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________________ १४६ श्रीविजयानंदसूरिकृत [ ६ संवर ३५ परि- 'सिय अस्थि, प्रतिपद्यमान प्रतिपाद्यमान णाम | सिय नत्थिान यहोवे, नही बी जदि अस्थि होवे जोकर ज० १, २, ३, होवे तो ज०१, पूर्वप्रतिपन्न २,२,उ०पृथक उ० पृथक् शतः स्याद् अस्ति | - शत; पूर्वप्रति पन्न जघन्य, यद्यस्ति ज० १,२,३; उ० पृथक् सहस्त्र प्रतिपद्यमान प्रतिपद्यमान होवे बी, नही होवे बी, नही वी होवे जो प्रतिपद्यमान | बी होवे; जो| होवे तो स्याद् अस्ति, होवे तोज०१, ज० १, २, ३, स्याद् नास्ति; २,३,उ० पृथक उ०१६२ तिनमे यद्यस्ति तदा सहस्र; पूर्व- १०८ क्षपक ५४ ज० १, २, ३, | प्रतिपन्न उपशम: पूर्व- उ0पृथकुशतं; जघन्य. प्रतिपन्न होवे पूर्वप्रतिपन्न उत्कृष्ट पृथक बी, नही बी ज० उ०पृथक सहस्र कोटि होवे होवे तो कोटि | ज०१,२,३, उ० पृथक् शत स्थाद् नास्ति उत्कृष्ट पृथक शतकोटि ३६ अल्प २संख्येय गुणा४संख्येय गुणा ५ संख्येय गुणा ६ संख्येय गुणा १ स्तोक ३संख्येय गुणा बहुत्व (११३) अथ श्रीभगवती (श. २५, उ.७) थी संयत ५ यंत्रम् सामायिक | छेदोपस्थाप- परिहार यथाख्यात ५ नीय २ | विशुद्धि ३ सम्पराय ४ पुरुषवेद १, । | उपशांतवेद, उपशांतवेद, वेद २ वद, अवदा सामायिकवत् कृत नपुंसक क्षीणवेद । वेद २ क्षीणवेद प्रज्ञापना वा राग सरागी--->ए उपशांतराग, क्षीणराग स्थितकल्प १, अस्थित २, स्थितकल्प १, स्थितक स्थितकल्प, स्थितकल्प १, जिनकल्प ३./ जिनकल्प २, जिनका अस्थितकल्प | आस्थतकल्प स्थविर ४, स्थविरकल्प ३: परकल्प स्थविरकल्प ३२,कल्पातीत २,कल्पातीत कल्पातीत ५ ४ कल्प ५ पुलाकादि षट् आद्य ४ आध ४ कषायकुशील कषायकुशील निम्रन्थ १, स्नातक २ मूलगुण १, ६ प्रतिसेवना उत्तरगुण२, सामायिकवत अप्रतिसेवी | अप्रतिसेवी | अप्रतिसेवी सेवेष (ख)डे, अप्रतिसेवी ३ १ कथंचित् होय । २ कथंचित न होय । ३ जो होय । ४,५,६ अनुक्रमे १,२,३ प्रमाणे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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