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________________ तत्त्व] नवतत्त्वसंग्रह वली अनवस्थित पाला उठाके जिस जगे शलाका पाला पूरा हूया था ते क्षेत्रथी आगे द्वीप समुद्रामे एकेक सरसों अनुक्रमे प्रक्षेपीये. पछे वली शलाका पालामे एक दाणा प्रक्षेपीये. इसी तरे वली अनवस्थित पाला भरणे अने रीता करणेसे शलाका भरीये. तदा अनवस्थित अने शलाका ए दोनो भयो हुँता; पछे शलाका पाला उठाइने पूर्वोक्त प्रकारे आगले द्वीप समुद्रामे प्रक्षेपीये. पछे वली एक दाणा प्रतिशलाका पालामे प्रक्षेपीये. एवं अनवस्थित पालेके भरणे रीते करणेसे शलाका पाला भरीये अने शलाकाके भरणे रीते करणेसे प्रतिशलाका भरीये. जदा प्रतिशलाका १ शलाका २ अनवस्थित ३ एवं तीनो पाले भरे होइ तदा प्रतिशलाका पाला उठाइने तिमज आगले द्वीप समुद्रामे प्रक्षेपीये. जिहा पूरा होय तदा १ दाणा महाशलाका पालेमे प्रक्षेपीये. फेर शलाका पाला उठाइने तिमज आगे संचारीने प्रतिशलाका पल्यमे वली एक सरसव प्रक्षेपीये. पछे अनवस्थित उठाइने तिम ज शलाका पालानी समाप्तिना क्षेत्र आगे द्वीप समुद्रामे प्रक्षेपी तदा शलाका पल्यमे वली एक दाणा प्रक्षेपीये. एवं अनवस्थित पाला उठावणे अने प्रक्षेपणे करी शलाका पल्य भरणा तथा शलाका पल्यने उपाडवे प्रक्षेपवे करी प्रतिशलाका पाला भरणा. तथा प्रतिशलाका पालाने उपाडवे प्रक्षेपवे करी महाशलाका पल्य भरणा. इम करता जदा चारो ही पल्य भर्या हुइ और अनवस्थितादि चारो पालोंके जितने दाणे द्वीप समुद्रांमे प्रक्षेप करे है वे भी सर्व जब चारो पालोमे मेलिए तदा उत्कृष्ट संख्यातेसे एक सरसव अधिक होय है. तिस एक सरसों सहित कीयां 'जघन्य परित्त असंख्याता' होय. इस जघन्य परित्त असंख्यकू अन्योन्य अभ्यास कीजे तिसमेसुं दोय दोय निकासिये. तहा ताइ 'मध्यम परित्त असंख्याते' होय. तिसमे एक भेलीये तब 'उत्कृष्ट परित्त असंख्याता' होय. तिसमे एक और मिले तब 'जघन्य युक्त असंख्य' होय. _अन्योन्य अभ्यासकी आम्नाय-यथा ५ का अन्योन्य अभ्यास करणा है. प्रथम ५ कू विषे २ दीजे स्थापना-१११११. एकेकके उपरि वै ५।५ पांच पांच दीजे. स्थापना-१९९१५ अब उपरिकी पंक्तिके अंकाकू आपसमे गुणाकार कीजे. स्थापना ५ २५ १२५ ६२५ ३१२५ छेल्ला गुणाकार करते जे राशि आवे सो उत्पन्न राशि जाननी. इस तरे अन्योन्य अभ्यासकी रीति जाननी. जघन्य युक्त असंख्य प्रमाण एक आवलिके समय है. तिसका अन्योन्य अभ्यास करे तो अने दोय निकासिये तो तहा ताइ 'मध्यम युक्त असंख्याते' कहीये. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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