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१० सू १०२
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भाग एकरी ३६की विच्छित्ति व्यौरा गुणस्थानरचनावत् संज्वलन लोभ विच्छित्ति
०
श्री विजयानंदसूरिकृत
प्रकृति
तीर्थकर १ आहारकद्विक २, देव-आयु १
विकलत्रिक ३, सूक्ष्म ३, नरक, तिर्थ, मनुष्य-आयु ३, सुरद्विक २, वैक्रियद्विक २, नरकद्विक २; सर्व १५
एकेंद्री १, थावर १, आतप १
तिर्येच गति १, तिर्यचानुपूर्वी १, औदारिकद्विक २, उद्योत १, छेवट्ठा १
शेष ९२ प्रकृति
निद्रा १, प्रचला १, ज्ञानावरण ५, दर्शना० १, वर्ण ४, अंतराय ५ विच्छित्ति
आयु ३ की विच्छित्ति
स्वामि
४ गुणस्थान
७ अप्रमत्त
मिथ्यात्व मिध्यात्ववत्. साखादन साखादनवत्, मिश्र मिश्रगुणस्थानवत् अथ संज्ञी रचना गुणस्थानरचनावत् गुणस्थान १२ पर्यंत. अथ असंज्ञी रचना गुणस्थान २ आदिके सा० १४७ अस्ति; तीर्थकर १ नही. पहिले १४७, दूजे १४७. अथ आहारक रचना गुणस्थानरचनावत् १३ लगे. अथ अनाहारक रचना कार्मणयोगरचनावत् इति सत्ताधिकार संपूर्ण.
(१६५) उत्कृष्ट प्रकृतिबन्धयत्रम्
(१६६) जघन्यप्रकृतिबन्धस्वामियन्त्रम्
शतकात्
तिर्यच, मनुष्य मिथ्यात्वी
मिथ्यात्वी ईशानांत
०
देवता, नारकी मिथ्यात्वी
चारो गतिका मिथ्यात्वी
०
८५ व्यवच्छेदे मुक्तौ
[ ८ बन्ध
प्रकृति
आहारक २, तीर्थकर १ संज्वलन ४, पुरुषवेद १ साता १, यश १, उच्चगोत्र ९, ज्ञानावरणीय ५, दर्श- सूक्ष्मसंपराय नावरण ४, अंतराय ५; एवं गुणस्थानवाला सर्व १७,
नरकद्विक २, वैक्रियद्विक २, असंज्ञी तिर्यच देवद्विक २ पर्याप्त
आयु ४
शेष प्रकृति ८५ रही
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बन्ध-स्वामि
८ गुणस्थान नवमा गुणस्थाने
संज्ञी असंज्ञी
बादर एकेंद्री पर्याप्त
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