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१५३
श्रीविजयानंदसूरिकृत
[६ संवर.
-
अरति
स्त्री
चर्या
अस्ति
६
अस्ति६
.
TTTTEEEEE
अस्ति
७
अस्ति
७
नैषेधिकी शय्या आक्रोश वध
१२
वेदनीयके चारित्रमोहके, वेदनीयके , चारित्रमोहके,, वेदनीयके चारित्रमोहके,, अंतरायके , वेदनीयके ,
१३
अस्ति
८
अस्ति
८
१४
याचना
अलाभ
अस्ति
९
१६
अस्ति
९
- १८
, १२
रोग तृणस्पर्श
मल सत्कारपुरस्कार
प्रज्ञा अज्ञान दर्शन
चारित्रमोहके,, ज्ञानावरणके,
अस्ति १३
२२
दर्शनमोहके ,
सत्ता २२
१४
११
. वेदे एक साथे २०,
शीत होय तो उष्ण बावीसमे चर्या, नही, उष्ण होय तो
शीत, उष्णमेसु एक निसिहिया एकतर; शीत नही; चर्या, |
'चर्या, शय्यामेसु एक
| तर; एवं ९ वेदे. एवं शीत, उष्ण एकतर. | शय्या एकतर; एवं
| अयोगी पिण
कोइ कहै जोकर कोइ पुरुष शीत कालमें अनि तापे है सो तिसके एक पासे तो उष्ण परीषह है अने एक पासे शीत लगे है, तो युगपद् दोनो परीषह कयुं न कहै ? तिसका उत्तरएह दोनो परीपहकी विवक्षा शीत काल अने उष्ण कालकी अपेक्षा है; कुछ अग्निकी ताप अपेक्षा नही इति वृत्तौ; और परीपहकी चर्चा भगवतीजीकी टीकामे (पृ. ३८९) मे स्वरूप कथन किया है सोइ तिहांसे लिख्यते
"ज समयं चरिया० नो तं समयं निसिहिया०" (भग० श. ८, उ. ८ सू. ३४३) इत्यादि. तिहां 'चर्या परीषह तो ग्राम आदिकमे विहार अने 'नषेधिकी' परीषह ग्राममे मासकल्प आदि रहणा अने 'शय्या' परीषह उपाश्रयमे जाकर बैसणा. इस अर्थ करकेइ इस कारण विहार अने अवस्थान अर्थात् तिष्ठने करके परस्पर विरोध है. इस वास्ते एक कालमे
१ यत् समये चर्या न तत्समये नैषेधिका० ।
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