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________________ ४८ श्रीविजयानंदसूरिकृत [१ जीव उपयोगथी क्षणमात्र च्युति-भूले नही ते 'अविच्युतिधारणा' है. स्थिति अंतर्मुहूर्तनी. जे वस्तुने उपयोग था तेह तो भ्रंस हुया है पणि संस्कार रह गया है पुष्पवासनावत् तेहने 'वासनाधारणा कहीये. स्थिति संख्यात असंख्यात कालनी. कालांतरे कोइक तादृश अर्थ(ना) दर्शनथी संस्कारने प्रबोधेकरी ज्ञान जागृत हुया जे में एह पूर्वे दीठा था ऐसी जो प्रतीति ते 'स्मृतिधारणा' ज्ञेयं स्थिति अवग्रह आदि ४ की-अवग्रह एक समय वस्तु देख्यां पछे विकल्प उपजे है स्मा (१). ईहा अंतर्मुहूर्त विचाररूप होणे ते. अवाय अंतर्मुहूर्त निश्चय करणे करके. धारण वासना [श्री] संख्य असंख्य काल आयु आश्री. अवग्रहके दो भेद हे. दोनोका अर्थव्यंजनावग्रह. 'व्यंजन' शब्दना तीन अर्थ है. 'व्यंजन' शब्दनी व्युत्पत्ति करीने विचार लेना श्रोत्रादिक इन्द्रिय अने शब्दादिक अर्थनो जे अव्यक्तपणे-अप्रगटपणे संबंध तेहने 'व्यंजन कहीये. अथवा व्यंजन शब्दादिक अर्थने पिण कहीये. अथवा व्यंजन श्रोत्रादिक इन्द्रियने पिण कहीये. एतले एहवा शब्दार्थ नीपना-अप्रगट संबंधपणे करी ग्रहीये ते 'व्यंजनावग्रह' कहीये एह व्यंजनावग्रह प्रथम समयथी लेई अंतर्मुहूर्त प्रमाण काल जानना. २ अर्थावग्रह. प्रगटपणे अर्थग्रहण ते 'अर्थावग्रह' कहीये. ते एक समय प्रमाण. ___ व्यंजनावग्रह चार प्रकारे-१ श्रोत्र इन्द्रिय व्यंजन अवग्रह, २ घ्राण इन्द्रिय व्यंजन अव ग्रह, ३ रसना इन्द्रिय व्यंजन अवग्रह, स्पर्शन इन्द्रिय व्यंजन अवग्रह. चार इन्द्रिय प्राप्यकारी कही तेहसू व्यंजनावग्रह होय. वस्तुने पामीने परस्परे अडकीने प्रकाश करे ते 'प्राप्यकारी' कहीये. अथवा विषय वस्तुथी अनुग्रह उपघात पामे ते 'प्राप्यकारी कहीये. ते नयन वर्जित चार इन्द्रियां जाननी. नयन, मन ते अप्राप्यकारी है, श्रोत्रेन्द्रियव्यंजना क्ग्रह-श्रोत्रेन्द्रिये अव्यक्तपणे शब्दना पुद्गल प्रथम समयादिकने विषे ग्राहीइ है ते 'श्रोत्रेन्द्रिय व्यंजनावग्रह.' इसीतरे घ्राण, रसन, स्पर्शनके साथ अर्थ जोड लेना. . अर्थावग्रह ६ भेदे-१ स्पर्शनेन्द्रियार्थावग्रह, २ रसनेन्द्रियार्थावग्रह, ३ घाणेन्द्रियार्थावग्रह ४ चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रह, ५ श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रह, ६ नोइन्द्रियार्थावग्रह. स्पर्शनइन्द्रिये करी प्रग टपणे स्पर्श सित पुद्गलने ग्रहीये ते 'स्पर्शेन्द्रियार्थावग्रह.' एवं सर्वत्र जानना. नोइन्द्रिय मन है ईहा षट् भेदे-१ स्पर्शेन्द्रियेहा, २ रसनेन्द्रियेहा, ३ घ्राणेन्द्रियेहा, ४ चक्षुरिन्द्रियेहा, ५ श्रोत्रेन्द्रियेहा, ६ नोइन्द्रियेहा. स्पर्शन इन्द्रिये करी गृहीत जे अर्थ तेहनुं विचारणा ते 'स्पर्शन-इन्द्रिय-ईहा.' एवं सर्वत्र. : अवाय ६ भेदे-१ स्पर्शनेन्द्रियावाय, २ रसनेन्द्रियावाय, ३ घाणेन्द्रियावाय, ४ चक्षुरि न्द्रियावाय, ५ श्रोत्रेन्द्रियावाय, ६ नोइन्द्रियावाय. स्पर्शन इन्द्रिये गृहीत वस्तु विचारी तिसका निश्चय करना ते 'स्पर्शनेन्द्रियावाय.' एवं सर्वत्र ज्ञेयं. '. धारणा षट् भेदे-१ स्पर्शनेन्द्रियधारणा, २ रसनेन्द्रियधारणा. ३ प्राणेन्द्रियधारणा ४ चक्षुरिन्द्रियधारणा, ५ श्रोत्रेन्द्रियधारणा, ६ नोइन्द्रियधारणा. स्पर्शन इन्द्रिये जे वस्तु ग्रही विचारी निश्चय करी धरी राखनी ते 'स्पर्शनेन्द्रियधारणा'. एवं सर्वत्र. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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