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श्री विजयानंदसूरिकृत
[ १ जीव
(३३) (द्रव्यादि अपेक्षासे ज्ञानका विषय भग० श०८, ३०२, सू० ३२२ )
जाणे देखे
क्षेत्री
कालथी
भावधी
सर्व क्षेत्र
सर्व काळ
मति
सर्व भाव
सर्व क्षेत्र
सर्व काळ
सर्व भाव
श्रुत
जघन्य - अंगुलका जघन्य - आवलिकानो जघन्य - अनंता भाव; असंख्यातमा भाग; असंख्यातमो भाग; | उत्कृष्ट सर्व भावके उत्कृष्ट - लोक सरीषा उत्कृष्ट - असंख्य उत्स- अनंतमे भाग जाणे असंख्य अलोकखंड | पिंणी अवसर्पिणी
देखे
अवधि
केवळ
"मति अज्ञान श्रुत अशान
विभंग
द्रव्यथी
आंदेशे सर्वद्रव्य
उपयोगे सर्व
अनंतानंत प्रदेशी
मनः पर्यव स्कंध, एवं उत्कृष्ट पिण
जघन्य - अनंत रूपी द्रव्य अने उत्कृष्टसर्व रूपी द्रव्य
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सर्व द्रव्यम्
परिग्रह द्रव्य
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ज्ञानी मति श्रुत ज्ञानी
अवधिज्ञानी
समयक्षेत्र ऊंचा नीचा, अधोलोकना नवसे, ९ योजन
(क्षु) लक सर्व क्षेत्र
परिग्रह
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39
अंतर जघन्य
अंतर्मुहूर्त
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जघन्य-पल्योपमनो असंख्यातमो भाग;
एवं उत्कृष्ट पि
"3
सर्व काळ
परिग्रह
स्थितिज्ञान - ज्ञानी दुप्रकारे - ( १ ) सादि - अपर्यवसित, (२) सादि - सपर्यवसित. सादिसपर्य० जघन्य - अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट -६६ सागर झाझेरा. मति श्रुत जघन्य - अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट६६ सागर झाझेरा. अवधि जघन्य - १ समय, उत्कृष्ट ६६ सागर झाझेरा. मनः पर्यव जघन्य - १ समय, उत्कृष्ट - देश ऊन पूर्व कोड. केवल सादि अपर्यवसित.
अज्ञानी त्रिधा - ( १ ) अनादि अपर्यवसित, (२) अनादि सपर्यवसित, (३) सादि सपर्यव सित, जघन्य - अंतर्मुहूर्त, उत्कृष्ट - अर्धपुद्गल देश ऊन.
मति, श्रुत एवं उपरवत् त्रिधा ज्ञातव्यानि विभंगज्ञानी जघन्य -१ समय, उत्कष्ट - ३३ सागर देश ऊन पूर्व कोड अधिकम्.
(३४) ( अंतरद्वार जीवाभिगम प्रति०९, ३०२, सू० २६७ )
मनः पर्यवज्ञानी
१ ओघथी, सामान्यथी । २ ए प्रमाणे उपरनी पेठे ऋण प्रकारे जाणवां ।
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अनंता भाव; सर्व भावने अनंतमे भाग
सर्व भाव
परिग्रह
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अंतर उत्कृष्ट
देश ऊन अर्ध पुद्गलपरावर्त
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