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________________ १५० ३१ BR ३३ ३४ ३५ ३६ अंतर घणा जीव आश्री समुद्धात क्षेत्र स्पर्शना भाव १ यंत्र जीव तिर्यच पंचेन्द्रिय Jain Education International नास्त्यन्तरम् मनुष्य ६ केवल वर्जी लोकने असंरूयमे भाग 33 55 33 क्षयोपशम श्रीविजयानंदसूरिकृत ज० ६३ सहस्र ज० ८४ सहस्र → ए प्रतिपद्यमान परिमाण प्रतिपद्यमान होवे, नही होवे, नही बी होवे बी होवे जे, जो होवे (तो) होवे (तो) ज० ११२२३, कोटा कोटि सागरोपम "3 19 ० १८ वर्ष. १८ ज० १ समय, नास्ति अन्तरम् कोटाकोटि उ० ६ मास सागरोपम घुरली ३ ६ 35 → ए 35 व व घ ज० ११२२३, ३० पृथक् शत; उ० पृथक् पूर्वप्रतिपन्न होवे, न बी सहस्र; पूर्वप्रतिपन्न होवे; ( जो होवे पृथक् सहस्र तो ) ज० उ० कोड पृथक् शतकोटि अल्पबहुत्व ५ संख्येय गुणा ४ संख्येय २ संख्येय गुणा १ स्तोक ( ११४ ) भगवती (श. ७, उ. २, सू. २७३ ) अल्पबहुत्व मूल गुण पच्चक्खाणी उत्तरगुण पञ्चकखाणी १ स्तोक २ असंख्येय "" 35 For Private & Personal Use Only ० म् 95 55 म् पुलाकवत् निर्ग्रन्थवत् प्रतिपद्यमान होवे, नही बी होवे; जो होवे (तो) ज० १२/३; ३० १६२, पूर्वप्रतिपन पृथक् कोटि म् [६] संवर केवल १ असंख्यमे घणे, असं० सर्व लोक " 35 उपशम, क्षय १३ संख्येय गुणा 53 अपच्चक्खाणी ३ अनंत ३ असंख्य 97 www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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