________________
१२१
श्रीविजयानंद सूरिकृत
[१ जीवजैसे क्षुल्लक प्रतरका स्वरूप है तैसी स्थापना; जैसा एह प्रतर है अमा ही इसके ऊपर दजा प्रतर है. इन दोनों का नाम 'क्षल्लक प्रतर ' है. इनके मध्यकं आठ प्रदेशाकी
'रुचक ' संज्ञा है. इनसे १०दिशा. (८८) श्रीभगवत्यां १० मे शते प्रथम उद्देशे, ११ मे शते दसमे उद्देशे, षोडशमे शते ८ मे उद्देशे
जीव देश चार चार ऊधी अधो अधो तिर्यग ऊर्ध्वीलोकना दिग् ऊर्व अधो- बीस बोल-दिशा | अजीव प्रदेश दिग् विदिग दिग् दिग् लोक लोक लोकप्रदे-चरमानलोकच लोकच्च १०, लोक ३, प्रदेश१, द्रव्यम् ।
शमे त रमांत रमाता चरमांतदएवं सत्र २० ॥ जीव | ०अनंत . ० ०अनंत अनंत अनंत 2000खोलमे अनंते;
| १३बोलमे शून्य. एकेन्द्रिय देश ३।३ ---- एवम्
२० खोलमे घणे एकेन्द्रियांके घणे देश ३३
"
प्रदेश ," | ३३ | ३३ | ३३ | ३३ | ३३ | ३३ | ३३ | ३३ ३३ | ३३ /२० ब्रोलमे भंग ३।३
बेंद्री, तेइंद्रीय चौरिंद्री,
११७बोलमे ३३,१०लो
लमे ११।१३।३३बोल ३३ मे १९६१३.
पंचेंद्री.
10
बें,ते.,चो.पं. प्रदेश
७ बोलमे ३३, बोल ११ मे १३:३३
अनिन्द्रिय देश
,
११.८ मे ३३ बोल मे ।
११।१३।३३, ४ मे १३ |३३ दाने ११।१३. | ८ मे ३३ बोल, १९मे | १३:३३, १ मे ११।१३।३३
प्रदेश
अजीब
| रुपी
४
४
४
४
४
४
४
४
४
४
४ | २० मे चार
"
अरपी ७ ७ ७ काल ७७
१३ ब्रोलमे ७; | सात ब्रोलमे ६.
जिहां ११ लिख्ये है तिहां प्रथम एकानो एक जीव परला एका देशके कोठेमे एक देश अने प्रदेशके कोठेमे एक प्रदेश तीनका अंक है जहाँ तिहां बहुवचन जानना. इति अलम्.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org