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________________ तत्त्व नवतत्त्वसंग्रह १५३ नही संभवे है. अथ प्रश्न-नैपेधिकी अने शय्या एह दोनो चर्याके साथ विरोधी है तो दोनोका एककालमे संभव हुया. यदि एककालमे संभव हुया तदि एककालमे १९ परीषह वेदे इह सिद्ध हुया. अथ उत्तर-इम नही है. किस वास्ते ? ग्राम आदि जानेकुं प्रवृत्ते है तिस कालमे जाता या भोजनविश्रामके अर्थे औत्सुक्य परिणाम सहित थोडे काल वास्ते शय्यामे वर्चे है। तिस कालमे 'शय्या' परिषहका 'चों' अने 'नषेधिकी' दोनीको साथ संबंध है. इस वास्ते २० ही परिपह एककालमे वेदे है. यो ऐसे कया तो पइविध बंधक आश्री कया है. जिस समये चर्या है तिस समय शय्या नही. इहां कैसे संभव हूया ? उत्तर-पविध बंधकके 'मोह' कर्म उदयमे बहुत नहीं है इस वास्ते शय्याकालमे औत्सुक्य परिणामका अभाव है इस वास्ते. शय्याकालमे शय्या ही है, परंतु बादर रागके उदय औत्सुक्य करके विहारके परिणाम नही. इस वास्ते परस्पर विरोधी होने करके दोनो युगपत् एककालमे नही. इति अलं चर्चेण (चर्चया), उत्तराध्ययनके २४ मे अध्ययनात् पांच समिति, तीन गुप्ति खरूप प्रथम ईर्यासमिति-आलंबने १, काल २, मार्ग ३, यत्ना ४ ए चार प्रकारे. शुद्ध ईयो शोधे तिहां आलंबन-ज्ञान १, दर्शन २, चारित्र ३ इन तीनोकू अवलंबीने ईर्या शोघे १. काल थकी दिवसमे ईर्या शोधे २. मार्ग थकी उत्पथ वर्जे ३. यत्नाके चार भेद है-द्रव्य १, क्षेत्र २, काल ३, भाव ४. द्रव्य थकी तो चक्षुसे देख कर चाले १. क्षेत्र थकी चार हाथ प्रमाण धरती देखीने चाले २. काल थकी जितना काल चलनेका तहां लग यत्न करी चाले ३. भाव थकी उपयोग सहित. उपयोग सहित किस तरे होवे ? पांच इंद्रियकी विषयथी रहित पांच प्रकारकी वाचना आदि स्वाध्याय रहित शरीरकू ईयारूप करे. ईयोंमें उद्यम एह उपयोग थकी ईर्या शोधे इति ईर्यासमिति. भाषासमिति. क्रोध १, मान २, माया ३, लोभ ४, हास्य ५, भय ६, मुखारि (मौखय) ७,विकथा ८ ए आठ स्थानक वर्जीने बोले. असावद्य मर्यादा सहित भाषा बोले. उचित काले बोले. तथा दश भेदे सत्य, बारां भेदे व्यवहार, एवं २२ भेदे भाषा बोले. ते बावीस भेद लिख्यते (१) जणवए सच्चे-'जनपद सत्य. जौनसे देशमे जो भाषा बोले सो तिहां सत्य. जैसे 'कोकन' देशमे पाणी• पिछ, कोइ देशमे बडे पुरुपकू बेटा कहै वा बेटेकू काका, पिताळू भाइ, सासूकू आइ. सो सत्यम्. (२) सम्मत(य)-'संमत'सत्य, जैसे पंकसे उपना मींडक, सेवाल अने कमल; तो हि पिण कमलने 'पंकज' कहीये पिण मींडक, सेवालने 'पंकज' शब्द नही. (३) ठवणा-स्थापना'सत्य. जिसकी मूर्ति स्थापी है सो मूर्तिकू देव कहना जूठ नही. (४) नाम'नाम'सत्य, 'कुलवर्धन' नाम है, चाह कुलका क्षय करे तो पिण कुलवर्धन कहना जूठ नही. (५)रूवे-मुणकरी भ्रष्ट है तो पिण साधुके वेषवाले कू 'साधु' कहीये. (६) पडच-'अपेक्षा'सत्य. जैसे मध्यमाकी अपेक्षा अनामिकी कनिष्ठा अंगुली है, (७) ववहार-'व्यवहार सत्य. जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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