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श्री विजयानंदसूरिकृत
[ ७ निर्जरा
पर धन हरे क्रोध लोभ चित धरे दूर दिल दया करे जीव वध करी राजी है पापसे न डरे कष्ट नरकके गरे परे तिनकी न भीत करे कहे हम हाजी है। मांस मद पान करे भामनि लगावे गरे रात दिन काम जरे मन हुये राजी है. raat आग जरे जमनकी मार परे रोय रोय मरे जिहां अल्ला है न काजी है ५ अथ चौथा भेद
साद आद साधनके धनकूं समार रपे कारण विसेके सब मेलत महान है वीणा आद साद पूर तरी गंध कपूर मोदक अनेक क्रूर ललना सुहान है. अमनोग से उदास दुष्ट मनन विसास पर घात मन धरे मलिन अग्यान है। आतमसरूप कोरे तप जप दान चोरे ग्यानरूप मारे कोरे टरे रुद्र ध्यान है ६ अथ स्वामी
राग द्वेस मोह भरे चार गति लाभ करे नरकमे परे जरे दुख की अगन से किसन कपोत नील संकलेस लेस तीन उतकिरू ( क ) ट रूप भइ गइ है जगनसे मोहकी मरोर पगे कामनीके काम लगे निज गुन छोर भगे होरकी लगनसे
त जिन टारी भय है धरम धारी मात तात सुत नारी जाने है ठगनसे ७ अथ लिंग ४ कथन -
वि. माहे बहुवार जीव वध आदि चार चिंतन कर करत लिंग प्रथम कहा है बहु दोस एक दोन तीन चार चिंते सोय मोहमे मगन होय मूढ ललचातु है नाना दोस अमुक अमुक प्रकार करी मार गारू पार डारु रिदेमे ठरातु है. आमरण दोस फाही अंतकाल छोडे नाही जगमे रुलाइ भव भ्रमण करातु है ८ अथ कृत ( कर्त ) व्य
-रुद्रध्यान पर्यो जीव पर दुष देष कर मनमे आनंद माने ठाने न दया लगी पाप करी पछाताप मनसे न करे आप अपर करीने पाप चिते मेरिं झालगी किसकी न सार करे निरदयी नाम परे करथी न दान करे जरे कामदा लगी कही समझाया फिर जात उर झाया समझे न समझाया मेरे कहे की कहा लगी ९
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इति रौद्र ध्यान संपूर्णम् ॥ २ ॥ अथ धर्मध्यानका स्वरूप लिख्यते -द्वार १२भावना १, देश २, काल ३, आसन ४, आलंबन ५, क्रम ६, ध्यातव्य ७, ध्याता ८, अनुप्रेक्षा ९, लेश्या १०, लिंग ११, फल १२. तत्र प्रथम भावना ४ - ज्ञान १, दर्शन २, चारित्र ३ वैराग्य ४. अथ प्रथम 'ज्ञान' - भावना, सवईया इकतीसा -
यथावत् जोग बही गुरुगम्य ग्यान लही आठ ही आचार ही ग्यान सुद्ध धर्यो है स्थानके अभ्यास करी चंचलता दूर दरी आसवास दूर परी ग्यानघट भर्यो है.
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