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________________ २३२ श्रीविजयानंदसूरिकृत [८.बन्ध(१७३) अथ उत्तर प्रकृतिना उत्कृष्ट प्रदेशबंधयंत्र शतककर्मग्रन्थात् .ज्ञानावरणीय ५, दर्शना० ४, साता० १, यश १, उच्च गोत्र १,.. अंतराय ५ १० गुणस्थानवर्ती अप्रत्याख्यान ४ ४ गुणस्थाने प्रत्याख्यान ४ देशविरति पुरुषवेद १, संज्वलन ४ ९ मे गुणस्थाने शुभ विहायगति १, मनुष्य-आयु १, देव-आयु १, देवगति १, देवानुपूर्वी १, सुभग १, सुस्वर १, आदेय १, वैक्रियद्विक २, सम- सम्यग्दृष्टी, मिथ्यादृष्टि चतुरस्र १, असाता०१, वज्रऋषभ १; एवं सर्व १३ निद्रा १, प्रचला १, हास्य आदि षट् ६, तीर्थकर १ अविरतिसम्यग्दृष्टि आहारकद्विक २ अप्रमत्त ७ मे वाला शेष ६६ प्रकृति मिथ्यात्वी (१७४) अथ जघन्यप्रदेशबन्धखामियन्त्रम् आहारकद्विक २ अप्रमत्त यति नरकत्रिक ३, देव-आयु १ असंही पर्याप्त जघन्य योगी देवद्विक २, वैक्रियद्विक २, जिननाम १ मिथ्यात्वने सन्मुख सम्यग्दृष्टि . शेष १०९ प्रकृति आपणे भवके प्रथम समय सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जघन्य योगी (१७५) अथ सात बोलकी (१७६) जीव बंधवर्गणा ग्रहे तिसका अल्पबहुत्व कर्मपणे वांटा योगस्थान स्तोक १ कर्म वांटा प्रकृतिभेद असंख्य २ आयु स्तोक १ . स्थितिभेद वि २: गोत्र तुल्य २ स्थिति बंधाध्यवसाय अंतराय अनुभागस्थानक ज्ञाना० १, दर्शना०१, कर्मप्रदेश अनंत ६ मोहनीय रसच्छेद वेदनीय (१७७) बंधमेद ४ । प्रकृतिबंध स्थितिबंध | अनुभागबंध। प्रदेशबंध अर्थ स्वभाव काल रस दल वाडे दृष्टांत | वात आदि शमन मास अर्ध मास आदि पंड, शर्करा आदि| तोला, दो तोला कारण योग कषाय कषाय योग भेदसंख्या असंख्य असंख्य अनंत अनंत श्रेणिके असंख्य भाग श्रेणिके असंख्य भाग अनंते Jain Education International For Private & Personal use only www.jamelibrary.org नाम अनंते
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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