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श्रीविजयानंदसूरिकृत
[५ आश्रव. करता 'पारिग्रहिकी'. ८ मायावत्तिया-माया तेह ज प्रत्यय-कारण है कर्मबंधनो ते 'मायाप्रत्ययिकी'. ९ मिच्छादसणवत्तिया-हीन प्रमाणसे वा अधिक माने ते 'मिथ्यादर्शनप्रत्ययिकी'. १० अपञ्चक्खाण-जीवना अथवा अजीव मद्य आदिनो प्रत्याख्यान नही ते. (११) दिट्टिया-देखने जाना अथवा देखना तेहथी जे पाप ते 'दृष्टिजा'. (१२) पुट्टिया-पूंजने करी अथवा स्पर्श करी जे कर्म ते 'स्पृष्टिजा'. (१३) पाडुचिया-बाह्य वस्तु आश्री उपजे ते 'प्रातीत्यकी'. (१४) सामंतोवणिया-समंतात्-चौ फेरे उपनिपातलोकांका मिलना तिहां जे उपनी ते 'सामंतोपनिपातिकी'. सांढ आदि रथ आदि लोक देखीने प्रशंसे तिम तिम धणी हर्षे ते धणीने 'सामंतोपनिपातिकी' क्रिया लागे. (१५) सहत्थियाआपणे हस्तसे उपनी ते 'स्वाहस्तिकी'. (१६) निसत्थिया-नाखणे से सेडलादिसे नीपनी ते 'नैसृष्टिकी'. (१७) आणवणिया-पापनो आदेश देवो ते 'आज्ञापनिकी' अथवा वस्तु मंगवावणी. (१८) वियारणिया-जीवने वेदारतां वा दलालने जीव आदि वेचवानां अथवा पुरुषने विप्रतारता 'वैदारिणी', 'वैचारणिकी', 'वैतारणिकी' ए ३ पर्याय. (१९) अणाभोगवत्तिया-अज्ञानना कारण थकी उपनी ते 'अनाभोगप्रत्ययिकी'. (२०) अणवकंखवत्तिया-अपणे शरीर आदिने ते निमित्त है जिसका ते 'अनवकांक्षाप्रत्ययिकी'. एतावता कुकर्म करता हुया परभवसे डरे नही. (२१) पेजवत्तिया-रागसे उपनी माया लोभरूप ('प्रेमप्रत्ययिकी' ). (२२) दोसवत्तिया-द्वेषथी उपनी क्रोध, मानरूप ('द्वेषप्रत्ययिकी'). (२३) पओगकिरिया-काया आदिकना व्यापारथी नीपनी ते 'प्रयोग'क्रिया. (२४) समु. दाणकिरिया-अष्ट कर्मनो ग्रहवो ते 'समुदान क्रिया. (२५) ईरियावहिया-योग निमित्त है जेहनो ते ('ईर्यापथिकी'); कायाना योग थकी बंध पडे. __हेतु सत्तावन कर्मग्रन्थात्-मिथ्यात्व ५, अव्रत १२, कषाय २५, योग १५, एवं सर्व ५७ हेतु. इनका गुणस्थान उपर स्वरूप गुणस्थानद्वारसे जान लेना. और विशेष आश्रव त्रिभंगीसे जानना.
श्रीस्थानांग (१० मे) स्थाने दस भेदे असंवर-(१) श्रोत्रेन्द्रिय-असंवर, (२) चक्षुरिन्द्रिय-असंवर, (३) घ्राणेन्द्रिय-असंवर, (४) रसनेन्द्रिय-असंवर, (५) स्पर्शनेन्द्रिय-असंवर, (६) मन-असंवर, (७) वचन-असंवर, (८) काय-असंवर, (९) भंडोवगरण-असंवर, (१०) सूची कुसग्ग-असंवर; एवं ए दस आश्रवके भेद है. तथा आश्रवके ४२ भेद-इन्द्रिय ५, कषाय ४, अव्रत ५, योग ३, क्रिया २५; एवं ४२. इति आश्रवतत्त्वं पंचमं सम्पूर्णम्. ..
अथ 'संवर' तत्त्व स्वरूप लिख्यतेपांच चरित्र, पद निर्ग्रन्थ. प्रथम षनिग्रंथस्वरूप-(१) पुलाक, (२) बकुश, (३) प्रतिसेवना(कुशील), (४) कषायकुशील, (५) निग्रंथ अने (६) स्नातक. पुलाकके ५ भेद
१ कर्मग्रन्थथी। , २ भाण्डोपकरण ।
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