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तत्त्व]
नवतत्त्वसंग्रह (१४) श्रीपन्नवणा २ पदात् स्थानयंत्र क्षेत्र द्वारम् स्वस्थानेन
उपपातेनजीवांके भेद रहने करके उपजने करके
समुद्धात आश्री
पृथ्वी १ अप् २ तेज ३ वायु ४ वनस्पति ५.ए ।
५ सूक्ष्म पर्याप्ता ५ अपर्याप्ता ५. एवं १० बोल
सर्व लोकमे
सर्व लोकमे
सर्व लोकमे
बादर पृथ्वी १ अप् २ || लोकके असंख्यातमे वायु ३ वनस्पति ४. ए चारों का अपर्याप्ता
भागमे
सर्वमिंल्लोके- सर्वलोके असंख्यलोकके सर्व लोकमे - प्रदेशतुल्यत्वात्
बादर तेजस्काय अपर्याप्ता १
मनुष्यलोक
सर्व लोकमे
मनुष्यलोकके २ ऊवं कपाट तिर्यर
लोकका तट लोकके असंख्य भाग स्तोकत्वात्
लोकके असंख्यातमे
भाग
बादर तेजस्काय
पयोप्ता १ बादर वायुकाय
पयोप्ता १ बादर वनस्पति पर्याप्ता १
एवम्
एवम्
लोकके घणे असंख्य भागमे लोकके असंख्यमे
भाग
सर्व लोकमे बहुतमत्वात्
सर्व लोकमे
शेष सर्व जीव
एवम्
एवम्
(१५)*श्रीपन्नवणा अवगाहना २१मे पदात् स्पर्शनाद्वारम् १ समग्र लोकमां असंख्य लोकना प्रदेशोनी बराबर होवाथी। २ अल्प होवाथी। ३ अत्यंत अधिक होवाथी ।
* “जीवस्सणं भंते मारणंतियसमुग्घाएणं समोहयस्स तेयासरीरस्स केमहालिया सरीरोगाहणा पं०? गो०! सरीरपमाणमेत्ता विक्खभवाहल्लेणं आयासेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजभागो, उक्कोसेणं लोगंताओ लोगंते। एगिदियस्स णं भंते ! मारणंतिय० सरीरो० पं०? गो०! एवं चेव, जाव पुढवि० आउ० तेउ० वाउ० वणप्फइकाइयस्स । बेइंदियस्स णं भंते! मारणंतिय० पं०? गो० ! सरीरपमाणमेत्ता विक्खंभवाहल्लेणं आयामेणं जह० अंगुलस्स असंखे०, उक्को तिरियलोगाओ लोगते, एवं जाव चउरिंदियस्स । नेरइयस्स णं भंते ! मार० जह० सातिरेकं जोयणसहस्सं, उक्को० अधे जाव अहेसत्तमा पुढवी, तिरियं जाव सयंभुरमणे समुद्दे, उडे जाव पंडगवणे पुक्खरिणीतो। पंचिंदिय. तिरिक्खजोणियस्स णं भंते ! गो०! जहा बेइंदियसरीरस्स । मणुस्सस्स णं भंते ! गो० ! समयखेत्ताओ लोगंतो । असुरकुमारस्स णं भंते ! जह० अंगुलस्स असं०, उक्को० अधे जाव तच्चाए पुढवीए हिछिल्ले
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