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________________ २५८ श्रीविजयानंदसूरिकृत षट पीर सात डार आठ छार पांच जार चार मार तीन फार लार तेरी फरे है तीन दह तीन गह पांच कह पांच लह पांच गह पांच बह पांच दूर करे है नव पार नव धार तेरकुं विडार डार दशकुं निहार पार आठ सात लरे है आतम सुज्ञान जान करतो अमर थान हरके तिमिर मान ज्ञानभान चरे है ५५ शीतल सरूप धरे राग द्वेष वास जरे मनकी तरंग हरे दोषनकी हान रे सुंदर कपाल उंच कनक वरण कुच अधर अनंग रुच पीक धुन गान रे षोडश सिंगार करे जोबनके मद भरे देखके नमन चरे जरे कामरान रे ऐसी जिन रीत मित आतम अनंग जित काको मूढ वेद धीत ऐही ब्रह्मज्ञान रे ५६ हिरदेमे सुन भयो सुधता विसर गयो तिमिरअज्ञान छयो भयो महादुःखीयो निज गुण सुज नाहि सत मत बुज नाहि भरम अरुझे ताहि परगुण रुशीयो ताप करवेको सुर धरम न जाने मूर समर कसाय वहि अरणमे धुखीयो आतम अज्ञान बल करतो अनेक छल धार अघमल भयो मूढनमे मुखीयो ५७ लंबन महान अंग सुंदर कनक रंग सदन वदन चंग चांदसा उजासा है रसक रसील द्र(ड)ग देख माने हार मृग शोभत मांदार शुंग आतम बरासा है सनतकुमार तन नाकनाथ गुण भन देव आय दरशन कर मन आसा है छिनमे बिगर गयो क्या हे मूढ मान गयो पानीमें पतासा तेसा तनका तमासा है ५८ क्षीण भयो अंग तोउ मूढ काम धन जोउ की(क)हा करे गुरु कोउ पापमति साजी है खे(खै)लने शीघान चाट माने सुख केरो थाट आनन उचाट मूढ ऐसी मति चाजी है मूत ने पुरिश परि महादुरगंध भरी ऐसी जोनी वास करी फेर चहे पाजी है करतो अनित रीत आतम कहत मित गंदकीको कीरो भयो गंदकीमें राजी है ५९ त्राता धाता मोक्षदाता करता अनंत साता वीर धीर गुण गाता तारो अब चेरेको तुं ज (तुम) है महान मुनि नाथनके नाथ गुणी सेवं निसदिन पुनी जानो नाथ देरेको जैसो रूप आप धरो तैसो मुज दान करो अंतर न कुछ करो फेर मोह चेरेको आतम सरण पर्यों करतो अरज खरो तेरे विन नाथ कोन मेटे भव फेरेको ? ६० ज्ञान भान का(क)हा मोरे खान पान ता(दा)रा जोरे मन हु विहंग दोरे करे नाहि थीरता मुजसो कठोर घोर निज गुण चोर भोर डारे ब्रह्म डोर जोर फीरुं जग फीरता अब तो छी(ठि)काने चयों चरण सरण पर्यो नाथ शिर हाथ धर्यो अघ जाय खीरता आतम गरीब साथ जैसी कृपा करी नाथ पीछे जो पकरो हाथ काको जग फीरता ६१ शी(खि :)लीवार ब्रह्मचारी धरमरतन धारी जीवन आनंदकारी गुरु शोभा पावनी तिनकी कृपा ज करी तत्व मत जान परि कुगुरु कुसंग टरी सुद्ध मति धावनी पढतो आनंद करे सुनतो विराग धरे करतो मुगत वरे आतम सोहावनी संवत तो मुनि कर निधि इंदु संख धर तत चीन नाम कीन उपदेशबावनी ६२ करता हरता आतमा, धरता निरमल ज्ञान; वरता भरता मोक्षको, करता अमृत पान. १ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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