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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[१ जीवतीन रही-साता १, यश १, उंच गोत्र १. एवं दशमे. आगे एक सातावेदनीयका बंध. चौदमे गुणस्थानमे बंधका व्यवच्छेद है.
३० | पापप्रकृति ८२ | ८२ | ६७ १ ४४ | ४४ | ४० | ३६ ३० २८/ २३ | १४ | 0 0 010 . पापप्रकृति ८२-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ९, असाता १, मोहकी २६, नरकआयु १, नरक-तिर्यंच-गति २, जाति एकेन्द्रिय आदि ४, संहनन ५, संस्थान ५, अशुभ वर्ण आदि ४, नरक-तिर्यंच-आनुपूर्वी २, अशुभ चाल १, उपघात (आदि) स्थावर दशक १०, नीच गोत्र १, अंतराय ५; एवं ८२. अर्थ-दुःख भोगवे अथवा आत्माना आनंदरस शोषे ते 'पाप.' दूजेमे १५ टली-मिथ्यात्व १, हुंडक संस्थान १, छेवट्ठ संहनन १, नपुंसक वेद १, जाति ४, स्थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, अपर्याप्त १, नरकत्रिक ३; एवं १५. तीजे २३ टली-अनंतानुबंधी ४, स्त्यानर्वित्रिक ३, दुभग १, दुःस्वर १, अनादेय १, संहनन ४ मध्यके, संस्थान ४ मध्यके, अशुभ चाल १, स्त्रीवेद १, नीच गोत्र १, तिर्यंच-गति १, तियंचआनुपूर्वी १; एवं २३. एवं चौथे पिण. पांचमे दूजी चौकडी ४ टली. छठे तीजी चौकडी ४ टली. सातमे ६ टली-अस्थिर १, अशुभ १, असाता १, अयश १, अरति १, शोक १; एवं ६. आठमे २ टली-निद्रा १, प्रचला १. नवमे ५ टली-वर्णचतुष्क ४, उपघात १. दशमे ९ टली-हास्य १, रति १, भय १, जुगुप्सा १, संज्वलनचतुष्क ४, पुरुषवेद १; एवं ९. ग्यारमे १४ टली-ज्ञानावरणीय ५, दर्शनावरणीय ४, अंतराय ५; एवं १४ टली, बंध नही.
३१ परावर्तिनी ९१/ ८९ | ७४ | ४७ | ४९ | ३९ | ३५ | ३१ | ३१ | ८ | ३ | १ | १/१/० . परावर्तिनी ९१-निद्रा ५, वेदनीय २, कषाय १६, हास्य १, रति १, शोक १, अरति १, वेद ३, आयु ४, गति ४, जाति ५, औदारिक, वैक्रिय, आहारक शरीर ३, अंगोपांग ३, संहनन ६, संस्थान ६, आनुपूर्वी ४, विहायोगति २, आतप १, उद्योत १, त्रस १०, स्थावर १०, गोत्र २; एवं ९१. अर्थ-'परावर्तिनी ते कहीये जे अनेरी प्रकृतिनो बंध, उदय निवारीने अपना बंध, उदय दिखावे [ ते परावर्तिनी] यतः (पंचसंग्रहे बन्धव्यद्वारे गा. ४२)
"विणिवारिय जा गच्छइ बंध उदयं व अण्णपगईए ।
सा हु परियत्तमाणी अणिवार(रे)ति अपरियत्ता[ए] ॥" पहिलेमे २ टली-आहारक द्विक २. दुजेमे १५ टली-नरकत्रिक ३, जाति ४ पंचेन्द्रिय विना, छेवट्ट संहनन १, हुंडक संस्थान १, नपुंसकवेद १, स्थावर १, सूक्ष्म १, साधारण १, अपर्याप्त १, आतप १; एवं १५ नही. तीजेमे २७ टली-अनंतानुबंधी ४, स्त्यानधि त्रिक ३, तिर्यचत्रिक ३, देव-मनुष्य-आयु २, स्त्रीवेद १, दुभग १, दुःस्वर १, अनादेय १, संहनन ४ मध्यके, संस्थान ४ मध्यके, दुर्गमन १, नीच गोत्र १, उद्योत १; एवं २७ टली. चोथेमे २ मिली-देव-आयु १, मनुष्य-आयु १. पांचमे १० टली-दूजी चौकडी ४, प्रथम
१ छाया-विनिवार्य या गच्छति बन्धमुदयं वाऽन्यप्रकृतेः।
सा खल परावर्तमाना अनिवारयन्ती अपरावर्तमाना ॥
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