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________________ तत्त्व ] नवतत्त्व संग्रह प्रकट तुरंग रंग कूदित विहंग संग मन थिर भयो जुं निवात दीप जर्यो है ग्यान सार मन धार विमल मति उजार आतम संभार थिर ध्यान जोग कर्यो है १ इति 'ग्यान' भावना. अथ 'दर्शन' - भावना - संखा कंखा दूर करी मूढता सकल हरी सम थिर गुन भरी टरी सब मोहनी मिथ्या रंग भयो भंग कुगुर कुसंग फंग सतगुर संग चंग तत्त वात टोहनी निर्वेद सम मान दयाने संवेग ठान आसति करत जान राग द्वेस दोहनी ध्यान केरी तान धरे आतमसरूप भरे भावना समक करे मति सोहनी १ इति. अथ ' चारित्र' - भावना - -भावना उपादान नूतन करम कोन करे जीव पुव्व भव संचित दगध करे छारसी सुभका गहन करे ध्यान तो धरम धरे विना ही जतन जैसे चाकर जुहारसी चातको रूप धार करम पषार डार मार धार मार बूंद गिरे जैसे ठारसी करम कलंक नासे आतमसरूप पासे सत्ताको सरूप भासे जैसे देवे आरसी १ इति अथ 'वैराग' -२ चक्रपति विभो अति हलधर गदाधर मंडलीक रान जाने फूले अतिमानमे रतिपति विभो मति सुखनकू मान अति जगमे सुहाये जैसे वादर विहान मे रंभा अनुहार नार तनमे करे सिंगार पिनक तमासा जैसे वीज आसमानमे पवन झकोर दीप बुझत छिनकमा जिऐसे बुझ गये फिर आये न जिहानमे १ खासा खाना खाते मनमाना सुख चाते ताते जानते न जात दिन रात तान मानमे सुंदर सरूप वने भूषनमे वने वने पोर समेसने अने वच मद मानमे गेह ने देह संग आस लोभ नार रंग छोरके विहंग जैसे जात असमान मे पवन झकोर दीप बुझत छिनकमां जिऐसे बुझ गये फिर आये न जिहानमे २ रोयां की घरे परी रापत न एक घरी प्रिया मन सोग करी परीकूने जाइ रे माता हुं विहाल कहै लाल मेरो गयो छोर आसमान माही मेरी पूरी हुं न काह रे मिल कर चार नर अरथीने घर कर जगमे दिखाइ कर कूटे सिर माइ रे पीछे ही तमासा तेरो देषेगा जगत सब आपना तमासा आप क्यूं न देषे भाइ रे १३ हाथी थी छोर करी धाम वाम परहरी ना तातां तोर करी घरी न ठराइ रे पान पीन हार यार कोउ नही चले नार आपने कमाये पाप आप साथ जाइ रे सुंदरसी वपु जरी छारनमे छार परी आतम ठगोरी भोरी मरी घोषो पाइ रे पीछेहि तमासा तेरो देषेगा जगत सब आपना तमासा आप क्यूं न देषे भाइ रे १४ इति 'भावना' द्वार संपूर्णम्. अथ 'देश' द्वारमाह- कुशील संगवर्जन सवईया इकतीसा - भामनि पसु ने पंड रहित स्थान चंग विजन कुसील जनसंगत रहतु है द्यूतकार १ हस्तिपार २ सवतिकार ३ नार ४ छातर पवनहार ५ कुट्टिनी सहतु है Jain Education International १७७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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