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________________ ७२ [१ जीव श्रीविजयानंदसूरिकृत (६४) वर्गके छेदांका स्वरूप निरूपक यंत्रम् प्रथम दूजा तीजा वर्ग अंक २५६ स्थापना स्थापना स्थापना स्थापना ८,४,२ १२८,६४,३२,१६,८,४,२ अथ लोकोत्तर गिणती लिख्यतेचौपाइ-लोकोत्तर गिणती सिद्धांत, जासौ संख असंख अनंत । ताके भेद दोइ मन मानि, छेद गिणतओ वरग प्रमानि ॥१॥ छेद राशिका आधा आधा, जब लग अंतमे एक ही लाधा। राशिकू आपही सौ गुणाकार, 'वरग' कहे इह बुद्धिविचार ॥२॥ दोहा-धारा तीन ही जानीये, वरगधार घनधार । होइ घनघनाधार इम, पंडित कहे विचार ॥ १॥ (६५) अथ इन तीनो धारका जो प्रयोजन है सो यंत्रं गोमट्ट(म्मट)सारात् वर्गशलाका वर्गधारा छेदशलाका १६ ३२ ६४ १२८ २५६ संख्याते ६५५३६ ४२९४९६७२९६ १८४४६७४४०७३७०९५५१६१६ ३९ अंक आवै ७८ , , संख्याते संख्याते वर्ग जाइये तब जघन्य परित्त असंख्याते आवै संख्याते वर्ग जाइये तब जघन्य युक्त असंख्याते आवै असंख्याते | असंख्याते वर्ग जाइये तब जघन्य असंख्य असंख्याते आवै । असंख्याते वर्ग जाइये तब सूक्ष्म अद्धापल्योपमके समय होय असंख्य वर्ग जाइये तब सूची अंगुलके प्रदेश १ विरीया वर्ग कीजे तब प्रतर अंगुलके प्रदेश असंख्य वर्ग जाइये तब जघन्य परित्त अनंत होय ..१वार। असंख्याते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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