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________________ १७८ श्रीविजयानंदसूरिकृत [७ निर्जरानट विट भांड रांड पर घर नित हांड एही सब दर छांडकु 'सील' कहतु है ध्यान दृढ मुनि मन सुन्य गृह ग्राम बन तथा जना कीरण विसेस न लहतु है ? मन वच काये साधि होत है जहां समाधि तेही देस थानक धियानजोग कहे है पृथी (थ्वी) आप तेज वन बीज फूल जीव धन कीट ने पतंग भंग जीव वधन हे है ऐसा ही सथान ध्यान करनेके जोग जान संग एकलो विसेस नही लहे है एही देस द्वार मान ध्यान केरा वान तान भिष्ट कर अरि थान सदा जीत रहे है २ इति 'देश' द्वार २. अथ 'काल' द्वारमाह-दोहराजोग समाधिमे वसे, ध्यान काल है सोय; दिवस घरीके कालको, ताते नियम न कोय १ इति 'काल' द्वार ३. अथ 'आसन द्वार-दोहरासोवत बैठे तिष्ठते, ध्यान सवी विध होय; तीन जोग थिरता करो, आसन नियम कोय १ इति 'आसन' द्वार ४. अथ 'आलंबन' द्वार, सवईया इकतीसावाचन पूछन कित बार बार फेरे नित अनुपेहा सुद्ध मेहा धरम सहतु है समक श्रुत समाय देस सब वृत्ति थाय चारो ही समाय धाय लाभ लहतु है विषम प्रसाद पर चरवेको मन कर रजुकू पकर नर सुपसे चरतु है ऐसो 'धर्म' ध्यान सौध चरवेको भयो चौध वाचनादि 'आलंबन' नामजुं कहतु है १ इति 'आलंबन' द्वार ५. अथ 'क्रम' द्वार-योगनिरोधविधि, दोहराप्रथम निरोधे मन सुद्धी, वच तन पीछे जान तन वचन मन रोधे तथा, वचन तन मन इक ठान १ इति 'क्रम' द्वार ६. अथ 'ध्यातार' द्वार, सवैया ३१ साधरमका ध्याता ग्याता मुनिजन जग त्राता जगतकू देत साता गाता निज गुणने छोरे सब परमाद जारे सब मोह माद ग्यान ध्यान निराबाद वीर धीर थुणने खीण उपसंत मोह मान माया लोभ कोह चारों गेरे खोह जोह अरि निज मुणने आलम उजारी टारी करम कलंक भारी महावीर वैन ऐननीकी भांत सुणने १ इति ध्यातार' द्वार ७. अथ 'ध्यातव्य द्वार. प्रथम आज्ञाविज(च)यनिपुन अनादि हित मोल तोलके न कित कथन निगोद मित महत प्रभावना भासन सरूप धरे पापको न लेस करे जगत प्रदीप जिनकथन सुहावना जड मति बृझे नहि नय भंग मूझे नहि गमक परिमान गेय गहन मुलावना आरज आचारजके जोग विना मति तुच्छ संका सब छोर वाद वारके कहावना १ अथ अपायविज(च)यकुटुंबके काज लाज छोरके निलज्ज भयो ठान तअका जतन सीत घाम सहे है चिंता करी चकचूर दुषनमे भरपूर उड गयो तननूर मेरो मेरो कहे है पाप केरी पोटरी उठाय कर एक रोतूं रीक झींक सोग भरे साथी इहां रहे है नरक निगोद फिरे पापनको हार गरे रोय रोय भरे फेर ऊन सुख चहे है २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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