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________________ निवेदन. संवेगी दीक्षा अंगीकार कर्या पहेला परंतु ढुंढक (स्थानकवासी) मतना परित्यागनी भावनाना अद्भव अने स्थिरीकरण बाद प्रथम कृति तरीके जेनी विश्वविख्यात पंजाबकेसरी न्यायांभोनिधि पिक्यानन्दसूरीश्वरना वरद हस्ते 'विनोली' गाममा वि. सं. १९२७ मां रचना थइ ते आ. नावखसंग्रहने प्रकाशित थयेलुं जोइ कोइ पण सहृदयने आनंद थाय ज. तेमां पण वळी मारा सद्गत पिताना सतीर्थ्य अने धर्मस्नेही तेमज मारा प्रत्ये पूर्ण वात्सल्यभाव राखनारा आचार्य श्रीविजयबल्लमसूरिए मोहमयी' नगरीमा अग्र स्थान भोगवता श्रीगोडीजी महाराजना उपाश्रयमां आपेला सदुपदेशनु आ मुख्य परिणाम छे' ए स्मरणमा आवतां मारा जेवाने अधिक आनंद थाय छे. अगाउथी प्राहक तरीके नाम नोंधावी नकल दीठ चार रुपिया श्रीविजयदेवसूर संघ (पायधुनी, मुंबई )नी पेढीमा भरी जे ग्राहकवर्गे आ प्रकाशनमा जे आर्थिक प्रोत्साहन आप्यु छे तेटले अंशे आ प्रकाशनरूप पुण्यात्मक कार्यमां तेमनो हिस्सो छे, एम मारे कहेवू ज जोइए. आ कार्यमा २५१ नकलो नौधाबवानी जे पहेल श्रीविजयदेवसूर संघनी पेढीना कार्यवाहकोए करी ते बदल तेमने धन्यवाद घटे छे. विशेषमा प्रकाशन माटे रकम एकठी करी आपवामां ए पेढीना ते वखते मेनेजिंग ट्रस्टी तरीके श्रीयुत मणीलाल मोतीलाल मूळजी तरफथी ए पेढी द्वारा जे अनुकूलता करी आपवामां आवी तेनी आभारपूर्वक नोंध लेवामां आवे छे. आ ग्रंथ धारेला समये बहार पडवाना कार्यमा केटलाक. अनिवार्य प्रसंगोने लइने जे विलंब थयो ते बदल हुं दिलगीर छु. आ ग्रंथ तैयार करवामां जे हस्तलिखित प्रति मने काम लागी छे ते झंडियाला गुरु (Jandiala Guru) ना भंडारनी ७४ पत्रनी छे. तेमज ते कर्ताए स्वहस्ते लखेली जणाय छे. एमां पीळी हरताळनो केटलेक स्थळे उपयोग करायो छे अने कोइक स्थळे प्रन्थकारे पोते ते सुधारेली जोवाय छे. आ प्रति मने मेळवी आपवानुं जे स्तुत्य कार्य श्री विजयवल्लभसूरिए कयं ते साहित्यप्रचार अंगेनी तेमनी सक्रिय सहानुभूतिना प्रतीकरूप छे. एम कडा विना नहि चाले. आ प्रमाणे आ ग्रंथना प्रकाशनकार्यमां तेमनी तरफ़थी जे विविध प्रकारनो सहकार मळ्यो छे ते बदल हुं तेमनो अत्यंत ऋणी छु. एना स्मरणलेश तरीके आ संस्करणमा तेमनी प्रतिकृतिने सानंद अग्र स्थान आपुं छ. दक्षिणविहारी मुनिराज श्रीअमरविजयना विद्वान् शिष्य मुनि श्रीचतुरविजये आ ग्रन्थना १३६ पृष्ठ सुधीनां द्वितीय वेळानां शोधनपत्रोनी तेमना उपर मोकलायेली एकेक नकल तपासी मोकली छे ते बदल तेमनो सानंद उपकार मानवामां आवे छे.. आ संबंधमां श्रीविजयवल्लभसूरि कथे छ के-"चौमासे बाद हुशिआरपुरसें विहार करके दिल्ली शहर तरफ गये, और संवत् १९१४ का चौमासा, दिलीसे विहार करके जमना नदीके पार "बिनौली" गाममे जा किया, जहां भी कितनेही लोकोने सनातन जैनधर्मका श्रद्धान अंगीकार किया. इस चौमासेमें श्रीआत्मारामजीने बनाना शुरू किया; संवत् १९२५ का चौमासा श्रीआत्मारामजीने "बडौत" गाममें किया; जहां "नवतत्त्व" ग्रंथ समाप्त किया; जिस प्रेथको देखनेसेंही ग्रंथकर्ताका बुद्धिवैभव मालुम होता है." आ टिप्पणमा प्रन्थ 'बडौत'मां.सं. १९९५मा पूर्ण थयानो जे उल्लेख छ ते विसंवाही छे. आ संबंधा श्रीविजय. बल्लभसूरिनुं सादर लक्ष्य खेचतो तेओ सूचवे छे के "मने जेवं याद रहेल तेवू लखायेल, कारणकै आचार्यश्रीना खर्गवास पछी जीवनचरित्र लखवामां आवेल छे. एथी स्खलना होवानो संभव छे. माटे ग्रंथकार पोताना हस्तलिखित पुस्तकमा ज पोते जे संवत् लखे छे ते ज खरो समजतो." २ जुभो "श्री आत्मानंद प्रकाश" (पु. २७, अं. २, पृ.३६-३८). ३ एमनी शुभ नामावली अंतमा भापेली छ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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