SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 191
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ श्रीविजयानंदसूरिकृत [७ निर्जरातपोधन दान कर सील मीत चीत घर निज गुण वास कर दस धम्म दोरके .. आतम सियाने माने एह धर्मरूप जाने पाने जाने दोरे भोरे कल मल तोरके १ असी चार लाप जोन पाली तिहां रही कोन वार ही अनंत जंत जिहा नही जाया है नवे नवे भेस धार रांक ढांक नर नार दूष भूष मूक घूक ऊंच नीच पाया है राजा राना दाना माना सूरवीर धीर छाना अंतकाल रोया सब काल बाज पाया है तो है समजाया अब ओसर पुनीत पाया निज गुन धाया सोइ वीर प्रभु गाया है २ अथ 'बोध(धि)दुर्लभ' भावनासुंदर रसीली नार नाककी वसनहार आप अवतार मार सुंदर दिदार रे . इंदचंद धरणिंद माधव नरिंद चंद वसन भूषन पंद पाये बहु वार रे जगतके ष्याल रंगवद रंग लाल माल मुगता उजाल डाल रे(ह)दे बीच हार रे ए तो सब पाये मन माये काम जगतके एक नही पाये विभु वीर वच तार रे १ सुंदर सिंगार करे बार बार मोती भरे पति बिन फीकी नीकी निंदा करे लोक रे वदन रदन सित दृग विन फीके नित पगरि तेरि तकित भूपनके थोक रे जीव विन काया माया दान विन सूम गाया सील विन वायां खाया तोष विन लोक रे तप जप ज्ञान ध्यान मान सनमान सब सम कद रस विन जाने सब फोक रे २ .. इति द्वादशभावनाविचार. अथं प्रत्याख्यानखरूप ठाणांग, आवश्यक, आवश्यकभाष्यात् (१)भावि-आचार्य आदिकनी वैयावृत्त्य निमित्ते जो तप आगे करणा था पयुर्पण आदिमे अष्टम आदि सो पहिला करे ते 'भावि-अनागत तप. (२) अईयं-आचार्य आदिकनी वैया. वृत्य निमित्ते पर्युषण आदिमे अष्टम आदि तप न करे, पर्युषण आदिकके पीछे करे ते 'अतीत तप' कहिये. (३) कोडिसहियं-प्रारंभता अने मूकतां छोडतां चतुर्थ आदिक सरीषो तप ते बेहु छेहडा मेल्या हुइ ते 'कोटिसहितम्. (४) सागार-अणत्थणा भोग सहसागार इन दोना विना अपर महत्तरागार आदि आगार राक्षे ते 'सागारतप.' (५) अणागार-अणत्थणाभोगेण सहसागारेण ए दो विना होर (और) कोइ आगार न रापे ते 'अणागार तप'. (६) परिमाण-एक दाता आदि १ कवल २ घर ३ द्रव्य संख्या करे ते 'प्रमाणकृत. (७) निरविसेसे—सर्व अशन आदि वोसरावे ते 'निर्विशेष.' (८) नियंदि-अमुको तप अमुक दिने निश्चे करूंगा नियंत्रित तप.' ए जिनकल्पी विषे प्रथम संघयण होता है; सो वर्तमानमे व्यवच्छेद (च्छिन्न) है. (९) संकेय-अंगुट्टि १ मुट्ठि २ गट्ठी ३ घर ४ से ५ ऊसास ६ थियुग ७ जोइरके ८ ए आठ 'संकेत'के भेद जानने. (१०) अद्धा-नमुकारसहियं १ पोरसि २ साढपोरसि ३ पुरिम ४ अपार्द्ध ५ विगय ६ निवीता ७ आचाम्ल ८ एकासणा ९ बे. आसणा १० एकलठाणा ११ पाण १२ दिस १३ अभत्तट्ठ १४ चरम १५ अभिग्रह १६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy