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१८० श्रीविजयानंदसूरिकृत
[७ निर्जराचार ही प्रकार करी मिथ्या भ्रम जार जरी सतका सरूप धरी भय ब्रह्मचारी है आतम आराम ठाम सुमतिको करी वाम भयो मन सिद्ध काम फूलनकी वारी है ? इति 'लिंग'द्वारम्. अथ 'फल'द्वारकीरति प्रशंसा दान विने श्रुत सील मान धरम रतन जिन तिनही को दीयो है सुरगमे इंद भूप थान ही विमानरूप अमर समरसुप रंभा चंभा कीयो है नर केरी जो न पाय सुप सहु मिले धाय अंत ही विहाय सब तोपरस पीयो है आतम अनंत बल अघ अरि तोर दल मोपमे अचल फल सदा काल जीयो है ? इति फलम्. इति धर्मध्यानं संपूर्णम् ३.
अथ शुक्ल ध्यान लिख्यते-अथ 'आलंबन' कथन, दोहराखंति आर्जव मार्दव, मुक्ति आलंबन मान; सुकल सौधके चरनको, एही भये सोपान १ इति आलंबन. अथ ध्यानक्रमस्वरूप, सवैया ३१ सात्रिभुवन फस्यो मन क्रम सो परमानु विषे रोक करी धर्यो मन भये पीछे केवली जैसे गारुडिक तन विसळू एकत्र करे डंक मुंष आन धरे फेर भूम ठेवली ध्यानरूप वल भरी आगम मंतर करी जिन वैद अनु थकी फारी मनने वली ऐसे मन रोधनकी रीत वीतराग देव करे धरे आतम अनंत भूप जे वली १ जैसे आगई धनके घट ते घटत जात स्तोक एध दूर कीये छार होय परी है जैसे घरी कुंड जर घर नार छेर कर सने सने छीज तर्जु मन दोर हरी है जैसे तत्ततवे धर्यो उदग जर तपस्यो तैसें विभु केवलीकी मनगति जरी है ऐसें वच तन दोय रोधके अजोगी भये नाम है 'सेलेस' तब ए जनही करी है २
अथ शुक्ल ध्यानके च्यार भेद कथन, सवैयाएक हि दरव परमानु आदि चित धरी उतपात व्यय ध्रुवस्थिति भंग करे है पुन्य ग्यान अनुसार पर जाय नानाकार नय विसतार सात सात सात सत धरे है अरथ विजन जोग सविचार राग विन भंगके तरंग सब मन वीज भरे है प्रथम सुकल नाम रमत आतमराम पृथग वितके आम सविचार परे है १ इति प्रथम. एक हि दरवमांजि उतपात व्यय ध्रुव भंग नय परि जाय एकथिर भयो है निरवात दीप जैसे जरत अकंप होत ऐसे चित धोत जोत एकरूप ठयो है अरथ विजन जोग अविचार तत जोग नाना रूप गेय छोर एकरूप छयो है 'एकतवितर्क' नाम अविचार सुप धाम करम थिरत आग पाय जैसे तयो है २ इति दूजा. विमल विग्यान कर मिथ्या तम दूर कर केवल सरूप धर जग ईस भयो है मोषके गमनकाल तोर सब अघजाल ईषत निरोध काम जोग वस ठयो है तनु काय क्रिया रहे तीजा भेद वीर कहे करम भरम सब छोरवेको थयो है सूपम तो होत क्रिया अनिवृत्त' नाम लीया तीजा भेद सुकर मुकर दरसयो है ३ इति तीजा.
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