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________________ श्रीविजयानंदसूरिकृत [८ बन्ध(१६९) अथ ७३ अध्रुवबंधनो उत्कृष्ट जघन्य निरंतर बन्धयन्त्र प्रकृतिनामानि निरंतर बन्ध सुरद्विक २, वैक्रियद्विक २ तीन पल्योपम तिर्यंच गति १, तिर्यंचानुपूर्वी १, नीच गोत्र १ समयथी लइ असंख्य काल आयु४ १ अंतर्मुहूर्त औदारिक शरीर १ असंख्य पुद्गलपरावर्त सातावेदनीय १ देश ऊन पूर्व कोड पराघात १, उच्छ्वास १, पंचेंद्री १, त्रसचतुष्क ४ १३२ सागरोपम शुभ विहायगति १, पुरुषवेद १, सुभगत्रिक ३, उंच गोत्र १, समचतुरस्र संस्थान १, अशुभ विहायगति १, जाति ४, अशुभ संहनन ५, अशुभ संस्थान ५, आहारकद्विक २, नरकगति १, जघन्य उत्कृष्ट समयथी लेइ अंतर्मुहूर्त नरकानुपूर्वी १, उद्योत १, आतप १, थिर १, शुभ १, यश १, स्थावरदशक १०, नपुंसकवेद १, स्त्रीवेद १, हास्य १, रति १, अरति १, शोक १, असातावेदनीय १ मनुष्यद्विक २, जिननाम १, वज्रऋषभनाराच १, औदारिक अंगोपांग १ ३३ सागर, जघन्य अंतर्मुहूर्त (१७०) अथ उत्कृष्ट रसबन्धखामियनं शतककर्मग्रन्थात् प्रकृतिनामानि रसबन्धस्वामि एकेंद्री १, थावर १, आतप १ मिथ्यात्वी ईशानांत देवता बांधे विकलत्रिक ३, सूक्ष्मत्रिक ३, तिर्यंच आयु १, मिथ्यात्वी तिर्यंच, मनुष्य मनुष्य-आयु १, नरकत्रिक ३, तिर्यच गति १, तिर्यंचानुपूर्वी १, छेवट्ठ १, । | देवता, नारकी वैक्रियद्विक २, देवगति १, देवानुपूर्वी १, आहारकद्विक २, शुभ विहायोगति १, शुभ वर्णचतुष्क ४, तैजस १, कार्मण १, अगुरुलघु १, भपूर्वकरण गुणस्थानमे क्षपकश्रेणिमे बंध करे निर्माण १, जिननाम १, सातावेदनीय १, समचतुरन १, पराघात १, सदशक १०, पंचेंद्री १, उच्छ्वास १, उच्चगोत्र १, एवं सर्व ३२ उद्योत सातमी नरकका नारकी सम्यक्त्वके सन्मुख मनुष्यगति १, मनुष्यानुपूर्वी १, औदारिकद्विक सम्यग्दृष्टि देवता २, वज्रऋषभसंहनन १ देवायु १ ७ अप्रमत्त शेष प्रकृति ४ गतिना मिथ्यात्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003176
Book TitleNavtattvasangraha tatha Updeshbavni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Hiralal R Kapadia
PublisherHiralal R Kapadia
Publication Year1931
Total Pages292
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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