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________________ ५२ श्रीविजयानंदसूरिकृत [१ जीव. अथ छट्ठा भेद-'मिथ्याश्रुतं'. मिथ्यादृष्टिनो भाष्यो जे भारत आदि वेद ४ प्रमुख जानना. इहां वली एक विचार है. सम्यक्श्रुत जो मिथ्यादृष्टि पढे तो 'मिथ्याश्रुत' कहीए. ते कोइ नयभेद समजे नही, रुचि पिण न हुइ तिवारे अनेकांत• एकांत परूपीने विघटा देवे, इस वास्ते 'मिथ्याश्रुत' कहीये. अने जो सम(म्यग्दृष्टि मिथ्याश्रुत पढे तो ते 'सम्यक् श्रुत' कहीए. ते शास्त्र भणीने पूर्वापर विचारे तिवारे अणमिलता लागे वेदमे पूर्वे तो इम कह्या है जे"न हिंसेत् (हिंसात्) सर्वभूतानि" पीछे फिर ऐसे कह्या है "यज्ञे पशून् हिंसेत्" ऐसा देखीने विचारे जो ए वचन तो परस्पर बाधित है तो धन्य श्रीवीतराग त्रिलोकपूजित जिहनी वाणी अनेकांत-स्याद्वादरूप किहां ही बाधित नही. एह छहा भेद श्रुतना. सादि श्रुत सातमा द्रव्ये, क्षेत्रे, काले, भावे करी चार प्रकारका है. द्रव्यथी एक पुरुष आश्री श्रुतनी आदि है. जिहां सम्यक्स पाइ तहांसे आदि है. क्षेत्रथी पंच भरत, पंच ऐरवतनी अपेक्षा आदि है। प्रथम तीर्थकरने उपदेशे प्रगट हूया. कालथी अवसर्पिणी कालना त्रीजा आराके अंते, उत्सर्पिणीमे त्रीजे आरेके धुरे उपजे इस अपेक्षा आदि है. भावथी. अत्र भाव ते उपयोग कहीए, जद(ब) श्रुतमा उपयोग दीया तिहां आदि कहीये. इति सप्तमं. द्रव्यथी क्षेत्रथी । कालथी भावथी एक पुरुष आश्री | पंच भरत, पंच | अवसर्पिणीमे सपर्यवसित सम्यक्त्व वमी वा ऐरवते जिनशासन पंचमे आरेके अंते, | उपयोग नही तदा श्रुतयंत्रं ८ | केवल पाम्या तदा विच्छेद आश्री अंत उत्सर्पिणीमे चौथेमे अंतश्रुत ज्ञाननो अंत श्रुतनो. श्रुतनो अनादि | घणे पुरुष आश्री विदेह आश्री अनादि नोअवसर्पिणी- ! क्षयोपशम भाव श्रुत ९ | अनादि श्रुत जानना सर्वाद्धा तीर्थ नोउत्सर्पिणी आश्री आश्री प्रवाह सदा अनादि सर्व पुरुष आश्री सर्व क्षेत्र आधी नोअवसर्पिणीअनंत दशमा | क्षयोपशम भाव नोउत्सर्पिणी आश्री अंत नही श्रुतनो अंत नहीं । अंत नही | आश्री अंत नहीं . गमिक श्रुत एक सदृश सूत्र है, पिण किंचित् विशेष पामीने वार वार उचरे ते 'गमिक श्रुत' कहीए. ते बाहुल्येन दृष्टिवाद जानना. अगमिक श्रुत बारमा. गमिकथी विपरीत ते 'अगमिक' ते आचारांग आदि जानना कालिक श्रुत इति. अंगप्रविष्ट द्वादशांगी जानना. अनंगप्रविष्टके दो भेद-आवश्यक. अवश्य करीये ते 'आवश्यक ते सामायिक आदि पडू अध्ययन. दूजा भेद आवश्यकातिरिक्तं. ते आवश्यकथी भिनना दो भेद-कालिक मे दिवस निशानी प्रथम पश्चिम १ मोटे भागे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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