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________________ २० श्रीविजयानंदसूरिकृत [१ जीवकृष्ण लेश्या । नील लेश्या कापोत लेश्या तेजोलेश्या पद्म-शुक्ललेश्या नाम असंख्यातमा भाग मना असंख्यातमा उत्कृष्ट ३ अधिक उत्कृष्ट ३३ भाय अधिक | सागरोपम सागरोपम उत्कृष्ट १० सागरोपम पल्योपमना | पल्योपमना असंख्यातमा असंख्यातमा भाग अधिक भाग अधिक जघन्य उत्कृष्ट अंतर्मुहूर्त →एवम् एवम् साय तिर्यंच एवम् एवम् ->एवम् जघन्य मनुष्य एवम्, केपली अंतर्मुहूर्त उत्कृष्ट देश ऊन पूर्व कोटि भवनपत्ति ज० दश हजार ज० कृष्णकी ज नीलकी ज० दश व्यस्तर वर्ष, उ० पल्योपममा उत्कृष्टसे १ समय उत्कृष्टसे १ हजार वर्ष, असंख्यातमे भाग अधिक समय अधिक उ०१ पल्योपमनाउ०पल्योप- सागरोपम असंख्यातमे मना असंख्या- झंझेरी अने भाग तमे भाग | व्यंतरकी स्वयं ऊह्यम् ज० पल्यो पमना ८ जोतिषी भाग; उ० १ पल लक्ष वर्ष अधिक ज० ज०१० तेजोकी सागरोपम उत्कृष्टी १समय वैमानिक पल्योपमः उ०२ सागरोपम झझेरी से समय समय अधिक अधिक: उ०३३ उ०१० सागरो- सामरोपम पम् अंत मुहूर्त अधिक १अधिक। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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