान्या; अन्यथा तो १२ तथा १४ योग जानने, परंतु गुणस्थानद्वार तो कर्मग्रंथकी अपेक्षा है। तिस वास्ते कर्मग्रंथकी अपेक्षा ही ते सर्वत्र उदाहरण जानना. तथा उपयोगद्वारमे पहिले १, दूजे गुणस्थाने ५ उपयोग कहै है सो तीन अज्ञान, चक्षु, अचक्षु दोइ दर्शन; एवं ५ उपयोग जानने. दूजे गुणस्थानमे ज्ञान मलिन है, मिथ्याखके अभिमुख है. अवश्य मिथ्यालमे जायगा, तिस कारण ते अज्ञान ही कह्या; अन्यथा तो तीन ज्ञान, तीन दशेन जानने. अवधिदर्शन अवधिज्ञान विना न विवक्ष्यो. इस कारण ते ५ उपयोग कहै; अन्यथा तो प्रथम गुणस्थाने ३ अज्ञान, ३ दर्शन जानने तथा तीजे गुणस्थानमे ज्ञान अंशकी विवक्षा ते तीन ज्ञान, तीन दर्शन है; अने अज्ञान अंशकी विवक्षा करे तीन अज्ञान, तीन दर्शन जानने.
द्रव्य ४ लेश्या ६
भावः
भावलेश्या तीन-कृष्ण, नील, कापोत; एह तीन लेश्या वर्तता सम्यक्त्व न पडिवजे अने सम्यक्त्र आया पीछे तो तीनो भावलेश्या होइ है इति भगवतीवृत्तौ अने तीन अप्रशस्त भावलेश्यामे देशवृत्ती (विरति ?) सर्ववृत्ती (विरति ?) नही होइ. १ पामे.
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________________
तत्त्व ]
६
०
०
०
उत्तर
७ हेतु ५५ ५०
५७
०
८
९
०
मूल हेतु ४
०
०
सि.
थ्यात्व ५
अवि
रत
१२
कषा
य २५
योग
१५
अल्प
बहुत्व
20
उप
शम २
४
क्षा
यिक
९
५
उत्तर
१० भाव ३४
५३
मूल
भाव ३
५
३
O
०
०
१२ १२ १२ १२ ११
m
३
३२
अनंत असं. असं असं. असं.
गुणा
९ १० ११ १२
१४
०
o
२५ २५ २१ २१ १७ १३
०
औद
|यिक २१ २०
१२
१३ १३ १० १३ |११ १३
m
४३ ४६ ३९ २६ २४
०
क्षयो
पशम १० १० ११
१८
३५
o
२०
१९
३
o
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१
१
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नवतत्त्व संग्रह
२
१
१
ov
o
०
२
5
०
२७
३३ ३६ ३४ ३४ ३० ३२ ३५ ३५ ३३ ३१ २८
१ १
१
०
१२ १४ १३ १३ १५
सं.
८ ७
२ २
S
१३ १३
११ ९
२२ १६ १०
。
०
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० णामी ३ २ २ २ २ २ २.
३
S
१ १ १
१४ १४ १३ १५
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२
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0
सं. वि. ३ वि. ३. वि. ३ थोवा सं.
५
१
२
0
१९ १७ १५ १२ १० १०
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२ २
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of
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०
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१२ १२ १२
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३
२ २ २. २. २ .१
०
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१३ १२
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१३.
O
२
-
मूल भाव ५, तद्यथा – (१) औपशमिक, (२) क्षायिक, (३) क्षायोपशमिक, (४) औदकि, (५) पारिणामिक, उत्तर भेद ५७ - औपशमिक के दो भेद - (१) उपशमसम्यकूत्व, ( २ )
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८४
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवउपशमचारित्र, एवं दो; क्षायिक भाव ९ भेदे-(१) केवलज्ञान, (२) केवलदर्शन, (३) क्षायिक सम्यक्त्व, (४) क्षायिक चारित्र, (५) दानान्तराय, (६) लाभान्तराय, (७) भोगान्तराय, (८) उपभोगान्तराय, (९) वीर्यान्तराय एवं ५ क्षय करी, एवं ९; क्षयोपशमके १८ भेद(१) मति, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मनःपर्यव, (५-७) तीन अज्ञान, (८-१०) तीन दर्शन केवल विना, (११-१५) पांच अन्तरायका क्षयोपशम, (१६) देशविरति (१७) सर्वविरति, (१८) क्षयोपशमसम्यक्त्व, एवं १८ औदायिकके २१ भेद-गति ४, कषाय ४, वेद ३, लेश्या ६, मिथ्यात्व १, एवं १८, (१९) अज्ञान, (२०) अविरति, (२१) असिद्धपणउ, एवं सर्व २१, परिणामिकके ३-(१) जीव, (२) भव्य, (३) अभव्य, एवं ३, एवं सर्व ५३. नवमे गुणस्थानमे उपशमचारित्र अने क्षायिकचारित्र जो कहे है सो तीसरी चौकडीके क्षय तथा उपशमकी अपेक्षा है। उपशम क्षपक श्रेणि आश्री; अन्यथा तो चारित्र क्षयोपशमभावे है. तेरमे १४ मे एक जीव परिणामिक भाव जानना. ११ समुद्धात ५/५२५ ५६ ११५ | १ | २११.
सातमे गुणस्थानमे ५ समुद्घात कही है ते पूर्व अपेक्षा करके जाननी. सातमे (१) वेदनीय, (२) कषाय, (३) वैक्रिय, (४) आहारक ए चार समुद्घात करता तो नही, पिण वैक्रिय, आहारक शरीर विना समुद्घातके होते नही. इस वास्ते ५; एक होवे तो मारणान्तिक समुद्घात जाणवी. इति अलं विस्तरेण.
|
छठे गुणस्थानमे ७ पाये कहे है सोइ आर्तध्यानका प्रथम पाया नही ते. यथा सेवे भोगे है जे कामभोग तिनका वियोग न वंछै. तत्त्वं बहुश्रुतात् गम्यम् । १३ | दंडक २४ । २४ २२ १६ १६ २ १ १ १ । १ १ । १ १११ १४ वेद स्त्री आदि ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ . . 000 १५ चारित्र ७ १ १ १ १ १/३ ३ २ २ १ १ १११ १६ योनि लक्ष ८४ ८४ | ५६ २६ २६ १८ १४ १४ १४ | १४ | १४ | १४ १४१४१४ कुल १९७५
१९७-११६॥
५०२७११६॥ ११६॥ ६५॥ १२ १२ १८ आश्रव भेद ४१ ४१ ४१ ४० ४० ३२
छठे गुणस्थानमे बत्तीस भेद आश्रवके है, तद्यथा-(१) पारिग्रहिकी क्रिया, (२) मिथ्यादर्शनप्रत्यया, (३) अप्रत्याख्यानक्रिया, (४) सामंतोपनिपातिकी क्रिया, (५) ईर्याप
१ विस्तारथी सर्यु। २ तत्त्व बहुश्रुतथी जाणवू । ३ असंयम, देशविरति भने सामायिक आदि ५ चारित्र।
००००,०००,
०००
४२
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह थिकी क्रिया, (६) प्राणातिपात, (७) मृषावाद, (८) अदत्तादान, (९) मैथुन, (१०) परिग्रह एवं दश नास्ति अने सत्तावीसमे पांच इन्द्रिय टली. १९ संवर मेद ० ० ० १२ १२ ५७ ५७ ५७ ५७ ४५ ४५ ४५ ३० | ३०
ए सर्व संवरना भेद खधिया विचारितव्यं-सर्वगुणस्थान उपर विचार लेना.
ध्रुवबंधी प्रकृति ४७ लिख्यते-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, कषाय १६, भय १, जुगुप्सा १, मिथ्यात्व १, तैजस १, कार्मण १, वर्ण १, गंध १, रस १, स्पर्श १, निर्माण १, अगुरुलघु १, उपघात १, अंतराय ५, एवं ४७. जां लगे एहना बंध है तां लगे अवश्यमेव बंध होइ है। इस वास्ते इनका नाम 'ध्रुवबंधी' कहीये. दूजे गुणस्थानमे एक मिथ्यात्व टली. तीजे गुणस्थानमे अनंतानुबंधी ४, निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला १, स्त्यानार्द्ध १ एवं सात टली. बीजेवत् चोथे. पांचमे अप्रत्याख्यान ४ नही. छठे प्रत्याख्यानावरण चार नही. एवं सातमे तथा आठमेके प्रथम भागमे तो सातमेवत् दूजे भागमे निद्रा १, प्रचला १, ए, दो टली, वीजे भागमे तैजस १, कार्मण १, वर्ण १, गंध १, रस १, स्पर्श १, निमोण १, अगुरुलघु १, उपधात १, एवं ९ टली. चोथे भागमे भय १, जुगुप्सा १, एवं २ टली, १८ का बंध. एवं नवमे दसमे ४ टली. संज्वलनका चौक, पांच ज्ञान, चार दशेन, पांच अंतराय, एवं १४ का बंध; आगे नास्ति.
२१ अध्रुवबंधी ...
२७। ४
घा
७० ५५ | ३५
३८
३२| ३२ | २८
४
३
अनुवबंधी प्रकृति ७३ है.-हास्य १, रति १, शोक १, अरति १, वेद ३, आयु ४, गति ४, जाति ५, औदारिक १, वैक्रिय १, आहारक १ इन तीनोहीके अंगोपांग ३, संघयण ६, संस्थान ६, आनुपूर्वी ४, विहायोगति २, परापात १, उच्छ्वास १, आतप १, उद्योत १, तीर्थकर १, सदशक १०, स्थावरदशक १०, गोत्र २, एवं सर्व ७३. अर्थ-कारण तो मिथ्यात्व आदि बंधनेका है अने ए ७३ प्रकृतिका बंध होय बी अने नही बी होय; इस वास्ते इनका नाम 'अध्रुवबंधी' कहीये. प्रथम गुणस्थानमे तीन टले-आहारक १, आहारक-अंगोपांग १, तीर्थकर १; एवं ३. दूजे गुणस्थाने १५ टली-नपुंसक वेद १, नरकत्रिक ३, जाति ४, पंचेन्द्रिय विना, छेहला संहनन १, छहला संस्थान १, आतपनाम १, थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, अपर्याप्त १, एवं १५ टली. तीजेमे २० टली-स्त्रीवेद १, आयु ३, तियेच गति १, तिच
१ पोतानी मति प्रमाणे । २ त्रीजानी पेठे। ३ नथी।
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवआनुपूर्वी १, मध्यके ४ संहनन, मध्यके ४ संस्थान, उयोत १, अशुभ चाल १, दुर्भग नाम १, दुःखर १, अनादेय १, नीच गोत्र १, एवं २० टली. चोथेमे तीन वधी-मनुष्य-आयु १, देव-आयु १, जिन-नाम १. पांचमे ६ टली-मनुष्यत्रिक ३, औदारिक १, औदारिकअंगोपांग १, प्रथम संहनन, एवं ६ टली. छठे पांचमे वत्. सातमे आहारक तदुपांग २ वधी, ६ टली-असातावेदनीय १, शोक १, अरति १, अस्थिर नाम १, अशुभ १, अयश १, एवं ६. आठमेके दो भाग. प्रथम भागमे एक देव-आयु टली. दूजे भागमे चारका बंध-साता. वेदनीय १, पुरुषवेद १, यशकीर्ति १, ऊंच गोत्र १, एवं ४ का बंध, शेष २३ टली. नवमेके प्रथम भागे ४, दूजे भागमे १ पुरुषवेद टला, तीनका बंध. देशमेऽपि एवं ३ का बंध. आगले तीन गुणस्थानमे एक सातावेदनीयका बंध. १४ मा अबंधक जानना. २२ ध्रुव उदयी २७ २६ २६ २६ २६ २६ २६ | २६ २६ २६ २६ २६ १२ ०
- ध्रुव उदयी प्रकृति २७ है, ते यथा-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ५, चक्षु आदि ४, मिथ्यात्व १, तेजस १, कार्मण १, वर्ण १, गंध १, रस १, स्पर्श १, निर्माण १, अगुरुलघु १, स्थिर १, अस्थिर १, शुभ १, अशुभ १, अंतराय ५, एवं २७. एह प्रकृति जां लगे उदय है तां लगे अवश्य उदय है, अंतर न पडे; इस कारणसे इनका नाम 'ध्रुव उदयी' कहीये. दूजेमे मिथ्यात्वमोहनीय टली. एवं यावत् १२ मे गुणस्थान ताई २६ का उदय. तेरमे १४ टली-पांच ज्ञानावरणीय, चार दर्शनावरणीय, पांच अन्तराय, एवं १४. चौदमे ध्रुव उदयी कोइ प्रकृति नही है.... २३ अध्रुव उदयी ९० ८५ ७४ | ७८ ६१ ५५ ५० ४६ ४० | ३४ | ३३ ३३ ३०/ १२ __अध्रुव उदयी ९५ प्रकृति है, तद्यथा-निद्रा ५, वेदनीय २, मोहकी २७ मिथ्यात्व विना, आयु ४, गति ४, जाति ५, शरीर ३, अंगोपांग ३, संहनन ६, संस्थान ६, आनुपूर्वी ४, विहायोगति २, पराघात १, उच्छ्वास १, आतप १, उद्योत १, तीर्थकर १, उपघात १, प्रसादि ८, स्थिर १, शुभ १, ए दो विना आठ, स्थावर ८, अस्थिर १, अशुभ १, ए दो विना गोत्र २; एवं सर्व ९५. कदेक उदय हूइ, कदेक उदय नही होय; इस वास्ते 'अध्रुव उदयी' कहीये. पहिलेमे ५ नही-सम्यक्त्वमोह १, मिश्रमोह १, आहारक शरीर १, तदुपांग १, जिननाम १, एवं ५ नही. दूजेमे ५ नही-नरक-आनुपूर्वी १, आतप १, सूक्ष्म नाम १, साधारण १, अपर्याप्त १; एवं ५ नही. तीजेमे १२ टली-अनंतानुबंधी ४, तीन आनुपूर्वी, च्यार जात, स्थावर नाम १, एवं १२ टली; अने एक मिश्र मोहनीय वधी. चौथेमे चार आनुपूर्वी, सम्यक्त्वमोहनीय १, एवं ५ वधी, अने एक मिश्र मोहनीय टली. पांचमेमे १७ टली
१ दशमामां पण भा प्रमाणे।
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह अप्रत्याख्यान ४, नरकत्रिक ३, देवत्रिक ३, वैक्रिय शरीर १, तदुपांग १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १, तिर्यंच-आनुपूर्वी १, मनुष्य-आनुपूर्वी १; एवं १७ नही. छठेमे आठ टली–प्रत्याख्यानावरण ४, तिर्यंच आयु १, तियेच गति १, उद्योत १, नीच गोत्र १, एवं ८ टली; अने दोय वधी-आहारक १, तदुपांग १. सातमे पांच टली-निद्रा ३, आहारक १, तदुपांग १; एवं ५ टली. आठमे ४ टली-सम्यक्त्वमोहनीय १, छेहला तीन संहनन ३ एवं ४ टली. नवमे ६ टली-हास्य १, रति १, शोक १, अरति १, भय १, जुगुप्सा १; एवं ६ टली. दशमे ६ टली-वेद ३, लोभ विना संज्वलनकी ३ एवं ६ टली. ग्यारमे एक संज्वलनका लोभ टला. बारमे संहनन २ टले. अने द्विचरम स(म)य दोय निद्रा टली. तेरमे एक जिननाम वध्या. चौदमे १८ टली, १२ रही तिन बारांका नाम-साता वा असाता १, मनुष्यगति १, पंचेन्द्रिय जाति १, सुभग १, सनाम १, बादर १, पर्याप्त १, आदेय १, यश १, तीर्थकर १, मनुष्य-आयु १, उंच गोत्र १; एवं १२ है. छेहले समय एक वेदनीय १, उंच गोत्र १; एवं २ टली. तीर्थकरकी अपेक्षा एह १२. तथा ९ का उदये. २४ ध्रुव सत्ता १३० १३० १३० १३० १३० १३० १३० १३० १३० १३० १३० ९० ७४/७४
ध्रुव सत्ता १३० है, तद्यथा-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, वेदनीय २, सम्यकत्वमोहनीय १, मिश्रमोहनीय १, ए दो विना २६ मोहकी, तिथंच गति १, जाति ५, वैक्रिय १, आहारक विना शरीर ३, औदारिक अंगोपांग १, पांच बंधन-(१) औदारिक बंधन, (२) तैजस बंधन, (३) कार्मण बंधन, (४) औदारिक तैजस कार्मण बंधन, (५) तैजस कार्मण बंधन, एवं ५, इम पांच ही संघातन, संहनन ६, संस्थान ६, वर्ण आदि २०, तिर्यंच-आनुपूर्वी १, विहायोगति २, प्रत्येक ७ तीर्थंकर विना, त्रस आदि १०, स्थावर आदि १०, नीच गोत्र १, अंतराय ५, एवं १३०.१३० बंधना मध्ये पांच बंधन टले है ते लिख्यते-क्रिय बंधन १, आहारक बंधन १, वैक्रिय तैजस कार्मण बंधन १, आहारक तैजस कार्मण बंधन १, औदारिक आहारक तेजस कार्मणबंधन १; एवं ५ बंधने टले. एवं संघातन ५. ध्रुव सत्ताका अर्थ-जां लगे ए प्रकृतिकी सत्ता कही है तां लगे सदाइ लामे; इस वास्ते 'ध्रुव सत्ता' कहीये. सातमे गुणस्थान ताइ १३० की सत्ता. आठमे क्षपक उपशम श्रेणिकी अपेक्षा दो प्रकारकी सत्ता जाननी-१३० की सत्ता उपशम सम्यक्त्वकी अपेक्षा ग्यारमे ताइ जाननी; अने क्षपककी अपेक्षा आठमे पांच टली, तद्यथा-अनंतानुबंधी ४, मिथ्यात्वमोहनीय १; एवं ५ टली. नवमे ३३ टली-निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला १, स्त्यानर्द्धि १, मोहकी १९ संज्वलनके माया, लोभ विना, तिर्यच गति १, पंचेन्द्रिय विना जाति ४, तिर्यंच-आनुपूर्वी १, आतप १, उदद्योत १, स्थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १; एवं ३३ टली.. नवमेके नव भाग करके ३३ टालनी, यथा-प्रथम भागमे तो आठमे गुणस्थानवत. दूजे भागमे १४ टली-तिर्यंचद्विक
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८८
श्रीविजयानंद सूरिकृत
[ १ जीव
२, जाति ४, थीणत्रिक ३, उद्योत १, आतप १, स्थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १९ एवं १४ टली; तीजे भागे ८ टली -दो चौकडी; चोथे भागे नपुंसकवेद १९ पांचमे भागे स्त्रीवेद १; छठे भागे हास्य आदि ६; सातमे भागे पुरुषवेद १; आठमे भागे संज्वलन क्रोध १९ नवमे भागे संज्वलन मान १ एवं सर्व भागोमे ३३ टली. दशमे गुणस्थाने एक संज्वलननी माया टली. बारमे संज्वलन लोभ टला. तेरमे १६ टली - निद्रा १, प्रचला २, ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४, अंतराय ५१ एवं १६ टली. चौदमे ७४ की सत्ता तो तेरमेवत्. छेहले समय सातकी सत्ता - त्रस १, बादर १, पर्याप्त १, आदेय १, सुभग १, पंचेन्द्रिय १, साता वा असाता १, एवं ७ रही. मुक्तौ गमने सर्व प्रकृतिका व्यवच्छेद मंतव्यं.
२५
२६
अध्रुव सत्ता २८
२७
सर्वघाती २०
अध्रुव सत्ता २८ प्रकृति लिख्यते - सम्यक्त्वमोह १, मिश्रमोह १, आयु ४, तीन गति तिर्येच विना, वैक्रिय शरीर १, तदुपांग १, आहारक शरीर १, तदुपांग १, बंधन ५, संघातन ५, इनका स्वरूप ध्रुव सत्तामे लिख्या है, तिर्यच विना तीन आनुपूर्वी, तीर्थकर १, उंच गोत्र १; एवं २८. अध्रुव सत्ताका अर्थ- सदा सत्तामे न लाभे, इस वास्ते 'अध्रुव सत्ता'. दुजैमे एक तीर्थकर नाम टला. एवं त्रीजे. चौथेथी मांडी ११ मे ताइ २८ की सत्ता, तीर्थकर नाम एक मिला. आठ गुणस्थाने क्षपक श्रेणि अपेक्षा २३ की, सत्ता; ५ टली - सम्यक्त्व - मोहनीय १, मिश्रमोह १ मनुष्य विना आयु ३; एवं ५. नवमे २ टली - नरकगति १, नरक आनुपूर्वी १, दशमे, बारमे, तेरमे, चौदमे २१ तो नवमेवत्, अने पांचवी सत्ता छेहले समयमनुष्यत्रिक १, उंच गोत्र ९, तीर्थकर १. एवं ५ की सत्ता जाननी.
२८ | २७ २७ २८ २८ २८ २८
देशघाती २५
२० १९ १२ १२ ८ ४ ४
૨૮ ૨૮ ૨૮ ३३ २१ २१
१. मोक्षे जतां तो बधी प्रकृतिनो उच्छेद मानवो ।
२८ | २१ २१
४ २
सर्वघाती २० - केवलज्ञानावरणीय १; केवलदर्शनावरणीय १, निद्रा ५, कषाय १२ संज्वलन विना, मिथ्यात्वमोहनीय १ एवं सर्व २०. सर्वघातीका अर्थ- आत्माका सर्वथा गुण हणे हैं, इस वास्ते 'सर्वघातिक' नाम दूजे मिध्यात्वमोहनीय टले. तीजे, चोथे अनंतानु४, निद्रा ३, एवं ७ टली. पांच अप्रत्याख्यान ४ टली. छठे, सातमे तीजी चौकडी टली. आठमे सातमेवस्. आगे दो रही - केवलज्ञानावरणीय १, अने केवलदर्शनावरणीय १. एह द्वार बंध अपेक्षा है,
२ २
२५ | २४ | २३ | २३ | २३ | २३ | २१ २१ १७ १२
२१ ५
० 0 ०
० 0 0 0
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तत्त्व ]
नवतत्त्व संग्रह
देशघाती २५ –मति आदि ज्ञानावरणीय ४, तीन दर्शनावरणीय केवल विना, संज्वलन ४, हास्य आदि ६, वेद ३, अंतराय ५, एवं २५. अर्थ- देश थकी आत्माना गुण हणे, नं तु सर्वथा. दूजे नपुंसकवेद टला. तीजेसे लेइ छठे ताइ स्त्रीवेद टल्या. सातमे अरति १, शोक १ टले. एवं आठमे, नवमेमे हास्य १, रति १. भय १, जुगुप्सा ९; एवं ४ टली, दशमे संज्वलनका चौक ४, पुरुषवेद १; एवं ५ टली. आगे बंध नही.
२८
अघाती ७५
७२
| १८ | ३९ | ७२ | ३६ | ३६ | ३४ | २३ | ३ | ३ | ३ |
अघाती ७५ है - वेदनीय २, आयु ४, नामकी ६७, गोत्र २; एवं ७५. अर्थज्ञान, दर्शन, चारित्र इनकूं न हणे; इस वास्ते 'अघाती' कहीये. पहिलेमे आहारकद्विक २, जिननाम १ ; एवं तीन नही. दूजे १४ टली - छेवट्ठ (सेवार्त) संहनन १, हुंडक संस्थान १, एकेन्द्रिय जाति १, स्थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, अपर्याप्त १, आतप १, विकलत्रिक ३, नरकत्रिक ३; एवं १४. तीजे मे १९ टली - दुभग १, दुःखर १, अनादेय १, संहनन ४ मध्यके, संस्थान ४ मध्यके, अप्रशस्त विहायोगति १, तिर्यच गति १, तिर्यच-आनुपूर्वी १, आयु ३ नरक विना, उद्योत १, नीच गोत्र १; एवं १९. चौथे ३ मिले - मनुष्य - आयु १, देव-आयु १, जिननाम १; एवं ३. पांचमे ६ टली - प्रथम संहनन १, औदारिक १, तदुपांग १, मनुष्यगति १, मनुष्य-आयु १, मनुष्य - आनुपूर्वी १; एवं ६. एवं पांचमेवत् छठे सातमे ४ टली - असाता १, अस्थिर ९, अशुभ १, अयश १; एवं ४ टली. आहारक १, तदुपांग १, मिले. आठमे एक देव-आयु टली. नवमे ३० टली, अने ३ रही तेहनां नाम - सातावेदनीय १, यश १, उंच गोत्र १, एवं दशमे, ११ मे, १२ मे, १३ मे ऐका साताबंध.
२९. पुण्य भेद
४२
१ १ Q
३९ ३८ ३४ ३७ ३१ ३१ ३३ ३२ ३ ३ १ १ १ O
पुण्यप्रकृति ४२ – सातावेदनीय १, नरक विना आयु ३, मनुष्य-देव-गति २, पंचेन्द्रिय जाति १, शरीर ५, अंगोपांग ३, प्रथम संहनन १, प्रथम संस्थान ९, शुभ वर्ण आदि ४, मनुष्य देव आनुपूर्वी २, शुभ चाल ९, उपघात विना प्रत्येक ७, त्रस दशक १०, उंच गोत्र एवं ४२. सुखदायक अने शुभ है, इस वास्ते 'पुण्यप्रकृति' कहीये. पहिलेमे ३ टलीआहारकद्विक २, तीर्थकर नाम १; एवं ३. दूजे एक आतापनाम टला. तीजे चार टलीतीन आयु ३, उद्योत ९; एवं ४. चोथे तीन मिली - मनुष्य - देव- आयु २, जिननाम १. पांच ६ टली - मनुष्यत्रिक ३, प्रथम संहनन १, औदारिक १, तदुपांग १ एवं ६. एवं छठे, सात आहारक १, तदुपांग १; एवं दो मिली. आठमे एक देव-आयु टली. नवमे २९ टली;
१ नहि के बधी रीते । २ एकलो ।
००
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवतीन रही-साता १, यश १, उंच गोत्र १. एवं दशमे. आगे एक सातावेदनीयका बंध. चौदमे गुणस्थानमे बंधका व्यवच्छेद है.
३० | पापप्रकृति ८२ | ८२ | ६७ १ ४४ | ४४ | ४० | ३६ ३० २८/ २३ | १४ | 0 0 010 . पापप्रकृति ८२-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, असाता १, मोहकी २६, नरकआयु १, नरक-तिर्यंच-गति २, जाति एकेन्द्रिय आदि ४, संहनन ५, संस्थान ५, अशुभ वर्ण आदि ४, नरक-तिर्यंच-आनुपूर्वी २, अशुभ चाल १, उपघात (आदि) स्थावर दशक १०, नीच गोत्र १, अंतराय ५; एवं ८२. अर्थ-दुःख भोगवे अथवा आत्माना आनंदरस शोषे ते 'पाप.' दूजेमे १५ टली-मिथ्यात्व १, हुंडक संस्थान १, छेवट्ठ संहनन १, नपुंसक वेद १, जाति ४, स्थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, अपर्याप्त १, नरकत्रिक ३; एवं १५. तीजे २३ टली-अनंतानुबंधी ४, स्त्यानर्वित्रिक ३, दुभग १, दुःस्वर १, अनादेय १, संहनन ४ मध्यके, संस्थान ४ मध्यके, अशुभ चाल १, स्त्रीवेद १, नीच गोत्र १, तिर्यंच-गति १, तियंचआनुपूर्वी १; एवं २३. एवं चौथे पिण. पांचमे दूजी चौकडी ४ टली. छठे तीजी चौकडी ४ टली. सातमे ६ टली-अस्थिर १, अशुभ १, असाता १, अयश १, अरति १, शोक १; एवं ६. आठमे २ टली-निद्रा १, प्रचला १. नवमे ५ टली-वर्णचतुष्क ४, उपघात १. दशमे ९ टली-हास्य १, रति १, भय १, जुगुप्सा १, संज्वलनचतुष्क ४, पुरुषवेद १; एवं ९. ग्यारमे १४ टली-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४, अंतराय ५; एवं १४ टली, बंध नही.
३१ परावर्तिनी ९१/ ८९ | ७४ | ४७ | ४९ | ३९ | ३५ | ३१ | ३१ | ८ | ३ | १ | १/१/० . परावर्तिनी ९१-निद्रा ५, वेदनीय २, कषाय १६, हास्य १, रति १, शोक १, अरति १, वेद ३, आयु ४, गति ४, जाति ५, औदारिक, वैक्रिय, आहारक शरीर ३, अंगोपांग ३, संहनन ६, संस्थान ६, आनुपूर्वी ४, विहायोगति २, आतप १, उद्योत १, त्रस १०, स्थावर १०, गोत्र २; एवं ९१. अर्थ-'परावर्तिनी ते कहीये जे अनेरी प्रकृतिनो बंध, उदय निवारीने अपना बंध, उदय दिखावे [ ते परावर्तिनी] यतः (पंचसंग्रहे बन्धव्यद्वारे गा. ४२)
"विणिवारिय जा गच्छइ बंध उदयं व अण्णपगईए ।
सा हु परियत्तमाणी अणिवार(रे)ति अपरियत्ता[ए] ॥" पहिलेमे २ टली-आहारक द्विक २. दुजेमे १५ टली-नरकत्रिक ३, जाति ४ पंचेन्द्रिय विना, छेवट्ट संहनन १, हुंडक संस्थान १, नपुंसकवेद १, स्थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, अपर्याप्त १, आतप १; एवं १५ नही. तीजेमे २७ टली-अनंतानुबंधी ४, स्त्यानधि त्रिक ३, तिर्यचत्रिक ३, देव-मनुष्य-आयु २, स्त्रीवेद १, दुभग १, दुःस्वर १, अनादेय १, संहनन ४ मध्यके, संस्थान ४ मध्यके, दुर्गमन १, नीच गोत्र १, उद्योत १; एवं २७ टली. चोथेमे २ मिली-देव-आयु १, मनुष्य-आयु १. पांचमे १० टली-दूजी चौकडी ४, प्रथम
१ छाया-विनिवार्य या गच्छति बन्धमुदयं वाऽन्यप्रकृतेः।
सा खल परावर्तमाना अनिवारयन्ती अपरावर्तमाना ॥
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तत्त्व
नवतत्त्वसंग्रह संहनन १, औदारिकद्विक २, मनुष्यत्रिक ३; एवं १०. छठे ४ टलीतीजी चौकडी ४. सातमे ६ टली-अस्थिर १, अशुभ १, असाता १, अयश १, अरति १, शोक १; एवं ६ टली; आहारकद्विक २ मिले. आठमे एक देव-आयु टली. नवमे २२ टली, ८ रही (ता)का नामसंज्वलनचतुष्क ४, पुरुषवेद १, साता १, यश १, उंच गोत्र १; एवं ८ रही. दशमे ५ टली, ३ रही (ता)का नाम-साता १, यश १, उंच गोत्र १; एवं ३ रही. ग्यारमे, बारमे, तेरमे एक सातावेदनीयका बंध मंतव्यम्३२ | अपरावर्ति २९ / २८ | २७ | २७ | २८ | २८ | २८ २८ २८ | १४ | १४ | 0 0 0 0
अपरावर्ति २९ लिख्यते-ज्ञानावरणीय ५, चक्षु आदि ४, भय १, जुगुप्सा १, मिथ्यात्व १, तैजस १, कार्मण १, वर्ण आदि ४, पराघात १, उच्छ्वास १, अगुरुलघु १, तीर्थकर १, निर्माण १, उपघात १, अंतराय ५; एवं २९. जे परनो बंध, उदय निवार्या विना आपणा बंध, उदय दिखलावे ते 'अपरावर्तिनी.' पहिलेमे एक तीर्थकरनाम टल्या. दूजे तथा तीजे एक मिथ्यात्व टली. चौथेसे लेइ ८ मे ताई १ तीर्थकरनाम मिल्या. नवमे तथा दशमे १४ टली, १४ रही-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४, अंतराय ५; एवं १४ रही. आगे बंध नही. इति एवं बंध अधिकार. अथ उदय अधिकार जानना३३ क्षेत्रविपाकी ४|| ३ |007 | 07 | 00000
क्षेत्रविपाकी चार-आनुपूर्वी ४. जिस क्षेत्रमे जावे तिहां वाट वहता उदय होइ ते 'क्षेत्रविपाकी, "पुवी उदय वंके" इति वचनात्. आनुपूर्वी वक्रगतिमे उदय होइ. ३४ भवविपाकी ४|४|४|४| ४ | २ | १ | १ १ | १ १ १ १/१/१
भवविपाकी आयु ४—जिस भवमे उदय होइ तिहां ही रस देवे, ने तु भवांतरे इति. ३४ जीवविपाकी ७८ ७५ / ७२ ६४ ६४ ५५ | ४९ ४६ | ४५ ३९ ३२ ३१३१७११
जीवविपाकी ७८-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, वेदनीय २, माहे २८, गति ४, जाति ५, विहायोगति २, उच्छ्वास १, तीर्थकर १, त्रस आदि त्रस १, बादर १, पर्याप्त १, सुभग आदि ४, स्थावर १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १, दुर्भग आदि ४, गोत्र २, अंतराय ५; एवं ७८. जीवने रस देवे पिण शरीर आदि पुद्गलने रस न देवे, तसात् 'जीवविपाकी' नाम. पहिले ३ टली-सम्यक्त्वमोहनीय १, मिश्रमोहनीय १, जिननाम १. दुजे ३ टलीसूक्ष्मनाम १, अपर्याप्त १, मिथ्यात्वमोहनीय १; एवं ३. तीजे ९ टली-अनंतानुबंधी ४, एकेंद्री १, बेइंद्री १, तेंद्री १, चौरिंद्री १, स्थावर १; एवं ९ मिश्रमोहनीय मिली. चौथे एक मिश्रमोहनीय टली, सम्यक्त्वमोहनीय मिली-पांचमे ९ टली-दूजी चौकडी ४, गति २,
१ मानवो। १ नहि के अन्य भवमां। ३ तेथी।
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवदुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं ९. छठे ६ टली–तीजी चौकडी ४, तिर्यंच-गति १, नीच गोत्र १; एवं ६ टली. सातमे ३ निद्रा टली. आठमे एक सम्यक्त्वमोहनीय टली. नवमे हास्य आदि ६ टली. दशमे ३ वेद, लोभ विना तीन संज्वलनकी; एवं ६ टली, ११ मे संज्वलनका लोभ टला. बारमे ३२ तो ग्यारमेवत. अंतके द्विसमयेमे दो निद्रा टली. तेरमे १४ टली-ज्ञाना० ५, दर्शना०४, अंतराय ५; एवं १४; तीर्थकरनाम मिल्या. चौदमे ६ टलीएक तो वेदनीय साता वा असाता १, विहायोगति २, सुस्वर १, दुःखर १, उच्छ्वास १; एवं ६ टली; ११ रही-साता वा असाता १, मनुष्यगति १, पंचेन्द्रिय १, सुभग १, त्रस १, बादर १, पर्याप्त १, आदेय १, यश १, तीर्थकर १, उंच गोत्र; एवं ११.
पुद्गलविपाकी ३५ | Janat३४ ३२| ३२ ३२ ३० ३० ३१ २६ २६ २६ २६ २४२४ १०
पुद्गलविपाकी ३६-शरीर ५, अंगोपांग ३, संहनन ६, संस्थान ६, वर्ण आदि ४, पराघात १, आतप १, उद्योत १, अगुरुलघु १, निर्माण १, उपघात १, प्रत्येक १, साधारण १, स्थिर १, शुभ १, अस्थिर १, अशुभ १; एवं ३६. पहिले २ टली-आहारकद्विक २. दूजे २ टली-आतप १, साधारण १. एवं तीजे, चौथे. पांचमे वैक्रियद्विक २. छठे १ टली-आहारक १; अने आहारकद्विक २ मिले. सातमे २ टली-आहारकद्विक २. आठमे ३ टली–अंतके ३ संहनन. एवं ११ मे ताइ. १२ मे २ टली-दूजा, तीजा संहनन. एवं तेरमे बारमेवत्. (अर्थ)-पुद्गलने रस देवे पिण जीवने नही..
ज्ञानावरणीयके ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ५ ० ० ०°
बंधस्थान ज्ञानावरणीयके ३७
उदयस्थान १
५
CA
४००००
ज्ञानावरणीय कर्मना बंधस्थान १, पांच प्रकृतिना, एवं उदयस्थान १, सत्तास्थान १ पांच रूप. अ दर्शनावरणीयके | बंधस्थान ३ ।।
नवनो बंधस्थान प्रथम. दूजे गुणस्थानमे १. छका बंधस्थान त्रीजासे लेकर आठमे गुणस्थानके प्रथम भागमे होइ है. छके बंधमे ३ टली-निद्रानिद्रा १, प्रचलाप्रचला १, स्त्यानधि १; एवं ३ टली. चारनो बंधस्थान अपूर्वकरणके दजे भागथी लेकर दशमे ताइ है. चारके बंधस्थानमे २ प्रकृति टली-निद्रा १, प्रचला १. एवं दर्शनावरणीयके बंधस्थान ९।६।४.
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तत्त्व
नवतत्त्वसंग्रह
5
थान
४० दर्शनउद्वस्थान
१
70
CS
cs
:
चारका उदयस्थान होवे तो चक्षु आदि ४. जो पांचका उदयस्थान होवे तो तिहां निद्रा एक कोइ जिसका जिस गुणस्थानमे उदय है सो प्रक्षेपीये तो पांचका उदयस्थान.
मिथ्यात्वसे लेकर उपशान्तमोह लगे नवकी सत्तानो एक स्थान. उपशपश्रेणि अपेक्षा अने क्षपकश्रेणि आश्री नवमे गुणस्थानके प्रथम भाग लगे नवनी सत्ता. नवमेके दूजे भागथी प्रारंभी बारमेके छहले दो समय लगे स्त्यानधि त्रिक क्षये ६ नी सत्तास्थान. बारमेके छहले समय दो निद्रा क्षये ४ का सत्तास्थान ज्ञातव्यम्.
. साता
४२
वेदनीयके । बंधस्थान १
साता
वा अ
प
प
प
सा
प
प
प
प
प
वेदनीयका बंधस्थान १-साता वा असाता. आपसमे विपर्ये(र्यय) है. इस वास्ते बंधस्थान १ जानना.
साता
एएएएए
४३
वेदनीयका उदयस्थान १
प
ए
IA
प
प
प
वेदनीयका उदयस्थान १-साता वा असाता. दोनो(का) समकालमे उदय नही, इस वास्ते एक स्थान.
४४
वेदनीयके | सत्तास्थान २
Mov
Now
orol
१
वेदनीयके सत्तास्थान २ साता वा असाता. जो साता क्षय कीनी होइ तो असाताकी सत्ता असाता क्षय करी होइ तो साताकी सत्ता; इस वास्ते दो सत्तास्थान ज्ञेयम्.
50
मोहके बंधस्थान १०
०००
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श्री विजयानंद सूरिकृत
[१] जीव
मोहनीयके दश बंधस्थानः तत्र २२ नो बंध किम् ? २८ माहेथी ६ काटे - सम्यक्त्वमोहनी १, मिश्रमोहनीय १, वेद २, हास्ययुगल २ अथवा अरतियुगल २, इनमे (से) एक युगल लीजे; एवं ६ टली. २१ के बंधे मिध्यात्व १ टली. १७ ने बंधे प्रथम चौकडी ४ टली. १३ ने बंधे दूजे चौकडी ४ टली. ९ ने बंधस्थाने तीजी चौकडी ४ टली. ५ ने बंधे ४ टलीहास्य १, रति १, भय १, जुगुप्सा १; एवं ४ नवमेके पहिले भागे ५ बांधे; दूजे भागमे पुरुषवेद टला; तीजे भागे संज्वलनक्रोध टला, चौथे भागे संज्वलनमान टला, पांचमे भागे माया टली.
२
१
१०
१
उदयस्थानमे पचानुपूर्वी समजना. दसमे एक संज्वलन लोभनो उदय एवं एक स्थान. नवमे संज्वलना एक कोइ उदय; एवं १. जो चार जगे एकेकका अंक लिख्या सो चार तरे (ह) उदय - क्रोध १ वा मान १ वा माया १ वा लोभ १. दोके उदयमे एक कोइ वेद घालीये तो २. अपूर्वकरणे हास्य १, रति १, घाले ४ का उदय भय प्रक्षेपे ५ का उदय; जुगुप्सा प्रक्षेपे ६ का उदय सातमे तथा छठे प्रत्याख्यानीया कोइ एक घाले सातका उदय पांचमे अप्रत्याख्यानीया कोइ एक घाले ८ नो उदयः अविरति मिश्र गुणस्थाने अनंतानुबंधी एक कोइ घाले ९ नो उदय. मिथ्यात्वगुणस्थाने एक मिथ्यात्व घाले ९० का उदय एवं उदयस्थान नव.
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मोहके उदयस्थान ९
७
940
9 v
90
205
५ ४
१० ८ ७
४
७
20 J
४
अथ सुगमताके वास्ते फिर लिखीये है - मिथ्यात्वगुणस्थानमे चार उदयस्थान. प्रथम सातका उदय - मिथ्यात्व १, कोई अप्रत्याख्यान चारोंमें १, कोइ प्रत्याख्यान १, कोइ संज्वन १. कोइ किस वास्ते ? एक चौकडीना क्रोध आदि वेदातां सघलाइ क्रोध वेदे क्रोध, एवं मान आदि वेदे मान; जातके सदृशपणे करी तीन वेद माहे एक कोइ वेद १, हास्य १, रति १ वा शोक १, अरति १ इनमे एक युगल लीजे; एवं ७. आठके उदयमे भय वा जुगुप्सा; अथवा अनंतानुबंधी चारमे (से) एक इन तीनो माहेथी एक, सात पूर्वली एवं ८. नवके उदय मे अनंतानुबंधी ९, भय १ लीजे; अथवा अनंतानुबंधी १ जुगुप्सा १ लीजे; अथवा भय १, जुगुप्सा १ लीजे; एवं ९. दशमे तीनो - अनंतानुबंधी १, भय १, जुगुप्सा १; ए तीनो सातमे घाले. दूजेमे सातका उदयमे चारों चौकडीका स्वजातीया एकेक; एवं ४ हास्य १, रति १, शोक १, अरति १, इनमेसुं एक जुगल २, एक कोइ वेद १; एवं ७. आठमे भय १ वा जुगुप्सा १ घाले ८. भय १, जुगुप्सा १ दोनो घाले ९. एवं मिश्र जानना. चौथे गुणस्थाने ६ नो उदय उपशमसम्यक्त्व वा क्षायिक सम्यकूत्वना धणीने है, अप्रत्याख्यान १, प्रत्याख्यान १, संज्वलन १, इनमें एकेक स्वजातीया ३, एक कोइ वेद १, एक कोइ युगल एवं ६. सातमे
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तत्त्व ]
नवतत्त्वसंग्रह
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भय १ वा जुगुप्सा १ वा सम्यक्त्वमोहनीय १ घाले ७. सम्यक्त्वमोह १, भय १ वा सम्यक्त्वमोह १, जुगुप्सा १ वा भय १, जुगुप्सा १ घाले ८१ तीनो घाले ९. पांचमे गुणस्थाने प्रत्याख्यान १, संज्वलन १, एक कोइ वेद १, एक कोइ युगल २; एवं ५. भय १ वा जुगुप्सा १ वा सम्यक्त्वमोह १ घाले ६, भय १, वा जुगुप्सा १ वा भय १ सम्यक्त्वमोह १ वा जुगुप्सा १ सम्यक्त्वमोह १ घाले ७; तीनो घाले ८. छठे गुणस्थानमे संज्वलन १, एक कोइ वेद १, एक कोइ युगल २१ एवं ४. क्षायिक तथा उपशमसम्यक्त्वना धणीने ४ का उदय भय १, जुगुप्सा १ सम्यक्त्वमोहनीय पीछली तरे घालीये तो ५/६ | ७ का उदय होवे. छठे गुणस्थानवत् सातमा. आठमे नवमेका पहिले लिखाही है.
४७
४८
मोहके सत्तास्थान १५
५०
४९ उदयस्थान १
आयुना बंधस्थान १
५१
सत्तास्थान १
मोहनीयके सत्तास्थान १५. सर्व सत्ता २८. सम्यक्त्वमोहनीय रहित २७, मिश्र रहित २६. ए छब्बीसनी सत्ता अभव्यने हुइ है, तथा २८ मे चार अनंतानुबंधी क्षये २४ नी सत्ता, मिथ्यात्व क्षये २३ नी सत्ता, मिश्रमोह क्षये २२ नी सत्ता, सम्यकत्वमोहनीय क्षये २१ नी सत्ता, दूजी, तीजी चौकडी क्षये १३ नी सत्ता, नपुंसकवेद क्षये १२ नी सत्ता, स्त्रीवेद क्षये ११ नी सत्ता, हास्य आदि ६ क्षये ५ नी सत्ता, पुरुषवेद क्षये ४ नी सत्ता, संज्वलनक्रोध क्षये ३, मान क्षये २, माया क्षये ९; एवं १५ सत्तास्थान गुणस्थान पर सुगम है.
२८
२७
२६
नामकर्मके बंध स्थान ८
१
२८ २८ २८ २८ २४ २८ | २४ २४ २४ २८ | २७ २३ २४ २२ २१
२३ | २३ | २३ २२ | २२ | २२ २१ २१ २१
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वा
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२३/२५ २८ २६ २८ २९ २९/३० ३०
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२८.
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२८ २८
२९ २९
२८ २४
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२८/२४
२१।१३
१२/११
५/४/३/२
१
१
०
२८ । २८
२९ २९ ३० ३० ३१ | ३१
12424 २४ २४
१
२१२१
व
२
asia पर भवनो आयु बांध्या नही तहां ताइ जौनसे आयुका उदय है तिसही की एक सत्ता १; पर भवना आयु बांध्या पीछे दोकी सत्ता. नरकआयु बांध्या छै तो भी ग्यारमा गुणस्थान आ जावे है; इस वास्ते चार आयुमे एक कोइकी सत्ता है.
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१
०.० ०
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१ १ १ १
१ १ १
१ १००० ०
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१जीवनामकर्मके बंधस्थान ८. तिर्यंच-गति योग्य सामान्ये पांच बंधस्थान ते कौनसे ? २३॥ २५।२६।२९।३०, ए पांच बंधस्थान, प्रथम एकेन्द्रिय योग्य तीन बंध स्थान २३।२५।२६. प्रथम तेवीस कहे छै-तिर्यंच-गति १, तिर्यंच-आनुपूर्वी १, एकेन्द्रिय जाति १, औदारिक १, तैजस १, कार्मण १, हुंड संस्थान १, वर्ण आदि ४, अगुरुलघु १, उपघात १, स्थावर १, सूक्ष्म १ वा बादर १ एकतरं, अपर्याप्त १,प्रत्येक साधारण १ एकतरं १, अस्थिर १, अशुभ १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १, निर्माण १; एवं २३ एकेन्द्रिय अपर्याप्त माहे जाणे(ने)वाला मिथ्यात्वी हुइ ते बांधे. एहीमे पराघात १, उच्छ्वास १ सहित कीजे तो २५ होइ है. अपर्याप्ताकी जगे पर्याप्ता जानना. ए २५ का बंध जे मिथ्यात्वी पर्याप्त एकेन्द्रियमे जाणेहारा बांधे; परं इतना विशेष स्थिर १ वा अस्थिर १, शुभ वा अशुभ, यश वा अपयश, इनमेसं तीन कोइ ले लेनी. अथ २६ का बंध तेरां तो पहली तेवीसकी लेनी अने परघात १, उच्छ्वास १, आतप १ वा उद्योत १, बादर १, स्थावर १, पर्याप्त १, प्रत्येक १, स्थिर १ वा अस्थिर १, शुभ वा अशुभ १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश वा यश १, निर्माण १; एवं २६. जो मिथ्यात्वी एकेन्द्रिय बादर पर्याप्त माहे जाणेवाला है ते बांधे. हिवे बेइंद्रीने बंधस्थान तीन२५।२९।३०. प्रथम २५-तिर्यच-गति १, तिर्यच-आनुपूर्वी १, बेइंद्री जाति १, उदीरी (औदारिक १) १, तैजस १, कार्मण १, हुंड संस्थान १, सेवात संहनन १, औदारिक अंगोपांग १, वर्ण आदि ४, अगुरुलघु १, उपघात १, त्रस १, बादर १, अपर्याप्त १, प्रत्येक १, अस्थिर १, अशुभ १ दुर्भग १, अनादेय १, अयश १, निर्माण १; एवं २५. जे मिथ्यात्वी अपर्याप्त बेइंद्रीमे जाणेवाला है ते बांधे. २५ मे चार घाले २९. पराघात १, उच्छ्वास १, अशुभ चाल १, दुःस्वर १; एवं ४ घाले २५ मे २९ होइ. अने अपर्याप्तने ठामे पर्याप्त जानना अने स्थिर वा अस्थिर एक १, शुभ वा अशुभ एक १, यश वा अयश १; एवं २९. जे मिथ्यात्वी बेइंद्री पयोप्ता माहे जाणेवाला है ते बांधे. तीसके बंधमे एक उद्योतनाम घाले ३०. एह पण उपरवत् बेइंद्रीमे जाणेवाला बांधे. एवं तेइंद्री, चौरिंद्री; नवरं जाति न्यारी न्यारी कहनी. हिवै तिर्यंच पंचेंद्रीने तीन बंधस्थान-२५।२९।३०. पचीसका बंध बेइंद्रीवत् विशेष जातिका. २९ का बंध-तिर्यच-गति १, तियेच-आनुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय जाति १, औदारिकद्विक २, तेजस १, कार्मण १, छ संहननमे एक कोइ १, संस्थानमे छमे एक कोइ १, वर्ण आदि ४, अगुरुलघु १, उपघात १, पराघात १, उच्छ्वास १, प्रशस्त, अप्रशस्त गतिमे एकतर १, त्रस १, बादर १, पयोप्त १, प्रत्येक १, स्थिर वा अस्थिर १, शुभ वा अशुभ १, सुभग वा दुर्भग १, सुखर वा दुःखर १, आदेय अनादेय एकतरं १, यश वा अयश १, निर्माण १; एवं २९; जे मिथ्यात्वी पर्याप्त तिर्यंच पंचेन्द्रियमे जाणेवाला बांधे अने जो २९ का साखादनमे बांधे तो हुंड, छेवट्ट वर्जीने पांचा माहे एक कोइ लेना. ३० के बंधमे एक उयोत नाम प्रक्षेपे ३० जे मिथ्यात्वी तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्तमे जाणेवाला बांधे. हिवै मनुष्यने तीन बंधस्थान-२५।२९।
१ बेमाथी एक। २ विशेष ।
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तत्त्व ]
नवतत्त्वसंग्रह ३०. प्रथम पचीसने बंध बेइंद्रीने कह्या तीम जानना. मिथ्यात्वी मनुष्य अपर्याप्तमे जाणेवाला बांधे; नवरं मनुष्य-गति १, मनुष्य-आनुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय जाति १. एकहनी(?) २९ का बंध तीन प्रकारे है-एक तो मिथ्यात्वगुणस्थान आश्री, दूजा सास्वादन आश्री, तीजा मिश्र अविरति आश्री. मिथ्यात्व, सास्वादनमे २९ का बंध बेइंद्रीवत् जानना. मिश्र अविरतिका २९ बंध लिखीये है-मनुष्य-गति १, मनुष्य-आनुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय जाति १, औदारिकद्विक २, तैजस १, कार्मण १, समचतुरस्र संस्थान १, वज्रऋषभनाराच संहनन १, वर्ण आदि ४, अगुरुलघु १, उपघात १, पराघात १, उच्छ्वास १, प्रशस्त विहायोगति १, त्रस १, बादर १, पर्याप्त १, प्रत्येक १, स्थिर वा अस्थिर १, शुभ वा अशुभ १, सुभग १, सुस्वर १, आदेय १ यश वा अयश १, निर्माण १; एवं २९. ए २९ मनुष्यगति योग्य तीर्थकरनाम प्रक्षेपे ३०. एवं ४ मनुष्य पर्याप्ताने है. हिवै देवगति प्रयोग चार बंधस्थान-२८।२९।३०।३१. देवगति १, देव-आनुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय जाति १, वैक्रियद्विक २, तेजस १, कार्मण १, प्रथम संस्थान १, वर्ण आदि चार ४, अगुरुलघु १, पराघात १, उपघात १, उच्छ्वास १, शुभ चाल १, त्रस १, बादर १, प्रत्येक १, पयोप्त १, स्थिर वा अस्थिर १, शुभ वा अशुभ १, सुभग १, सुस्वर १, आदेय १, यश वा अयश १, निर्माण १; एवं २८. एह २८ नो बंध पहिलेसे छठे ताइ है. देवगतिके जाणेवाले आश्री तथा कोइ एक भंग अपेक्षा ७ मे, ८ मे गुणस्थाने है. एक तीर्थकरनाम प्रक्षेपे २९ का बंध देवगति योग्य चौथेसे आठमे ताइ ७८ मे भंग अपेक्षा तीर्थकर रहित कीजे. आहारकद्विक २ मिले ३०. ते यथा-देव-गति १, देव-आनुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय १, क्रियद्विक २, आहारकद्विक २, तेजस १, कार्मण १, प्रथम संस्थान १, वर्ण आदि ४, अगुरुलघु १, पराघात १, उपधात १, उच्छ्वास १, शुभ चाल १, त्रस १, बादर १, पर्याप्त १, प्रत्येक १, स्थिर १, शुभ १, सुभग १, सुखर १, आदेय १, यश १, निर्माण १; एवं ३०, सातमे, आठमे देवगति योग्य बांधे. तीर्थंकर नाम प्रक्षेपे ३१. सातमे, आठमे देवगति योग्य एक बांधे तो यशकीर्ति नवमे, दशमे तथा आठमे कोइ भागमे. इति नामकर्मस्य(गः) बन्धस्थानानि अष्टौ समाप्तानि.
२२४ २५/२६२११२४
२५।२७ २७ नामकर्मके उद-२७२८२५।२६ ५२ "यस्थान १२ २९ २९।३० ३१२८१२९ ३०३१ २९ २०
२८।२९ २८२ ३०३०३०३०३०२
२०२८/२९/९ ३ ०३१
२११२५
नामकर्मके उदयस्थान १२. ते यथा-२०२१।२४।२५।२६।२७।२८।२९।३०॥३१॥ ८।९; एवं १२. प्रथम एकेन्द्रियने उदयस्थान पांच-ते कौनसे ? २१।२४।२५।२६।२७. प्रथम २१ उदय कहीये है. नामकर्मकी ध्रुवोदयी १२-तैजस १, कार्मण १, अगुरुलघु १,
१ आ प्रमाणे नामफर्मना आठ बंधस्थानो' समाप्त थयां.
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवअस्थिर १, स्थिर १, शुभ १, अशुभ १, वर्ण आदि ४, निर्माण १; एवं १२; तिर्यंच-गति १, तिर्यंच-आनुपूर्वी १, स्थावर १, एकेन्द्रिय जाति १, सूक्ष्म १, बादर १, पर्याप्त वा अपर्याप्त १, दुर्भग १, अनादेय १, यश वा अयश १, एवं ९. बारां उपरली एवं २१ प्रकृति. एकेन्द्रिय विग्रहगतिमे होय तदा २१ का उदय होइ. हिवै शरीर कीधे २४ का उदय होइ ते किम ? औदारिक शरीर १, हुंड संस्थान १, उपघात १, प्रत्येक या साधारण १, ए चार प्रक्षेपे, तियेगानुपूर्वी १ काढे २४ का उदय एकेन्द्रिये शरीरपयोप्ति पूरी कीधा पीछै. २४ मे पराघात प्रक्षेपे २५ का उदय. बादर वायुकाय वैक्रिय करतां शरीरपर्याप्ति पूरी हुइ. एही २५ का उदय औदारिकने ठामे वैक्रिय घालीये. पचवीसमे उच्छ्वास घाले २६ होइ अथवा शरीरपर्याप्ति पूरी हुइ जो कर उच्छ्वासनो उदय नही हुइ तो उच्छ्वास काढीने आतप तथा उद्योत एक लीजे; एवं २६. जौनसी छव्वीसमे उच्छ्वास है तिन छव्वीसमे आतप तथा उद्योत एक प्रक्षेपे २७. अथ बेइंद्रीने उदयस्थान ६, ते यथा-२१।२६।२८।२९।३०।३१. प्रथम २१ का उदय, बारां तो ध्रुवोदयी १२ नामकर्मकी अने तियंच-गति १, तिर्यंच-आनु. पूर्वी १, बेइंद्री जाति १, सनाम १, बादर १, पर्याप्त वा अपर्याप्त १, दुर्भग १, अनादेय १, यश वा अयश १, एवं सर्व २१. बेइंद्री वक्रगति करे तद २१ का उदय. अथ शरीर कीधे २६ का उदय-औदारिक शरीर १, तदुपांग १, हुंड संस्थान १, सेवार्त संहनन १, उपघात १, प्रत्येक १. एवं ६ प्रक्षेपे २१ मे अने तियेगानुपूर्वी १ काढे २६ रही. इन २६ मे अशुभ चाल १, पराघात १ ए २ घाले २८. इनमे उच्छ्वास १ घाले २९ [जो कर उच्छ्वासनो उदय न हूया हो तो उद्योत घाले २९ तथा शरीरपर्याप्ति हूइ है] तथा उच्छ्वासवाली २९ मे दुःखर तथा सुस्वर घाले ३० श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति पूरी हुइ अने खरनो उदय नही हूया तो उद्योत घाले ३० होइ. २९ मे सुखर १, उद्योत १, अथवा दुःस्वर १, उद्योत १ घाले ३१ होय. एवं तेंद्रीने ६ स्थान, एवं चौरिंद्रीने नवरं जाति आपापणी लेनी. अथ पंचेन्द्रिय तिर्यंचने उदयस्थान ६, ते यथा-२१।२६।२८।२९।३०।३१; एवं ६. बारां तो ध्रुवोदयी १२ पीछेकी अने तिर्यंच-गति १, तिर्यगानुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय १, सनाम १, बादर १, पयोप्त वा अपयोप्त १, सुभग वा दुर्भग १, आदेय वा अनादेय १, यश वा अयश १, बारां पीछली; एवं २१. तिर्यंच विग्रहगतिमे होइ तद २१ (का) उदय. शरीर काँ २१ माहेथी आनुपूर्वी १ काढी औदारिकद्विक २, षट् संस्थानमेसु एक कोइ संस्थान १, छ संहननमे एक कोइ संहनन १. उपघात १, प्रत्येक १, ए ६ घाले २६ होइ. हिवै शरीर पर्याप्त हूओ तदा पराधात १, प्रशस्त १, अप्रशस्त १ ए दोनोमे एक १ घाले २८ होइ. हिवै २८ मे उच्छ्वास घाले २९ अथवा शरीरपयोप्ति पूरी हूइ अने उच्छ्वासनो उदय न हूया होइ तो उद्घोत १ थाले २९. अने २९ मे स्वर घाले ३०, उद्द्योत घाले ३१. हिवै तिर्यच पंचेन्द्रिय वैक्रिय करतां उदयस्थान ५, ते यथा-२५।२७।२८।२९।३०, प्रथम २५ का
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तत्त्व ]
नवतत्त्व संग्रह
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वर्णन - तिर्यंचने २१ कही है ते माहेथी एक आनुपूर्वी काढे २० रही अने वैक्रियद्विक २, प्रथम संस्थान १, उपघात १, प्रत्येक १, ए ५ प्रक्षेपे २५. हिवै शरीरपर्याप्त पूरी हूये प्रशस्त गति १, पराघात १ ए २ प्रक्षेपे २७. उच्छ्वास १ घाले २८. अथवा शरीरपर्याप्ति पूरी है अने उच्छ्रासनो उदय नही हूया तो उद्योत घाले २८. भाषापर्याप्ति पूरी हूये उच्छ्वास सहित २८, सुखर घाले २९; अथवा उच्छ्वासनी पर्याप्ति ( पूरी) हूइ अने खरनो उदय न हूया तो उद्योत १ घाले २९, सुखर घाले पिण २९, उद्योत घाले ३० होय है. अथ सामान्ये मनुष्यने उदयस्थान ५, ते यथा - २१/२६ |२८|२९|३०. हिवै २१।२६।२८ तीनो तिर्यंच पंचेन्द्रियवत् ; नवरं मनुष्य - गति १, मनुष्य आनुपूर्वी १ ए २ कहनी. हिवै २९ का उदय उद्योत सहित होवे. उच्छ्वास १, सुखर तथा दुःखर ए २ अठावीसमे घाले ३० तथा २९ होइ
उद्योत वैक्रिय तथा आहारककी अपेक्षा है, अन्यथा तो नही. हिवै मनुष्य वैक्रिय करे तदा उदयस्थान ५ है, ते यथा - २५|२७|२८|२९|३०. प्रथम २५ कहुं – मनुष्यगति १, पंचेन्द्रिय जाति १, वैक्रियद्विक २, प्रथम संस्थान १, उपघात १, त्रस १, बादर १, पर्याप्त १, प्रत्येक १, सुभग वा दुर्भग १, आदेय तथा ( वा १) अनादेय १, यश वा अयश १, एवं १३, अने बारां ध्रुवोदयी, एवं २५ देशवृती (विरति ) अने संयतने वैक्रिय करतां सर्व प्रकृति प्रशस्त जाननी, शरीरपर्याप्ति थये पराघात १, प्रशस्त चाल १, ए २ घाले २७; उच्छवास १ धाले २८, अथवा संयत उत्तर वैक्रिय करतां शरीरपर्याप्ति कीधां जो उच्छ्वासनो उदय नही हूया तो उद्योत १ घाले २८. भाषापर्याप्ति पूरी कीधे उच्छ्वास १, सुखर १ ए २ सत्तावीसमे घाले २९. संयतने जो खरनो उदय नही तो उद्योत घाले २९. सुखर सहित २९, उद्योत १ घाले ३०. हिवै आहारकशरीर करतां साधुने उदयस्थान ५, ते यथा - २५।२७|२८|२९| ३०. प्रथम २५ नो कहुं. पां(पी) छे मनुष्यगते २१ कही ते माहेथी आनुपूर्वी १ काढी पांच घाले - आहारकद्विक २, प्रथम संस्थान १, उपघात १, प्रत्येक १, ए ५ प्रक्षेपे २५, पिण sai दुर्भग, अनादेय, अयश नही; प्रशस्त तीनो जानने. शरीरपर्याप्ति कीधां पराघात १, प्रशस्त खगति १, ए २ घाले २७; उच्छ्वास घाले २८; अथवा उच्छ्वासना उदय नही तो उद्योत १ घाले २८. भाषापर्याप्ति हुयां उच्छ्वास सहित २८, सुखर सहित २९, अथवा उच्छवासपर्याप्त हुइ है अने खरनो उदय नही तो उद्योत घाले २९. स्वर सहित जो २९ तो उद्योत घाले ३०. हिवै केवलीने १० उदयस्थान, ते यथा - २० | २१।२६।२७|२८|२९|३०|३१| ९/८. प्रथम २० का कहुँ – मनुष्यगति १, पंचेन्द्रिय जाति १, त्रस १, बादर १, पर्याप्त १, सुभग १, आदेय १, यश १, एवं ८; अने बारां १२ ध्रुवोदयी, एवं २०. इह उदय अतीर्थकर केवली समुद्घात करतां त्रीजे, चौथे, पांचमे समय केवल कार्मण काययोगे वर्ततां एह उदयस्थान होता है, तीर्थंकरनाम प्रक्षेपे २१ तथा बीसमे औदारिकद्विक २, छ संस्थानेमे एक कोइक संस्थान १, प्रथम संहनन १, उपघात १, प्रत्येक १; एवं ६ प्रक्षेपे २६. अतीर्थकर केवली दूजे, छठे, सातमे समय औदारिक मिश्र योगे वर्ततां हूइ तद २६ का उदय हूह,
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श्री विजयानंदसूरिकृत
[ १ जीव
सो तीर्थकरनाम सहित २७, तीर्थकर केवली औदारिक मिश्र योगे वर्ततां ए भंग होइ तथा २६ मे पराधात १, उच्छ्वास १, प्रशस्त वा अप्रशस्त खगति १, सुखर तथा (वा) दुःखर १, ए चार प्रक्षेपे ३० होइ है. अतीर्थंकर केवली सयोगी पहिले आठमे समये औदारिक काय - योगे वर्ततां उदय जानना, ३० मे तीर्थकरनाम प्रक्षेपे ३१. ए सयोगी केवली तीर्थकर औदारिक योगे वर्ततां हूइ. सयोगी केवली वचनयोग रुंधे तदा ३० का उदय. उच्छ्वास संधे तद २९ का उदय. हिवै सामान्य केवलीने पाछे ३० का उदय कया है तेमेनुं वचनयोग संधे २९, उच्छ्वास रूंधे २८. हिवै ९ का उदय कहीये है - मनुष्यगति १, पंचेन्द्रिय १, त्रस १, बादर १, पर्याप्त १, सुभग १, आदेय १, यश १, तीर्थकर १; एवं ९. चौदमेके छेहले समय तीर्थंकरने ए उदयस्थान; सामान्य केवलीने तीर्थकरनाम रहित ८ का उदय. हिवै देवताने उदयस्थान ६, ते ए - २१/२५/२७/२८|२९|३०. देव-गति ९, देव-आनुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय १, १, बादर १, पर्याप्त १, सुभग तथा दुर्भग १, आदेय तथा अनादेय १, यश वा अयश १, ए नव अने वारां ध्रुवोदयी; एवं २१. ए विग्रहगतिमे २१ का उदय.
अथ अपर्याप्तपणे शरीर करतां वैक्रियद्विक २, उपघात १, प्रत्येक १, समचतुरस्र संस्थान १, ५ प्रक्षेपे, देव आनुपूर्वी काढे २५ का उदय. शरीरपर्याप्ति पूरी हुयां पराघात १, प्रशस्त गति १, ए २ घाले २७. इन २७ मे उच्छ्वास घाले २८. जो कर उच्छ्वासनो उदय नही तो उद्योत घाले २८. भाषापर्याप्ति पूरी हुयां स्वर घाले २९. जोकर स्वरनो उद् द्योत नही हूया तो उद्योत घाले २९. देवताने दुःखरनो उदय नही है. उत्तर वैक्रिय करतां देवता उद्योत लाभे, २८ मे स्वर सहित २९, उद्योत घाले ३०. हिवै नारकीने उदयस्थान ५, ते यथा - २११२५/२७/२८/२९. नरक -गति १, नरक-आनुपूर्वी १, पंचेन्द्रिय १,
१, बादर, पर्याप्त १, दुभंग १, अनादेय १, अयश १, एवं ९; अने बारां ध्रुवोदयी, एवं २१. अपर्याप्तपणे शरीरपर्या (प्ति) करतां वैक्रिय शरीर १, वैक्रिय अंगोपांग १, हुंड संस्थान १, उपघात १, प्रत्येक १, ए ५ प्रक्षेपे, नरक-आनुपूर्वी १ काढे २५. पराघात १, अप्रशस्त खगति १ घाले २७, उच्छ्वास घाले २८. भाषापर्याप्ति पूरी हुया दुःखर घाले २९. गुणस्थान पर एकेन्द्रिय आदि देह विचार लेना. एह उदय अधिकार गहन है सो भूल चूक सप्ततिसूत्र से शुद्ध कर लेना. मेरी समजमे जितना आया है सोइ तितना ही लिख्या है. शुद्ध अशुद्ध शोध लेना.
५३
नामकर्मके | सत्तास्थान १२
|९२१८९ ૮૮૧૮૬ ८०८७८
८०
९३ ९३ ९३ ९३ ९३ ९३ ९२ ९३ ९३ ८० ७९ ९२ ९२ ९२ ९२ ९२ ९२ ९२ ८९ ८८ ९२ ९२ ७९ ८८ ८९ ८९ ८९ ८९ ८९ ८० ७९ ८९ ८९ ७६ ८८ ८८ ८८ ८८ ८८ ७६ ७५ ८८ ८८ ७५
७६
૮૮
नामकर्मके सत्तास्थान १२, ते ए – ९३/९२।८९।८८|८६|८०|७९|७८|७६।७५। ९/८; एवं १२, सर्व सत्ता तो ९३. तीर्थंकर टले ९२ तथा ९३ माथी आहारक शरीर १
७५
९१८
Page #126
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व ]
नवतत्त्वसंग्रह आहारक अंगोपांग १, आहारक संघातन १, आहारक बंधन १, ए ४ रहित कीयां ८९ की सत्ता. तीर्थकर टले ८८. नरक गति १, नरक-आनुपूर्वी १, ए २ टले ८६. देव-गति १, देवआनुपूर्वी १, वैक्रिय शरीर १, वैक्रिय अंगोपांग १, वैक्रिय संघातन १, वैक्रिय बंधन १; एवं ६ टले ८०. नरकगति योग्य ८० मे ६ घालीये ८६ कीजे-नरक-गति १, नरक-आनुपूर्वी, वैक्रिय चतुष्क ४, एवं ८६ नी सत्ता; अथवा ८० मे ६ घाले-देव-गति १, देव-आनुपूर्वी १, वैक्रिय ४; एवं ६ घाले ८६ देवगति योग्य जाननी. तथा ८० मे मनुष्य-गति १, मनुष्य-आनुपूर्वी १, ए २ टले ७८ नी सत्ता. ए पूर्वोक्त सात ठाम संसारी जीवने न हुइ. पिण [क्षपक श्रेणे नही क्षपक श्रेणे ए सत्ता जाणवी. ९३ माहेथी १३ रहित कीजे, तेनरकद्विक २, तिर्यंचद्विक २, एकेन्द्रिय आदि चार जाति ४, स्थावर १, आतप १, उद्योत १, सूक्ष्म १, साधारण १; एवं १३ टली ८० ए सत्ता क्षपक श्रेणे. तीर्थंकर टाले ७९. ८९ मे तेरा एही टले ७६ की सत्ता. क्षपके ८८ माहेथी तेरें टले ७५ की सत्ता क्षपकने. हिवै नवनी सत्ता-मनुष्यगति १, पंचेन्द्रिय १, त्रस १, बादर १, पर्याप्त १, सुभग १, आदेय १, यश १, तीर्थकर १; एवं ९. अयोगी गुणस्थानके छहले समय तीर्थकरने ए सत्ता; सामान्य केवलीने तीर्थकरनाम विना ८ नी सत्ता. गुणस्थान उपर सुगम है.
4.
4.
4.
गोत्रका बंध-उंवा उवा
स्थान १ । नी नी गो० उदयस्थान
।
| 0 ! •y |
गो० सत्तास्थान
| ०
अंतरायका वंध
स्थान १ अं० उदयस्थान
०
अं० सत्तास्थान ५
५ ।
०
ज्ञानावरणीय भंग२
० |
ज्ञानावरणीयके भंग २. बंध ५ का उदय ५, सत्ता पांच; १ बंध नही, उदय ५, सत्ता ५; एवं २ भंग.
दर्शनावरणीय
भंग
%
C0
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3
09
Page #127
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०२
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवअंकसंख्या १ २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १०/ ११ / ० बंध उदय
सत्ता एह उपरले यंत्रमे दर्शनावरणीयके ११ भंग है, सोइ विचार लेना सुगम है.
م
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वेदनीयके भंग १ । १
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६२ गुणस्थान उपर
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४
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साता
अंक भंगरचना अंक १ २ ३
असाता असाता साता उदय
साता असाता असाता सत्ता
| साता
साता | असाता साता
एह वेदनीयका यंत्र अयोगीके द्विचरम समये पांचमा ६ भंग चरम समये साता क्षय ७ मा असाता क्षय ८ मा. देवताना यंत्र ५
तिर्यंच-यंत्र ९ હજારથી છ ૮૧ ૨૦૨ ૨૨૨૨
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मनुष्य-यंत्र ९
तिति ति ति ति ति ति ति "दे म ति न दे म ति न
नरक-यंत्र ५ २४ २५ २६ २७ 10 म | ति . .
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मदे म ति न दे म ति न
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________________
सस्व]
नवतत्त्वसंग्रह
१०३
९।११
श२ २/३/७/६६६६६६६६ ३।४ ३ ८ ७७ १११११११ ए ५६
८१०१२१२/१२ २/२२/२३ क ७८ ९ १७१३१३१३
गोत्रके सात भंग है-सो पहिला तेजस्काय वायु१२।१३ १६
कायमे दुजा मिथ्यात्व सास्वादनमे; तीजा मिथ्यात्व १४.१५ १७२६१६ वं १६१७
सास्वादनमे चौथा १मे, २मे, ३मे, ४मे, ५मे पांचमा १८/२०
भंग एकसे दस तक गुणस्थानोमे छठा उपशमथी अयोगी
द्विचरम समय; ७ मा अयोगीके अंत समयमे कहो. अथ २३२४ ए ही, ए २५।२६ व शे वं
सुगमताके वास्ते यंत्र लिख्यते२७।२८ १२ ष १२ अंकसंख्या १ २ ३ ४ ५ ६ ७ एवं २६; न २० है.
बंध नीच नीच नीच उंच उंच ० ० | १०११९ उदय
उंच उंच
'च नीच नीच सत्ता
उंच उंच उंच उंच
२१।२२ २६ न
दो नही ही, है.
६४
गोत्रके भंग
अंतराभंग
.
६६
एक जीव रज्जु १४
स्पर्श रजु रज्जु रज्जु रज रजु
NE
दूजे गुणस्थानवाला बारां रज्जु स्पर्शे तिसकी युक्ति लिख्यते-'स्वयंभूरमण' समुद्रके पश्चिमका मत्स्य सास्वादनवाला मरीने सातमी नरककी पृथ्वीमे अथवा घनोदधिमे समश्रेणि जाइने पीछे तिरछा पूर्वकू जावे साढे तीन रजु, पीछे कूणेमे जावे अढाइ रज्जु, एवं १२ रज्जु होइ घनोदधिमे वा पृथ्वीमे उपजे. तथा चोक्तं पश्वसङ्ग्रहे (द्वितीये बन्धकद्वारे गा०३२)गाथा
"छट्ठाए (छट्ठीणं ?) नेरइउ(ओ) सासणभावेण एइ तिरिमणुलो]ए ।
लोगंतनिक्खुडेसु जंतते (तिन्ने) सासणगुणहा(त्था) ॥" १ छाया-षष्ट्या नैरयिकः साखादनभावेन एति तिर्यड्मनुष्ये(७)।
लोकान्तनिष्कूटेषु यान्त्यन्ये साखादनगुणस्थाः॥
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________________
श्री विजयानंद सूरिकृत
[ १ जीव
इस गाथासे जैसें १२ रज्जु स्पर्शे तैसें विचार लेना. मैने पंचसंग्रहका अर्थ नही देखा; अपनी विचारसे लिखा है. विचारसे लिखना यथायोग्य होय अने नही भी होइ, इस वास्ते पंडितें शुद्ध विचारके जैसें होय तैसें लिख देना, मेरे लिखनेका कुछ प्रयोजन नही समजना; अर्थमे जैसा लिखा होइ सो लिख देना.
१०४
त्रीजे चोथे गुणस्थानवाला ८ रज्जु स्पर्शे तिसकी युक्ति (पंचसङ्ग्रहका द्वितीय बन्धकद्वारकी ) इस (३१ मी) गाथासे समज लेना :
गाथा - "सहसारंतियदेवा णारयणेहेण जंति तइयभुवं । निति अच्चुयं जा अच्यदेवेण इयरसुरा ||"
बारमे देवलोकका देवता मिश्रवाला वा चौथे गुणस्थानवाला नारकीके नेह कही चौथी नरककी पृथ्वी लगे जाये. तीन रज्जु तो नीचेके हूये अने ५ रज्जु बारमा देवलोक है; एवं ८ रज्जु त्रीजी नरक तो सारी अने चौथीके नरकावास ताई एवं ३ रज्ज; आगे पंचसंग्रहके अर्थ मुजब लिख देना. मेरी समजमें आया तैसे लिख्या है. श्रावक बारमे देवलोकके कूणेमे उपंजे, त्रसनाडीके अभ्यंतर तिस आश्री ६ रज्जु सर्वत्र पंचसंग्रहसे शंका दूर कर लेनी .
६७
सं सं सं सं सं सं सं सं सं सं
६८
संज्ञी असंज्ञी | सं सं द्वार असं असं
शाश्वते गुणस्थान
शा अशा अशा शाशा शाशा अशा अशा अशा अशा अशा शा अशा
सातमा गुणस्थान जैन मतके शास्त्रमे किहां ही अशाश्वत नही कह्या. अने जो कोह कहै है सोइ भूल है, उक्तं पंचसंग्रहे (द्वितीये बन्धकद्वारे गा० ६) -
२
"मिच्छा अविरयदेसा पमत्त अपमत्तया सजोगी य । सव्वर्द्ध" इति वचनात् अशाश्वता नही है. इति अलं विस्तरे (ण).
जघन्य
६९ स्थिति
द्वार
उत्कृष्ट ७० स्थिति
१
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मुहूर्त मुहूर्त मुहूर्त
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HIT
34
त
देश
३३
सागर ऊन
झझेरी पूर्व मुहूर्त
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| कोड
१ सहस्रारान्तिकदेवा नारक स्नेहेन यान्ति तृतीयभुवम् । ds यावत् अच्युतदेवेनेतरसुराः ॥
२ मिथ्याविरतदेशाः प्रमत्ताप्रमत्तकौ सयोगी च । सर्वाद्धम्
+15 It hos
अं अं अंत
→ ए व मूत तर्मु मुहूर्त मुहूर्त हूर्त
↑
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ए व म्
1
देश
ऊन
पूर्व | कोड
33
Page #130
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व ]
नवतत्त्व संग्रह
१०५
इहां छठे गुणस्थानकी उत्कृष्ट स्थिति अंतर्मुहूर्तकी कही है, सो प्रमत्त गुणस्थान अंतर्मुहूर्त ही रहे है, अने जे श्रीभगवतीजीमे प्रमत्त संयतिके कालकी पूछा करी है तिहां गुणस्थान श्री नही है. तहां तो प्रमत्तका सर्व काल एकठा कर्या देश ऊन कोड पूर्व कला है. पण छठे गुणस्थानकी स्थिति नही कही छठे गुणस्थानककी स्थिति अंतर्मुहूर्तकी कही है. उक्तं पंचसंग्रहे ( गा० ७८ ) -
गाथा - "समया अंतमहु (मुहू) पमत्त अ (म) पत्तयं भयंति मुणी ।
७१
मुनि देश ऊन पूर्व
देश ऊन पूर्व कोड
अर्थ – समय से लेइ अंतर्मुहूर्त ताई प्रमत्त अप्रमत्तपणा भजे - सेवे कोड आपसमे दोनो ही गुणस्थानमे रहै, ऐतावता छठे सातमे दोनोहीमे रहै, परंतु एकले छठे अथवा एकले सातमे देश ऊन पूर्व कोड नही रहै. इति गाथार्थः. शंका होय तो भगवतीजीकी टीकामे का है सो देख लेना. अने मूल पाठमे देश ऊन पूर्व airat कही है सो प्रमत्तका सर्व काल लेकर कही है. परंतु छठे गुण आश्री स्थिति भगवतीजी नही कही तथा सातमे गुणस्थानकी स्थिति जघन्य एक समयकी कही है. अने श्रीभगवतीजी सर्व अप्रमत्तके काल आश्री जघन्य तो अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट देश ऊन पूर्व कोडकी, तिसका न्याय चूर्णिकारे ऐसा कहा है-सात मे गुणस्थान से लेह कर उपशांतमोह लगे सर्वगुणस्थान अप्रमत्त कहीये. तिन सर्वका काल जघन्य एकठा करीये ते जघन्य अप्रम तका काल ला. इस अपेक्षा जघन्य स्थिति है, पिण सातमेकी अपेक्षा नही. तथा टीकाकारने मते अप्रमत्त गुणस्थानवाला अंतर्मुहूर्त पहिला काल न करे, इस वास्ते अंतर्मुहूर्तकी स्थिति हैं. आगे त केवल विदंति, सूत्राशय गंभीर है.
प्रमाण द्वार
लोकस्य ७२ (द) र्शन द्वार
देणा पुव्वकोडीओ (देणपुच्त्रकोर्डि) अण्णोणं चिट्ठेहिं (चिट्ठेति) भयंता ॥"
अनंते
पल्योप
मके असंख्य भागे
लोकके
सर्व असंख्या
लोक
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भाग
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एवम् ख्या
1
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१ समयादन्तर्मुहूर्तं प्रमत्ततामप्रमत्ततां भजन्ति मुनयः ।
. देशोनपूर्वकोटिमन्योन्यं विष्टन्ति भजमानाः ॥
२ एटला पूरतुं । ३ गाथानो अर्थ ।
व
1
民
४ सर्वज्ञ जाणे छे ।
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व म्
-
सर्व दूजे लोक वत्
Page #131
--------------------------------------------------------------------------
________________
श्रीविजयानंदरिकृत
[१ जीव
श३
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मार्गणा
द्वार २।३।४४५ १।४।५।६ गुणस्था-५६ ६ ५६ ७८
११ १०१०१२ १३ |नका आवे
९।१०।११
श२ | २२ २४.७८ ९ ७४ गुणस्थानमे ॥४॥ जावे ५७ १ ५ ३।४ | ३२४६ ९ १० १११२ १३ १३१४ मोक्षमे
७ । ७५७८४४४ पहिले गुणस्थानकी गत(ति)मार्गणामे ॥४।५।७; एह गति तोसादि मिथ्यात्वी आश्री है। अने जिस जीवने पहिलाही मिथ्यात्व गुण० छोड्या है तिसकी गत ४।५।७ मे होइ, औरमे नही.
परिषहद्वार २२
0 0 २२२२२२ २२ १४ १४ १४ ११ ११
मद्वार ज्ञान ज्ञान
चारित्र चारित्र विना
चारित्र ७७/८/८८ ८ ८ ७ ७ ७
| विना
विना
नहीं
|
दूजे तथा त्रीजे गुणस्थानमे ज्ञान अज्ञानकी चर्चा उपयोग द्वारसे समज लेनी. ७७ / आहारी आहारी १ है।
| अनाहारी १ है , ७९ शरीरद्वार ४४३, ४ ५ ५ ३३३३३३३
नियंठाद्वार सातमे गुणस्थान अलब्धोपजीवी है, एतले लब्धि न फोरवे, अप्रमत्तवात. संयतद्वार
.
|
|साखा
सम्यकत्व. द्वार ५
|
२
२
२
वेदद्वार ३ ३
३ । ३ ।
३
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८४ संशाद्वार ४ ४
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४ ।
तथा नो
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नो नो नो नो नो नो
सिन्नी
१अप्रमत्तपणु होवाथी।
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________________
नवतत्त्वसंग्रह
गति ४ मे जावे
मनुष्य देव
।
भंग सन्निपातके ६
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एवम्
भाषक
८७ अभाष२ २
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पढम अपढम
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चरम अचरम
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|
भव्य अभव्य
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परिणामकी ९२ हान वृद्धि
एवम् ->तुल्य ए व म्→.
बंधी बंधति बंधिस्सति १, बंधी बंधति न बंधिस्सति २, बंधी न बंधति बंधिस्सति ३, बंधी न बंधति न बंधिस्सति ४,' ए चार भंग सर्व कर्म आश्री सर्व गुणस्थानमे विचार लेना.
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९४ वेदनीय आश्री ३
मोह आश्री
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आयु आश्री
१२१३/१३/१३ ३ भंग स्वलिंग, अन्यलिंग, गृहि
लिंग, ३ द्रव्ये
... १ जुओ भगवती (श०, उ०८, सू० ३४३)।
Page #133
--------------------------------------------------------------------------
________________
१०८
९८
९९
१००
१०१
१०२
१०३
१०७
१०९
संघयण ६
संस्थान ६
प्रत्याख्यानी १०४ अप्रत्याख्यानी
२
११०
१११
ईरियावहिया ३,७
भंग ८
८
सराग वीत
राग २
११२
efष्टद्वार ३
पर्याप्त अपर्याप्त
२
गुणस्थानमे काल करे
परभव साथ जाये
६
६
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गति जाये देवलोक
सराग
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बादर
१०६ त्रस स्थावर २ त्र० स्था० त्र० स्था० त्र
गति कौनसीमे ?
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श्री विजयानंद सूरिकृत
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प्रथम गुणस्थानमे परत संसार हो जावे है, मेघकुमारके हाथी के भववत् ज्ञेयं.
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नवतत्त्वसंग्रह
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।
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अंतर्महत मही
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६
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१२७ वीर्य ३ बालवीर्य बाल
समोहिया १२८ असमोहिया
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विग्रहगति ऋजुगति २ तीर्थमे अतीर्थमे
अतीर्थ | एवम् एवम् २ | लिंग स्त्री
३३ आदि तीन
४६७८४६७८ १३२ प्राण १०९१० ९/१० ।
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60 0
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--------------------------------------------------------------------------
________________
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३४॥
ओज रोम कवल आहार ३
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सचित्त अचित्त मिश्र आहार ३ समवसरण
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मध्यम बंध आठ कर्म उत्कृष्ट बंध ८ कर्म आश्री
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46.00 ..
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|
959
मूल उदय १४२ मूलजदी१४३ मूल सत्ता ८८८८८८८८८000
बीजे गुणस्थानमे ८ कर्म की उदीरणा इस वास्ते कही है, उदीरणा ८ कर्मकी तब ताइ होइ है जब ताइ एक आवलिका प्रमाण उदय काल प्रकृतिका रह्या होइ अने जिवारे आवलिके माहे प्रवेश करे तिवारे उदीरणा नही होय अने तीजा गुणस्थान आवलि प्रमाण आयु शेष रहेसे पहेलेही आवे है आवलि प्रमाण आयु शेष रहै तीजा गुणस्थान ही आवे है, इस वास्ते ८ की उदीरणा सत्यं. ऐसे ही दशमे गुणस्थानमे मोहकी उदीरणा टली आवलिमे प्रवेश करे. असेही १२ मे ५ की तथा २ वेदनीय उपर इह संज्ञा न जाननी. इति अलं विस्तरेण...
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MM
११२ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवउसर प्रक- . . ..... १४४ तिका १२०/११७ १०१/७४ | ७७ ६७
बंध . पहिलेमे तीन टली-आहारकद्विक २, तीर्थकर १; एवं ३. दूजेमे १६ टलीमिथ्याल १, हुंड संस्थान १, नपुंसकवेद १, सेवात संहनन १, एकेन्द्रिय १, स्थावर १, आतप १, सूक्ष्म १, साधारण १, अपर्याप्त १. विकल ३, नरकत्रिक ३; एवं १६. वीजे २७ टलीअनंतानुबंधी ४, स्त्यानर्धित्रिक ३, दुर्भग १, दुःस्वर १, अनादेय १, संस्थान चार मध्यके, संहनन चार मध्यके, दुर्गमन १, स्त्रीवेद १, नीच गोत्र १, तिर्यंचत्रिक ३, उद्योत १, मनुष्य-आयु १, देव-आयु १; एवं २७. चौथेमे तीन मिली-तीर्थकर १, मनुष्य-देव-आयु २; एवं ३. पांचमे १० टली–अप्रत्याख्यान ४, प्रथम संहनन १, औदारिकद्विक २, मनुयत्रिक ३, एवं १०. छठे ४ टली–प्रत्याख्यान ४. सातमे ६ टली-अस्थिर १, अशुभ १, असाता १, अयश १, अरति १, शोक १; एवं ६. दो मिली-आहारकद्विक २ अने जो आयु १ टले तो ५८. आठमके प्रथम भागमे एवं ५८, दूजे भागमे निद्रा २ दो टले ५६, तीजे भागमे ३० टली-तीर्थकर १, निर्माण १, सद्गमन १, पंचेन्द्रिय १, तैजस १, कार्मण १, आहारकद्विक २, समचतुरस्र १, वैक्रियद्विक २, वर्णचतुष्क ४, अगुरुलघु १, उपघात १, पराघात १, उच्छ्वास १, त्रस १, बादर १, पर्याप्त १, प्रत्येक १, स्थिर १, शुभ १, सुभग १, सुस्वर १, आदेय १; एवं ३०. नवमेके प्रथम भागमे ४ टली-हास्य १, रति १, भय १, जुगुप्सा १९ एवं ४ नवमेके दूजे भागमे पुरुषवेद १, संज्वलनत्रिक ३; एवं ४. दसमे एक संज्वलननो लोभ टल्यो. ग्यारमेमे १६ टली–ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४, अंतराय ५, यश १, उंच गोत्र १; एवं १६. आगे १ साता बांधे. १४ मे नही. उत्तर प्रक-
।... १४५ तिना उदय ११७ | १११ १००/१०४ ८७ ८१ ७६ ७२ | ६६ / ६० ५९ ७४२१२ | १२२ । । ।
। ___ पहिले ५ टली-आहारकद्विक २, तीर्थकर १, मिश्र मोहनीय १, सम्यक्ल-मोहनीय १. एवं ५ टली. दजे ६ टली-मिथ्याज १, आतप १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १, साधारण १; एवं ५, नरक-आनुपूर्वी १; एवं ६ टली. तीजेमे १२ टली-अनंतानुबंधी ४, एकेन्द्रिय आदि जाति ४, स्थावर १, आनुपूर्वी ३; एवं १२. अने चौथे मिश्र मोह १ टली अने ५ मिलीआनुपूर्वी ४, सम्यक्त्व-मोह १, पांचमे १७ टली-अप्रत्याख्यान ४, वैक्रियद्विक २, नरकत्रिक ३, देवत्रिक ३, मनुष्य आनुपूर्वी १, तियेगानुपूर्वी १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं १७. छठे ८ टली-प्रत्याख्यान ४, तिर्यंच-आयु १, तिर्यच-गति १, उद्योत १, नीच गोत्र १; एवं ८ टली अने आहारकद्विक मिले. सांतमें ५ टली-स्त्यानिित्रक ३, आहा
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तत्त्व ]
नवतत्त्वसंग्रह
११३
रकद्विक २; एवं ५. आठमे ४ टली - सम्यक्त्वमोहनीय १, अंतके संहनन ३ एवं ४ नवमे ६ टली - हास्य १, रति १, शोक १, अरति १, भय १, जुगुप्सा १ एवं ६. दसमे ६ टली - वेद ३, संज्वलनना क्रोध १, मान १, माया ९; एवं ६. ग्यारमे संज्वलना लोभ टल्या. बारमे २ संहनन टले; द्विचरम समय निद्रा १, प्रचला १ टली. तेरमे १४ टली - ज्ञानावरणीय ५, दर्शना - वरणीय ४, अंतराय ५; एवं १४ टली; तीर्थकरनाम मिला १. चौदमे ३० टली - असाता वा साता १, वज्रऋषभनाराच १, निर्माण १, स्थिर १, अस्थिर ९, शुभ १, अशुभ १, सुखर १, दुःखर १, प्रशस्त खगति १, अप्रशस्त खगति १, औदारिकद्विक २, तैजस १, कार्मण १, संस्थान ६, वर्णचतुष्क ४, अगुरुलघु १, उपघात १, पराघात १, उच्छ्वास १, प्रत्येक १ एवं ३०. चौदमे १२ रही तिनका नाम - साता वा असाता १, मनुष्यगति १, पंचेंद्री १, सुभग १, १, बादर १, पर्याप्त १, आदेय १, यश १, तीर्थकर १, मनुष्य-आयु १, उंच गोत्र; ए १४.
उत्तर प्रकृ
५४
१४६ तिका उदी- ११७ १११ १०० १०४ ९७ ८१ ७३ ६९ ६३ ५७ ५६ ३९ ०
५२
रणा १२२
पहिलेसे छठे ताइ उदयवत् उदीरणा. सातमेसे तेरमे ताइ तीन टली - वेदनीय २, मनुtr - आयु १, और सर्व उदयवत् उदीरणा जाननी चौदमे उदीरणा नास्ति इत्यलम् ।
उत्तर प्रकृति
१४७
१४८
सत्ता
१४८
ज. १, उ.
'ज. उ. १
ज. १, उ. आकर्ष गुण- पृथक् घणे भवे पृथक स्थान कितनी सय; घणे 'सय; घणे आश्री विरीया भवे. ज. भव ज. ज. २, उ. आवे ? २, उ. असंखे
५ वार
१४९ | कर्मनिर्जरा
यमान
१५० वर्धमान २ अवस्थित
१५१ स्थानक
०
१५
३
असंख्य
लोक
प्रमाण
असंख.
गुणी
३
२, उ. असंख
३
ज. १ ज. १ ए ए उ. सं. ए उ. ४ व व ख्या व घणे एव म् म् ती म् ज. २ वार उ. ९
> ए व म्
३ ३ ३ ३
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१ नथी । २ आ कोष्ठक तेमज तेना स्पष्टीकरण माटे मूल प्रतिमां जग्या रखायेली छे, परंतु तेनो उपयोग प्रन्थकारे
कर्यो नथी ।
「我國
A ||
१ १ १ १
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११४
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीव
१५२ श्रेणि उपशम
क्षपक
4444
|| 944
cl
।
४
४
४
४]
१५३ कल्प५
चवके दंडके
जावे ।
०
२४
१
६
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छ |017
0
-
-
-
१५५ पर्याप्ति ६ ६ ६ ६ ६ १५६ अनुव्रत १२ १५७ महाव्रत ५
महावत ५ ० ०० ०० सम्यक्त्व. सामायिक १, श्रुतसामा- . यिक २, देश
व्रतीसामा- . यिक ३ सर्वव्रतीसामायिक ४
wwwmom
as woman
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Mororm
anorarm
Manoran Morore aroorn
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Manorm
मोहना बंध
१५९२१ ।
२२ ने बंधे २१ ने बंधे १७ ने बंधे १७ ने बंधे १३ ने बंधे भंग २ |९ ने बंधे भंग २
९ ने बंधे |९ ने बंधे भंग २
भंग ४ भंग २
भं.१,३ ने १, ५ने १,४ ने बं
'भंग
बावीसवो बंधस्थाने पीछे लिख्या है । अथ भंगस्वरूप-हास्य रति वा अरति शोक २ ए दो भंग पुरुषवेद साथ; एवं २ स्त्रीवेद साथ; एवं २ भंग नपुंसकवेद संघाते; एवं २२ ने बंधे भंग ६. इक्कीसेके बंधे भंग ४-अरति शोक पुरुषवेद १, हास्य रति पुरुषवेदसे बंधे २; एवं पुरुषवेद काढीने स्त्रीवेदसुं दो भंग करणा; एवं ४. नपुंसकवेदका बंध सास्वादने नही. १७ ने बंधे भंग २-हास्य रति पुरुषवेद १, अरति शोक पुरुषवेद २; एवं २; स्त्रीका बंध नही. तेराके बंधमे एही दो भंग जानने. छठे गुणस्थानमे ९ के बंधमे एही दो भंग; एवं ९ के बंधमे, आगे पिण ए ही दो भंग अने नवमेमे ५ ने बंधे एक भंग १,४ ने बंधे १ भंग, ३ ने बंधे भंग १, २ ने बंधे भंग १, अने १ ने बंधे भंग १. यद्यपि सातमे आठमे गुणस्थानमे अरति १ शोकका बंध नहीं है तथापि भंगनी अपेक्षा सप्ततिसूत्रमे बंध कह्या है इति अलम्
| २४ ११. मोहके उदय- ७२ २३ २४ २५ २६ २७ २४...
० भंग ९९५ ७३ २४ २४ । ७३ ७४ ७४२४ |
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
११५
उदयभंग रचना. प्रथम गुणस्थानमे २२ ने बंधे सात आदि ७८।९।१० उदयस्थान ४; इनका स्वरूप पीछे उदयस्थानमे लिख्या है सो जान लेना. इहां सातने उदयमे भंग २४ ते किम? हास्य रति पुरुषवेद १ अरति शोक पुरुषवेद २; एवं दो २; ए ही दो स्त्रीवेदसुं २, ए ही दो नपुंसकवेदसु, २, एवं ६ हुये ए ही ६ क्रोधसुं; एवं ६ मानसुं; एवं ६ मायासे; एवं ६ लोभसे एवं सर्व २४ हुये. हिवे आठने उदय तीन चौवीसी ३ ते किम ? अप्रत्याख्यान १, प्रत्याख्यान १, मिथ्यात्व १, संज्वलन १, एक कोइ वेद १, हास्य १, रति १; अथवा एहने ठामे अरति शोक इणमे भय घाले एतले आठने उदय एक चौवीसी; इम भय काढी जुगुप्सा घाले आठमे दूजी चौवीसी; जुगुप्सा काढी अनंतानुबंधीयासुं तीजी चौवीसी; एवं ८ ने उदय ७२ भंग. हिवै नवने उदय तीन चौवीसी ते किम? सातमे भय जुगुप्सा घाले ९. ए नवने उदय भय जुगुप्सा संघाते पीछे कह्या ते छ विकल्प क्रोध, मान, माया, लोभसे एक चौबीसी १; अथवा जुगुप्सा काढे भय, अनंतानुबंधीसुं नवने उदय दूजी चौवीसी २, अथवा भय काढी जुगुप्सा, अनंतानुबंधीयासुं तीजी चउवीसी ३; एवं भंग ७२. हिवै सातमे भय, जुगुप्सा, अनंतानुबंधी १ घाले १० ने उदय एक चौवीसी. पुरुषवेद आदिकसुं. हिवै २१ ने बंधे सात आदि ७८/९ लगे तीन उदयना ठाम. सातनो उदय अनंतानुबंधी १, अप्रत्याख्यान १, प्रत्याख्यान १, ए चार (?) ए कोइ एक कोइ वेद १, हास्य रति १, अरति शोक ए दोनोमे एक कोइ एवं ७. एही पाछला छ विकल्प क्रोध १, मान १, माया १ लोभसुं एक चउवीसी १; सातमे भय घाले आठनो उदय, भय संघाते एक चौवीसी १, भय काढी जुगुप्सासु एक चौवीसी एवं भंग ४८. सातमे भय, जुगुप्सा समकाले घाले नवनो उदय. नवने उदय एक चौवीसी. एसास्वादन गुणस्थानमे जाणवा. प्रथम सत्तराने बंधे मिश्र गुणस्थानमे तीन उदयना ठाम तिहां चौवीसी चार ते किम ? अप्रत्याख्यान १, प्रत्यख्यान १, संज्वलन १, एक कोइ वेद १, कोइ एक जुगल मिश्र; एवं ७ नो उदय. ध्रुव पाछला ६ विकल्प, क्रोध १, मान १, माया १, लोभसु छ गुणा एतले एक चौवीसी. सातमे भय घाले एतले आठने उदय पीछली परे एक चौवीसी १; भय काढी जुगुप्सासे आठने उदय दूजी चौवीसी २; सात मध्ये भय, जुगुप्सा समकाले घाले नवने उदय पाछली तरे एक चौवीसी १, एवं मिश्र गुणस्थाने ४ चउवीसी. हवै अविरतिने ६७८९ ए चार उदयठाम उपशम अथवा क्षायिक सम्यक्त्वना धणीने ए ६ ना उदय हुये अप्रत्याख्यान १, प्रत्याख्यान १, संज्वलन १, एक कोइ वेद १, एक कोइ युगल २; एवं ६ ने उदय एक चउवीसी. ए छ माहे भय घाले सातने उदय एक चउवीसी १, भय काढी जुगुप्सासे सातने उदय दूजी चउवीसी २; जुगुप्सा काढी वेदक सम्यक्त्वसुं सातने उदय त्रीजी चौवीसी ३; अप्रत्याख्यान १, प्रत्याख्यान १, संज्वलन १, वेद १, युगल ६; ए छ माहे भय, जुगुप्सा घाले एतले आठने उदय एक चौवीसी १; जुगुप्सा काढी भय, वेदक, सम्यक्त्वसुं आठने उदय दूजी चउवीसी २, भय काढी जुगुप्सा वेदकसु आठने उदय तीजी चौवीसी ३, अप्रत्याख्यान १, प्रत्याख्यान १, संज्वलन १, वेद १, युगल २,
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११६ श्रीविजयानवसूरिकृत
[१ जीबभय १, जुगुप्सा १ वेदक १; एवं ९ ने उदय एक चौवीसी. तेराने बंधे पांच आदि देह आठ लगे. चार उदयना ठाम हुइ ५।६।७/८ प्रथम ५ ते किम ? प्रत्याख्यान १, संज्वलन १, वेद १, एक कोइ युगल, ए पांचने उदय पाछली परे एक चौवीसी १; ए पांच माहे भय घाले ६ ने उदय एक चौवीसी १; भय काढी जुगुप्सा घाले ६ ने उदय पाछली तरे एक चौवीसी १; ए दूजी चौवीसी २; जुगुप्सा काढी वेदकसुं त्रीजी चौवीसी ३. प्रत्या० १, संज्व० १, एक 'केहु वेद १, एक कोइ युगल २, भय १, जुगुप्सा एवं ७ ने उदय एक चौवीसी; अथवा जुगुप्सा काढी भयने वेदकसुं सातने उदय दूजी चौवीसी भय काढी जुगुप्साने वेदकसुं सातने उदय तीजी चौवीसी ३; प्रत्या० १, संज्व० १, एक कोइ वेद १, एक कोइ युगल २, भय १, जुगुप्सा १, वेदक १; एवं आठने उदय पूर्ववत् एक चौवीसी १. नवने बंधे प्रमत्त १, अप्रमत्त १, अपूर्वकरण १ ए चार गुणस्थानमे नवने बंधे चार आदि ४।५।६।७ ए उदयस्थान. प्रथम चारका किम ? संज्वलन एक कोइ १, एक कोइ वेद १, एक कोइ युगल २, ए चार प्रकृतिना उदय क्षायिक वा उपशम सम्यक्त्वना धणीने प्रमत्त आदि चार गुणस्थानना धणीने हुइ. एवं नवने बंधे चारने उदय पूर्ववत् एक चौवीसी; ए चार माहे भय घाले; एवं पांचने उदय पूर्ववत् एक चउवीसी; भय काढी जुगुप्सा घाले पांचने उदय दूजी चौवीसी, जुगुप्सा काढी वेदकसुं पांचने उदय त्रीजी चौवीसी ३; संज्व० १, वेद एक केहु १, युगल एक केहु २, एह चारमे भय, जुगुप्सा घाले छने उदय एक चौवीसी १; अथवा जुगुप्सा काढी भय १ वेदकसुं दूजी चौवीसी २, भय काढी जुगुप्सा वेद कसु छने उदय तीजी चौबीसी ३. संज्व० १, एक केहु वेद १, एक युगल २, भय १, जुगुप्सा १, वेदक १; एवं सातने उदय एक चौवीसी. पांचने बंधे दो उदयना स्थान ते किम ? संज्वलन १, एक कोइ वेद १, ए दोने उदय त्रिण वेद ३, क्रोध १, मान १, माया १, लोभ १ से चार गुणा कीजे तो बारां भंग होइ. हिवै पांचने बंधे संपूर्ण. चारनु बंध १, तीननो बंध, दोनो बंध, एकनो बंध. ए चारोमे एकेक प्रकृतिन(उ) उदय ते किम ? पांचना बंधमेमू पुरुषवेद विच्छेद कीधे चार रहै; ते चारने बंधकाले एक कोइ संज्वलननो उदय इहां चार भांगा उपजे ते किम ? कोइ क्रोधने उदय श्रेणि पडिवजे; एवं मान १, माया १, लोभ १. इहां कोइ एक आचार्यने मते इम कह्यो ६ बांधवाने काले एक कोइ वेदनी इच्छा करे तेह भणी तेहने मते बांधवाने पहिले समये चार त्रिक बारां भंग उपजे तेह भणी तेहने मते २४ भंग हूइ ते किम? बारा भंगा पांचना बंधना, बारा एहना मतना एवं २४. चौवीसी सर्व ४१. संज्वलना क्रोध छेदे तीनका बंध, क्रोध टाली एक कोइनो उदय जो संज्वलना कोधनउ उदय तु संज्वलना क्रोधनो बंध हुइ. "जो बंधइ सो वेध(द )इ" इति वचनात्. संज्वलना मान छेदे दोनो उदय; मान टाली एक कोइनो उदय. माया छोदे लोभनो बंध, लोभनो उदय. संज्वलना क्रोध थकी ४ भंग, मानसे ३, मायासे २ भंग, लोभसे एक भंग; एवं भंग ११. पिछली ४१ चौवीसी अने एह ग्यारा, सर्व एकत्र कीया ९९५ भंग मोहोदयके है.
१ कोइ। २ यो बधाति स वेदयति ।
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तत्व
नवतत्त्वसंग्रह
नामकर्मके
|३२०० भग
९२४० १३९४५
४६३२
सव १३९२६
MAA
Manoran
vodorovows
ow
०००००
००००००
संख्या
७२७२७२२४॥
३४६४ ४०९७ ४०९७
७७०४
७७६८ नाम
७७६८ कर्मके
७६०२ उदय.
७७७३
७७७३ (७७९१) सर्व
४६३८८
२१(? ७५४८ ४४ ७६६१ १ ७६६१
१६२/
सर्व
सर्व
२२९०६
इन दोनो यंत्रका विस्तार बहुत है, इस वास्ते भांगा लिख्या नहीं; जोकर भांगे विचारणे अरु सीखनेकी इच्छा होइ तो सप्ततिसूत्र(गा० २६:२९)नी वृत्ति अवलोकनीयं इति अलम्.
इति नवतत्त्वसंग्रहे आत्मारामसंकलता(ना?)यां प्रथमजीवप्रभेद संपूर्णम्.
अथ अजीवतत्त्वसंग्रह लिख्यते
(८०) भगवती अजीव द्रव्य | द्रव्यथी क्षेत्रथी । कालथी | भावथी गुणथी
वर्ण नही, गंध, धर्मास्तिकाय १ एक लोकप्रमाण अनादि अनंत रस, स्पर्श नही,
। अरूपी
वर्ण आदि पांचो अधर्मास्तिकाय २ ,
नही, अरूपी
स्थितिसहाय आकाशास्तिकाय लोकालोकप्र
वर्ण आदि ५ नही, माण
अवगाहसहाय
चलनसहाय
३
"
"
अरूपी है।
-
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११८
अजीव द्रव्य
काल ४
पुद्गलास्तिकाय ५
सत्पदप्ररूपणा
द्रव्यपरिमाण
क्षेत्र
स्पर्शना
काल
अंतर
भाग
भाव
22
द्रव्यथी
अनंता
अल्पबहुत्व द्रव्यार्थे
प्रदेशार्थे
श्री विजयानंदसूरिकृत
कालथी
अनंत
क्षेत्री
| मनुष्यलोक
प्रमाण
लोकप्रमाण
| वर्ण, गंध, रस, स्पर्श है
(८१) अनुयोगद्वार (सू०७४,८० - ८९ ) से पुद्गलयंत्रम्
अनानुपूर्वी २
अस्ति
अनंते
क्षेत्रवत् पांच बोल जानने; वरं स्पर्शना कहनी
33
एक द्रव्य आश्री अनंत काल; नाना आश्री सर्वाद्धा
शेष द्रव्यके घणे असंख्य भाग अधिक
""
आनुपूर्वी १
नियमात् अस्ति
अनंते
संख्य भाग १, असंख्य
भाग २ घणे, संख्ये घणे, असंख्यमे भाग लोकके असंख्ये सर्व लोक
सादि पारिणामिक भावे है
४ असंख्येय गुण
55
५ अनंत गुणे
त्रिप्रदेशी ४/५/६ ७ ८ ९ यावत् अनंत
भावधी
वर्ण आदि ५ नही
27
एक द्रव्य आश्री असंख्य
काल; नाना आश्री सर्वाद्धा एवम्
असंख्यमे भाग
शेष द्रव्य० असंख्य भाग हीन घणे
[ २ अजीव
गुणधी
वर्तन (ना) गुण
कालस्य
→ एवम्
२ विशेष अधिक
अप्रदेश स्तोक २
ग्रहणलक्षण
अवक्तव्य ३
अस्ति
अनंते
असंख्यमे
एक० असंख्य; नाना एक अनंत काल; नाना सर्वाद्धा सर्वाद्धा
असंख्यमे भाग
→
स्वरूप
परमाणु
द्विदेशी
जिस स्कंधमे आदि, अंत पाइये, मध्य पाइये सो 'स्कंध आनुपूर्वी' कहीये १. जिस स्कंध तीन बोलमेसु कोइ बी न पाइये सो 'अनानुपूर्वी' कहीये. जिस स्कंधमे आदि, अंत पाइये पिण मध्य न पाइये सो 'अवक्तव्य' कहीये.
अथ अग्रे लोकस्वरूप व्यवहार नयके मतसे लिखिये है; निश्चयमे तो अनियत प्रमाण है.
→>>
१ स्तोक
विशेष अधिक ३
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१२० श्रीविजयानंद सूरिकृत
[१ जीरसातमी नरकके. आकाशक तले अर्थात् नीचे दोय प्रतर आपसमे सदृश अने सात राज (रज्जु)के लंबे चौडे है. तिसके ऊपर एक प्रदेश हीन दोय प्रतर है. तिनके ऊपर एक प्रदेश हीन चार प्रतर सरीषे है. तिनके ऊपर एक प्रदेश हीन दोय प्रतर सरीष है, तिन के ऊपर एक प्रदेश हीन दो प्रतर है. ऐसे ही १ प्रदेश हीन फेर दोय प्रतर है. एक प्रदेश हनि फेर दोय प्रतर है. एवं सर्व १४ प्रतर चढेसे बारा प्रदेशकी हान होइ: इसी तरे चवदे प्रतर चढे फेर वारा प्रदेश घटे. असी सात रज्जु ताइ चवदे प्रतर चढे बारे घटालेने अने ऊर्ध्व लोकमे सात प्रदेश चढ चारको हान जाननी. चारकी आदिमे वृद्धि उपर हान जाणवी अने जे दूजी तरफ दो आदिकके अंक लिखे है सो प्रतरके प्रदेशांकी संख्याके कृतयुग्म भने द्वापरयुग्म ज्ञेयं. इति अलम्.
लोकश्रेणि
अलोकश्रेणि
ऊंची
T
"
ऊची | तिरछी । तिरछी !संख्य असंख्य.अनंता द्रव्यार्थ । असंख्य असंख्य
अनंत
अनंत सख्य.जसंख्य, अनंत प्रदेशार्थ युग्म ५ दत्यार्थ संख्य, असंख्य कृतयुग्म कृतयुग्म कृतयुग्म प्रदेशार्थे कृतयुग्म ४ ४ ।३।२।
१४ ।३।२।१ चतुर्भगी श्रेणि अपेक्षा ४ २ सादि सांत अग अप । प्रण अप सादि सांत
प्रण स३ श्रण स
सा अप३ स अप स सप४ (८७) श्रीभगवती दशमे शते प्रथम उद्देशके दस दिग् स्वरूपयंत्रम्
Re
| इन्द्रा आग्नि यमा नैऋत्य वरुणा वायव्य सोमा ईशान तमा | विमला पूर्व दिग कूण दक्षिण कूण | पश्चिम कूण उत्तर कूण अधो ऊर्ध्व दिग
-
उद्भव
रुचकसे उत्पात
संस्थान
मुक्ता
जूया
गास्तन
गास्तन
संस्थान | जूथा | सक्का इथा मुक्ता० ऋथा मुक्ताः सूया मुक्ता गोस्तन गोस्तन लोक देश दशम वर्ग १ छ । बा । बहु | ११
आयाम
३रज्जु | ॥रज्जु मरज्जु २॥ 2॥, ,
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लंबी !
योगी प्रदेश ऊन
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असंख्य असंख्य असंख्य असंख्य मसंख्य असं अनस्या असंख्य विशेष असंख्य amatidhगुणी ५ ५ ५ or sivate personalsea
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आवाका व्या
आलोक क
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(८४) लोकका स्वरूप
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अलोकके अरम
अवाक व्या
आलोक के
अ च ज्ञ म
अथ लोकस्वरूप विचार ख २ भूमि १४ विश्लेष की १२ रहै एवं १४ प्रदेश के चढे बारां प्रदेशकी हान होये है. उदाहरण यथा - आदिमे चौदा प्रदेश है अने अंतमे २ प्रदेश है. सो चौदाका नाम 'भूमि' है अने टोका नाम मुख' है. सो
ख २ चवदे माहिथी काटे
१६
आवक्तव्य
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________________
श्रीविजयानंद सूरिकृत
[ १ जीव
१२ रहै इसका नाम ' विश्लेष' है. इस कारण ते चवदें प्रदेशके चढे ते बारा घटे अने ऊर्ध्व लोक सुख २, भूमि १०, विश्लेष ८ रहे. एवं ७ प्रदेश चढे ४ की दृद्धि अने ऊपर हाणा. एवं सर्वत्र ज्ञेयम् कोइ कहै है जो एकेक प्रदेश लोक घटया है, सो अशुद्ध है: किस वास्ते १
लोकी ऊंची श्रेणिमे तीन युग्म कहें हैं श्री भगवतीजीमे - कृतयुग्म, द्वापरयुग्म, त्रजः एवं ३. अने जो प्रदेश प्रदेशकी हान वृद्ध माने चारो ही युग्म हो जाते है; इस वास्ते द्वे द्वे चार द्वे द्वे द्वे चढनेसे एकेक प्रदेशकी हान होती है. एवं सर्वत्र ज्ञेयम्.
१२२
अथ श्रीपन्नवणाजी १० मे पदे १२ बोलकी अल्पबहुत्व लिख्यते - सर्वसे थोडा लोकका एकेक अचरम खंड १, लोकके चरम खंड असंख्य गुणे, तेभ्यः अलोकके चरम खंड विशेषाधिक ३, तेभ्यः लोकालोकके चरमाचरम खंड विशेषाधिक ४, तेभ्यः लोकके चरम प्रदेश असंख्यात गुणे ५, तेभ्यः अलोकके चरम प्रदेश विशेषाधिक ६, तेभ्यः लोकके अचरम प्रदेश असंख्य गुणे ७, तेभ्यः अलोकके अचरम प्रदेश अनंत गुणे ८, तेभ्यः लोक अलोकके चरमाचरम प्रदेश विशेषाधिक ९, तेभ्यः सर्व द्रव्य विशेषाधिक १०, ते किम १ जीव, पुद्गल, काल अनंते अनंते है, इस वास्ते, तेभ्यः सर्व प्रदेश अनंत गुणे १७ (१), अवक्तव्य प्रदेश मिले लोक स्वरूपमें जो पीले रंग करे है चार खंड तिस थकी सर्व पर्याय अनंत गुणी ? प्रतिप्रदेशे अनंती है; एवं १२. इह स्वरूप १०।११ मे बोलका केवली जाणे पिणबुद्धि समजमे आया तैसे लिख्या है; आगे जो बहुत कहँ सो सत्य; मूत्राशय अति गंभीर है.
पीत
ल
-क
ल
अथ चरमाचरम स्वरूप लिख्यते - गोल अने पीला तो लोकका अचरम खंड है. अनं जे लाल रंग के आठ खंड है तिनकूं लोकके निखुड' कहीये है तिनकूं ही लोकके ' चरम खंड ' कहीये है. तिनके ऊपर बारां खंड नीले 'अलोकके चरम खंड ' कहीये है. तिन बारां खंडसे परे जो अलोक है सो सर्व अलोकका एक अचरम खंड है. इन चाराके प्रदेशांकू 'चरम तथा अचरम ' कहीये है. एतावता चरम खंड सर्व 'चरम प्रदेश नू अचरम खंडके 'अचरम प्रदेश' जानने. असत् कल्पना करके आठ अने बारा खंड लोकालोकके कहे है. परमार्थथी असंख्य निखुड जानने अने ए जो निवुड है सो ? म
१ तेथी ।
"
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________________
श्रेणि सर्व नही है : तिम्पका यथा स्वरूपकी स्थापनाऐसा स्वरूप है ए बात श्रीअनुयोगद्वारे है. अने सम त्री है इति अलम्. हिवै पुगलके छव्वीस भंग्याकी स्थापना पनवणाजीको ( श्रीमलयगिरि सूरिकृत ) टीकासे है ते यथा- परमाणु- पुद्गल में १ भंग पावें तीजा अवक्तव्य, इदं (यं) चस्थापना दोप्रदेश में मंग २ पावें चरम एक, अवक्तव्य एक, इदं च स्थापना प्रदेशीमें भंग ४ पावें १। ३।९।११. स्थापना
१०।११।१२।२३।. एस्थापना सेन के फोन
भंग. स्थापना १|३|७|९| १०|११|१२|१३|२३/२४२५ मंत्र
१३ [-]
२५/२६. एवं १५. इदं च स्थापना
इदं च स्थापना
'च स्थापना
०
O
१९
लोक
के
40
int
तदुभय
२३
कॉक
=
2.0
विशेषाअलोक सर्व स्ताक धिक ३
१
विशेषाधिक ४
के
छ प्रदेशीमें १५ भंग लाभे ते. १ ३३७/८/९ / १०२११।१२/१३/१४। १९/२३/२४ ।
२४ चिनन
बैंक
अनंत प्रदेशी पर्यंत ज्ञेयम्.
(८५) श्रीमज्ञापना दशमे पदात् यंत्र
द्रव्यार्थे ज्ञेयं
प्रदेशार्थे
अचरम | चरमाणि
| सर्व स्तोक असंख्य
गुणे २
को
७
मी ऐक
अपरम
प्रदेश
असंख्य गुणे ७
44
१०
११
बेबल बेडबाय मोड
D
अनंत पुणेट
मं सोच पान में
चरम प्रदेश
एक एक EEEEEEEE आठ प्रदेशीमे १८. इदं
असंख्य गुणे ५
विशेषाधिक ९
त्रि
चारप्रदेशी में भंग सात १।३१९
पांचप्रदेशी में १९
विशेषाधिक ६
२५
BAB 1887 daa
०
का कै
सात प्रदेशी स्कंधमें १७ भंग पावे..
(८६) श्री भगवतीके कोड मे शते ८ मे उद्दे
द्रव्यार्थे
प्रदेशार्थे
असंख्येय गुणे २
ऊर्ध्व
चार दिशा चरमांत
O
१२३
of fiv 龆剛
१४
35
ਛੋੜਾ
संख्येय
अधो चरमांत सर्व स्तोक १ गुणे ४
33
२६
गर्म एवं नवथी
39
13
संख्येय गुणे
५
असंख्येय गुणे ३
●
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________________
१२१
श्रीविजयानंद सूरिकृत
[१ जीवजैसे क्षुल्लक प्रतरका स्वरूप है तैसी स्थापना; जैसा एह प्रतर है अमा ही इसके ऊपर दजा प्रतर है. इन दोनों का नाम 'क्षल्लक प्रतर ' है. इनके मध्यकं आठ प्रदेशाकी
'रुचक ' संज्ञा है. इनसे १०दिशा. (८८) श्रीभगवत्यां १० मे शते प्रथम उद्देशे, ११ मे शते दसमे उद्देशे, षोडशमे शते ८ मे उद्देशे
जीव देश चार चार ऊधी अधो अधो तिर्यग ऊर्ध्वीलोकना दिग् ऊर्व अधो- बीस बोल-दिशा | अजीव प्रदेश दिग् विदिग दिग् दिग् लोक लोक लोकप्रदे-चरमानलोकच लोकच्च १०, लोक ३, प्रदेश१, द्रव्यम् ।
शमे त रमांत रमाता चरमांतदएवं सत्र २० ॥ जीव | ०अनंत . ० ०अनंत अनंत अनंत 2000खोलमे अनंते;
| १३बोलमे शून्य. एकेन्द्रिय देश ३।३ ---- एवम्
२० खोलमे घणे एकेन्द्रियांके घणे देश ३३
"
प्रदेश ," | ३३ | ३३ | ३३ | ३३ | ३३ | ३३ | ३३ | ३३ ३३ | ३३ /२० ब्रोलमे भंग ३।३
बेंद्री, तेइंद्रीय चौरिंद्री,
११७बोलमे ३३,१०लो
लमे ११।१३।३३बोल ३३ मे १९६१३.
पंचेंद्री.
10
बें,ते.,चो.पं. प्रदेश
७ बोलमे ३३, बोल ११ मे १३:३३
अनिन्द्रिय देश
,
११.८ मे ३३ बोल मे ।
११।१३।३३, ४ मे १३ |३३ दाने ११।१३. | ८ मे ३३ बोल, १९मे | १३:३३, १ मे ११।१३।३३
प्रदेश
अजीब
| रुपी
४
४
४
४
४
४
४
४
४
४
४ | २० मे चार
"
अरपी ७ ७ ७ काल ७७
१३ ब्रोलमे ७; | सात ब्रोलमे ६.
जिहां ११ लिख्ये है तिहां प्रथम एकानो एक जीव परला एका देशके कोठेमे एक देश अने प्रदेशके कोठेमे एक प्रदेश तीनका अंक है जहाँ तिहां बहुवचन जानना. इति अलम्.
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(९०) भगवती शते १२ मे, उद्देशक १०मे पुद्गलभंग (९१) भगवती शते ८ उद्देशे १०मे पुद्गलके भंग ८ १ सद्भाव २ जसद्धाव
द्रव्य देश
h
दवाई |" अस
छवदेसा ६ अस "
૨૩.
दव्यं बदम्बईसे 0 . ७ " अस
१२२.
दव्वंच देखा 00 ८स असस
११२
दब्वाइंचवम्बदेसेय 80 ।१०/" " "
११३
दम्बाइं न दम्बदेसायं 8 | ११ | " अस"
भगवती ५ मे शते उद्देशे ७ मे भंग ९ १२ अस स अस
देसेणं देसं फुसड़ १३स असस
१२३ १४in
११२२
देस
सव्व १६ अस" अस "
૨૨૩.૩.
देस १७स " " " १८असस अस
१२२३
११२३ २०" " असस १२२३३
सच्चेण २१"स अस स " ११२३३ २२ " अस स अस " ११२२३
सन्वं २३/" "स अस स ११२२३३
૨૨૩
४ । दसहि
१२.३३
सन्न
देस
दस
(९२) भगवती शतक५मे उद्देशे ७ स्पर्शनायन्त्रम्
/
०
। परमाणु-पुद्गल
"
द्विप्रदेशी स्कंध
परमाणु-स्पर्श द्विप्रदेशी स्कंध तिप्र. स्पर्श पर स्पर्शे द्वि प्रदे. " तिप्रदे." पर. "
"
103000
तिप्रदेशी"
तिप्रदेशीक.
"
द्रव्य देश करके ८ भांगे है. सो परमाणुमे २ पावें - ११२; द्विपदेशीये भंग ५ पावें-१-५, त्रिप्रदेश में ५ भंग पावे-१-७; चार प्रदेशीम अंग ८ पा-१-८; एवं पांचसे लेकर अनंत
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________________
१२६ श्रीविजयानंदरिकृत
[१ जीवप्रदेशीपर्यंत एही ८ भंग है. ( ९३ ) श्रीभगवतीके (श. २५, उ. ३ ) मे ५ संस्थानस्वरूप तथा देशयंत्रस्थापना. संस्थान सूची प्रतर घन जुम्म | प्रदेश ओज प्रदेश युरम ओज१।३५ युरस ओज१३५ युगमा जुम्मे ००० परिमंडल | ०० ०० ०० २० प्रदेश०० प्रदेश ४ कृतयुग्म ०००
१२.५ ७ ३२. ११३४ ००० यस ०० ० ० । ३ ६" ३५ ४ २/३४ ००० चतुरस्र ०० ०० ।
१३।४ ००० आयतन
११२।३।४ /००००
१२
श।।।
१/21
११
|१|
शवहशश
२४.४२ ११११११
२४४२
२२ च उस
११ ११११
परिमंडल
1३३/३
२/२
२२.२२ ।
२२
३३३ ५४३.२१॥ ४३२१ आयतन
PIRIRIशारा
|१|११
MMom
N२१२
૨૨૨૨.
।१११११
३/३/३/३३
। ११११११ ।
श
२
३
कावाल
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Jain Educatterinternational
www.jamelibrary.org
Page #152
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
१२७ अजुगति में एक समय पर भव जाता लागे, अनाहारिक नास्ति. एक वक्रमें दो समय लागे प्रथम समय अनाहारिक, दूजे समये आहार लेवे. द्विवक्रमें तीन समय लागे प्रथम दो समय अनाहारी, तीजे समये आहार लेवे. तीन वक्रमें चार समय लागे, प्रथम तीन समय अनाहारी, चौथे समय आहार लेवे. चार वंकामें पांच समय लागे, प्रथम चार समय अनाहारी, पांच मे समये आहार लेवे. श्रीभगवतीजी (सू.) मे तो तीन समय अनाहारिक कह्या है तो चार समय कैसे हूये तिसका उत्तर-श्रीभगवतीजीमे बहुलताइकी विवक्षा करके तीन समय कहे है. अल्पताकी विवक्षा नही करी, कदे कदे इक चार समय अनाहारिक होता है. कोइ कहै जो पांच समयकी गति न मानीये तो क्या काम अटके है तिसका उत्तर-प्रथम तो पूर्वाचार्योने पांच समयकी गति मानी है, श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमण आदि देइ सर्व वृत्तिकारोने मानी है, इस वास्ते सत्य है. तथा सातमी नारकीके स्थावरनाडीकें कूणेवाला जीव मरीने 'ब्रह्मदेव' लोककी स्थावर नाडीके कूणे मे उपजणहार पांच समयकी विग्रह विना उपज नही सकता, एह विचार सूक्ष्म बुद्धिसे विचार लेना. इस विना काम अटके है. इसकी साख भगवतीकी वृत्तिमे तथा पन्नवणाकी वृत्तिमे वा (बृहत्)संघयणी (गा. ३२५-३२६)मे है. (८९) श्रीभगवती शते १३मे चतुर्थ उद्देशके प्रदेशांकी परस्परस्पर्शनार्यन्त्रम्
आकाधर्मास्तिकायके अधर्मास्तिकायके शास्ति- जीवके पुद्गलके कालके
कायके धर्मास्तिकायका एक प्रदेश शा५।६ प्रदेश
४५/६७
अनंते अनंते | अनंते स्पर्श अधर्मास्तिकायका ,, ४।५।६७ ३।४।५।६
-
आकाशास्तिकायका.... श२।३।४।५।६७|श।३।४५/६७ जीवका
४५/६७ ४५/६७ परमाणुपुद्गल
४॥५॥६७ ४।५।६७
पुद्गलपद शेयम् ४ ६ ८ | १० १२ १४ १६ | १८ | २० २२
जघन्य पद ७ | १२ | १७ | २२ | २७ | ३२ ३७ | ४२ | ४७ | ५२ |
। ०७ | १२| _ _उत्कृष्ट " चूर्णिकारे नयमते करी एक अवग्रही प्रदेशना दोय गिन्याहअने टीकाकारेमाणु करी व्याख्यान कर्या है. इति रहस्सं पुद्गलकी स्पर्शनामे. परमाणु जघन्य क्ष अधर्मके स्पर्शे, तिनका स्वरूप पीछे लिख्या ही है; अने दोय प्रदेशी आदिक में
१ ग्रंथकारे १२४ मा पृष्ठनी पछी आनी योजना करी छे, परंतु छपावती वेळा ए पृष्टमा समावे आ यंत्र अहीं आपेल छे.
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________________
१२८ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[२ अजीवस्पर्शनामे दो दो प्रदेश बधा लेने अने उत्कृष्टी स्पर्शनामे पांच पांच प्रदेशानी सर्वत्र वृद्धि जान लेनी. इति अलं विस्तरेण. (९४) भगवती श० २५, उ०४ (सू०७४०) परमाणु द्विप्रदेशादि १३ बोलाकी
अल्पबहुत्वयंत्रम् द्विप्र- त्रिप्र- ४ प्रदे-५प्रदे-६प्रदे-७- ९ प्र- १० प्र-संख्यात अ- अनंतद्रव्य परमाणु
देशी देशी शी ४ शी ५शी ६ देशी प्रदे- देशी देशी प्रदेशी संख्यात- प्रदेयंत्रम् १ १ २३ स्कंध स्कंध स्कंध ७
। ११ । प्रदेशी शी
द्रव्याथै ११ वि०
अ
त संख्यात असे णा गुणा | गुणा
ve / or
प्रदेशार्थ २ अनंत
| 942
pc
गुणा
वि
१३
असंख्य गुणा
१०प्र.संख्यात असंख्यएक प्रदे-२ प्र. ३ प्र.४ प्रदेशा-५प्रदेक्षेत्र
शाव-६प्र. प्र. ८प्र.९ प्र. | शाव-गा. गा. वगाढा
गा. प्र. गा. प्रदेशावयत्रम्रगाढा १ ३२ ४३
गाढा गा.६गा.७गा.८गा. ९
१० ११ गाढा १२
w
द्रव्याथै
विवि वि
वि
व
१सर्व ११ १२
संख्येय असंख्येय | गुणा गुणा
वि वि
वि
vdo
प्रदेशार्थे
वि संख्यात असंख्यात 1 एक समय स्थितिक आदि १२ बोलका यंत्रना क्षेत्रवत् निर्विशेष ॥ भावयंत्र एक गुण -ला आदि यावत् अनंत गुण १३ बोल. वर्णना ५, गंध २, रस ५, शीत स्पर्श १, उष्ण
२, स्निग्ध ३, लु(रू)क्ष ४, एवं १६ बोलमेथे एकेक बोलना तेरां तेरां बोल करके द्रव्य र जान लेना. TO
एक गुण
कर्कश द्विगु-गु- ४ गु. ५ गु.६ गु-७ गु-८गु. ९ गु-१० गु-संख्येय असंख्य अनंत BAण २३ ण ४ण ५ ण ६ ण ७ ण ण ण १० गुण ११ गुण १२१३
२ ३ ४ ५ ६ ७
१२ १३ कवि विवि विविविवि | | विसं. असं. असं. बहु
वि
बहु
बहु
बहु बहु
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह (९६) भगवती शतक २५, उ. ४ सू. ७४१
द्रव्याथै प्रदेशार्थे
परमाणु १ । संख्यातप्रदेशी २ | असंख्यातप्रदेशी ३) अनंतप्रदेशी ४ २ अनंत गुणा | ३ संख्यात गुण ४ संख्येय गुण । १ स्तोक ,, , , संख्येय ,, ,, असंख्येय ,, , , | ४ संख्यात , ६ असंख्यात
... . "
अनंत २
द्रव्यार्थे प्रदेशार्थे
क्षेत्रयंत्र
एकप्रदेशावगाढा १ संख्यातप्रदेशावगाढा २ असंख्यप्रदेशावगाढा ३
द्रव्याथै
स्तोक
२संख्येय गुणा
३ असंख्येय गुणा
प्रदेशाथै
द्रव्याथै
,
,
,
४
"
"
प्रदेशार्थे
क्षेत्रयंत्रवत् कालयंत्र कालयंत्रमे एक समय स्थिति आदि कहनी.
, स्तोक
द्रव्यार्थे प्रदेशाथै
द
"
भाव एक गुण
१गुण संख्येय गुण असंख्येय गुण कर्कश आदि ४
अनंत गुण २ संख्येय ३ असंख्येय ४ अनंत , , , असंख्येय , , ,, द्रव्यार्थे
[असंख्येय _____ प्रदेशार्थे ।
__, ५ , ७ , सोले बोलना यंत्र परमाणु आदिवत् जान लेना द्रव्यवत्. (९७) परमाणु आदि अनंतप्रदेशी स्कंध चल अचल स्थिति
भगवती (श० २५, उ० ४, सू. ७४४)
उत्कृष्ट स्थिति
जघन्य स्थिति चल (सैज) एकवचने १ समय | । अचल (निरेज) , चल बहवचने अचल बहवचने सर्वाद्धा.
आवलिके असंख्यातमे भाग
असंख्याता काल
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________________
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[२ अजीव(९८) अंतरयंत्रं भग० सू.७४४ परमाणु-पुद्गल
द्विप्रदेश आदि-अनंत प्रदेश पर्यंत जघन्य
उत्कृष्ट जघन्य
उत्कृष्ट स्वस्थाने १समय असंख्य काल | १समय | असंख्यात काल परस्थाने
अनंत
- एकवचने
"
"
आवलि
आवलि असंख्य खस्थान
असंख्य भाग अचल एकवचने
भाग परस्थान असंख्य काल
अनंत काल नास्ति अंतर नत्थि
नस्थि । नत्थि बहुवचने अचल
नास्ति अंतरं सर्वत्र अंतर समुच्चये १ समय असंख्य काल| असंख्य काल १ समय उत्कृष्ट असंख्य
काल - (९९) कालमान स्थितिमान यंत्रम् भग० श. २५, उ. ४ (सू. ७४४)
परमाणु द्विप्रदेशादि-अनंत प्रदेशी पर्यन्त जघन्य
उत्कृष्ट
| जघन्य । उत्कृष्ट देशैज
आवलिके असं. १ समय
ख्यमे भाग
एकवचने सर्वैज १समय
आवलिके असं
ख्यमे भाग निरेज असंख्य काल
असंख्य काल बहुवचने देशैज सर्वाद्धा
सर्वाद्धा (१००) अंतर मानका यंत्र (भग० सू.७४४)
परमाणु द्विप्रदेशादि-अनंत प्रदेशी (पर्यन्त) जघन्य उत्कृष्ट
जघन्य . उत्कृष्ट स्वस्थाने
१ समय । असंख्य काल देशैज परस्थाने
* अनंत स्वस्थाने सर्वैज
। १समय । असंख्य काल परस्थाने सर्वाद्धा
सर्वाद्धा १ परमाणुपुद्गलो तेमज द्विप्रदेशादि स्कंधो सर्व अंशे सदा काल कंपे तेमज सदा काल निष्कंप रहे।
असंख्य " अनंत ,
Page #156
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
(१०१) भगवती (श. २५, उ. ४, सू. ७४४, पृ. ८८५)
| परमाणु १ संख्यात प्रदेश २ असंख्य प्रदेश ३ अनंत प्रदेश ४. देशैजा
.
। ७ असंख्य ८ असंख्य । ३ अनंत सर्वजा ६ असंख्य __५ , अनंत (? असं.) १ स्तोक
| ११ असंख्य २ अनंत गुणा
निरेजा देशैज
cG |
सर्वैज निरेज
१ स्तोक २ अनंत
Barack Fort Rai |
देशैज सर्वैज
११ असंख्य १६
निरेज
७ अनंत १७संख्यात । १९ असंख्य
|
३ अनंत
देशैज
सवज
अचला
निरेज (१०२) परमाणुपुद्गल सैज निरेज (अल्पबहुत्व) भग० श. २५, उ. ४(सू.७४४)
परमाणु यावत् असंख्यः । अल्पबहुत्व
अनंतप्रदेशी स्कंध प्रदेशी स्कंध चला १ स्तोक
१ स्तोक (?) २ असंख्य गुण ___ २ अनंत गुणा (?)
(१०३) अल्पबहुत्व अल्पबहुत्व | परमाणु संख्यातप्रदेशी असंख्यातप्रदेशी अनंतप्रदेशी
सैजा ३ अनंत गुण ४ असंख्य गुणा ५ असंख्यात | २ अनंत गुण निरेजा | ६ असंख्य ७ संख्य ,
१ स्तोक सैजा अप्रदेश० - ३असंख्य,
२ अनंत गुणा प्रदेशार्थे निरेजा
१ स्तोक सैजा ५ अनंत - ६
३ अनंत द्रव्याथै निरेजा । १० असंख्य | ११
| १ स्तोक सैजा
४ अनंत प्रदेशार्थे निरेजा
___ , | १४ १ मा संबंधी उल्लेख विचारणीय जणाय छ ।
द्रव्यार्थे
१३
Page #157
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________________
३८
श्रीविजयानदसूारकृत
[२ अजाव
एक मूर्तवंत
परिणामी
जीव/पुद्गल १
Sa
काल,
l
१
गत
(१०४) परमाणु संख्येय प्रदेश असंख्येय प्रदेश अनंत प्रदेशी से(सि)या चल निरेया अचल अल्पबहुत्व. परिणाम जीव मूर्त सप्रदेश एक अक्षेत्री किरिया नित्य कारण कर्ता सर्वगत २ मेद १ १ ५ ३ ४ (५१) २ ४ ५ जीव... धर्म, धर्म, धर्म, धर्म, ' जीव १... अधर्म, | धर्म, | अधर्म, जाव, अधर्म, | अधर्म, पक |...----
पुद्गल
आकाश आकाश. पुद्गल,
आकाश जीव जीव,
एक्रिया-आकाश
जीव, पुद्गल
काल | वंत नित्य
पुद्गल ४अपरि- अजीव अमूर्त | अप्र- अनेक क्षेत्री
अकि.
असर्व
अनित्य अकारण अकर्ता णाम ५
रिया । ५ देशी
का २१ । धर्म, धर्म, धर्म, | काल- पदल १. एक धर्म, जीव १, जीव धर्म, अधर्म, अधर्म, अधर्म, द्रव्य काल २, आकाश- अधर्म, पुद्गल- एक अधर्म, आकाश, आका- आकाश, १ जीव ३ द्रव्य आकाश, पयर्याय २, अकारण आकाश, जीव, काल ए; श, काल, ए अनेक काल ए विभाव
काल,
काल, ४ अपरि- काल, जीव
४ अपेक्षया
पुद्गल णामी पुद्गल ए५
'परिणाम १ जीव २ मुत्ता ३, सपएसा ४ एग ५ खित्त ६ किरिया ७ य । निचं ८ कारण ९ कत्ता १०, सव्वगय ११ इयर हि यपएसा ॥१॥ दुन्नि २ य एग १ एगं १, पंच ५ति ३ पंच ५ ति ३ पंच ५ दुन्नि २ चउरो ४ य । पंच ५ य एगं १ एगं १, दस १० एय उत्तरगुणं २ च ४ ॥२॥ पण ५ पण ५ इग १ य तिनि ३ य, एग १ चउरो ४ दुन्नि २ एक १ पण ५ पणगं ५। परिणामेयरमेया, बोद्धव्वा सुद्धबुद्धिहिं ॥३॥"
(१०५) भगवती (श. २५, उ. ४) युग्म - धर्म । अधर्म | आकाश जीव पुद्गल काल
अधम,
द्रव्यार्थे
२।१ प्रदेशार्थे प्रदेशावगाढ समयस्थिति १ परिणामजीवमूर्ताः सप्रदेशा एकक्षेत्रक्रियाश्च । नित्यं कारणं कर्ता, सर्वगत इतरे हि चाप्रदेशाः॥१॥
द्वे च एक एकं पञ्च त्रि पञ्च त्रि, पञ्च द्वे चखारि च । पञ्च च एक एकं दश एते उत्तरगुणाश्च ॥२॥ पञ्च पञ्च एकं त्रीणि च एकं चखारि द्वे एकं पञ्च पञ्च च । परिणामतरमेदा बोद्धव्याः शुद्धबुद्धिभिः॥३॥
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________________
तत्त्व ]
13 ho
अ
ल्प द्रव्यार्थे
ब
युग्म
त्व
१
प्रदेशार्थे २ असंख्य २ असंख्य
२
३
४
५
६
७
८
धर्म अधर्म
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय ३ धर्मास्तिकाय, अधर्मास्ति
१
काय २
जीवास्तिकाय १
33
33
59
पुद्गलास्तिकाय
35
"3
काल
आकाशास्तिकाय १
नवतत्त्व संग्रह
आकाश
१
८ अनंत
(१०६)
जीव
पुद्गल
३ अनंत गुण ५ अनंत गुण ७ अनंत गुण
४ असंख्य
६ असंख्य
द्रव्यार्थ
पएस (प्रदेश)
द्रव्यार्थ
पएस
द्रव्यार्थ
पएस
द्रव्यार्थ
प्रदेश
स्तोक
असंख्य
अनंत
असंख्य
अनंत
असंख्य
अनंत
35
१३३
काल
O
अथ कालकी अल्पबहुत्व ६२ बोला
(१) सर्व स्तोक समयनो काल, (२) आवलिनो काल असंख्य गुण, (३) जघन्य अंतमुहूर्त १ समय अधिक, (४) जघन्य आयुबंधकाल संख्येय गुण, (५) उत्कृष्ट आयुबंधकाल संख्येय गुण, (६) जघन्य अपर्यायी एकेन्द्रिय न संख्येय, (७) उत्कृष्ट अपर्याप्त एकेन्द्रियनो विशेष, (८) पर्याप्त एकेन्द्रियनो जघन्य काल विशेष, (९) पर्याप्त निगोद उत्कृष्ट विशेष अधिक, (१०) उत्कृष्ट सकाय विरह सं०, (११) जघन्य अपर्याप्त बेइंद्रीनो विशेष०, (१२) उत्कृष्ट अप - र्याप्त इंद्री विशेष०, (१३) जघन्य पर्याप्त बेइंद्रीनो विशेष०, (१४) जघन्य तेइंद्री अपर्याप्त काल विशेष०, (१५) उत्कृष्ट अपर्याप्त तेइंद्रीनो विशेष०, (१६) जघन्य पर्याप्त तेइंद्रीनो विशेष०, (१७) उत्कृष्ट पर्याप्त चौरिद्रीनो विशेष०, (१८) उत्कृष्ट अपर्याप्त चौरिंद्री विशेष०, (१९) जघन्य पर्याप्त चौरिंद्री विशेष०, (२०) जघन्य अपर्याप्त पंचेंद्रिीनो विशेष०, (२१) उत्कृष्ट अपर्याप्त पंच
नो विशेष०, (२२) जघन्य पर्याप्त पंचेंद्रिीनो विशेष०, (२३) उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त काल संख्येय, (२४) मुहूर्तनो काल समय १ अधिक विशेष, (२५) अहोरात्रानो काल संख्येय गुण, (२६) उत्कृष्ट ते कायनी स्थिति सं०, (२७) पक्षनो काल संख्येय गुण, (२८) मासनो काल संख्येय गुण, (२९) तेइंद्रीनी उत्कृष्ट स्थिति विशेष०, (३०) ऋतुनो काल विशेष०, (३१) आयन वा चौरिंद्री उत्कृष्ट स्थिति सं०, (३२) वर्षनो काल संख्येय गुण, ( ३३ ) युगनो काल संख्येय
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१३४ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[२ अजीवगुण, (३४) बेइंद्री उत्कृष्ट स्थिति संख्येय, (३५) वायुकाय उत्कृष्ट स्थिति संख्येय, (३६) अप्काय उत्कृष्ट स्थिति संख्येय, (३७) वनस्पति उत्कृष्ट या देव, नरक जघन्य वि०, (३८) पृथ्वीकाय उत्कृष्ट स्थिति संख्येय, (३९) उद्धार पल्यनो असंख्य भाग संख्येय, (४०) उद्धार पल्यनो काल असंख्य गुण, (४१) उद्धार सागरनो काल संख्येय, (४२) जघन्य अद्धा पल्यका असंख्य भाग असंख्येय, (४३) उत्कृष्ट अद्धा पल्यका असंख्य भाग असंख्य, (४४) अद्धा पल्यनो काल असंख्य गुण, (४५) उत्कृष्ट मनुष्यनी कायस्थिति संख्येय, (४६) अद्धासागरनो काल संख्येय, (४७) उत्कृष्ट देव-नारक-स्थिति संख्येय, (४८) अवसर्पिणी उत्सपिणी काल सं०, (४९) क्षेत्र पल्यनो काल असंख्य गुण, (५०) क्षेत्रसागरनो काल संख्येय गुण, (५१) तेउनी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्य, (५२) वायुनी उत्कृष्ट कायस्थिति विशेष०, (५३) अपनी उत्कृष्ट कायस्थिति विशेष०, (५४) पृथ्वीनी उत्कृष्ट कायस्थिति विशेष०, (५५) कार्मण पुद्गलपरावर्तन अनंत गुण, (५६) तैजस पुद्गल परावर्तन अनंत गुण, (५७) औदारिक पुद्गल परावर्तन अनंत, (५८) श्वासोच्छ्वास पुद्गल परावर्तन अनंत, (५९) वैक्रिय पुद्गलपरावर्तन अनंत गुण, (६०) वनस्पतिनी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्य, (६१) अतीत अद्धा अनंत गुण, (६२) अनागत अद्धा विशेष अधिक.
(१०७) द्रव्य ६; गुण चार २ एकेकना नित्य है धर्म अरूपी १ । अचेतन २ । अक्रिया ३ । गतिसहाय ४ अधर्म
स्थितिस्वभाव , आकाश
अवगाहदान ,
वर्तमान व जीर्ण,, रूपी , _, , सक्रिय ,,
पूरण-गलन , जीव अनंत ज्ञान ,, अनंत दर्शन ,, अनंत चारित्र,, अनंत वीर्य ,
(१०८) पर्याय षट् द्रव्यना चार चार
काल
देश अनित्य
प्रदेश अनित्य
अगुरुलघु
धर्म१ । स्कंध नित्य । अधर्म २
आकाश३
अनागत
काल४ पुगल जीव
अतीत वर्ण
वर्तमान रस
गन्ध
स्पर्श
गुरु
लघु
अगुरुलघु
अव्याबाध
पुद्गलका वर्ण आदि, धर्म अगुरुलघु पर्याय.
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तत्त्व
१३५
.. नवसत्त्वसंग्रह (१०९) पुद्गलयंत्रं भगवती (श० २०, उ. ४)
वर्ण
गन्ध
रस
संस्थान
भंग
२००
. परमाणु - २ प्रदेश
१५
४५
९०
९०
२१६ २३१
२३१
२३६
२३७
२०
"
पुद्गल
(११०) भगवती शते ८ उद्देशे १ मे पुद्गलयंत्र
प्रयोगपरिणत मीसा (मिश्र) । विस्रसा अल्पबहुत्व
१ स्तोक २ अनंत गुणा ३ अनंत गुणा जीवे ग्रह्या 'प्रयोग,' सा जीवने तज्या परिणामांतरे परिणम्या नही ते 'मीसा,' खभावे परिणम्या अभ्रवत् ते 'वित्रसा; एवम् ३.
नरक ७, भवनपति १०, व्यंतर ८, ज्योतिषी ५, देवलोक २६, सूक्ष्म ५, स्थावर बादर ५, बेइंद्री १, तेइंद्री १, चौरिंद्री १, असंज्ञी पंचेंद्री ५, संज्ञी पंचेंद्री तिर्यंच ५, असंज्ञी मनुष्य १, संज्ञी मनुष्य १, एवं सर्व ८१, ए प्रथम दंडक. इनकू अपर्याप्तसे गुण्या ८१, पर्याप्त अपर्याप्त १६१, शरीरसे गुण्या ४९१, जीवेंद्रीसे गुण्या ७१३, शरीरेंद्रीसे गुण्या २१७५. १६१ कू पांच वर्ण, पांच गंध, पांच रस, आठ स्पर्श, पांच संस्थानसे गुण्या ४०२५, ४९१. • इन पचीससे गुण्या ११६३१ (१२२७५ १), ७१३ कू इन वर्ण आदि २५ से गुण्या १७८२५, २१७५ कू इन २५ से गुण्या ५१५२३ (५४३७५१).
इति आत्मरामसंकलता(ना.)यां अजीवतत्त्वं द्वितीयं संपूर्ण ॥
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१३६
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[३ पुण्यअहं नमः॥ अथ 'पुण्य' तत्व लिख्यतेनव प्रकारे बांधे पुण्य, ४२ प्रकारे भोगवे. सातावेदनीय १, देव २, मनुष्य ३ तिर्यंचना आयु ४, देवगति ५, मनुष्यगति ६, पंचेन्द्रिय ७, औदारीक ८, वैक्रिय ९, आहारक १०, तैजस ११, कार्मण शरीर १२, तीन अंगोपांग १५, वज्रऋषभनाराच संहनन १६, समचतुरत्र संस्थान १७, शुभ वर्ण १८, गंध १९, रस २०, स्पर्श २१, देव-आनुपूर्वी २२, मनुष्यआनुपूर्वी २३, प्रशस्त खगति २४, पराघात २५, उच्छ्वास २६, आतप २७, उद्योत २८, अगुरुलघु २९, तीर्थकर ३०, निर्माण ३१, बस ३२, बादर ३३, पर्याप्त ३४, प्रत्येक ३५, स्थिर ३६, शुभ ३७, सौभाग्य (सुभग) ३८, सुखर ३९, आदेय ४०, यशकीर्ति ४१, उच्च गोत्र ४२, ए प्रकारे पुण्य भोगवे. अथ उत्कृष्ट पुण्य प्रकृतिवान् तीर्थकर महाराजका समवसरणस्वरूप लिख्यते
"मुणि वेमाणिया देवि साहुणि ठंति अग्गिकोणमि । जोइसिय भवण वितर देवीओ हुँति नेरईए ॥१॥ भवणवणजोइदेवा वायव्वे कप्पवासिणो अमरा ।
नरनारीओ ईसाणे पुव्वाइसु पविसिउं ठंति ॥२॥ द्वादश परिषत् नाम
"उसभस्स तिन्नि गाऊ बत्तीस धनुणि वद्धमाणस । सेसजिणाण असोगो देहाउ दुवालसगुणो य ॥१॥ किंकिल्लि कुसुमवुट्टी दिव्वजुणि चामरासणाई । भामंडल य छत्त भेरी जिणिंद (? जयंति) जिणपाडिहेराई ॥२॥ दप्पण भदासण वद्धमाण वरकलस मच्छ सिरिवच्छा।
सत्थिय नंदावत्तो विविहा अट्ठ मंगल्ला ॥३॥ समवसरण अढाइ कोस धरतीसे ऊंचा जानना अंबरे । मध्यमे मणीपीठको [2] उपरि आसन चार है. तीन चारो ही सिंहासनाके उपरि अशोक वृक्ष छाया करता है. पूर्वके सिंहासन उपर तीर्थकर त्रैलोक्यपूज्य परम देव विराजमान होय है. अने अन्य सिंहासन तीन उपरि भगवान् सरीपे(खे) तीन रूप व्यंतर देवता बनाय कर स्थापन करते है. सो भगवान्की अतिशय करी भगवान् सदृश दिखलाइ देते है. ऐसा मालूम होवे है जानो एह भगवान् ही
१ मुनयो वैमानिका देव्यः साध्व्यस्तिष्ठन्ति अग्निकोणे । ज्योतिष्कभवन(पति)व्यन्तरदेव्या भवन्ति नैऋत्ये॥
भवनवनज्योतिर्देवा वायव्ये कल्पवासिनोऽमराः। नरनार्य ईशाने पूर्वादिषु प्रविश्य तिष्ठन्ति ॥ ऋषभस्य त्रीणि गव्यूतानि द्वात्रिंशद् धनूंषि वर्धमानस्य । शेषजिनानामशोको देहाद् द्वादशगुणश्च ॥ कङ्केल्लिः कुसुमवृष्टिर्दिव्यध्वनिश्चामरासनानि । भामण्डलं च छत्रं भेरी जिनेन्द्र ! जिनप्रातिहार्याणि ॥ दर्पणो भद्रासनं वर्धमानं वरकलशं मत्स्यः श्रीवत्सः । खस्तिको नन्द्यावर्तो विविधानि खल मालानि ॥
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१अनवस्थित
२शलाका
४ महाशलाका
३ प्रतिशहाका
अनुसंधान माटे जुओ पृ.६७.
सोपान १०००
भणीपीठकाविस्तीर्णधनु ५००
प्रथमगढ़ रलमयमणीमय कोसीसार दूजागट सुवर्णमयरत्नमयकोसीसार तिजागट रूपामयसुवर्णमयकोसीसाव
JESORTS व्यापामामप्रकाराण
अंगुलाभिमान
प्रस्थपरिधियोजन
Dail
कलादिसुयर्णवमा
धनु २२४८
सापाने
मणिमतपत्र
प्रतिष्ट्रार खजकल
अगुल३अतिरिक प्रनालानाष्टषुसंधा
५०००
अगुलदस
OMभितिश्रुत्व धनु
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उतरवास९५धनुष
बंधनुष हस्ता
सिपापहरकी।
सधा
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.
(सोपान १०००
सोपानो
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(५७८७
पियोपान
९२.०
.
सोपान
१०.७
सापान
चविरोध
बिनारत्रति
समस्त तिर्य
३८अगुल पलभयवनपरिचित
५०००
प्रकाराप्रकारासरं
सोपाना कि
पुत्रतिष्ठतितृतीयेवो
उभयामलननको
कप्यवप्रस्यपाधियोर
सर्वेषां वाहनान्य
कारधनुष
१२०० सोपान
रएकपावधनु१३००
रूप्यवप्रस्थभित्तिपृथुवंधनुष३३ भित्तिधनु ३३ हस्त? अंगुल.. प्रकारालाकारांतरं धनु९३००९
११००पास एवमेव
आठवाव भी एकेक द्वारके पासोदो है।
जनधनुष १३३३ हस्त
अनुसंधानमाटे जुओ पृ.१३६.
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नवतत्त्वसंग्रह
उर्वलोके पंडुक ९४०८ सृचीरजु २३५२ प्रसरजु ५८८ घनरजु १४७ जब अवहार नयकरी पूर्ण सप्तरजु प्रमाण घनीकृत लोक मानियेतदा एप्रमाण होता है।
३६ लोके पंडुक ४०६४ सूचीरजु १०१६ २ प्रतररजु.२५४ चनरजु ५३॥
Morar
XOOGO००००००००००da
१०० १००
१४४ १४४
आना अनुसंधान माटे झुओ पृ.१८३.
V
२०
४००
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४०० ४००
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२५६
४४ १४४ १००
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उभयलोके घडुक २१९५२ सूचीरजु ५४८८ प्रतरुरजु १३७२ चनरजु ३४३ अधोलोके पंडुक १२५४४ सूचीरनु ३१३६ पालसरजु ७४८ धनस्जु १९६ एव्यवहार नयमत्तेन अनेज़ो गोल घनरजुकरणा होवे सोचतुरन बनरजुयाकू उन्नीस ।
गुणाकरके वावीस २२का । भाग लेनाजो हाथ आवे सो गोल धनरजुजानने. २४
उभयलोकेषंडुक १५२९६ सूचीरजु ३८२४ पतररजु ९५६ घनरजु २३९ अधोलोके पंडुक ११२३२ सूचीरजु २८०८ प्रतररजु ७०२ घनरजु १७५।।
१००
२५६ २५६ २५६
४०० ४००
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५७६
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७६
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७८४ ७८४ ७८४
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
१३७ उपदेश देते है. हे नाथ ! मेरी एह प्रार्थना है जो सचमुच आपका समवसरण देखू भक्ति संयुक्त पदपंकज स्पर्श मस्तकेन. (१११) (चक्री आदि संबंधी माहिती) चक्री- पिता- माता विज- षट्- दीक्षा- पूर्व- पूर्व नाम
नाम
E
है नाम
र
१ भरत ऋषभदेव
पूर्व ६
लाख लाख
|
२ सगर
सुमति
हजार ७० पूवर सहन हजार वर्ष
वर्ष लाख लाख
FIREE |
राजा
|
३मघवा विजय
वर्ष ५हजार लाख ३ शिम प्रैवेय- लोक वर्ष ५/४२ हजार वर्ष ९० लाख राट्र किणी
| क लाख धनु
४ सन- अश्वसेन सह ५०
वर्ष वर्ष
डा.
हजार ९०
हज
ना
कुमार
५शा- विश्वसेन अचि
तिनाथ
६कंथसूरसेन
नाथ
| + | +
७अरनाथ
सुदर्शन
E
कार्ति
८सुभूम
वीर्य
+ |
९ महा-पद्मोत्तर (ज्वा) वर्ष वर्ष वर्ष वितह बीत- ब्रह्म-मोक्ष
राजा की २०० ०० हजार राजा शोका देव १ मस्तक वडे । २-१२ आ तेमज बीजा पण कैटलांक नामो त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रथी जुदा पडे छे ते विचारणीय छ ।
96
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१३८
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[३ पुण्य
१० हरि
पेण महाहरि मोरा वर्ष
राणी ३२५ ३२५ १५०
११जय विजय विप्रा वर्ष वर्ष वर्ष
राणी ३०००३००० १००
6
१२ब्रह्म-ब्रह्मभूत चूल. दत्त राजा
वर्ष वर्ष वर्ष
१६ ६००
महा-७ मी वर्ष ७ कंपिशुक्र नरक ७०० धनु लपुर
नारायण
९ वासुदेव
त्रिपृष्ठ |
पुरुषपुंडरीक
स्वयंभू
लक्ष्मण कृष्ण
पूर्व भव नाम
विश्व
दत्त
मित्र
पुनर्वसु गंगदत्त
भूति
सागरणद्रमसेन
पूर्व भव आचार्य संभूति सुभद्र सुदर्शन शीतल श्रेयांस कृष्ण गंगदत्त ,
समित हुन
निदान नगर
श्रावस्ती
पति राजगृह काकंदी कौशांबी मिथिला हस्तिना
पिता नाम प्रजापति ब्रह्मा सौम्य रुद्र शिव महाशिर
दशरथ वसुदेव
कैकेयी
की
माता नाम मृगावती उमा पृथ्वी | सीता | अमृता लक्ष्मी | अवगाहना-धनु ८० ७० ६० । ५० । ४५ । २९ । गति-नरक सातमी छठी छठी छठी पांचमी छठी छठी चौथी त्रीजी आयु-वर्ष ८४ लक्ष ७२ लक्ष ६० लक्ष ३० लक्ष १० लक्ष सहस्र हजार सहस्र
मधुकै.
९प्रतिवासुदेव
अश्व- [मे]ता. मेरक ग्रीव
सव
निसुंभ बल प्रहलाद रावण
जरा. सिंध
(टभ)
९ बलदेव | अचल | विजय भद्र सुप्रभ सुदर्शन आनंद नंदन पचन
बलभद्र
विश्व- स(सु)- सागर ललित वराह पूर्व भव नाम नंदीबंध दत्त
अपराधर्म - सेन |
जित
ललितांग
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
१३९
जयंती
माता नाम | भद्रा सुभद्रा सुप्रभा सुदर्शना विजया वैजयंत - गति | मोक्ष - → ए व
अपरा- रोहिणी जिता
ब्रह्मलोक
१२ सो
आयु
८५ लक्ष ७५ लक्ष ६५ लक्ष वर्ष । वर्ष वर्ष
हजार
वर्ष
१८१९ २०२३
तीर्थकरके वारे श्रेयांस वासु- | विमल- अनंत
पूज्य | नाथ ना
धर्मनाथ
नामके अंतरे के अंतरे। नाथ
•
वर्ण
। म्
-
सुवर्ण
इति नवतत्त्वसंग्रहे पुण्यतत्त्वं तृतीया(य) संपूर्णम् .
अथ 'पाप'तत्त्व लिख्यते-प्राणातिपात १, मृपावाद २, अदत्तादान ३, मैथुन ४, परिग्रह ५, क्रोध ६, मान ७, माया ८, लोभ ९, राग १०, द्वेष ११, कलह १२, अभ्याख्यान १३, पैशुन्य १४, परापवाद १५, रतिअरति १६, मायामृषा १७, मिथ्यादर्शनशल्य १८ इनसे पापका बंध होइ.
८२ प्रकारे पाप भोगवे-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, असातावेदनीय १, मोहनीय २६, नरक-आयु १, नरक-तिर्यंच-गति २, जाति ४, संहनन ५, संस्थान ५, अशुभ वर्ण आदि ४, नरक-तियंच-आनुपूर्वी २, अशुभ विहायोगति १, उपघात १, स्थावरदशक १०, नीच गोत्र १, अंतराय ५; एवं सर्व ८२ प्रकारे भोगवे.
इति नवतत्त्वसंग्रहे पापतत्त्वं चतुर्थं सम्पूर्णम्.
अथ 'आश्रव'तत्त्व लिख्यते
२५ क्रियाओ-(१) काइया-कायाव्यापार करी नीपनी ते 'कायिकी'. (२) अहिगरणीया-जिस करी जीव नरक आदिकनो अधिकारी होय ते 'अधिकरण', ते भंडा अनुष्ठान अथवा खड्ग आदि तिहां उपनी ते 'अधिकारणिकी'. (३) पाउसिया-मत्सरभावे नीपनी ते 'प्राद्वेषिकी'. (४) परियावणिया-आपकू अथवा परकू परितापना करता 'पारितापनिकी. (५) पाणाइवातिया-अपणा अथवा परना प्राण हरता 'प्राणातिपात' क्रिया. (६) आरंभिया-जीवने वा जीवना कलेवरने तथा पीठीमय जीवना आकारने अथवा वस्त्र आदिकने आरंभतां-मर्दतां 'आरंभिकी', ७ परिग्गहिया-जीवका अने अजीवका परिग्रह
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[५ आश्रव. करता 'पारिग्रहिकी'. ८ मायावत्तिया-माया तेह ज प्रत्यय-कारण है कर्मबंधनो ते 'मायाप्रत्ययिकी'. ९ मिच्छादसणवत्तिया-हीन प्रमाणसे वा अधिक माने ते 'मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी'. १० अपञ्चक्खाण-जीवना अथवा अजीव मद्य आदिनो प्रत्याख्यान नही ते. (११) दिट्टिया-देखने जाना अथवा देखना तेहथी जे पाप ते 'दृष्टिजा'. (१२) पुट्टिया-पूंजने करी अथवा स्पर्श करी जे कर्म ते 'स्पृष्टिजा'. (१३) पाडुचिया-बाह्य वस्तु आश्री उपजे ते 'प्रातीत्यकी'. (१४) सामंतोवणिया-समंतात्-चौ फेरे उपनिपातलोकांका मिलना तिहां जे उपनी ते 'सामंतोपनिपातिकी'. सांढ आदि रथ आदि लोक देखीने प्रशंसे तिम तिम धणी हर्षे ते धणीने 'सामंतोपनिपातिकी' क्रिया लागे. (१५) सहत्थियाआपणे हस्तसे उपनी ते 'स्वाहस्तिकी'. (१६) निसत्थिया-नाखणे से सेडलादिसे नीपनी ते 'नैसृष्टिकी'. (१७) आणवणिया-पापनो आदेश देवो ते 'आज्ञापनिकी' अथवा वस्तु मंगवावणी. (१८) वियारणिया-जीवने वेदारतां वा दलालने जीव आदि वेचवानां अथवा पुरुषने विप्रतारता 'वैदारिणी', 'वैचारणिकी', 'वैतारणिकी' ए ३ पर्याय. (१९) अणाभोगवत्तिया-अज्ञानना कारण थकी उपनी ते 'अनाभोगप्रत्ययिकी'. (२०) अणवकंखवत्तिया-अपणे शरीर आदिने ते निमित्त है जिसका ते 'अनवकांक्षाप्रत्ययिकी'. एतावता कुकर्म करता हुया परभवसे डरे नही. (२१) पेजवत्तिया-रागसे उपनी माया लोभरूप ('प्रेमप्रत्ययिकी' ). (२२) दोसवत्तिया-द्वेषथी उपनी क्रोध, मानरूप ('द्वेषप्रत्ययिकी'). (२३) पओगकिरिया-काया आदिकना व्यापारथी नीपनी ते 'प्रयोग'क्रिया. (२४) समु. दाणकिरिया-अष्ट कर्मनो ग्रहवो ते 'समुदान क्रिया. (२५) ईरियावहिया-योग निमित्त है जेहनो ते ('ईर्यापथिकी'); कायाना योग थकी बंध पडे. __हेतु सत्तावन कर्मग्रन्थात्-मिथ्यात्व ५, अव्रत १२, कषाय २५, योग १५, एवं सर्व ५७ हेतु. इनका गुणस्थान उपर स्वरूप गुणस्थानद्वारसे जान लेना. और विशेष आश्रव त्रिभंगीसे जानना.
श्रीस्थानांग (१० मे) स्थाने दस भेदे असंवर-(१) श्रोत्रेन्द्रिय-असंवर, (२) चक्षुरिन्द्रिय-असंवर, (३) घ्राणेन्द्रिय-असंवर, (४) रसनेन्द्रिय-असंवर, (५) स्पर्शनेन्द्रिय-असंवर, (६) मन-असंवर, (७) वचन-असंवर, (८) काय-असंवर, (९) भंडोवगरण-असंवर, (१०) सूची कुसग्ग-असंवर; एवं ए दस आश्रवके भेद है. तथा आश्रवके ४२ भेद-इन्द्रिय ५, कषाय ४, अव्रत ५, योग ३, क्रिया २५; एवं ४२. इति आश्रवतत्त्वं पंचमं सम्पूर्णम्. ..
अथ 'संवर' तत्त्व स्वरूप लिख्यतेपांच चरित्र, पद निर्ग्रन्थ. प्रथम षनिग्रंथस्वरूप-(१) पुलाक, (२) बकुश, (३) प्रतिसेवना(कुशील), (४) कषायकुशील, (५) निग्रंथ अने (६) स्नातक. पुलाकके ५ भेद
१ कर्मग्रन्थथी। , २ भाण्डोपकरण ।
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तस्व] गवतस्वसंग्रह
१९१ ज्ञानपुलाक (अर्थात् ) ज्ञानका विराधक १, एवं दर्शनालाक २, एवं चारित्रपुलाक ३, विना कारण अन्य लिंग करे ते लिंगपुलाक ४, मन करी अकल्पनिक सेवे ते यथा सूक्ष्मपुलाक ५. लब्धिपुलाकका स्वरूप वृत्तिसे जानना. बकुशके ५ भेद-साधुकू करणे योग्य नही शरीर, उपकरणकी विभूषा ते करे जानके ते आभोगवकुश १, अनजाने दोष अनाभोगवकुश २, छाने दोष लगावे ते संवृतबकुश ३, प्रगट दोष लगावे ते असंवृतबकुश ४, आंख, मुख मांजे ते यथासूक्ष्मवकुश. ५. प्रतिसेवना कुशीलके ५ भेद-सेवना-सम्यक् आराधना, तिसका प्रतिपक्ष प्रतिसेवना; एतावता ज्ञान आदि आराधे नही. ज्ञान नही आराधे ते ज्ञानप्रतिसेवना १; एवं दर्शन २, चारित्र ३, लिंग ४; जो तपस्या करे वांछा सहित ते यथासूक्ष्मप्रतिसेवना ५. कषायकुशीलके ५ भेद-जो ज्ञान, दर्शन, लिंग, कषाय क्रोध आदि करी प्रजुं(यु)जे सो ज्ञान १, दर्शन २, लिंग ३ कुशील; कषायके परिणाम चारित्रमे प्रवावे ते चारित्रकुशील ४, मन करी क्रोध आदि सेवे ते यथासूक्ष्मकषायकुशील ५. उपशांतमोह तथा क्षीणमोहके अंतर्मुहूर्त कालके प्रथम समय वर्तमान ते प्रथम समय निर्ग्रन्थ १, शेष समयमे अप्रथम समय निग्रन्थ २, एवं निग्रन्थ कालके चरम समयमे वर्तमान ते चरम समय निग्रेन्थ ३, शेष समयमे अचरम समय निर्ग्रन्थ ४, सामान्य प्रकारे सर्व काल यथासूक्ष्मनिर्ग्रन्थ ५. इति परिभाषाकी संज्ञा. लातकके ५ भेद-अच्छवी अत्थवी, अव्यथक इति. अन्ये आचार्या छवि चांमडी योगनिरोधकाले नही इति अच्छवि; एक आचार्य ऐसे कहै है. क्षपी सखेद व्यापार ते जिनके नही ते अक्षपी; एक आचार्य ऐसे कहै है-घातिकर्म चार क्षपाय है फेर क्षपावणे नही इस वास्ते 'अक्षपी' कहीये १, अशवल अतिचारपंकाभावात्. शुद्ध चारित्र २, विगतघातिकर्म अकर्माश ३, शुद्धज्ञानदर्शनधर केवलधारी ४, अर्हन् जिन केवली ए चौथा भेदमे है. इति वृत्तौ. कर्म न बांधे ते 'अपरिश्रावी' ५, योगनिरोधकाले. अथ अग्रे ३६ द्वार यंत्रसे जानने
गाथा भगवती (श. २५, उ. ६)मे सर्वद्वारसंग्रह"पण्णवण १ वेय २ रागे ३, कप्प ४ चरित्त ५ पडिसेवणा ६ णाणे ७ ॥ तित्थे ८ लिंग ९ सरीरे १०, खित्त (खेते) ११ काल १२ गई १३ संजम १४
निकासे १५ ॥१॥ जोगु १६ वओग १७ कसाए १८, लेसा १९ परिणाम २० बंध २१ वेए २२ य । कम्मोदीरण २३ उवसंप(जहण्णा) २४ सण्णा २५ य आहारे २६॥२॥ भव २७ आगरिसे २८ कालंतरे २९-३० य समुग्घाय ३१ खेत्त ३२ फुसणा ३३ य । भावे ३४ परिमाणे ३५ खलु (चिय) अप्पाबहुयं नियंठाणं ३६॥३॥"
१ अतिचाररूप कादवना अभावथी। २ प्रज्ञापनवेदरागाः कल्पचारित्रप्रतिषेवणाज्ञानानि । तीर्थलिङ्गशरीराणि क्षेत्रकालगतिसंयमनिकर्षाः ॥१॥ योगोपयोगकषाया लेश्यापरिणामबन्धवेदाश्च । कर्मोदीरणोपसम्पद्हानसज्ञाश्चाहारः ॥२॥ भव आकर्षः कालान्तरे च समुद्रातक्षेत्रस्पर्शनाश्च । भावः परिणामः खल अल्पबहुलं निम्रन्थानाम् ॥३॥
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________________
१५२
[६ संबर
श्रीविजयानंदसूरिकृत (११२) अथ ३६ द्वार यंत्रमे वर्णन करीये है१ प्रज्ञापन । १ पुलाक २ बकुश ३ प्रतिसेवना ४ कषाय- निर्ग्रन्थ
स्नातक
पुरुष, नपुंसक,
२ वेद .
कृत्रिम पिणा स्त्री, पुरुष,
बकुशवत्
अथवा बकुशवत् क्षीणवेद उप-
शांतवेदे भवेत्
नपुंसक कृत्रिम
उपशांतवेद, क्षीणक्षीणवेद
वेद
जन्मनपुंसक नही इति वृत्ती
३ राग
सरागी
- सरागी |
सरागी
सरागी
उपशांत क्षीण
क्षीण राग
४कल्प
| बकुशवत् स्थविर, कल्पा
स्थित, स्थित, अस्थित,
स्थित,अस्थित, स्थित,
जिनकल्प, अस्थित, जिनकल्प,
निर्ग्रन्थअस्थित,
वत् स्थविर स्थविर
कल्पातीत
तीत सामायिक, | सामायिक, | सामायिक,
आद्य
यथाछेदोपस्था- | छेदोपस्थाप- छेदोपस्थाप
यथाख्यात
ख्यात पनीय
नीय
५ चारित्र
नीय
चार
६ प्रतिसेवना
मूल गुण, उत्तर गुण
उत्तर गुण
२वा३प्रवचन
ज०८, उ० ७ शाम प्रवचन
नवमे पूर्वकी
३ वस्तु
२ वा ३ प्रवचन; ज०८, उ०१० पूर्व
अप्रतिपुलाकवत् | | अप्रतिसेवि | अप्रतिसेवी
सेवी २ वा ३ वा
केवल ४ प्रवचन; कषायकुशीलबकुशवत्
ज०८, उ० वत् व्यति१४ पूर्व
कषाय तीर्थमे तीर्थमे
कषायकुशील- कुशीलअतीर्थमे वा वत्
वत्
८ तीर्थ
तीर्थमे
तीर्थमे
९ लिंग
| द्रव्ये ३ भावे
स्खलिंग
1
१० शरीर
३ औ, तै, का ४ औ, वै, ते, ४ औ, वै, तै,
|
पांच न
३ औ, तै, का.
११ क्षेत्र
जन्म कर्मभूमि जन्म कर्म० | संहरण नही संहरण अकर्म.
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
पुलाकवत् निर्ग्रन्थ
अवसर्पिणीमे १२ काल जन्म आश्री/ जन्म अवस- बकुशवत् बकुशवत्
३१४ आरे पिणी ॥४॥५ छता भाव | आरे, छता
जन्म आश्री आश्री श५/ २४ आरे, आरे. उत्स- उत्सर्पिणी
संहरण आश्री वत् पिणीमें जन्म जन्म आश्री
सर्वत्र आश्री शश४ शहार, छता
आरे; छता ३।४, संहरण भाव आश्री सर्व ३२४ आरे
ज० सौधर्म, ज० सौधर्म,उ० ज० सौधर्म, उ० ८ मा देवलोकः१२ मे देवलोक;
उ० पांच पांच अनुत्तपदवी-इंद्र, पदवी ४ मेसु पदवी ४ मेसुं|
अनुत्तरः । रमे; पदवी सामानिक, एक स्थिति एक स्थिति
पदवी पांच- एक अहमिन्द्रः मोक्ष. प्रायस्त्रिंशत्,
बकुशवत्
मेसु एका ज० स्थिति। गति रा, ज० पृथक - ज० पृथक लोकप ल, पल्योपम, उ० पल्योपम, उ०
पृथकपल्योपम, ज० उ० ३३
उ०३३ । सागरोपम १८ सागरोपमा२२ सागरोपम
सागरोपम १४संयमस्थान असंख्याते, ३/ असंख्याते, | असंख्याते, | असंख्याते, एक, एक,
अल्पबहुत्व असंख्य गुणे ४असंख्य गुणे ५ असंख्य गुणे ६ असंख्य गुणे स्तोक तुल्य १५ चारित्र- पु ६ स्थान अनंत गुण हीन अनंत गुण हीन ६ स्थान अनंत गुण हीन अनत
गुणहान पर्यायना ब
। ६ स्थान । ६ स्थान अधिक
" " " " " "
१३ गति,
अनंत गुण
सन्निकर्ष
अनंत गुण अधिक ६ स्थान अनंत गुण अनंत गुण | अनंत गुण | अनंत गुण
अधिक अधिक अधिक अधिक अनंत गुण | अनंत गुण | अनंत गुण / अनंत गुण अधिक अधिक अधिक अधिक
तुल्य
तुल्य
जघन्य उत्कृष्ट
१स्तोक २ अनंत गुण
३ अनंत गुण ४ ,
३ तुल्य । १ तुल्य ५ अनंत गुण ६ अनंत गुण
७अनंत ७तुल्य ७.
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________________
१४४
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[६ संवर
१६ उपयोग मन आदि ३
→
ए
। मन' आदि ३, अयोगी वा
१७ उपयोग
साकार १, अनाकार २
→
१८ कषाय क्रोध आदि ४
४
કારારા
उपशांत, क्षीण क्षीण
वर्धमान
अंतर्मुहूर्त
मुहूर्त,
१.वा १९ लेश्या । ३ प्रशस्त
अलेश्यी परवा वर्धमान, हीन, वर्धमान, हीन, वर्धमान, हीन, वर्धमान, हीन, वर्धमान, निर्ग्रन्थ
अवस्थित | अवस्थित । अवस्थित | अवस्थित | अवस्थित वत् वर्धमान ज०१
ज० उ० समय, उ०
वर्धमान अंतर्मुअंतर्मुहूर्त; हीय
ज० उ० अंत- हुर्त; मान ज०१
मुहूर्त; अव- अवसमय, उ०
स्थित ज०१ स्थित अंतर्मुहूर्त; अव
समय, उ०
ज० अंतस्थित ज०१ समय, उ०
उ० देश ७समय,
ऊन पूर्व
कोटि २१ बंध ७ आयु नही ७८ ७८ ८७६ । १ साता
१ बंधे वा
अबंधक २२ वेद ८ कर्म
७मो वर्जा ४
उदीरे २, ८७६५ ५वा २
वा अनुः
| दीरक प्रतिसेवना- कषायकुशील. प्रतिसेवना १, पणा छोडी पणा छोडी निर्ग्रन्थपणा स्नातकपुलाकपणा कषायकुशील
ला बकुश १, पुलाक १, , छांडी कषाय- २, असंयम ३, २४ उवसंपज
जकुशील १, अ. देशविरति ४, हण्ण संयम २, ए २ एवं ४ आदरे,
निग्रंथ स्नातक २, सिद्ध
असंयम ३ प्रति आरे बकुशपणा देशविरति ४.
| असंयम ६ असंयम ३. गति छोडी २. देशविरति ६, ए ३ पाड
ए३ पडिवजे पोडेवजे | ए ४ आदरे
दर ए६ आदरे ।
६ आयु, १ वेद- ७८६७८६ २३ उदीरणा नीय वर्जी
। कषाय-बकुश २, प्रति छोडी कषाय- पणा कुशील २. सेवना३, कुशील १, छोडी
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
१४५
संशोपयुक्त १, २५ संज्ञा नोसंशोपयुक्त नोसंज्ञोपयुक्त
एवम्
एवम्
नोसंज्ञोपयुक्त पयुक्त
-
आहारी अना
२६ आहार
आहारक
आहारी
आहारी
| आहारी
आहारी
हारी
१ तेही
२७ भव
ज० १, उ०३ ज० १, उ०८ ज० १, उ०८ ज० १, उ०८ ज० १, उ० ३
ज०
२८ आकर्ष
ज०१, उ० ज०१, उ० ज०१, उ० पृथक् शत पृथक् शत | पृथक् शत
ज०१, उ०२
१
एकभव आधी ज०१, उ०३
घणे भव आश्री ज०२, उ०७
ज०२, उ०७२००
ज०२, उ०
७२००
ज०२, उ०
७२००
ज०२, उ०५ .
ज० अंत
२९ स्थिति
| एक जीव आश्री
ज० उ० अंतर्मुहूर्त
ज०१ समय, उ० देश ऊन पूर्व कोटि
मुहूर्त, ज०१ समय उ० देश उ० अंतमुहूत ऊन पूर्व
एवम्
एवम्
कोटि
सर्वाद्धा
सर्वाद्धा
सर्वाद्धा
ज०१ समय, सर्वाद्धा उ० अंतर्मुहूर्त
नाना जीव ज०१ समय,
आश्री उ० अंतर्महर्त ३० अंतर- ज० अंतर्मुहूर्त एक जीव उ० वनस्पतिआश्री काल
एवम्
नास्ति अंतरम्
ज०१ समय,
घणा जीव उ० संख्यात
नास्ति अन्तरम्
नास्ति अन्तरम्
नास्ति अन्तरम्
ज०१समय, उ०६समय""
आश्री
__ वर्ष
३१ समु. वे १, क २, वे १, क २, वे १, क २, द्धात मर ३ ३, वै४,ते ५म ३, वै४,ते ५
केवल नही
.
१ केवल
३२ क्षेत्र लोकके असं.
एवम्
असंख्यमे घणे, असंख्य सर्व
लोक
ख्यमे भाग
३३ स्पशेन
३४ भाव क्षयोपशम ए
व
म्
वीपशामिक
औपशमिक वा क्षायिक
क्षायिक
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________________
१४६
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[ ६ संवर
३५ परि- 'सिय अस्थि, प्रतिपद्यमान
प्रतिपाद्यमान णाम | सिय नत्थिान
यहोवे, नही बी
जदि अस्थि होवे जोकर ज० १, २, ३, होवे तो ज०१,
पूर्वप्रतिपन्न २,२,उ०पृथक
उ० पृथक् शतः स्याद् अस्ति |
- शत; पूर्वप्रति
पन्न जघन्य, यद्यस्ति ज० १,२,३; उ० पृथक् सहस्त्र
प्रतिपद्यमान प्रतिपद्यमान होवे बी, नही होवे बी, नही वी होवे जो प्रतिपद्यमान | बी होवे; जो| होवे तो स्याद् अस्ति, होवे तोज०१, ज० १, २, ३, स्याद् नास्ति; २,३,उ० पृथक उ०१६२ तिनमे यद्यस्ति तदा
सहस्र; पूर्व- १०८ क्षपक ५४ ज० १, २, ३, | प्रतिपन्न उपशम: पूर्व- उ0पृथकुशतं;
जघन्य. प्रतिपन्न होवे पूर्वप्रतिपन्न उत्कृष्ट पृथक बी, नही बी ज० उ०पृथक सहस्र कोटि होवे होवे तो कोटि
| ज०१,२,३, उ० पृथक् शत
स्थाद् नास्ति उत्कृष्ट पृथक
शतकोटि
३६
अल्प २संख्येय गुणा४संख्येय गुणा ५ संख्येय गुणा ६ संख्येय गुणा १ स्तोक ३संख्येय गुणा बहुत्व (११३) अथ श्रीभगवती (श. २५, उ.७) थी संयत ५ यंत्रम् सामायिक | छेदोपस्थाप- परिहार
यथाख्यात ५ नीय २ | विशुद्धि ३ सम्पराय ४
पुरुषवेद १, ।
| उपशांतवेद, उपशांतवेद, वेद २ वद, अवदा सामायिकवत् कृत नपुंसक
क्षीणवेद । वेद २
क्षीणवेद
प्रज्ञापना
वा
राग
सरागी--->ए
उपशांतराग,
क्षीणराग स्थितकल्प १,
अस्थित २, स्थितकल्प १, स्थितक स्थितकल्प, स्थितकल्प १, जिनकल्प ३./ जिनकल्प २, जिनका अस्थितकल्प | आस्थतकल्प स्थविर ४, स्थविरकल्प ३:
परकल्प स्थविरकल्प ३२,कल्पातीत २,कल्पातीत कल्पातीत ५
४
कल्प
५ पुलाकादि षट्
आद्य ४
आध ४ कषायकुशील कषायकुशील निम्रन्थ १,
स्नातक २
मूलगुण १, ६ प्रतिसेवना उत्तरगुण२, सामायिकवत अप्रतिसेवी | अप्रतिसेवी | अप्रतिसेवी
सेवेष (ख)डे,
अप्रतिसेवी ३ १ कथंचित् होय । २ कथंचित न होय । ३ जो होय । ४,५,६ अनुक्रमे १,२,३ प्रमाणे ।
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________________
नवतत्त्वसंग्रह
१४७
ज्ञान
२।३।४ प्रवचन
(३२।३।४ ज्ञान; २३४ ज्ञान; २३४१ ज्ञान; ज०८ प्रवचन, उ०प सामायिकवत् प्रवचन, ज०९प्रवचन ज०८/प्रवचन, ज०८
पूर्व, उ० १० उ०१४ पूर्व उ० १४ पूर्व पठन करे
मठेरा
श्रुतातीत तीर्थ । तीर्थे तीर्थे
तीर्थे । तीर्थे अतीर्थ वा
अतीर्थे अतीर्थ
-
तीर्थ
लिंग
द्रव्ये ३, भावे सामायिकवत् ।
वलिंग ।
व
३
द्रव्ये भावे १ द्रव्ये ३, भावे द्रव्ये ३, भावे? स्खलिंग स्खलिंग स्वलिंग औ, तै, का. ३ औ, तै, का.३ औ, तै, का.
शरीर
५
| • • • || - | - | - |
क्षेत्र
कर्मभूमि, जन्म० कर्म०, संहरण आश्री संह० सर्वत्र
कर्मभूमि जन्म० कर्म०, जन्म० कर्म
जन्म आश्री
संह० सर्वत्र संह० सर्वत्र सर्वत्र
एवं बकुशवत्, बकुशवत् अवव नवरं जन्म | पुलाकवत् | निम्रन्थवत् ।
सर्व जानना
निर्ग्रन्थवत्
काल
सर्पिणी उत्स- महाविदेह पिणी भावनीय नही
-
विराधक चार जातके देव. ज० सौधर्म, ज० उ० पंच
अनुत्तरगति तामे आराधक सामायिकवत् उ०८ मा देव
विमाने वा ज० सौधर्म,
लोक । अनुत्तरेषु
सिद्धगतो उ० सर्वार्थ
उत्पद्यते सिद्ध स्थिति ज०२ ज०२ पल्यो- ज०, उ०३३
ज०, उ०३ स्थिति, पल्योपम, उ० पम, उ०१८ | सागरोपमा
सागरोपम; | पदवी पासे ३३सागरोपमा सामायिकवत
सागरोपमः पदवी एक
पदवी एकपदवीपांचमेसू पदवी ४ मे अहमिन्द्रकी
अहमिन्द्र अन्यतर १
अनंतर एकाय पामे
असंख्याते, संयमस्थिति असंख्याते ४ | असंख्याते ४ असंख्याते ३ अंतर्मुहूर्तके | अल्पबहुत्व | असंख्यगुणे तुल्य | असंख्यगुणे | समय तुल्य | १ स्तोक
२ असंख्यगुण
१४
पदवी पामे
|
एक्यं
|
१ पांच अनत्तरोमां उत्पम थाय छ। 'अनत्तर' विमानमां अथवा सिद्ध गतिमा।
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________________
१४८
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[६ संवर
सामा
चारित्रपर्यवना .
संनिकर्ष
| छेदोपस्थापयिक
। नीय
परिहारविशुद्धि
सूक्ष्मसंपराय यथाख्यात
सा.
अनंतगुणहीन अनंतगुणहीन
"
"
"
"
"
"
प०
"
अनंत
अनंत गुण अधिक
अनंत गुण अधिक
अनंत गुण हीन अनंत गुण अनंत गुण हीन अधिक
अधिक
अनंत गुण अधिक
->ए
व
म्
तुल्य
१ तुल्य
२ अनंत गुण ५ अनंत गुण
चारित्र पर्यवनूं १ स्तोक जघन्य उत्कृष्टअल्पबहुत्व ४ अनंत गुण
७ अनंत गुण
योग
मन आदि ३
->ए
मन आदि ३, अयोगी वा
उपयोग
साकार १, अनाकार २
个
કરાર संज्वलन
कषाय
| उपशांतक्षीण
एवम्
१ लोभ संज्वलन
संज्वलन
वा
लेश्या
१शुक्ल
परिणाम
परिणाम स्थिति
वर्ध० ज०१ वर्ध० ज० उ०
। ६ द्रव्ये ६ द्रव्ये ३प्रशस्त
१ परम शुक्ल वर्धमान, हीय- वर्ध०, हीय०, वर्ध०, हीय०, व हीय वर्ध०, अव० मान, अवस्थित अव० । अव० वर्ध० ज०१ समय, उ० अंतर्मुहूर्त; ही.
समय, उ० ।
अंतर्मुहूर्त; य० ज०१
अंतर्मुहूर्त समय, सामायिकवत् सामायिकवत
हीय० ज०१
| अव० ज०१ अंतर्मुहूर्त; अ०
समय, उ० देश
समय, उ० ज० १ समय,
अंतर्मुहूर्त
ऊन पूर्वकोटि उ०७समय
६मोह, १साता, ७,८
आयु नही | अबंधक वा
बंध
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________________
तत्त्व ]
२२
२३
२४
२५
२६
૨૮
२९
वेदना (नीय) कर्म
३०
उदीरणा
उपसंपत्ति
त्याग
संज्ञा
आहार
स्थिति एक जीव
आश्री
८ वेदे
८,७,६, आयु, | वेदनीय वर्जी
स्थिति घणा आश्री
ज० १, उ० पृथक् शत
नवतत्त्वसंग्रह
आहारी, अनाहारी वा
२७ भव केते करे ? ज० १, उ० ८ ज० १, उ० ८ ज० १, उ०३ ज० १, उ० ३ ज० १, उ० ३
आकर्ष एक भव आश्री;
→ ए
सामायिक छेदो० छोडी
छोडी छेदो० १, सा० १, प०२ परि० छोडी सू०२, असंयम सू० ३, असंयम छे० १, असंयम ३, संयमासं ४, असंयमासं. २, ए २ आदरे यम ४ आदरे यम ५ आदरे
ज० १ समय, उ० नव वर्ष ऊन पूर्व कोड
८,७,६
ज० २, उ० आकर्ष नाना ज० २, उ० नवसेसे उपभव आश्री रांत, हजारके हेठे
७२००
सर्वाद्धा
ज० अंतर्मुहूर्त,
अंतर एक उ० अनंत जीव आश्री काल, अर्धपुद्गल दे
व
८,७,६,
४ संज्ञा, नो- सामायिकवत् सामायिकवत् नोसंज्ञोपयुक्त नोसंज्ञोपयुक्त संज्ञोपयुक्त वा
आहारी
ज० १, उ० १२०
- आहारी आहारी आहारी
ज० २५० वर्ष, उ० ५० लाख कोडि सागरोपम
म्
६, ५, आयु, वेदनीय, मोह
वर्जी
ज०२, उ० ७ वेला
सूक्ष्म० छोडी सा० १, छे०२, यथा० छोडी यथा० ३, सू० १, असं असंयम ४; ए यम २ आदरे
४ आद
ज० १ समय, सामायिकवत् उ० २९ वर्ष ज० १ समय, ऊन पूर्व कोड उ० अंतर्मुहूर्त
ㄖˋ
१४९
ज० १, उ० ३ ज० १, उ० ४ ज० १, उ०२
७ वा ४ वेदे
ज० देश ऊन
२०० वर्ष, उ० ज० १ समय, देश ऊन दो उ० अंतर्मुहूर्त
पूर्व कोटि
५ वा २, अनुदीरक वा
ज० २ उ०९, ज०२, ३०५
व
ज० १ समय, उ० देश ऊन पूर्व कोटि
सर्वाद्धा
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________________
१५०
३१
BR
३३
३४
३५
३६
अंतर घणा जीव आश्री
समुद्धात
क्षेत्र
स्पर्शना
भाव
१ यंत्र
जीव
तिर्यच पंचेन्द्रिय
नास्त्यन्तरम्
मनुष्य
६ केवल वर्जी
लोकने असंरूयमे भाग
33 55 33
क्षयोपशम
श्रीविजयानंदसूरिकृत
ज० ६३ सहस्र ज० ८४ सहस्र
→ ए
प्रतिपद्यमान परिमाण प्रतिपद्यमान होवे, नही होवे, नही बी होवे बी होवे जे, जो होवे (तो) होवे (तो)
ज० ११२२३,
कोटा कोटि
सागरोपम
"3
19
० १८ वर्ष. १८ ज० १ समय, नास्ति अन्तरम् कोटाकोटि उ० ६ मास सागरोपम
घुरली ३
६
35
→ ए
35
व
व
घ
ज० ११२२३, ३० पृथक् शत;
उ० पृथक्
पूर्वप्रतिपन्न होवे, न बी
सहस्र;
पूर्वप्रतिपन्न होवे; ( जो होवे
पृथक् सहस्र तो ) ज० उ० कोड
पृथक् शतकोटि
अल्पबहुत्व
५ संख्येय गुणा
४ संख्येय २ संख्येय गुणा १ स्तोक
( ११४ ) भगवती (श. ७, उ. २, सू. २७३ ) अल्पबहुत्व
मूल गुण पच्चक्खाणी उत्तरगुण पञ्चकखाणी
१ स्तोक
२ असंख्येय
""
35
०
म्
95
55
म्
पुलाकवत् निर्ग्रन्थवत् प्रतिपद्यमान
होवे, नही बी होवे; जो होवे (तो) ज० १२/३; ३०
१६२, पूर्वप्रतिपन पृथक् कोटि
म्
[६] संवर
केवल १
असंख्यमे घणे,
असं० सर्व लोक
" 35
उपशम, क्षय
१३ संख्येय गुणा
53
अपच्चक्खाणी
३ अनंत
३ असंख्य
97
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________________
तस्व]
नवतस्त्वसंग्रह
समूल
-
२यंत्र
जीव तिर्यंच पंचेन्द्रिय
१स्तीक
देशमूल २ असंख्य १ स्तोक २ संख्येय
अपञ्चक्खाणी ३ अनंत गुण , असंख्य
|
मनुष्य
१स्तोक
नामपाठ
अर्थ
मुत्ती
तवे
३ यंत्र सर्व उत्तरगुण देश उत्तरगुण
अपञ्चक्खाणी पञ्चक्खाणी
पश्चक्खाणी जीव १स्तोक २ असंख्य
३ अनंत तिर्यंच पंचेन्द्रिय मनुष्य
,,संख्य
, असंख्य (११५) स्थामांगस्थाने दशमे दशविध यतिधर्म अर्थ
नामपाठ खंती क्रोधनिग्रह
सत्यवादी निर्लोभता
संजमे १७ संयमवान् अज्जवे सरल स्वभाव
द्वादशभेदी तपवान मार्दव, अहंकार
प्रतीतकारी घरका
वस्त्र पात्र अन्य रहित कोमल
चियाए (स्वभाव)
आदिल्पै (से?)
साधूकू दान देवे लाघवे द्रव्ये भावे हलका १० बंभचेरवासे ब्रह्मचर्यके साथ सोवे दश बोलमे 'वास' शब्द इस वास्ते कह्या है जैसे गृहस्थ अंगनाके संग शयन करे है ऐसे शीलकू संग लेके रात्रौ वास करे इति वृत्तौ.
(११६) भगवती (श.८, उ.८) परीषह २२ यंत्रकम् अष्ट कर्मके
. षड्विध बंधकमे एक एकविध बंधक वीतराग कौनसे कर्मके उदय बंधकमे परीषह
बंध छद्मस्थमे केवलीमे ११ कौनसा परीषह? २२ अस्ति १
अस्ति १ वेदनीयके उदय , २ शीत
महवे
क्षुधा
१
| | م اسم او او
10
उष्ण
दशमशक
अचेल
चारित्रमोहकै उदय
-
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१५३
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[६ संवर.
-
अरति
स्त्री
चर्या
अस्ति
६
अस्ति६
.
TTTTEEEEE
अस्ति
७
अस्ति
७
नैषेधिकी शय्या आक्रोश वध
१२
वेदनीयके चारित्रमोहके, वेदनीयके , चारित्रमोहके,, वेदनीयके चारित्रमोहके,, अंतरायके , वेदनीयके ,
१३
अस्ति
८
अस्ति
८
१४
याचना
अलाभ
अस्ति
९
१६
अस्ति
९
- १८
, १२
रोग तृणस्पर्श
मल सत्कारपुरस्कार
प्रज्ञा अज्ञान दर्शन
चारित्रमोहके,, ज्ञानावरणके,
अस्ति १३
२२
दर्शनमोहके ,
सत्ता २२
१४
११
. वेदे एक साथे २०,
शीत होय तो उष्ण बावीसमे चर्या, नही, उष्ण होय तो
शीत, उष्णमेसु एक निसिहिया एकतर; शीत नही; चर्या, |
'चर्या, शय्यामेसु एक
| तर; एवं ९ वेदे. एवं शीत, उष्ण एकतर. | शय्या एकतर; एवं
| अयोगी पिण
कोइ कहै जोकर कोइ पुरुष शीत कालमें अनि तापे है सो तिसके एक पासे तो उष्ण परीषह है अने एक पासे शीत लगे है, तो युगपद् दोनो परीषह कयुं न कहै ? तिसका उत्तरएह दोनो परीपहकी विवक्षा शीत काल अने उष्ण कालकी अपेक्षा है; कुछ अग्निकी ताप अपेक्षा नही इति वृत्तौ; और परीपहकी चर्चा भगवतीजीकी टीकामे (पृ. ३८९) मे स्वरूप कथन किया है सोइ तिहांसे लिख्यते
"ज समयं चरिया० नो तं समयं निसिहिया०" (भग० श. ८, उ. ८ सू. ३४३) इत्यादि. तिहां 'चर्या परीषह तो ग्राम आदिकमे विहार अने 'नषेधिकी' परीषह ग्राममे मासकल्प आदि रहणा अने 'शय्या' परीषह उपाश्रयमे जाकर बैसणा. इस अर्थ करकेइ इस कारण विहार अने अवस्थान अर्थात् तिष्ठने करके परस्पर विरोध है. इस वास्ते एक कालमे
१ यत् समये चर्या न तत्समये नैषेधिका० ।
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तत्त्व नवतत्त्वसंग्रह
१५३ नही संभवे है. अथ प्रश्न-नैपेधिकी अने शय्या एह दोनो चर्याके साथ विरोधी है तो दोनोका एककालमे संभव हुया. यदि एककालमे संभव हुया तदि एककालमे १९ परीषह वेदे इह सिद्ध हुया. अथ उत्तर-इम नही है. किस वास्ते ? ग्राम आदि जानेकुं प्रवृत्ते है तिस कालमे जाता या भोजनविश्रामके अर्थे औत्सुक्य परिणाम सहित थोडे काल वास्ते शय्यामे वर्चे है। तिस कालमे 'शय्या' परिषहका 'चों' अने 'नषेधिकी' दोनीको साथ संबंध है. इस वास्ते २० ही परिपह एककालमे वेदे है. यो ऐसे कया तो पइविध बंधक आश्री कया है. जिस समये चर्या है तिस समय शय्या नही. इहां कैसे संभव हूया ? उत्तर-पविध बंधकके 'मोह' कर्म उदयमे बहुत नहीं है इस वास्ते शय्याकालमे औत्सुक्य परिणामका अभाव है इस वास्ते. शय्याकालमे शय्या ही है, परंतु बादर रागके उदय औत्सुक्य करके विहारके परिणाम नही. इस वास्ते परस्पर विरोधी होने करके दोनो युगपत् एककालमे नही. इति अलं चर्चेण (चर्चया),
उत्तराध्ययनके २४ मे अध्ययनात् पांच समिति, तीन गुप्ति खरूप
प्रथम ईर्यासमिति-आलंबने १, काल २, मार्ग ३, यत्ना ४ ए चार प्रकारे. शुद्ध ईयो शोधे तिहां आलंबन-ज्ञान १, दर्शन २, चारित्र ३ इन तीनोकू अवलंबीने ईर्या शोघे १. काल थकी दिवसमे ईर्या शोधे २. मार्ग थकी उत्पथ वर्जे ३. यत्नाके चार भेद है-द्रव्य १, क्षेत्र २, काल ३, भाव ४. द्रव्य थकी तो चक्षुसे देख कर चाले १. क्षेत्र थकी चार हाथ प्रमाण धरती देखीने चाले २. काल थकी जितना काल चलनेका तहां लग यत्न करी चाले ३. भाव थकी उपयोग सहित. उपयोग सहित किस तरे होवे ? पांच इंद्रियकी विषयथी रहित पांच प्रकारकी वाचना आदि स्वाध्याय रहित शरीरकू ईयारूप करे. ईयोंमें उद्यम एह उपयोग थकी ईर्या शोधे इति ईर्यासमिति.
भाषासमिति. क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ ४, हास्य ५, भय ६, मुखारि (मौखय) ७,विकथा ८ ए आठ स्थानक वर्जीने बोले. असावद्य मर्यादा सहित भाषा बोले. उचित काले बोले. तथा दश भेदे सत्य, बारां भेदे व्यवहार, एवं २२ भेदे भाषा बोले. ते बावीस भेद लिख्यते
(१) जणवए सच्चे-'जनपद सत्य. जौनसे देशमे जो भाषा बोले सो तिहां सत्य. जैसे 'कोकन' देशमे पाणी• पिछ, कोइ देशमे बडे पुरुपकू बेटा कहै वा बेटेकू काका, पिताळू भाइ, सासूकू आइ. सो सत्यम्. (२) सम्मत(य)-'संमत'सत्य, जैसे पंकसे उपना मींडक, सेवाल अने कमल; तो हि पिण कमलने 'पंकज' कहीये पिण मींडक, सेवालने 'पंकज' शब्द नही. (३) ठवणा-स्थापना'सत्य. जिसकी मूर्ति स्थापी है सो मूर्तिकू देव कहना जूठ नही. (४) नाम'नाम'सत्य, 'कुलवर्धन' नाम है, चाह कुलका क्षय करे तो पिण कुलवर्धन कहना जूठ नही. (५)रूवे-मुणकरी भ्रष्ट है तो पिण साधुके वेषवाले कू 'साधु' कहीये. (६) पडच-'अपेक्षा'सत्य. जैसे मध्यमाकी अपेक्षा अनामिकी कनिष्ठा अंगुली है, (७) ववहार-'व्यवहार सत्य. जैसे
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१५४
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[ ६ संवर
पर्वत चलता है, रस्ता चलता है. (८) भाव - 'भाव' सत्य. जैसे तोतेमे पांच वर्ण है तो पिण तोता हर्या है. (९) जोग - 'योग' सत्य. जैसे दंडके संयोगसे दंडी कहीये; छत्रसे छत्री. (१०) उवमासच्चे - 'उपमा' सत्य, चंद्रवत् वदन, समुद्रवत् तडाग. असत्य यंत्रम् - कोहनिस्सिया - क्रोध के उदय बोले. माननिस्सिया- मानके स्सिया – माया के उदय बोले. लोहनिस्सिया - लोभनिश्रित बोले. उदय बोले. दोसनिस्सिया-द्वेषके उदय बोले. हासनिस्सिया - हास्यके अक्खायनिस्सिया - विकथा करी
निस्सिया - भयके उदय बोले. हिंसाकारी वचन. ( ११७)
मिश्र भाषा पा.
अर्थ
१ उप्पन्नमिसि (स्सि ?)या इस गाममे दस वालक जन्मे है
२ वियमिसिया
| इस गाममे दस जन्मे
३ उपपन्नविगयमिसिया है, दस (की) मृत्यु हो है
४ जीवमिसिया
.५ अजीवमिसिया
इस गाममे आज दसजणे मरे है
एकचा (त्र) सर्व जीव है।
अन्नकी रास देखके कहै ए तो अजीव है.
मिश्र भाषा पा.
अर्थ
६ जीवाजीवमिसिया जीव, अजीव दोनो की मिश्र भाषा बोले
७ अनंतमिसिया
उदय बोले. मायानिपेज निस्सिया - रागके उदय बोले. भयउवधाय निस्सिया -
९ अद्धामि सिया
८ परत ( रित्त) मिसिया प्रत्येककुं अनंतकाया कहै
मूली आदिक कंदो मे अनंते जीव है सो 'प्रत्येक' जीव कहै.
ऊठ रे दिन चढ्या पहरके तडकेसे कहै
घणे कालका जूठ; घडी १० अद्धद्धा मिसिया एक रात गये (रो) दिन ऊगा कहै.
व्यवहार भाषाके बारां भेद
(१) आमंताणि - हे भगवन्. (२) आणवणि - इह काम कर तथा यह वस्तु लाव. (३) नायणि - यह हमें देउगे. (४) पुच्छणि- ग्राम आदिनो मार्ग पूछणा. (५) पन्नवणि - धर्म ऐसे होता है, (६) पच्चक्खाणी - यह काम हम नही करेंगे. (७) इच्छाणुलोम - अहासुह देवानुप्रिय. (८) अणभिग्गहिया - अगलेका कथा ठीकतरे समजे न. ( ९ ) अभिग्गहिया- मुझे ठीक है. (१०) संसयकारण - खबर नही क्यों कर है. (११) वोगडा - प्रगट अर्थ कहै, (१२) अवोगडा - अप्रगट अर्थ.
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तत्त्व] नवतत्त्वसंग्रह
१५५ ___ इह ४२ भेद भाषाकै हैं. सत्य १०, व्यवहार १२, एवं २२ भेद बोले. इति भाषासमिति संपूर्ण.
___ एषणासमितिका स्वरूप विस्तार सहित पिंडनियुक्ति तथा पिंडविशुद्धिसे जाणना इति.
अथ 'आदानभंडनिक्षेप'समिति लिख्यते-उपधि दो भेदे है-(१) औधिक, (२) औपग्राहिक. 'औधिक' ते साधु, साध्वी सदाइ राखे अने 'औपग्राहिक' ते जे कदाचित् कार्य उपने ग्रहै ते. प्रथम औधिक कहीये है
"उवही उवग्गहे संगहे य तह पग्गहुग्गहे चेव । भंडग उवगरणे वि य करणे वि य हुंति एगट्ठा ॥१॥ (ओघ० ६६६) पत्तं १ पत्ताबंधो २ पायढवणं ३ च पायकेसरिया ४। पडलाई ५ रयत्ताणं ६ (च) गुच्छओ ७ पायनिजो(जो)गो ॥२॥ (ओ० ६६८) तिन्नेव य पच्छागा १० रयहरणं ११ चेव होइ मुहप(पो)त्ती १२ । एसो दुवालस्स(स)विहो उवही जिणकप्पियाणं तु ॥३॥ (ओ०६६९) एते(ए) चेव दुवालस्स(स) मत्तग १ अइरेग चोलपट्टो य । एसो चउद्दसविहो उवही पुण थेरकप्पंमि ॥४॥ (ओ०६७०) पत्तं १ पत्ताबंधो २ पायट्ठवणं ३ च पायकेसरिया ४ । पडलाइं ५ रयत्ताणं ६ (च) गुच्छओ ७ पायनिजो(जो)गो ॥ ५॥ (ओ० ६७४) तिन्नेव य पच्छागा १० रयहरणं ११ चेव होइ मुहपत्ती १२।। तत्तो (य) मत्तउ खलु १३ चउदसमो कमढओ(गो) चेव १४॥६॥ (ओ०६७५) उग्गहणंतग १५ पदो(ट्टो) १६ उड्डोरू (अद्धोरुअ)१७ चलणिया १८ य बोद्धव्या । अभितर १९ बाहरि(हिर?)२० नियंसणी य तह कंचुए २१ चेव ॥७॥(ओ०६७६) उग(क)च्छिय २२ वेगच्छिय २३ संघाडी २४ चेव खंधकरणी २५ य । ओहोवहिमि एऐ अजाणं पन्नवीसं तु ॥ ८॥ (ओ० ६७७) उक्कोसगो जिणाणं चउवि(विहा) मज्झिमो वि एमेव । जहन्नो चउविहो खलु एत्तो थेराण वुच्छामि ॥९॥
१उपधिरुपग्रहः सङ्गहश्च तथा प्रतिग्रहश्चैव । भाण्डकमुपकरणमपि च करणेऽपि च भवन्ति एकाथोंः ॥१॥ पात्रं पात्रबन्धः पात्रस्थापनं च पात्रकेसरिका । पटलानि रजस्त्राणं (च) गुच्छकः पात्रनिर्योगः ॥२॥ त्रय एव च प्रच्छादका रजोहरणं चैव भवति मुखपत्तिः(°वस्त्रिका)। एष द्वादशविध उपधिर्जिनकल्पिकानां तु ॥३॥
एते चैव द्वादश मात्रकमतिरिक्तं चोलपट्टश्च । एष चतुर्दशविध उपधिः पुनः स्थविरकल्पे ॥४॥ २ ततो मात्रकश्चतुर्दशमः कमढगं चैव ॥ ६ ॥ अवग्रहानन्तकं पट्टोऽर्धारुकं चलनिका च बोद्धव्या । आभ्यन्तरा बाहिरा निवसनी च तथा कञ्चुकश्चैव ॥ ७ ॥ औपकच्छिकं वैकक्षिक सङ्घाटी चैव स्कन्धकरणी च । ओघोपधौ एते आर्याणां पञ्चविंशतिस्तु ॥ ८॥ उत्कृष्टो जिनानां चतुर्विधो मध्यमोऽपि एवमेव । जघन्यश्चतुर्विधः खलु इतः स्थविराणां वक्ष्ये ॥९॥
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[६ संवर उकोसो थेराणं चउवि(वि)हो छवि(वि)हो उ मज्झिमओ। जहन्नो चउवि(वि)हो खलु एत्तो अजाण साहेमि ॥१०॥ उकोसो अट्टविहो मज्झिमओ होइ तेरसविहो उ । जहन्नो चउवि(वि)हो खलु तेण परमुवग्गहं जाणे(ण)॥११॥ (ओ० ६७८) एगं पायं जिणकप्पियाण थेराण मत्तओ पीओ। एयं गणणपमाणं पमाणमाणं अओ वुच्छं ॥ १२ ॥ (ओ० ६७९) तिनि विहत्थी चउरंगुलं च भाणस्स मज्झिमपमाणं । इत्तो हीण जहन्नं अइरेगयरं तु उकोसं ॥ १३ ॥ (ओ० ६८०) पत्ताबंधपमाणं भाणपमाणेण होइ नायव्यं । जह गंठिमि कयंमि कोणा चउरंगुला हुंति ॥ १४ ॥ (ओ० ६९३) पत्तट्ठवणं तह गुच्छओ य पायपडिलेहणी(णि)या य । तिण्हं पि य पमाणं विहत्थि चउरंगुलं चेव ॥ १५॥ (ओ० ६९४) जेहिं सविया न दीसह अंतरिओ तारिसा भवे पडला। तिन्नि व पंच व सत्त व कदलीगब्भोवमा मसिणा ॥ १६॥ (ओ० ६९७) अड्ढाइजा हत्था दीहा छत्तीस अंगुले रुंदा। बीयं च (बितियं) पडिग्गहाओ ससरीराओ य निष्फनं ॥ १७॥ (ओ०७०१) माणं तु रयत्ताणे भाणपमाणेण होइ निप्फन्न ।। पायाहिणं करतं मज्झे चउरंगुलं कमइ ॥ १८॥ (ओ० ७०३) कप्पा आयपमाणा अड्डाइजा य वित्थडा हत्था। दो चेव सुत्तिया उ उन्निय तइओ मुणेयव्यो ॥ १९॥ (ओ० ७०५) बत्तीसंगुलदीहं चउवीसंगुलाई दंडो से। अद्वंगुला दसाओ एगतरं हीणमहियं वा ॥२०॥ (ओ०७०८)
१ उत्कृष्टः स्थविराणां चतुर्विधः षड्डिधस्तु मध्यमकः । जघन्यश्चतुर्विधः खलु इत आर्याणां कथयामि (2) ॥१०॥ उत्कृष्टोऽष्टविधो मध्यमको भवति त्रयोदशविधस्तु । जघन्यश्चतुर्विधः खलु तेन परमुपग्रहं जानीयात् ॥ ११ ॥ एक पात्रं जिनकल्पिकानां स्थविराणां मात्रक द्वितीयम् । एतद् गणनाप्रमाणं प्रमाणमानमतो वक्ष्ये ॥ १२॥ त्रयो विहस्तयश्चतुरजुलं च भाजनस्य मध्यमप्रमाणम् । अतो हीनं जघन्यमतिरिक्ततरं तूत्कृष्टम् ॥ १३ ॥ पात्रबन्धप्रमाणं भाजनप्रमाणेन भवति ज्ञातव्यम् । यथा ग्रन्थौ कृते कोणाश्चतुरडला भवन्ति ॥१४॥ पात्रस्थापन तथा गुच्छकश्च पादप्रतिलेखनिका च । त्रयाणामपि च प्रमाणं विहस्तिश्चतुरडलं चैव ॥१५॥ यैः सविता न दृश्यतेऽन्तरितस्तादृशानि भवन्ति पटलानि । त्रीणि पञ्च वा सप्त वा कदलीगभॊपमानि मसृणानि ॥१६॥ अर्धतृतीयहस्तदीर्घाणि षत्रिंषदकुलानि रुन्द्राणि । द्वितीयं च पतद्ग्रहात खशरीराच्च निष्पन्नम् ॥ १७ ॥ मानं तु रजत्राणे भाजनप्रमाणेन भवति निष्पन्नम्। प्रादक्षिण्यं कुर्वन् मध्ये चतुरकुलानि कामति ॥१८॥ कल्पा आत्मप्रमाणा अर्धतृतीयांश्च विस्तृता हस्तान् । द्वौ चैव सौत्रिको तु ओर्णिकस्तृतीयो ज्ञातव्यः ॥१९॥ द्वात्रिंशदलदीर्घ चतुर्विशतिरकुलानि दण्डस्त्रस्य । अष्टाङ्गुला दशा एकतरं हीनमधिकं वा ॥ २० ॥
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तत्व] नक्तत्त्वसंग्रह
१५७ उन्नियं उट्टियं वा वि कंबलं पायपुच्छणं । तिपरीयल्लमणिस्सलु रयहरणं धारए इकं ॥ २१ ॥ (ओ० ७०९) चउरंगुलं विहत्थी एवं मुहणंतमस्स उ पमाणं । बीयं मुहप्पमाणं गणणपमाणेण इक्किकं ।। २२ ॥ (ओ०७११) जो मागहओ पत्थो सविसेसयरं तु मत्तगपमाणं ।। दोसु वि दव्वग्गहणं वासावासासु अहिगारो ॥ २३ ॥ (ओ० ७१३) सूओदणस्स भरियं दुगाउमद्धाणमागओ साहू । भुंजइ एगट्ठाणे एयं किर मत्तयपमाणं ॥ २४ ॥ (ओ० ७१४) दुगुणो चउगुणो वा हत्थो चउरंस चोलपट्टो य । थेरजुवाणाणहा सण्हे थूलंमि य विभासा ॥ २५॥ (ओ०७२१) संथारुत्तरपट्टो अड्डाइजा य आयया हत्था। दोह्र पि य वित्थारो हत्थो चउरंगुलं चेव ॥ २६ ॥ (ओ० ७२३) रयहरणपट्टमित्ता अदसागा किंचि वा समइरेगा। इक्कगुणा उ निसिजा हत्थपमाणा सपच्छागा ॥ २७ ॥ (ओ० ७२५) वासोवग्गहिओ पुण दुगुणो अवही उ वासकप्पाई । आयासंजमहेउं इक्कगुणो सेसओ होइ ॥ २८ ॥ (ओ० ७२६) जं पुण सपमाणाओ ईसि हीणाहियं व लंभिजा।
उभयं पि अहाकडयं न संधणा तस्स छैओ वा ॥ २९ ॥" (ओ० ७२७) इति औधिकोपधिः संपूर्णः । अथ औपग्राहिकं उपगरणमाह-औपग्राहिक उपधिक तीन भेद-(१)जघन्य, (२) मध्यम, (३) उत्कृष्ट. तत्र प्रथमं जघन्यमाह
पीठ १ निसिजा २ दंडग ३ पमजणं ४ घट्ट ५ डगल ६ पिप्पलग्ग ७ सइ ८ नह
१ आणिक औष्ट्रिक वाऽपि कम्वलं पादप्रोन्छनम् । त्रिः परिवर्तमनिसृष्टं रजोहरणं धारयेदेकम् ॥ २१॥ चतुरडलं वितस्तिरेवं मुखानन्तकस्य तु प्रमाणम् । द्वितीयं मुखप्रमाणं गणनप्रमाणेनैकैकम् ॥ २२ ॥ यो मागधकः प्रस्थः सविशेषतरं तु मात्रकप्रमाणम् । द्वयोरपि द्रव्यग्रहणं वर्षावर्षयोरधिकारः॥२३॥ सूपौदनेन मृतं द्विगव्यूताध्वन आगतः साधुः। भुङ्क्ते यदेकं स्थानमेतत् किल मात्रकस्य प्रमाणम् ॥ २४ ॥ द्विगुणश्चतुर्गुणो वा हस्तश्चतुरस्रश्चोलपट्टश्च । स्थविरयूनामर्थाय श्लक्ष्णे स्थूले च विभाषा ॥ २५ ॥ संस्तारकोत्तरपी अर्द्धतृतीयौ च आयतौ हस्तौ । द्वयोरपि च विस्तारो हस्तचतुरडलं चैव ॥२६॥ रजोहरणपट्टमात्रा अदशाका किञ्चित् समतिरेका वा । एकगुणा तु निषद्या हस्तप्रमाणा सपाश्चात्या ॥२७॥ वर्षांपप्रहिकः पुनर्द्विगुणोऽवधिस्तु वर्षाकल्पादिः । आत्मसंयमहेतुरेकगुणः शेषको भवति ॥ २८॥
यत् पुनः खप्रमाणावीषदीनमधिकं वा लभ्येत । उभयमपि यथाकृतं न सन्धना तस्य छेदो वा ॥ २९ ॥ ३ पीठक निषया दण्डका प्रमार्जनी ष्टको जगलं पिप्पलकः सूची नखहरणी दन्तकणेशोधनक्यौ।
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१५८ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[६ संवररणी ९ दंत १० कन ११ सोधणी इति जघन्यम् ॥
"वासता(त्त)णाइ उ मज्झिमगो वासता(त)ण पंच इमे । वाले १ सुत्ते २ सई ३ कुडसीसग ४ छत्त ए ५ चेव ॥२ (?)॥ तहियं दुन्निय ओहो वह (हिं)मि वाले य सुत्तिए चेव । सेस तिय वासताणायणंगं तह चिलमिलीण इमं ॥३॥ वालमई सुत्तमई वागमई तह य दंडकडगमई । संथार दुगमप्सु सिरिपियदंडगपो(प्प?)णगं ॥ ४ ॥ दंड विदंड लट्ठी विलट्ठी तह नालिया य पंच । अवलेहणिमत्तटिगं पासवणुचारखेले य ॥५॥ चिंचणिया बुर पेपी उरतलिगा अहवा विचंमतिविहिमिमं । कत्ती तलिगा वहु झाझाध पट्टदुगं चेव होइ मिमं ॥ ६॥ संथारुपट्टो अहवा सन्नाहपट्ट पहत्थी । मज्झो अजाणं पुण अइरित्तो वारगो होइ ॥७॥ लट्ठी आयपमाणा विलढि चउरंगुलेण परिहीणा । दंडो बाहुपमाणो विदंडओ कक्खमित्तो य ॥ ८॥ (ओ० ७३०) सिरसोवरिं चउरंगुलं दीहा उ नालिया होई।।
अवलेहणि वटोंबुर तस्स अला[व] भंमि चिंचिणिया ॥९॥" इति मज्झिम । उत्कृष्टमाह
"अक्खा संथारो वा दुविहो एकंगिओ तदियरो वा । बीय पयपुत्थपणगं फलगं तह होई उक्कोसा ॥१०॥"
१ आ गाथाओ अत्यंत अशुद्ध छे. वळी तेनुं मूळ स्थळ पण जाणवामां नथी. एवी परिस्थितिमा एनी छाया आपवी ते एक प्रकारचें साहस गणाय एटले ए दिशामा प्रयास करातो नथी. तेने माटे जग्या कोरी रखाय छे.
...
२ यष्टिरात्मप्रमाणा वियष्टिश्चतुरङ्गुलेन परिहीना । दण्डो बाहुप्रमाणो विदण्डकः कक्षामात्रश्च ॥८॥
शीर्षोपरि चत्वारि अकुलानि दीर्घा तु नालिका भवति । ...... तस्य ........ ॥९॥ ३ अक्षाः संस्तारको वा द्विविध एकान्तरस्तदितरो वा । द्वितीयं" पुस्तकपञ्चकं फलकं तथा भवत्युत्कृष्टा ॥ १०॥
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तत्व ]
arana संग्रह
तथा - " दंडे लडिया चैव चम्मए चम्मकोसए ।
चम्मच्छेयणए पट्टो चिलिमिली धारए गुरु ॥ १ ॥ (ओ० ७२८ ) जं चन्न एवमाई तवसंजमसाहगं जइजणस्स । ओहाइरेगगहियं उवगहियं तं वियाणाहि ॥ २ ॥ ( ओ० ७२९ ) जं जस्स उ उवयारो उवगरणं ( जुजइ उवगरणे) तंसि होई उवगरणं । अइरेगं अहिगरणं अजतो अजयं परिहरतो ॥ ३ ॥ ( ओ० ७४१ ) न केवलमइरित्तं अहिगरणं पइमियं पि जो अजओ । परिजुंजइ उवगरणं अहिगरणं तस्स वि होई ॥ ४ ॥" इति, अथ उपगरणधारणकारणानि -
"छेका रक्खणट्ठा पायग्गहणं जिणेहिं पन्नत्तं ।
जे य गुणा संभोए हवंति ते पायगहणे ति (वि) ॥ १ ॥ (ओ० ६९१) अतरंतबालबुड्डासेहाएसा गुरु असहुवग्गे । साहारणुग्गहालद्धिकारणा पायगहणं तु ॥ २ ॥ (ओ० ६९२) रमाइरक्खणट्टा पत्तगठवणं वि उ उवइस्संति ।
होइ पण हे गुच्छओ भाणवत्थाणं ॥ ३ ॥ (ओ० ६९५) पायपमजणहेउं केसरिया पाऍ पाऍ इक्किका । गुच्छग पत्तgaणं इकिकं गणणमाणेणं ॥ ४ ॥ (ओ० ६९६) पुप्फफलोदयरयरेणुस उणपरिहारपायरक्खट्टा ।
लिंगस्स य संवरणे वेओदयरक्खणे पडला ॥ ५ ॥ (ओ० ७०२) मूसगरयउकेरे वासे (सा) सिन्हा रए य रक्खट्ठा ।
हुति गुणा रयताणे पाए पाए य इक्केकं ॥ ६ ॥ (ओ० ७०४) तणगहणानलसेवानिवारणा धम्मसुकझाणट्ठा । दिङ्कं कप्परगहणं गिलाणमरणट्टया चैव ॥ ७ ॥ (ओ० ७०६)
1
१ दण्डको यष्टिका चैव चर्मकश्चर्मकोशकः । चर्मच्छेदनकः पट्टः चिलमिली ( यवनिका ) धारयेद् गुरुः ॥ १ ॥ यच्चान्यदेवमादि तपःसंयमसाधकं यतिजनस्य । औघातिरेकं गृहीतमौपग्रहिकं विजानीहि ॥ २ ॥ यदुपयुज्यते उपकरणे तदेव भवति उपकरणम् । अतिरेकमधिकरणं अयतोऽयतं परिहरन् ॥ ३ ॥
न केवलमतिरिक्तमधिकरणं परिमितमपि योऽयतः । परियुनक्ति उपकरणं अधिकरणं तस्यापि भवति ॥ ४ ॥ २ षट्कारक्षणार्थं पात्र ग्रहणं जिनैः प्रज्ञप्तम् । ये च गुणाः सम्भोगे भवन्ति ते पात्रग्रहणे इति ॥ १ ॥
अतो ग्लानबालवृद्धशिक्षकादेशा गुरुः असहिष्ण्ववग्रहः । साधारणावग्रहात् अलब्धिकारणात् पात्रग्रहणं तु ॥ २ ॥ रज आदि रक्षणार्थं पात्रकस्थापनमपि तूपदिशन्ति । भवति प्रमार्जन हेर्गुच्छको भाजनवस्त्राणाम् ॥ ३ ॥ पात्रप्रमार्जन हेतुः केसरिका पात्रे पात्रे एकैका । गुच्छकः पात्रस्थापनं एकैकं गणनाप्रमाणेन ॥ ४ ॥ पुष्पफलोदकर जोरेणुश कुन परिहारपातरक्षणार्थम् । लिङ्गस्य च संवरणे वेदोदयरक्षणे पटलानि ॥ ५ ॥ मूषकरजउत्केरे वर्षावश्यायरजोरक्षणार्थं च । भवन्ति गुणा रजस्त्राणे पात्रे पात्रे चैकैकम् ॥ ६ तृणग्रहणानलसेवानिवारणार्थं धर्मशुक्लध्यानार्थम् । दृष्टं कल्पग्रहणं ग्लानमरणार्थं चैव ॥ ७ ॥
१५९
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१६०
श्रीविजयानंदसूरिकृत
आयाणे निकखेवे ठाण निसीयण तुयह संकोए । पुवं पणट्ठा लिंगट्ठा चैव रयहरणं ॥ ८ ॥ (ओ० ७१०) संपाइमरय रेणुपमज्जणा वयंति मुहपत्तिं ।
नासं मुहं च बंधइ तीए वसहिं पमजंतो ॥ ९ ॥ (ओ० ७१२) संपाइमतसपाणा धूलिसरिक्खे अ परिगलंतंमि । पुढ विदगअगणिमारुयउद्धं सखिसणाडहरे ॥ १० ॥ (ओ० ७१५) आयरिए य गिलाणे पाहुणए दुलहे सहसदाणे | संसत्तए भत्तपाणे मत्तगपरिभोगणुन्नाउ || ११ || (ओ० ७१६) संसत्तभत्तपाणेसु वा वि देसेसु मत्तए गहणं । पुवं तु भत्तपाणं सोहेउ छुहंति इयरेसु ॥ १२ ॥ (ओ० ७२०) arodarउडे वाइए ही खद्धपजणणे चेव ।
तेसिं अणुगट्टा लिंगुदयट्ठा य पट्टो उ ॥ १३ ॥ (ओ० ७२२) पाणाईरेणुसंरक्खणट्टया हुंति पट्टगा चउरो ।
छप्पयरक्खणट्ठा तत्थुवरिं खोमियं कुजा ॥ १४ ॥ (ओ० ७२४) दुट्टपसाणसावयविज्ज ( चिक्ख ) ल विसमेसु उदगमज्झेसु ।
लट्ठी सरीररक्खा तवसंजमसाहणी भणिया ।। १५ ।। (ओ० ७३९) मुखट्ठा नाणाई तणू तया तयडिया लट्ठी ।
दिट्ठो जहोवयारो कारणंमि कारणेसु जहा (कारणतकारणेरसु तहा १) ।। १६ ।। " (ओ० ७४०)
इति कारणम्. इनकं जतनासे लेवे, जतनासे मेले ए चौथी समिति.
अथ पांचमी समिति अचित्त स्थंडले दस दोष ते रहितमे मल आदि व्युत्सर्जन करे. मन, वचन, काया पापसे गोपे ते 'गुप्त'.
[६ संवर
१ आदाने निक्षेपे स्थाने निषदने लग्वर्तने सङ्कोचने । पूर्वं प्रमार्जनार्थं लिङ्गार्थं चैव रजोहरणम् ॥ ८ ॥ सम्पातिमरजोरेणुप्रमार्जनार्थं वदन्ति मुखवस्त्रिकाम् । नासिकां मुखं च बध्नाति तथा वसतिं प्रमार्जयन् ॥ ९॥ सम्पातिमन्त्रसप्राणा धूलिसरजस्के च परिगलमाने । पृथिव्युदकाग्निमारुतोद्धसणपरिभवडहरे ॥ १० ॥ आचार्य ग्लाने प्राघूर्ण दुर्लमे सहस्रादाने । संसक्तकै भक्तपाने मात्रकपरिभोगमनुज्ञातः ॥ ११ ॥ संसकभक्तपानेषु वाऽपि देशेषु मात्रकग्रहणम् । पूर्व तु भक्तपानं शोधयित्वा प्रक्षिपन्ति इतरेषु ॥ १२ ॥ वैकियोऽप्रावृतो वातिको द्वीको बृहत्प्रजननश्चैव । तेषामनुप्रहार्थं लिङ्गोदयार्थं च पट्टस्तु ॥ १३ ॥ प्राण्यादि रेणुसंरक्षणार्थं च भवन्ति पट्टकाश्चत्वारः । षट्पदिकारक्षणार्थं तत्रोपरि क्षौमिकं कुर्यात् ॥ १४ ॥ दुष्टपशुश्वश्वापदचिक्खलविषमेषूदकमध्येषु । यष्टिः शरीररक्षार्थ तपःसंयमसाधिनी भणिता ॥ १५ ॥ मोक्षार्थं ज्ञानादीनि तनुः तदर्थं तदर्थिका यष्टिः । दृष्टो यथोपकारः कारणतत्कारणेषु तथा ॥ १६ ॥
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तत्त्व ]
नवतत्त्व संग्रह
अथ द्वादशभावनास्वरूप. दोहरा -
पावन भावन मन वसी, सब दुष मेटनहारः श्रवण सुनत सुप होत है, भवजलतारनहार १ अथ 'अनित्य' भावना, सवईया इकतीसा -
-
संध्या रंग छिन भंग सजन सनेही संग उडत पतंग रंग चंद रवि संगमे तन कन धन जन अवधि तरंग मन सुपनेकी संपतमे रांक रमे रंगमे देवते ही तोरे भोरे रंक कोरे तोरे भये राजन भिपारी भये हीन दीन नंगमे बादरकी छाया माया देषते विनस जात भोरे चिदानंद भूलो काहेकी तरंगमे ११ इंद चंद सुरगिंद आनन आनंद चंद नरनको इंद सोहे नीके नीके वेसमे उत्तम उत्तंग सोध जंगमे अभंग जोध घुमत मतंग रंग राजत हमेसमे रंभा तरुषंभा जैसी माननी अनूप ऐसी रसक दसक दिन माने सुप ए समे परले पवन तृण उडत गगन जेसे पवर न काहु वाहु गये काहु देसमे २ अथ 'असर' भावना (ख) रूपमात तात दारा भ्रात सजन सनेही जात कोउ नही त्रात भ्रात नीके देष जोयके तन धन जोवन अनंग रंग संग रसे करम भरम बीज गये मूढ वोयके । नाम न निशान थान रान पानलेषि यत दरख गरव भरे जरे नंगे होके त्राता नही कोउ ऐसे बलवंत जंत संत अंतकाल हाथ मल गये सब रोयके १ साजन सुहाये लाप प्रेम के सदन बीच हसे मोह फसे कसे नीके रंग लसे है. माननीके प्रेम से फसे धसे कीच वीच मीचके हिंढोले हीच मूढ रंग रसे है चपलासी झमक अनित बाजी जगतकी रुंषनमे वास रात पंषी चह चसे है मोहकी मरोर भोर ठानत अधिक ओर छोर सब जोर सिर काल वली हसे है २ इति अथ 'संसार' भावना -
राजा रंक सुर कंक सुंदर सरूप भंक रति पति रूप भूप कुष्ठ सरवंग है
अरी मरी मीत घरी तात मात नारी करी रामा मात परी करी धूयावरी रंग है उलट पलट नट चट केसो पेल रच्यो मच्यो जगजालमे विहाल वहु रंग है. एते माहे तेरो जोरो कोउ नाही नम्र फेरो गेरो चिदानंद मेरो तूही सरवंग है १ रंग चंग सुप मंग राग लाग मोहे सोहे छिनकमे दोहे जोहे मौत ही मरद के नीके वाजे गाजे साजे राजे दरबार ही मे छिनकमे कूकहूक सुनीये दरदके जगमे विहाल लाल फिरत अनादि काल सारमेय थाल जैसे चाटत छरद के मद भरे मरे परे जंगरमे परे जरे देष तन जरे धरे छरे है गरदके २ अथ 'एकल' भावना -
एक टेक पकर फकर मत मान मन जगत स्वरूप सब मिथ्या अंधकूप है चारों गत भटक पटक सब रूप रंग यति मति सति रति छति एकरूप है
१६१
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ashegho
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जराकरमको घेरे गेरे नाना कछु नही तेरो मात तात भ्रात तेरो नाही कर चूप है चिदानंद सुषकंद राकाके पूरन चंद आत्मसरूप मेरे तूही निज भूप है १ आथ साथ नाही चरे काहेकू गेरत गरे संगी रंगी साथी तेरे जाथी दुख लहिये एक रोच केरो तेरो संगी साथी नही नेरो मेरो मेरो करत अनंत दुष सहिये ऊपरमे मेह तैसो सजन सनेह जेह पेहके बनाये गेह नेह काहा चहिये। जान सब ज्ञान कर वासन विषम हर इहां नही तेरो घर जाते तो सो कहिये २ इति अथ 'अन्य' भावनातेल तिल संग जैसे अगनि वसत संग रंग है पतंग अंग एक नाही किन्न है करमके संग एक रंग ढंग तंग हूया डोल तस छंद मंद गंद भरे दिन्न है दधि नेह अभ्र मेह फूलमे सुगंध जेह देह गेह चित एह एक नही भिन्न है आतमसरूप धाया पुग्गलकी छोर माया आपने सदन आया पाया सब घिन्न है ? काया माया वाप ताया सुत सुता मीत भाया सजन सनेही गेही एही तासो अन्न है ताज वाज राज साज मान गान थान लाज चीत प्रीत रीत चीत काहुका ए धन है। चेतन चंगेरो मेरो सबसे एकेरो होरे डेरो हुं वसेरो तेरो फेरे नेरो मन्न है। आपने सरूप लग माया काया जान ठग उमग उमग पग मोषमे लगन है २ अथ 'अशुच(चि) भावनापट चार द्वार पुले गंदगीके संग झुले हिले मिले पिले चित कीट जुं पुरीसके हाड चाम खेल घाम काम आम आठो जाम लपट दपट पट कोथरी भरी सके गंदगीमे जंदगी है बंदगी करत नत तत्त वात आत जात रात दिन जीसके मैली थेली मेली वेली वैलीवद फैली जैली अंतकाल मूढ तेऊ मूए दांत पीसके १ जननीके खेत सृग रेतको करत हार उर धर चरन करी धरी देह दीन रे सातो धात पिंड धरी चमक दमक घरी मद भरी मरी परी करी वाजी छीन रे प्रिये मीत जार कर छर न मे राख कर आन वेठे निज घर साथ दीया कीन रे छरद करत फिर चाटत रसक अत आतम अनूप तोहे उपजेना धीन रे २ अथ 'आश्रव' भावनाहिंसा झूठ चोरी गोरी कोरी केरे रंग रसो क्रोध मान माया लोभ षोभ घेरो देतु है राग द्वेष ठग भेस नारी राज भत्त देस कथन करन कर्म भ्रमका सहेतु है चंचल तरंग अंग भामनिके रंग चंग उद्गत विहंग मन अति गर भेतु है मोहमे मगन जग आतम धरम ठग चले जग मग जिय ऐसें दुष लेतु है ? नाक कान रान काट वाटमे उचाट ताट सहे गहे बंदी रहे दुख भय मानने जोग रोग सोग भोग वेदना अनेक थोग परे विल लाये दुख लीये पीये जानने
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह आपने कमाये पाप भोगनमे आपे आप अंग जरे कुष्ट भरे इंदुवत आनने आपने करम करी दुष रोग पीर परी मिथ्यामति कहे ए तो कीये भगवानने २ अथ 'संवर भावनाहिरदेमे ज्ञान घर पापपंथ परहर निहचे सरूप कर डर जर करसे आवत महान अघ रोध कर हो अनघ आपने विकार तज भज कर भरसे करम पटल ढग तिन माही देह अगनि कसत गुन दग आप परठरसे करम भरम जावे मोद मन बोध पावे ऐसा रसरसीया ते आ रसकूँ परसे १ सत मत नव तत भेदाभेदवित हित मीत जीत तीन नित तीन तेरे बोधके तीन चीन मीन लीन उदक प्रवीन पीन खीन दीन हीन तज रजक जुं सोधके सत्ताको सरूप जान परणत भ्रम मान निज गुन तान जेही महानंद सोधके भ्रमजाल परहरे काहुकी न भीत करे संजमके बारे मारे कर्म सारे रोधके २ अथ 'निर्जरा' भावनाजैसे न्यारी सुध रीत छानत कनक पीत डारत असुध लीत मोद मन कों है तैसी ही सुधार यार करम पकार डार मार मार चार यार लार तेरे पर्यो है जोलों चित रीत नाही तोलों मिटे भीत नाही कुगुर डगर वीच लूटवेको ष(? पर्यों है आतम सियाने वीर करमकी मिते पीर परम अजीत जीत सिवगढ चर्यो है ? सत जत सील तप करम भरम कप वासना सनेह गेह चितमे न धरीये नरक निगोद रोग भोगत अनंत काल माया भ्रम जाल लाल भवदधि तरिये संकटमे पर्यो दुष भर्यो मर्यो वसुधामे चर्यो जगछोर भोर अब मन डरिये चारत कंकन धर दोस दृष्ट दूर कर अरहत ध्यान कर मोष(क्ष)वधू वरिये २ अथ 'लोकखरूप' भावनाजामाधार नराकार भामरी करत यार लोकाकार रूप धार कह्या करतार रे राज दस चार जान ऊंचताको परिमान अधो विसतार राज सात है पतारने घटत घटत मृत मंडलमे एक राज पंचम सुरग मध्य पांच राज धारने आदि अंत नही संत स्वयं सिद्धरूप ए तो षट द्रव्य वास एही आपत उचारने १ नरक भवन पिति तनुवात घन मिति वसत पतार वार करमके दोषमे षिति आप तेज वात वन रन त्रस घन विगल तिगल पसु पंपी अहि रोषमे नर नारी भेस धारी धरम विहारी सारी वीतराग ब्रह्मचारी नारी धन तोषमे सुरगन सुषमन नाटक करत धन धन धन प्रभु सिद्ध पूरे सुष मोषमे २ अथ 'धर्म भावनापिमा धर तोष कर कपट लपट हर मान अरि मार कर भार सब छोरके सत परिमान कर पाप सब छार कर करम इंधन जर तप धूनी जोरके
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१६४ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जरातपोधन दान कर सील मीत चीत घर निज गुण वास कर दस धम्म दोरके .. आतम सियाने माने एह धर्मरूप जाने पाने जाने दोरे भोरे कल मल तोरके १ असी चार लाप जोन पाली तिहां रही कोन वार ही अनंत जंत जिहा नही जाया है नवे नवे भेस धार रांक ढांक नर नार दूष भूष मूक घूक ऊंच नीच पाया है राजा राना दाना माना सूरवीर धीर छाना अंतकाल रोया सब काल बाज पाया है तो है समजाया अब ओसर पुनीत पाया निज गुन धाया सोइ वीर प्रभु गाया है २ अथ 'बोध(धि)दुर्लभ' भावनासुंदर रसीली नार नाककी वसनहार आप अवतार मार सुंदर दिदार रे . इंदचंद धरणिंद माधव नरिंद चंद वसन भूषन पंद पाये बहु वार रे जगतके ष्याल रंगवद रंग लाल माल मुगता उजाल डाल रे(ह)दे बीच हार रे ए तो सब पाये मन माये काम जगतके एक नही पाये विभु वीर वच तार रे १ सुंदर सिंगार करे बार बार मोती भरे पति बिन फीकी नीकी निंदा करे लोक रे वदन रदन सित दृग विन फीके नित पगरि तेरि तकित भूपनके थोक रे जीव विन काया माया दान विन सूम गाया सील विन वायां खाया तोष विन लोक रे तप जप ज्ञान ध्यान मान सनमान सब सम कद रस विन जाने सब फोक रे २ ..
इति द्वादशभावनाविचार. अथं प्रत्याख्यानखरूप ठाणांग, आवश्यक, आवश्यकभाष्यात् (१)भावि-आचार्य आदिकनी वैयावृत्त्य निमित्ते जो तप आगे करणा था पयुर्पण आदिमे अष्टम आदि सो पहिला करे ते 'भावि-अनागत तप. (२) अईयं-आचार्य आदिकनी वैया. वृत्य निमित्ते पर्युषण आदिमे अष्टम आदि तप न करे, पर्युषण आदिकके पीछे करे ते 'अतीत तप' कहिये. (३) कोडिसहियं-प्रारंभता अने मूकतां छोडतां चतुर्थ आदिक सरीषो तप ते बेहु छेहडा मेल्या हुइ ते 'कोटिसहितम्. (४) सागार-अणत्थणा भोग सहसागार इन दोना विना अपर महत्तरागार आदि आगार राक्षे ते 'सागारतप.' (५) अणागार-अणत्थणाभोगेण सहसागारेण ए दो विना होर (और) कोइ आगार न रापे ते 'अणागार तप'. (६) परिमाण-एक दाता आदि १ कवल २ घर ३ द्रव्य संख्या करे ते 'प्रमाणकृत. (७) निरविसेसे—सर्व अशन आदि वोसरावे ते 'निर्विशेष.' (८) नियंदि-अमुको तप अमुक दिने निश्चे करूंगा नियंत्रित तप.' ए जिनकल्पी विषे प्रथम संघयण होता है; सो वर्तमानमे व्यवच्छेद (च्छिन्न) है. (९) संकेय-अंगुट्टि १ मुट्ठि २ गट्ठी ३ घर ४ से ५ ऊसास ६ थियुग ७ जोइरके ८ ए आठ 'संकेत'के भेद जानने. (१०) अद्धा-नमुकारसहियं १ पोरसि २ साढपोरसि ३ पुरिम ४ अपार्द्ध ५ विगय ६ निवीता ७ आचाम्ल ८ एकासणा ९ बे. आसणा १० एकलठाणा ११ पाण १२ दिस १३ अभत्तट्ठ १४ चरम १५ अभिग्रह १६.
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तत्त्व 1
पच्छन्नकालेणं
दिसामोहेणं साहुवयणं अकुंचनपसा०
अणत्थणाभोगे अ अ
सहसा गारेण स स
नवतत्त्व संग्रह
( ११८) १५ भेद पाण विना द्वार दूजा आगार संख्या
पारिट्ठावणिया लेवालेवेणं
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अथ आगार - अर्थ लिख्यते - अणत्थ० अत्यंत भूल गया, पच्चक्खाण करके भोजन मुखमे दीया पीछे पच्चक्खाण संभार्यो तदा तत्काल थूक देवे तो भंग नही १. सहसा० गाय आदि दोहना मुखमें छींट पडे, बलात्कारे मुखमे पडे पूर्ववत् थूके २. पच्छन्नकाल० सूर्य वादलसे ढक्यो पूरी पोरसी की बुद्धिसे पारे पीछे सूर्य देख्या तो पोरसी नही हूइ तदा मुखके कवलं राषमे यत्नसे धूके; पूरी हूइ पोरसी तदा फेर जीमे तो भंग नही इम सर्व जगे जानना. ३. दिसामो० पूर्व दिस (श) पश्चिम जाणे तदा पारे पीछे खबर पडे पूर्वोक्तवत् थूके ४. सा० साधुके वचनथी पोरसी जाणी जीमे पीछे जाण्या पोरसी नही आइ पूर्वोक्त० ५. महत्तरा ० अति मोटा काम संघ गुरुकी आज्ञासे जीमे तो भंग नहीं; ग्लान आदिकनी वैयावृत्य करणी विना खाया होइ नही, इस वास्ते भोजन करे तो भंग नही ६ सव्वसमाहि० प्रत्याख्यान कर्या है अने तीव्र शूल आदि उपना अथवा सर्प आदि डस्यो तदा आर्त्तध्याने मरे तो अच्छा नही
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जराइस वास्ते औषधी करे भंग नही ७. सागारी० जिसकी नजर लगे दोष हूइ तो अध जीमे उठके ओर जगे जायके जीमे पिण तिसकी दृष्टि आगे न जीमे अथवा साधुकं भोजन करतां गृहस्थ देखता होइ तो तिहाथी अन्यत्र जाइ जीमे तो भंग नही होइ ८. आउदृण-हाथ, पग आदि संकोचे पसारे तो भंग नही, वात आदि कारणात् ९. गुरुअमु०-गुरुकू आवता देखके जो खडा होवे तो भंग नही १०. पारिट्ठा०-विधिसे लीया विधिसे जीम्या इम करता जे विगय प्रमुख आहार ऊगर्या ते परिठावणिया गुरुनी आज्ञाये लेवे तो भंग नहीं. ११. लेवालेवे०-जे विगय त्याग्या है तिणे करी कडछी आदिक खरडी हूइ तिण कडछी करी आहर आदिक दीइ ते लेता व्रत भंग नही होइ १२. गिहत्थसं०-गृहस्थे आपणे काजे उ(ओ)दन दूधे(धसे) अथवा दही करी उल्या हूइ तिहा जे धान्य उपरि चार आंगुल चडिउ दूध दही हूइ ते निवीये कल्पे, जो पांच अंगुल तो विग(य) ही जाननी. ए आचाम्ल ताइ कल्पे १३. ए आगार साधुने. उखित्तवि०-गाढी विगय गुड पकवान आदिक पोली ऊपरि मूकी हुइ ते उपाडी दूर करी ते पोली आचाम्ल ताइ कल्पे १४. ए आगार साधुने, पडुचमक्खि०सर्वथा रूषा मंडक आदिकने राख दूर करनेकू हाथ फेरे मंडा फेरे १५.
पञ्चक्खाण तिविहार करे तदा पाणीके छ आगार-पाणस्स लेवेण वा अलेवेण वा अच्छेण वा वहलेण वा ससित्थेण वा असित्थेण वा वोसरामि. अस अर्थ-पाण. जिस करी भाजन आदि खरडाइ ते खर्जुर आदिकनउ पाणी लेपकृत १. अलेवे० अलेप पाणी कांजिका प्रमुख २. अच्छेण० अच्छा निर्मल तत्ता पाणी ३. वहलेण. वहल डोहलउ तंदुल धोवल प्रमुख ४. ससित्थे० सीथ सहित उसामण आदि ५. असित्थे० सीथ रहित पाणी ६; ए ६ पाणी लेवे तो भंग नही. पच्चक्खाण करणेवाला वोसरामि कहै। गुरु करावणेवाला वोसरह कहै. श्रावकहूं आचाम्ल नीवीमे पाणी भोजन अचित्त करे, सचित्त न करे, अने श्रावकने आचाम्ल नीवीमे तीन आहारका त्याग जानना. नमोकारसीमे अने रात्रिभोजनमे साधुके च्यार ही आहारका त्याग निश्चै करी होय है, शेष पचक्खाण तिविहार चौविहार होय है. रात्रिभोजन १ पोरसि २ दोपहीरी ३ एकासणेमे श्रावकने दो आहार, तीन आहार, चार आहारका त्याग होवे है. ए सर्व पञ्चक्खाणका भेद जानना. ____ अथ च्यार आहारका खरूप लिख्यते-प्रथम अशनके भेद-शालि, ज्वारि, वरठी प्रमुख सर्व ओदन १, मूंग आदि सर्व दाल २, सत्तू आदि सर्व आटा ३, पेठ आदि सर्व तीमण ४, मोदक आदि सर्व पकवान ५, सूरण आदि सर्व कंद ६, मंडक आदि सर्व तली वस्तु ७, वेसण ८, विराहली ९, आमला १०, सैंधव ११, कउठपत्र १२, लीवुपत्र १३, लूण १४, हींग १५; ए सर्व अशनका भेद जानना. १.
___ पाण० पाणी कांजिक १, जव २, कयर ३, ककोडा आदिकनो धोवण ४, अवर सर्व शास्त्रोक्त धोवण ५, ए सर्व पाणी; साकरपाणी १ आंबिलपाणी इक्षु रसप्रमुख सर्व सरस पाणी. ए पाणीमे गिण्या पिण व्यवहारे अशन ही है. २.
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तत्त्व ]
नवतत्त्व संग्रह
१६७
खाइम० सुंखडी पतासा आदि १, सेक्या धान्य २, खोपरा ३, द्राख ४, वा ( ब ) दाम ५, अक्षोट ६, खर्जूर ७, प्रमुख सर्व मेवा काकडी, आम्र, फणस आदि सर्व फल.
साइम० सुंठ १, हरडे २, पीपल ३, मिरी ४, अजमो ५, जाइफल ६, कसेलउ ७, काथो ८, खयरडी ९, जेठी मधु १०, तज ११, तमालपत्र १२, एलची १३, लवंग १४, विडंग १५, काठा १६, विडलवण, १७, आजउ १८, अजमोद १९, कुलिंजण २०, पीपलामूल २१, चीणीकवाव २२, कचूरउ २३, मोथ २४, कंटासेलूउ २५, कपूर २६, सूचल २७, छोटी हरडे २८, बहेडा २९, कुंभडउ ३०, पोनपूग ३१, हिंगुलाष्टक ३२, हींगु वीस ३३, पुष्करमूल ३४, जवासामूल ३५, वावची ३६, वउलछाल ३७, धवछालि ३८, खयरछाली ३९, खेजडेकी छाल ४०; ए सर्व ' खादिम' कहिये. गुड 'खादिम' कहीए पिण व्यवहारे 'अशन' ही ज है, फोकोक्यो ( १ ) नीर साकर वासिउ १, पाडल वासिङ २, सुंठनउ पाणी ३, हरडइनउ पाणी, ए जो नितारीने छाण्या होइ तो 'खादिम' नही; तिविहारमे लेणा कल्पे. जीरा प्रवचनसारोद्वारमे 'स्वादिम' कथा अने श्रीकल्पवृत्तिमे 'स्वादिम' कला है, ए चार आहारनो विचार संपूर्णम्.
नीव छाल १, मूल पनडा शिली २, गोमूत्र ३, गिलो ३ (१) कडु ४, चिरायता ५, अतिविस ६, चीडी ७, सूकड ८, राख ९, हल६ १०, रोहिणी ११, उपलोठ १२, वेजत्रिफला १२, पांच कूलि भूनिव १४, घमासउ १५, नाहि १६, असंधिरोगणी १७, एलूउ १८, गुगल १९, हरडा दालि २०, वडणिमूल २१, वोरमूल २२, कंवेरीमूल २३, कयरनो मूल २४, पूयाड २५, आछी २६, मंजीठ २७, वालवीउ २८, कुमारी २९, वोडाथरी ३०, इत्यादि जे अनिष्टपणे इच्छा विना लीजे ते चारो आहारमे नही, 'अनाहार' ही ज जाणना, इति अनाहारः,
अथ विय स्वरूप - दूध १, घृत २, दही ३, तेल ४, गुड ५, पकवान ६, ए छ 'भक्ष्य विगय' है, अथ दूध-विगयके भेद ५ – गायका २, महिसका २, ऊंटणीका ३, बकरीका ४, भेडका ५, और दूध-विगय नही १. घृत अने दही ४ भेदे —ऊंटणी विना. अथ तेल - विगय ४ भेदे - तिल १, सरसव २, अलसि ३, करड ४, अथ गुड २ भेदे - ढीलालाला १, काठा २० पकवान - विगय जे घृत तेलथी तली.
अथ महाविगय ४ अभक्ष्य - कुत्तिना १, मर्खिना २, भमरिना २, ए मधु सहित. काष्ठका १ पीठीका २ मद्य २ भेदे. थलचर १, जलचर २, खेचर ३ का मांस तीन भेदे. माखण चार भेदे घृतवत् जानना. ए ४ अभक्ष्य जाननी.
अथ विगयके अंतर्गत तीस भेद. तीस भेद. प्रथम दूधनी पांच द्राक्ष सहित रांधिउ दूध ते 'पय' १, घणे चावल थोडा दूध ते 'खीर' २, अल्प चावल घणा दूध ते 'पेया' ३, तंदुलना चूर्ण सहित दूध रांध्या ते 'अवलेहि' कहीये ४, आछण सहित वितरेडिउ ते दूध 'दुग्धाटी' ५१ ए पांच दूधना विगयगत भेद जानना.
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१६८ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जराअथ धृतना ५-पकवान जिसमे तल्या ते 'दग्धघृतनिभंजन' कहीये १, दहीने तारी घी काढे ते वीस्पंदन २, औषधी पकाके काढ्या घी ३, घृत नीतार्या पीछे छाछ रही ते ४, औषधी करी रांध्या पचिउ घृत ५. ए पांच घृतना विगयगत भेद.
___ अथ दहीनी ५ करवो १, शिषरणी मीठा घाली दही मसल्या २, लूण सहित दही मथ्यो ३, कपडसे छाणी दही घोल ४, घोलवडा उकालिउ दही जे माहे वडा घोल्या ते ५. ए ५ दहीना विगयगत भेद जानना.
अथ तेलना ५-जिसमे पकवान तलिया ते 'तेलदग्धनिभंजन' १, तिलकुट्टि माहे जों गुड आदि घणा घाल्या होइ ते वासी राख्या पीछे विगयगत २, लाक्षा आदि द्रव्ये करी पच्यो तेल ३, औषध पची नितार्या तेल ४, तेलना मल ५; ए ५ तेलनी. ___अथ गुडनी ५-साकरना गुलवाणी १, उकालिउ २, गुडनी पात ३, खांडकी राव ४, अधकटिउ इक्षुरस; ए पांच गुडनी.
अथ पकवाननी ५-तवी भरी घीकी पूडे करी सगली भरी तिहां जे पाछे पूडा तले ते १, नवा धी अणघाले तवीमें जे तीन पूर उतयों पाछे जे पकवान उतरे ते २, गुडधाणी ३, पहिला कढाइहीमे सोहाली करी पाछे तिणे घी खरडी कडाहीमें जे लापसी आदिक करे ते ४, खरडी तवी मे जे पूडा कर्या ५. ए पांच पक्कानना विगयगत भेद. एवं ३०. ए नीवीमे लेणे नही कल्पते, गाढा कारण हूइ तो वात न्यारी.
अथ २२ अभक्ष्य लिख्यन्ते-गाथा"पंचुबर(रि) ५ चउ विगई ९ हिम १० विस ११ करगे य १२ सव्वमट्टी १३ य । रयणीभोयण १४ वयंगण १५ बहुवीय १६ मणंत १७ संधाणा(णं) १८ ॥१॥ विदलामगोरसाइं १९ अमुणियनामाइं पुप्फफलयाई २० ।
तुच्छफलं २१ चलियरसं २२ वजह वज्जाणि बावीसं ॥२॥" । इति गाथाद्वयं अनयोरर्थः-बडवंटा १, पीपलवंटा २, गृलिर ३, पीलुखण ४, कलुवर ५; ए ५ "उंबर' कहीए. इन पांचो माहे मसाने आकारे घणा त्रस जीव भयो होइ हे तिस वास्ते अभक्ष्य ५; मधु १, माखण २, मध ३, मांस ४ ए माहे तद्वर्णे निरंतर संमूछिम पंचेंद्री उपजे इस वास्ते अभक्ष्य माखण इहां छाछेथी अलग हुया जानना ९; हेमनि केवल असंख्य अप्काय भणी अभक्ष्य १०, विसउदर माहिला गंडोला आदि सर्व जीवने मारे अने मरण समय असावधानपणाना कारण ११, करहा गडाओले असंख्याता अप्काय भणी अभक्ष्य १२, खडीमरुहंड प्रमुख सर्व जातिनी मट्टी, मींडक आदिक पंचेंद्री जीवनी उत्पत्ति भणी अने आम वात आदि रोग उपजे तिस वास्ते अभक्ष्य १३, रात्रिभोजन एह लोक परलोक विरुद्ध १४, बहु बीजा पंपोट, रींगणा आदि फल जेह माहे जितने बीज ते माहे तीतने जीव १५; १ पञ्चोदुम्बरी चतस्रो विकृतयो हिमं विषं करकं च सर्वमृत्तिका च । रजनीभोजनं वृन्ताकं बहुबीजमनन्स(कायिक) सन्धानम् । द्विदलामगोरसे अज्ञाननामानि पुष्पफलानि । तुच्छफलं चलितरसं वर्जत वानि द्वाविंशतिम् ॥
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तत्त्व ]
नवतत्त्वसंग्रह
९.६९
घोलवडा जे काचा गोरस माह घाल्या वडा हुइ ते अभक्ष्य, तत्काल जीवनी उत्पत्ति होइ है, एवं सर्व मूंग आदि दो दल जानना. जेहनी दो दाल होह अने घाणी पीड्या तेल न निकले ते काचा गोरसमे मिल्या अभक्ष्य ए विदल आमगोरसका अर्थ १६, अनंतकाय ३२ अभक्ष्य ते बत्तीस आगे कहेंगे १७; संघाण कहीये अथाणा अर्थात् आचार- विल्ल, अंब, पाडल, नींबू आदि ते जीवनी उत्पत्ति रस चलतके कारण अभक्ष्य १८, वगण काम दीपावे अने नींद घनी आवे अने आकार बुरा १९, अजाण फल फूल आदि कदे (१) विषफल होइ २०; तुच्छ फल जिसके घणे खाणे तृपित न होइ २१; चलित रस जे कुहिया अन्न आदिक उदन पहर उपरांत दही, १६ पहर, छाछ १२ पहर, करंबा ८ पहर, जाडी राबडी १२ पहर, पतली रावडी ८ पहर, लास ४ पर, पूडा ४ पर, रोटी ४ पहर, कांजीके वडे ४ पहर, कोरे वडे ४ पहर, खचडी ४ पर, पीछे सर्व रस चलित होइ है जोकर तप्त आदि कारणे जलदी रस चले तो विवेकीये पहिला ही वरजणा, ए व्यवहारकी अपेक्षा है. एवं २२ वर्जनीयं..
ए
1.
अथ बत्तीस अनंतकाया - सर्व कंद जाति सूरणकंद १, वज्रकंद २, आली हलद ३, आदउ ४, आला कथूर ५, सतावरि ६, विराली ७, कुमारि ८, थोहर ९, गिलो १०, हसण ११, वसना करल १२, गाजर १३, लाणा जिसकूं वाली साजी करे १४, लोटो पणन कंद १५, गिरिकर्णिका वेलि १६, नवा ऊगता किसलय पत्र १७, खेरिं सुया १८,
कंद १९, आला मोथ २०, लवण वृक्षकी छाल २१, खेलूडा २२, अमृतवेल २३, मूली २४, भूमिफोडा जे वर्षाकाले छत्रडा उपजे २५, विल्हा जे कठुल धान्य अंकूरिया हुइ २६, जे छेद्या पीछे ऊगे २७, सूयरवाल जे मोटउ होइ २८, कोमल आंबली जेह माहे चीचक संचरिउ नही २९, पलंक ३०, आलू ३१, पिंडालू ३२, ए अनंतकाय प्रसिद्ध है और अनंतकायके लक्षण श्रीपन्नवणाजीके (प्रथम) पद (सू. २५) थी जानना "चकगं भज" इत्यादि.
अथ भंग १४७ श्रावकके श्रीभगवतीजीसे जानने करण कारवण आदि गुरुमुखे पचक्खाण करे; इहां गुरु अने श्रावक आश्री च्यार भांगा है. ते किम ? गुरु पञ्चकखाणनउ जाण अने श्रावक पच्चक्खाणनउ जाण, ए भांगा शुद्ध १, अने गुरु जाणकार पिण श्रावक अजाण तर तेहने पच्चक्खाण संखेपथी सुणा कर भेद करावे ए भांगा शुद्ध २, तथा गुरु अजाणपण श्रावक जाणकार ए भांगामां भलउ ३, तथा श्रावक अजाण अने गुरु अजाण, भांगा सर्वथा अशुद्ध ४ एवं च्यार भांगा जानना.
अथ पञ्चक्खाणकी ६ शुद्धि - (१) फासि - विशुद्धिसे यथावत् उचित काल प्राप्त, (२) पालिय- वारवार स्मरण करणा, (३) सोहिय-गुरुदत्त शेष भोजन करणा, (४) तीरियआपणे काल तक पूरी करे, (५) किद्दिय-भोजन के अवसर फेर स्मरण करे, (६) आराहियउपरिले बोल पूरे करे ते आराध्या अथवा छ शुद्धि प्रकारांतरे - सहहणा शुद्ध १, जानना शुद्ध २, विनयशुद्धि ३, अनुभासण शुद्ध ४, अनुपालनशुद्ध ५, भावशुद्ध ६. इस विध पचक्खाण पालीने अनंत जीव तरे, आगे तरसे इति समत्तं,
२२
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[६ संवर
श्रीविजयानंदसूरिकृत ___अथ आगे श्रावकके बारह व्रतांके सर्व भंगका खरूप लिख्यते--
B
एक संयोग १
ए.सं.२ द्वि.,१
| ४८ ।
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३६० २१६० ६४८० ७७७६
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او مدام اسمممم ماه ها به اتمام مرا به اسم امه امام امداد سهام ممر مع اسمه امام امام اسامه ام م 1
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३६ २१६ १२१६ ७७७६ ४६६५६
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५४० ४३२० १९४४० ४६६५६ ४६६५६
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४२ ७५६ ७५६० ४५३६० १६३२९६ ३२६५९२ २७९९३६
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७७७६ ४६६५६ २७९९३६
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२१६ १२९६ ७७७६
१००८ १२०९६ ९०७२० ४३५४५६ १३०६३६८ २२३९४८८ १६७९६१६
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भो २७९९३६ ६६२ . अ. १६७९६१६
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नवतत्त्वसंग्रह
१७१
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१६३२९६ ९७९७७६ ३९१९१०४ १००७७६९६ १५११६५४४ २००७७६९६
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७२ २३७६ ४७५२० ६४१५२० ६१५८५९२ ४३११०१४४ २२१७०९३१२ ८३१४०९९२० २२१७०९३१२० ३९९०७६७६१६ ४३५३५६४६७२ २१७६७८२३३६
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१७२
मा
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[६ संवरप्रथमव्रते षट् भंगा त एव सप्तगणाः कथं? षट्गुणने ३६ द्वितीयत्रतस्य ६ षट् प्रथमव्रतस्य प्रक्षेप्यन्ते यथा ४८; एवं सर्वत्र ७ गुणाः षट्प्रक्षेपः
प्रा: १,२,३,४,५,६, ३६ प्रा १,२,३,४,५,६ भंगा एकसंयोगे १..
द्विकसंयोग२ प्रा११११११ प्रा २२२२२२
प्रा३३३३३३ मृ १२३४५६ मृ१२३.४५६
मृ १२३४५६
अ६६६६६६ त्रिकसंयोग ३ प्रा४४४४४४ प्रा ५५५५५५ प्रा ६६६६६६
एवं मृ १२३४५६ र १२३४५६ मृ.१२३४५६ अ६६६६६६. अ६६६६६६६६६६६६
१२१६, एवं अग्रेऽपि भावना कार्या. प्रा११११११. प्रा४४४४४४ मृ१२३४५६ मृ१२३४५६ प्रा२२२२२२ प्रा५५५५५५ मृ१२३४५६ मृ१२३४५६ द्वितीयव्रतस्य षट्, एवं १२, । मृ८२ १८१ प्रा३३३३३३ प्रा ६६६६६६ । एवं ३६ मध्ये प्रक्षेपे ४८ | प्रा ९ ३२७
। ८१ मृ१२३४५६ मृ१२३४५६
१२४३ ९९९
७२९ १७२९० एवं अग्रेतन अष्ट यंत्र ज्ञेयं १२ मे ३३३/२२२/१११ क का नव भेग्युक्त २ भेद ४९ भंगयंत्र, म १ व २ का ३ मावा ४ ३२१ ३२१
अनु
माका ५वाका ६ मावाका ७ कर १ करा२ कराकरा ३ सप्त
त्रि २१; एह एकवीस भंगाका स्वरूपम्. नव भङ्ग्या तु प्रथमत्रते भगा नव ९, ततो द्विकादि व्रते संयोगे दशगुणित नवकप्रक्षेपक्रमेण तावद् गन्तव्यं यावदेकादशवेलायां द्वादशत्रतसंयोगभङ्गसङ्ख्या ९९९९९९९९ ९९९९; ए सर्व नवभंगीनां मांगा २२२१११
कका ३२१ ३२१ ।
षट्भग्युत्तरभेद २१ भंगयंत्रम् म व का
...
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૨૨૦
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७९२ ९२४ ७९२ ४९५
- ५९०४९
५३१४४१ ४७८२९६९ ४३०४६७२१ ३८७४२०४८९ ३४८६७८४४०१ ३१३८१०५९६०९ २८२४२९५३६४८१
१६०३८० ३२४७६९५ ४६७६६८०८ ४९१०५१४८४ ३७८८१११४४८ २१३०८१२६८९५ ८५२३२५०७५८० २३०१२७७७०४६६ ३७६५७२७१५३०८ २८२४२९५३६४८१
२२०
६
३
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।
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तत्त्व ]
एह एकविंशति भंग न्यायेन
कर १ करा २ अनु ३ कर । करा ४ करा अनु ५ कार अनु ६ काका अनु ७ सप्त सप्त गुणा ४९ भंगी भवंति
एकसो सैतालीस १४७ भंगी न्यायेन
444444
नवतत्त्वसंग्रह
२१
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९२६१
१९४४८१
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८५७६६१२१
१८०१०८८५४१
३७८२२८५९३६१
७९४२८००४६५८१ १६६७९८८०९७८२०१ ३५०२७७५००५४२२२१
७३५५८२७५११३८६६४९
१२
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२२०
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१
१२
६६
४९
२४०१ ११७६४९ २२० ५७६४८०१ ४९५ २८२४७५२४९ ७९२
१३८४१२८७२०१ ९२४ ६७८२३३०७२८४९ ३३२३२९३०५६९६०१ ४९५ १६२८४१३५९७९१०४४९
२२० ६६
७९७९२२६६२९७६१२००१
३९०९८२१०४८५८२९८८०४९ १९१५८१२३१३८०५६६४१४४०१
५८८
१५८४६६
२५८८२७८० २८५३५७६४९५
२२३७२०३९७२०८ १२७९९३४९३७३७२४
७९२ ५३७१५२६७३६९६४०८
२५२
२९१०६
२०३७४२०
९६२६८०९५
१२
१
३२३४६०७९९२
७९२४७८९५८०४ १४२६४६२१२४४७२
१८७२२३१५३८३६९६ १७४७४१६१०२४७८२० ११००८१२१४४५६१२६६ ४२०३३३०००६५०६६४२ ७३५५८२७५११३८६६४१
१६४५०३००६३१९५२४९५ ३५८२५०९९१५४०२९८७८० ५२६६२८९५७५६४२३९२०६६ ४६९१७८५२५८२९९५८५६५८८ १९१५८१२३१३८०५६६४१४४०१
१४७ १२ १७६४ २१६०९ ६६ १४२६१९४ ३१७६५२३ २२० ६९८८३५०६०
४६६९४८८८१ ४९५ २३१३३९६९६०९५
६८६४१४८५५०७ ७९२ ५४३६४०५६५२१५४४
१००९०२९८३६९५२९ ९२४ ९३२३४३५६९३४४४७९६
१४८३२७३८६०३२०७६३ ७२२ ११७४७५२८९७३७४०४४२९६
२१८०४१२५७४६७१५२१६१ ४९५ १०७९३०४२२४६२४०३१९६९५
३२०५२०६४८४७६७१३६७६६७ २२० ७०५१४५४२६६४८७७००८८६७४० ४७११६५३५३२६०७६९१०४७०४९ ६६ ३१०९६९१३३१५२१०७६०९१०५२३४ ६९२६१३९६९२९३३३०५८३९१६२०३ १२ ८३११३५६८३१५१९९६७००६९९४४३६ १११८१५४०६४८६११९५९३८३५६८१८४१ १ १११८१५४०६४८६११९५९३८३५६८१८४१
१७३
१२८५५००२६३१०४९२१५
२४४१४०६२४९९९९९९९९९९९९
एकविंशतिभङ्गाः – प्रथमत्रते एकविंशतिभङ्गास्ततो द्विकादिवतसंयोगे द्वाविंशतिगुणितं एकविंशतिप्रक्षेपक्रमेण तावद् गन्तव्यं यावदेकादशवेलायां द्वादशवतसंयोगे भङ्गसङ्ख्या । एकोनपञ्चाशद् भङ्गाः - प्रथमवते एकोनपञ्चाशद् भङ्गास्ततो द्विकादिवतसंयोगे पञ्चाशद्गुणितं एकोनपञ्चाशत्प्रक्षेपक्रमेण तावद्० ।
१३०४४३९०७७१९६११५३३३५६९५७६९५
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सप्तचत्वारिंशत्शतभङ्गाः-प्रथमवते सप्तचत्वारिंशत्रशतं भङ्गाः द्विकादिसंयोगे अष्टचत्वारिंशत्शतगुणितं सप्तचद्वारिंशत्शतप्रक्षेपक्रमेण तावद्।
प्रा० १ ० २ अ० ३ मथुन परि०५ | दिग ६ | भोगो०७/ अन०८ | सामा०९ दिशा० १०
पौषध ११ । अतिथि० १२.
मने करी
व । करूनही मने करी करावु नही ६ | ३६ २१६/ १२९६ , ७७७६ । ४६६५६ / २७९९३६ १६७९६१६ १००७७६९६ / ६०४६६१७६ ३६२७९७०५६
वचने करी कलं नही १२/ ७२ ४३२, २५९२, १५५५२ ९३३१२ ५५९८१२ ३३५९२३२ २०१५५३९२ | १२०९३२३५२/ ७२५५९४११२
श्रीविजयानंदसूरिकृत
वचने करी करावं नही १८/१०८ / ६४८
३८८८ । २३३२८ | १३९९६८ / ८३९८०८ /५०३८८४८ ३०२३३०८८ /१८१३९८५२८, १०८८३९११६८
काया करी करूं नही |
८६४
५१८४ । ३११०४ | १८६६२४ १११९७४४ ६७१८४६४ ४०३१०७८४ २४१८६४७०४ १४५११८८२२४
काया करी
करावं नही ३० | १८० १०८०
६४८० | ३८८८८० | २३३२८० १३९९६८० ८३९८०८०/५०३८८४८० |३०२३३०८८० | १८१३९८५२८०
१ संयोगी २ सं०३ सं०४ सं० ५ सं० । ६सं० । ७ सं० । ८सं० । ९सं० १० सं० । ११ सं० । १२ सं० ६ ३६ २१६ १२९६ ७७७६ । ४६६५६ | २७९९३६ १६७९६१६१००७७६९६६०४६६१७६ ३६२७९७०५६ २१७६७८२३३६
एग वए छ भंगा, निद्दिट्ठा सावयाण जे सुत्ते । ते चिय वयवुड्डीए, सत्तगुणा छज्जुया कमसो ॥१॥
॥
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह इति सर्वत्रतानां भङ्गोत्पत्तिकारिका मंतव्या इति श्रावकवतानां भङ्गाः समर्थिताः ।
इति आत्मारामसङ्कलितायां संवरतत्त्वं संपूर्णम् ।
अथ 'निजेरा' तत्त्व लिख्यते-अथ 'निर्जरा' शब्दार्थ-'निर्' अतिशय करके 'जु' कहता हानि करे कर्मपुद्गलनी ते 'निर्जरा' कहीये. अथ निर्जराके बारा भेद लिख्यतेअनशन १, ऊनोदरी २, भिक्षाचरी ३, रसपरित्याग ४, कायक्लेश ५, प्रतिसंलीनता ६; प्रायश्चित्त १, विनय २, वैयावृत्त्य ३, स्वाध्याय ४, ध्यान ५, व्युत्सर्ग ६; एवं १२. पहेले ६ भेद बाह्य निजेराके जानने; आगले ६ भेद अभ्यंतर निजेराके जानने, तपवत्. इस तरे निर्जराके भेदोंका विस्तार उववाइ शास्त्रसे जानने. इहां तो किंचित् मात्र ध्यान च्यारका खरूप लिख्यते श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणविरचित ध्यानशतकथी।
अथ ध्यानखरूप दोहराशुक्ल ध्यान पावक करी, करमेंधन दीये जार; वीर धीर प्रणमु सदा, भवजल तारनहार १ अथ आत्तध्यानके चार भेद कथन. सवईया इकतीसाद्वेषहीके बस पर अमनोग विसे घर तिनका विजोग चिंते फेर मत मिलीयो शूल कुण्ठ तप रोग चाहे इनका विजोग आगेकू न होय मन औषधिमें भिलियो राग बस इष्ट विसे साता सुष माहि लिये नारी आदि इष्टके संजोग भोग किलियो इंद चंद धरनिंद नरनको इंद थऊं इत्यादि निदान कर आरतमे झिलियो १ अथ स्वामी अने लेश्या कथन. सवईया ३१ साराग द्वेष मोह भयो आरतमे जीव पर्यो बीज भयो जगतरु मन भयो आंध रे किसन कपोत नील लेसा भइ मध मही उतकृष्ट जगनमे एकही न सांध रे आरतके वस पर्यो नर जन्म हार कर्यों चलत दिषाइ हाथ चढ चहूं कांध रे आतम सयाना तोकू एही दुषदाना जाना दाना मरदाना है तो अब पाल बांध रे २ अथ आर्तके लिंगरोद करे सोग करे गाढ स्वर नाद करे हिरदेवू कूट मरे इष्ट के विजोग ते चित्त मांजि षेद करे हाय हाय साद करे वदन ते लाल गिरे कष्टके संजोग ते निंदे कृत आप पर रिद्धि देष चित ताप चाहे राग फाहे मेरे ऐसा क्यु न जोग ते विसेका पिया सामन आसा पासा भासा वन आलसी विसेमे गृद्ध मूढ मति जोग ते ३ इति आर्तध्यान संपूर्णम्. अथ रौद्र ध्यानके चार भेदनिघृण चित्त करी जीव वध नीत धरी वेध बंध दाह अंक मारण प्रणाम रे माया झूठ पिशुनता कठन वचन भने एक बृ (ब)म जग मने नाना नही काम रे पंचभूतरूप काया देवकू कुदेव गाया आतम सरूप भूप नही इन ठाम रे छाना पाप करे लरे दुष्ट परिणाम धरे ठगवासी रीत करे दूजा भेद आम रे ४
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श्री विजयानंदसूरिकृत
[ ७ निर्जरा
पर धन हरे क्रोध लोभ चित धरे दूर दिल दया करे जीव वध करी राजी है पापसे न डरे कष्ट नरकके गरे परे तिनकी न भीत करे कहे हम हाजी है। मांस मद पान करे भामनि लगावे गरे रात दिन काम जरे मन हुये राजी है. raat आग जरे जमनकी मार परे रोय रोय मरे जिहां अल्ला है न काजी है ५ अथ चौथा भेद
साद आद साधनके धनकूं समार रपे कारण विसेके सब मेलत महान है वीणा आद साद पूर तरी गंध कपूर मोदक अनेक क्रूर ललना सुहान है. अमनोग से उदास दुष्ट मनन विसास पर घात मन धरे मलिन अग्यान है। आतमसरूप कोरे तप जप दान चोरे ग्यानरूप मारे कोरे टरे रुद्र ध्यान है ६ अथ स्वामी
राग द्वेस मोह भरे चार गति लाभ करे नरकमे परे जरे दुख की अगन से किसन कपोत नील संकलेस लेस तीन उतकिरू ( क ) ट रूप भइ गइ है जगनसे मोहकी मरोर पगे कामनीके काम लगे निज गुन छोर भगे होरकी लगनसे
त जिन टारी भय है धरम धारी मात तात सुत नारी जाने है ठगनसे ७ अथ लिंग ४ कथन -
वि. माहे बहुवार जीव वध आदि चार चिंतन कर करत लिंग प्रथम कहा है बहु दोस एक दोन तीन चार चिंते सोय मोहमे मगन होय मूढ ललचातु है नाना दोस अमुक अमुक प्रकार करी मार गारू पार डारु रिदेमे ठरातु है. आमरण दोस फाही अंतकाल छोडे नाही जगमे रुलाइ भव भ्रमण करातु है ८ अथ कृत ( कर्त ) व्य
-रुद्रध्यान पर्यो जीव पर दुष देष कर मनमे आनंद माने ठाने न दया लगी पाप करी पछाताप मनसे न करे आप अपर करीने पाप चिते मेरिं झालगी किसकी न सार करे निरदयी नाम परे करथी न दान करे जरे कामदा लगी कही समझाया फिर जात उर झाया समझे न समझाया मेरे कहे की कहा लगी ९
-
इति रौद्र ध्यान संपूर्णम् ॥ २ ॥ अथ धर्मध्यानका स्वरूप लिख्यते -द्वार १२भावना १, देश २, काल ३, आसन ४, आलंबन ५, क्रम ६, ध्यातव्य ७, ध्याता ८, अनुप्रेक्षा ९, लेश्या १०, लिंग ११, फल १२. तत्र प्रथम भावना ४ - ज्ञान १, दर्शन २, चारित्र ३ वैराग्य ४. अथ प्रथम 'ज्ञान' - भावना, सवईया इकतीसा -
यथावत् जोग बही गुरुगम्य ग्यान लही आठ ही आचार ही ग्यान सुद्ध धर्यो है स्थानके अभ्यास करी चंचलता दूर दरी आसवास दूर परी ग्यानघट भर्यो है.
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तत्त्व ]
नवतत्त्व संग्रह
प्रकट तुरंग रंग कूदित विहंग संग मन थिर भयो जुं निवात दीप जर्यो है ग्यान सार मन धार विमल मति उजार आतम संभार थिर ध्यान जोग कर्यो है १ इति 'ग्यान' भावना. अथ 'दर्शन' - भावना -
संखा कंखा दूर करी मूढता सकल हरी सम थिर गुन भरी टरी सब मोहनी मिथ्या रंग भयो भंग कुगुर कुसंग फंग सतगुर संग चंग तत्त वात टोहनी निर्वेद सम मान दयाने संवेग ठान आसति करत जान राग द्वेस दोहनी ध्यान केरी तान धरे आतमसरूप भरे भावना समक करे मति सोहनी १ इति. अथ ' चारित्र' - भावना -
-भावना
उपादान नूतन करम कोन करे जीव पुव्व भव संचित दगध करे छारसी सुभका गहन करे ध्यान तो धरम धरे विना ही जतन जैसे चाकर जुहारसी चातको रूप धार करम पषार डार मार धार मार बूंद गिरे जैसे ठारसी करम कलंक नासे आतमसरूप पासे सत्ताको सरूप भासे जैसे देवे आरसी १ इति अथ 'वैराग' -२ चक्रपति विभो अति हलधर गदाधर मंडलीक रान जाने फूले अतिमानमे रतिपति विभो मति सुखनकू मान अति जगमे सुहाये जैसे वादर विहान मे रंभा अनुहार नार तनमे करे सिंगार पिनक तमासा जैसे वीज आसमानमे पवन झकोर दीप बुझत छिनकमा जिऐसे बुझ गये फिर आये न जिहानमे १ खासा खाना खाते मनमाना सुख चाते ताते जानते न जात दिन रात तान मानमे सुंदर सरूप वने भूषनमे वने वने पोर समेसने अने वच मद मानमे
गेह ने देह संग आस लोभ नार रंग छोरके विहंग जैसे जात असमान मे पवन झकोर दीप बुझत छिनकमां जिऐसे बुझ गये फिर आये न जिहानमे २ रोयां की घरे परी रापत न एक घरी प्रिया मन सोग करी परीकूने जाइ रे माता हुं विहाल कहै लाल मेरो गयो छोर आसमान माही मेरी पूरी हुं न काह रे मिल कर चार नर अरथीने घर कर जगमे दिखाइ कर कूटे सिर माइ रे पीछे ही तमासा तेरो देषेगा जगत सब आपना तमासा आप क्यूं न देषे भाइ रे १३ हाथी थी छोर करी धाम वाम परहरी ना तातां तोर करी घरी न ठराइ रे पान पीन हार यार कोउ नही चले नार आपने कमाये पाप आप साथ जाइ रे सुंदरसी वपु जरी छारनमे छार परी आतम ठगोरी भोरी मरी घोषो पाइ रे पीछेहि तमासा तेरो देषेगा जगत सब आपना तमासा आप क्यूं न देषे भाइ रे १४ इति 'भावना' द्वार संपूर्णम्. अथ 'देश' द्वारमाह- कुशील संगवर्जन सवईया इकतीसा - भामनि पसु ने पंड रहित स्थान चंग विजन कुसील जनसंगत रहतु है द्यूतकार १ हस्तिपार २ सवतिकार ३ नार ४ छातर पवनहार ५ कुट्टिनी सहतु है
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१७८ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जरानट विट भांड रांड पर घर नित हांड एही सब दर छांडकु 'सील' कहतु है ध्यान दृढ मुनि मन सुन्य गृह ग्राम बन तथा जना कीरण विसेस न लहतु है ? मन वच काये साधि होत है जहां समाधि तेही देस थानक धियानजोग कहे है पृथी (थ्वी) आप तेज वन बीज फूल जीव धन कीट ने पतंग भंग जीव वधन हे है ऐसा ही सथान ध्यान करनेके जोग जान संग एकलो विसेस नही लहे है एही देस द्वार मान ध्यान केरा वान तान भिष्ट कर अरि थान सदा जीत रहे है २ इति 'देश' द्वार २. अथ 'काल' द्वारमाह-दोहराजोग समाधिमे वसे, ध्यान काल है सोय; दिवस घरीके कालको, ताते नियम न कोय १ इति 'काल' द्वार ३. अथ 'आसन द्वार-दोहरासोवत बैठे तिष्ठते, ध्यान सवी विध होय; तीन जोग थिरता करो, आसन नियम कोय १ इति 'आसन' द्वार ४. अथ 'आलंबन' द्वार, सवईया इकतीसावाचन पूछन कित बार बार फेरे नित अनुपेहा सुद्ध मेहा धरम सहतु है समक श्रुत समाय देस सब वृत्ति थाय चारो ही समाय धाय लाभ लहतु है विषम प्रसाद पर चरवेको मन कर रजुकू पकर नर सुपसे चरतु है ऐसो 'धर्म' ध्यान सौध चरवेको भयो चौध वाचनादि 'आलंबन' नामजुं कहतु है १
इति 'आलंबन' द्वार ५. अथ 'क्रम' द्वार-योगनिरोधविधि, दोहराप्रथम निरोधे मन सुद्धी, वच तन पीछे जान तन वचन मन रोधे तथा, वचन तन मन इक ठान १
इति 'क्रम' द्वार ६. अथ 'ध्यातार' द्वार, सवैया ३१ साधरमका ध्याता ग्याता मुनिजन जग त्राता जगतकू देत साता गाता निज गुणने छोरे सब परमाद जारे सब मोह माद ग्यान ध्यान निराबाद वीर धीर थुणने खीण उपसंत मोह मान माया लोभ कोह चारों गेरे खोह जोह अरि निज मुणने आलम उजारी टारी करम कलंक भारी महावीर वैन ऐननीकी भांत सुणने १ इति ध्यातार' द्वार ७. अथ 'ध्यातव्य द्वार. प्रथम आज्ञाविज(च)यनिपुन अनादि हित मोल तोलके न कित कथन निगोद मित महत प्रभावना भासन सरूप धरे पापको न लेस करे जगत प्रदीप जिनकथन सुहावना जड मति बृझे नहि नय भंग मूझे नहि गमक परिमान गेय गहन मुलावना आरज आचारजके जोग विना मति तुच्छ संका सब छोर वाद वारके कहावना १
अथ अपायविज(च)यकुटुंबके काज लाज छोरके निलज्ज भयो ठान तअका जतन सीत घाम सहे है चिंता करी चकचूर दुषनमे भरपूर उड गयो तननूर मेरो मेरो कहे है पाप केरी पोटरी उठाय कर एक रोतूं रीक झींक सोग भरे साथी इहां रहे है नरक निगोद फिरे पापनको हार गरे रोय रोय भरे फेर ऊन सुख चहे है २
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बर्खा
नवतत्त्वसंग्रह अथ विपाकविज(च)यकरम सभावथित रस परदेस मित मन वच काये धित सुभासुभ कर्यों है मूल आठ भेद छेद एकसो अठावना है निज गुन सब दबे प्राणी भूल पर्यो है राजन ते रंक होत ऊंच थकी नीच गोत कीट ने पतंग भंग नाना रूप धर्यो है छेदे जिन कर्म भ्रम ध्यानकी अगन गर्म मानत अनंग सर्म धर्मधारी ठयों है ३ __ अथ संठाणविज(च)यआदि अंत बेहूं नही वीतराग देव कही आसति दरव पंचमय स्वयं सिद्ध है नाम आदि भेद अहुपुव्व धार कहे वहु अधो आदि तीन भेद लोक केरे किद्ध है
पिति वले दीप वार नरक विमानाकार भवन आकार चार कलस महिद्ध है - आतम अपंड भूप ग्यान मान तेरो रूप निज ग पोल लाल तोपे सब रिद्ध है ४ इस सवईयेका भावार्थ आगे यंत्रोमे लिखेंगे तहांसे जानना इति संस्थानविज(च)य इति 'ध्यातव्य द्वार ८. अथ 'अनुप्रेक्षा' द्वार-ध्यान कर्या पीछे चितना ते 'अनुप्रेक्षा.' सवईया ३१ सा, समुद्रचिंतन
आपने अग्यान करी जम्म जरा मीच नीर कषाय कलस नीर उमगे उतावरो रोग ने विजोग सोग स्वापद अनेक थोग धन धान रामा मान मूढ मति वावरो मनकी घमर तोह मोहकी भमर जोह वातही अग्यान जिन तान वीचि धावरो संका ही लघु तरंग करम कठन द्रंग पार नही तर अब कहूं तो हे नावरो १ अथ पोतवरननसंत जन वणिग विरतमय महापीत पत्तन अनूप तिहा मोषरूप जानीये अवधि तारणहार समक बंधन डार ग्यान है करणधार छिदर मिटानीये तप वात वेग कर चलन विराग पंथ संकाकी तरंग न ते पोभ नही मानीये सील अंग रतन जतन करी सौदा भरी अवाबाध लाभ धरी मोप सौध ठानीये २ इति अनुप्रेक्षा द्वार ९. अथ अनुप्रेक्षा चार कथन, सवैया ३१ साजगमे न तेरो कोउ संपत विपत दोउ ए करो अनादिसिद्ध भरम भुलानो है जासो तूंतो माने मेरो तामे कोन प्यारो तेरो जग अंध कूप झेरो परे दुख मानो है मात तात सुत भ्रात भारजा बहिन आत कोइ नही त्रात थात भूल भ्रम ठानो है थिर नही रहे जग जग छोर धम्म लग आतम आनंद चंद मोष तेरो थानो है ३ इति अनुप्रेक्षा द्वार ९. अथ 'लेश्या' द्वारकथन, दोहरापीत पउम ने सुक्क है, लेया तीन प्रधान सुद्ध सुद्धतर सुद्ध है, उत्कट मंद कहान १ इति लेश्याद्वार १०. अथ 'लिंग' द्वार, सवैया इकतीसाधमा धम्म आदि गेय ग्यान केरे जे प्रमेय सत सरद्धान करे संका सब छारी है आगम पठन करी गुरवैन रिदे धरी वीतराग आन करी खयंबोध भारी है
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१८० श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जराचार ही प्रकार करी मिथ्या भ्रम जार जरी सतका सरूप धरी भय ब्रह्मचारी है आतम आराम ठाम सुमतिको करी वाम भयो मन सिद्ध काम फूलनकी वारी है ? इति 'लिंग'द्वारम्. अथ 'फल'द्वारकीरति प्रशंसा दान विने श्रुत सील मान धरम रतन जिन तिनही को दीयो है सुरगमे इंद भूप थान ही विमानरूप अमर समरसुप रंभा चंभा कीयो है नर केरी जो न पाय सुप सहु मिले धाय अंत ही विहाय सब तोपरस पीयो है आतम अनंत बल अघ अरि तोर दल मोपमे अचल फल सदा काल जीयो है ? इति फलम्. इति धर्मध्यानं संपूर्णम् ३.
अथ शुक्ल ध्यान लिख्यते-अथ 'आलंबन' कथन, दोहराखंति आर्जव मार्दव, मुक्ति आलंबन मान; सुकल सौधके चरनको, एही भये सोपान १ इति आलंबन. अथ ध्यानक्रमस्वरूप, सवैया ३१ सात्रिभुवन फस्यो मन क्रम सो परमानु विषे रोक करी धर्यो मन भये पीछे केवली जैसे गारुडिक तन विसळू एकत्र करे डंक मुंष आन धरे फेर भूम ठेवली ध्यानरूप वल भरी आगम मंतर करी जिन वैद अनु थकी फारी मनने वली ऐसे मन रोधनकी रीत वीतराग देव करे धरे आतम अनंत भूप जे वली १ जैसे आगई धनके घट ते घटत जात स्तोक एध दूर कीये छार होय परी है जैसे घरी कुंड जर घर नार छेर कर सने सने छीज तर्जु मन दोर हरी है जैसे तत्ततवे धर्यो उदग जर तपस्यो तैसें विभु केवलीकी मनगति जरी है ऐसें वच तन दोय रोधके अजोगी भये नाम है 'सेलेस' तब ए जनही करी है २
अथ शुक्ल ध्यानके च्यार भेद कथन, सवैयाएक हि दरव परमानु आदि चित धरी उतपात व्यय ध्रुवस्थिति भंग करे है पुन्य ग्यान अनुसार पर जाय नानाकार नय विसतार सात सात सात सत धरे है अरथ विजन जोग सविचार राग विन भंगके तरंग सब मन वीज भरे है प्रथम सुकल नाम रमत आतमराम पृथग वितके आम सविचार परे है १ इति प्रथम. एक हि दरवमांजि उतपात व्यय ध्रुव भंग नय परि जाय एकथिर भयो है निरवात दीप जैसे जरत अकंप होत ऐसे चित धोत जोत एकरूप ठयो है अरथ विजन जोग अविचार तत जोग नाना रूप गेय छोर एकरूप छयो है 'एकतवितर्क' नाम अविचार सुप धाम करम थिरत आग पाय जैसे तयो है २ इति दूजा. विमल विग्यान कर मिथ्या तम दूर कर केवल सरूप धर जग ईस भयो है मोषके गमनकाल तोर सब अघजाल ईषत निरोध काम जोग वस ठयो है तनु काय क्रिया रहे तीजा भेद वीर कहे करम भरम सब छोरवेको थयो है सूपम तो होत क्रिया अनिवृत्त' नाम लीया तीजा भेद सुकर मुकर दरसयो है ३ इति तीजा.
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तत्त्व
नवतत्त्वसंग्रह ईस सब कर्म पीस मेरु नगरा जईस ऐसे भयो थिर धीस फेर नही कंपना कदे हीन परे ऐसो परम सुकल भेद छेद सब क्रिया ऐही नाम याको जपना प्रथम सुकल एक योग तथा तीनहीमे एक जोग माहे दूजा भेद लेइ ठंपना काय जोग तीजो मेद चौथ भयो जोग छेद आतम उमेद मोष महिल धरंपना ४ जैसे छदमस्थ केरो मनोयोग ध्यान करो तैसे विभु केवलीके काय छोरे ध्यान ठेरे है विना मन ध्यान कह्यो पूरव प्रयोग करी जैसे कुंभकारचाक एक वेरे है पीछे ही फिरत आप ऐसे मन करे थाप मन रुक गयो तो ही ध्यानरूप लेरे है वीतराग वैन ऐन मिथ्या नही कहै जैन ऐसे विभु केवलिने कर्म दूर गेरे है ५ इति चौथा. अथ अनुप्रेक्षाकथन, सवैया ३१ सापापके अपथ केरी नरकमे दुप परे सोगकी अगन जरे नाना कष्ट पायो है गर्भके वास वसे मूत ने पुरीष रसे जम्म पाय फेर हसे जरा काल खायो है फेर ही निगोद वसे अंत विन काल फसे जगमे अभव्य लसे अंत नही आयो है राजन ते रंक होत सुष मान देप रोत आतम अउ जोत धोत चित ठायो है ? ___ अथ लेश्याकथन, दोहराप्रथम भेद दो सुकलमे, तीजा परम वखान; लेश्यातीत चतुर्थ है, ए ही जिनमतवान १ अथ लिंगकथन, सवईया एकतीसापरीसहा आन परे ध्यान थकी नाही चरे गज मुनि जैसे परे ममताकू छोरके देवमाया गीत नृत मूढता न होत चित सूपम प्रमान ग्यान धारे भ्रम तोरके दीषे जो ही नेत्रको ही सब ही विनास होही निज गुन टोही तोही कहूं कर जोरके घर नर नार यार धन धान धाम वार आतमसे न्यार धार डार पार दोरके ? इति लिंग. अथ फलदेव इंद चंद पंद दोनोचर नारविंद पूजन आनंद छंद मंगल पठतु है नाकनाथ रंभापति नाटक विबुध रति भयो हे विमानपति सुप न घटतु है हलधर चक्रधर दाम धाम वाम घर रात दिन सुषभर कालयूं कटतु है जोग धार तप ठये अघ तोर मोष गये सिद्ध विभु तेरी जयनाम यूं रटतु है १ इति फल. दोनो सुभध्यान धरे पापको न लेस करे ताते दोनो नही भये कारण संसार के संवर निजर दोय भाव तप दोनो पोय तप सब अघ खोय धोय सब छार के याते दोनो तप भरे जीव निज चित धरे करम अंधारे टारे ग्यानदीप जार के करम करूर भूर आतमसे कीये दूर ध्यान केरे सूरने तो मारे है पछार के १ अथ आतम कमे ध्यान दृष्टांतकथन-- वस्त्र लोह मही वंक मलिन कलंक पंक जलानल सूर नूर सोधन करतु है अंबर ने लोह मही आतमसरूप कही करत कलंक पंक मलिन कहतु है
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जराजलानल सूर ध्यान आतम अधिष्टथान जलानल ग्यान भान मानके रहतु है वसनकी मैल झरे लोह केरी कीटी जरे मही केरो पंक हरे उपमा लहतु है ? जैसे ध्यान धर करी मन वच काय लरी ताप सोस भेद परी ऐसे कर्म कहे है जैसे वैद लंघन विरेचन उपध कर ऐसे जिनवैद विभुरीत परठहे है तप ताप तप सोस तप ही उपध जोस ध्यान भयो तपको स रोग दूर थहे है ए ही उपमान ग्यान तपरूप भयो ध्यान मार किर पान भान केवलको लहे है १ जैसे चिर संचि एध अगन भसम करे तैसे ध्यान छाररूप करत कर्मको जैसे वात आमवृंद छिनमे उडाय डारे तैसे ध्यान ढाह डारे कर्मरूप हर्मको जब मन ध्यान करे मानसीन पीर करे तनको न दुप धरे धरे निज सर्मको मनमे जो मोष वसी जग केरी तो (?) रसी आतमसरूप लसी धार ध्यान मर्मको १
अथ पिछले सवैइयेका भावार्थमे लोकसरूप आदि विवरण लिख्यते
लोकस्य एकोणिस्थापना
लोकप्रतरस्थापना घनीकृतलोकस्थापना शेयम्
अथ घनीकृत लोकस्वरूप लिख्यते--अथ पुनः किस प्रकार करके लोक संवर्त्य समचतुरस्र करीये तिसका स्वरूप कहीये है. स्वरूप थकी इह लोक चौदा रज्जु ऊंचा है, अने नीचे देश ऊन सात रज्जु चौडा है, तिर्यग्लोकने मध्य भागे एक रज्जु चौडा है, ब्रह्मदेवलोकने मध्ये पांच रज्जु विस्तीर्ण है, ऊपर लोकांते एक रज्जु चौडा है, शेष स्थानको अनियत विस्तार है. रज्जुका प्रमाण-'स्वयंभूरमण' समुद्रकी पूर्वकी वेदिकासे पश्चिमकी वेदिका लगे; अथवा दक्षिणनी वेदिकाथी उत्तरकी वेदिका पर्यंत एक रज्जु जान लेना. ऐसे रह्या इह लोकना बुद्धि करी कल्पना करके संवर्त्य घन करीये है. तथाहि-एक रजु विस्तीर्ण त्रसनाडीके दक्षिण दिशावर्ती अधोलोकको खंड नीचे देश ऊन रज्जु तीन विस्तीर्ण अनुक्रमे हाय मान विस्तारथी उपर एक रजुका संख्यातमे भाग चौडा अने सात रन्जु झझेरा ऊंचा एहवा पूर्वोक्त खंड लइने त्रसनाडीके उत्तर पासे विपरीतपणे स्थापीये, नीचला भाग उपर अने उपरला भाग नीचे करी जोडना इत्यर्थः ऐसे कर्या अधोवर्ति लोकका अर्ध देश ऊन चार रज्जु विस्तीर्ण विस्तीर्ण झझेरा सात रज्जु ऊंचा अने चौडा नीचे तो किहा एक देश ऊन सात रज्जु मान अने अन्यत्र तो अनियत प्रमाणे जाडा अर्थात् बाह(हु)ल्यपणे है. अब उपरला लोकाध संवत्ती
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तत्त्व] नवतत्त्वसंग्रह
१८३ (की)ये है तिहां पिण रज्जु प्रमाण सनाडीके दक्षिण दिशे रह्या ब्रह्मलोकके मध्य भाग थकी नीचला अने उपरना दो दो खंड, ब्रह्मलोकके मध्यमे प्रत्येक प्रत्येक दो दो रज्जु विस्तीर्ण उपर लोकने समीपे अने नीचा रत्नप्रभाने क्षुल्लक प्रतर समीपे अंगुल सहस्र भाग विस्तारे देश ऊन साढे तीन रज्जु प्रमाण दोनो खंडांने बुद्धि कर करे गृहीने तेहने उत्तरने पासे पूर्वोक्त रीत करके स्थापीये. ऐसा कर्या हुँते उपरले लोकांनो अर्ध अंगुलना दो सहस्र भाग अधिक तीन रज्जु विस्तीर्ण हुइ. इहां चारो ही पंडांने छहडे चार अंगुलना सहस्र भाग हुइ केवल एक दिशने विषे दोनो ही भागे करी एक ज अंगुल सहस्र भाग होइ एक दिग्वर्तीपणा थकी इम अनेराइ जे दो भाग तिने करी एक सहस भाग हुई; इस वास्ते दो भाग अधिकपणे कयो. देश ऊन सात रज्जु ऊंचा बाहल्य थकी ब्रह्मलोकने मध्ये पांच रज्जु बाहल्य अने अन्यत्र ओर जगें अनियत विस्तार. ऐसा ऊर्ध्व लोक गृहीने हेठला संवर्तिक लोकना अर्द्धने उत्तरने पासे जोडीये तिवारे अधोलोकना पंड थकी जे प्रतर अधिक हुइ ते खंडने ऊपरिला जोड्या खंडना बाहल्यने विपे उद्धोयत जोडीये. इम को पांच रज्जु झझेरा किंहाएक बाहल्यपणे हुइ तथा हेठिले खंडने हेठे यथासंभव देश ऊन सात रज्जु बाहल्य पूर्वे कह्या है. ऊपरिला खंडना देश ऊन रज्जुद्वय बाहल्य थकी जे अधिक हुइ ते खंडीने ऊपरिला खंडना बाहल्यने विषे जोडीये. इम का इंते बाहल्य थकी सर्व ए चउरंस कृत आकाशनो खंड कितनेक प्रदेशांने विषे रज्जुना असंख्यातमो भाग अधिक छ रज्जु होइ ते व्यवहार थकी ए सर्व सात रज्जु वाहल्य बोलाये जे भणी व्यवहार नय ते कछुक ऊणा सात हस्तप्रमाण पट आदि वस्तुने परिपूर्ण सात हस्त प्रमाण माने एतले देश ऊन वस्तुने व्यवहार नय परिपूर्ण कहै. इस वास्ते एहने मते इहा सात रज्जु बाहल्यपणे सर्वत्र जानना अने आयाम विष्कंभपणे प्रत्येक प्रत्येक देश ऊन सात रज्जु प्रमाण हुया है ते पिण 'व्यवहार' नयमते सात सात रज्जु पूरा गिण्या. एवं 'व्यवहार' नयमते सब जगे सात रज्जु प्रमाण घन होइ तथा श्रीसिद्धांतमे जहां कही श्रेणीनाम न ग्राह्यो है तिहां सब जगे घनीकृत लोकनी सात रज्जुप्रमाण लंबी श्रेणी जाननी; एवं प्रतर पिण एह धनीकृत लोकनो खरूप अनुयोगद्वारनी वृत्तिथी लिख्या है.
४४४
सूचीरज्जुस्थापना
२१११ ४४४
पंडुक ४४४४ प्रतररज्जुस्थापना घनरज्जुस्थापना
६४ पंडुकका एक 'धन-रज्जु' होता है.१६ पंडुकका एक 'प्रतर-रज्जु' होता है. ४ पंडकका एक 'सूची-रज्जु' होता है. निश्चे लोकखरूप तो अनियत प्रमाण है. सो सर्वज्ञ गम्य है, परंतु स्थूल दृष्टिके वास्ते सर्व प्रदेशांकी घाटवाध एकठी करके एह स्वरूप लोकका जानना लोकनालिकाबत्तीसीसे.
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________________
माघ
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जरा(१२०) अथ अर्धालोकमे नाम आदि नरकका स्वरूप चिंतवे तेहना यंत्रम् नाम नरकका नरक ७ घमा १ । वंशा २ | शैला ३ अंजना ४ अरिष्टा ५ मघा ६ म
वती ७ गोत्र सार्थक
वालुका
तमतपंकप्रभा धूमप्रभा तमप्रभा
मप्रभा पृथ्वीपिंड
१,८०,००० १,३२,००० १,२८,००० |१,२०,००० घनोदधि
२०,०००
असंख्य घनवात
प्रभा
000
००० ००० ००० ०००
योजन
००० ००० ०००
तनुवात
2011MEE
आकाश
००० ०००
२
०००
यलय
१२ योजन
१४ योजन
०००
s
Aw
GM
19
घनोदधि
६
घलय
०००
॥
__ w
घनवातवलय
००० ०००
४॥ , ४॥ योजन ५ यो०
| ५। , ५॥ यो० ५॥ यो०६,
तनुवातवलय
००० ०००
१॥
T
०००
अलोक
-आकाश
वलय प्रतर
०००
|
२
शून्य पृथ्वी
००० ०००
१३ १००० योजन १९५८३
प्रतर अंतर
००० ०००
भा गा
९,७००
१२,३७५
adj.
२५.२५०५२,५००
-1|8:| - |-|-.
००
३६
००० श्रावलि
००० नरकावास ८४,००,०००/३०० लाख | २५ लाख । १५लाख | १० लाख । ३लाख दिशा विदिग
४८ ००० असंख्य प्रमाण
संख्य
३,००० उत्सेध
०००योजन
4
०००
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________________
अथ (१२१) दशभवनपतियंत्रम् भुवन- असुर
| नाग सुवर्ण विद्युत् अग्नि द्वीप उद्धि दिक | पवन स्तनित पतिनाम कुमार विमान ३४ लाख ४४ लाख ३८ लाख ४० लाख ४० लाख ४० लाख ४० लाख ४० लाख ५० लाख
४०
३०
|३६
विमानपरिमाण
द्वीप जघन्य
संख्य मध्यम
योजन असंख्य
चूडामणि
वर्ध
फण
गरुड
वज्र
कलश सिंह
अश्व
गज
| मगर
मान
वर्ण
काला पंडुर कनक
अरुण | अरुण
पंडुर | कनक
प्रियंगु ।
| कनक
संध्यानीला धवला
धवला
वस्त्र | राता | नीला धवला नीला
नीला |
नीला अग्नि
वर्ण
वेलंब घोष
चमर धरण वेणुदेव हरिकंत वल भूतानंद वेनुदालि हरिसिह
सिंह अग्नि- विशिष्ट
पूरण जलकांत
अमितगति अमितवाहन
महाघोष
मानव
सामा निक ६४,००० ६.०००
→
६०,००० ६,०००
आत्मरक्षक
२५६०००२४,०००
२४००००२४,०००
त्रायस्त्रिंश अणिका लोकपाल अग्रमहिषी
परिषद्
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________________
१८६
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जराअथ (१२२) व्यंतर २८ का यंत्र तिर्यग लोके चिंतवे व्यंतरनाम | पिशाच , भूत | यक्ष | राक्षस | किन्नर | कपुर महोरग गान्धर्व नगरसंख्या असंख्य
नगरपरिमाण
जंबूद्वीप
मध्यम
विदेह
ए
जघन्य
भरतक्षेत्र कलंब
चिह्न
सुलस
वङ वृक्ष
षडग
अशोक
चंपग
नाग
तुंबर
-
वर्ण
श्याम
श्याम
श्याम
धवल
नील
धवल श्याम श्याम
काल ।
सरूप
पूर्णभद्र
भीम
किन्नर सत्पुरुष
अति
गीतरति काय
महाकाल प्रतिरूप | मणिभद्र | महाभीम किंपुरुष | (रुष)
महाकाय
गीतयश
सामानिक ४०००
आत्मरक्षक १६,०००
444
अनीक
NNNN
अग्रमहिषी
परिषद्
महा
व्यंतर लघु
पणपन्नी
इसिवाइ
भूयवाइ
कंदिय
कुहुंड पयगदेव
कंदिय
संनिहिय
धाइ
| इसि | ईसरप | सुवत्स
हास्य | श्वेत | पयंग
११
समाणि | विधाइ | इसिपाल
हास्यमहेष सुविशाल | रति
पयगे
१२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२
तत्त्व ]
नवतत्त्वसंग्रह (१२३) ज्योतिषचक्रवरूप चिंतवे यंत्रम् ज्योतिषचक्र आबाधा । मेरुथी ११२१ योजन अलोकथी ११११ योजन अवधा मेरु पर्वत थकी चंद्र चंद्रके ४४८२० योजन सूर्य सूर्यके ४४८२० योजन जंबूद्वीपप्रवेश
१८० योजन । १८० योजन लवणप्रवेश
३३० योजन ५६६१ भाग । ३३० योजन ४८ भा.६१ मंडलक्षेत्र
५१० योजन ५६२६१ भा. ५१० योजन ४८ भा. ६१ मंडलसंख्या पंक्ति
चंद्र ३५ योजन, ३० भा., चूर्णि मंडलांतर
४भाग
सूर्यके २ योजन जंबूद्वीपे चन्द्रसूर्यसङ्ख्या ।
(१२४) ज्योतिषी | ज्योतिषचक्र चंद्र | सूर्य ग्रह नक्षत्र तारक
७९० समभूतलथी ७९० योजन ८८० योजन | ८०० योजन
८८८ योजन |८८४ योजन योजन विष्कंभ
५६६१ ४८/६१ उच्चत्व ११० २८६१ २४॥६१
१।४
२१८
२६६ यो. जघन्य ९९६४०
५०० ध.
१२२४२ यो उत्कृष्ट १००६६० १००६६०
४०० ध. १ मंद २शीघ्र ३शीघ्र ४ शीघ्र | ५शीघ्र
५महा ४ महा | ३ महा २महा १अल्प विमानवाहक ०० १६,०००
| ४,००० । २,००० अल्पबहुत्व । ०० १ स्तोक । १ स्तोक | ३ संख्येय २ संख्येय ४ संख्येय
(१२५)
योजन । धनुष अंगुल यव जूका लीष अंदरले मांडलेकी परिधि
३,१५,०८९ २,७६८४५॥ ० ० अंदरले मांडलेकी चक्षुस्पर्श ४७,२६३, ३,२१५२६ ० ४ ___ अभ्यंतरलेकी चाल चक्षुस्पर्शका घटावना वधावना ८३ ३,६०७ ४१ ७ २ १ मुहर्तकी चाल घटावना वधावना
| २,३५० | १०/ २ ७ ३ ॥
alAN
००
- ऋद्धि
००
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--------------------------------------------------------------------------
________________
दधि
कालोदधि |
२१
४२
१८८ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७निर्जरा| योजन | धनुष अंगुल यव जूका लीष परिधिका घटावना वधावना १७ ५,००६ ४६ . . .
बाहिरले मांडलेकी परिधि ३,१८,३१४, ६,९५४ १५॥ . बाहिरले मांडलेकी चाल मुहूर्तमे ५,३०५ / १,९८२ ५४ ५ ॥ बाहिरले मांडलेकी चक्षुस्पर्श | ३१,८३१ | ३,८९५ ३९ ६ ३ .
(१२६) संख्या जंबूद्वीप लवण धातकी कालोदधि पुष्कर द्वीपोः श्रेणयः चंद्र सूर्य चंद्र, सूर्य २ ४ १२ ४२ ७२ जंबू १ - २ नक्षत्राणि ५६ । ११२ । ३३६ - १,१७६ - २,०१६ लवण | २ ४ । ___ग्रहा। १७६ । ३५२ । १,०५५ / ३,६९६ / ६,३३६ धातकी ६ १२ तारका १,३३,९५० २,६७,९०० ८,०३,७०० २,८२,९५० ४८,२२,२७० कोडाकोडि संज्ञा(ख्या) सब जगे जाननी ताराकी
___पुष्कर ३६ । ७२ कर्कसंक्रान्ति ने प्रथम दिन सर्व अभ्यंतर मंडल सूर्यना तापक्षेत्र स्थापना सर्वत्र यंत्र. ते दिन मान १८ मुहूर्त, रात्रिमान १२ मुहूर्त, मेरु थकी ४५,००० योजन जगती हे अने लवण समुद्र माहि ३३,३३३ योजन अने एक योजनका तीजा भाग अधिक एतले बेहु मिलीने ७८,३३३ योजन एक योजनका तीजा भाग अधिक इतना तापक्षेत्र है लांबा अने अंधकारक्षेत्रनी अभ्यंतरकी बाह मेरु पास ६३,२४५ योजन, एक योजनका दसीया षड् भाग ६ जानने. बाहिरली बाह ६३,२४५ योजन, एक योजनना दसीया ६ भाग; तापक्षेत्रनी अंतर बाह ९४८६ योजन, एक योजनना दसीया ९ भागः बाहिरली बाह ९४,०६८ योजन, एक योजनका दसीया ९ भाग है; इम अभ्यंतरले मांडले थकी बाहिर जाता हूया ताप क्षेत्र घटे, अंधकार वघे. शनि ९००, मंगल ८९७, बृहस्पति ८९४, शुक्र ८९१, बुध ८८८-ग्रह उच्चख.
('१२७) महाकलश
लघुकलश संख्या
७,८८४
कलश वलयसंख्या एक वलय
९ वलय विष्कंभ १०,०००
१०० १ लाख योजन
१,०००
मध्य १०,००० ठीकरी १,०००
जाडी त्रिभाग
जल
उपरि जल १, वायु २ जल १, वायु २
मध्य वायु वायु
तले १आ यंत्रन स्थान १२८ मा यंत्रनी बराबर उपर छे; परंत १८९ मा पृष्ठ गत चित्रने अहीं स्थलसंकोचने लधि स्थान नहि आपी शकावाथी आनो अहीं निर्देश करायो छे.
०
.
वलय
मुख
१००
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मय ४०
चूलिका
सौमनस
नंदन
भद्रशाल
तत्त्व] नवतत्त्वसंग्रह
१८९ भूतले मेरुपरिधि २१,६२३, भूतले मेरुविष्कंभ १०,०००, मेरु उपरि विष्कंभ १०००, मेरु उपरि परिधि ३१६२, मेरु मूलविष्कंभ १००९०३६, मेरु मूलपरिधि ३१९१०. एक सहस्र योजनप्रमाण मेरुका प्रथमकांड जानना, ६३ सहस्र योजनका द्वितीय कांड, ३६ सहस्र
पंडग
योजना योजनप्रमाण तीजा कांड. भद्रशालथी
लाल ५०० योजन उंचा नंदन वन है. नन्दन
सुवर्णमय वनस्य परिधि ३१, ४७९, नन्दनवन
३६००० मध्ये परिधि (2), नन्दनवनस्य विष्कंभ ९९५४६८, नन्दनवनमध्ये विष्कंभ
पीत सुवर्णमय १५७५० ८९५४, सौमनसवनस्य परिधि १३५११६, सौमनसवनमध्ये परिधि
रूप्यमय १५७५० १०३४९,२०, सौमनसवनस्य विष्कंभ ४२७२ सौमनसवनमध्ये विष्कंभ
अंकरत्नमय १५७५० योजन ३२७२, चूलकके मूलथी ४९४ योजन वलयाकारे विष्कंभ पंडग वन
स्फटिकरत्नम १५,७५० योजन (का) है. जिनप्रसाद अर्ध कोश पृथुत्व, कोश लांबा, १४४० धनुष उच्चत्व. पंडग
कांकरामय २५० योजन वनमे चार शिला ५०० योजनकी लांबी, २०० योजन पिहुली ४ योजनकी
वज्रमय २५० योजन उंची है. अर्धचन्द्राकारे श्वेत सुवर्णमयी शिलाना मानथी आठ सहस्रमे
पाषाणमय २५० योजन भागे सिंहासनका प्रमाण जानना. पूर्व पश्चिमकी शिला उपरि दो दो सिंहा
पृथ्वीमय २५० योजन सन है अने दक्षिण, उत्तरकी शिला उपरि एकेक सिंहासन है. इन शिलां उपरि भगवानका जन्ममहोत्सव इन्द्र करते है. (१२८) हैमवंत १ शिखरीकी दाढा चार, चार, तिस उपरि सात सात अंतरद्वीप. _ . १ २ ३ -- जगती परस्पर ३०० ४००
७००
। ९०० अंतर विष्कंभ परिधि ९४९ यो० १२५८ यो०/१५८१ यो० १८९७ यो०२२१३ यो० २५२९ यो०२८४५ यो०
६ अभ्यं. जल उपरि
६० तर
९५ योजन २२ योजन
→बाह्य
३
द
५००
६००
८००
२॥
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________________
१९०
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जरा
०
|
४२,०००
४२४
वेलंधर
अनुवेलंधर संख्या दिग दिग ४
दिग४ समुद्रमे जाय
४२,००० विष्कंभ
४२४
शिखर १,०२२
१,०२२ १,७२१
१,७२१ दिसे ९६,९४,०९५ ९६,९४,०९५
ज० दिसा ___९६,९७,७९५ ९६९७,७,९५ । " नन्दीश्वरद्वीपे यतः अञ्जनगिरिवृत्तस्यामः (१) वापीमध्ये दधिमुखाः वृत्ताः श्वेताः, वाप्यन्तरे द्वौ द्वौ रतिकरौ अस्त्रो (स्तः१) एवं अष्टौ रतिकराः, चत्वारो दधिमुखाः, एकोऽञ्जनगिरिः, एवं एकाभ्यां( कस्यां?) दिशि त्रयोदश पर्वताः स्युः, चतुर्दिक्षौ(क्षु) च द्विपञ्चाशदिति विदिक्षु च इन्द्राणीनां राजधानी (?) सन्ति नन्दीश्वरे. अग्रे सर्वाणां स्थाना(नि) चित्रात् ज्ञेयं (ज्ञेयानि).
(१३०) नन्दीश्वरद्वीपयंत्रम् स्थानांगचतुर्थस्थानात् १/ नामानि | आयाम विष्कंभ | परिधि । उंचा अधः संस्थान अंजनगिरि १०,००० मू यथायोग्य
८४ सहस्र १००० यो. १०,००० उपर
योजन एक लाख वापी योजन ५०,००० योजन
आयाम
६४ सहस्त्र दधिमुख १०,००० ,, यथायोग्य
योजन रतिकर
१००० योजन २५० योजन ६ राजधानी ० जंबूद्वीप । जंबूद्वीप
। ० | चंद्र (१३१) अथ ऊर्ध्वलोके वरूपचिंतनयंत्र. प्रथम बारदेवलोके देवता
आरण ११
देवलोक- सौधर्म ईशान सनत्कुमाहेन्द्र नामानि १ ।
मार |
४
ब्रह्म ५ /लान्तिका
| शुक्र ७ सहस्रार आनत ९
संस्थान अधचत्र
संस्थान अर्धचंद्र अर्ध चंद्र अर्ध चंद्र अर्धचंद्र पूर्ण चंद्र पूर्ण चंद्र पूर्ण चंद्र पूर्ण चंद्र अर्ध चंद्र आधार घनोदधि घनोद्धि घनवात धनवात घनवात २ ।
-
-
-
२ आकाशश
आकाकाश
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--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्व]
नवतत्त्वसंग्रह
१९१
विमान-३२ लाख २८ लाख १२ लाख ८ लाख ४ लाख सहस्र सहन
५० ४०
६ सहस्र ४०० / ३०० सङ्ख्या पृथ्वी
| २७०० | २७०० | २६०० / २६०० | २५०० | २५०० २४०० / २४०० | २३०० २३००
विमान
५०० यो.५०० यो.६०० यो.६०० यो.७०० यो.७०० यो. ८०० यो.८०० यो.९०० यो. ९०० उञ्चत्व विष्कंभ संख्येय विमान असंख्य विमान
४
वर्ण
प्रतर ६२ आवलि
--
४
चिह्न मृग
महिष वराह
सिंह | व्याघ्र
शालूर हय
गज
| भुजंग वृषभ शशी विडाल
शरीर
कनक कनक । पद्म
| पद्म । श्वेत
श्वेत श्वेत । श्वेत
श्वेत
वर्ण
यान विमान
पालक
पुष्कर
इन्द्र
सगारेन्टा ब्रह्म । शक लान्तिक सहस्रार प्राणत अच्यत मार
८०,०००७२,०००
६०,०००/५०,०००/४०,०००३०,०००/२०,०००
| सुधर्म सामा
८४,००० निक आत्म
१४ गुणा रक्षक घाय.
ম্বিয়া
व
लोकपाल अनीक देवी अग्रमहिषी परिषद् कंदर्प किल्बिषिक
३
आमि
योगिक
-
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--------------------------------------------------------------------------
________________
महाशुक्र
आनत
लान्तक
"
२५
सहस्रार प्राणत
१९२ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जरासौधर्म देवलोक अपरिगृहीत देवीना विमान ६ लाख, ते किणि किणि देव
लोकि भोग आवे ते (१३२) यंत्रम् सनत्कुमार पल्योपम १०
स्पर्शभोगी ब्रह्म
रूप देखी भोगवे
शब्द सांभळी भोगवे __, ४०
मन करी विकार करी आरण
मनई चिंतवी (१३३) ईशान देवलोके अपरिगृहीत देवीना विमान ४, ते किस किसके ? माहेन्द्र पल्योपम १५
स्पर्शभोगी रूप देखी शब्दभोगी
मनि विकार करी अच्युत
मन चिंतवी भोगवे (१३४) अथ ९ ग्रैवेयक, ५ अनुत्तरविमानयंत्रम्
हेठत्रिक मध्यत्रिक | उपरत्रिक | ४ अनुत्तर सर्वार्थसिद्ध संस्थान । पूर्ण चंद्र पूर्ण चंद्र पूर्ण चंद्र अंस विमान-संख्या
१०७ पृथ्वीपिंड
२,२०० २,२०० २,२०० २,१०० २,१०० विमान-उच्चत्व १,०००
१,०००
१,००० १,१०० १,१०० संख्य विष्कंभ
संख्य संख्य
असंख्य संख्य असंख्य असंख्य असंख्य प्रतर
३ पदवी अहमिन्द्र । अहमिन्द्र । अहमिन्द्र। अहमिन्द्र (१) उडु प्रतर, (२) चंद्र प्र०, (३) रजत प्र०, (४) वालू प्र०, (५) वीर्य प्र०, (६) वारुण प्र०, (७) आनंद प्र०, (८) ब्रह्म प्र०, (९) कांचन प्र०, (१०) रुचिर प्र०, (११) चंद्र प्र०, (१२) अरुण प्र०, (१३) दिशि प्र०, (१४) वैडूर्य प्र०, (१५) रुचक प्र०, (१६) रुचक (?) प्र०, (१७) अंक प्र०, (१८) मेघ प्र०, (१९) स्फटिक प्र०, (२०) तपनीय प्र०, (२१) अर्घ प्र०, (२२) हरि प्र०, (२३) नलिन प्र०, (२४) सोहिता प्र०, (२५) वज्र प्र०, (२६) अंजन प्र०, (२७) (१), (२८) ब्रह्माष्प प्र०, (२९) हव प्र०, (३०) सौम्य प्र०, (३१) लांगल प्र. प्र०, (३२) बलभद्र प्र०, (३३) वक्र प्र०,(३४) गदा प्र०, (३५) स्वस्तिक प्र०, (३६) व्यर्वत (१) प्र०, (३७) आरंभ प्र०, (३८) गृद्धि प्र०, (३९) केतु प्र०, (४०) गरुड प्र०, (४१) ब्रमित
१००
अहमिन्द्र
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________________
जैसे चंद्रमाके १५ मांडले लिखेहै ऐसेही १८४ सूर्यकै मांडले जानने।। कर्क संक्रांतिरात्रिस्थापना अभ्यंतर मांडले जबसूर्यहीवे
तदाभवति
कर्कसंक्रांतिदिन स्थापना संस्थान मेरु
थीलेइनेलवणसमुर तायोजन ७९३३३ एक योजनातिजाभाग अधिक इतना लंबान दिनना।।
१८८मापृष्ठगत (९२६मा पंचनीनीचे आनुस्थान छे.
कर्क संक्रांतिने प्रथम दिन सर्व अभ्यंतर मंगल सूर्यना ताप क्षेत्र स्थापना सर्वत्रयंत्र.
अनुसंधान माटे जुओ
१८८मा पृष्ठगत १२७मायंत्रनी उपरनो भाग.
Jain Education
Page #221
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________________
नवतत्त्वसंग्रह
SOCIE33
N
EN0000
SOOOOOO SOOOOO
SOGO SOOOOO 150000 OOO
soooOGO
602 SOO220 600 aeol
0000
50000
2000 오오.
500004
2000 2009
6000
2000ae. 600RR
220000299
오오오오오
200002
오오 200의
10
19 000002009
9902
20000 120 oooooo
OOOOOO
000
0000
6000
60000
500RR
6000
SEE
See
कलशास्थापना
मरु जंबूद्वीपप्रथम
이어어어어어
OR
6000
600 0
000 0 39
1000
29
000
20000
6602 RRY
ololololo lololololoko
6 0 260 60000
COOOO
10000090
1066 0
2000
어이 이
009 2000
00000
2000 0 0
오오오오오
2002
lo. 10 tololololo
lolojo lolololo
오오오으으
आना अनुसंधान माटेजुओ १८८मा पृष्ठमत्त १२७ मु यंत्र,
lolo lolot
10GOGO00
00000
अनुसंधान माटे जुओ * पृष्ठ-१९०
Drivo Dorronale Gel
Balnelibrary.org
Page #222
--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह प्र०, (४२) ब्रह्म प्र०, (४३) ब्रह्मोत्तर प्र०, (४४) लांतक प्र०, (४५) महाशुक्र प्र०, (४६) सहस्रार प्र०, (४७) आनत प्र०, (४८) प्राणत प्र०, (४९)पुष्प प्र०, (५०) अलका प्र०, (५१) आरण प्र०, (५२) अरुण प्र०, (५३) सुदर्शन प्र०, (५४) सुप्रबद्ध प्र०, (५५) मनोहर प्र०, (५६) सर्वतो प्र०, (५७) विशाल प्र०, (५८) सुमनस प्र०, (५९) सौमनस प्र०, (६०) प्रीतिकर प्र०, (६१) आदित्य प्र०, (६२) सर्वतोभद्र प्र० इति ६२ प्रतरनामानि.
अथ ध्यानसामाप्ती (?) सवैइया ३१ सापूज जो खमाश्रमण जिनभद्र गणि विभु दृषण अंधारे वीच दीप जो कहायो है सत सात अधिक जो गाथाबद्धरूप करी ध्यानको सरूप भरी सतक सुहायो है टीका नीका सुषजीका भेदने प्रभेद धीका तुच्छ मति भये नीका पठन करायो है लेसरूप भाव धरी छंद बंध रूप करी आतम आनंद भरी वा लष्या लगायो है ॥१॥ इति श्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणविरचितध्यानशतकात्. (१३५) असज्झाइ स्थानांग, निसी[ह]थ, प्रवचनसारोद्धार (द्वा. २६८) थकी १उल्कापात तारा डूटे उजाला हुइ क्षेत्र जिस मंडळमे निवां पीछे १ प्रहर सूत्र न पढ़े
___ रेषा पडे आकाशमे . कणगते कहीये जिहां रेषा हुइ
___उजाला नही दिग्दाह दसो दिसा अग्निवत् राती
"
"
"
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"
""
|
होइ
"
"
"
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"
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"
1 1010 | on| - | & |
जा लग पडे ता लगे १ अहोरात्र निवां पीछे निवर्त्या पछे सूझे
२पहर
आकाशे गंधर्वनगर देवताना कीधा
दीसे आकाशथी सूक्ष्म रज पडे ।
मांसरुधिरवृष्टि केस १ पाषाणवृष्टि अकाल गजें
, वीजळी आसो सुदि ५ना दो पहरथी लेकर
कार्तिक वदि १ आषाढ चौमासी पडिकमणाथी
श्रावण वदि १२ एवं कार्तिक चौमासी २७ एवं चैत्र सुदि ५ थी वैशाख वदि .... पडवा लगे .
राजाना युद्ध - म्लेच्छने भये --
सब जगे
११ दिन असज्झाइ
|
|
२, २॥ दिन २,२॥ दिन असज्झाइ
|
११ , निवर्त्या पछे सूझे
जिस मंडले
"
"
""
Page #223
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________________
१९४
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जरा
निवर्त्या पछे सूझे
,, मंडले
१ प्रहर
१प्रहर रात्रि
१ प्रहर जा लग पडे तां लग सर्व क्रिया
न करे
३ प्रहर
१ अहोरात्रि
३ दिन
२. उपाश्रय टूकडा स्त्री पुरुष झुझे
उपाश्रय दूकडा मल्लयुद्धे १७ होली पर्व रज उडे जिस जगे निर्धात वादले अथवा अणवादले
शब्द कडकड होवे १९ जूव० शुक्ल पक्षनी पडिवासे ३ दिन सब जगे २० जक्खालिए आकोशे अग्नियक्षप्रभावे जिस मंडले २१, कावी धौली धूयर गर्भमासे
,, जगे | पंचेन्द्रिय तिर्यंचना हाड, मांस,
६० हाथ दूर नही लोही, चाम मांजारी मुसा आदि मारे उपाश्रये
उपाश्रय अभ्यंतर तथा ले जावे मनुष्याना हाड, मांस, लोही, चाम १०० हाथ उरे स्त्रीधर्मनी
उपाश्रयमे स्त्रीजन्मनी
पुरुषजन्मनी हाड पुरुषथी अलग कीया १००० हाथ माहे मलमूत्र
जा लग दीषे गंध आवे मसाणना समीपे
१००० हाथ चौफेरे राजाके पडणे
जहां ताइ आज्ञा ३२ गाममे असमंजस प्रवर्ते न भांजे तो जिस मंडले ३३ सात घरमे कोइ प्रसिद्ध पुरुष मरे , गामे तथा सामान्य पुरुष सात घरांतरे
मरे ३५ इंडा पू(फू)टे गाय वियाइ जर पडे
___ भूमी कंपे ३७ बुदबुदा रहित तथा सहित वर्षे ३८ नान्ही कुंवारे निरंतर वर्षे पक्षीनी रात्रि
सब जगे ...प्रभात १, मध्याह्न २, अस्त ३, अर्ध
.. रात्रि४ आसो १ कार्तिक २, चैत्र ३, आषाढ
४पूर्णमासी
१२ वर्ष लगे तब लगे
सदा नवा राजा न धैठे
८प्रहर १ अहोरात्रि
कलेवर काळ्या पीछे सूझे
, जगे
१प्रहर
" मंडले
अहोरात्रि उपरांत असज्झाइ
७ दिन ४प्रहर असज्झाइ
२ घटी
१ अहोरात्रि
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________________
तत्त्व
नवतत्त्वसंग्रह
१९५
-
कार्तिक १ मागसर २ वैशाख ३, श्रावण ४ वदी पडिवा
चंद्रग्रहणे
-
सूर्यग्रहणे
१२
,
चंद्रग्रहणे ऊगतो ग्रयो ग्रयो ज आप्रम्यो तदा ४ प्र हर दिन रात्री १ अहोरात्र आगे, एवं १२; रात्रिने छैहडे ग्रस्सा तदा ८ पहर आगले, एवं ८ वीचमे मध्यम तथा सूयो ऊगता प्रयो प्रस्यो ज आथम्यो तो ४ प्रहर दिनना, ४ रात्रिरा अने एक अहोरात्रि आगे, एवं १६; आथमतो आहे १२ प्रहर, दिने ग्रह्यो दिने छूटा तो रात्रिना ४ प्रहर, एवं ४.
इति 'निर्जरा' तत्त्वसंपूर्णम् ॥
OM
अथ अग्रे ‘बन्ध' तत्त्व लिख्यते. प्रथम सर्वबंध देशबंधनो स्वरूप लिखीये हे ते यंत्रात् ज्ञेयम्, (१३६) औदारिक शरीरना सर्वबंध, देशबंधनी स्थिति
सर्वबन्ध स्थिति
देशबन्धस्थिति समुच्चय औदारिक शरीरना
जघन्य १ समय, उत्कृष्ट प्रयोगबंधनी स्थिति
१समय
एक समय ऊणा तीन पल्योपम एकेन्द्रिय औदारिक
ज०१ समय, उ० एक समय
ऊणा २२,००० वर्ष पृथ्वीना
ज०३समय ऊणा क्षुल्लक भव, ,
उ०१समय ऊणा २२,००० वर्ष.
ज०३ समय ऊणा क्षुल्लक अपू, तेजस्काय, वनस्पति, बेइंद्री,
भव, उ०जिसकी जितनी तेइंद्री, चौरिंद्री औदारिक
स्थिति है उत्कृष्टी सो १
समय ऊणी कहणी.
ज०१ समय, उ०१ समय वायु औदारिक शरीर प्रयोग बंध ,
ऊणा ३,००० वर्ष ज्ञेयम् तिर्यंच पंचेंद्री मनुष्य औदारिक शरीर
ज०१ समय, उ०३ समय
ऊणे ३ पल्योपम
,,,
एह औदारिकना देशबंध, सर्वबंधनी स्थिति.
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________________
१९६
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्ध(१३७) औदारिक शरीरके सर्वबंध, देशबंधका अंतरा सर्वबंधका अंतरा
देशबंधका अंतरा ज०३ समय ऊणा क्षुल्लक भव १,
ज०१ समय, उ०३ समय उ०३३ सागर पूर्व कोड १समय अधिक
अधिक ३३ सागर ज० ३ समय ऊणा क्षुल्लक भव १, उ०१ समय अधिक
ज०१ समय, उ० अंतर्मुहूर्त १ २२,००० वर्ष
समुच्चय औदारिक समुच्चय एकेन्द्रिय औदारिक
ज०३समय ऊणा क्षुल्लक पृथ्वीके औदारिकका भव १, उ०१ समय
ज०१समय, उ०३ समय अधिक २२,००० वर्ष
ज०३ समय ऊणा क्षुल्लक अप, तेउ, वणस्सइ,
भव १, उ०१समय अधिक बेइंद्री, तेइंद्री, चौरिंद्री
ज०१ समय, उ०३ समय जिसकी जितनी स्थिति
ज०२ समय ऊणा क्षुल्लक वायु औदारिक
_भव, उ०समय अधिक ३,००० वर्ष ज०१ समय, उ० अंतर्महर्त
ज०३ समय ऊणा क्षुल्लक पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य
भव, उ० पूर्व कोड १ समय अधिक ज०१ समय, उ०१ अंतर्मुहूर्त जीव एकेन्द्रियपणा छोडी नोएकेन्द्रिय हुया फेर एकेन्द्रिय होय तो सर्वबंध, देशबंधना कितना अंतर ए (१३८) यंत्रम्
सर्वबन्धान्तरम्
देशबन्धान्तरम् ज०३समय ऊणा२क्षलक ज०१समय अधिक १क्षलुक एकेन्द्रिय नोएकेन्द्रिय
भव, उ०२,००० सागर भव, उ०२,००० सागर फेर एकेन्द्रिय हुया
संख्याते वर्ष अधिक संख्याते वर्ष अधिक पृथ्वी, अप्, तेउ, वाउ, ज०३ समय ऊणा २ क्षु- ज०१ समय अधिक १ शुल्लक बेइंद्री, तेइंद्री, चौरिंद्री, ल्लक भव, उ० वनस्पति- भव, उ० वनस्पतिकाल तिर्यंच पंचेंद्री, मनुष्य काल असंख्य पुद्गलपरावर्त असंख्य पुद्गलपरावर्त
ज०३ समय ऊणा २
ज० १ समय अधिक १ क्षुल्लक वनस्पति क्षुल्लक भव, उ० असंख्याती
भव १, उ० असंख्य उत्सर्पिणी अवसर्पिणी उत्सर्पिणी
अवसर्पिणी (१३९) औदारिक शरीरके सर्वबंध, देशबंध, अबंधककी अल्पबहुत्व देशबंध सर्वबंध
अबंधक - असंख्य गुणा ३ ............-सर्वसे स्तोक १ ........ विशेषाधिक २..
ए औदारिकका यंत्र चौथा इति औदारिक.
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________________
तत्त्व ]
नवतत्त्व संग्रह
(१४०) वैक्रिय शरीर के सर्वबंध, देशबंधनी स्थिति सर्वबंधनी स्थिति
ज० १ समय, उ० २ समय
१
समय
१
समुच्चय वैक्रिय
वायु वैक्रिय
प्रभा वैि
शेष ६ नरक, भवनपति १०, व्यंतर, जोतिषी, वैमानिक
तिर्यच पंचेन्द्रिय, मनुष्य
३
वायु, पंचेन्द्रिय तिर्यंच,
मनुष्य
ज०
शेष ६ नरक, भवनपति आदि यावत् सहस्रार
आनत से चैवेयक पर्यंत
53
४ अनुत्तर वैमानिक
""
55
35
,,
39
53
29
(१४१) वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धान्तरम्
13
सर्वबन्धान्तर
ज० अंतर्मुहूर्त, उ० वनस्पतिकाल वायु, मनुष्य, तिर्यंच पंचेन्द्रिय वैक्रिययन्त्रम् (१४३ )
रत्नप्रभा पुनरपि रत्नप्रभा
२
ओघवैक्रिय arrafor
पंचेन्द्रिय तिर्यच
ज० अंतर्मुहूर्त, उ० पृथक् पूर्व कोड ज० अंतर्मुहूर्त, उ० पृथक् पूर्व कोड
मनुष्य
(१४२ ) जीव हे भगव (न्) वायुकाय हुइने नोवायुकाय हुया फेर वायुकाय हुइ तो अंतरयत्रम्
देशबन्धान्तर
ज० अंतर्मुहूर्त, उ० वनस्पति
काल
देशबंधनी स्थिति
ज० १ समय, उ० १ समय ऊणा ३३ सागर
ज० १ समय, उ० १ अंतर्मुहूर्त
ज० अंतर्मुहूर्त अधिक १०,००० वर्ष, उ० वनस्पतिकाल
ज० ३ समय ऊणा १०, ००० वर्ष, उ० १ समय ऊणा १ सागर
सर्वबन्धान्तरम्
देशबन्धान्तरम्
| ज० १ समय, उ० वनस्पतिकाल ज० १ समय, उ० वनस्पतिकाल ज० अंतर्मुहूर्त, उ० पल्योपमनो ज० अंतर्मुहूर्त, उ० पल्योपमनो असंख्यातमो भाग असंख्यातमो भाग
to अंतर्मुहूर्त अधिक जिसकी जितनी जघन्य स्थिति, उ० वनस्पतिकाल ज० पृथक वर्ष अधिक जेहनी जितनी जघन्य स्थिति, उ० वनस्पतिकाल ज० पृथक वर्ष अधिक ३१ सागर, उ० संख्याते
सागर
ज० ३ समय ऊणी जेहनी जितनी जघन्य स्थिति कहनी, उ० उत्कृष्टी स्थितिमे १ समय ऊणी कहनी
ज० समय, उ० १ अंतर्मुहूर्त
१९७
ज० अंतर्मुहूर्त, उ० वनस्पतिकाल
to अंतर्मुहूर्त, उ० वनस्पतिकाल
ज० पृथक् वर्ष, उ० वनस्पतिकाल
ज० पृथक वर्ष अधिक, उ० संख्याते सागर
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________________
१९८ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्ध(१४४) वैक्रियना सर्वबंधादि संबंधी अल्पबहुत्व अल्पबहुत्व देशबंध । सर्वबंध
अबंधक असंख्यगुणा २ १ स्तोक
अनंतगुणा ३ इति वैक्रिययत्रचतुष्टयम्. (१४५) आहारक शरीरना प्रयोगबंधनी स्थिति सर्वबन्धस्थिति
देशबन्धस्थिति आहारक मनुष्य
ज० १ समय ज० अंतर्मुहूर्त, उ० अंतर्मुहूर्त (१४६) अंतर सर्वबन्धान्तर
देशबन्धान्तर ज० अंतर्मुहूर्त, उ० देश ज० अंतर्मुहूर्त, उ० देश आहारक अंतर
ऊन अर्ध पुद्गलपरावर्त । ऊन अर्ध पुद्गलपरावर्त
(१४७) अल्पबहुत्व सर्व० देश० अबन्ध आहारककी अल्पबहुत्व देशबन्ध
सर्वबन्ध
अबन्धक संख्यात गुणे २ । सर्व स्तोक १ - अनंत गुणे ३
इति आहारकयंत्र तीन. (१४८) (तैजस शरीर)
देशवन्धस्थिति तैजस शरीर
अनादि अपर्यवसित, अनादिसपर्यवसित
देशबन्धान्तर तैजस
दोनाका अंतर नही देशबन्ध
अबन्धक तैजस शरीर अनंत गुणा २
सर्व स्तोक १ अल्पबहुत्व (१४९) (कार्मण शरीर)
देशवन्धस्थिति कार्मणशरीरस्थिति
अनादि अपर्यवसित, अनादि सपर्यवसित
देशबंन्धान्तर कार्मण
दोनाका अंतर नही ३ देशबन्ध
अबन्धक कर्म ७ अनंत गुणा २
सर्व स्तोक १ अल्पबहुत्व आयु अल्पबहुत्व
१ स्तोक
संख्यात गुणा २
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
१९९
(१५०) आपसमे नियम भजनेका यत्र औदारिका
तैजस
वैक्रिय
आहारक
कार्मण
नथी
औदारिक सर्व नथी नथी भजना
भजना देश ३ वैक्रिय सर्व १,
नथी देश २ आहारक सर्व १,
देश २ तैजस देशबन्ध १ नियमा नियमा नियमा कार्मण देशबन्ध १
नियमा (१५१) अल्पबहुत्वयन्त्रम् अल्पबहुत्व देशबन्ध सर्वबन्ध
अबन्धक औदारिक असंख्य अनंत ६
विशे०७ वैक्रिय
असंख्य ३ आहारक संख्यात २
स्तोक १ विशे० ९
अनंत ५ कार्मण तुल्य ,
तुष्य , तेरह बोलकी अल्पबहुत्व संपूर्ण
(१५२) आपआपनी अल्पबहुत्व औदारिक १ स्तोक ३ असंख्य
२ विशे० वैक्रिय
३ अनंत आहारक
२ संख्येय ,, असंख्य
१ स्तोक कार्मण
। १ स्तोक । २ संख्येय इति श्रीभगवत्यां सर्ववन्ध देशबन्ध अधिकार शते ८, उ०९ और विशेष खरूप टीकासे जानना. किस वास्ते ? थोडे घणे है टीकामे स्वरूप कथन कीया है.
"जीवा १ य लेस्स २ पक्खी ३ दिही ४ अन्नाण ५ नाण ६ सन्नाओ ७।
वेद ८ कसाय ९ उवओग १० जोग ११ एगारस जीवट्ठाणा ॥१॥" गाथा है भगवती श० २६ (उ०१). १ छाया-जीवाश्च लेश्याः पक्षी दृष्टिरज्ञानज्ञानसज्ञाः ।
वेदः कषाय उपयोगो योग एकादश जीवस्थानानि ॥
।
तेजस
,
अनंत
.
.
-
आयुकर्म
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________________
२००
श्रीविजयानंदसूरिकृत .
[८ बन्ध___बंधी बंधइ बंधिस्सइ १, बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २, बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ३, बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ४, ए च्यार भांगा जान लेना.
(१५३) (पापकर्मादि आश्री भंग)
जीव मनुष्य पापकर्म १ ज्ञानावरणी २ दर्शनावरणी ३ मोहनीय ४ नाम ५ गोत्र ६ अंतराय आश्री १,२,३,४
सलेसी १, शुक्ललेशी २, शुक्लपक्षी ३, सम्यग्दृष्टि ४, सज्ञान आदि जाव मनःपर्यवशानी ९, नोसंशोपयुक्त १०, अवेदी ११, सजोगी १२, मन १३, वाक् १४,
काया १५ योगी, साकारोपयुक्त १६, अनाकारोपयक्त १७ भंग
कृष्णा आदि लेश्या ५, कृष्णपक्षी ६, मिथ्यादृष्टि ७, मिश्रदृष्टि ८, चार संज्ञा १२, अज्ञान ४।१६, सवेद आदि ४।२०, क्रोध २१, मान २२, माया २३
अलेशी १, केवली २, अयोगी ३ अकषायी १, एवं ४६ (?) बोल
arCom
(१५४) (वेदनीय आश्री भंग) जीव मनुष्य
___ वेदनीय कर्म आश्री बंधभंग १२४ सलेशी १, शुक्ललेशी २, शुक्लपक्षी ३, सम्यग्दृष्टि ४, नाणी ५, केवलनाणी ६, नोसंशोपयुक्त ७, अवेदी ८, अकषायी ९, साकारोपयुक्त १०, अनाकारोपयुक्त ११
___ अलेशी १, अयोगी २, कृष्ण आदि लेश्या ५, कृष्णपक्षी ६, मिथ्यादृष्टि ७, मिश्रदृष्टि ८, अज्ञान आदि ४।१२, संज्ञा १६, ग्यान था२०, सवेद आदि ४।२४, सकषाय आदि ५।२९ सयोग आदि
४॥३३ एवं बोल ४६ (१५५) (आयु आश्री भंग)
Jowanwor
जीव मनुष्य
१ ३२
आयुकर्म आश्री बंधभंग १, २, ३, ४ सलेशी आदि ७, शुक्लपक्षी ८, मिथ्यादृष्टि ९, अज्ञान आदि ४।१२, संज्ञा ४|१७, सवेद आदि ४।२१, सकषाय आदि ५।२६, सयोग आदि ४।३०, साकारोपयुक्त ३१,
अनाकारोपयुक्त ३२. मनःपर्यव १, नोसंज्ञोपयुक्त २ अलेशी १, केवली २, अमोगी ३
कृष्णपक्षी मिश्रदृष्टि १, अवेदी २, अकषायी ३; एवं ४६ (१) बोल
१, २, ३
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--------------------------------------------------------------------------
________________
तत्त्व नवतत्त्वसंग्रह
२०१ परंपरोववनगा १, परं० गाढा २, परंपरो आहारगा ३, परं० पजत्तगा ४, चरम ए पांच उद्देशा जीव मनुष्यना प्रथम उद्देशावत् ज्ञेयं. नवरं इतना विशेष चरम मनुष्यने आयुना बंध आश्री एक चौथा भंग संभवे, और भंग नही. एह अर्थ श्रीमदभयदेवसूरिये भगवतीजीकी टीकामे लिख्या है जो कर चौथा भंग आदि सर्व भंग पावे तो चरमपण कैसे होय ? इस वास्ते चौथा भंग संभवता है. (१५६) पापकर्म १ मोह २ ज्ञाना० ३ दर्शना० ४ वेदनीय ५ नाम ६ गोत्र ७
__ अंतराय ८ आश्री ___३४ । ३६ । २६ । २५ । ३० । ३९ । ३६ ३३, ३५
| पृथ्वी १, भवनपति अपू २ वन- १विगलेंद्री तिर्यंच
स्पति३ १२ १२ १२ १२ १२ १२ १२ | १२ शर
(१५७) आयु आश्री यंत्र तेजो.
सम०१ लेश्यामेरा ज्ञानाम ज्ञानीमे ४ ० ० ० तीजा भंग
श३।४ ३, शेष २५ कृष्णपक्षी १३ ११३ १३ । १३ । १३ । १३ । १३ १३ । १३ मिश्रष्टि ३४ । ३४ ० ० ० ४ ४ ४ ३४ शेष बोल ११२।३।४ १।२।३।४ १।२।३।४ १।२।३।४ १३ शराश४ १।२।३।४ ११२।३।४ १।२।३।४
व्यंतर
वायु २
निक
कृष्णलेशी भंग
कृष्णलेशी १३
३भग
मनुष्य अनंतरो० २, केवल ३, नो
मे नही
विभंग नही अवधि है
अलेशी १, मनःपर्यव
मन १, वचन संज्ञोपयुक्त ४, अवेदी मिश्रदृष्टि नही । ५, अकषायी ६, अयोगी ७. ए ७ नही उपरल सात मूलस .
.
नरकदेव
है
है
. .
नही
तिरिय विगलेंद्री
...,, ,, मूले नही । वचन नही | मूले नही मूले नही नारक आदि २४ दंडकमे आयु वर्जी शेष ज्ञानावरण १ पापकर्म आदि ८ बोल आश्री जिसमे जितने बोल है लेश्या आदि सर्व बोलमे १।२ भंग जानना. आयु आश्री २३ दंडकमे एक त्रीजा ३ भंग, मनुष्यमे आयु आश्री ३४ भंग अनंतरोवनगा १, अनंतरोगाढा २, अनं
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________________
२०२ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[ ८ बन्धतरआहारगा ३, अनं०पजत्तगा ४; ए चार उद्देशे एक सरीपे है, एवं सर्व उद्देशो १० हूये. ____अथ अचरमना ११ मा उद्देशा लिख्यते-मनुष्य वर्जी २३ दंडके आयु वर्जी पापकर्म आदि ८ आश्री सर्व बोला मे २२ भांगा. आयु आश्री नरक १, तिर्यंच २, देव ३ मे मिश्रदृष्टिमे भंग ३ तीजा. पृथ्वी १, अप २, वनस्पति ३, तेजोलेश्यीमे ३ तीजा भंग. विगलेंद्रीमे सम्यक्त्व १, ज्ञान आदि ३ ए ४ मे ३ तीजा भंग, मनुष्य अचरममे अलेश्यी १, अकेवली २, अयोगी ३; ए ३ नही, शेष बोल ४३ मे जहां चौथा भंग है सो नही कहना और सर्व प्रथम उद्देशवत् इति बंध अलम्.
(१५८) (अतीतादि आश्री भंग) । (१५९) (भव आश्री भंग) ___ भंग | अतीत । वर्तमान | अनागत | घणे भव अपेक्षा एक भव अपेक्षा
श्रेणिथी गिर फेर ११ मे
कति समये उपशांत पूर्व भवे ११ मे, वर्त- सयोगीने छहले
माने क्षीणमोह । समये पूर्व भवे ११ मा, वर्त-. | मान नही, आगे
११ मे से गिर फिर होगा ११
श्रेणि पावे नही सिद्ध १४ मे गुणस्थाने उपशांत पहिले ही उपशांत मोहके
पाया है प्रथम समये । क्षपकश्रेणि चढ्या,
शून्य उपशम कदे नही भव्य मोक्षाई १० मे गुणस्थानवाळा
भव्य
अभव्य
मिथ्यादृष्टि वा
अभव्य
(१६०) संपरायके बंधके भंग
sss
अभव्य वा भव्यक
उपशांतमोह गुणस्थान
SSI
भव्य
क्षीणमोह आदिक
एह दोनो यंत्र भगवतीजीके.
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
२०३
(१६१) कर्म समुच्चय जीव मनुष्य आश्री
बांधे। वेदे २
वेदे । बांधे ३ ८७६
बांधे। बांधे १ ।
८७६ ८७६ ८७६१ ८७
वेदे । वेदे ४
८७ ८७ ८७६
"
८७४
८७६१ ८७६ ८७६१ ८७६१ ८७६१ ८७६१
८७६ ८/७६ ८७६
८७४ ८७६ ८७४ ८७
(१६२) शेष २३ दंडक आश्री ४ भंग
८७ ८७
८७ ୧୨
७
८७
८७
८७ ८७ ८७ ८७
८/७ ८७
८७
श्रीपन्नवणापद. (१६३) अथ आयुयन्त्रम्
अवन्ध काल
बन्ध काल
देव नरक युगल | नो(निरु ? )पक्रमी सोपक्रमी संख्या
६ मास ऊणा दोतिहाइ (३) ज० दो तिहाइ, स्वस्व भवस्थिति आपआपणे आयुकी उ० अंतर्मुहूर्त ऊणा भव अंतर्मुहूर्त
अंतर्मुहूर्त | अंतर्मुहूर्त एक तिहाइ
| ज० अंतर्मुहूर्त, ६ मासा
उ० पूर्व कोडकी आपआपणे आयुकी
तीहाइ
आवाधा
उ(सो)पक्रम आयु त्रूटवाना कारण ७-(१) अध्यवसाय-भय आदिक, सोमल ब्राह्मणवत् , (२) निमित्त-शस्त्र आदिकसे मरण पामे, (३) आहार-अजीर्ण आदिसे मरण, (४) वेदना-शूल आदिक, (५) पराघात आदि-ठोकर खाइने पडना, (६) स्पर्श-सर्प आदि डंकणा, (७) आनप्राण-श्वासोच्छ्वासना रोकणा. एह सात प्रकारे सोपक्रमीना आयु त्रुटे पिण नोपक्रमीनो नही. एह यंत्र श्रीस्थानांग, भगवतीथी जानना इति..
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________________
२०४
[८ बन्ध
श्रीविजयानंदसूरिकृत (१६४) भगवती बंधी ५० बोलकी अष्ट कर्म आश्री
नाम,गोत्र
नियमा
१३
ज्ञाना०, दर्शना०,
वेदनीय
| मोहनीय आयु __अंतराय स्त्री, पुरुष, नपुंसक
नियमा नियमा नियमा वेद
भजना अवेदी संयत संयती
असंयती श्रावक संयतासंयत नोसंयत, नोअसंयत, नोसंयतासंयत
सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टि मिश्रदृष्टि
संज्ञी
असंज्ञी न संशी न असंही
भव्य
अभव्य नभव्य न अभव्य चक्षु आदि ३ दर्शन
केवलदर्शन ___ पर्याप्ता
अपर्याप्ता २४ न पर्याप्त न अपर्याप्त
भाषक २६
अभाषक
परत संसारी २८ अपरत संसारी २९ न परत न अपरत ३०-३३ मति आदि ४ ज्ञान
केवलज्ञान
२५
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
२०५
३५-३७ मति आदि ३/
अज्ञान
योग
४७
३८-४० ३- मन, वचन, काया
अयोगी ४२-४३
साकार अनाकार उपयोग आहारक अणाहारी सूक्ष्म
बादर ४८न सूक्ष्म न बादर . ४९-५० चरम, अचरम
अथ द्वार गाथा (?)
वेय संजय दिट्ठी सन्नी भविए दंसण पजत्त भासय परित्त नाण जोगो इ उवओग आहारग सुहम्म चरम बद्धे य अप्पाबहु १
अल्पबहुत्व सुगम.
अथ मार्गणा उपरि बंधद्वार. अथ धर्मा आदि नरकत्रय रचना गुणस्थान ४; बंधप्रकृति १०१ अस्ति. एकेन्द्रिय १, स्थावर १, आतप १, सूक्ष्म १, अपर्याप्ति(प्त) १, साधारण १, विकलत्रय ३, नरकत्रिक ३, देवत्रिक ३, वैक्रियद्विक २, आहारकद्विक २; एवं १९ नास्ति. १ | मि |१०० तीर्थकर उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १; एवं ४ विच्छित्ति
सा _ अनंतानुबंधी आदि २५ विच्छित्ति व्यौरा सास्वादनवत् ३ मि | ७०
मनुष्यायु उतारी १ ४ | अ |७२
___मनुष्यायु १, तीर्थकर १; एवं २ मिले अथ अंजना आदि नरकत्रय रचना गुणस्थान ४; बंधप्रकृति १०० अस्ति. १९ पूर्वोक्त अने तीर्थकर १; एवं २० नास्ति. १ मि |१००
मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १; एवं ४ विच्छित्ति २ सा ९६
अनंतानुबंधी आदि २५ विच्छित्ति सास्वादन गुणस्थानवत्
मनुष्यायु उतारी १
मनुष्यायु १ मिले १ छाया-वेदः संयमो दृष्टिः सञी भविको दर्शनं पर्याप्तो भाषकः परीतो ज्ञानं योगश्चोपयोग आहारकः सूक्ष्मश्चरमबद्धे चाल्पबहुखम् ॥ २ विवरण ।
७०
Page #235
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________________
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[ ८ बन्ध
अथ माघवी नरक रचना गुणस्थान ४; बंधप्रकृति ९९ पूर्वोक्त २०, मनुष्यायु १; एवं
२१ नास्ति.
२०६
१ मि ९६
२ सा ९१
३ मि ७०
अ ७०
१ मि १९७
२
सा १०१
अथ तिर्यग्गति रचना गुणस्थान ५ आदिके बंधप्रकृति ११७ अस्ति, तीर्थंकर १, आहारकद्विक नास्ति.
मनुष्यद्विक २, उंच गोत्र १; एवं ३ उतारे. मिथ्यात्व १, हुंडक १, नपुंसक १, छेवट्ठा १, तिर्यचायु १; एवं ५ विच्छित्ति
१ मि १०७
अनंतानुबंधी आदि २४ विच्छित्ति व्यौरा साखादनवत् मनुष्यद्विक २, उंच गोत्र १ मिले.
०
0
मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्टा १, एकेन्द्रिय १, थावर १, आतप १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १, साधारण १, विकलत्रिक ३, नरकत्रिक ३; एवं १६ विच्छित्ति.
३ मि ६९
४
अ ७०
५ | दे | ६६
अथ तिर्यंच अपर्याप्ति रचना गुणस्थान तीन- १|२|४; बंधप्रकृति १११ अस्ति. तीर्थकर १, आहारकद्विक २, आयु ४, नरकद्विक २; एवं ९ नास्ति,
0
अनंतानुबंधी आदि २५ तो सास्वादन गुणस्थानवत् अने वज्रऋषभ १, औदारिकद्विक २, मनुष्यत्रिक ३; एवं ३१ विच्छित्ति.
देवायु १ उतारे.
देवायु १ मिले. अप्रत्याख्यान ४ विच्छित्ति.
०
o
O
tara २, वैक्रियद्विक २ उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १, एकेन्द्रिय १, थावर १, आतप १, सूक्ष्म १, अपर्याप्ति १, साधारण १, विकलत्रय ३ एवं १३ विच्छित्ति.
अनंतानुबंधी ४, स्त्यानगृद्धित्रिक ३, दुर्भग १, दुःस्वर १, अनादेय १, संस्थान ४ २ सा ९४ मध्यके, संहनन ४ मध्यके, अप्रशस्त गति १, स्त्रीवेद १, नीच गोत्र १, तिर्यचकि २, उद्योत १, वज्रऋषभ १, औदारिकद्विक २, मनुष्यद्विक २; एवं २९ विच्छित्ति. tage २, वैयद्विक २३ एवं ४ मिले
४ अ ६९
अथ तिर्यंच अलब्धिपर्याप्त रचना गुणस्थान १ - प्रथम, बंधप्रकृति १०९ अस्ति, तीर्थकर १, आहारकद्विक २, देवत्रिक ३, वैक्रियद्विक २, नरकद्विक ३; एवं ११ नास्ति, उपरला यंत्र करण अपर्याप्तका जान लेना.
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तत्त्व
]
नवतत्त्वसंग्रह
२०७
अथ मनुष्य रचना गुणस्थान सर्वे १४; बंधप्रकृति १२० सर्वे अस्ति. आदिके च्यार गुणस्थान यंत्र अन्य ५ मेसें लेकर सर्व गुणस्थान समुच्चयवत्.
| आहारकद्विक २, तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व आदि १६ प्रकृतिकी विच्छित्ति
व्यौरा मिथ्यात्व गुणस्थान रचनाथी शेयम्. सा १०१
. अनंतानुबंधी आदि २५ सास्वादन गुणस्थान रचनावाली अने वज्रऋषभ १, औदारिकद्विक २, मनुष्यत्रिक ३, एवं ३१ विच्छित्ति.
देवायु १ उतारी
देवायु १, तीर्थकर १ मिले अथ मनुष्य अलब्धिपर्याप्ति रचना गुणस्थान १-मिथ्यात्व; बंधप्रकृति १०९. तीर्थकर १, आहारक २, देवत्रिक ३, नरकत्रिक ३, वैक्रियद्विक २; एवं ११ नास्ति. भवनपति, व्यंतर, जोतिषी तत्देवी ३ तथा वैमानिकदेवी रचना गुणस्थान ४ आदिके बंधप्रकृति १०३ है. सूक्ष्मत्रिक ३, विकलत्रिक ३, नरकत्रिक ३, देवत्रिक ३, वैक्रियद्विक २, आहारकद्विक २, तीर्थकर १; एवं १७ नही. १ मि १०३ मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १, एकेन्द्रिय १, थावर १, आतप १;एवं ७ वि०
अनंतानुबंधी आदि २५ सास्वादन गुणस्थानवाली विच्छित्ति
मनुष्यायु १ उतारे
मनुष्यायु १ मिले तत् अपर्याप्ति रचनामें गुणस्थान यथा संभवे तिनमे मनुष्यायु १, तिर्यंचायु १; एवं २ नास्ति.
अथ सौधर्म, ईशान रचना गुणस्थान ४ आदिके बंधप्रकृति १०४ है. सूक्ष्मत्रिक ३, विकलत्रिक ३, नरकत्रिक ३, देवत्रिक ३, वैक्रियद्विक २, आहारकद्विक २; एवं १६ नही. बंध भवनपतिवत् जहां संभवे तिहां. तीर्थकर अधिक चौथेमे.
तत् अपर्याप्तमे गुणस्थान तीन-१।।४; बंध १०२ का. १६ पूर्वोक्त अने मनुष्यायु १, तिर्यंचायु १, एवं १८ नही. पहिले १०१, दूजे ९४, चौथे ७१ उपरवत् ..
अथ सनत्कुमार आदि ६ कल्परचना गुणस्थान ४ आदिके बंधप्रकृति १०१ है. पूर्वोक्त (१६) सौधर्म, ईशानवाली अने एकेन्द्रिय १, थावर १, आतप १; एवं १९ नही. १ मि १०० | तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १; एवं ४ विच्छित्ति. २ सा ९६ अनंतानुबंधी आदि २५ विच्छित्ति साखादन गुणस्थानवत्
__ मनुष्यायु १ उतारे मनुष्यायु १, तीर्थकर १ मिले.
1c
अ
७२
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________________
२०८
cons
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्धतत् अपर्याप्ति रचना गुणस्थान ३-१२२।४, बंधप्रकृति ९ है. पूर्वोक्त तिर्यंचायु अने मनुष्यायुः एवं २ नास्ति. पहिले, दूजे, चौथे पर्याप्तवत्.
मि ९८ तीर्थकर उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठ १; एवं ४ विच्छित्ति. २ सा ९४ अनंतानुबंधी आदि २४ विच्छित्ति व्यौरा माधवीके सास्वादनवत्
तीर्थकर १ मिले अथ आनत आदि अवेयक पर्यंत रचना गुणस्थान ४ आदिके बंधप्रकृति ९७ अस्ति. पूर्वोक्त १९ सनत्कुमार आदिवाली अने तिर्यंचत्रिक ३, उद्योत १; एवं २३ नही. तीसरे गुण. स्थानकी रचना बहुश्रुतसे समज लेनी. १ मि ९६ तीर्थंकर उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १; एवं ४ विच्छित्ति
। अनंतानुबंधी ४, स्त्यानगृद्धित्रिक ३, दुर्भग १, दुःस्वर १, अनादेय १, संस्थान सा ९२ ४ मध्यके, संहनन ४ मध्यके, अप्रशस्त गति १, स्त्रीवेद १, नीच गोत्र १; सर्व २१ विच्छित्ति
___ मनुष्यायु १ उतारे ४ | अ |७२
मनुष्यायु १, तीर्थकर १; एवं २ मिले तत् अपर्याप्ति रचना गुणस्थान ३-१।।४; बंधप्रकृति ९६ है. पूर्वोक्त २३ अने मनुप्यायु १; एवं २४ नास्ति. मनुष्यायु घटा देना. पहिले ९५, दूजे ९१, चौथे ७१ है.
अथ पांच अनुत्तर रचना गुणस्थान १-चौथा; बंधप्रकृति ७२. पूर्वोक्त २३ तो आनत आदि रचनावाली अने मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १, अनंतानुबंधी ४, स्त्यानगृद्धित्रिक ३, दुर्भग १, दुःस्वर १, अनादेय १, संस्थान ४ मध्यके, संहनन ४ मध्यके, अप्रशस्त गति १, स्त्रीवेद १, नीच गोत्र १; एवं ४८ नही.
तत् अपयोप्तरचना मनुष्यायु १ नही. और सर्व पूर्वोक्तवत्.. ___ अथ एकेन्द्रिय १, विकलत्रय ३, अपर्याप्ति रचना गुणस्थान २ आदिके बंधप्रकृति १०७ है. आहारकद्विक २, तीर्थकर १, देवत्रिक ३, नरकत्रिक ३, वैक्रियद्विक २, मनुष्यायु १, तिर्यंचायु १; एवं २३ नास्ति. करण-अपर्याप्त.
। मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १, एकेन्द्रिय १, थावर १, आतप १,
सूक्ष्म १, अपर्याप्त १, साधारण १, विकलत्रय ३; एवं १३ विच्छित्ति २ सा ९४
० ० ० अथ एकेन्द्रिय १, विकलत्रय ३ पर्याप्त रचना गुणस्थान १-मिथ्यात्व १; बंधप्रकृति १०९ है. पूर्वोक्त १०७; मनुष्यायु १, तिर्यंचायु १, ए दोइ अधिक वधी.
अथ एकेन्द्रिय, विकलत्रय अलब्धिपर्याप्त रचना गुणस्थान १-मि० बंध १०९ पूर्वोक्त.
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तत्त्व ]
संग्रह
२०९
अथ पंचेन्द्रियरचना गुणस्थानवत्. अथ पृथ्वीकाय, अपू, वनस्पति अपर्याप्तरचना, एकेन्द्रिय विकलत्रयपर्याप्तवत् अथ तेजवायुरचनागुणस्थान १ - मिथ्यात्व १९ बंधप्रकृति १०५ है. आहारकद्विक २, तीर्थकर १, देवत्रिक ३, नरकत्रिक ३, मनुष्यत्रिक ३, वैक्रियद्विक २, उंच गोत्र १३ एवं १५ नास्ति. अथ त्रस्कायरचना गुणस्थानवत्. अथ मनोयोग ४, वचनयोग ४, रचनागुणस्थान १३ वत्. अथ औदारिकयोग २ना गुणस्थान सर्वे १४ बंधप्रकृति १२० सर्वे सन्ति, मनुष्यरचना गुणस्थानवत् सर्व. अथ औदारिकमिश्र योगरचनागुणस्थान ४ - पहिला, दूजा, चौथा, तेरमा, बंधप्रकृति ११४ है. देवायु १, नरकत्रिक ३, आहारकद्विक २१ एवं ६ नही. इहां कार्मण से मिल्या मिश्र ग्राह्य.
वैक्रियद्विक २, देवद्विक २, तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, १ मि १०९ छेवट्ठा १, एकेन्द्रिय १, थावर १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, विकलत्रिक ३, मनुष्यायु १, तिर्यचायु १, एवं १५ विच्छित्ति.
अनंतानुबंधी आदि २९ विच्छित्ति. व्यौरा तिर्यच अपर्याप्त रचना साखादनगुणस्थानवत्
वैक्रियद्विक २, देवद्विक २, तीर्थकर १ मिले. अप्रत्याख्यान ४, प्रत्याख्यान ४, ७० षष्ठ गुणस्थानकी ६, अष्टम गुणस्थानकी ३४, आहारकद्विक २ विना नवमे गुणस्थानकी ५, दशम गुणस्थानकी १६ एवं ६९ विच्छित्ति.
२
४ अ
सा
१३
स
१
अथ देवगति वैक्रियक मिश्रयोग रचना गुणस्थान ३ - १२/४ बंधप्रकृति १०२ है. सूक्ष्मत्रिक ३, विकलत्रिक ३, नरकत्रिक ३, देवद्विक ३, वैक्रियकद्विक २, आहारकद्विक २, तिर्यंचा १, मनुष्यायु १, एवं १८ नही.
१ मि १०१
४
९४
०
सा ९६
३ मि ७०
४
अ ७२
०
०
२ सा ९४
१
७१
अथ देवगति वैक्रियक रचना गुणस्थान ४ आदिके बंधप्रकृति १०४ है, पूर्वोक्त सूक्ष्म आदि आहारकद्विक पर्यंत १६ नास्ति.
0
तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १, एकेन्द्रिय १, स्थावर १, आतप १; एवं ७ विच्छित्ति.
अनंतानुबंधी आदि उद्योत पर्यंत २४ की विच्छित्ति. सौधर्म, ईशान अपर्याप्तिरचना सास्वादन गुणस्थानवत् माघवीवाली
तीर्थकर १ मिले.
१ मि १०३ तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १, एकेन्द्रिय १, थावर
१, आतप १ एवं ७ व्यवच्छेद
अनंतानुबंधी आदि २५ विच्छित्ति सास्वादन गुणस्थानवत्
मनुष्यायु १ उतारे
मनुष्या ९, तीर्थकर १ मिले.
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२१०
श्रीविजयानदसूरिकृत
[८बन्धअथ नरकगति वैक्रियमिश्र रचना गुणस्थान २–पहिला, चौथा; बन्धप्रकृति ९९ है. एकेंद्री १, थावर १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, विकलत्रिक ३, नरकत्रिक ३, देवत्रिक ३, वैक्रियद्विक २, आहारकद्विक २, मनुष्य-आयु १, तिर्यंच-आयु १; एवं २१ नास्ति.
- तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, हुंडक १, नपुंसक १, छेवट्ठ १, अनंतानुबंधी आदि ४एवं २८ व्यवच्छेद
तीर्थकर १ मिले अथ नरकगति वैक्रिय रचना गुणस्थान ४ आदिके बन्धप्रकृति १०१. पूर्वोक्त एकेंद्री आदि आहारकद्विक पर्यंत १९ नही, समुनयनरकवत्. १ मि १०० तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट १; एवं ४ विच्छित्ति २ सा ९६ अनंतानुबंधी आदि २५ विच्छित्ति सास्वादन गुणस्थानवत्
मनुष्य-आयु १ उतारे
मनुष्य-आयु १, तीर्थकर १ मिले अथ आहारक काय योग तथा आहारक मिश्र रचना गुणस्थान १-प्रमत्तः बन्धप्रकृति ६३ है. मिथ्यात्व १, हुंड १, नपुंसक १, छेवट्ठा १, एकेंद्री १, थावर १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, विकलत्रिक ३, नरकत्रिक ३, अनंतानुबंधि ४, स्त्यानगृद्धित्रिक ३, दुर्भग १, दुःखर १, अनादेय १, संस्थान ४ मध्यके, संहनन ४ मध्यके, अप्रशस्त गति १, स्त्रीवेद १, नीच गोत्र १, तियेचद्विक २, उद्योत १, तिर्यंच-आयु १, अप्रत्याख्यान ४, वज्रऋषभ १, औदारिकद्विक २, मनुष्यद्विक २, मनुष्य-आयु १, प्रत्याख्यान ४, आहारकद्विक २, एवं ५७ नही.
अथ कार्मण योग रचना गुणस्थान ४-१।२।४।१३ मा बन्धप्रकृति ११२ है. देव-आयु १, नरक-आयु १, नरकद्विक २, आहारकद्विक २, मनुष्य-आयु १, तिर्यंच-आयु १; एवं ८ नही.
देवद्विक २, वैक्रियद्विक २, तीर्थकर १; एवं ५ उतारे. मिथ्यात्व आदि विकल. + | त्रय पर्यंत १३ विच्छित्ति
अनंतानुबंधी आदि उद्योत पर्यंत २४ विच्छित्ति | देवद्विक २, वैक्रियद्विक २, तीर्थकर १; एवं ५ मिले. अप्रत्याख्यान ४, वज्र. ऋषभ १, औदारिकद्विक २, मनुष्यद्विक २, प्रत्याख्यान ४, षष्ठ गुणस्थानकी ६, आहारकद्विक विना अष्टम गुणस्थानकी ३४, नवम गुणस्थानकी ५, दशम गुणस्थानकी १६, एवं ७४ व्यवच्छेद. एक सातावेदनीय रही तेरमे
० ० ० ० ० अथ वेदरचना गुणस्थानकरचनावत् नवमे गुणस्थान पर्यंत. अथ अनंतानुवंधिचतुष्करचना गुणस्थान २ आदिके बन्धप्रकृति ११७ है. आहारकद्विक २, तीर्थकर १; एवं ३ नास्ति.
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
मिथ्यात्व आदि नरक आयु पर्यंत १६ विच्छित्ति २ सा १०१
. . . अप्रत्याख्यान ४ का बंध आदिके चार गुणस्थानवत्. प्रत्याख्यान आदिके पांच गुणस्थानवत्. संज्वलन क्रोध १, मान २, माया १ नवमे लग पूर्ववत् अने संज्वलन लोभ आदिके दश गुणस्थानवत.
अथ अज्ञान रचना गुणस्थान २ आदिके बन्धप्रकृति ११७ पहिले, दूजे १०१ पूर्ववत.
अथ मति, श्रुत, अवधिज्ञान रचना चौथेसे लेकर बारमे ताइ समुच्चयगुणस्थानवत. अथ मनःपर्यवज्ञान छटेसे लेकर बारमे पर्यंत रचना समुच्चयवत्. केवलज्ञान १३ मे १४ मे वत्.
__ अथ सामायिक, छेदोपस्थापनीय छठे, सातमे, आठमे, नवमे गुणस्थानवत्. अथ परिहारविशुद्धि ६७ मे वत्, सूक्ष्मसंपराय दशमेवत्. यथाख्यात ११।१२।१३।१४ वत्, देश संयम पांचमेवत्, असंयती आदिके चार गुणस्थानवत.
अथ चक्षु, अचक्षु, अवधिदर्शन अवधिज्ञानवत् रचना १२ मे पर्यंत गुणस्थानवत्, केवलदर्शन केवलज्ञानवत.
अथ कृष्ण १, नील २, कापोत ३ लेश्या रचना बन्धप्रकृति ११८ है. आहारकद्विक नही. गुणस्थानक ४ आदिके तीर्थकर रहित पहिले ११७ आगले तीन गुणस्थान समुच्चयगुणस्थानवत्. अथ तेजोलेश्या रचना गुणस्थान ७ आदिके बन्धप्रकृति १११ है. सूक्ष्मत्रिक ३, विकलत्रिक ३, नरकत्रिक ३; एवं ९ नास्ति. तीर्थकर १, आहारकद्विक २, ए तीन विना पहिले १०८ आगे ६ गुणस्थानोमे समुच्चयगुणठाणावत्. पद्मलेश्या रचना गुणस्थान ७ आदिके बन्धप्रकृति १०८ है. एकेंद्रि १, थावर १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, विकलत्रिक ३, नरकत्रिक ३, एवं १२ नास्ति. तीर्थकर १, आहारकद्विक २, ए त्रण विना पहिले १०५ आगे गुणस्थानवत्. अथ शुक्ललेश्या रचना गुणस्थान १३ आदिके बन्धप्रकृति १०४ है. पूर्वोक्त एकेंद्रिय आदि १२ अने तिर्यंचत्रिक ३, उद्योत् १; एवं १६ नास्ति. तीर्थकर १, आहारद्विक २ विना पहिले १०१ आगे सर्वगुणस्थानवत्.
अथ भव्यरचना १४ गुणस्थानवत् ; अभव्य प्रथम गुणस्थानवत् जानना.
अथ क्षायिक सम्यक्त्व रचना गुणस्थान ११-अविरति सम्यग्दृष्टि आदि बन्धप्रकृति ७९ है. मिथ्यात्व आदि १६, अनंतानुबंधि आदि २५; एवं ४१ नही. आहारकद्विक विना चौथे ७७ आगे समुच्चयगुणस्थानद्वारवत् . अथ क्षयोपशम सम्यक्त्व रचना गुणस्थान ४-अविरतिसम्यग्दृष्टि आदिः बन्ध पूर्वोक्त ७९ क्षायिकवत् , चारो गुणस्थान परि जान लेना. अथ उपशम सम्यक्त्व रचना गुणस्थान ८-अविरति सम्यग्दृष्टि आदि; बन्धप्रकृति ७७ है. पूर्वोक्त ४१ तो क्षायिकवाळी अने मनुष्य-आयु १, देव-आयु १, एवं ४३ नास्ति, क्षायिकवत
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२१२
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[ ८ बन्धबन्ध परंतु आयु दोनो सातमे ताइ घटावनी साखादन साखादन गुणस्थानवत् , मिश्र मिश्र गुणस्थानवत् .
अथ संज्ञी रचना गुणस्थानरचनावत्. अथ असंज्ञी रचना गुणस्थान २ आदिके बन्ध पहिले, दूजे पूर्ववत् ११७।१०१.
अथ आहारक रचना गुणस्थान १३ पर्यंत. अथ अनाहारक रचना गुणस्थान ४१, २, ४ अने १३, बन्धप्रकृति ११२ अस्ति. आयु ४, आहारकद्विक २, एवं नरकद्विक २; एवं ८ नास्ति.
..... वेदद्धिक २, वैक्रियद्विक २, तीर्थकर १; एवं ५ उतारे. मिथ्यात्व आदि विकल
त्रिक ३ पर्यंत १३ की विच्छित्ति सा | ९४ |
अनंतानुबंधि आदि उद्द्योत पर्यंत २४ विच्छित्ति देवद्विक २, वैक्रियकद्विक २, तीर्थकर १; एवं ५ मिले. अप्रत्याख्यान आदि ९, | अ | ७५ प्रत्याख्यान ४, अथिर आदि ६, आहारकद्विक २ विना ३४ अपूर्वकरणकी, अनिवृत्तिकरणकी ५, सूक्ष्मसंपरायकी १६; एवं ७४ की विच्छित्ति
___एक सातावेदनीय रही.
इति श्रीबन्धाधिकार संपूर्ण. अथ उदयाधिकारः लिख्यते गुणस्थानेषु
अथ नरकगति रचना गुणस्थान ४ आदिके उदयप्रकृति ७६ अस्ति. स्त्यानगृद्वित्रिक ३, पुरुषवेद १, स्त्रीवेद १, आयु ३ नरक विना, उंच गोत्र १, गति ३ नरक विना, जाति ? पंचेंद्री विना, औदारिकद्विक २, आहारकद्विक २, संहनन ६, संस्थान ५ हुंडक विना, प्रशस्त गति १, नरक विना आनुपूर्वी ३, थावर १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १, साधारण १, सुभग १, सुखर १, आदेय १, यश १, आतप १, उद्योत १, तीर्थकर १; एवं ४६ नास्ति. १ मि | ७४ | मिश्रमोहनीय १, सम्यक्त्वमोहनीय १ उतारे. मिथ्यात्व (१) विच्छित्ति ।
सा | ७२ नरकगति-आनुपूर्वी १ उतारी. अनंतानुवंधि ४ विच्छित्ति मि ६९
मिश्रमोहनीय १ मिले. मिश्रमोहनीय १ विच्छित्ति
सम्यक्त्वमोहनीय १, नरकगति-आनुपूर्वी १ मिले. अथ सामान्य तिर्यंच रचना गुणस्थान ५ आदिके उदयप्रकृति १०७. आयु ३ तिर्यंच विना, मनुष्यद्विक २, उंच गोत्र १, आहारकद्विक २, वैक्रियछक ६, तीर्थकर १; एवं १५ नास्ति.
४
अ । ७०
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नवतत्त्वसंग्रह
२१३
मिश्रमोहनीय १, सम्यक्त्वमोहनीय १ उतारे. मिथ्यात्व १, आतप १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १, साधारण १ एवं ५ विच्छित्ति
अनंतानुबंध ४, एकेन्द्रिय १, थावर १, विकलत्रय ३ एवं ९ विच्छित्ति
तिर्यचानुपूर्वी १ उतारे. मिश्रमोहनीय १ विच्छित्ति
सम्यक्त्वमोहनीय १, तिर्यचानुपूर्वी १ मिले. अप्रत्याख्यान ४, तिर्यचानुपूर्वी १, ४ अ ९२ दुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं ८ विच्छित्ति
दे ८४
अथ पंचेंद्री रचना गुणस्थान ५ आदिके उदयप्रकृति ९९ है. आयु ३ तिर्यच विना, मनुष्यद्विक २, आहारकद्विक २, उंच गोत्र १, वैकिवपटू ६, तीर्थकर १, एकेंद्री १, थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, आतप ९, विकलत्रय ३; एवं २३ नास्ति.
तत्त्व ]
१ मि १०५
२
सा १००
३ मि ९१
५
१ | मि | ९७ मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १ उतारे. मिथ्यात्व १, अपर्याप्त १ विच्छित्ति अनंतानुबंध ४ विच्छित्ति
२ सा ९५
३ मि ९१
४
५
अ ९२
८४
अथ पर्याप्त तिर्यंचने रचना गुणस्थान ५ आदिके उदयप्रकृति ९७ अस्ति. पूर्वोक्त २३, वेद १, अपर्याप्त १ एवं २५ नास्ति.
१ | मि | ९५
२ सा ९४
३ मि ९०
तिर्यचानुपूर्वी १ उतारे. मिश्रमोह० १ मिले. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति
सम्यक्त्वमोह० १, तिर्यचानुपूर्वी १ मिले. अप्रत्याख्यान ४, तिर्यचानुपूर्वी १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं ८ विच्छित्ति
५
0
०
0
०
०
मिश्रमोहनीय १, सम्यक्त्वमोहनीय १ उतारे. मिथ्यात्व १ विच्छित्ति अनंतानुबंध ४ विच्छित्ति
मिश्रमोहनीय १ मिले. तिर्यचानुपूर्वी १ उतारी. मिश्रमोह १ विच्छित्ति सम्मोहनी १, तिर्यचानुपूर्वी १ मिले. अप्रत्याख्यान ४, तिर्यचानुपूर्वी १, ४ अ ९१ दुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं ८ विच्छित्ति
दे ८३
अथ अलब्धिपर्याप्त तिर्यंच रचना गुणस्थान १ - मिथ्यात्व; उदयप्रकृति ७९ अस्ति. आयु ३ तिर्यच विना, उंच गोत्र १, मनुष्यद्विक २, आहारकद्विक २, वैक्रियपट् ६, तीर्थंकर १, थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, आतप १, एकेंद्री १, बेंद्री १, पराघात १, उच्छ्वास १, उद्योत १, प्रशस्त गति १, अप्रशस्त गति सुभग १, संस्थान ५ हुंडक विना, संहनन ५ छेवट्ठ विना, स्त्रीवेद १,
O
0
०
०
तेंद्री १, चौरिंद्री १, १, यश १, आदेय १,
पुरुषवेद १, स्त्यान -
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|
c nam |
||
२१४ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्धगृद्धित्रिक ३, पर्याप्त १, सुखर १, दुःखर १, मिश्रमोहनीय १, सम्यक्त्वमोहनीय १; एवं ५१ नास्ति. एह संमूछिम अपेक्षा जानना, पहिले ७१ है.
अथ सामान्य मनुष्य रचना गुणस्थान सर्वेः उदयप्रकृति १०२ है. थावर १, सूक्ष्म १, तिर्यचत्रिक ३, नरकत्रिक ३, देवत्रिक ३, आतप १, उद्योत १, एकेंद्री १, विकलत्रय ३, साधारण १, वैक्रियद्विक २; एवं २० नास्ति.
। मिश्रमोहनीय १, सम्यक्त्वमोहनीय १, आहारकद्विक २, तीर्थकर १ उतारे. | मिथ्यात्व १, अपर्याप्त १ विच्छित्ति २ सा ९५
___ अनंतानुबंधी ४ व्यवच्छेद ३ मि ९१ | मनुष्यानुपूर्वी १ उतारे. मिश्रमोह० १ मिले. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति ।
- सम्यक्त्वमोहनीय १, म(आ?)नुपूर्वी १ मिले. अप्रत्याख्यान ४, मनुष्यानुपूर्वी ११, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं ८ विच्छित्ति
प्रत्याख्यान ४, नीच गोत्र १; एवं ५ विच्छित्ति
आहारकद्विक २ मिले सातमेसे लेकर आगे सर्व समुच्चयगुणस्थानवत् जान लेना.
अथ पर्याप्त मनुष्य रचना गुणस्थान सर्वे १४; उदयप्रकृति १०० है, पूर्वोक्त २०, स्त्रीवेद १, अपर्याप्त १; एवं २२ नास्ति. I I मिश्रमोहनीय १, सम्यक्त्वमोहनीय १, आहारकद्विक २, तीर्थकर १. एवं ६
५ उतारे. मिथ्यात्व १ विच्छित्ति २ सा ९४
अनंतानुबंधी ४ विच्छित्ति मनुष्यानुपूर्वी १ उतारी. मिश्रमोह० १ मिले. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति सम्यकत्वमोह० १, मनुष्यानुपूर्वी १ मिले. अप्रत्याख्यान ४, मनुष्यानुपूर्वी १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं ८ विच्छित्ति
प्रत्याख्यान ४, नीच गोत्र १; एवं ५ विच्छित्ति आहारकद्विक २ मिले. आहारकद्विक २, स्त्यानगृद्धित्रिक ३, एवं ५ विच्छित्ति
सम्यक्त्वमोह० १, संहनन ३ अंतके; एवं ४ विच्छित्ति ८ अ ७१
हास्य आदि षट् ६ विच्छित्ति नपुंसक १, पुरुषवेद १, संज्वलन क्रोध १, मान १, माया १ विच्छित्ति शेष गुणस्थानमे समुच्चयवत. ... अथ अलब्धिपर्याप्त मनुष्य रचना गुणस्थान १-मिथ्यात, उदयप्रकृति ७१ है. ज्ञाना.
| | | | | | Canada
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तत्त्व ]
नवतत्त्व संग्रह
२१५
आदि ६,
वरण ५, दर्शनावरण ४, निद्रा १, प्रचला १, मिध्यात्व १, कषाय १६, हास्य नपुंसकवेद १, मनुष्यत्रिक ३, नीच गोत्र १, औदारिकद्विक २, वेदनीय २, हुंडक १, छेवडा १, पंचेंद्री १, तैजस १, कार्मण १, वर्णचतुष्क ४, अपर्याप्त १, अथिर १, अशुभ १, दुग १, अनादेय, अश १, त्रस १, बादर १, प्रत्येक १, थिर १ शुभ १, अगुरुलघु १, उपघात १, निर्माण २, अंतराय ५: एवं ७१ है.
अथ सामान्य देव रचना गुणस्थान ४ आदिके उदयप्रकृति ७७. ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४, निद्रा १, प्रचला १, मोहनीय २७, नपुंसक विना वेद २, देव-आयु १, देवद्विक २, वैक्रियकद्विक २, पंचेंद्री १, तैजस १, कार्मण १, समचतुरस्र १, प्रशस्त गति १, वर्णचतुष्क ४, अगुरुलघु १, उपघात १, पराघात १, उच्छ्वास १, निर्माण १, अथिर १, अशुभ १, सदशक १०, उंच गोत्र १, अंतराय ५; एवं ७७ अस्ति, शेष ४५ नास्ति.
१ मि ७५
२. सा ७४
३ मि ७०
४ अ ७१
मिश्रमोहनीय १, सम्यक्त्वमोहनीय १ उतारे. मिथ्यात्व १ विच्छित्ति अनंतानुबंध ४ विच्छित्ति
देवानुपूर्वी १ उतारी. मिश्रमोहनीय १ मिले. मिश्रमोहनीय १ विच्छित्ति आनुपूर्वी देवस्य १, सम्यक्त्वमोहनीय १ मिले.
अथ सौधर्म आदि व ग्रैवेयक पर्यंत रचना गुणस्थान ४ आदिके उदयप्रकृति ७६ अस्ति, स्त्रीवेद विना पूर्वोक्त; एवं भवनपति आदि ३.
१ मि | ७४
२ सा ७३
३ मि
६९
४ अ ७०
मिश्रमोहनीय १, सम्यक्त्वमोहनीय १ उतारे. मिथ्यात्व १ विच्छित्ति अनंतानुबंध ४ विच्छित्ति
देवानुपूर्वी १ उतारी, मिश्रमोहनीय १ मिली, मिश्रमोहनीय १ विच्छित्ति देवानुपूर्वी १, सम्यक्त्वमोहनीय १६ एवं २ मिले
अनुत्तर ५ रचना गुणस्थान १ - चौथा; उदयप्रकृति ७० है. पूर्वोक्त सामान्य देव रचनाघाली ७७, तिण मध्ये मिथ्यात्व १, मिश्रमोहनीय १, अनंतानुबंधी ४, स्त्रीवेद १; एवं ७ नास्ति,
४ अ ७०
०
०
०
०
अथ एकेंद्री रचना गुणस्थान २ आदिके उदयप्रकृति ८०. ज्ञाना० ५, दर्शना० ४, वेदनीय २, मोहनीय २४, मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, पुंम ( 3 ) १ स्त्रीवेद विना, तिर्यंच- आयु १, तिर्यचद्विक २, औदारिक शरीर १, हुंड १, तैजस १, कार्मण १, वर्णचतुष्क ४, अपर्याप्त १, अथिर १, अशुभ १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १, बादर १, प्रत्येक १, थिर ९, शुभ १, अगुरुलघु १, उपघात १, निर्माण १, थावर १, एकेंद्री १, परा
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०
०
०
२१६ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[ ८ बन्धघात १, उच्छ्वास १, आतप १, उद्योत १, पर्याप्त १, साधारण १, सूक्ष्म १, यश १, नीच गोत्र १, अंतराय ५; एवं ८०(?) है, शेष ४२ नही.
LI मिथ्यात्व १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, स्त्यानगृद्धि ३, पराघात १, उच्छ्वास १,
| उद्द्योत १; एवं ११ विच्छित्ति २सा ६९
अथ विकलत्रय रचना गुणस्थान २ आदिके उदयप्र० ८१. ज्ञाना० ५, दर्शना० ९, वेदनीय २, मिथ्यात्व १, कषाय १६, हास्य आदि ६, नपुंसकवेद १, तिर्यंच-आयु १, तिर्यंच. द्विक २, औदारिकद्विक २, हुंडक १, छेवट्ठ १, विकलेंद्री स्वकीय १, तैजस १, कार्मण १, वर्ण(चतुष्क) ४, अपयोप्त १, अथिर ६, त्रस ६, अगुरुलघु १, उपघात १, पराघात १, निर्माण १, उच्छ्वास १, उद्योत १, यश १, अप्रशस्त गति १, नीच गोत्र १, अंतराय ५; एवं ८१ है.
| मिथ्यात्व १, अपर्याप्त १, स्त्यानगृद्धित्रिक ३, पराघात १, उच्छ्वास १, उद्द्योत
१, दुःस्वर १, अप्रशस्त गति १; एवं १० विच्छित्ति २। सा| ७१
० ० ० अथ पंचेंद्री रचना गुणस्थान १४ सर्वेः उदयप्रकृति ११४ अस्ति. एकेंद्री १, थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, विकलत्रय ३, आतप १; एवं ८ नास्ति.
। मिश्रमोहनीय १, सम्यक्त्वमोहनीय १, आहारकद्विक २, तीर्थकर १, एवं ५ । १० उतारे. मिथ्यात्व १, अपर्याप्त १ विच्छित्ति २ सा १०६
नरकानुपूर्वी १ उतारी, अनंतानुवंधि ४ विच्छित्ति ३ मि |१०० शेष आनुपूर्वी ३ उतारी. मिश्रमोहनीय १ मिली. मिश्रमोहनीय १ विच्छित्ति
आनुपूर्वी ४, सम्यक्त्वमोहनीय १; एवं ५ मिले पांचमेसे लेकर सर्व गुणस्थानमे समुच्चयवत्.
अथ पृथ्वीकाय रचना गुणस्थान २ आदिके उदयप्रकृति ७९. ज्ञाना० ५, दर्शना० ९, वेदनीय २, मिथ्यात्व १, कषाय १६, हास्य आदि ६, नपुंसक १, तिर्यंच-आयु १, तियंचद्विक २, औदारिक १, हुंडक १, तैजस १, कार्मण १, वर्णचतुष्क ४, अपर्याप्त १, अथिर १, अशुभ १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १, बादर १, प्रत्येक १, थिर १, शुभ १, अगुरुलघु १, उपघात १, पराघात १, निर्माण १, उच्छ्वास १, आतप १, उद्योत १, पर्याप्त १, एकेंद्री १, यश १, थावर १, सूक्ष्म १, नीच गोत्र १, अंतराय ५; एवं ७९ है. ४३ नही.
| मिथ्यात्व १, अपर्याप्त १, आतप १, सूक्ष्म १, थीणत्रिक ३, पराघात १, १ मि ७९
उच्छ्वास १, उद्योत १; एवं १० विच्छित्ति २सा ६९
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२१७
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह अथ अप्कायरचना गुणस्थान २ आदिके उदयप्रकृति ७८ है. पूर्वोक्त ७९, आतप १ विना.
...। मिथ्यात्व १, अपर्याप्त १, सूक्ष्म १, थीणत्रिक ३, पराघात १, उच्छ्वास १, उद्
१ मि | ७८ द्योत १ विच्छित्ति.
०
०
२ सा ६९
__ अथ तेजोवायुकाय रचना गुणस्थान १-मिथ्यात्व; उदयप्रकृति ७७ है. पूर्वोक्त ७९ आतप १, उद्योत १ विना.
___ अथ वनस्पतिकाय रचना गुणस्थान २ आदिके उदयप्रकृति (७९). ज्ञाना०५, दर्शना०९, अंतराय ५, मिथ्यात्व १, कपाय १६, हास्य आदि ६, नपुंसक १, तिर्यचत्रिक ३, नीच गोत्र १, औदारिक १, हुंडक १, तैजस १, कार्मण १, वर्णचतुष्क ४, अपर्याप्त १, अथिर १, अशुभ १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १, बादर १, प्रत्येक १, थिर १, शुभ १, अगुरुलघु १, उपवात १, निर्माण १, पराघात १, उच्छ्वास १, उद्योत १, पर्याप्त १, साधारण १, एकेंद्री १, यश १, थावर १, सूक्ष्म १, वेदनी २; सर्वे अस्ति ७९, शेष ४३ नास्ति.
01 मिथ्यात्व १, सूक्ष्मत्रिक १, थीणत्रिक ३, पराघात १, उच्छ्वास १, उद्योत १
१ मि ७९ विच्छित्ति.
२ सा | ६९ 1
अथ त्रसकाय रचना गुणस्थान १४ सर्वेः उदयप्रकृति ११७ अस्ति. थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, एकेंद्री १, आतप १; एवं ५ नास्ति.
... मिश्रमोहनीय १, सम्यक्त्वमोहनीय १, आहारकद्विक २, तीर्थकर १, एवं ५
१९९ उतारे. मिथ्यात्व १, अपर्याप्त १; एवं २ विच्छित्ति. २ सा | १०९ नरकानुपूर्वी १ उतारी. अनंतानुबंधि ४, विकलत्रय ३ विच्छित्ति.. ३ मि | १०० शेष आनुपूर्वी ३ उतारी. मिश्रमोह० १ मिले. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति अ | १०४
आनुपूर्वी ४, सम्यक्त्वमोहनीय १ मिले. पांचमेसे लेकर चौदमे ताई समुच्चयवत् जानना.
अथ मनचतुष्क आदि वचनत्रिक, एवं ७ योगरचना गुणस्थान १२ आदिके उदयप्रकृति १०९ अस्ति. एकेंद्री १, थावर १, सूक्ष्मत्रिक ३, आतप १, विकलत्रय ३, आनुपूर्वी ४; एवं १३ नास्ति. १ | मि | १०४ मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १,आहारकद्विक २, तीर्थकर उतारे. मिथ्यात्व १ वि०
अनंतानुबंधि ४ विच्छित्ति ३ मि १००
मिश्रमोह० १ मिली. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति. सम्यक्त्वमोह० १ मिले. अप्रत्याख्यान ४, वैक्रियद्विक २, देवगति १, नरकगति १, देव-आयु १, नरक-आयु १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १ विच्छित्ति.
as an in
|| c
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२१८ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्धआगले गुणस्थानोमे समुच्चयवत् जानना.
अथ व्यवहार वचन योग रचना गुणस्थान १३ आदिके उदयप्रकृति ११२ है. एकेंद्री १, थावर १, सूक्ष्मत्रिक ३, आतप १, आनुपूर्वी ४; एवं १० नास्ति. १ | मि १०७ मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १,आहारकद्विक २, तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १ वि० २ सा १०६ ___ अनंतानुबंधि ४, विकलत्रय ३, एवं ७ विच्छित्ति. ३ मि १००
मिश्रमोह० १ मिली. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति. सम्यक्त्वमोह० १ मिली. अप्रत्याख्यान ४, वैक्रियद्विक २, देवगति १, देव-आयु ००१, नरकगति १, नरक-आयु १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १ विच्छित्ति.
० ० ० आगले गुणस्थानोमे समुच्चयवत् जानना.
अथ औदारिक काय योगरचना गुणस्थान १३ आदिके उदयप्रकृति १०९ अस्ति. आहारकद्विक २, वैक्रियकद्विक २, आनुपूर्वी ४, देवगति १, देव-आयु १, नरकगति १, नरक-आयु १, अपर्याप्त १; एवं १३ नास्ति.
मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, आतप १, सूक्ष्म १, साधारण १; एवं ४ विच्छित्ति.
अनंतानुबंधि ४, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३, एवं ९ विच्छित्ति. ३ मि ९४
मिश्रमोह० १ मिले. मिश्रमोह०१ विच्छित्ति सम्यक्त्व १ मिले. अप्रत्याख्यान ४, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १ विच्छित्ति. प्रत्याख्यान ४, तिर्यंच गति १, तिर्यंच-आयु १, नीच गोत्र १, उद्द्योत १; एवं ८ वि०
०००
आगले गुणस्थानोमे समुच्चयवत्. ___ अथ औदारिकमिश्र योग रचना गुणस्थान ४-पहिलो, दजौ, चौथौ, तेरमौः उदयप्रकृति ९८ है. आहारकद्विक २, वैक्रियद्विक २, आनुपूर्वी ४, देवगति १, देव-आयु १, नरकगति १, नरक-आयु १, मिश्रमोह० १, थीणत्रिक ३, दुःस्वर १, प्रशस्त गति १, अप्रशस्त गति १, पराघात १, उच्छ्वास १, आतप १, उद्योत १; एवं २४ (१) नही. १ मि | ९६ सम्यक्त्वमोह० १, तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, सूक्ष्मत्रिक ३ विच्छित्ति
. अनंतानु० ४, एकेंद्रिय १, थावर १, विकलत्रय ३, दुर्भग १, अनादेय १, अयश । १२ १, नपुंसकवेद १, स्त्री १; एवं १४ व्यवच्छेद.
सम्यक्त्वमोह० १ मिले. अप्रत्या०४, प्रत्या० ४, तिर्यंच गति १, तिर्यंच-आयु १, 10 नीच गोत्र १, सम्यक्त्वमोह० १, अंतके संहनन ३, हास्य आदि ६, पुंवेद १, संज्व
लनके ४, ऋषभनाराच १, नाराच १, निद्रा २, प्रचला १, आवरण ९, अंतराय ५; एवं ४४ प्रकृतिकी विच्छित्ति हुइ.
तीर्थकर १ मिले
२ सा ९२ .
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तत्त्व] नवतत्त्वसंग्रह
२१९ अथ वैक्रिय योग रचना गुणस्थान ४ आदिके उदयप्रकृति ८६ है. ज्ञानावरण ५, दर्शना० ६ थीणत्रिक विना, वेदनीय २, मोहनीय २८, अंतराय ५, गोत्र २, देवगति १, देव-आयु १, वैक्रियद्विक २, पंचेंद्री १, तैजस १, कार्मण १, समचतुरस्र १, हुंडक १, प्रशस्त गति १, अप्रशस्त गति १, वर्णचतुष्क ४, अगुरुलघु १, उपघात १, उच्छ्वास १, निर्माण १, अथिर १, अशुभ १, सदशक १०, दुःखर १, अनादेय १, अयश १, नरकगति १, नरक-आयु १, दुर्भग १; एवं ८६ (१) अस्ति, शेष ३६ नास्ति.
मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १ उतारे. मिथ्यात्व १ विच्छित्ति २ सा ८३
____ अनंतानुबंधि ४ विच्छित्ति ३ मि ८०
मिश्रमोह० १ मिले. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति
सम्यक्त्वमोह० मिले अथ वैक्रियमिश्र योग रचना गुणस्थान ३-प्रथम, द्वितीय, चतुर्थः उदयप्रकृति ७९ अस्ति. पूर्वोक्त ८६ तिण मध्ये मिश्रमोह० १, पराघात १, उच्छ्वास १, सुखर १, दुःखर १, प्रशस्त गति १, अप्रशस्त गति १; एवं ७ नास्ति. १ मि ७८
सम्यक्त्वमोह० १ उतारी. मिथ्यात्व १ विच्छित्ति । नरकगति १, नरक-आयु १, नीच गोत्र १, हुंडक १, नपुंसक १, दुर्भग १, • अनादेय १, अयश १; एवं ८ उतारे. अनंता० ४, स्त्रीवेद १; एवं ५ विच्छित्ति. | सम्यक्त्वमोह० १, नरकगति १, नरक-आयु १, नीच गोत्र १, हुंडक १, नपुंसक
वेद १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं ९ मिले अथ आहारक योग रचना गुणस्थान १-प्रमत्त; उदयप्रकृति ६१ अस्ति. मिथ्यात्व १, मिश्रमोह० १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, अनंता० ४, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३, अप्रत्या० ४, वैक्रियकद्विक २, देवगति १, देव-आयु १, नरक-गति १, नरक-आयु १, आनुपूर्वी ४, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १, प्रत्या० ४, तिर्यंच-आयु १, नीच गोत्र १, तियेच गति १, उद्योत १, तीर्थकर १; एवं ४१ नास्ति, शेष ६१ पष्ठ गुणस्थान अस्ति. तिण मध्ये थीणत्रिक ३, नपुंसकवेद १, स्त्रीवेद १, अप्रशस्त गति १, दुःस्वर १, संहनन ६, औदारिकद्विक २, संस्थान ५ समचतुरस्र विना; एवं २० नास्ति, शेष ६१ अस्ति.
अथ आहारकमिश्र योग रचना गुणस्थान १-प्रमत्तः उदयप्रकृति ५७ अस्ति. पूर्वोक्त ६१ तिण मध्ये सुखर १, पराघात १, उच्छ्वास १, प्रशस्त गति १; एवं ४ नही.
___ अथ कार्मण योग रचना गुणस्थान ४-पहिला, दूजा, चौथा, तेरमा उदयप्रकृति ८९ अस्ति. सुस्वर १, प्रशस्त गति १, अप्रशस्त गति १, प्रत्येक १, साधारण १, आहारकद्विक २, औदारिकद्विक २, मिश्रमोह० १, उपघात १, पराघात १, उच्छ्वास १, आतप १, उद्योत १, वैक्रियद्विक २, थीणत्रिक ३, संस्थान ६, संहनन ६; एवं ३३ (?) नास्ति.
सा
६९
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्ध
१ मि ८७ सम्यक्त्वमोह० १, तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १ विच्छित्ति
। नरकत्रिक उतारे. अनंता० ४, एकेंद्रि १, थावर १, विकलत्रय ३, स्त्रीवेद १
सा ८१ व १० विच्छित्ति
م | | س |
सम्यक्त्वमोह० १, नरकत्रिक ३ मिले. अप्रत्या० ४, देवत्रिक ३, नरकत्रिक ३, तिर्यंचत्रिक ३, मनुष्यानुपूर्वी १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १, प्रत्या० ४, नीच गोत्र १, सम्यक्त्वमोह० १, नपुंसकवेद १, पुरुषवेद १, हास्य आदि ६, संज्वलन
४, निद्रा १, प्रचला १, आवरण ९, अंतराय ५; एवं ५१ विच्छित्ति १३ स २५
तीर्थकर १ मिले ___ अथ पुरुषवेद रचना गुणस्थान ९ आदिके उदयप्रकृति १०७ है. थावर १, सूक्ष्मत्रिक ३, नरकत्रिक ३, विकलत्रिक ३, एकेंद्री १, स्त्रीवेद १, नपुंसकवेद १, आतप १, तीर्थकर १; एवं १० (१) नास्ति. १ | मि | १०३ मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, आहारकद्विक २ उतारे. मिथ्यात्व १ विच्छित्ति २ सा १०२
__ अनंतानुबंधि ४ विच्छित्ति ३ मि ९६ | आनुपूर्वी ३ नरक विना उतारी. मिश्रमोह० १ मिले. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति
सम्यक्त्वमोह० १, आनुपूर्वी ३ नरक विना; एवं ४ मिले. अप्रत्या०४, वैक्रियद्विक ९९ २, देवत्रिक ३, मनुष्यानुपूर्वी १, तिर्यंचानुपूर्वी १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १;
एवं १४ विच्छित्ति प्रत्या० ४, तिर्यंच-आयु १, नीच गोत्र १, उद्योत १, तिर्यंच गति १ विच्छित्ति आहारकद्विक २ मिले. थीणत्रिक ३, आहारकद्विक २ विच्छित्ति सम्यक्त्वमोह० १, अंतके संहनन ३; एवं ४ विच्छित्ति
___ हास्य आदि ६ विच्छित्ति
ه أم | ماه | 8 | م |
। अ७४
अथ स्त्रीवेद रचना गुणस्थान ९ आदिके उदयप्रकृति १०५ अस्ति. पूर्वोक्त १०७, स्त्रीवेद १; एवं १०८. तिण मध्ये आहारकद्विक २, पुरुषवेद १; एवं ३ नही. १ मि १०३
| मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, उतारे. मिथ्यात्व १ विच्छित्ति २ सा १०२
अनंता०४, आनुपूर्वी ३ नरक विना; एवं ७ विच्छित्ति
मिश्रमोह० १ मिली. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति सम्यक्त्वमोह० १ मिले. अप्रत्या० ४, देवगति १, देव-आयु १, वैक्रियद्विक २, |" दुर्भग १, अनादेय १, अयश १, एवं ११ विच्छित्ति । | दे | ८५ प्रत्या०४, तिर्यंच-आयु १, उद्योत १, नीच गोत्र १, तिर्यंच गति १ विच्छित्ति
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
७४
||M ||
|| or | 9 |
थीणत्रिक ३ विच्छित्ति
सम्यक्त्वमोह० १, अंतके संहनन ३, एवं ४ विच्छित्ति ८ अ ७०
हास्य आदि ६ विच्छित्ति ९ अ६४
० ० ० अथ नपुंसक वेद रचना गुणस्थान ९ आदिके उदयप्रकृति ११४ है. आहारकद्विक २, तीर्थकर १, देवत्रिक ३, स्त्रीवेद १, पुरुषवेद १; एवं ८ नही. १ | मि ११२ मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १ उतारे. मिथ्यात्व १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३ वि० सा १०६ ।
| नरकानुपूर्वी १ उतारी. अनंता० ४, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३, मनुष्यानुपूर्वी १, तिर्यंचापूर्वी १; एवं ११ विच्छित्ति
मिश्रमोह० १ मिली. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति | सम्यक्त्वमोह० १, नरकानुपूर्वी १ मिले. अप्रत्या० ४, नरकत्रिक ३, वैक्रियद्विक R, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं १२ विच्छित्ति । | प्रत्या० १, तिर्यंच-आयु १, उद्योत १, नीच गोत्र १, तिर्यंच गति १ विच्छित्ति
श्रीणनिक ३ विच्छित्ति सम्यक्त्वमोह० १, अंतके संहनन ३, एवं ४ विच्छित्ति
हास्य आदि ६ विच्छित्ति
० ० ० अथ क्रोधचतुष्क रचना गुणस्थान ९ आदिके उदयप्रकृति १०९ अस्ति. तीर्थकर १, मान ४, माया ४, लोभ ४; एवं १३ नास्ति.
। मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, आहारकद्विक २ उतारे. मिथ्यात्व १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३; एवं ५ विच्छित्ति | नरकानुपूर्वी १ उतारी. अनंता क्रोध १, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३, एवं ६ विच्छित्ति | आनुपूर्वी ३ नरक विना उतारी. मिश्रमोह० १ मिले. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति
सम्यक्त्वमोह० १, आनुपूर्वी ४ मिले. अप्रत्या० क्रोध १, वैक्रियक-अष्टक ८, मनुच्यानुपूर्वी १, तिर्यंचानुपूर्वी १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं १४ विच्छित्ति
प्रत्या० क्रोध १, तिर्यंच-आयु १, नीच गोत्र १, उद्योत १, तिर्यंच गति १ विच्छित्ति
आहारकद्विक २ मिले. थीणत्रिक ३, आहारकद्विक २ विच्छित्ति ____ सम्यक्त्वमोह० १, अंतके संहनन ३; एवं ४ विच्छित्ति
हास्य आदि ६ विच्छित्ति ९) अ | ६३
.
|
८ अ
६९
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२२२ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्धएवं मानचतुष्क एवं माया ४, एवं लोभ ४. इतना विशेष-आपणे अपणे चतुष्क करी जानना. लोभ दशमे ताई है सोइ नवमे गुणस्थानकी ६३ माहिथी वेद तीनकी विच्छित्ति कर्या ६० रही. अपणी बुद्धिसें विचार लेना.
अथ मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान रचना गुणस्थान २ आदिके उदयप्रकृति ११७ पहिले, १११ दूजे, समुच्चयवत्.
अथ विभंगज्ञान रचना गुणस्थान २ आदिके उदयप्रकृति १०६ अस्ति. एकेंद्री १, आतप १, विकलत्रय ३, थावरचतुष्क ४, आनुपूर्वी मनुष्य की १, तिर्यचकी १, मिश्रमोहक १, सम्यक्खमोह० १, आहारकद्विक २, तीर्थकर १; एवं १६ नास्ति.
मिथ्यात्व १, नरकानुपूर्वी १ विच्छित्ति २ सा १०४
० ० ० अथ ज्ञानत्रय रचना गुणस्थान ९ अविरतिसम्यग्दृष्टि आदि; उदयप्रकृति १०६ है. मिथ्यात्र १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, अनंता० ४, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३, मिश्रमोह० १, तीर्थकर १; एवं १६ नास्ति.
- आहारकद्विक २ उतारे. अप्रत्या० ४, वैक्रिय-अष्टक ८, मनुष्यानुपूर्वी १, तिर्यंचा.
१० नपूर्वी १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १ विच्छित्ति
आगे सर्वत्र समुच्चयगुणस्थानवत्. मनःपर्याय छडेसे लेकर पूर्वोक्तवत्. केवलज्ञान १३॥१४ मे वत्. सामायिक, छेदोपस्थापनीय छटेसे नवमे लग समुच्चयवत्. ___अथ परिहारविशुद्धि रचना गुणस्थान २-प्रमत्त, अप्रमत्त; उदयप्रकृति ७८ है. पूर्वोक्त छढेकी ८१; तिण मध्ये स्त्रीवेद १, आहारकद्विक २; एवं ३ नही. सातमे थीणत्रिक नही ७५. सूक्ष्मसंपराय दशमे वत्. यथाख्यातमे ११।१२।१३।१४ मे गुणस्थानवत् जान लेनी. देशविरते ८७. अथ असंयम प्रथम चार गुणस्थानवत्.
अथ चक्षुर्दर्शन रचना गुणस्थान १२ आदिके उदयप्रकृति १०९ है. तीर्थकर १, साधारण १, आतप १, एकेंद्री १, थावर १, सूक्ष्म १, बेंद्री १, तेंद्री १ आनुपूर्वी ४, अपर्याप्त १; एवं १३ नही. १ मि १०५ मिश्रमोह०१, सम्यक्त्वमोह० १, आहारकद्विक २, एवं ४ उतारे.मिथ्यात्व १ विच्छित्ति २ सा १०४
अनंतानुबंधि ४, चौरिंद्री १; एवं ५ विच्छित्ति ३ मि १०० ___मिश्रमोह० १ मिली. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति
सम्यक्त्वमोह० १ मिली आगे समुच्चयगुणस्थानवत.
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तत्त्व] नवतत्त्वसंग्रह
२२३ अचक्षुर्दर्शनमे गुणस्थान १२ आदिके उदयप्रकृति १२१. तीर्थकर १ नास्ति. गुणस्थानोमे समुच्चयवत् पहिले ११७, दूजे १११ इत्यादि. अवधिदर्शन अवधिज्ञानवत्. केवलदर्शन केवलज्ञानवत्. ____ अथ कृष्ण, नील, कापोत लेश्या रचना गुणस्थान ४ आदिके उदयप्रकृति ११९ है. आहारकद्विक २, तीर्थकर १; एवं ३ नास्ति.
मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १ उतारे. मिथ्यात्व १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, नरकानुपूर्वी १; एवं ६ विच्छित्ति
__ अनंता० ४, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३, देवानुपूर्वी १, तिर्यंचानुपूर्वी १; "१११ एवं ११ विच्छित्ति मि १०० मनुष्यानुपूर्वी १ उतारी. मिश्रमोह० १ मिली. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति ४ अ १०४
आनुपूर्वी ४, सम्यक्त्वमोह० १; एवं ५ मिली अथ तेजोलेश्या रचना गुणस्थान ७ आदिके उदयप्रकृति १०१ है. आतप १, विकलवय ३, सूक्ष्मत्रिक ३, नरकत्रिक ३, तीर्थकर १; एवं ११ नास्ति मि १०७ मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, आहारकद्विक २; एवं ४ उतारे. मिथ्यात्व १ वि० १०६ अनंतानुबंधि ४, एकेंद्री १, थावर १, एवं ६ विच्छित्ति
आनुपूर्वी ३ उतारे. मिश्रमोह० १ मिले. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति सम्यक्त्वमोह० १, आनुपूर्वी ३; एवं ४ मिले. वैक्रियद्विक २, अप्रत्या०४, देवत्रिक
३, आनुपूर्वी ३, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १, एवं १४ (?) विच्छित्ति ८७ प्रत्या० ४, तिर्यंच-आयु १, नीच गोत्र १, उद्योत १, तिर्यंच गति १ विच्छित्ति
आहारकद्विक २ मिले. थीणत्रिक ३, आहारकद्विक २ विच्छित्ति ७ | अ | ७६
. . . अथ पद्मलेश्या रचना गुणस्थान ७ आदिके उदयप्रकृति १०९ है. आतप १, एकेंद्री १, थावरचतुष्क ४, विकलत्रिक ३, नरकत्रिक ३, तीर्थंकर १; एवं १३ नास्ति. १०५।१०४। ९८, चौथे १०१।८७८११७६.
अथ शुक्ललेश्या रचना गुणस्थान १३ आदिके उदयप्रकृति ११० अस्ति. आतप १, एकेंद्री १, विकलत्रय ३, थावरचतुष्क ४, नरकत्रिक ३; एवं १२ नास्ति.
मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, आहारकद्विक २, तीर्थकर १; एवं ५ उतारे. १०५ मिथ्यात्व १ विच्छित्ति २ सा १०४
अनंतानुबंधि ४ विच्छित्ति ३ | मि ९८ आनुपूर्वी ३ उतारी. मिश्रमोह० १ मिली. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति
सम्यक्त्वमोह० १, आनुपूर्वी ३ मिले
४
अ
१०१
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________________
२२४ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्धआगे गुणस्थान समुच्चयवत्. अथ भव्यरचना गुणस्थानवत् १४ सर्वे. अथ अभव्य प्रथम गुणस्थानवत्.
__ अथ उपशम रचना गुणस्थान ८ चौथा आदि उदयप्रकृति १०० है. मिथ्यात्व १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, अनंतानुबंधि ४, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३, मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, आनुपूर्वी ३ देव विना, आहारकद्विक २, तीर्थकर १; एवं २२ नास्ति.
4 अप्रत्याख्यान ४, वैक्रियद्विक २, देवत्रिक ३, नरकगति १, नरक-आयु १, दुर्भग ४ अ १००
५०१, अनादेय १, अयश १; एवं १४ व्यवच्छेद ५ दे | ८६ प्रत्याख्यान ४, तिर्यंच-आयु १, नीच गोत्र १, उद्योत १, तिर्यंच गति १ विच्छित्ति
थीणत्रिक ३ विच्छित्ति ७ अ | ७५
आगले च्यार गुणस्थानोमे समुच्चय गुणस्थानवत्. अथ क्षयोपशम सम्यक्त्व रचना गुणस्थान ४-४।५।६।७ समुच्चयगुणस्थानवत्.
अथ क्षायिक सम्यक्त्व रचना गुणस्थान ११-चौथा आदि; उदयप्रकृति १०६ है. मिथ्यात्व १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, अनंतानुवंधि ४, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३, मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १; एवं १६ नास्ति..
आहारकद्विक २, तीर्थकर १ उतारे. अप्रत्या० ४, वैक्रिय-अष्टक ८, मनुष्य| अ १०३ आनुपूर्वी १, तिर्यंच-आनुपूर्वी १, तिर्यंच-आयु १, उद्द्योत १, तिर्यंच गति १, दुर्भग १, अनादेय १, अयश १; एवं २० विच्छित्ति
प्रत्याख्यान ४, नीच गोत्र १ विच्छित्ति आहारकद्विक २ मिले. थीणत्रिक ३, आहारकद्विक २ विच्छित्ति
| or | ram
आगे समुच्चयवत्. अथ मिश्र १, सास्वादनसम्यक्त्व १, मिथ्यात्व १, आपणे आपणे गुणस्थानवत्.
अथ संज्ञी रचना गुणस्थान १२ आदि के उदयप्रकृति ११३ अस्ति. एकेंद्री १, थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, आतप १, विकलत्रय ३, तीर्थंकर १; एवं ९ नास्ति.
| मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, आहारकद्विक २; एवं ४ उतारे. मिथ्यात्व १, | मि | १०९ अपर्याप्त १ विच्छित्ति
नरक-आनुपूर्वी १ उतारी. अनंतानुबंधि ४ विच्छित्ति ३ मि १००
आनुपूर्वी ३, नरक विना उतारी. मिश्रमोह० १ मिली आगे समुच्चयवत्.
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________________
तत्व ]
नवतत्त्व संग्रह
२२५
अथ असंज्ञी रचना गुणस्थान २ आदिके उदयप्रकृति ९४ अस्ति. उंच गोत्र १, वैक्रियछक्क ६, संहनन ५ छेवह विना, संस्थान ५ हुंडक विना, प्रशस्त गति १, सुभगत्रिक ३, आयु २ देव, नरककी, आहारकद्विक २, तीर्थकर १, मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, एवं २८ नही.
१ मि ९४
२ स
७८
अथ आहारक रचना गुणस्थान १३ है; आदिके उदय प्रकृति ११८; आनुपूर्वी ४ नही.
१ मि ११३
मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, आहारकद्विक २, तीर्थकर ११ एवं ५ उतारे. मिथ्यात्व १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३; एवं ५ विच्छित्ति.
२
सा १०८
३ मि १००
अनंतानुबंधि ४, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३ एवं ९ विच्छित्ति मिश्रमोह० १ मिले. मिश्रमोह० १ विच्छित्ति सम्यक्त्वमोह० १ मिली
४ अ
आगे सर्व समुच्चयवत्.
अथ अनाहारक रचना गुणस्थान ४- पहिलो, दूजो, चौथो, तेरमो; उदयप्रकृति ८९ अस्ति. दुःखर १, सुखर १, प्रशस्त गति १, अप्रशस्त गति १, प्रत्येक १, साधारण ९, आहाrain २, औदारिकद्विक २, मिश्रमोह० १, उपघात १, पराधात १, उच्छ्वास १, आतप १, उद्योत ९, वैक्रियद्विक २, श्रीणत्रिक ३, संहनन ६, संस्थान ६; एवं ३३ नास्ति,
४
35
१ मि ८७ | सम्यक्त्वमोह० १, तीर्थकर १ उतारे. मिथ्यात्व १, सूक्ष्म १, अपर्याप्त १ विच्छित्ति. नरकत्रिक उतारे. अनंतानुबंधि ४, एकेंद्री १, थावर १, विकलत्रय ३, स्त्रीवेद ९; एवं १० विच्छित्ति.
२ सा ८१
सम्यक्त्वमोह० १, नरकत्रिक ३ मिले. अप्रत्याख्यान आदि अंतराय पर्यंत ५१ विच्छित्ति व्यौरा कार्मणरचनावत्
तीर्थकर १ मिले
मिथ्यात्व १, आतप १, सूक्ष्मत्रिक ३, श्रीणत्रिक ३, पराघात १, मनुष्यत्रिक ३, उच्छ्वास १, उद्योत १, दुःखर १, अप्रशस्त गति १; एवं १६ विच्छित्ति.
०
अ ७५
१३ | स २५
४
इति उदद्याधिकार समाप्त.
trafaar कते. अथ घर्मा आदि नरकत्रय रचना गुणस्थान ४ आदि; सत्ता
प्रकृति १४७. देव-आयु नही.
१ | मि १४७
२ सा १४६ तीर्थंकर १ उतारे
३
मि
अ
०
०
"
१४७ तीर्थकर १ मिले |
१ मि १४६
२ सा
३ मि
अ
४
33
33
33
0
33
19
"
अंजना आदि त्रयमे देव-आयु १,
तीर्थकर १; एवं २ नास्ति. सातमीमे
तीर्थकर १, देव आयु १, मनुष्यआयु १; एवं ३ नही. १४५ मि. १४५
सा. १४५ मि. १४५ अ.
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________________
२
सा
"
मि
,
२२६ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्धअथ सामान्य तिर्यंच रचना गुणस्थान ४ आदिके सत्ताप्रकृति १४७ तीर्थकर १ नही. पहिले १४७, दूजे १४७, तीजे १४७, चौथे १४७; मनुष्य रचना गुणस्थान १४ वत्.
अथ सौधर्म आदि सहस्रार पर्यंत देवलोक रचना गुणस्थान ४; सत्ताप्रकृति १४७; नरकआयु नास्ति. अथ आनत आदि नव ग्रैवेयक पर्यंत सत्ता० १४६; नरक १, तिर्यंच-आयु नही. १ मि १४६ तीर्थकर १ उतारे १ मि १४५ तीर्थकर १ उतारे अथ५ अनुत्तर रचना २ | सा ,
गुणस्थान १-चौथा; सत्ता० १४६, नरक-आयु
| १, तिर्यंच-आयु १, ४ अ १४७ तीर्थकर १ मिले ४ अ १४६ तीर्थकर १ मिले एवं २ नही.
अथ भवनपति, व्यंतर १, जोतिषि १, सर्व देवी १, रचना गुणस्थान ४ आदिके सत्ताप्रकृति १४६ अस्ति. तीर्थकर १, नरक-आयु १; एवं २ नास्ति. १४६ ० । अथ एकेंद्री विकलत्रय रचना गुणस्थान २ आदिके सत्ताप्रकृति १४५
अस्ति. तीर्थकर १, नरक-आयु १, देव-आयु १ नही. अथ पंचेगी रचना
गुणस्थानवत् ३ मि , | १ | मि १४५ ४ | अ , . २ | सा ,
अथ पृथ्वीकाय १, अप्काय १, वनस्पतिकाय रचना एकेंद्री विकलत्रय रचनावत. अथ तेजोवातकाय रचना गुणस्थान १-मिथ्यात्व १, सत्ताप्रकृति १४४ है. तीर्थकर १, देव-आयु १, मनुष्य-आयु १, नरक-आयु १; एवं ४ नास्ति. अथ त्रसकाय रचना गुणस्थानवत. अथ मनोयोगचतुष्क ४, वचनयोगचतुष्क ४, औदारिककाययोग १, एवं योग ९ गुणस्थान रचनावत् . अथ वैक्रियकाययोग रचना गुणस्थान ४ आदिके सत्ताप्रकृति १४८; पहिले १४८, दूजे १४७, तीजे १४७, चौथे १४८.
अथ आहारक आहारक मिश्र रचना गुणस्थान १-प्रमत्त; सत्ताप्रकृति १४८ सर्वे,
अथ औदारिकमिश्रयोग रचना गुणस्थान ४-पहिला, दूजा, चौथा, तेरमा; सत्ता० १४६ अस्ति. देव-आयु १, नरक-आयु १ नही. १ मि १४५ तीर्थकर १ उतारे
२
सा
| अ १४६
तीर्थकर १ मिले. सातमे गुणस्थानकी, नवमे गुणकी, दशमे गुण की, बारमे गुण०की; एवं ६१ की विच्छित्ति. शेष ८५ रही तेरमे गुणस्थानमे.
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________________
सा,
तत्व] नवतत्त्वसंग्रह
२२७ __ अथ नरकगति मिश्रवैक्रियका गुणस्थान २-पहिला, चौथा; सत्ता० १४५. मनुष्य-आयु १, तिर्यंच-आयु १, देव-आयु १; एवं ३ नही. पहिले १४५, चौथे १४५ है.
अथ देवगति संबंधि वैक्रियकमिश्रयोग रचना गुणस्थान ३-पहिला, दूजा, चौथा; सत्ता० १४५. मनुष्य-आयु १, तिर्यंच-आयु १, नरक-आयु १; एवं ३ नही.
अथ कार्मणरचना गुणस्थान ४-पहिला, दूजा, चौथा, तेरमा; सत्ता० १४८ सर्वे सन्ति. १ | मि | १४४ तीर्थकर १ उतारे | १ | मि |१४८
सा १४६ तीर्थकर १, नरक-आयु १ उतारे ४ अ १४५ तीर्थकर १ मिले १४८ तीर्थकर १, नरक-आयु १ मिले
रही ८५का व्यौरा गुणस्थानवत् अथ वेद तीनो नव गुणस्थान लग समुच्चयगुणस्थानवत् जानना. अथ अनंतानुबंधिचतुष्क रचना गुणस्थान २ आदिके सत्ता पहिले १४८, दूजे १४७, अथ अप्रत्याख्यान ४ रचना गुणस्थान ४ आदि सत्ता० समुच्चयगुणस्थानवत्. अथ प्रत्याख्यानमे गुणस्थान ५ आदिके रचना समुच्चयगुणस्थानवत. अथ संज्वलन क्रोध १, मान १, माया १ नवमे ताइ लोभ दशमे ताइ समुच्चयवत्. अथ अज्ञानत्रय रचना गुणस्थान २ आदिके सत्ता० समुच्चयवत् जानना. अथ ज्ञानत्रय रचना गुणस्थान ९ चौथा आदि बारमे लग सत्ता० १४८ समुच्चवत्. अथ मनःपर्यायज्ञानरचना गुणस्थान ७-प्रमत्त आदि; सत्ता०१४८ सर्वे, समुच्चयवत्. केवलज्ञानमे सत्ता०८५ की; गुणस्थान १३।१४ मा समुच्चयवत्. अथ सामायिक, छेदोपस्थापनीय रचना गुणस्थान ४-प्रमत्त आदि; सत्ता० १४८ समुच्चयवत. अथ परिहारविशुद्धि रचना गुणस्थान २-प्रमत्त, अप्रमत्तः सत्ताप्रकृति १४८ समुच्चयवत्. सूक्ष्मसंपराय चारित्र दशमेवत्. अथ यथाख्यात रचना ११।१२।१३।१४ मे वत्. अथ देशविरति पंचमे वत्. अथ असंयम रचना आदिके ४ गुणस्थानो वत्. अथ अचक्षु, चक्षुदशेन रचना गुणस्थानरचनावत् गुणस्थान १२ पर्यंत. अथ अवधिदर्शन रचना अवधिज्ञानवत्. अथ केवलदर्शन केवलज्ञानवत्. अथ कृष्ण, नील लेश्या, कापोत लेश्या रचना गुणस्थान ४ प्रथमवत्. अथ तेजो पद्मलेश्या रचना गुणस्थान ७ आदिके समुच्चयवत्. अथ शुक्ल लेश्या रचना गुणस्थान १३ आदिके रचना १४८ सत्ता० समुच्चयवत्, अथ भव्य रचना गुणस्थानवत्. अथ अभव्य रचना गुणस्थान १-मिथ्यात्व; सत्ताप्रकृति १४१. मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १, तीर्थकर १, आहारकद्विक २, आहारकबंधन १, आहारकसंघातन १; एवं ७ नही. अथ उपशमसम्यक्त्वरचना गुणस्थान ८-अविरतिसम्यग्दृष्टि आदि; सत्ता० सर्व गुणस्थानोकी १४८ जाननी. अथ क्षयोपशमसम्यक्त्व रचना गुणस्थान ४-अविरतिसम्यग्दृष्टि आदि; सत्ता० १४८ समुच्चयगुणस्थानवत्. अथ क्षायिक सम्यक्त्वरचना गुणस्थान ११-अविरतिसम्यग्दृष्टि आदि, सत्ताप्रकृति १४१ अस्ति. अनंतानुबंधि ४, मिथ्यात्व १, मिश्रमोह० १, सम्यक्त्वमोह० १; एवं ७ नास्ति. यंत्र नाम मात्र लिख्या. विस्तार समुच्चयसत्ताथी जानना.
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________________
२२८
- ४
५
13 5 5 5
अ १४१
दे
प्र
अ
६
७
८
९ अ
अ
""
33
33
१३८
55
१० सू १०२
११ उ १०१
१२ क्षी
१३ स
१४ अ
39
८५
""
०
भाग एकरी ३६की विच्छित्ति व्यौरा गुणस्थानरचनावत् संज्वलन लोभ विच्छित्ति
०
श्री विजयानंदसूरिकृत
प्रकृति
तीर्थकर १ आहारकद्विक २, देव-आयु १
विकलत्रिक ३, सूक्ष्म ३, नरक, तिर्थ, मनुष्य-आयु ३, सुरद्विक २, वैक्रियद्विक २, नरकद्विक २; सर्व १५
एकेंद्री १, थावर १, आतप १
तिर्येच गति १, तिर्यचानुपूर्वी १, औदारिकद्विक २, उद्योत १, छेवट्ठा १
शेष ९२ प्रकृति
निद्रा १, प्रचला १, ज्ञानावरण ५, दर्शना० १, वर्ण ४, अंतराय ५ विच्छित्ति
आयु ३ की विच्छित्ति
स्वामि
४ गुणस्थान
७ अप्रमत्त
मिथ्यात्व मिध्यात्ववत्. साखादन साखादनवत्, मिश्र मिश्रगुणस्थानवत् अथ संज्ञी रचना गुणस्थानरचनावत् गुणस्थान १२ पर्यंत. अथ असंज्ञी रचना गुणस्थान २ आदिके सा० १४७ अस्ति; तीर्थकर १ नही. पहिले १४७, दूजे १४७. अथ आहारक रचना गुणस्थानरचनावत् १३ लगे. अथ अनाहारक रचना कार्मणयोगरचनावत् इति सत्ताधिकार संपूर्ण.
(१६५) उत्कृष्ट प्रकृतिबन्धयत्रम्
(१६६) जघन्यप्रकृतिबन्धस्वामियन्त्रम्
शतकात्
तिर्यच, मनुष्य मिथ्यात्वी
मिथ्यात्वी ईशानांत
०
देवता, नारकी मिथ्यात्वी
चारो गतिका मिथ्यात्वी
०
८५ व्यवच्छेदे मुक्तौ
[ ८ बन्ध
प्रकृति
आहारक २, तीर्थकर १ संज्वलन ४, पुरुषवेद १ साता १, यश १, उच्चगोत्र ९, ज्ञानावरणीय ५, दर्श- सूक्ष्मसंपराय नावरण ४, अंतराय ५; एवं गुणस्थानवाला सर्व १७,
नरकद्विक २, वैक्रियद्विक २, असंज्ञी तिर्यच देवद्विक २ पर्याप्त
आयु ४
शेष प्रकृति ८५ रही
बन्ध-स्वामि
८ गुणस्थान नवमा गुणस्थाने
संज्ञी असंज्ञी
बादर एकेंद्री पर्याप्त
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________________
तत्त्व ]
यति सूक्ष्म संपराय जघन्य बादर एकेंद्री पर्याप्त
सूक्ष्म
बादर
सूक्ष्म
-35
बादर
सूक्ष्म
बादर
बेइंद्री
33
95
""
तेइंद्री
99
33
35
39
39
"2
33
33
23
35
अपर्याप्त
पर्याप्त
अपर्याप्त
नवतत्त्व संग्रह
(१६७) अथ स्थितिबंध अल्पबहुत्व संख्या
स्तो १
असं २
वि ३
४
39
पर्याप्त
""
39
पर्याप्त
"3
चाउरिंद्री पर्याप्त
33
33
पर्याप्त
33
अपर्याप्त
56
39
23
39
""
उत्कृष्ट
33
95
""
जघन्य
33
उत्कृष्ट
""
जघन्य
$3
उत्कृष्ट
22
"
33
33
23
35
८
९
33
सं १०
वि ११
१२
१३
१४
१५
१६
१७
23
"
"2
33
23
५
55
6 ू
चरिंद्री अपर्याप्त
33
35
""
35
33
असंशी पंचेंद्री पर्याप्त जघन्य
अपर्याप्त
13
""
33
यतिना देशविरति जघन्य
उत्कृष्ट
""
33
संज्ञी
33
19
पर्याप्त
19
35
33
""
""
39
अविरतिसम्यग्दृष्टि पर्याप्त जघन्य
अपर्याप्त
थावरचतुष्क ४, एकेंद्री १, विकलत्रिक ३, आतप १ अधिक
33
पर्याप्त
"
पर्याप्त
जघन्य
उत्कृष्ट
33
अपर्याप्त
जघन्य ,, १८
पर्याप्त
( १६८) अथ ४१ प्रकृतिका अबंध कालयंत्र
प्रकृति
नरकत्रिक ३, तिर्यचत्रिक ३, उद्योत १; एवं सर्व ७
""
उत्कृष्ट स्थितिबंध
स्थिति
""
35
उत्कृष्ट
"
उत्कृष्ट
""
जघन्य
38
उत्कृष्ट
35
वि १९
" २०
,, २१ सं २२
वि २३
२४
95
" २५
सं २६
"
23
" २८ , २९
33
35
35
"3
२२९
97
33
२७
३०
३१
३२
३३
३४
३५
३६
अबंधकाल
१६३ सागरोपम, ४ पल्योपम मनुष्य-भव अधिक जुगलियाने
१८५ सागरोपम, ४ पल्योपम मनुष्यभव
प्रथम संहनन वर्जी ५ संहनन, प्रथम संस्थान
वर्जी ५ संस्थान, अशुभ गति १, अनंतानुबंधि ४, १३२ सागरोपम मनुष्य भवे अधिक यति भव मिथ्यात्व १, दुर्भग १, दुःस्वर १, अनादेय १, आदि देइ पंचेंद्रिीने अबंधस्थिति utuत्रिक ३, नीच गोत्र १, नपुंसक वेद १, स्त्रीवेद १
अथ १६३।१८५ का ते पूरवाना ठाम लिख्यते. विजय आदिकने विषय दो २ वार तीन वार अच्युतने विषय १३२ एक ग्रैवेयकने विषे १६३, इम तमाने विषे १८५.
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________________
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्ध(१६९) अथ ७३ अध्रुवबंधनो उत्कृष्ट जघन्य निरंतर बन्धयन्त्र प्रकृतिनामानि
निरंतर बन्ध सुरद्विक २, वैक्रियद्विक २
तीन पल्योपम तिर्यंच गति १, तिर्यंचानुपूर्वी १, नीच गोत्र १ समयथी लइ असंख्य काल आयु४
१ अंतर्मुहूर्त औदारिक शरीर १
असंख्य पुद्गलपरावर्त सातावेदनीय १
देश ऊन पूर्व कोड पराघात १, उच्छ्वास १, पंचेंद्री १, त्रसचतुष्क ४
१३२ सागरोपम शुभ विहायगति १, पुरुषवेद १, सुभगत्रिक ३, उंच गोत्र १, समचतुरस्र संस्थान १, अशुभ विहायगति १, जाति ४, अशुभ संहनन ५, अशुभ संस्थान ५, आहारकद्विक २, नरकगति १,
जघन्य उत्कृष्ट समयथी लेइ अंतर्मुहूर्त नरकानुपूर्वी १, उद्योत १, आतप १, थिर १, शुभ १, यश १, स्थावरदशक १०, नपुंसकवेद १, स्त्रीवेद १, हास्य १, रति १, अरति १, शोक १, असातावेदनीय १
मनुष्यद्विक २, जिननाम १, वज्रऋषभनाराच १, औदारिक अंगोपांग १
३३ सागर, जघन्य अंतर्मुहूर्त (१७०) अथ उत्कृष्ट रसबन्धखामियनं शतककर्मग्रन्थात् प्रकृतिनामानि
रसबन्धस्वामि एकेंद्री १, थावर १, आतप १
मिथ्यात्वी ईशानांत देवता बांधे विकलत्रिक ३, सूक्ष्मत्रिक ३, तिर्यंच आयु १, मिथ्यात्वी तिर्यंच, मनुष्य मनुष्य-आयु १, नरकत्रिक ३, तिर्यच गति १, तिर्यंचानुपूर्वी १, छेवट्ठ १, । |
देवता, नारकी वैक्रियद्विक २, देवगति १, देवानुपूर्वी १, आहारकद्विक २, शुभ विहायोगति १, शुभ वर्णचतुष्क ४, तैजस १, कार्मण १, अगुरुलघु १, भपूर्वकरण गुणस्थानमे क्षपकश्रेणिमे बंध करे निर्माण १, जिननाम १, सातावेदनीय १, समचतुरन १, पराघात १, सदशक १०, पंचेंद्री १, उच्छ्वास १, उच्चगोत्र १, एवं सर्व ३२ उद्योत
सातमी नरकका नारकी सम्यक्त्वके सन्मुख मनुष्यगति १, मनुष्यानुपूर्वी १, औदारिकद्विक
सम्यग्दृष्टि देवता २, वज्रऋषभसंहनन १ देवायु १
७ अप्रमत्त शेष प्रकृति
४ गतिना मिथ्यात्वी
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
२३१
(१७१) अथ जघन्यरसबन्धयन्त्रम्
प्रकृति
बन्धखामि स्त्यानर्द्धि १, प्रचला १, निद्रानिद्रा १, अनंतानुबंधि ४, मिथ्यात्व १.
संयम सन्मुख मिथ्यात्वी अप्रत्याख्यान ४
अविरतिसम्यग्दृष्टि संयम सन्मुख प्रत्याख्यान४
देशविरति अरति १, शोक १
प्रमत्त यति आहारकद्विक २
अप्रमत्त , निद्रा १, प्रचला १, शुभ वर्णचतुष्क ४, हास्य १, रति १, कुत्सा (?) १, भय १, उपघात १
अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती पुरुषवेद १, संज्वलनचतुष्क ४
नवमे गुणस्थानवाला अंतराय ५, ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४
१० मे गुणस्थाने क्षपक सूक्ष्मत्रिक ३, विकलत्रिक ३, आयु४, वैक्रियकषट्६ ___ मनुष्य, तिर्यच उद्योत १, आतप १, औदारिकद्विक २
देवता, नारकी तिर्यंच गति १, तिर्यंचानुपूर्वी १, नीच गोत्र १ सातमी नरके उपशमसम्यक्त्वके सन्मुख जिननाम १
अविरतिसम्यग्दृष्टि एकेंद्री १, थावर १
नरक विना तीन गतिना आतप १
सौधर्म लगे देवता साता १, असाता १, स्थिर १, अस्थिर १, समदृष्टि वा मिथ्यादृष्टि परावर्त्तमान मध्यम शुभ १, अशुभ १, यश १, अयश १
परिणाम प्रस १, बादर १, पर्याप्त १, प्रत्येक १, अशुभ वर्ण आदि चतुष्क ४, तैजस १, कार्मण १, अगुरुलघु १, निर्माण १, मनुष्यगति १, मनुष्यानुपूर्वी १, शुभ विहायगति १, अशुभविहायगति १, पंचेंद्री १,
चार गतिका मिथ्यात्वी बांधे उच्छ्वास १, पराघात १, उच्चगोत्र १,संहनन ६, संस्थान ६, नपुंसकवेद् १, स्त्रीवेद १, सुभग १, सुखर १, आदेय १, दुर्भग १, दुःखर १, अनादेय १
इति रसवन्ध समाप्त. (१७२) अथ प्रदेशबन्धयन्नम्, मूल प्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेशबन्धखामि शतकात्
हनीय आयु, मोहनीय वर्जी ६ कर्म
श४५/६७ गुणस्थानवर्ती
१० गुणस्थानवर्ती
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२३२ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८.बन्ध(१७३) अथ उत्तर प्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेशबंधयंत्र शतककर्मग्रन्थात् .ज्ञानावरणीय ५, दर्शना० ४, साता० १, यश १, उच्च गोत्र १,.. अंतराय ५
१० गुणस्थानवर्ती अप्रत्याख्यान ४
४ गुणस्थाने प्रत्याख्यान ४
देशविरति पुरुषवेद १, संज्वलन ४
९ मे गुणस्थाने शुभ विहायगति १, मनुष्य-आयु १, देव-आयु १, देवगति १, देवानुपूर्वी १, सुभग १, सुस्वर १, आदेय १, वैक्रियद्विक २, सम- सम्यग्दृष्टी, मिथ्यादृष्टि चतुरस्र १, असाता०१, वज्रऋषभ १; एवं सर्व १३ निद्रा १, प्रचला १, हास्य आदि षट् ६, तीर्थकर १ अविरतिसम्यग्दृष्टि आहारकद्विक २
अप्रमत्त ७ मे वाला शेष ६६ प्रकृति
मिथ्यात्वी (१७४) अथ जघन्यप्रदेशबन्धखामियन्त्रम् आहारकद्विक २
अप्रमत्त यति नरकत्रिक ३, देव-आयु १
असंही पर्याप्त जघन्य योगी देवद्विक २, वैक्रियद्विक २, जिननाम १ मिथ्यात्वने सन्मुख सम्यग्दृष्टि . शेष १०९ प्रकृति
आपणे भवके प्रथम समय सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त
जघन्य योगी (१७५) अथ सात बोलकी (१७६) जीव बंधवर्गणा ग्रहे तिसका अल्पबहुत्व
कर्मपणे वांटा योगस्थान स्तोक १
कर्म
वांटा प्रकृतिभेद असंख्य २
आयु
स्तोक १ . स्थितिभेद
वि २: गोत्र
तुल्य २ स्थिति बंधाध्यवसाय
अंतराय अनुभागस्थानक
ज्ञाना० १, दर्शना०१, कर्मप्रदेश अनंत ६
मोहनीय रसच्छेद
वेदनीय
(१७७) बंधमेद ४ । प्रकृतिबंध स्थितिबंध | अनुभागबंध। प्रदेशबंध अर्थ स्वभाव काल
रस
दल वाडे दृष्टांत | वात आदि शमन मास अर्ध मास आदि पंड, शर्करा आदि| तोला, दो तोला कारण योग कषाय कषाय
योग भेदसंख्या असंख्य
असंख्य अनंत
अनंत श्रेणिके असंख्य भाग श्रेणिके असंख्य भाग अनंते For Private & Personal use only
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नाम
अनंते
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अंतराय
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
(१७८) संख्या बंधप्रकृति मूल, शाना०दर्शना०२ वदनाय मोह० ४ आयु ५ नाम ६
२३२५ २२।२१॥
२६२८ | बंधस्थान |८७६१ ५
|१७।१३।
२९॥३०॥ ९।५।४।१] રારા દાદા
९।१३। २ भुयस्कार ६७८ ० ।
|१७।२१॥
000
३१
२२
१७।१३। ९।५।४।३।
अल्पतर ७६१
२२१
४ अवस्थित ८७६१ १ । ५ अवक्तव्य ० १ ० १ १
अधिक बंध करे ते 'भुयस्कार' कहीये. अल्प अल्प बंध करे तेहने 'अल्पतर बंधक' कहीये. जितने हे तितने ही बंध करे ते 'अवस्थित बंध' कहीये. अबंधक होय कर फेर बांधे ते 'अवक्तव्य' कहीये. अंग्रे स्वधिया विचारणीया. ____ अथ अग्रे बन्धकारणं लिख्यते कर्मग्रन्थात्शानावर- मति आदि ५ ज्ञान, ज्ञानी-साधु प्रमुख, ज्ञानसाधक(न)-पुस्तक आदि तेहना बुरा णीय कर्म चिंतणा १, निह्नवणा गुरुलोपणा २, सर्वथा विणास करणा ३, अंतरंग अप्रीत ४, अंतराय
भक्त, पान, वस्त्र आदिना विघ्न करणा ५, अति आशातना जाति प्रमुख करी हीलणा ६, ज्ञान-अवर्णवाद ७, आचार्य, उपाध्यायनी अविनय ८, अकाले स्वाध्याय करणी ९, षट्
कायकी हिंसा १० दर्शनावर| दर्शन-चक्षु आदि ४, दर्शनी-साधु आदि, दर्शनसाधन-श्रोत्र, नयन आदि अथवा णीय संमति, अनेकान्तजयपताका आदि प्रमाणशास्त्रनां पुस्तक आदिकने प्रत्यनीक
आदि; पूर्वोक्त ज्ञानावरणीयवत् दश बोल जानने. सातावेद
| गुरु जे माता, पिता, धर्माचार्य तेहनी भक्ति १, क्षमावान् २, दयावान् ३, ५ महाव्रत
वान् ४, दशविधसामाचारीवान् ५, वाल, वृद्ध, ग्लान आदिकना वैयावृत्त्यनो करणहार ६, नीय
भगवान्की पूजामे तत्पर ७, सरागसंयम ८, देशसंयम ९, अकामनिर्जरा १०, बालतप ११ अ | गुरुनी अवज्ञानो करणहार १, रीसालु २, दया रहित ३, उत्कट कषाय ४, कृपण ५, सा प्रमादी ६, हाथी, घोडा, बळदने निर्दयपणे दमन, वाहन, लांछन आदिकनो करवो ७, ता आप परने दुःख, शोक, बंध, ताप, कंदकारक ८
| उन्मार्गना उपदेशक १, सन्मार्गना नाशक २, देवद्रव्यनो हरणहार ३, वीतराग, श्रुत, दर्शनमोह
संघ, धर्म, देवताना अवर्णवाद बोले ४, जगमे सर्वज्ञ है नही इम कहे ५, धर्ममें दूषण नीय
काढे ६, गुरु आदिकनो अपमानकारी ७ । १ आगळ पोतानी बुद्धि प्रमाणे विचारी लेवं.
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२३४
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्ध
कषाय
कषाये करी परवश चित्त थकउ सोला कषाय बांधे हास्य उत्प्रासन १, कंदर्प २,प्रहास ३, उपहास ४, शी(अश्ली)ल घणा बोले ५, दीन वचन बोले ६ रति देश आदि देखनेमे औत्सुक्य १, चित्राम, रमण, खेलन २, परचित्तावर्जन ३ अरति
पापशील १, परकीर्तिनाशन २, खोटी वस्तुमे उत्साह ३ शोक
परशोकप्रगटकरण १, आपको शोच उपजावनी २, रोणा ३ भय
आप भय करणा १, परकू भय करणा २, त्रास देणी ३, निर्दय ४ जुगुप्सा चतुर्विध संघनी जुगुप्सा करे १, सदाचारजुगुप्सा २, समुच्चयजुगुप्सा ३ स्त्रीवेद ईर्ष्या १, विषाद २, गृद्धिपणा ३, मृषावाद ४, वक्रता ५, परस्त्रीगमनरक्त ६ पुरुषवेद
स्वदारसन्तोष १, अनीा २, मंद कषाय ३, अवकचारी ४ नपुंसकवेद अनंगसेवी १, तीव कषाय २, तीव्र काम ३, पाषंडी ४, स्त्रीका व्रत षंडे ५ नरक-आयु महारंभ १, महापरिग्रह २, पंचेन्द्रियवध ३, मांसाहार ४, रौद्र ध्यान ५, मिथ्यात्व
६, अनंतानुबंधि कषाय ७, कृष्ण, नील, कापोत लेश्या ८, अनृत भाषण ९, परद्रव्यापहरण १०, वार वार मैथुनसेवन ११, इन्द्रियवशवर्ती १२, अनुग्रह रहित १३, स्थिर
घणा काल लग रोस राखणहार १४ तिर्यंच- गूढ हृदय १, शठ बोले मधुर, अंदर दारुण २, शल्य सहित ३, उन्मार्गदेशक ४, आयु सत्मार्गनाशक ५, आर्त ध्यानी ६, माया ७, आरंभ ८, लोभी ९, शीलव्रतमें अतिचार
१०, अप्रत्याख्यान कषाय ११, तीन अधम लेश्या १२ । मनुष्य आयु मध्यम गुण १, अल्प परिग्रह २, अल्प परिग्रह (?) ३, मार्दव ४, आर्जव स्वभाव ५, धर्म
ध्याननो रागी ६, प्रत्याख्यान कषाय ७, संविभागनो करणहार ८, देव, गुरुना पूजक ९, प्रिय बोले १० सुंखे (?) प्रज्ञापनीया ११, लोकव्यवहारमें मध्यम परिणाम खभावे पतली कषाय १२, क्षमावान् १३
अविरतिसम्यग्दृष्टि १, देशविरति २, सरागसंयम ३, बालतपस्वी ४, अकामनिर्जरा देव-आयु ५, भले साथ प्रीति ६, धर्मश्रवणशीलता ७, पात्रमें दान देणा ८, अवक्तव्य सामायिक
अजाण पणे सामायिक करे ९ शुभ नाम माया रहित १, गारव तीनसे रहित २, संसारभीरु ३, क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि
गुणे सहित ४
मायावी १, गौरववान् २, उत्कट क्रोध आदि परिणाम ३, परकू विप्रतारण ४, मिथ्यात्व ५, पैशुन्य ६, चल चित्त ७, सुवर्ण आदिकमें पोट मिलावे ८, कूडी साख ९,
वर्ण, रस, गंध, स्पर्श अन्यथाकरण १०, अंगोपांगनउ छेदन करणा ११, यंत्र पंजर वणावे अशुभ नाम १२, कूडा तोला, कूडा मापा १३, आपणी प्रशंसा १४, पांच आश्रवना सेवनहार १५, कर्म महारंभ परिग्रह १६, कठोर भाषी १७ जूठ बोले १८, मुखरी १९ आक्रोश करे २०,
आगलेके सुभागका नाश करणा २१, कार्मण करे २२, कुतूहली २३, चैत्याश्रयबिंबका नाश करणहार २४, चैत्येषु अंगराग २५, परकी हांसी २६, परकू विडंबना करणी २७, वेश्या आदिकू अलंकार देणा २८, वनमे आग लगावे २९, देवताना मिस करी गंध आदि चोरे ३०, तीव्र कषाय ३१
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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
२३५
शुभ नाम संसारभीरु १, अप्रमादी २, सूधा खभाव ३, क्षमावान् ४, सधर्मीना स्वागतकारक ५,
परोपकारी ६, सारका ग्रहणहार ७ उच्च गोत्र गुण बोले यथावत् १, दूषणमे उदासीन २, अष्ट मद रहित ३, आप ज्ञान पठन करे ४,
अवराकू पढावे ५, बुद्धि थोडी होवे तो पढणेवालोकी बहुमानसे अनुमोदन करे ६, जिन, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, चैत्य, साधु, गुणगरिष्ठ तेहने विषे भक्ति, बहुमान
कारक ७ नीच गोत्र परनिन्दा १, अपहास २, सत्गुणलोपन ३, असत्दोषकथन ४, आपणी कीर्ति वांछे
५, आपणा दोष छिपावे ६, अष्ट मदका कारक ७
तीर्थकरकी पूजाका विघ्न करे १, हिंसा आदि ५ आश्रव सेवे २, रात्रिभोजन आदिक करे ३, ज्ञान, दर्शन, चारित्रको विघ्न करे ४, साधु प्रत्ये देता भात, पाणी, उपाश्रय,
उपगरण, भेषज आदि निवारे ५, अन्य प्राणीने दान, लाभ, भोग, परिभोगना विघ्न कम करे ६, मंत्र आदिक करी अनेराना वीर्य हरे ७, वध, बंधन करे ८, छेदन, भेदन करे
जीवाने ९, इन्द्रिय हणे १० इति अष्ट कर्मना बंधकारण संपूर्ण. अथ पंचसंग्रह थकी युगपत् बंधहेतु लिख्यते
पृथक् पृथक् गुणस्थानोपरि पांच प्रकारे मिथ्यात्व, एकैक मिथ्यात्वमे छ छ काया, एवं ३० हुइ. एकैक इन्द्रिय व्यापार पूर्वोक्त ३० मे, एवं १५० हुइ, ऐसे ही एकैक युग्म साथ दोढसै दोढसै, एवं ३०० होइ. एवं एकैक वेदसे तीन सो तीन सो, एवं ९०० हुए. एवं एकैक क्रोध आदि च्यारि कषायसे नव(से) नवसे, एवं ३६०० हुइ. एवं दश योगसे ३६०० कू गुण्या ३६००० होइ. ५४६४५४२४३४४४१०.
मिथ्यात्व १, काय १, इन्द्रिय १, एक युगल २, तीनो वेदमेस एक वेद १, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलनका क्रोध आदि त्रिक कोइ एक, एवं ९, दश योगमेस्र एक व्यापार योगका, एवं दश बंधहेतुसे ३६००० भंग हुइ.
दस तो पूर्वोक्त अने भय युक्त कीये ११ हुइ. तिसकी विभाषा पूर्ववत् करणेसे ३६००० हुइ. एवं जुगुप्सा प्रक्षेपे पिण ३६०००. अथवा अनंतानुबंधी प्रक्षेपणे ते ११ हुइ अने योग १३ जानने तिहां भंग ४६८००. अथवा कायद्वयवधसंयोग क्षेपणे ते ग्यारे संयोग वियोग ते पूर्ववत् लब्ध भंगा ९००००. एवं सर्व २०८८००, दो लाख अठ्यासी सै. एकादश समुदाय करी इतने भंग हुइ.
दस तो पूर्वोक्त संयोग अने भय, जुगुप्सा प्रक्षेपे १२ संयोग हुइ, तिसके भंग ३६०००. अथवा भय अनंतानुबंधी युक्त करे योग तिहां १३ जानने तदा भंग ४६८००, जुगुप्सा, अनंतानुबंधी प्रक्षेपे पिण भंग ४६८००, अथवा त्रिकायवध प्रक्षेपणे ते १२ होय है ते पिण वीस होय है तदा पूर्ववत् लब्ध भंगा १२००००. भय द्विकायवध क्षेपते लब्ध भंग पूर्ववत् ९००००. एवं जुगुप्सा द्विकायवध क्षेपे पिण भंगा ९००००. अनंतानुबंधी द्विकायवध क्षेपे पूर्ववत् लब्ध भंगा ११७०००. एवं सर्व बारे समुदायके हेतु ५४६६०० हुइ.
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२३६
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[८ बन्धदस तो तेही ज पूर्वोक्त भय, जुगुप्सा, अनंतानुबंधी युक्त १३ हुइ. इहां १३ संयोगना भंगा ४६८००. चार कायना वध प्रक्षेपणे ते १३ होय है तिहां १५ संयोगना भंगा पूर्ववत् लब्ध गंगा ९००००. त्रिकायवध भय क्षेपे १२०००० भंगा. एवं त्रिकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे पिण लब्ध भंगा १२००००. त्रिकायवध अनंतानुबंधी प्रक्षेपे १५६०००. द्विकायवध, भय, जुगुप्सा प्रक्षेपे पिण १३; तिहां पिण ९०००० भंगा. द्विकायवध भय अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ११७०००. एवं द्विकायवध अनंतानुबंधी जुगुप्सा प्रक्षेपे पिण ११७०००, एवं तेरा समुदायना सर्व हेतुना भंगा ८५६८००.
दस तो तेही ज पूर्वोक्त अने पांच काय वध संयुक्त १४ होते है। तिहां पट पांचना संयोग पूर्ववत् ३६००० भंगा. चार काय वध भय प्रक्षेपे १४; तिहां पिण ९०००० भंगा. एवं चार काय वध जुगुप्सा प्रक्षेपे पिण ९०००० भंगा. चार काय वध अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ११७०००. त्रिकायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १२००००. त्रिकायवध भय अनंतानुबंधी प्रक्षेपे १५६०००. एवं त्रिकायवध जुगुप्सा अनंतानुबंधी पे(प्रक्षे)पे पिणि १५६०००. द्विकाय वध भय जुगुप्सा अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ११७०००. सर्व भंग १४ समुदायके ८८२०००.
दस तो तेही पूर्वोक्त अने छकाय वध युक्त १५ होते है. तिहां षटकाययोग १; तिहां ६००० पूर्ववत्. पांच काय वध भय प्रक्षेपणे ते १५; तिहां ३६००० भंगा. एवं पांच काय वध जुगुप्सा प्रक्षेपे ३६००० भंगा. पांच काय वध अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ४६८००. चार काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे ९००००. चार काय वध भय अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ११७०००. एवं चार काय वध जुगुप्सा अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ११७०००. त्रिकायवध भय जुगुप्सा अनंतानुबंधी १५६०००. १५ समुदायना सर्व भंग ६०४८००.
दस पूर्वोक्त षट् काय वध भय युक्त १६ होते है। तिहां ६००० भंगा. षट्कायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे पिण ६०००. षट्कायवध अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ७८००. पांच काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे ३६०००. पांच काय वध भय अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ४६८००, एवं पांच काय वध जुगुप्सा अनंतानुबंधी प्रक्षेपे पिण ४६८००. चार काय वध भय जुगुप्सा अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ११७०००. ए सर्व सोला समुदायके भंगा २६६४०००
दस पूर्वोक्त षट्कायवध भय जुगुप्सा युक्त १७ होते है। तिहां भंगा ६०००. पदकायवध भय अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ७८००. एवं षट्कायवध जुगुप्सा अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ७८०० पांच काय वध भय जुगुप्सा अनंतानुबंधी प्रक्षेपे ४६८००. एवं सर्व १७ ना भंगा ६८४००.
दस पूर्वोक्त षट्कायवध भय जुगुप्सा अनंतानुबंधी युक्त १८ होते है; तिहां ७८०० भंगा.
एवं मिथ्यादृष्टिके सर्व भंगा पूर्वोक्त मेलनसे ३४,७७,६००. मिथ्यादृष्टिना हेतु समाप्त. १
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नवतत्त्व संग्रह
२३७
अनंतानुबंधी रहित योगका कारण कहीये है - अनंतानुबंधी के उदय १३ योग होते है, परंतु दस नही होते तिसका कारण कहीये है. उद्वेलना करता हूया अनंतानुबंधीकी समयदृष्टि प्राप्त मिथ्यात्व उदयके नही संक्रामआवलिका जां लगे अनंतानुबंधीका उदय तिसके उदय अभाव ते मरणका पिण अभाव है. भवां( त ? )रके अभाव ते वैक्रियमिश्र १, औदारिकमिश्र १, कार्मण १ इन तीनोका अभाव है; इस वास्ते अनंतानुबंधी भय जुगुप्सा के विकल्पोदयमे तथा उत्तर पदां हेतुयाका अभाव सूचन कर्या.
तत्त्व ]
अथ सदनका विशेष कहीये है - साखादनमे मिध्यात्वके अभाव ते प्रथम पद गया शेष पूर्वोक्त नव अनंतानुबंधी के विकल्प अभाव ते दस. ६ | ५ | २|३|४|१३. इस चक्र विषे प्रथम dai ३ करके योगां गुणाकार करके एक रूप ऊछा करणा यथा एकैक वेदमे तेरा योग है. एवं ३९ हूये. नपुंसक वेदे वैक्रियमिश्र नही. एवं एक काव्या ३८ रहै, इन ३८ करी एकैक काय वध गुण्या २२८ होय है. इन २२८ कूं एकेक इन्द्रियव्यापार गुण्या १९४० हुइ. इन ११४० कूं एकेक युग्मसं गुण्या २२८० हुइ. २२८० कूं एकैक कषाय चारसूं गुण्या ९१२०, इतने हेतुसमुदाय हुये. एवं शेष विषे भावना करवी.
दस पूर्वोक्त अने द्विकायवध युक्त ग्यारे हूये; तिहां पूर्ववत् २२८०० भंगा. भय प्रक्षेपणे ते ११ हूये; तिहां ९१२० भंगा. एवं जुगुप्सा प्रक्षेपे ९१२०. सर्व ग्यारे समुदायना भंगा ४१०४०. पूर्वोक्त दस त्रिकायवध प्रक्षेपे बारा होते है; तिहां पिण पूर्ववत् ३०४००, अथवा द्विकाear भय प्रक्षेपे पण बारा होते हैं; तिहां पिण २२८०० एवं द्विकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे २२८००, अथवा भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १२; तिहां पिण ९१२० एवं सर्व बारा समुदायके ८५१२० भंगा.
दस पूर्वोक्त चार काय वध युक्त तेरा होते है. पूर्ववत् तिहां २२८००, अथवा भय त्रिकायवध प्रक्षेपे तेरा; तिहां ३०४०० भंगा एवं त्रिकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे ३०४००, अथवा द्विकायar भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १३; तिहां भांगा २२८०० एवं सर्व तेराके भंग संख्या १०६४००.
दस पूर्वोक्त पंचकायवध प्रक्षेपे चौदां हुइ, तिहां मंगा ९१२०, अथवा चार काय वध प्रक्षेपे चौदां; तिहां २२८०० भंगा. एवं चतुःकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे २२८०० अथवा त्रिकाear भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १४; तिहां ३०४००. सर्व एकत्र मेले ८५१२०.
पूर्वोक्त दस पट्कायवध युक्त पंदरा हुइ; तिहां १५२० भंगा. पंचकायवध प्रक्षेपे १५; तिहां ९१२०, एवं पांच काय वध जुगुप्सा प्रक्षेपे ९९२०. अथवा चार काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १५ तिहां २२८०० भंगा, सर्व एकत्र करे ४२५६०.
दस पूर्वोक्त षट्कायवध भय युक्त १६ होते हैं; तिहां भांगा १५२०. षट्कायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे १५२०. अथवा पांच काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १६; तिहां ९९२० मंगा. सर्व एकत्र करे १२१६०.
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श्रीविजयानंद सूरिकृत
[ ८ बन्ध
दस पूर्वोक्त षट्कायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १७ होते है; तिहां भंगा १५२०. एवं पूर्वोक्त सास्वादन के बंधहेतु सर्व एकत्र करे ३८३०४० इति सास्वादनके बंधहेतु समाप्त २.
२३८
मिश्रदृष्टि तेही दसमे अनंतानुबंधी वर्जित नव होय है. एकैक काया वधे पांच इन्द्रिय व्यापारा, एवं ३० भांगे एकैक युगले त्रिंशत् ; एवं ६०. एकैक वेदे साठ साठ; एवं १८०, एकैक कषाये ७२०. एवं दश जोगसे गुण्या ७२००, ६५x२३\४×१०.
एनव हेतु नव पूर्वोक्त द्विकायवध युक्त १० होइ पूर्ववत् १८०००, अथवा भय प्रक्षेपे १०; तिहां ७२०० भंगा, एवं जुगुप्सा प्रक्षेपे ७२०० एवं एकत्र दस समुदायना सर्व ३२४०० भंगा.
नव पूर्वोक्त त्रिकायवध युक्त ११ होते है; तिहां २४००० भंगा. तथा द्विकायवध भय प्रक्षेपे ११ हुइ. तिहां १८०००, एवं द्विकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे १८००० अथवा भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १९ हुइ तिहां भंगा ७२०० एवं सर्व ६७२००.
नव पूर्वोक्त चार काय वध युक्त बारा हुइ; तिहां १८००० अथवा त्रिकायवध भय प्रक्षेपे १२ तिहां २४००० भंगा एवं त्रिकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे २४००० अथवा द्विकायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १२, इहां पिण १८००० एवं सर्व मिले ८४०००.
नव पूर्वोक्त पांच काय वध युक्त १३ हुइ; तिहां भांगा ७२००, अथवा चार काय वध भय प्रक्षेपे १३ तिहां १८००० भंगा. एवं चार काय वध जुगुप्सा प्रक्षेपे १८०००, अथवा त्रिकायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १३ तिहां भांगा २४०००, सर्व एकत्र ६७२००.
नव पूर्वोक्त षट्कायवध युक्त १४ होते है; इहां भांगा १२०० अथवा पांच काय व भय प्रक्षेपे १४; तिहां भांगा ७२०० एवं पांच काय वध जुगुप्सा प्रक्षेपे ७२००. अथवा चार काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १४; तिहां १८००० भांगा. सर्व एकत्र करे ३३६०० इति १४ समुदाय.
नव पूर्वोक्त षट्कायवध भय प्रक्षेपे १५ होते है; तिहां पूर्ववत् भांगा १२०० एवं षट्कायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे १२०० अथवा पांच काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १५, तिहां भांगा पूर्ववत् ७२०० ए सर्व ९६००. ए १५ समुदाय.
नव पूर्वोक्त षट्कायवध भय जुगुप्सा युक्त सोला होते है; इहां भांगा १२००, सर्व मिश्रष्टि मंगा मिलाय करे ३०२४००० इति मिश्रदृष्टिहेतवः समाप्ताः ३
एक काय १, एक इन्द्रिय १, एक युग्म १, एक वेद १, तीन कषाय ३, एक योग १, एह नव हेतु होते है जघन्य, अथ चक्ररचना ६/५/२/३/४/२. इहां प्रथम योगा करी वेदांक
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२३९
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह गुणना तिवारे पीछे पूर्वोक्त भांगे च्यार काढे शेष ३५ रहे. वली शेष अंक करी गुण्या हुइ ८४००. ए नवकी समुदायके भावना पीछे कही ही है.
ते नव पूर्वोक्त द्विकायवध प्रक्षेपे १० हुइ; इहां भांगा २१०००. अथवा भय प्रक्षेपे १० हुइ तिहां भांगा ८४००; एवं जुगुप्साप्रक्षेपात् ८४००. सर्व एकत्र ३७८००. ए दस समुदायके.
नव पूर्वोक्त त्रिकायवध प्रक्षेपे ११ हुइ तिहां २८००० भांगा. अथवा विकायवध भय प्रक्षेपे ११ हुइ; तिहां २१००० भंगा. एवं द्विकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे २१०००. अथवा भय जुगुप्सा प्रक्षेपे ११ हुइ; इहां ८४०० भांगा. सर्व एकत्र ७८४००. ए एकादश समुदाय,
ते नव पूर्वोक्त चार काय वध प्रक्षेपे १२ होते है। तिहां पूर्ववत् २१००० भांगा. अथवा त्रिकायवध भय प्रक्षेपे १२ हुइ तिहां भांगे २८०००, एवं त्रिकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे २८०००. अथवा द्विकायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १२ हुइ; तिहां २१००० भांगा. सर्व एकत्र करे ९८०००. ए बारा समुदाय.
नव पूर्वोक्त पांच काय वध युक्त १३ हुइ तिहां भांगा ८४००. अथवा चार काय वध भय प्रक्षेपे १३ हुइ तिहां भांगा २१००० एवं चार काय वध जुगुप्सा प्रक्षेपे पिण २१०००. अथवा त्रिकायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १३ हुइ; तिहां पिण २८००० भांगा. सर्व एकत्र करे ७८४००. ए तेरा समुदाय.
नव पूर्वोक्त षट्कायवध प्रक्षेपे १४ होते है। तिहां भांगा १४००. अथवा पांच काय वध भय प्रक्षेपे १४ हुइ तिहां भांगा ८४००. एवं पांच काय वध जुगुप्सा प्रक्षेपे ८४००, अथवा चार काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १४ हुइ तिहां भांगा २१०००. सर्व एकत्र करे थके ३९२००, ए चौदा समुदाय.
नव पूर्वोक्त षट्कायवध भय प्रक्षेपे १५ हुइ तिहां १४०० भांगा. एवं षट्कायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे १४०० भांगा. अथवा पांच काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १५ हुइ तिहां भंगा ८४००. सर्व एकत्र मेले ११२००. ए पांच समुदाय.
नव पूर्वोक्त पट्कायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे सोला होते है। तिहां भांगा १४००, एवं सर्व एकत्र करे ३५२८००. ए अविरतिके बंधहेतु समाप्त. ४
देशविरतिके त्रस कायकी विरति है। इस कारण ते पांच काय, तिसके द्विक, त्रिक, चार, पांच संयोग विचारने. तिसके आठ हेतु-एक काय १, एक इन्द्रिय १, एक युग्म १, एक वेद १, दो २ कषाय, एक योग १, ए आठ. चक्ररचना-५४५४२४३४४४११. एकैक काये पांच पांच इन्द्रिया; एवं २५, ते युग्म भेदते ५०. ते पिण तीन वेदसं १५०. ते पिण चार कपायसे ६००. ते पिण ११ योगसे गुण्या ६६००, ए आठ हेतुसमुदाय.
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श्रीविजयानंदसूरिकृत
आठ पूर्वोक्त अने द्विकायवध प्रक्षेपे नव हुइ; तिहां १३२०० भांगा. प्रक्षेपे ९ हुइ तिहां ६६०० भांगा. अथवा जुगुप्सा प्रक्षेपे ९ तिहां ६६०० एकत्र करे २६४००, ए नव हेतु समुदाय.
२४०
[ ८ बन्ध
अथवा भय भांगा है. सर्व
आठ पूर्वोक्त त्रिकायवध युक्त करे दस हुइ तीन संयोग इहां दस होय; तिस कारण ते मांगा १३२०० अथवा द्विकायवथ भय प्रक्षेपे १० हुइ; इहां दस द्विकसंयोग है. भांगा १३२००. द्विकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे पिण १३२०० अथवा भय, जुगुप्सा प्रक्षेपे १० हुई; तिहां ६६०० भंगा. सर्व एकत्र ४६२०० ए दस समुदाय.
आठ पूर्वोक्त चार काय वध प्रक्षेपे ११ हुइ, तिहां ६६०० भांगा. अथवा त्रिकायवध भय प्रक्षेपे ११ हुइ; तिहां १३२०० एवं त्रिकायवध जुगुप्सा प्रक्षेपे १३२०० अथवा द्विकायवध भय जुगुप्सा घाले ११ हुइ तिहां भंग १३२०० सर्व एकत्र ४६२०० ए ग्यारे समुदायना. आठ पूर्वोक्त पांच काय वध प्रक्षेपे १२ हुइ; तिहां भंग १३२०, अथवा चार काय वध भय प्रक्षेपे १२ हुइ तिहां ६६०० भंग. एवं चार काय वध जुगुप्सा घाले ६६००. अथवा त्रिकायवध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १२ हुइ तिहां १३२०० भांगा. सर्व एकत्र करे २७७२०, भंग. ए बारा समुदाय.
आठ पूर्वोक्त पांच काय वध भय प्रक्षेपे १३ हुइ तिहां १३२० भंग. एवं पांच काय वध जुगुप्सा घाले १३२० अथवा चार काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १३ हुइ; तिहां भंगा ६६००, सर्व एकत्र करे ९२४० भंग, ए तेरा समुदाय.
आठ पूर्वोक्त पांच काय वध भय जुगुप्सा प्रक्षेपे १४ हुइ तिहां १३२० भांगा. ए चौदा हेतु समुदाय.
सर्व एकत्र मेले १६३६८०, ए देशविरतिना भांगा. ५
अथ प्रमत्त अप्रमत्त विचार -- प्रमत्तमे स्त्रीवेदमे आहारक १, आहारकमिश्र नहीं. अप्रमत्त आहारकद्विक ही नही है. प्रमत्त यंत्रक २|१|१|१२|३|४|१३. प्रमत्त आदिकों के पांच हेतु है -युग्म २, वेद ३, कषाय ४, योग, १३ योगा करी तीन वेद गुण्या ३९ हुई. दो काढे ३७ रहै, युग्म भेदते द्विगुणा ७४. कषाय भेदते च्यार गुणा २९६. ए पांच हेतुसमुदाय. पांच तो तेही ज अने भय प्रक्षेपे ते तेही ज भांगा २९६. एवं जुगुप्सा घाले २९६. एवं भय, जुगुप्सा घाले ७ हेतु हुइ भांगे तेही ज २९६. सर्व एकत्र करे १९८४, ए प्रमत्त भांगा. ६ अप्रमत्त यंत्रक - २|१|१|१२|३|४|११. वेदांसे योग गुण्या ३३. एक रूप काढे ३२ रहै. युग्म भेदते दुगु ६४. कषाय भेदते च्यार गुणा २५६. ए पांच हेतुसमुदाय एवं भय साथ षट् २५६. एवं जुगुप्सा साथ भांगा २५६. सर्व मेले १०२४. ए अप्रमत्तना भांगा. ७ अपूर्वकरण यंत्र - २|१|१|१२/३/४/९. युग्मसे वेद गुण्या ६. ते पिण कपाय भेदते २४. ए पिण चउवीस नव योगसे गुण्या २१६ ( २३४४४९ ) ए पांच हेतुसमुदाय भय
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________________
तत्व ]
नवतत्त्वसंग्रह
२४१
प्रक्षेपे ६; भांगा २१६. जुगुप्सा प्रक्षेपे षट्. भांगा २१६. उभय प्रक्षेपे सात हुइ भंग २१६. सर्व एकत्र करे ८६४. ए अपूर्वकरणना हेतु. ८
बादरका यंत्रक - १1१; ४/९. कषाय ४, योग ९. द्विक्संयोगे ३६. ए द्विकसमुदाय. बादर पांच बंधक के वेदका पिण उदय है; इस कारण ते वेद प्रक्षेपे. तीन हेतु भांगे त्रिगुणे करे १०८. ए तीन हेतुसमुदाय. सर्व एकत्र करे १४४ भंग. ए बादर कषायना हेतु.
सूक्ष्मके एक कषाय एकैक योगसे नव योग साथ ९ द्विकयोग, उपशांतके नव हेतु एवं क्षीणके नव हेतु. सयोगीके सात हेतु.
सर्व गुणस्थानना विशेषबंध हेतु संख्या ४६८२७७० इति गुणस्थानकमे बंध हेतु समाप्त. इति श्रीआत्माराम संकलता ( ना ) यां बन्धतत्त्वमष्टमं सम्पूर्णम्.
अथ अग्रे 'मोक्ष' तत्त्व लिख्यते. प्रथम तीन श्रेणी रचना. (१७९) अथ गुणश्रेणिरचनायन्त्रं शतकात्
१
२
३
४
५
६
७
८
९
१०
११
सम्यक्त्वप्राप्ति आदि लेइ
सम्यक्त्व प्राप्ति
देशविरति
सर्ववर अनंतानुबंधिविसंयोजन दर्शनमोहनीयक्ष
उप ( शम) श्रेणि चढता
उपशांत मोह १२ मे
क्षपकश्रेणि चढता
क्षीणमोह
सयोगी केवली
अयोगी केवली
निर्जरा
स्तोक १
असंख्य
55
33
33
33
23
33
59
29
गुणा
""
31
33
13
33
5
55
19
39 "3
काल अल्प- ( १८० ) उप (शम) श्रेणियन्त्रम्
आवश्यक निर्युक्तेः
बहुत्व
असंख्य ११
१०
33
33
33
353
"3
५
४
३
२
स्तोक १
33
23
39
९
८
७
६
""
संज्वलन लोभ |
अप्रत्याख्यान लोभ | प्रत्याख्यान लोभ
संज्वलन माया |
प्रत्याख्यान माया संज्वलन मान |
अप्रत्याख्यान मान | प्रत्याख्यान मान संज्वलन क्रोध |
अप्रत्याख्यान क्रोध | प्रत्याख्यान कोध
पुरुषवेद
हास्य | रति | शोक | अरति | भय | जुगुप्सा
अप्रत्याख्यान माया
स्त्री नपुंसक मिथ्यात्वमोह मिश्रमोह अनंतानुबंधि / अनंता अनंता
क्रोध
सम्यक्त्वमोह अनंतानुबंधि
मान माया लोभ
क्षपकश्रेणिखरूपयत्र आवश्यकनियुक्ति थकी लिखतोऽस्ति ( लिखितमस्ति ). चरम समये पांच ज्ञानावरणीय ५, च्यार दर्शनावरणीय ४, पांच अंतराय ५ एवं सर्व ९४ पेपे. बार गुणस्थानके जद दो २ समये बाकी रहे तदा पहिले समय निद्रा १, प्रचला १, देवगति १, देवानुपूर्वी १, वैक्रिय शरीर १, वैक्रिय अंगोपांग १, प्रथम संहनन वर्जी ५ संहनन, एक संस्थान वर्जी पांच संस्थान ५, तीर्थ (कर ) नाम १, आहारकद्विक २ एवं सर्व १९ प्रकृति पहिले समय पेपवे. जो तीर्थकर होय तो १९ प्रकृति न होय तो तीर्थकर ( नामकर्म ) टाली १८ प्रकृति पेपर ए प्रथम.
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________________
२४२
१
२
३
४
अप्र० क्रोध | अप्र० मान
५
नंदनवने
पंडगवने
६
७
८
एकै विजयमे
९
३० सर्व अकर्मभूमौ
१०
१५ कर्मभूमिमे
११ कालद्वारे सुषम सुषम
पुरुषवेदषेपे
हास्य | रति | शोक | अरति स्त्रीवेद षपावे नपुंसक वेद
अप्र० माया | अप्र० लोभ | प्र० लोभ | प्र० मान प्र० माया
आठ कषाय क्षपाया पीछे कुछक शेष रहे आठ कषाय बेपता बीचमे १७ प्रकृति पेपे तेहनां नाम - नरकगति १, नरकानुपूर्वी १, तिर्यंच गति १, तिर्यचानुपूर्वी १, एकेन्द्रिय आदि जाति ४, आतप १, उद्योत १, थावर १, सूक्ष्म, साधारण १, अपर्याप्त १, निद्रानिद्रा १, चला १, श्रीणद्धि १. ए सत्तरे प्रकृति आठ कषाय क्षेपता बीचमे क्षपावे. तदनंतर अवशेष आठ कषाय षेपे; पीछे नपुंसकवेद, स्त्रीवेद.
(१८२) अथ सीझणद्वार लिख्यते श्रीपूज्यमलयगिरिकृत नंदीजीकी वृत्तिथी
बोल संख्यानामानि
ऊर्ध्वलोके उत्कृष्ट
समुद्रे उत्कृष्ट सर्वत्र
सामान्य जले
तिर्यगलोके
अधोलोके
श्री विजयानंद सूरिकृत
( १८१ )
संज्वलन लोभ
माया
मान
क्रोध
सम्यक्त्वमोहनीय मिश्रमोहनीय
मिथ्यात्वमोहन
अनंता० क्रोध | अनंता मान अनंता • माया । अनंता० लोभ
२
४
द्रव्य- निरंतर परिमाण सीझे
२
१०८
२० पृथक्
४
33
"
23
"
४
33 १४
८
२
19
वीस वीस ४
दस दस
१०८
१०
८
भय जुगुप्सा
१२
१३
४
सुषम दुःषम
दुःषमसुषम
१५
दुःषम
१६
दुःषमदुःषम
35
१७ गतिद्वारे देवगति आया
१८
१९ "
२०
99
कालद्वारे सुषम
33
35
"3
"
39
शेष ३ गतिका
रत्नप्रभाना
शर्कराप्रभाना
"
33
२१ " वालुकाप्रभाना "
२२
पंकप्रभाना
39
35
प्र० लोभ
१०
१०८
"
1168 2
२०
१०
१०८
[ ९ मोक्ष
दस दस
१०
33
44
४
४
८
99
४
13
८
*
""
==
२
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________________
२२२
सामान्ये २० पृथक
तत्त्व
नवतत्त्वसंग्रह २३ गति० पृथ्वी, अप्कायना
४४
४७ लिंगद्वारे स्वलिंगी । १०८ आया २४ ,, वनस्पतिकायना,,
४८ चारित्रद्वारे सा, सू, य1, तिर्यंच पंचेन्द्रिय,
। , सा, छे, सू, य पुरुषना ,
सा, प, सू, य २६ ,, तिर्यंच स्त्रीना,
५१ , सा, छे, प, सू, य , सामान्ये मनुष्यगतिना
५२ बुद्धद्वारे प्रत्येकबुद्ध , मनुष्यपुरुषना,
, बुद्धबोधित पुरुष २९ , मनुष्यत्रीना ,
, , स्त्री ३० , भवनपतिना ,
, , नपुंसक १० ,, भवनपतिनीना,
|, बुद्धिबोधित स्त्री , व्यंतरना ,
" , पुरुष३३, व्यंतरीना ,
५८ शानद्वारे, मति, श्रुत ४ ३४ , जोतिषीना ,
, मति, श्रुत, मनः३५ ,, जोतिषीनी देवीना ,,
पर्याय ३६, वैमानिक देवना ,,
|, मति, श्रुत, अवधि १०८ ३७, वैमानिक देवीना ,
, मति, श्रुत, ३८ पुरुष मरी पुरुष ।
अवधि, मनःपर्याय शेष भांगे ८
अवगाहनाद्वारे जघन्य दस दस | तीर्थद्वारे तीर्थकर
, मध्यम | , खयंबुद्ध
, उत्कृष्ट |, बुद्धबोधित
उत्कृष्टद्वारे अच्युत
सम्यक्त्वथी संख्या, असंख्यकाल
१०.१०
च्युत ४५ लिंगद्वारे गृहस्थलिंगी ४
,, अनंत कालका
१०८ ४६ , भन्यलिंगी १०
पतित अथ सांतरद्वारे एक सो तीन १०३ से लेकर एक सो आठ ताइ सीझे तो एक समय पीछे अवश्य अंतर पड़े ९७ से लेकर १०२ पर्यंत दो समय निरंतर सीझे ८५ से लेकर ९६
२०
/
UIC
र
१०८
२०
__, स्त्री
, तीर्थकरी
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________________
२४४ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[९ मोक्षलगे तीन समय निरंतर सीझे ७३ से लेकर ८४ लगे चार समय निरंतर सीझे ६१ से लेकर ७२ लगे ५ समय०, ४९ से लेकर ६० ताइ ६ समय०; ३३ से लेकर ४८ लगे ७ समय, एक से लेकर ३२ लगे ८ समय०. गणनद्वार पूर्ववत् जघन्य १२२ यावत् ३२. एवं सर्व जगे जान लेना.
(१८३) क्षेत्रद्वार, अंतरद्वार लिख्यते. सांतर जंबूद्वीप धातकी षंडे
पृथक् वर्ष जंबूद्वीपके तथा धातकी पंड विदेहे पुष्करद्वीपे १ तथा तिसके विदेहे
१ वर्ष झझेरा कालद्वारे भरत, ऐरावतमे जन्म आश्री
युगलकाल १८ सा नून (?) साहारण आश्री भरत, ऐरावते
संख्याते हजार वर्ष नरकगतिना आया उपदेशथी सीझे तिसका
१००० वर्ष " हेतुये सीझे
संख्येय सहस्र वर्ष तिर्यंच गतिना आया उपदेशे
पृथक् १०० वर्ष अनंतरोत तिर्यचना हेतुये सीझे तिसका
संख्येय सहन वर्ष . तिथंच स्त्रीना १, मनुष्यना २, मनुष्यस्त्रीना ३, सौधर्म, "ईशान वर्जके सर्वे देवता देवीना आया उपदेशे
१ वर्ष झझेरा अनंतरोक्त बोल हेतुये
संख्येय सहस्र वर्ष पृथ्वी १, अप २, वनस्पति, गर्मज, पहिली, दूजी नरक, सोधम, इंशान दवका आया हेतुये सीझे
संख्येय सहस्र वर्ष वेदद्वारे पुरुषवेदे
१ वर्ष झझेरा स्त्री, नपुंसक वेदे
संख्येय सहन्न वर्ष पुरुष मरी पुरुष हुह
१ वर्ष झझेरा शेष ८ भांगे
संख्येय सहस्र वर्ष तीर्थद्वारे तीर्थकर
पृथक् ," तीर्थकरी
अनंत काल अतीर्थकर
१ वर्ष झझेरा नोतीर्थसिद्धाका प्रत्येकबुद्धी
संख्येय सहन वर्ष लिंगद्वारे अन्यलिंगे गृहलिंगे स्वलिंगे
१ वर्ष झझेरा
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________________
तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
२४५
चारित्रद्वारे सामायिक १, सूक्ष्मसंपराय २, यथा- १ वर्ष झझेरा ख्यात ३
सामायिक १, छेदोपस्थापनीय २, सूक्ष्मसंपराय ३, १८ कोडाकोडी सागर किंचित् यथाख्यात ४
ऊणा | सा० १, परिहारविशुद्धि २, सूक्ष्म० ३, यथा० ४ . २६ सा० १, छेदो० २, परिहार० ३, सूक्ष्म० ४, यथा० ५ बुद्धद्वारे बुद्धबोधित
१ वर्ष झझेरा बुद्धबोधित स्त्रियाका १, प्रत्येक बुद्धियांका २ संख्येयसहस्र वर्ष . स्वयंबुद्ध
पृथक, " शानद्वारे मति १, श्रुत २
पल्यका असंख्य भाग , मति १, श्रुत २, अवधि ३
१ वर्ष झझेरा " , मनःपर्याय ३
संख्येय सहस्र वर्ष " , अवधि ३, मनःपर्याय ४ अवगाहनाद्वारे जघन्य १, उत्कृष्ट २, यवमध्यम ३ श्रेणिके असंख्य भाग अजघन्योत्कृष्ट अवगाहना
१ वर्ष झझेरा उत्कृष्टद्वारे अप्रतिपतित सम्यक्त्व
१ सागरके असंख्य भाग संख्य, असंख्य कालका पतित
संख्येय सहस्र वर्ष अनंत कालका पतित
१ वर्ष झझेरा निरंतरद्वारे सांतरद्वारे
संख्येय सहस्र वर्ष अल्पबहुत्वद्वारे च्यार च्यार सिद्धा अने दस दस सिद्धा परस्पर सर्व तुल्य, तिण थकी वीस सिद्धा अने पृथक् वीस सिद्धा थोडा, तिण थकी एक सो आठ सिद्धा संख्येय गुणा. इति अनंतरसिद्धा प्ररूपणा समाप्ता.
अथ परम्परासिद्धखरूपं लिख्यते-द्रव्यपरिमाणमे सर्व जगे अढाइ द्वीपमे. अनंते अनंते कहणे अंतर नहना (१), अंतरका असंभव हे इस वास्ते.
(१८४) नामानि अल्पबहुत्व
नामानि
अल्पबहुत्व समुद्रसिद्धा १ स्तोक | १ | ऊर्ध्वलोकसिद्धा १स्तोक द्वीपसिद्धा २संख्येय
अधोलोकसिद्धा २ संख्येय जलसिद्धा १स्तोक
तिर्यग्लोकसिद्धा स्थलसिद्धा २ संख्येय
| مع ساعه
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________________
२४६ श्रीविजयानंदसूरिकृत
[९ मोक्ष(१८५) लवणसमुद्रे सिद्धा १ स्तोक | धातकीषंड सिद्धा ४ सं. . कालोदधि ,
पुष्करार्धद्वीप , ५ सं. जंबूद्वीप -... ३ सं. - (१८६) अथ तीनो द्वीपकी मिलायके अल्पबहुत्वयंत्रम्. ए तीनो यंत्र परंपरासिद्ध.
भरत हैमवंत | हैमवंत महाहेमवंत हरिवास निषध देवकुरु महा. द्वीपनाम ऐरा
शिखरी ऐरण्यवत रूपी रम्यक नीलवंत उत्तरकुरु विदेह जंबू सं. १ स्तो. | २ सं. ३ सं. ५सं. ६ सं. ४ सं. ८ सं. धातकी ,, ,, ४ वि. २, ६वि. ३, ५,, ,,
वत
पुष्क
राधे
"
"
"
"
स.
""
"
"
"
"
"
"
"
"
भरत
ऐरा
रम्यक
---जंबू
(१८७) हैमवंत । हैमवंत महाहेमवंत हरिवास निषध देवकुरु महाद्वीपनाम
शिखरी ऐरण्यवत रूपी । नीलवंत उत्तरकुरु विदेह १९सं १स्तो. २सं. ३सं. | ५सं. । ६सं. ४सं. २२ संख्येय धातकी २०, ७ वि. । १२, ८ वि. १५,, , १४, २३ , पुष्करार्ध |२१ ,, ९सं. १६ ,, । ११ सं. १८,
(१८८) अथ आगे कालद्वारे परंपरासिद्धांकी अल्पबहुत्व लिख्यतेआरे ६ सुषमसुषम सुषम सुषमदुःषम दुःषमसुषम दुःषम दुःषमदुःषम अवसर्पिणी ५ वि ४ वि. ३ असंख्येय ६ संख्येय २संख्येय १ स्तोक उत्सर्पिणी ,,, ,, ,
(१८९) अवसर्पिणी, उत्सर्पिणी दोनाकी एकठी अल्पबहुत्वयन्त्रम् आरे ६ सुषमसुषम सुषम सुषमदुःषम दुःषमसुषम दुःषम दुःषमदुःषम
अवसर्पिणी अवसर्पिणी ५ वि ४ वि ४ असंख्येय ६ संख्येय ३ संख्येय १ स्तोक
७ संख्येय
उत्सर्पिणी उत्सर्पिणी ४ , , , , , , २ " " "
८वि (१९०) गतिद्वारे गतिका आया अनंतर नरक । तिर्यंच तिर्यचिणी मनुष्य | मनुष्यणी देव | देवी
अल्पबहुत्व ३ सं. ५ सं. ४ सं. २ सं. | १ स्तोक ७ सं. ८ सं.
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________________
२४७
४,
Sami
__, पृथ्वी
८
"
उत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह
(१९१) एकेन्द्रियना आया अनंतर १स्तो .
वेदद्वारे
अल्पबहुत्व पंचेन्द्रियना ,, ,,सर्व जगे २सं.
नपुंसकसिद्धा १स्तो. वनस्पतिना, अनंतर
स्त्रीसिद्धा
२सं. पृथ्वीना , "
पुरुषसिद्धा त्रसकायना ,, ,
तीर्थद्वारे
अल्पबहुत्व चौथी नरकना ,
| १स्तो . "
तीर्थकरी
१ स्तो. तीजी , " | २सं.
२सं. .. तीर्थकरीतीर्थे प्रत्येकबुद्धी " द्वितीय, " "
,, अतीर्थकरी बादर वनस्पति पर्याप्तना आया
, अतीर्थकर
तीर्थकरसिद्धा ,, अप्काय ,
तीर्थकरतीर्थे प्रत्येकबुद्धा भवनपति देवीना आया अनंतर
,, साध्वी ,, देवताना
, अतीर्थकर व्यंतरीना , ,
लिंगद्वारे
अल्पबहुत्व व्यंतर देवताना
, गृहलिंगी
१ स्तो. जोतिषीनी देवीना,,
अन्यलिंगी २ असं. जोतिषी देवताना
स्वलिंगी मनुष्य स्त्रीना",
चारित्रद्वारे अल्पबहुत्व मनुष्यना " "
१४ सं.
छेद०, परि०, सू०, यथा० । १ स्तो. प्रथम नरकना ,,
सामा०, छेद०,परि०, सू०, यथा० २ असं. तिर्यच स्त्रीना ,, ,
छेद०, सूक्ष्म०, यथा० ३ ,, तिर्यंचना ,,
सामा०, छेद०, सू०, यथा० ४ सं. अनुत्तर विमानना ,, ,,
सामा०, सूक्ष्म०, यथा० ५ सं. ग्रैवेयकना " "
बुद्धद्वारे
अल्पबहुत्व. अच्युतना
स्वयंबुद्धा
१स्तो. आरणना "
२ सं..
प्रत्येकबुद्धा " एवं अधोमुख सनत्कुमार लगे
बुद्धिबोधितसिद्धा ईशान देवीना आया
बुद्धबोधितसिद्धा सौधर्म ,
अल्पबहुत्व ईशान देवताना ,
मति, श्रुत, मनःपर्याय | १स्तो. सौधर्म देवताना ,
मति, श्रुत
२सं.
१२,
२०"
३
,
४"
ज्ञानद्वारे
३०॥ ३१, ३२,
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________________
२४८
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[९ मोक्ष
४ वि.
३ सं.
मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्याय ३ सं.
झझेरी ७ हस्त मति, श्रुत, अवधि
उत्कृष्टद्वारे अल्पबहुत्व ___ अवगाहनाद्वारे अल्पबहुत्व
अप्रतिपतितसिद्धा १ स्तो. द्विहस्त अवगाहना १स्तो.
संख्येयकालपतित २ असं. पृथक् धनुष अधिक ५००
२ असं.
असंख्येयकालपतित धनुषवाला मध्यम अवगाहना
अनंतकालपतित
४ असं. अवगाहनाविशेष अल्पबहुत्व
अंतरद्वारे
अल्पबहुत्व ७ हस्त अवगाहना
६ मास अंतरे सिद्धा १स्तो.
१स्तो. ५०० धनुष , । २सं.
द्वि समय , , २ सं. __ , से ऊणी ऊणी ३ , त्रि , , , ३,
एवं तां लगे कहना जां लगे मध्य तिवारे पीछे संख्येय गुण हीना कहना. जो लगे १ समय हीन ६ मास सिद्धा संख्येय गुण हीना.
३
,
४
,
अनुसमयद्वारे
एवं एकेक हानि तां लगे कहनी जां अल्पबहुत्व
लगे द्वि समय १०८ सिद्धा
१स्तो. विशेष सिद्धप्राभृतटीकातः लिख्यते १०७ , २ सं.
अधोमुख सिद्धा । १ स्तो. १०६ ,
३ सं.
ऊर्ध्वमुख सिद्धा कायोत्सर्गे २ सं. एवं समय समय हानि तां लगइ कहनी जां लगे
ऊकडू आसन सिद्धा । ३, द्वि समय सिद्धा संख्येय गुणा
वीरासन गणनद्वारे
अल्पबहुत्व १०८ सिद्धा
न्युनासन, १स्तो. २ अनंत
उत्तानस्थित, १०६ , १०५ सीझे
संनिकर्षद्वारे अल्पवहुत्व एवं एकैक हानि तां लगे जा लग ५० सिद्धा अनंत ।
सर्वसे बहोत एकैक सिद्धा १ . गुणा ५
दो दो सिद्धा संख्येय गुण हीन २ ४९ सिद्धा
६ असं.
एवं तां लगे कहना जां लगे २५ सिद्धा ७ असं.
संख्येय गुण हीना ३ एवं २५ लग कहेना
पच्चीस पच्चीस थकी छब्बीस छव्वीस २४ सीझे
८सं.
सिद्धा असंख्येय गुण हीना ४ . २३,
.. सं.
पासेस्थित,
१०७ "
७॥
४८
,
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तत्त्व नवतत्त्वसंग्रह
२४९ एवं एकैक वृद्धि असंख्येय गुण हीन तां लगे कहना जां लगे ५० सिद्धा. पंचास पंचास सिद्धाथी ५१ सिद्धा अनंत गुण हीन, बावन बावन सिद्धा अनंत गुण हीन, एवं एकैक हानि तां लगे कहनी जां लगे १०८ आठ आठ सिद्धा अनंत गुण हीना.
तथा जिहां जिहां वीस वीस सिद्धा तिहां एकैक सिद्ध सर्वसे घणे १, द्वौ द्वौ सिद्धा संख्येय गुण हीन २; एवं तां लगे कहना जां लगे पांच पांच सिद्धा.
अथ छ छ सिद्धा असंख्येय गुग हीना. एवं दश लगे कहना. ग्यारेसे लइ अग्रे अनंत गुण हीना.
तथा अधोलोक आदिमे पृथक्त्व वीत सिद्धा. तिहां पहिले चौथे भागमे संख्येय गुण हीना, दूजे चौथे भागमे असंख्येय गुण हीना, तीजे चौथे भागसें लेकर आगे सर्वत्र अनंत गुण हीना. तथा जिहां हरिवर्ष आदिमे दश दश सिद्धा तिहां तीन लगे तो संख्येय गुण हीन, चौथे पांचमे असंख्येय गुण हीन, ६ से लेकर सर्वत्र अनंत गुण हीना..
जिहां पुनः अवगाहना यवमध्य ते अनुत्कृष्टी आठ तिहां चार लगे संख्येय गुण हानि तिस ते परे अनंत गुण हानि,
जिहां वली ऊर्बलोक आदिमे चार सीझे एकैक सिद्धा सबसे बहुत, दो दो सिद्धा असंख्येय गुण हीना, तीन तीन सिद्धा अनंत गुण हीना, चार चार सिद्धा अनंत गुण हीना.
जिहां लवण आदिकमे दो दो सिद्धा तिहां एकैक सिद्धा बहुत, दो दो सिद्धा अनंत गुण हीना. इति सन्निकर्ष द्वार संपूर्ण. शेप द्वार सिद्धप्रामृत टीकासे जानने. श्री ६ परमपूज्य महाराज आचार्य श्रीमलयगिरिकृत श्रीनंदीजीकी वृत्तिथी ए स्वरूप लिख्या.
इति नवतवसंकलनायां मोक्षतत्त्वं नवमं सम्पूर्णम्. अथ ग्रंथसमाप्ति सवईया इकतीसाआदि अरिहंत वीर पंचम गणेस धीर भद्रबाहु गुर फी(फि) सुद्ध ग्यान दायके जिनभद्र हरिभद्र हेमचंद देव इंद अभय आनंद चंद चंदरिसी गायके । मलयगिरि श्रीसाम विमल विग्यान धाम ओर ही अनेक साम रिदे वीच धायके जीवन आनंद करो सुष(ख)के भंडार भरो आतम आनंद लिखी चित्त हुलसायके १ वीर विभु वैन ऐन सत परगास दैन पठत दिवस रैन सम रस पीजीयो मै तो मूढ रिदे गूढ ग्यान विन महाफूढ कथन करत रूढ मोपे मत पीजीयो जैसे जिनराज गुरु कथन करत धुरु तैसे ग्रंथ सुद्ध कुरु मोपे मत धीजीयो मै तो बालख्यालवत् चित्तकी उमंग करी हंसके सुभाव ग्या(ज्ञा)ता गुग ग्रह लीजीयो २ ग्राम तो 'वि(बि)नोली' नाम लाला चिरंजी व स्याम भगत सुभाष चित्त धरम सुहायो है
१ जीवनराम ए ग्रन्थकर्ताना स्थानकवासी गुरुनु नाम छ । २-३ लाला चिरंजीलाल अने लाला श्यामलाल ए बंने श्रावको भक्त अने समजदार हता.
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२५० श्रीविजयानंदसूरिकृत
[९ मोक्षसुषसे चोमास करी ग्यानकी लगन परी तिनकी कहन करी ग्यानरूप ठायो है भव्य जन पठन करत मन हरपत ग्यान की तरंग देत चित्तमे सुहायो है संवत तो मुंनि कर अंक 'इंदु संप धर कातिक सुमास वर तीज बुध आयो है ३ दोहा-ज्यान कला घटमे वसि, रसेसु निज गुण माहि
परचे आतमरामसे, अचल अमरपुरि जाहि १ संघ चतुर्विध वांचिउ, ग्यानकला घट चंग
गुरुजन केरे मुख थकी, लहिसो तत्वतरंग २ इति श्रीआत्मारामकृत नवतत्त्वसंग्रह संपूर्ण. लिपीचक्रे 'वि(बि)नोली' मध्ये,
शुभं भवतु. वाच्यमानं चिरं नन्द्यात्. श्रीरस्तु.
१
१९२७ ।
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श्रीविजयानन्दसूरीश्वरकृत ॥ उपदेशबावनी ॥
( सवैया एकतीसा )
श्रीपार्श्वनाथाय नमो नमः ॥
नीत पंच मीत समर समर चीत अजर अमर हीत नीत चीत घरीए सूरि उज्झा मुनि पुजा जानत अरथ गुज्जा मनमथ मथन कथनसुं न ठरीए बार आठ पटतीस पणवीस सातवीस सत आठ गुण ईस माल बीच करी सो विभु कार बावन वरण सार आतम आधार पार तार मोक्ष वरीए १ अथ देवस्तुति:
नथन करन पन हनन करमघन धरत अनघ मन मथन मदनको
अजर अमर अज अलख अमल जस अचल परम पद धरत सदनको समर अमर वर गनधर नगवर थकत कथन कर भरम कदनको सरन परत तभ (स) नमल अनघ जस अतम परम पद रमन ददनको २
नमो नीत देव देव आतम अमर सेव इंद चंद तार वृंद सेवे कर जोरके
पांच अंतराय भीत रति ने अरति जीत हास शोक काम वीत ( घीन ? ) मिथ्यागिरि तोरके
निंद ने अत्याग राग द्वेष ने अज्ञान याग अष्टादश दोष हन निज गुण फोरके
रूप ज्ञान मोक्ष जश वध ने वैराग सिरी इच्छा धर्म वीरज जतन ईश घोरके ३ अथ गुरुस्तुति:
मगन भजन मग धरम सदन जग ठरत मदन अग भग तज सरके कटत करम वन हरत भरम जन भवबन सघन हटत सब जरके नमत अमरवर परत सरन तस करत सरन भर अघ मग टरके धरत अमल मन भरत अचर धन करत अतम जन पग लग परके ४ महामुनि पूर गुनी निज गुन लेत चुनी मार धार मार धुनि वुनी सुख सेजको ज्ञान ते निहार छार दाम धाम नार पार सातवीस गुण धार तारक से हजको पुगल भरम छोर नाता ताता जोर तोर आतम धरम जोर भयो महातेजको जग श्रमजाल मान ज्ञान ध्यान तार दान सत्ताके सरूप आन मोक्षमे रहेन (ज) को ५ अथ धर्मखरूपमाह—
सिद्धमत स्यादवाद कथन करत आद भंगके तरंग साद सात रूप भये है अनेकंत माने संत कथंचित रूप ठंत मिथ्यामत सब हंत तत्त्व चीन लये हैं।
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२५२
श्रीविजयानंदसूरिकृत नित्यानित्य एकानेक सासतीन वीतीरेक भेद ने अभेद टेक भव्याभव्य ठये है शुद्धाशुद्ध चेतन अचेतन मूरती रूप रूपातीत उपचार परमकुं लये है ६ सिद्ध मान ज्ञान शेष एकानेक परदेश द्रव्य खेत काल भाव तत्त्व नीरनीत है नय सात सत सात भंगके तरंग थात व्यय ध्रुव उतपात नाना रूप कीत है रसकुंप केरे रस लोहको कनक जैसे तैसे स्यादवाद करी तत्त्वनकी रीत है मिथ्यामत नाश करे आतम अनघ धरे सिद्ध वधु वेग वरे परम पुनीत है ७ धरती भगत हीत जानत अमीत जीत मानत आनंद चित भेदको दरसती आगम अनुप भूप ठानत अनंत रूप मिथ्या भ्रम मेटनकुं परम फरसती जिन मुख वैन ऐन तत्त्वज्ञान कामधेन कवि मति सुधि देन मेघ ज्युं वरसती गणनाथ चित(त) भाइ आतम उमंग धाइ संतकी सहाइ माइ सेवीए सरसती ८ अधिक रसीले झीले सुखमे उमंग कीले आतमसरूप ढीले राजत जीहानमे कमलवदन दीत सुंदर रदल(न) सीत कनक वरन नीत मोहे मदपानमे रंग वदरंग लाल मुगता कनकजाल पाग धरी भाल लाल राचे ताल तानमें छीनक तमासा करी सुपनेसी रीत धरी ऐसे वीर लाय जैसे वादर विहानमें ९ आलम अजान मान जान सुख दुःख खान खान सुलतान रान अंतकाल रोये रतन जरत ठान राजत दमक भान करत अधिक मान अंत खाख होये है केसुकी कलीसी देह छीनक भंगुर जेह तीनहीको नेह एह दुःखबीज वोये है रंभा धन धान जोर आतम अहित भोर करम कठन जोर छारनमे सोये है १० इत उत डोले नीत छोरत विवेक रीत समर समर चित नीत ही धरतु(त) है रंग राग लाग मोहे करत कूफर धोहे रामा धन मन टोहे चितमे अचेतु(त) है आतम उधार ठाम समरे न नेमि नाम काम दगे(हे) आठ जाम भयो महाप्रेतु(त) है तजके धरम ठाम परके नरक धाम जरे नाना दुःख भरे नाम कौन लेतु(त) है ११ ईस जिन भजी नाथ हिरदे कमलपाथ नाम वार सुधारस पीके महमहेगो दयावान जगहीत सतगुरु सुर नीत चरणकमल मीत सेव सुख लहेगो आतमसरूप धार मायाभ्रम जार छार करम वी(वि)डार डार सदा जीत रहेगो दी(दे)ह खेह अंत भइ नरक निगोद लइ प्यारे मीत पुन कर फेर कौन कहेगो ! १२ उदे भयो पुन पूर नरदेह भुरी नूर वाजत आनंदतूर मंगल कहाये है भववन सघन दगध कर अगन ज्युं सिद्धवधु लगन सुनत मन भाये है सरध्या(घा)न मूल मान आतम सुज्ञान जान जनम मरण दुःख दूर भग जाये है संजम खडग धार करम भरम फार नहि तार विषे पिछे हाथ पसताये है १३ ऊंच नीच रंक कंक कीट ने पतंग ढंक ढोर मोर नानाविध रूपको धरतु है श्रंगधार गजाकार वाज वाजी नराकार पृथ्वी तेज वात वार रचना रचत है
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उपदेशबावनी
आतम अनंत रूप सत्ता भूप रोग धूप वडे (परे ?) जग अंध कूप भरम भरतु हे सत्ताको सरूप भुल करनहींडोरे जुल कुमताके वश जीआ नाटक करतु है १४ रिधी सिद्धि ऐसे जरी खोदके पतार धरी करथी न दान करी हरि हर लहेगो रसना रसक छोर वसन ज(अ)सन दोर अंतकाल छोर कोर ताप दिल दहेगो हिंसा कर मृषा धर छोर घोर काम पर छोर जोर कर पाप तेह साथ रहेगो जौंलो मित आत(दे) पान तौंलो कर कर दान वसेहुं मसान फेर कोन देद(दे) करेगो १५ रीत विपरीत करी जरता सरूप धरी करतो बुराइ लाइ ठाने मद मानकुं द्युत धुत (झूठ) मंस खात सुरापान जीवघात चोरी गोरी परजोरी वेश्यागीत गानकुं सत कर तुत उत जाने न धेरमसूत माने न सरम भूत छोर अभेदानकुं मुत ने पुरीस खात गरभ परत जात नरक निगोद वसे तजके जहानकुं १६ लिखन पठन दीन शीखत अनेक गिन क(को)उ नहि तात(तत्त)चिन छीनकमें छिजे है उत्तम उतंग संग छोरके विविध रंग रंभा दंभा भोग लाग निश दिस भींजे है काल तो अनंत बली सुर वीर धीर दली ऐसे भी चलत ज्युं सींचान चिट लीजे है छोरके धरम द्वार आतम विचार डार छारनमे भइ छार फेर कहा किजे है १७ लीलाधारी नरनारी खेभंग जोगकुं वारि ज्ञानकी लगन हारि करे राग ठमको योवन पतंग रंग छीनकमे होत भंग सजन सनेहि संग विजकेसा जमको पापको उपाय पाय अध पुर सुर थाय परपरा तेहे घाय चेरो भये जमको अरे मूढ चेतन अचेतन तुं कहा भयो आतम सुधार तुं भरोसो कहा दमको ? १८ एक नेक रीत कर तोष धर दोष हर कुफर गुमर हर कर संग ज्ञानीको खंति निरलोभ भज सरल कोमल रज सत धार भा(मा)र तज तज संग मानीको तप त्याग दान जाग शील मित पीत लाग आतम सोहाग भाग माग सुख दानीको देह स्नेह रूप एत(ते) सदा मीत थिर नही अंत हि विलाय जैसे बुदबुद पानीको १९ ऐरावत नाथ इंद वदन अनुप चंद रंभा आद नारवृंद तु(धु !)जे द्रग जोयके खट पंड राजमान तेज भरे वर भान भामनिके रूप रंग दीसे सेज सोयके हलधर गदाधर धराधर नरवर खानपान गानतान लाग पाप वोयके आतम उधार तज बीनक इशक भज अंत वेर हाय टेर गये सब रोयके २० 'ओडक वरस शत आयु मान मान सत सोवत विहात आध लेतहे बिभावरी तत वाल खेल ख्याल अरध हरत प्रौढ आध व्याध रोग सोग सेव कांता भावरी उदग तरंग रंग योवन अनंग संग सुखकी लगन लगे भई मित(मति) बावरी मोह कोह दोह लोह जटक पटक खोह आतम अजान मान फेर कहां दावरी ? २१
आनंद। २धर्मसूत्र ।
३ तत्त्वज्ञाता।
४ आवाज।
५ आखर ।
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२५४
श्रीविजयानंदसूरिकृत औषध अनेक जरि मंत्र तंत्र लाख करी होत न बचाव घरि एक कहु प्रानको सार मार करी छार रूप रस धरे परे यम निशदिन खरे हरे मानी मानको वाल लाल माल नाल थाल पाल भाल साल ढाल जाल डाल चले छोर थानको आतम अजर कार सिंचत अमृत धार अमर अमर नाम लेत भगवानको २२ अंध ज्ञान द्गरित मानत अहित चित ग(गि)नत अधम रीत रूप निज हार रे अरव अनंत अंश ज्ञान चिन तेरो हंस केवत अखंड वंस बाके कर्म भार रे चुरा नुरा लुरा सुरा श्यामा श्वेत रूप भूरा अमर नरक कुरा जर हे न नार रे सत चित निराबाध रूप रंग विना लाध पूरण अखंड भाग आतम संभार रे २३ अधिक अज्ञान करी पामर स्वरूप धरी मांगे भीख घरि घरि नाना दुःख लहीये गरे घरि रिध खरि करमत विज जरी भुल विन ज्ञान दिन हीन रहीये गुरु विभु वेन ऐन सुनत परत चेन करत जतन जैन फेन सब दहिये करमकलंक नासे आतम विमल भासे खोल द्रग देख लाल तोपे सर्व(ब) कहिये २४ काची काया मायाके भरोसो भमीयो तुं बहु नाना दुःख पाया काया जात तोह छोरके सास खास सुल हुल नीर भरे पेट फुल कोढ मोढ राज खाज जुरा तुर छोरके मुरछा भरम रोग सदल डहल सोग मुत ने पुरीस रोक होक सहे जोरके इत्यादि अनेक खरी काया संग पीड परी सुंदर मसान जरी परी प्यार तोरके २५ खेती करे चिदानंद अघ बीज बोत वृंद रसहे शींगार आद लाठी रूप लइ हे राग द्वेष तुव घोर कसाय बलद जोर शिरथी मिथ्यात भोर गर्दभी लगइ हे तो होय प्रमाद आयु चक्रकार कार घटी लायु शिर प्रति प्रष्ट हारा कर खइ हे नाना अवतार कलार चिदानंद वार धार इत उत प्रेरकार आतमकुं दइ हे २६ गेरके विभाव दूर असि चार लाख नूर एहि द्रव्य वंजन प्रजाय नाम लयो हे मति आदि ज्ञान चार व्यंजन विभाव गुन परजाय नाम सुन शुद्ध ज्ञान टों हे चरम शरीर पुन आतम किंचित न्यून व्यंजन सुभाव द्रव्य परजाय धर्यो हे चार हि अनंत फुन व्यंजन सुभाव गुन शुद्ध परजाय थाय धाय मोक्ष वयों हे २७ घरि घरि आउ घटे घरि काल मान घटे रूप रंग तान हटे मूढ कैसें सोइये ? जीया तुं तो जाने मेरो मात तात सुत चेरो तामे कौन प्यारो तेरो पान कि गोइये चाहत करण सुख पावत अनंत दुःख धरम विमुख रूख फेर चित रोइये आतम विचार कर करतो धरम वर जनम पदारथ अकारथ न खोइये २८ नरको जनम वार वार न विचार कर रिदे शुद्ध ज्ञान घर परहर कामको पदम वदन घन पद मन अठ भन कनक वरन तन मनमथ वामको हरि हर भ्रम(ब्रह्म)वर अमर सरव भर मन मद पर छर धरे चित भामको शील फिल चरे जंबु जारके मदनतंबु निरारंग अंगकंबु आतम आरामको २९
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उपदेशबावनी
२५५
छरद करत फीर चाटत अनंत रीत जानत ना हित कित श्वानदशा धरके सुरी कुरी कुख परे नाना रूप पीर परे जात ही अगन जरे मरे दुःख करके कुगुरु कुदेव सेव जानत न तत्त भेव मान अहमेव मूढ कहे हम डरके मिथ्यामति आतमसरूप न पिछाने ताते डोलत जंजालमें अनंत काल भ(म)रके ३० जोर नार गरभसे मद (मोह) लोभ असे राग रंग जंग लसें रसक जीहान रे मनकी तरंग फसे मान सनमान हसे खान पान धरमसें आतम अज्ञान रे सिद्धि रिद्धि चित लावे पुतने विभुत भावे पुगलकुं भोर धावे परो दुःखखान रे करमको चेरो हुवो आस बांध झुर मुवो फेर मूढ कहेवे हम हुवो भ्रम(ब्रह्म) ज्ञान रे ३१ जननी रोआई जेति जनमा(म) जनम धार आंसुनसे पारावार भरीए महान रे
आतम अज्ञान भरी चाटत छरद करी मनमे न थी(घी?)न परि भरे गंद खान रे तिशना तिहोरी यारी छोरत न एक घरी भमे जग जाल लाल भुले निज थान रे अंध मति मंद भयो तप तार छोर दयो फेर मूढ कहे हम हुवो ब्रह्मज्ञान रे ३२ जलके विमल गुण दलके करम फुन हलके अटल धुन अघ जोर कसीए टलके सुधार धार गलके मलिन भार छलके न पुरतान मोक्ष नार रसीए चलके सुज्ञान मग छलके समर ठग मलके भरम जगजालमें न फसीए थलके बसन हार खलके लगन टार टलके कनक नार आतम दरसीए ३३ रहके सुमन जेम महके सुवास तेम जहके रतन हेम ममताकुं मारी हे दहके मदनवन करके नगन तन गहके केवलधन आस वा(ना?)स डारी हे कहके सुज्ञानभान लहके अमर थान गहके अखर तान आतम उजारी हे चहके उवार दीन राजमति पारकीन ऐसे संत ईश प्रभु (बाल)ब्रह्मचारी हे ३४ ठोर ठोर ठानत विवाद पखपात मूढ जानत न मूर चूर सत मत बातकी कनक तरंग करी श्वेत पीत भान परि स्यादवाद हान करी निज गुण घातकी पर्यो ब्रह्मजाल गरे मिथ्यामत रीझ धरे रहत मगन मूढ जुरी भरे खातकी आतमसरूपघाती मिथ्यामतरूपकाति ऐसो ब्रह्मघाति है मिथ्याति महापातकी ३५ डर नर पाप करी देत गुरु शिख खरी मान लो ए हित धरी जनम विहातु है जोवन न नित रहे वाग गुल जाल महे आतम आनंद चहे रामा गीत गातु है बके परनिंदा जेति तके पर रामा तेती थके पुन्य सेती फेर मूढ मुसकातु है अरे नर बोरे तोकुं कहुं रे सचेत होरे पिंजरेकुं तोरे देख पंखी उड जातु है ३६ ढोरवत रीत धरी खान पान तान करी पुरन उदर च(भ)री भार नित वह्यो है पीत अनगल नीर करत न पर पीर रहत अधीर कहा शोध नही लह्यो है वाल विन पल तोल भक्षाभक्ष खात घोल हरत करत होल पाप राच रह्यो है शींग पुछ दाढी मुछ वात न विशेष कछु(कुछ) आतम निहार अछु(उछ) मोटा रूप कह्यो है ३७
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श्रीविजयानंदसूरिकृत नीके मधु पीके टीके शीखंड सुगंड लीके करत कलोल जीके नागबेर चाख रे अतर कपूर पूर अव(ग)र तगर भूर मृगमद घनसार भरे धरे खात(ख) रे सेव आरू आंब दारु पीसता बदाम चारु आतम चंगेरा पेरा चखत सुदाख रे मृदु तन नार फास सजक(के) जंजीर पास पकरी नरकवास अंत भई खाख रे ३८ तरु खग वास वसे रात भए कसमसे सूर उगे जात दसे दूर करी चीलना प्यारे तारे सारे चारे ऐसी रीत जात न्यारे कोउ न संभारे फेर मोह कहा कीलना जैसे हटवाले मोल मीलके वीछर जात तैसे जग आतम संजोग मान दीलना कौन वीर मीत तेरो जाको तु करत हेरो रयेन वस(से)रो तेरो फेर नहि मीलना ३९ थोरे सुख काज मूढ हारत अमर राज करत अकाज जाने लेयुं जग लुटके कुटंबके काज करे आतम अकाज खरे लछी जोरी चोर हरे मरे शीर फुटके करम सनेह जोर ममता मगन भोर प्यारे चले छोर जोर रोवे शीर कुटके नरको जनम पाय वीरथा गमाय ताह भूले सुख राह छले रीते हाथ उठके ४० देवता प्रयास करे नर भव कुल खरे सम्यक श्रद्धान धरे तन सुखकार रे करण अखंड पाय दीरघ सुहात आय सुगुरु संजोग थाय वाणी सुधा धार रे तत्त्व परतीत लाय संजम रतन पाय आतमसरूप धाय धीरज अपार रे करत सुप्यार लाल छोर जग भ्रमजाल मान मीत जित काल वृथा मत हार रे ४१ धरत सरूप खरे अधर प्रवाल जरे सुंदर कपुर खरे रदन सोहान रे इंदुवत वदन ज्यु रतिपति मदन ज्यु भये सुख मगन ज्युं प्रगट अज्ञान रे पीक धुन साद करे धाम दाम भुर भरे कामनीके काम जरे परे खान पान रे करता तु मान काहा(ह) आतम सुधार राह नहि भारे मान छोरे सोवना मसान रे ४२ नरवर हरि हर चक्रपति हलधर काम हनुमान वर भानतेज लसे है। जगत उद्धार कार संघनाथ गणधार फुरन पुमान सार तेउ काल असे है हरिचंद मुंज राम पांडुसुत शीतधाम नल ठाम छर वाम नाना दुःख फसे है देढ दिन तेरी बाजी करतो निदान राजी आतम सुधार शिर काल खरो हसे है ४३ परके भरम भोर करके करम घोर गरके नरक जोर भरके मरदमे धरके कुटंब पूर जरके आतम नूर लरके लगन भूर परके दरदमें सरके कुटंब दूर जरके परे हजूर मरके वसन मूर खरके ललदमे भरके महान मद धरके निव न हद धरके पुरान रद मीलके गरदमें ४४ फटके सुज्ञान संग मटके मदन अंग भटके जगत कंग कटके करदमें रटके तो नार नाम खटके कनक दाम गटके अभक्षचाम भटके विहदमें हटके धरम नाल डटके भरमजाल छटके कंगाल लाल रटके दरदमें झटके करत प्रान लटके नरक थान खटके व्यसन मिर(ल) आतम गरदमे ४५ द्वा(बा)रामती नाथ निके सकल जगत टीके हलधर भ्रात जीके सेवे बहु रान है हाटक प्रकार करी रतन कोशीश जरी शोभत अमरपुरी स(सा)जन महान रे
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उपदेश बावनी
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पुन ही ( वी ? ) ते हाथ रीते संपत विपत लीते हाय साद रोद कीते जर्यो निज नाथ ( थान ? ) रे सोग भरे छोर चरे वनमे विलाप करे आतम सीयानो काको करता गुमान रे ४६ भूल परी मीत तोय निज गुन सब खोय कीट ने पतंग होय अप्पा वीसरतु है। हीन दीन डीन चास दास वास खीन त्रास काश पास दुःख भीन ज्ञानते गीरतु है दुःख भरे झूर मरे आपदाकी तान गरे नाना सुत मित करे फिर विसरतु है आतम अखंड भूप करतो अनंत रूप तीन लोक नाथ होके दीन क्युं फीरतुं है ? ४७ महाजोघा कर्म सोधा सत्ताको सरूप बोधा ठारत अगन क्रोधा जडमति धोया हु अजर अमर सिद्ध पुरन अखंड रिद्ध तेरे बिन कौन दीध सब जग जोया हुं मुससें तु न्यारो भयो चार गति वास थयो दुःख कहुं (?) अनंत लयो आतम वीगोया हुं करता भरमजाल फस्यो हुं बीहाल हाल तेरे विन मित मैं अनंत काल रोया हुं ४८ यम आठ कुमतासें प्रीत करी नाथ मेरे हरे सब गुन तेरे सत बात बोलुं हुं महासुखकारी प्यारी नारी न्यारी छारी धारी मोह नृप दारी कारी दोष भरे तोरुं हुं हित करुं चित्त धरुं सुखके भंडार भरुं सम्यक सरूप धरुं कर्म छार छोरुं हुं आतम पीयार कर कतां (कुमत ?) भरम हट तेरे विन नाथ हुं अनाथ भइ डोलुं हुं ४९ रुल्यो हुं अनादि काल जगमें बीहाल हाल काट गत चार जाल ढार मोहकीरको नर भव नीठ पायो दुषम अंधेर छायो जग छोर धर्म धायो गायो नाम वीरको कुगुरु कुसंग नो (तो) र सत मत जोर दोर मिथ्यामति करे सोर कौन देवे धीरको ? आतम गरीब खरो अब न विसारो घरो तेरे विन नाथ कौन जाने मेरी पीरको ५०१ रोग सोग दुःख परे मानसी वीथाकुं धरे मान सनमान करे हुं करे जंजीरको मंदमति भूप (त) रूप कुगुरु नरक हूत संग करे होत भंग काची ( कांजी ?) संग छिरको चंचल विहंग मन दोरत अनंत ( ग ?) वन घरी शीर हाथ कौन पुछे वृग नीरको आतम गरीब खरो स(अ)ब न विसारो धरो तेरे बीन नाथ कौन मेटे मेरी पीरको ? ५१ लोक बोक जाने कीत आतम अनंत मीत पुरन अखंड नीत अव्याबाघ भूपको चेतन सुभाव घरे जडतासो दूर परे अजर अमर खरे छांडत विरूपको नरनारी ब्रह्मचारी श्वेत श्याम रूपधारी करता करम कारी छाया नहि धूपको अमर अकंप धाम अविकार बुध नाम कृपा भइ तोरी नाथ जान्यो निज रूपको ५२ वार बार कहुं तोय सावधान कौन होय मिता नहि तेरो कोय उंधी मति छह है नारी प्यारी जान धारी फिरत जगत भारी शुद्ध बुद्ध लेत सारी लुंटवेको ठइ है। संग करो दुःख भरो मानसी अगन जरो पापको भंडार भरो सुघीमति गइ है आतम अज्ञान धारी नाचे नाना संग धारी चेतनाके नाथकुं अचेतना क्या भइ है ? ५३ शीत सहे ताप दहे नगन शरीर रहे घर छोर वन रहे तज्यो धन थोक है वेद ने पुराण परे तत्त्वमसि तान धरे तर्क ने मीमांस भरे करे कंठ शोक है क्षणमति ब्रह्मपति संख ने कणाद गति चारवाक न्यायपति ज्ञान विनु बोक है रंगबी (ब) हीरंग अछु मोक्षके न अंग कछु आतम सम्यक विन जाण्यो सब फोक है ५४
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२५८
श्रीविजयानंदसूरिकृत
षट पीर सात डार आठ छार पांच जार चार मार तीन फार लार तेरी फरे है तीन दह तीन गह पांच कह पांच लह पांच गह पांच बह पांच दूर करे है नव पार नव धार तेरकुं विडार डार दशकुं निहार पार आठ सात लरे है आतम सुज्ञान जान करतो अमर थान हरके तिमिर मान ज्ञानभान चरे है ५५ शीतल सरूप धरे राग द्वेष वास जरे मनकी तरंग हरे दोषनकी हान रे सुंदर कपाल उंच कनक वरण कुच अधर अनंग रुच पीक धुन गान रे षोडश सिंगार करे जोबनके मद भरे देखके नमन चरे जरे कामरान रे ऐसी जिन रीत मित आतम अनंग जित काको मूढ वेद धीत ऐही ब्रह्मज्ञान रे ५६ हिरदेमे सुन भयो सुधता विसर गयो तिमिरअज्ञान छयो भयो महादुःखीयो निज गुण सुज नाहि सत मत बुज नाहि भरम अरुझे ताहि परगुण रुशीयो ताप करवेको सुर धरम न जाने मूर समर कसाय वहि अरणमे धुखीयो आतम अज्ञान बल करतो अनेक छल धार अघमल भयो मूढनमे मुखीयो ५७ लंबन महान अंग सुंदर कनक रंग सदन वदन चंग चांदसा उजासा है रसक रसील द्र(ड)ग देख माने हार मृग शोभत मांदार शुंग आतम बरासा है सनतकुमार तन नाकनाथ गुण भन देव आय दरशन कर मन आसा है छिनमे बिगर गयो क्या हे मूढ मान गयो पानीमें पतासा तेसा तनका तमासा है ५८ क्षीण भयो अंग तोउ मूढ काम धन जोउ की(क)हा करे गुरु कोउ पापमति साजी है खे(खै)लने शीघान चाट माने सुख केरो थाट आनन उचाट मूढ ऐसी मति चाजी है मूत ने पुरिश परि महादुरगंध भरी ऐसी जोनी वास करी फेर चहे पाजी है करतो अनित रीत आतम कहत मित गंदकीको कीरो भयो गंदकीमें राजी है ५९ त्राता धाता मोक्षदाता करता अनंत साता वीर धीर गुण गाता तारो अब चेरेको तुं ज (तुम) है महान मुनि नाथनके नाथ गुणी सेवं निसदिन पुनी जानो नाथ देरेको जैसो रूप आप धरो तैसो मुज दान करो अंतर न कुछ करो फेर मोह चेरेको आतम सरण पर्यों करतो अरज खरो तेरे विन नाथ कोन मेटे भव फेरेको ? ६० ज्ञान भान का(क)हा मोरे खान पान ता(दा)रा जोरे मन हु विहंग दोरे करे नाहि थीरता मुजसो कठोर घोर निज गुण चोर भोर डारे ब्रह्म डोर जोर फीरुं जग फीरता अब तो छी(ठि)काने चयों चरण सरण पर्यो नाथ शिर हाथ धर्यो अघ जाय खीरता आतम गरीब साथ जैसी कृपा करी नाथ पीछे जो पकरो हाथ काको जग फीरता ६१ शी(खि :)लीवार ब्रह्मचारी धरमरतन धारी जीवन आनंदकारी गुरु शोभा पावनी तिनकी कृपा ज करी तत्व मत जान परि कुगुरु कुसंग टरी सुद्ध मति धावनी पढतो आनंद करे सुनतो विराग धरे करतो मुगत वरे आतम सोहावनी संवत तो मुनि कर निधि इंदु संख धर तत चीन नाम कीन उपदेशबावनी ६२ करता हरता आतमा, धरता निरमल ज्ञान; वरता भरता मोक्षको, करता अमृत पान. १
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ग्राहकोनी शुभ नामावली
२५१ श्रीविजयदेवसूर संघनी पेढी. १०० श्रीसंघ पुना (उपधाननी उपजमांथी) ह. संघवी |
केशवलाल मणिलाल. ५१ रा. मोतीलाल मूलजी. ५१, रायचंद मोतीचंद झवेरी. २५ अ. सौ. ख. मंगलाना स्मरणार्थे ह. बाडीलाल
चत्रभूज २५ रा. नरोत्तम खेतसी २५ ,, हीरालाल बकोरदास ह. कांतिलाल २५ ,, सकराभाइ लल्लुभाइ २० ,, कोठारी सुरजमल पुनमचंद १५ श्री जैन आत्मानंद सभा (भावनगर). १५ रा. लालचंद खुशालचंद. १३ , पोपटलाल उत्तमचंद. ११, उत्तमचंद मानचंद. ,, जीवणचंद केसरीचंद (राधनपुर).
बाबु जीवणलाल पनालाल जे. पी. ११, भगवानलाल ,
मोहनलाल , ११, भोगीलाल लहेरचंद. १० ,, नगीनचंद कपुरचंद.
, ककलभाई भूधरभाई वकील. ५, कान्तिलाल ईश्वरलाल मोरखीआ. ५, गोदडजी डोसाजी. ५,, गोविंदजी भारमल.
" चिमनलाल शीरचंद. ५, चुनीलाल उत्तमचंद. ५, चुनीलाल गुलाबचंद. ५॥ चुनीलाल वीरचंद. "चंदुलाल वछराज.
जेठाभाई कशलचंद. ५, त्रिकमलाल न्यालचंद. ५, त्रिकमलाल मगनलाल वीरवाडीया. ५, दोसी कालीदास सांकलचंद, ५, नगीनदास लल्लुभाई झवेरी. ५ ,, नेमचंद अमरचंद. ५॥ प्रागजी धरमसी.
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५ रा. बापुलाल चुनीलाल. ,, बाबु दोलतचंदजी अमीचंदजी.
, मोहनलाल हेमचंद झवेरी. ५,, वाडीलाल पुनमचंद. ५, वाघमल खीमराज सादडीवाला.
श्री जैन धर्म प्रसारक सभा. ५ रा. हरगोविंददास हरजीवनदास. ५, हंसीलाल पानाचंद. ४, रवचंद ऊजमचंद.
, नवाब साराभाई मणिलाल. ३॥ पानाचंद प्रेमचंद जामनगरवाला.
,, मूलचंद हीराचंद जामनगरवाला. २, अमृतलाल रायचंद झवेरी. ,केरीगजी मोटाजी. केशवलाल नरपतलाल.
खीमचंद तलकचंद. २,, गोविंदजी खुशाल. २,, चांपसीभाई वसनजी पालाणी. २, चीमनलाल मणिलालनी कंपनी. २, चुनीलाल ऊजमचंद. , जीवतलाल चंद्रभाण कोठारी.
जीवनचंद धरमचंद. २, डीसा कॅम्म श्रीसंघ. २ दक्षिणविहारी मुनिराज श्रीअमरविजयजी २ देवेन्द्रविजय (यति). २ रा. दोसी हीरालाल पुरुषोत्तम. २, नागरदास हकमचंद. २,पेराज मनाजी. २, प्रेमजी नागरदास. २,, प्रेमराज महेता. २ ,, भगुभाई हीराभाई. २ भातबजारना श्रीआदीश्वरजीना दहेरासरनी पेढी २ रा. भोगीलाल प्रेमचंद. २ ,, मगनभाई नगीनभाई.
, मणिलाल त्रिकम नरपत. , माणेकलाल न्यालचंद.
, मोतीलाल नानचंद. २, मंगलदास मोतीचंद महुधावाला.
राजपुर (डीसा) श्रीसंघ,
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२६०
नामावली
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२ रा. रीखवचंद ऊजमचंद पालनपुरवाला.
१ रा. जवानमल प्रेमचंदजी. २ , लल्लुभाई करमचंद.
१, जीवाभाई वाडीलाल, २, लाला संतराम मंगतराम.
१, जुवारमल मानमल. २, वनमालीदास रामजी.
१, जुमखराम गोदडचंद. २, वाडीलाल मगनलाल.
जेठमलजी मगनीरामजी. २ श्रीकुसुमविजयजी जैन श्वेतांबर पुस्तकालय. १, जेसिंगलाल खीमचंद पाटणवाला. २ रा. साकरचंद हेमचंद.
जेसिंगलाल मोतीलाल. २ श्री प्रवचन पूजक सभा (मुंबई).
१, जेसिंगलाल ललुभाइ. १ रा. अमीचंद खेमचंद.
१ जैनानंद पुस्तकालय बनकोडा. १, अमीचंद भभुतमल.
१ रा. झवेरचंद ठाकरशी. १,, अमृतलाल पुनमचंद.
१,, डाह्याभाई घेलाभाई मेसाणावाला. १ ,, उमरीबाई धर्मपत्नी लाला सुंदरमल.
, डी शान्तिलाल कान्तिलाल. कीर्तिलाल हीरालाल भणशाली.
, तलकचंद प्रेमचंद. १, कीसनचंद पुंजाशा.
१, ताराचंद जसरामजजी. , कंकुचंद जेचंद.
, ताराचंद वर्धिचंद. १, केशरीचंद चोकमल.
, ताराचंद हीराचंद. १, केशरीचंद पुनमचंद.
१,, तिलोकचंद राजमल. , केशरबेन मोहनलाल पाटणवाला.
१, दलपतलाल मनसुखलाल. , केशवजी नारण.
१ ,, दिगंबरदास देवलाल. केशवलाल बालाराम.
दीपचंद केवलचंद चोटीलावाला, , केशवलाल दलसुखभाई.
,, दीपचंद सुरजमलजी. १,, केशुराम तेजमाल.
, दुर्लभ देवाजी. १, कोठारी सरदारमल जेठाजी.
१, देवसी हरपाल.
, देवीदास कानजी. खेमचंद छोटालाल पाटणवाला.
१ ,, दोसी हीराचंद मयाचंद. , गडकाबाईओ तरफथी.
, धीरजलाल सरूपचंद. , गिरधरलाल हरजीवन.
१ ,, नगीनदास रतनचंद. गुलाबचंद गंगाराम.
, नथमल मुलचंद. , गुलाबचंद तीलोकचंद.
, नरोतमदास भगवानदा. १, चिमनलाल न्यालचंद.
१, नवलाजी फुवाजी. १, चिमनलाल नगीनदास.
१,, नानाभाई दीपचंद. १, चंदुलाल सरूपचंद.
, नेणासी आशु कच्छी. १,, चंदुलाल साराभाई मोदी बी. ए.
१, न्यालचंद सरूपचंद पाटणवाला. चंदनदेई धर्मपत्नी लाला गोकुलचंद.
१,, पारोबाई धर्मपत्नी लाला हरदयाल जोघांवाला. १, चंपालाल पोपटलाल.
१, पारेख नेमचंद सोजी. , चुनीलाल खेतसी थानेरावाला,
१ पालनपुर जैनशाला. , छगनलाल मगनलाल.
१ रा. पारी दलपतलाल चंदुलाल. , छोटालाल छगनलाल काजी.
१, पुनमचंद मोतीचंद. , छोटालाल लहेरचंद.
१,, पोखराज धनराज मुता. १, छोटुभाई ईच्छाचंद.
१, पोपटलाल पुंजाशा. जवानमल देवाजी.
प्रागजी चनाजी.
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ग्राहकोनी
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१ रा.प्राणलाल वेलजी. १, फत्तहचंद नवलचंद. १, फुलचंद केशरीचंद उटडीवाला. १, फुलचंद वेलजी. १ बसन्तीबाई धर्मपत्नी लाला अमरनाथ बंब. १ बाई नरमेकुंवर. १ बाई नाथीबाई. १ रा. बागलाल तीलोकचंद गांधी. १, बागलाल शंकरलाल मुंबईगरा.
, बागलाल मोहनचंद कापडीया. , बाबू गोपीचंद बी. ए; एडवोकेट, , बाबू वेलचंद देवलाल.
बालाभाई जेसिंगलाल. बालुभाई कस्तुरचंद.
बावचंद जादवजी. , भभुतमल जोराजी. , भीमाजी हुकमाजी. , भोगीलाल खूबचंद खंभातवाला.
, भोगीलाल ताराचंद. १ ,, भोगीलाल दोलतचंद.
, भोगीलाल दोलतचंद शाह. , मगनभाई कल्याणचंद.
, मगनलाल गिरधरदास. १, मगनलाल शीवलाल.
मणियार मोतीलाल नरपतलाल. १, मणियार शिवलाल नरपतलाल. १, मणिलाल मोहकमचंद. १, मणिलाल एम् धुपेलीया. १, मणिलाल वेलचंद. १, मणिलाल लल्लुभाई.
, मणिलाल वाडीलाल मुकादम. १, मणिलाल सूरजमलनी पेढी. १, मीठुलाल पुंजाशा. १, मीठुलाल दुलीचंद. १, मुलजी जगजीवन मांगरोलवाला. १, मेता जीवराज मंगलजी पालनपुरवाला. १ मोरबी जैन लायब्रेरी. १ रा. मोहनलाल छोटालाल. १, मोतीलाल लक्ष्मीचंद पालनपुरवाला. १, मोहनलाल झवेरचंद.
१ रा. मोहनलाल दीपचंद. १, मोहनलाल धर्मसिंह. १,, मोहनलाल खोडीदास. १, मंछुभाई अमरचंद. १, मंजुशा टीकमलाल.
, रतनचंद हीराचंद पाटणवाला.
, रतनाजी जोराजी. १, रतिलाल फुलचंद. १, रतिलाल भीखाभाई. १, रतिलाल साराभाई.
, रामलाल केशवलाल मास्तर राधनपुरवाला. १, रामदास कीलाचंद.
रीखवचंद वालचंद. , लक्ष्मीचंद लल्लुभाई.
, लक्ष्मीचंद हेमराज कोठारी. १, लाला अगरमल जगन्नाथ.
, लाल अमरनाथ तीर्थराम खंडेरवाल, , लाला कपूरचंद मेहरचंद. , लाला कालूमल चांदनमल. , लाला कुन्दनलाल बनारसीदास. , लाला गुलजारीमल मुनशीराम. , लाला गोपीचंद किशोरीलाल, , लाला गोपीचंद रिषभदास. , लाला गोरामल अमरनाथ. , लाला गंगाराम बनारसीदास. , लाला चांदनमल रतनचंद. ,लाला जयकिशनदास पारसदास.
लाला ताराचंद निहालचंद. १, लाला तुलसीदास भोलानाथ (गेलन).
लाला दीपचंद किशोरीलाल.
लाला दोलतराम रतनचंद सराफ ,, लाला दौलतराम ताराचंद. , लाला नेमदास रत्नचंद. ,, लाला परसराम जैन. , लाला पारसदास तीर्थदास. "लाला फग्गूमल प्यारेलाल, लाला मलखीराम सराफ. लाला महेरचंद दीनानाथ मनसोवाई.
लाला मुन्शीराम देवराज, १, लाला मेघराज दुर्गादास गौरावाई.
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२६२
१ रा. लाला राधामल जोतिप्रसाद.
१,, लाला राधामल नत्थुमल ( जीरा ).
१ लाला रामप्रसाद किशोरीलाल जैन.
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लाला रामशरणदास विलायतीराम.
लाला वसंतामल महरचंद.
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लाला सदासुखराय मुनीलाल.
लाला हरिचंद इंद्रशेन.
लाला हंसराज (पपनाखा ).
लेरुभाई न्यालचंद.
वमलसी जीतमल.
वाडीलाल करालचंद.
वाडीलाल मगनलाल.
वाडीलाल मगनलाल वडोदरावाला.
वाडीलाल हरजीवनदास ( अमलनेर ).
विठलदास हरखचंद.
विठलदास गोविंदराम .
१
वीरचंद पानाचंद बी. ए.
33
१, वीजपाल भोजराज कच्छपत्री.
१ वृजलाल वी. पटेल.
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१
बृजलाल भीखाभाई.
१
शेठ धर्स.
१
श्री आत्मानंद जैनपुस्तकभंडार ( मालेरकोटला )
१
श्री आत्मानंद पुस्तकालय ( आशपुर ).
नामावली
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१ रा. सरदारमल फुलचंदजी.
१ रा. सुरचंद नगीनचंद, ( मुंबई ).
१
१
१ सुरचंद नगीनचंद (पाटण ). सोनराज हेमराज मुत्ता.
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१,, हरलाल सुंदरलाल.
१
हरजीवन गोपालजी.
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श्री कर्पूरविजय जैन पाठशाळा.
श्री जैन लोंका गच्छ ज्ञानवर्धक लायब्रेरी
( बालापुर )
श्री वर्धमानज्ञानमंदिर.
श्री वीरतत्त्वप्रकाशक मंडल ( शिवपुरी ).
श्री सनातन जैन विद्यार्थी.
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श्री सीनोर संघ.
श्री सुमति विजय जैन लायब्रेरी, कसूर ( लाहोर).
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श्री संघ खानगाह डोगरां.
श्रीहंसविजय जैन लाइब्रेरी ( अमदावाद )
( वडोदरा )
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हरिचंद मीठाभाई.
हरिलाल मनसुखलाल.
हरिलाल सोभागचंद.
ही मतलाल माधवलाल,
हीराचंद फकीरचंद.
हीराभाई अमीचंद
हीराभाई रामचंद मलबारी.
हीरालाल रायचंद.
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