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श्रीविजयानंदसूरिकृत
( १ ) अथ पूर्वोत्पन्नसंख्या लिख्यते
श्रीपन्नवणा शरीरपद १२ मे वा अनुयोगद्वारे ( सू० १४२ ) तथा 'पंचसंग्रहे च कथितम् .
प्र
थ
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मा
न
मे
दू
जी
न
र
पांचवी नरक
छट्ठी नरक
सातवी नरक बादरपर्याप्त तेजस्काय
क
तीसरी नरक श्रेणि के असंख्यातमे भाग.
थी नरक
प्रत्येक निगोद पृथ्वीकाय
अष्काय
प्रतरके असंख्यातमे भागमे जितने आकाशप्रदेश आवें ती ( इ ) तने जीव प्रथम रत्नप्रभा नरकमे है.
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प्रतरका स्वरूप अने (और) श्रेणिका स्वरूप कथ्यते - सात रजु लंबी अने सात रजु चौडी अने एक प्रदेशकी मोटी इसकूं | तो घनीकृत लोककी एक प्रतर कहीये अने सात रजु प्रमाण लंबी अने एक प्रदेश प्रमाण चौडी अने एक प्रदेश प्रमाण मोठी इसकूं घनीकृत लोककी एक श्रेणिछ कहीये । जिहां कही समुच्चये प्रतर अने श्रेणिका मापा है तिहा ( वहां) ऐसी प्रतर अने श्रेणि जाननी. इत्यलं विस्तरेण.
श्रेणिके असंख्यातमे भागमे जितने | आकाशप्रदेश आवे तितने दूजी नरक में नारकी जान लेने.
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पर्याप्ते लोकके असंख्यातमे भाग.
१ पंचसंग्रहमां पण कां छे । २ कहेवाय छे ।
श्रेणि अंगुल प्रमाण चौडी अने सात रज् प्रमाण लंबी तिस श्रेणीमे असत् कल्पना करके श्रेणि २५६ कल्पीये. तिसका प्रथम वर्गमूल काढीये तो १६ होइ (वे ). दूजा (सरा) वर्गमूल काढीये तो ४ निकले है तिस दूजे वर्गमूलकं पहिले वर्गमूलसं गुण्या ६४ होइ. तिण चौसठ ६४ श्रेणि असी सूची नीपजे. तिस सूचीमे जितने प्रमाण तो चौडी अने सात रजु लंबी आकाशप्रदेश हे तितने पहिली नरकमे
नरकके नारकी कम करके इतने नारकी जान लेने.
[ १ जीव
श्रेणिके प्रदेशांका वर्गमूल काढत जब वारमा वर्गमूल आवे तिस बार १२ मे वर्गमूलका भाग पूर्वोक्त श्रेणिके प्रदे शांकू दीजे जो हाथ आवे तितने नारकी दूजी नरकमे जानने एवं सर्वत्र ज्ञेयम्.
श्रेणिका १० मा वर्गमूल भाग हाथ लगे. श्रेणि ८ व ( मा ? ) मूल भाग हाथ लगे. श्रेणि ६ छठो वर्गमूलका भाग
श्रेणि ३ तीजो वर्गमूलका भाग
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श्रेणि २ दूजे वर्गमूलका भाग " किंचिभ्यून धनावलिके समय प्रमाणं.
| लोकके असंख्यातमे भाग.
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३ विस्तारथी । ४ सर्व स्थळोमां । ५ कंइक ओछा ।
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