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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवउपशमचारित्र, एवं दो; क्षायिक भाव ९ भेदे-(१) केवलज्ञान, (२) केवलदर्शन, (३) क्षायिक सम्यक्त्व, (४) क्षायिक चारित्र, (५) दानान्तराय, (६) लाभान्तराय, (७) भोगान्तराय, (८) उपभोगान्तराय, (९) वीर्यान्तराय एवं ५ क्षय करी, एवं ९; क्षयोपशमके १८ भेद(१) मति, (२) श्रुत, (३) अवधि, (४) मनःपर्यव, (५-७) तीन अज्ञान, (८-१०) तीन दर्शन केवल विना, (११-१५) पांच अन्तरायका क्षयोपशम, (१६) देशविरति (१७) सर्वविरति, (१८) क्षयोपशमसम्यक्त्व, एवं १८ औदायिकके २१ भेद-गति ४, कषाय ४, वेद ३, लेश्या ६, मिथ्यात्व १, एवं १८, (१९) अज्ञान, (२०) अविरति, (२१) असिद्धपणउ, एवं सर्व २१, परिणामिकके ३-(१) जीव, (२) भव्य, (३) अभव्य, एवं ३, एवं सर्व ५३. नवमे गुणस्थानमे उपशमचारित्र अने क्षायिकचारित्र जो कहे है सो तीसरी चौकडीके क्षय तथा उपशमकी अपेक्षा है। उपशम क्षपक श्रेणि आश्री; अन्यथा तो चारित्र क्षयोपशमभावे है. तेरमे १४ मे एक जीव परिणामिक भाव जानना. ११ समुद्धात ५/५२५ ५६ ११५ | १ | २११.
सातमे गुणस्थानमे ५ समुद्घात कही है ते पूर्व अपेक्षा करके जाननी. सातमे (१) वेदनीय, (२) कषाय, (३) वैक्रिय, (४) आहारक ए चार समुद्घात करता तो नही, पिण वैक्रिय, आहारक शरीर विना समुद्घातके होते नही. इस वास्ते ५; एक होवे तो मारणान्तिक समुद्घात जाणवी. इति अलं विस्तरेण.
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छठे गुणस्थानमे ७ पाये कहे है सोइ आर्तध्यानका प्रथम पाया नही ते. यथा सेवे भोगे है जे कामभोग तिनका वियोग न वंछै. तत्त्वं बहुश्रुतात् गम्यम् । १३ | दंडक २४ । २४ २२ १६ १६ २ १ १ १ । १ १ । १ १११ १४ वेद स्त्री आदि ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ ३ . . 000 १५ चारित्र ७ १ १ १ १ १/३ ३ २ २ १ १ १११ १६ योनि लक्ष ८४ ८४ | ५६ २६ २६ १८ १४ १४ १४ | १४ | १४ | १४ १४१४१४ कुल १९७५
१९७-११६॥
५०२७११६॥ ११६॥ ६५॥ १२ १२ १८ आश्रव भेद ४१ ४१ ४१ ४० ४० ३२
छठे गुणस्थानमे बत्तीस भेद आश्रवके है, तद्यथा-(१) पारिग्रहिकी क्रिया, (२) मिथ्यादर्शनप्रत्यया, (३) अप्रत्याख्यानक्रिया, (४) सामंतोपनिपातिकी क्रिया, (५) ईर्याप
१ विस्तारथी सर्यु। २ तत्त्व बहुश्रुतथी जाणवू । ३ असंयम, देशविरति भने सामायिक आदि ५ चारित्र।
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