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________________ बर्खा नवतत्त्वसंग्रह अथ विपाकविज(च)यकरम सभावथित रस परदेस मित मन वच काये धित सुभासुभ कर्यों है मूल आठ भेद छेद एकसो अठावना है निज गुन सब दबे प्राणी भूल पर्यो है राजन ते रंक होत ऊंच थकी नीच गोत कीट ने पतंग भंग नाना रूप धर्यो है छेदे जिन कर्म भ्रम ध्यानकी अगन गर्म मानत अनंग सर्म धर्मधारी ठयों है ३ __ अथ संठाणविज(च)यआदि अंत बेहूं नही वीतराग देव कही आसति दरव पंचमय स्वयं सिद्ध है नाम आदि भेद अहुपुव्व धार कहे वहु अधो आदि तीन भेद लोक केरे किद्ध है पिति वले दीप वार नरक विमानाकार भवन आकार चार कलस महिद्ध है - आतम अपंड भूप ग्यान मान तेरो रूप निज ग पोल लाल तोपे सब रिद्ध है ४ इस सवईयेका भावार्थ आगे यंत्रोमे लिखेंगे तहांसे जानना इति संस्थानविज(च)य इति 'ध्यातव्य द्वार ८. अथ 'अनुप्रेक्षा' द्वार-ध्यान कर्या पीछे चितना ते 'अनुप्रेक्षा.' सवईया ३१ सा, समुद्रचिंतन आपने अग्यान करी जम्म जरा मीच नीर कषाय कलस नीर उमगे उतावरो रोग ने विजोग सोग स्वापद अनेक थोग धन धान रामा मान मूढ मति वावरो मनकी घमर तोह मोहकी भमर जोह वातही अग्यान जिन तान वीचि धावरो संका ही लघु तरंग करम कठन द्रंग पार नही तर अब कहूं तो हे नावरो १ अथ पोतवरननसंत जन वणिग विरतमय महापीत पत्तन अनूप तिहा मोषरूप जानीये अवधि तारणहार समक बंधन डार ग्यान है करणधार छिदर मिटानीये तप वात वेग कर चलन विराग पंथ संकाकी तरंग न ते पोभ नही मानीये सील अंग रतन जतन करी सौदा भरी अवाबाध लाभ धरी मोप सौध ठानीये २ इति अनुप्रेक्षा द्वार ९. अथ अनुप्रेक्षा चार कथन, सवैया ३१ साजगमे न तेरो कोउ संपत विपत दोउ ए करो अनादिसिद्ध भरम भुलानो है जासो तूंतो माने मेरो तामे कोन प्यारो तेरो जग अंध कूप झेरो परे दुख मानो है मात तात सुत भ्रात भारजा बहिन आत कोइ नही त्रात थात भूल भ्रम ठानो है थिर नही रहे जग जग छोर धम्म लग आतम आनंद चंद मोष तेरो थानो है ३ इति अनुप्रेक्षा द्वार ९. अथ 'लेश्या' द्वारकथन, दोहरापीत पउम ने सुक्क है, लेया तीन प्रधान सुद्ध सुद्धतर सुद्ध है, उत्कट मंद कहान १ इति लेश्याद्वार १०. अथ 'लिंग' द्वार, सवैया इकतीसाधमा धम्म आदि गेय ग्यान केरे जे प्रमेय सत सरद्धान करे संका सब छारी है आगम पठन करी गुरवैन रिदे धरी वीतराग आन करी खयंबोध भारी है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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