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________________ तत्त्व] नवतत्त्वसंग्रह १८३ (की)ये है तिहां पिण रज्जु प्रमाण सनाडीके दक्षिण दिशे रह्या ब्रह्मलोकके मध्य भाग थकी नीचला अने उपरना दो दो खंड, ब्रह्मलोकके मध्यमे प्रत्येक प्रत्येक दो दो रज्जु विस्तीर्ण उपर लोकने समीपे अने नीचा रत्नप्रभाने क्षुल्लक प्रतर समीपे अंगुल सहस्र भाग विस्तारे देश ऊन साढे तीन रज्जु प्रमाण दोनो खंडांने बुद्धि कर करे गृहीने तेहने उत्तरने पासे पूर्वोक्त रीत करके स्थापीये. ऐसा कर्या हुँते उपरले लोकांनो अर्ध अंगुलना दो सहस्र भाग अधिक तीन रज्जु विस्तीर्ण हुइ. इहां चारो ही पंडांने छहडे चार अंगुलना सहस्र भाग हुइ केवल एक दिशने विषे दोनो ही भागे करी एक ज अंगुल सहस्र भाग होइ एक दिग्वर्तीपणा थकी इम अनेराइ जे दो भाग तिने करी एक सहस भाग हुई; इस वास्ते दो भाग अधिकपणे कयो. देश ऊन सात रज्जु ऊंचा बाहल्य थकी ब्रह्मलोकने मध्ये पांच रज्जु बाहल्य अने अन्यत्र ओर जगें अनियत विस्तार. ऐसा ऊर्ध्व लोक गृहीने हेठला संवर्तिक लोकना अर्द्धने उत्तरने पासे जोडीये तिवारे अधोलोकना पंड थकी जे प्रतर अधिक हुइ ते खंडने ऊपरिला जोड्या खंडना बाहल्यने विपे उद्धोयत जोडीये. इम को पांच रज्जु झझेरा किंहाएक बाहल्यपणे हुइ तथा हेठिले खंडने हेठे यथासंभव देश ऊन सात रज्जु बाहल्य पूर्वे कह्या है. ऊपरिला खंडना देश ऊन रज्जुद्वय बाहल्य थकी जे अधिक हुइ ते खंडीने ऊपरिला खंडना बाहल्यने विषे जोडीये. इम का इंते बाहल्य थकी सर्व ए चउरंस कृत आकाशनो खंड कितनेक प्रदेशांने विषे रज्जुना असंख्यातमो भाग अधिक छ रज्जु होइ ते व्यवहार थकी ए सर्व सात रज्जु वाहल्य बोलाये जे भणी व्यवहार नय ते कछुक ऊणा सात हस्तप्रमाण पट आदि वस्तुने परिपूर्ण सात हस्त प्रमाण माने एतले देश ऊन वस्तुने व्यवहार नय परिपूर्ण कहै. इस वास्ते एहने मते इहा सात रज्जु बाहल्यपणे सर्वत्र जानना अने आयाम विष्कंभपणे प्रत्येक प्रत्येक देश ऊन सात रज्जु प्रमाण हुया है ते पिण 'व्यवहार' नयमते सात सात रज्जु पूरा गिण्या. एवं 'व्यवहार' नयमते सब जगे सात रज्जु प्रमाण घन होइ तथा श्रीसिद्धांतमे जहां कही श्रेणीनाम न ग्राह्यो है तिहां सब जगे घनीकृत लोकनी सात रज्जुप्रमाण लंबी श्रेणी जाननी; एवं प्रतर पिण एह धनीकृत लोकनो खरूप अनुयोगद्वारनी वृत्तिथी लिख्या है. ४४४ सूचीरज्जुस्थापना २१११ ४४४ पंडुक ४४४४ प्रतररज्जुस्थापना घनरज्जुस्थापना ६४ पंडुकका एक 'धन-रज्जु' होता है.१६ पंडुकका एक 'प्रतर-रज्जु' होता है. ४ पंडकका एक 'सूची-रज्जु' होता है. निश्चे लोकखरूप तो अनियत प्रमाण है. सो सर्वज्ञ गम्य है, परंतु स्थूल दृष्टिके वास्ते सर्व प्रदेशांकी घाटवाध एकठी करके एह स्वरूप लोकका जानना लोकनालिकाबत्तीसीसे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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