Book Title: Mahavira ka Swasthyashastra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का स्वास्थ्यशास्त्र आचार्य महाप्रज्ञ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरोग्य का प्रश्न जीवन से जुड़ा हुआ प्रश्न वह किसी सम्प्रदाय का प्रश्न नहीं है । न महावीर के सामने आत्मा प्रधान थी, गौण था । आत्मा के विकास में सहयोगी . उस शरीर का मूल्य था । वह शरीर मूल्यहीन तो आत्मोदय में बाधक बने । आदि से अंत अहिंसा की परिक्रमा करने वाली चेतना उसी व्य को मूल्य दे सकती है, जिसके कण-कण त्मा की सहज स्मृति हो । भगवान महावीर स्थ्य के शास्त्र का प्रतिपादन नहीं किया । गो वाणी में शरीर आत्मा का सहायक और गी मात्र है, इसलिए शारीरिक स्वास्थ्य का | उनकी वाणी का विषय नहीं रहा । उनके ने परम तत्व था आत्मा । उसे स्वस्थ रखने ए उन्होंने बहुत कहा और वह अध्यात्मशास्त्र गया । अध्यात्मशास्त्र का दूसरा नाम व्यशास्त्र है । इस सचाई का प्रतिपादन पढ़ने मेलेगा ‘महावीर का स्वास्थ्यशास्त्र' में । Hellom nor i te se Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श साहित्य संघ प्रकाशन Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र आचार्य महाप्रज्ञ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) संपादक : मुनि दुलहराज मुनि धनंजयकुमार मुमुक्षु सन्तोष बाफणा (सुपुत्री श्री उदयचन्दजी बाफणा) की समण-दीक्षा के उपलक्ष में उनके भाई श्री गौतमचन्द अशोककुमार महेन्द्रकुमार महावीरचन्द बाफणा मूलनिवासी गुड़ा चतुराजी, प्रवासी नई धोबीपेट, चेन्नई (तमिलनाडु) के सौजन्य से प्रकाशित प्रकाशक : कमलेश चतुर्वेदी, प्रबन्धक : आदर्श साहित्य संघ, चूरू (राजस्थान) मूल्य : साठ रुपये / संस्करण : १६६६ / मुद्रक : पवन प्रिंटर्स, दिल्ली-३२ MAHAVEER KA SWASTHYA SHASTRA : by Acharya Mahaprajna Rs. 60.00 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुति आरोग्य का प्रश्न जीवन से जुड़ा हुआ प्रश्न है । वह किसी संप्रदाय का प्रश्न नहीं है । भगवान् महावीर के सामने आत्मा प्रधान थी, शरीर गौण था । आत्मा के विकास में सहयोगी बने उस शरीर का मूल्य था । वह शरीर मूल्यहीन था, जो आत्मोदय में बाधक बने । आदि से अंत तक आत्मा की परिक्रमा करने वाली चेतना उसी स्वास्थ्य को मूल्य दे सकती है, जिसके कणकण में आत्मा की सहज स्मृति हो । भगवान् महावीर ने स्वास्थ्य के शास्त्र का प्रतिपादन नहीं किया । उनकी वाणी में शरीर आत्मा का सहायक और उपयोगी मात्र है इसलिए शारीरिक स्वास्थ्य का शास्त्र उनकी वाणी का विषय नहीं रहा । उनके सामने परम तत्त्व था आत्मा । उसे स्वस्थ रखने के लिए उन्होंने बहुत कहा और वह अध्यात्म शास्त्र बन गया । अध्यात्म - शास्त्र का दूसरा नाम स्वास्थ्य - शास्त्र है । इस सचाई का प्रतिपादन पढने को मिलेगा 'महावीर का स्वास्थ्य शास्त्र' में आत्मिक स्वास्थ्य में बाधा डालने वाले तत्त्व हैं- राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, भय, शोक, घृणा, काम-वासना आदि । ये शरीर और मन को भी रुग्ण बनाते हैं । इनकी चिकित्सा स्वास्थ्य का मूल आधार है । हमारी दुनिया शब्द-वर्ण, रस, गंध और स्पर्श से संपृक्त है । प्रत्येक पदार्थ वर्ण, रस आदि से संयुक्त है । ध्वनि चिकित्सा, रस चिकित्सा, गंध चिकित्सा स्पर्श चिकित्सा, और रंग चिकित्सा - ये चिकित्सा की प्राचीन पद्धतियां Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं । ध्वनि-चिकित्सा में मंत्रों का प्रयोग किया जाता है । गंध-चिकित्सा का संबंध पुष्प-चिकित्सा से है । रस-चिकित्सा मधु, कसैले आदि रसों के द्वारा की जाती है । स्पर्श-चिकित्सा हाथ की ऊर्जा और विद्युतीय संप्रेषण से की जाती है | वर्ण-चिकित्सा का संबंध सूर्य-रश्मि चिकित्सा अथवा रंग-चिकित्सा से है । व्यक्ति के आभामंडल में केवल वर्ण ही नहीं होता, गंध, रस और स्पर्श भी होता है । वर्ण आदि सभी तत्त्व अच्छे होते हैं तो आभामंडल स्वास्थ्य का हेतु बन जाता है । विकृत आभामंडल रोग पैदा करने वाला होता है । रोग और आरोग्य-दोनों आभामंडल की प्रतिकृतियां हैं । भगवान महावीर की वाणी में लेश्या अथवा आभामंडल वह दर्पण है, जिसमें प्रतिबिम्ब को भी देखा जा सकता है और बिम्ब की गतिविधि को भी देखा जा सकता है । अध्यात्म साधना केन्द्र,-दिल्ली (सन् १९९४) में पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने महावीर के अर्थशास्त्र पर प्रवचन श्रृंखला का इंगित किया और जैन विश्व भारती लाडनूं (सन् १९९६) में महावीर के स्वास्थ्य-शास्त्र पर प्रवचन करने का निर्देश दिया । सप्ताह में एक दिन रविवार को एक प्रवचन होता। कुल सोलह प्रवचन हुए और प्रस्तुत पुस्तक तैयार हो गई ।। प्रस्तुत पुस्तक के संपादन में मुनि दुलहराज और मुनि धनंजयकुमार ने निष्ठापूर्ण श्रम किया है । आचार्य महाप्रज्ञ १४ जून १९९७ तेरापंथ भवन गंगाशहर Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय जीवन का यक्ष-प्रश्न कैसे रहे स्वस्थ तन स्वस्थ चिन्तन स्वस्थ मन सुलझे रोग की जटिल पहेली बने स्वास्थ्य शाश्वत सहेली देता है एक संबोध महर्षि चरक का उद्बोधस्वस्थ वह है, जो हितभुक्-हितभोजी है, मितभुक्-मितभोजी है ऋतभुक्-ऋत भोजी है स्वास्थ्य की यह भाषा शरीर-केन्द्रित परिभाषा । महावीर का स्वास्थ्य-दर्शन देता है नव्य चिन्तन स्वास्थ्य की आत्म-केन्द्रित परिभाषा जगाती है एक नई जिज्ञासा वह है स्वस्थ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और है आत्मस्थ जिसका विशुद्ध है अध्यवसाय पवित्र है चित्त का व्यवसाय विधायक भावों का आलय निर्मल लेश्या और आभावलय । स्वास्थ्य का यह अद्भुत रहस्य बनता है जीवन स्वतः प्रशस्य बढ़ती है आत्मा की निर्मलता अध्यवसाय और भावों की पवित्रता आभामंडल और लेश्या की विशुद्धि सुमन अथवा अमन की उपलब्धि शरीर पर उतरने वाले रोगों का क्षरण सर्वांगीण स्वास्थ्य का अवतरण । प्रस्तुत है महाप्रज्ञ का मौलिक सृजन योग से पाएं स्वस्थ जीवन रोग - चिकित्सा के अभिनव प्रकल्प नई विधियां नए विकल्पभाव और आभामंडलीय चिकित्सा रंग और गंध चिकित्सा रस और स्पर्श चिकित्सा शब्द और चिन्तन चिकित्सा यदि चले अनुसंधान और अन्वेषण सघन प्रयोग और प्रशिक्षण अध्यात्म-मनीषी के ये विचार खोलेंगे चिकित्सा क्षेत्र में नए द्वार । आगम की सूत्रात्मा महाप्रज्ञ की अर्थात्मा प्राचीन संदर्भ अर्वाचीन भाषा स्वास्थ्य की अपूर्व मीमांसा पढें महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेगा पवित्र जीवन, गात्र बदलेगा चिन्तन का कोण, विकसित होगा नव दृष्टिकोण सुझाएगा औषध का विकल्प ध्यान-योग का संकल्प प्रेक्षा-अनुप्रेक्षा का उपक्रम देगा जीवन को नव्य अभिक्रम नया आश्वास नया विश्वास नया उच्छवास शरीर और मन की सीमा से परे स्वास्थ्य की चेतना का दर्शन कर पाएगा जीवन में नए क्षितिज का उद्घाटन । मुनि धनंजय कुमार ४ जून १९९७ तेरापंथ भवन गंगाशहर Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम १ rm or mro mr w ७० अस्तित्व और स्वास्थ्य चित्त, मन और स्वास्थ्य भाव और स्वास्थ्य पर्याप्ति और स्वास्थ्य रुग्ण कौन ? कर्मवाद और स्वास्थ्य जीवनशैली और स्वास्थ्य ८. श्वास और स्वास्थ्य आहार और स्वास्थ्य १०. योगासन और स्वास्थ्य ११. प्रेक्षाध्यान और स्वास्थ्य १२. कायोत्सर्ग और स्वास्थ्य १३. अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य १४. लेश्याध्यान और स्वास्थ्य १५. हृदयरोग : कारण और निवारण १६. शिशु एवं वृद्ध स्वास्थ्य आगम संदर्भ ७८ ८६ ९७ 1०७ १५ ।२४ ३४ ४४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और स्वास्थ्य आरोग्य, बोधि और समाधि की उपलब्धि का स्वप्न मनुष्य के मन में उभरता रहा है । मनुष्य की सबसे पहली कामना है-आरोग्य मिले । संस्कृत साहित्य में सतत आरोग्य की कामना की गई और उसे सारी सफलताओं का आधार माना गया । स्वास्थ्य और चिकित्सा की अनेक पद्धतियां प्रचलित हुई। महावीर का दर्शन चिकित्सा का दर्शन भी नहीं है और स्वास्थ्य का दर्शन भी नहीं है | किन्तु ज्ञान को विभक्त कर देखना अनेकान्त को कभी मान्य नहीं है । ज्ञान सापेक्ष है । निरपेक्ष दृष्टि से ज्ञान को देखा नहीं जा सकता और बांटा भी नहीं जा सकता । ज्ञान की दो शाखाओं के बीच में कोई लक्ष्मण रेखा नहीं खींची जा सकती । प्रत्येक ज्ञान का उपयोग प्रत्येक क्षेत्र में हो सकता है, होता है । महावीर ने अस्तित्व का प्रतिपादन किया । उनका मुख्य सूत्र रहा आत्मा । जहां आत्मा की विशुद्धि नहीं है, वहां स्वास्थ्य नहीं है । जहां आत्मा की मलिनता है वहां स्वास्थ्य की समस्या है । आत्मा की पवित्रता से जुड़ा है स्वास्थ्य का प्रश्न । प्रस्तुत संदर्भ में मैं अस्तित्व की चर्चा दार्शनिक दृष्टि से नहीं करना चाहता । जहां दार्शनिक दृष्टि है, वहां आत्मा और पुद्गल की मीमांसा होती है । स्वास्थ्य के संदर्भ में अस्तित्व की परिभाषा और व्याख्या बदल जाएगी । दार्शनिक दृष्टि से अस्तित्व है-आत्मा । जहां स्वास्थ्य का संदर्भ है, वहां अस्तित्व सात अंगों वाला होगा । सात अंगों का समुच्चय है अस्तित्व । शरीर, इन्द्रिय, Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र श्वास, प्राण, मन, भाव और भाषा-ये सात अंग हैं । अस्तित्व का पहला और दृश्यमान अंग है शरीर | दूसरा अंग है इन्द्रिय । इन्द्रियां शरीर के साथ संलग्न हैं, किन्तु कार्य की दृष्टि शरीर से सर्वथा पृथक हैं। तीसरा अंग है श्वास । यह अस्तित्व और स्वास्थ्य दोनों दृष्टियों से बहुत महत्वपूर्ण है | चौथा अंग है प्राण । प्राणी प्राण के आधार पर जीता है । जीवित का अर्थ है-प्राणधारा का प्रवाह और मृत का अर्थ है प्राणधारा का विनियोजन । जीवन का मौलिक आधार है प्राण । ये चारों शरीर के साथ बहुत जुड़े हुए हैं । विकास की दृष्टि से आगे बढ़ें तो ये तीन तत्व भी अस्तित्व के अंग बनते हैं-मन, भाव और भाषा । स्वास्थ्य की दृष्टि से विचार करें तो ये सातों तत्व एक-दूसरे को प्रभावित करने वाले हैं । शरीर मन को प्रभावित करता है और मन शरीर को प्रभावित करता है । श्वास मन को और मन श्वास को प्रभावित करता है । भाव श्वास को और श्वास भाव को प्रभावित करता है । भाषा में भी परिर्वतन आ जाता है । समग्र दृष्टि से विचार करें तो इनमें से किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता । स्वास्थ्य पर विचार किया गया और अनेक शाखाएं विकसित हो गई। एक वह शाखा है, जो शारीरिक बीमारियों की चिकित्सा करती है और एक वह शाखा है, जो मानसिक समस्याओं की चिकित्सा करती है। चिकित्सा क्षेत्र की ये दो मुख्य शाखाएं हैं । शरीर अनेकान्त दर्शन में एक गौण और एक प्रधान हो सकता है, उनमें सर्वथा भेद नहीं माना जा सकता । शरीर अस्तित्व का पहला घटक है । जब शरीर का प्रत्येक अवयव ठीक काम करता है, पाचन तंत्र और और उत्सर्जन तंत्र सम्यक् काम करते हैं, श्वसन तंत्र, नर्वस सिस्टम और मस्तिष्क सही काम करते हैं तब शरीर को स्वस्थ माना जा सकता है । शरीर के अवयवों में कहीं कोई गड़बड़ी या विकृति आती है, तो शरीर रुग्ण और बीमार बन जाता है। इन्द्रिय अस्तित्व का दूसरा घटक है-इन्द्रियां । शरीर के स्वस्थ होने पर भी इन्द्रियां Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और स्वास्थ्य ३ अस्वस्थ हो सकती है । इन्द्रियो का अधिक उपयोग होगा, इन्द्रियां रुग्ण हो जाएंगी । इन्द्रियों का उपयोग नहीं होगा तो इन्द्रियां निकम्मी हो जाएंगी । आंख से ज्यादा काम लें, आंख रुग्ण हो जाएगी । आंख से बिल्कुल काम न लें, उसकी पटुता कम हो जाएगी | इन्द्रियों का पाटव तब तक रहता है, जब तक इन्द्रियों का समुचित उपयोग होता है । न अतियोग, न अयोग किन्तु सम्यक् उपयोग-यह इन्द्रिय का स्वास्थ्य है । श्वास अस्तित्व का तीसरा घटक है-श्वास । यह सबको प्रभावित करता है। न्याय-शास्त्र में एक न्याय का उल्लेख है-देहली दीपक न्याय । देहली पर रखा दीपक भीतर को भी प्रकाशित करता है, बाहर को भी प्रकाशित करता है। श्वास शरीर को भी प्रभावित करता है, इन्द्रियों को भी प्रभावित करता है, मन और भावों को भी प्रभावित करता है । सबको प्रभावित करने वाला तत्व है श्वास । जैसे मस्तिष्क के पटलों का एक चक्र है, वैसे ही श्वास का एक चक्र है । मस्तिष्क विद्या के क्षेत्र में गहन अन्वेषण के आधार पर कहा गया-दायें और बांयें मस्तिष्क के कार्यों का एक चक्र है और उनका कालमान निर्धारित है । मस्तिष्क का एक पटल नब्बे मिनट तक सक्रिय रहता है, उसके बाद दूसरा पटल सक्रिय बन जाता है । श्वास के संदर्भ में यही कहा जा सकता है-कभी दायां स्वर सक्रिय रहता है और कभी बांयां स्वर सक्रिय रहता है। श्वास की भी एक लय है, एक चक्र है, जो अनवरत चलता रहता है । जब बांयां श्वास चलता है, मस्तिष्क का दायां पटल सक्रिय बन जाता है । जब दायां श्वास चलता हैं, मस्तिष्क का बायां पटल सक्रिय बन जाता है । स्वास्थ्य के लिए श्वास के इन नियमों को समझना आवश्यक है । स्वास्थ्य पर योग में बहुत कार्य हुआ है । स्वरोदय में भी श्वास पर काफी कार्य हुए हैं। श्वास की इतनी क्रियाएं हैं, उनका इतना वैचित्र्य है कि उसे सम्यक समझ लिया जाए तो केवल श्वास के द्वारा स्वास्थ्य की अनेक समस्याओं का समाधान पाया जा सकता है। प्राण अस्तित्व का चौथा घटक है-प्राण । यह अस्तित्व का मूलाधार है । मनुष्य Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र जीवन अथवा किसी भी प्राणी का आधार है प्राण । प्रेक्षाध्यान में जब श्वासप्रेक्षा का प्रयोग कराया जाता है, तब यह निर्देश दिया जाता है-'श्वास को देखो, श्वास के साथ प्राण को देखो ।' महावीर ने दस प्रकार के प्राण बतलाएंपांच इन्द्रियों के पांच प्राण, श्वासोच्छ्वास प्राण, शरीरबल प्राण, मनोबल प्राण, वचनबल प्राण और आयुष्य प्राण | हमारे शरीर का संचालन प्राण के द्वारा हो रहा है । जो बहुत सारी समस्याएं शरीर में प्रकट होती हैं, शरीर उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है किन्तु वे समस्याएं शरीर-जनित नहीं होती। बीमारी के अनेक कारण माने जाते हैं । आनुवंशिकता बीमारी का एक कारण है । परिस्थिति, वातावरण, वायरस, जर्स आदि भी बीमारी के निमित्त बनते हैं । जब धातुओं का वैषम्य हो जाता है, शरीर के अवयवों का साम्य नहीं रहता, तब व्यक्ति बीमारी से आक्रान्त हो जाता है | ये सारे कारण गलत नहीं है किन्तु केवल ये ही कारण नहीं हैं । प्राण का असंतुलन भी एक प्रमुख कारण है । जब प्राण का असंतुलन हो जाता है तब शरीर के अवयवों की स्वस्थता के होते हुए भी व्यक्ति बीमार हो जाता है । प्राण सूक्ष्म-शरीर और स्थूल-शरीर का संबंध सेतु है । सूक्ष्म-शरीर के साथ जो हमारा संबंध है, वह प्राण के द्वारा होता है । आयुर्वेद में बीमारी का एक कारण माना जाता है कर्म । रोग कर्म से भी होता है । इस विषय में कर्मशास्त्रीय दृष्टि से हमारा भी यह चिन्तन है-कुछ बीमारियां ऐसी हैं, । जनका कारण बाहर में नहीं खोजा जा सकता | जिस शरीर में हमारे पुराने संस्कार संचित हैं, जिसके द्वारा हमारी सारी गतिविधियां संचालित होती हैं, उस सूक्ष्मशरीर में कर्म के बीज रहते हैं । जब वे प्राण के माध्यम से स्थूल शरीर में आते हैं, तब प्राणिक बीमारी का उद्भव होता है । इस दृष्टि से प्राण हमारे स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है । एक व्यक्ति कोष्ठबद्धता की समस्या से ग्रस्त है । वह विरेचन के लिए अनेक प्रकार की दवाइयां लेता है फिर भी विरेचन नहीं होता | प्रश्न होता है—ऐसा क्यों ? इसका कारण यह है कि अपान नाम का प्राण ठीक काम नहीं कर रहा है । यदि अपान-प्राण विकृत हो गया तो आप हजार दवाइयां ले लें, उत्सर्जन सम्यक् नहीं होगा । गुदा से लेकर नाभि तक जो स्थान है, वह अपान-प्राण का स्थान है । यदि वह सम्यक् नहीं है, तो उदासी, बेचैनी, डिप्रेशन, मानसिक अवसाद-- ये सारी स्थितियां बनी रहेंगी। जैसे ही अपान-प्राण ठीक होगा सारी स्थितियां सही हो जाएंगी। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और स्वास्थ्य ५ बिहेवियर साइकोलॉजी (व्यवहार विज्ञान) का प्रश्न हो या शारीरिक चिकित्सा का प्रश्न-प्राण का संतुलन अपेक्षित है । वह इन सबकी सम्यक सक्रियता का हेतु बनता है । आप कार को चलाना चाहते हैं किन्तु यदि भीतर पैट्रोल नहीं है तो आप धक्का देकर कब तक चलाएंगे ? आप कितना ही श्रम करें, ईंधन के बिना कार चलेगी नहीं । प्राण हमारा जीवन है । इसके द्वारा संचालित है जीवन । हृदय रोग क्यों होता है ? इसके अनेक कारण हैं किन्तु प्राण नामक जो प्राण है, वह सही काम कर रहा है तो हृदय को मजबूती मिलेगी, वह कमजोर नहीं होंगा । यदि वह प्राण सही काम नहीं कर रहा है तो अवसाद की स्थिति बनी रहेगी | नेपाल के एक भाई ने कहा-- महाराज ! मैंने हार्ट.की बाईपास सर्जरी करा ली फिर भी उदासी, बेचैनी और सुस्ती निरन्तर बनी रहती है । स्थिति यह है- मैं ग्यारह बजे से पहले उठ ही नहीं पाता । ऐसा लगता है-जीवन में कोई सक्रियता नहीं है, प्रसन्नता नहीं है | बहुत परेशानी का जीवन जी रहा हूं । मैंने कहा- तुम केवल दवा के भरोसे मत रहो, साथ में कुछ प्रयोग करो । दीर्घ श्वास प्रेक्षा और कायोत्सर्ग करो । भाई ने वे प्रयोग किए । वह बहुत प्रबुद्ध और सम्पन्न था । तीसरे दिन उसने कहा- 'महाराज ! आज अनेक महीने बाद मैं प्रातः सात बजे उठ पाया हूं । इन तीन दिनों के प्रयोग से मुझे पच्चीस प्रतिशत लाभ की अनुभूति हो रही है । मेरी प्रसन्नता बढ़ी है, मानसिक व्यग्रता कम हुई है ।' क्या ऐसा हो सकता है ? जो लाभ महीनों तक दवा लेने से नहीं हुआ, वह तीन दिन के प्रयोग से कैसे संभव हो गया ? कारण यही है-- जब प्राण प्राण पर्याप्त रहेगा, श्वास की क्रिया सम्यक् रहेगी तब हृदय को पर्याप्त ऑक्सीजन मिलेगा, उसकी सक्रियता और स्वस्थता बनी रहेगी। राजस्थान के एक राजनीतिज्ञ बाईपास सर्जरी कराने के लिए अमेरिका गए । बाईपास सर्जरी हो गई । डॉक्टर ने कहा- आपने बहुत अच्छा श्वास लिया । क्या आप लंबा श्वास लेना जानते हैं ? राजनेता ने कहा-मैं प्रेक्षाध्यान का अभ्यासी हूं। मैंने दीर्घश्वासप्रेक्षा का प्रयोग किया है इसलिए मैं लंबा श्वास लेना जानता हूं । प्राण और स्वास्थ्य श्वास-प्राण का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण प्रयोग है । प्राण संतुलन के साथ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र स्वास्थ्य का गहरा संबंध है इसलिए प्राण का सम्यक् होना आवश्यक है । प्राण का आकर्षण कैसे होता है ? शरीर में प्राण का संचय कहां होता है ? प्राण का वितरण कहां से होता है ? प्राण की सारी क्रियाएं कहां से संचालित होती हैं ? इन सब प्रश्नों पर स्वतंत्र रूप से विस्तृत चर्चा अपेक्षित है । वस्तुतः प्राण पूरे विश्व में व्याप्त है । जैनदर्शन में आठ वर्गणाएं मानी गई हैं । पुद्गलों के आठ ऐसे समूह हैं, जो पूरे लोक में, ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं । उनमें एक वर्गणा का नाम है तैजस वर्गणा । हमें कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं है। हमारे आस-पास प्राण का एक वलय बना हुआ है । चारों ओर प्राण की सामग्री विकीर्ण है । यदि हम ठीक प्रकार से लेना जानें, प्राण का संचय करना जानें तो प्राण का विशाल संग्रह कर सकते हैं और प्राण का प्रयोग भी कर सकते हैं | बहत सारी बीमारियां ऐसी हैं, जो प्राण के असंतुलन और अवरोध से पैदा होती हैं। पेरालाइसिस (पक्षाघात) के अनेक कारण माने जाते हैं, किन्तु उसका जो सबसे बड़ा कारण है, वह यह है. जहां प्राण की सक्रियता कम है, वहां निष्क्रियता आ जाएगी । जिस अवयव में प्राण संचार अवरुद्ध होता है, वह अवश्य पक्षाघात से आक्रान्त होता है । प्राण शक्ति का सम्यक संचालन होता रहे तो कोई अवयव निष्क्रिय नहीं हो पाएगा । हम ऑक्सीजन लेते हैं नर्व के साथ या रक्त के साथ | रक्त ऑक्सीजन को प्रत्येक कोशिका तक पहुंचा देता है । इससे हमारी जीवनी-शक्ति बराबर काम करती रहती है, स्वास्थ्य बना रहता है । मन अस्तित्व का पांचवां घटक है—मन । मन सब कुछ भी है और कुछ भी नहीं है । मन का कोई स्थायी अस्तित्व नहीं है + जब मन अस्तित्व में है तब वह सब कुछ है । उसे पैदा न करें तो वह कुछ भी नहीं है । जैसे भाव स्थायी तत्व है, वैसे मन स्थायी तत्व नहीं है । मन उत्पन्न होता है, विलीन हो जाता है । हम जब चाहें, मन को पैदा कर सकते हैं और जब चाहें, मन को विराम दे सकते हैं | मन की अनेक अवस्थाएं हैं | मन चंचल, व्यग्र और एकाग्र होता है । यह समनस्क अवस्था है। किन्तु जब मन होता है, तब वह बहुत कुछ होता है, इसलिए स्वास्थ्य के साथ मन का सम्बन्ध Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और स्वास्थ्य ७ जुड़ा हुआ है । मन स्वस्थ होता है तो शरीर स्वस्थ रहता है । मन अस्वस्थ होता है तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है । आचार्य मलयगिरि ने नंदी सूत्र की वृत्ति में इस विषय की बहुत सुंदर मीमांसा की है । एक व्यक्ति को इष्ट भोजन मिले, पौष्टिक भोजन मिले तो उसका शरीर पुष्ट हो जाएगा । यदि उसे अनिष्ट भोजन मिले, कुपोषण मिले तो शरीर क्लान्त और रुग्ण बन जाएगा। इसी प्रकार जब मन अच्छा विचार, अच्छा चिन्तन और विधायक मनन करता है तब वह इष्ट पुद्गलों को ग्रहण करता है । इससे मन प्रफुल्लित होता है और शरीर स्वस्थ बनता है । जब मन में बुरे विचार, बुरी कल्पनाएं और बुरी स्मृतियां उभरती हैं तब मन अनिष्ट पुद्गलों को ग्रहण करता है | इससे मन भी रुग्ण होता है और स्वस्थ शरीर भी अस्वस्थ बन जाता है । शरीर का मन और मन का शरीर पर बहुत प्रभाव होता है । एक सूत्र यह है--- शरीर स्वस्थ है तो मन स्वस्थ रहेगा । दूसरा सूत्र यह हो सकता है—मन स्वस्थ है तो शरीर स्वस्थ रहेगा । वस्तुतः दूसरा सूत्र ज्यादा निर्णायक है। प्रश्न है-मन का स्वास्थ्य कैसे बना रहे ? मन कैसे इष्ट पुद्गलों का अनवरत ग्रहण करता रहे ? सामान्यतः यह माना जाता है- हम चिन्तन कर रहे हैं किन्तु दार्शनिक दृष्टि से विचार करें तो कहा जाएगा--- मन मनोवर्गणा के पुद्गलों को लिए बिना एक इंच भी आगे नहीं बढ़ सकता । जैसे प्राण शक्ति के पुद्गल सारे विश्व में व्याप्त हैं, वैसे ही मनोवर्गणा के पुद्गल, जो मन की क्रिया को संचालित करते हैं, सारे विश्व में व्याप्त हैं । वे पुद्गल इष्ट भी हैं, अनिष्ट भी हैं । इसका तात्पर्य है-- मनोवर्गणा के जिन पुद्गलों का वर्ण, गंध, रस और स्पर्श अनुकूल होता है, अच्छा होता है, वे इष्ट पुद्गल हैं । जिन पुद्गलों का वर्ण, गंध, रस और स्पर्श प्रतिकूल होता है, खराब होता है, वे अनिष्ट पुद्गल हैं । जब-जब मन अच्छा विचार करता है, इष्ट पुद्गलों को लेता है, तब-तब मन की प्रफुल्लता और प्रसन्नता बढ़ती है, साथसाथ शरीर भी स्वस्थ बनता है । जब-जब मन बुरा विचार करता है, ईर्ष्या, कलह और निंदा का विचार करता है, दूसरों को गिराने का चिंतन करता है तब-तब अनिष्ट पुद्गलों का ग्रहण होता है । इससे मन की समस्याएं उलझती हैं, शरीर भी अस्वस्थ बनता है । मन के संदर्भ में दो शब्द अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं—सत्य मनोयोग और असत्य मनोयोग । जब हम सत्य की खोज में मन की प्रवृत्ति करते हैं अथवा मन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र की प्रवृत्ति यथार्थ में होती है तब सत्य मनोयोग होता है । जब-जब हम असत्य में मन की प्रवृत्ति करते हैं तब-तब असत्य मनोयोग होता है । यह सत्य मनोयोग मानसिक स्वास्थ्य के लिए औषध है, शरीर और मन दोनों के लिए टॉनिक है । जब असत्य मनोयोग होता है तब शरीर और मन - दोनों की शक्ति का ह्रास होता है । मनोबल की कमी आज की प्रमुख समस्या है। मानसिक तनाव से भी आज का मनुष्य घिरा हुआ है । यदि मन की प्रवृत्ति सत्य में बढ़ जाए तो इन समस्याओं से मुक्ति का सूत्र मिल जाए । भाव अस्तित्व का छठा तत्व है-भाव । शरीर पौद्गलिक है, इन्द्रिय-रचना और श्वास पौद्गलिक हैं । मन और प्राण भी पुद्गल से जुड़े हुए हैं । भाव आत्मा अथवा चेतना से जुड़ा हुआ है । हमारी भावनाएं भीतर से आती हैं । बाहर से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रहता । भाव जगत् भीतर का जगत् है । यह स्वास्थ्य के लिए कुंजी का काम करता है । मन बुरा विचार क्यों करता है ? अच्छा विचार क्यों करता है ? इष्ट पुद्गल का ग्रहण क्यों करता है ? अनिष्ट पुद्गल का ग्रहण क्यों करता है ? मन का नियामक और संचालक कौन है ? मन का नियामक है भाव । मन के अच्छे अथवा बुरे कार्य के लिए उत्तरदायी है भाव । जैसा भाव वैसा मन । भाव मन को संचालित करता है । वर्तमान मेडिकल साइंस की दृष्टि से भाव की उत्पत्ति का केन्द्र है लिम्बिक सिस्टम, हाइपोथेलेमस । मस्तिष्क का यह हिस्सा भाव संवेदना का मूल केन्द्र है । यदि हम आत्मा और शरीर का संबंध सूत्र खोजें- आत्मा और शरीर का संगम कहां हो रहा है तो कुछ केन्द्र निर्दिष्ट किये जा सकते हैं । पहला केन्द्र है— 'हाइपोथेलेमस', जहां आत्मा और शरीर का संगम होता है । दूसरा केन्द्र हो सकता है— नाभि । वह तैजस केन्द्र है, जहां वृत्तियां अभिव्यक्त होती हैं । मन भाव द्वारा संचालित एक तंत्र है । शरीर और भाषा भी भाव द्वारा संचालित तंत्र हैं जैन पारिभाषिक शब्दावली में इन्हें योग कहा गया है । ये तंत्र भाव द्वारा संचालित हैं । भाव के द्वारा हमारी सारी प्रवृत्तियां संचालित हो रही हैं। हम मन के Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अस्तित्व और स्वास्थ्य ९ बारे में बहुत कुछ मानते हैं किन्तु मन को मूल तत्व नहीं मानते । मूल तत्व है भाव । एक डॉक्टर चिकित्सा करता है शरीर की, एक साइकोलोजिस्ट चिकित्सा करता है मन की । भाव इनसे भी आगे है । वह कोई मानसिक समस्या नहीं है । वह भावात्मक समस्या है, आंतरिक समस्या है, जहां मन कोई काम नहीं करता । वर्तमान शिक्षा क्षेत्र में भी एक भ्रान्ति चल रही है । बौद्धिक विकास और मानसिक विकास को एक माना जा रहा है । किसी का बौद्धिक विकास अच्छा है तो कहा जाएगा– मानसिक विकास अच्छा हो गया । हमारे शब्दों में ऐसी अनेक भ्रान्तियां चलती हैं । वस्तुतः मानसिक विकास और बौद्धिक विकास एक नहीं है । भावात्मक विकास इन दोनों से सर्वथा भिन्न है । क्रोध, मान, माया, लोभ, ईा, भय, घृणा, वासना—ये हमारी भावनाएं हैं | जैसा भाव होगा, मन वैसा ही बन जाएगा । मन मूल नहीं है, मूल है भाव । हमारे अस्तित्व का चेतना का, अन्तरंग प्रतिनिधित्व करने वाला शक्तिशाली तत्व है भाव । भाव की शुद्धि और पवित्रता स्वास्थ्य का रहस्य-सूत्र है । भाषा अस्तित्व का सातवां घटक है—भाषा । भाषा का भी स्वास्थ्य के साथ बहुत गहरा संबंध है । ध्वनि के प्रकंपन हमारे स्वास्थ्य के साथ जुड़े हुए हैं। एक आदमी क्रोध की अवस्था में है | यदि वह बोलेगा तो होठ फड़कने लगेंगे, शरीर कांपने लगेगा, वाणी लड़खड़ा जाएगी । भाषा पर भाव का इतना प्रभाव हो जाता है । एक व्यक्ति ने शक्तिशाली शब्दों का उच्चारण किया, उसकी ध्वनि भावनाओं को प्रभावित करेगी, मन को प्रभावित करेगी । इसी आधार पर ध्वनि चिकित्सा का विकास हुआ । ध्वनि के द्वारा चिकित्सा की जाती है | आज प्रकंपन (वाईब्रेशन) पर बहुत अन्वेषण हो रहे हैं | किस प्रकार की भाषा, किस प्रकार का शब्द और कौन सा उच्चारण हमारे किस तंत्र को प्रभावित करता है ? मस्तिष्क में कहीं गड़बड़ी हो गई, एक शब्द का दस मिनट तक उच्चारण करें, मस्तिष्क एकदम संतुलित और व्यवस्थित हो जाएगा। किसी शब्द का उच्चारण हृदय को प्रभावित करता है, किसी शब्द का उच्चारण लीवर और नाड़ीतंत्र को प्रभावित करता है । इस प्रभाव की सूक्ष्म मीमांसा Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र की जाए तो निष्कर्ष आएगा - भाषा का भाव, मन और शरीर की क्रियाओं के साथ गहरा संबंध है । शरीर, इन्द्रिय, श्वास, प्राण, मन, भाव और भाषा - स्वास्थ्य के संदर्भ में इन सात तत्वों पर विचार करना आवश्यक है । यह समग्रता का दृष्टिकोण है । महावीर ने समग्रता की दृष्टि का प्रतिपादन किया था । महावीर द्वारा प्रतिपादित अनेकान्त का अर्थ है- किसी एक को लेकर आग्रही मत बनो, वस्तु तत्व को समग्रता से देखो । समग्रता से इन सातों तत्वों पर विचार करने पर स्वास्थ्य के संदर्भ में जो चिन्तन धारा विकसित होगी, वह 'अस्तित्व और स्वास्थ्य' दोनों का रहस्य -सूत्र उपलब्ध कराने वाली होगी । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त, मन और स्वास्थ्य स्वस्थ महावीर का शरीर बहुत दृढ़ था, वज्र ऋषभनाराच संहनन से युक्त था । उनका स्वास्थ्य बहुत बलवान् था इसीलिए वे इतनी कठिनाइयों, समस्याओं को झेल सके, इतने उपसर्गों को सहन कर सके । शरीर मजबूत होता है, स्वस्थ होता है तो बहुत सारी स्थितियों को झेला जा सकता है और चेतना भी ठीक काम करती है । भगवान् की स्तुति में एक बहुत मार्मिक बात कही गई वपुरेव तवाचष्टे, भगवन् ! वीतरागताम् । न हि कोटरसंस्थेग्नौ, तरुर्भवति शाद्वलः ।। भगवन् ! आपका शरीर ही बता रहा है कि आप वीतराग हैं । अन्य साक्षी की जरूरत ही नहीं है । दृष्टान्त की भाषा में इसका समर्थन किया गया-- जिस तरु के कोटर में आग लगी हुई है, क्या वह हरा-भरा वृक्ष होगा? जिसके कोटर में आग लग रही है, वह वृक्ष कभी हरा-भरा रह नहीं सकता। यदि आपके भीतर कषाय, राग-द्वेष, क्रोध, विकार- ये प्रबल होते तो आपका शरीर इतना मजबूत नहीं होता । आपका शरीर स्वस्थ है और वह यह बता रहा है कि आपके भीतर सब कुछ शान्त है । कोई उत्तेजना नहीं है, क्रोध नहीं है, आवेश और आवेग नहीं है, यह शरीर स्वयं साक्षी दे रहा है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र इस श्लोक की मीमांसा करें तो फलित है कि स्वास्थ्य का सम्बन्ध केवल शरीर से नहीं है, इसका सम्बन्ध हमारे चित्त से है, मन से है, भावों से है । इन सबसे स्वास्थ्य का सम्बन्ध है । केवल सन्तुलित भोजन या पोषण से शरीर स्वस्थ रहता है, इस भ्रान्ति का दूर होना आवश्यक है। स्वास्थ्य के लिए सबसे पहले आवश्यक है चित्त की स्वस्थता । हमारा चैतन्य एक सूर्य है । चैतन्य की तुलना सूर्य के साथ की गई है । चित्त उस सूर्य की एक रश्मि है । अखण्ड चैतन्य की एक रश्मि का नाम है चित्त । दूसरा तत्व है हमारा मन | मन चित्त के साहचर्य से कार्य करने वाला एक तंत्र है | चित्त है चैतन्यमय और मन है पौद्गलिक । मन का चैतन्य, जो हमें प्रतीत होता है, चित्त के साहचर्य से होता है, चित्त के प्रभाव से होता है । मन स्वयं चेतन नहीं है, अचेतन है । एक प्रश्न है संचालक का | चित्त का संचालक कौन है ? मन का संचालक कौन है ? चित्त संचालित होता है, सूक्ष्म शरीर के द्वारा । मन संचालित होता है चित्त के द्वारा । चित्त मन का संचालक है | चित्त के अपने उत्पाद हैं । चित्त भावों को उत्पन्न करता है, मन को उत्पन्न करता है । भाव और मन-ये दोनों चित्त के उत्पाद हैं। सूक्ष्म शरीर से कुछ स्पदंन आते हैं, वे स्पदंन चित्त तक पहुंचते हैं । चित्त हमारे मस्तिष्क के साथ कार्य करने वाले चेतना है | जब ये स्पदंन आते है। चित्त भावों का निर्माण करता है और उन भावों की क्रिया को संचालित करने के लिए एक तंत्र का निर्माण करता है और वह तंत्र है मन । चित्त के दो उत्पाद हो गए.- एक भाव और एक मन । ये दोनों उसके द्वारा निष्पन्न किये हुए तत्व हैं अनेक हैं चित्त भगवान् महावीर ने कहा- यह पुरुष अनेक चित्त वाला है । चित्त भी एक नहीं है, अनेक हैं । अनेक चित्त की व्याख्या करें तो चार प्रकार के चित्त सामने आते हैं ० आवरण चित्त । ० अन्तराय चित्त । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त, मन और स्वास्थ्य १३ ० मिथ्यादर्शन चित्त । ० मोह चित्त । ये चार प्रकार के चित्त हैं । इसके और भी सैकड़ों प्रकार बनते हैं पर प्रस्तुत प्रसंग में इन चार चित्तों की चर्चा अपेक्षित है । इनके प्रतिपक्ष में ये चार चित्त हैं ० अनावरण चित्त । ० निर्विघ्न चित्त । ० सम्यग् दर्शन चित्त । ० वीतराग चित्त । चित्त के अनेक प्रकार और अनेक कोटियां बनती हैं। चित्त के अनेक प्रकार महर्षि पतंजलि ने भी किए हैं । सांख्य दर्शन में भी चित्त की अवधारणा है । जैन दर्शन में चित्त और मन---दोनों की अवधारणा है । इनकी अवधारणा सांख्य दर्शन में नहीं है, ऐसा नहीं है किन्तु इनका जैन दर्शन में बहुत विश्लेषण हुआ है । महर्षि पतंजलि अथवा पातंजल योग दर्शन के भाष्यकार व्यास ने चित्त के तीन रूप बतलाए— मिथ्या-चित्त, प्रवृत्ति-चित्त और स्मृति-चित्त । वह चित्त, जिसमें रजो गुण और तमो गुण का असर है, मिथ्या चित्त है । उसे ऐश्वर्य, सत्ता और अधिकार प्रिय होता है । प्रवृत्ति-चित्त में तमोगुण की प्रधानता होती है । आसक्ति, मूर्छा, मोह—ये सारे प्रवृत्ति-चित्त में होते हैं। स्मृति-चित्त वह है जहां तमो गुण और रजो गुण समाप्त हो जाते हैं । वैराग्य, अनासक्ति आदि आदि अनेक गुणों का उद्भव और प्रलय होता है। यूंग की अवधारणा फ्रायड ने चित्त को माइंड तक सीमित रखा किन्तु यूंग ने माइंड और साइक- ये दो विभाग कर दिए । फ्रायड ने मन के चेतन और अवचेतनये दो संविभाग माने । यूंग ने चित्त के दो संभाग माने-चेतन और अचेतन । इन दोनों की जो इकाई है, वह चित्त है । यूंग ने चित्त का बहुत अच्छा विश्लेषण किया है । उदयपुर में एक बहुत अच्छे विद्वान थे डा० भवानीशंकर उपाध्याय । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र उन्होंने यूंग के विषय में पुस्तक लिखी "कार्ल गुस्ताव यूंग विश्लेषणात्मक मनोविज्ञान ।” वस्तुतः यूंग की अवधारणा की मीमांसा और विश्लेषण करते हैं तो लगता है कि वे चित्त के निकट पहुंच गए । हम चित्त पर विचार करें । पहला प्रश्न है- जानने वाला कौन है ? ज्ञाता कौन है ? हम मन को जानने वाला भी नहीं कह सकते और अनुभव करने वाला भी नहीं कह सकते । जानना और अनुभव करना, ज्ञान और विज्ञान का जो मूल आधार है, वह मन नहीं हो सकता मन की प्रकृति अलग है । मन चंचल है, अस्थाई है । चित्त स्थाई है, दीर्घजीवी है । हमारी सारी चेतना का प्रवाह वहां से आ रहा है । आवरण चित्त पहला है आवरण चित्त । यह चैतन्य को आवृत करने वाला चित्त है । सूक्ष्म शरीर का एक ऐसा प्रवाह आ रहा है, जो चेतना को अनावृत नहीं होने देता, उसको आवृत बनाये रखता है । किन्तु विकार कुछ भी नहीं करता, केवल आवरण बनता है । वह पर्दा लगा देता है तो सीधे नहीं पहुंच सकते । अन्तराय चित्त दूसरा है अन्तराय चित्त । यह बाधा डालने वाला चित्त है । भीतर का ऐसा प्रवाह है, जो बाधा डालता रहता है । व्यक्ति जैसा चाहे, वैसा काम कर नहीं सकता, सोच भी नहीं सकता । हमेशा कार्य में कोई न कोई बाधा आती रहती है । इसका कारण बनता है अन्तराय चित्त । मिथ्यात्व चित्त तीसरा है मिथ्यात्व चित्त । मिथ्या दृष्टिकोण बना रहता है । हम सत्य तक नहीं पहुंच पाते, दृष्टिकोण गलत बन जाता है । जो विधायक भाव और निषेधात्मक भाव की चर्चा आज है, उसका हेतु क्या है ? विधायक भाव न होने का मुख्य कारण मिथ्या-दर्शन चित्त बनता है । यह सही दर्शन नहीं Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त, मन और स्वास्थ्य १५ होने देता, यथार्थ का ग्रहण नही होने देता । यह दृष्टिकोण को बदल देता है । यथार्थ कुछ होता है किन्तु अनुभव या प्रतीति अन्यथा होने लग जाती है । विपर्यय होता है ज्ञान का । जिसे दार्शनिक जगत् में विमोहात्मक ख्याति, अनात्मक-ख्याति अथवा ज्ञान का विपर्यय कहा गया, उसके पीछे मिथ्यात्व चित्त अथवा मिथ्या दृष्टिकोण छिपा होता है । मोह चित्त चौथा है मोह चित्त । यह अच्छा चरित्र नहीं होने देता | संयम की भावना, व्रत की भावना उत्पन्न नहीं होने देता, आध्यात्मिक उन्नयन नहीं होने देता। हमेशा राग-द्वेष पैदा करता रहता है | आदमी का आकर्षण रागात्मक और द्वेषात्मक प्रवृत्ति में ही होता रहता है । दूसरा पक्ष यदि ये चित्त ही हमारे जीवन से जुड़े होते तो हम कभी सफल नहीं हो सकते । इसका दूसरा पक्ष भी है। वह भी सूक्ष्म-शरीर के विशुद्ध प्रकंपनों के द्वारा बनता है । वह पक्ष है अनावरण चित्त । कोरा आवरण नहीं है, अनावरण भी है इसीलिए हम ज्ञान का विकास कर पाते हैं । हमारी चेतना सर्वथा आवृत नहीं होती। कहा गया- चेतना का अनंतवां भाग सदा उद्घाटित रहता है, कभी आवृत नहीं होता । अगर चेतना पूर्ण आवृत हो जाए तो फिर जीव अजीव बन जाए । इस स्थिति में जीव और अजीव में अन्तर ही नहीं रहता । अनावरण चित्त भी सदा सक्रिय रहता है, अपना काम करता रहता है और चैतन्य को सर्वथा आवृत नहीं होने देता । । दूसरा है निर्विघ्न चित्त । चारों ओर बाधा ही बाधा हो, रुकावट ही रुकावट हो तो मनुष्य कैसे कार्य कर पाएगा ? यह बाधा को चीरता है । बाधा को पार करने का प्रतिनिधि चित्त है निर्विघ्न चित्त । यह सक्रिय होता रहता है इसलिए मनुष्य बहुत सारे कार्य कर लेता है । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र तीसरा-चित्त सम्यग् दर्शन चित्त । यह सम्यग् दृष्टिकोण का निर्माण करता है । तत्व को तत्व के रूप में स्वीकृत करता है, यथार्थ को यथार्थ की दृष्टि से देखता है । इसी के सहारे विधायक भाव और विधायक चिन्तन की प्रक्रिया चलती है । चौथा है वीतराग चित्त । कोई भी व्यक्ति सर्वथा चरित्र - शून्य नहीं है । चरित्र का किंचित् मात्रा में हर व्यक्ति में विकास होता है । वह विकास वीतराग चित्त के द्वारा निष्पन्न होता है । संदर्भ स्वास्थ्य का हम स्वास्थ्य की दृष्टि से चिन्तन करें । आवरण चित्त का सीधा सम्बन्ध स्वास्थ्य के साथ नहीं है । उसका सम्बन्ध ज्ञान के साथ है । स्वास्थ्य के साथ भी हो सकता है पर प्रत्यक्षतः सीधा सम्बन्ध नहीं है । किन्तु अन्तराय चित्त, मिथ्यात्व चित्त और सबसे ज्यादा मोह चित्त का सम्बन्ध हमारे स्वास्थ्य के साथ जुड़ता है । हम चित्त को दो भागों में बांट दें-- शुद्ध चित्त और अशुद्ध चित्त । एक शुद्ध चित्त है और एक अशुद्ध चित्त है । चित्त की शुद्धि, और भावों की शुद्धि से जुड़ी है मन की शुद्धि । वास्तव में मन शुद्ध अथवा अशुद्ध नहीं बनता । यह मन का काम ही नहीं है । मन का काम है स्मृति करना, कल्पना करना, चिन्तन करना । वह शुद्ध और अशुद्ध नहीं होता । वह शुद्ध अथवा अशुद्ध बनता है चित्त के प्रवाह से । चित्त का प्रवाह भाव में बदलता है तो वह शुद्ध - अथवा अशुद्ध बन जाता है । जब भाव मन पर उतरता है तब हम कह देते हैं कि मन शुद्ध है या अशुद्ध है, शुभ है या अशुभ है । वास्तव में शुद्ध अथवा अशुद्ध कुछ भी नहीं है मन में । हवा चल रही है । हवा गर्म है या ठण्डी ? यदि गर्मी तेज है तो हवा गर्म हो जायेगी । यदि शीतलहर चल रही है तो हवा ठण्डी हो जायेगी। हवा ठण्डी है या गर्म, यह निरपेक्ष दृष्टि से नहीं कहा जा सकता । सापेक्ष प्रतिपादन ही किया जा सकता है । हिमपात हुआ है, वर्षा हुई है तो हवा ठण्डी है । जेठ का अथवा आषाढ़ का महीना है और गहरी धूप पड़ रही है तो हवा गर्म हो जाएगी । मन का भी यही काम है क्योंकि मन की कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है । चित्त Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त, मन और स्वास्थ्य १७ की स्वतंत्र सत्ता है किन्तु मन की स्वतंत्र सत्ता नहीं है । अगर मन ही सब कुछ है, मन की स्वतंत्र सत्ता है तो अपने मन को वश में करो, यह निर्देश कौन देता है ? यह निर्देश किसकी क्रिया है ? वह है चित्त की सत्ता । यह चित्त का काम है कि चाहे वह मन का निग्रह करें और चाहे तो उसे खुला छोड़ दे । यदि चित्त पवित्र है और चित्त में यह बात बैठ गई है कि मुझे मन का निग्रह करना है तो फिर वह ध्यान की साधना करेगा, मन को एकाग्र करेगा, मन को अपने नियंत्रण में रखेगा । मन का मालिक है वह । ध्यान में एक स्थिति आती है निर्विकल्प ध्यान की । यदि मन की स्वतंत्र सत्ता है तो फिर निर्विकल्प और निर्विचार ध्यान का मतलब क्या होगा? क्या चेतना समाप्त होगी ? चेतना कभी समाप्त नहीं होती । विचार नहीं है फिर भी अपने अस्तित्व की अनुभूति बराबर हो रही है । __आचार्य रामचन्द्र ने एक सुन्दर बात कही— जैन लोग शून्य को ध्यान नहीं मानते । चेतना की शून्यता ध्यान नहीं, मूर्छा है । जहां मूर्छा है, वहां चेतना का ध्यान नहीं है, वहां मन की सत्ता नहीं है, मन का विकल्प नहीं है, मन का विचार नहीं है । जहां चेतना की अनुभूति का सातत्य है, निरन्तर चेतना की अनुभूति का अनुभव हो रहा है, चित्त की जागरूकता है वहां ध्यान है । अन्यथा मूर्छा और ध्यान में कोई अन्तर नहीं रहेगा । वह ध्यान की अवस्था है, जहां अपने अस्तित्व का, अपने चैतन्य का बराबर ध्यान बना रहता है । निर्विचार और निर्विकल्प अवस्था में मन तो नहीं है किन्तु ध्यान है और इसलिए है कि उसमें अस्तित्व अथवा चैतन्य का बोध प्रखर बना रहता है। स्थायी है चित्त एक महत्वपूर्ण शब्द है अमन । मन की अनेक स्थितियां बनती हैं किन्तु एक ऐसी स्थिति भी है जहां मन ही नहीं रहता, समाप्त हो जाता है । यह अमन की स्थिति है । यह अंतर स्पष्ट होना चाहिए— चित्त है स्थायी और मन है उत्पाद । हम मन को पैदा करें तो वह है । यदि न करें तो मन है ही कहां? मन, वचन, काया-तीन तत्व हैं । इनमें मन और वचन की स्थिति समान है । काया की स्थिति इन दोनों से भिन्न है । जब तक आदमी जीवित है, शरीर बना रहेगा । वाणी और मन की स्थिति यह है कि जब चाहे इन Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र दोनों को पैदा करें और जब चाहें, विराम दे दें । इसीलिए मन कहीं प्रतिष्ठित नहीं है । हम उसको उत्पन्न करते हैं | यदि मन को उत्पन्न न करें तो अमन की स्थिति बन जाए । चित्त की यह स्थिति नहीं है । चित्त को उत्पन्न नहीं किया जा सकता | जैसे शरीर की निरन्तरता है, चित्त की भी हमारे साथ निरन्तरता है | चित्त निरन्तर रहेगा, सोते, जागते निरन्तर बना रहेगा । चित्त अपना काम चालू रखेगा । वह तो हमारी चेतना है जो कभी लुप्त नहीं होती। न्याय-शास्त्र के आचार्यों ने इसलिए कुछ कथन प्रस्तुत किये थे- आज मुझे बहुत अच्छी नींद आई । यह कौन जानता है ? मन तो निष्क्रिय बन गया। मुझे बहुत अच्छी नींद आई, यह कौन अनुभव कर रहा है ? यह चित्त का काम है । किसी को नींद अच्छी नहीं आई । बार-बार इधर-उधर करवटें बदलता रहा । यह कौन अनुभव करता है ? यह मन का काम नहीं है, चित्त का काम है । चेतना की एक रश्मि है चित्त । यह सारा चित्त का काम है । यह स्पष्ट होना जरूरी है कि चित्त का कार्य अलग है और मन का कार्य अलग है । चित्त का पहला उत्पाद है भाव । मन उसका पहला उत्पाद नहीं है । चित्त भाव को पैदा करता है । भाव का प्रवाह भीतर से आता है । हमारे जितने इमोशंस है, सारे चित्त के उत्पाद हैं इसीलिए चित्त के अनेक प्रकार हैं । भाव के आधार पर कहा जाता है- यह क्रोध का चित्त है । इसी प्रकार अहंकार का चित्त, माया का चित्त, लोभ का चित्त, घृणा का चित्त, कलह का चित्त आदि-आदि अनेक चित्त बन जाएंगे । ये जो भाव पैदा होते हैं, उन्हें चित्त पैदा करता है । साहित्य में एक शब्द का प्रयोग चलता है- मनोभाव । मनोभाव का तात्पर्य है-मन में भावों का अवतरण । मन भाव पैदा नहीं करता । भाव पैदा करना मन का काम नहीं है । भाव पैदा करता है चित्त । वे भाव मन के पास जाते हैं और फिर मनोभाव बन जाते हैं । आगम-साहित्य में, सांख्य दर्शन और ऋग्वेद में जहां मन पर विचार किया गया, वहां कहा गया-चिन्तन करो, विचार करो, यह मन का काम है । कुछ लोग प्रश्न करते हैं- वह दिन दूर नहीं है जब कम्प्यूटर भी चिन्तन करने लग जाएगा । तब चेतना का अस्तित्व कहां रहेगा ? यह प्रश्न कोई समस्या नहीं है । कम्प्यूटर की क्रिया यांत्रिक प्रक्रिया है । मन भी चेतना का Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त, मन और स्वास्थ्य १९ एक यंत्र है, उपकरण है । कम्प्यूटर चिन्तन करेगा, उससे आत्मा के अस्तित्व पर कोई असर नहीं आएगा । क्योंकि चिन्तन आत्मा अथवा चित्त का मूल काम नहीं है । वह पारिपाश्विक कार्य है । उसका मूल कार्य है अनुभव करना, संवेदन करना, इच्छा करना । मन की कोई इच्छा नहीं होती । यद्यपि हमारे साहित्यकारों और संत लेखकों ने लिख दिया - मन की तृष्णा अनंत है । वस्तुतः मन में कोई तृष्णा होती ही नहीं है । मन पैदा हुआ है शरीर के साथ फिर अनंत तृष्णा कहां से आई ? चित्त और मन का भेद नहीं करते हैं तब उपचार से कह दिया जाता है कि मन की तृष्णा अनंत है । प्राणी का एक लक्षण माना गया है— इच्छा । जिनमें मन का विकास नहीं है, उनमें भी इच्छा होती है । सभी प्राणियों में मन नहीं होता किन्तु इच्छा अवश्य होती है । प्राणी का अकाट्य लक्षण है इच्छा । एक इन्द्रिय वाले जीव, दो इन्द्रिय वाले जीव, तीन इन्द्रिय वाले और चार इन्द्रिय वाले जीव अमनस्क होते हैं । कुछ पांच इन्द्रिय वाले जीव भी अमनस्क होते हैं । उनमें मन का विकास नहीं है किन्तु इच्छा है । इसीलिए मन को जीव का लक्षण नहीं माना गया किन्तु चित्त को माना गया, इच्छा को माना गया । जिसमें इच्छा है, वही प्राणी है । इच्छा किसका कार्य है । इच्छा, आकांक्षा, यह सारा चित्त का काम है । चित्त, मन और भाव चित्त, मन और भाव - तीनों के सम्बन्ध को समझें । ध्यान की दृष्टि से विचार करें तो सूक्ष्म शरीर, अध्यवसाय, लेश्या, चित्त, भाव और मन - यह एक पूरी श्रृंखला है, सूक्ष्म जगत् से लेकर स्थूल जगत् तक का समग्र क्रम है । भीतर सूक्ष्म जगत् में जो कुछ होता है, वह मन के द्वारा अभिव्यक्त होता है । अब हम स्वास्थ्य की दृष्टि से विचार करें। एक नियम बन जाएगाअशुद्ध चित्त, अशुद्ध भाव और अशुद्ध मन है तो स्वास्थ्य के लिए समस्या है, स्वास्थ्य अच्छा नहीं रह पाएगा । शुद्ध चित्त, शुद्ध भाव और शुद्ध मन है तो स्वास्थ्य के लिए बहुत ज्यादा अनुकूलता होगी, समस्या नहीं आएगी । साइको सोमेटिक - मनोकायिक बीमारी के लिए केवल शरीर का तंत्र Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र जिम्मेवार नहीं है। उसके लिए मन को उत्तरदायी माना गया । यदि चित्त पवित्र है तो मन अशुद्ध नहीं हो सकता। मनोकायिक बीमारियां चित्त की अशुद्धि के कारण ही उपजती हैं | महावीर का यह सूत्र-शुद्ध चित्त, शुद्ध भाव और शुद्ध मन-स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण सूत्र है । अशुद्ध चित्त, अशुद्ध भाव और अशुद्ध मन—इसका अर्थ है बीमारी के लिए खुला निमंत्रण । स्वास्थ्य और चित्त की निर्मलता स्वास्थ्य के संदर्भ में चित्त और मन की चर्चा बहुत आवश्यक है । यह कोई दार्शनिक चर्चा नहीं है । जहां दार्शनिक चर्चा करें वहां मन के स्वरूप का प्रतिपादन करें । हम चित्त और मन के स्वरूप को स्वास्थ्य के सन्दर्भ में भी देखें । जो व्यक्ति स्वस्थ रहना चाहता है, वह सोचे-बहुत अच्छा भोजन करूंगा, विटामिन्स, लवण, प्रोटीन सारे मिल जाएंगे । स्वादिष्ट भोजन करूंगा तो मैं स्वस्थ रहूंगा, यह सोचना नितान्त भ्रान्तिपूर्ण है । उसे साथ में यह भी सोचना पड़ेगा कि मेरा चित्त कितना निरवद्य है, निर्मल और पवित्र है | चेतना में पाप के प्रवाह नहीं आ रहे हैं, मलिन विचार नहीं आ रहे हैं तो स्वास्थ्य अच्छा रहेगा । आदमी बुरी कल्पना, बुरे विचार, बुरी भावना करता रहे और यह सोचता रहे कि मैं स्वस्थ रहूंगा तो इससे बड़ी कोई आत्म भ्रान्ति नहीं हो सकती । चित्त की निर्मलता स्वास्थ्य के लिए वरदान बनती है । हम महावीर वाणी के दो शब्दों पर ध्यान दें सावध और निरवद्य । इनका स्वास्थ्य के साथ गहरा संबंध है | यदि तुम्हारा चित्त, भाव, आचरण और चिन्तन निरवद्य है, निर्मल है तो स्वास्थ्य को खतरा नहीं है, तुम्हारी शक्ति कम नहीं होगी, तुम्हारी रोग-प्रतिरोधात्मक शक्ति मजबूत रहेगी, तुम समस्याओं को सहन कर सकोगे, झेल सकोगे । यदि यह भीतर की शुद्धि नहीं है, भाव, चित्त और मन की शुद्धि नहीं है तो कितना ही प्रयत्न करो, तुम्हारा शरीर खोखला होता चला जाएगा, इम्युनिटी सिस्टम कमजोर होता जाएगा, रोगप्रतिरोधक क्षमता कम होती जाएगी। कितनी ही दवाइयां लेते जाओ, न डॉक्टर बचा पाएगा, न दवाइयां बचा पाएगी । इस मूल सूत्र को पकड़कर चित्त और मन पर विचार करना चाहिए । उन्हें पवित्र, विशुद्ध और निर्मल बनाने का अभ्यास करना चाहिए । जिस दिन चित्त की निर्मलता उपलब्ध होगी, भाव Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त, मन और स्वास्थ्य २१ और मन शुद्ध बन जाएंगे । भाव और मन की शुद्धि का अर्थ है स्वास्थ्य के रहस्य-सूत्र का संधान । स्वास्थ्य के लिए इस सचाई का बोध और उपलब्धिदोनों अनिवार्य है। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव और स्वास्थ्य स्थूल जगत् में जीते हैं इसलिए स्थूल को जानना, पकड़ना हमारे लिए सरल है । हमारा एक जगत् है सूक्ष्म का जगत् । वह अदृश्य है इसलिए अज्ञेय भी बना हुआ है । उसे सरलता से जाना नहीं जा सकता । शरीर स्थूल है । मन शरीर से सूक्ष्म है । हम मन को भी पकड़ लेते हैं । भाव का जगत् बहुत सूक्ष्म है । स्थूल जगत् और सूक्ष्म जगत् के साथ संगम की एक श्रृंखला है | उस श्रृंखला को पकड़ना सरल नहीं हो रहा है । इसीलिए अब तक चिकित्सा के क्षेत्र में स्वास्थ्य के विषय में जो अवधारणाएं बनी हैं वे स्थूलस्पर्शी हैं | दो प्रकार के रोग माने जाते हैं शरीर का रोग और मन का रोग । पहले शरीर का रोग ज्यादा माना जाता था किन्तु अब मन का रोग भी काफी प्रसिद्ध हुआ है । यह माना जाने लगा है कि मन शरीर को प्रभावित करता है | एक शब्द भी प्रचलित हो गया- मनोकायिक रोग । यह एक नया सिद्धान्त विकसित हुआ है । आयुर्वेद में तो पहले से ही यह मान्य था किन्तु मेडिकल साइंस में अब बहुत अच्छी तरह से विकसित हुआ स्वरूप है भाव भाव हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, यह अवधारणा अब भी स्पष्ट नहीं है । इसका कारण यह है-कि मन और भाव को एक मान लिया गया । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव और स्वास्थ्य २३ वास्तव में ये दोनों बिल्कुल भिन्न हैं। इन्हें एक मानकर बहुत सारी समस्याएं भी हमने पैदा कर ली हैं। भाव और मन के पृथक्त्व को समझने के लिए भाव के स्वरूप को समझना जरूरी है । उमास्वाति ने कहा- भावो जीवस्य सतत्त्वं-भाव जीव का स्वरूप है | आत्मा अज्ञेय है, अमूर्त है, अगम्य और अदृश्य है। भाव जीव का एक स्वरूप बनता है । मनुष्य है । मनुष्य का शरीर है । इन्द्रियां हैं । इन्द्रियों के साथ और भी बहुत कुछ जुड़ा हुआ है। यह स्वरूप क्यों बना? कैसे बना? इसका आधार है भाव । इसीलिए उमास्वाति ने कहा- जीव का स्वरूप है भाव । एक वह भाव है जो औदयिक भाव कहलाता है, कर्म के उदय से, विपाक से होने वाला भाव है । एक वह भाव है, जो कर्म के शोधन से, कर्म के विलय से होने वाला भाव है | एक वह भाव है, जो स्वभावतः ही चलता रहता है । जिसकी संज्ञा है पारिणामिक भाव । भाव को इन तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है । भाव का स्रोत भाव को समझने के लिए भाव की परिभाषा तक जाना और परिभाषा तक पहुंचने के लिए मूल स्रोत तक पहुंचना आवश्यक है । हमारे शरीर के भीतर बहुत सारे सूक्ष्म संस्थान हैं । मूल है आत्मा । आत्मा का एक वलय है-कषाय । कषाय आत्मा से स्पंदन आते हैं । वे कषाय के स्पंदन अध्यवसाय को प्रभावित करते हैं । अध्यवसाय के स्पदन लेश्या को प्रभावित करते हैं । लेश्या के स्पंदन स्थूल शरीर में आकर भाव का निर्माण करते हैं । यह भाव के निर्माण की इतनी लम्बी श्रृंखला है, प्रक्रिया है। आत्मा, आत्मा का एक वलय, जिसका नाम है- कषाय | कषाय वलय के पश्चात् एक संस्थान है-चैतन्य का संस्थान | जिसका नाम है अध्यवसाय, सूक्ष्म चेतना । मनोविज्ञान में अनकशियस की बात कही गई, उससे भी अधिक सूक्ष्म है अध्यवसाय का जगत् । प्रत्येक अध्यवसाय के असंख्य भाग हैं, उनमें इतना तारतम्य है | वे अध्यवसाय स्पंदित होते हैं, उनका स्पंदन एक नयी सृष्टि करता है लेश्या की । जब वे लेश्या के स्पंदन सूक्ष्म जगत् में आते हैं, चित्त के साथ उनका संयोग होता है तब भाव-तंत्र का निर्माण होता है । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र भावना और संवेग ----- मनोविज्ञान में दो शब्द प्रचलित हैं- भावना और संवेग । भावना और संवेग इन दोनों का इतना संश्लेषण है कि इन्हें विभक्त करना सरल बात नहीं है । मूल है भाव । भाव व्यक्त नहीं होता, भीतर रहता है । जब भाव तीव्र बन जाता है, तब संवेग की स्थिति बनती है । संवेग ही मनुष्य को सुख और दुःख की स्थिति में ले जाते हैं, भाव पीछे रह जाते हैं । मनोविज्ञान की भाषा में भाव संतोष और असंतोष उत्पन्न करता है । जब संतोष और असंतोष उग्र बन जाते हैं तब वे संवेग समस्या पैदा करते हैं, फिर पानी का वेग आता है, बाढ़ बन जाती है । जब भाव संवेग बनता है तब अनेक प्रकार की समस्या पैदा करता है । महावीर की सिद्धान्त प्रणाली में दो शब्द मिलते हैं, राग और द्वेष । दूसरा शब्द समूह है- काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, घृणा और वासना । मूल है राग और द्वेष | राग और द्वेष अपना आशय बनाए हुए हैं । एक रागाशय है और दूसरा है द्वेषाशय । ये दो आशय हमारे सूक्ष्मशरीर में बने हुए हैं । जब जब द्वेषाशय की उत्तेजना होती है तबतब क्रोध प्रकट होता है । क्रोध एक भाव भी है और संवेग भी है । इस प्रकार अहंकार, कपट, लोभ आदि-आदि संवेग बन जाते हैं । भाव और संवेग को सर्वथा पृथक् करना आवश्यक नहीं है । किन्तु जब दोनों के स्वरूप पर विचार करें तो कहा जा सकता है-भाव का जगत् अव्यक्त और सूक्ष्म है । संवेग का जगत् हमारे सामने आता है, प्रगट होता है । प्रगट क्रोध होता है, उसके पीछे छिपा हुआ आशय कभी प्रगट नहीं होता । क्रोध निरन्तर नहीं रहता, वह समय-समय पर व्यक्त होता है, प्रगट होता है । द्वेष का जो आशय है, वह क्रोध को उत्पन्न करता है और वह आशय निरन्तर सोते-जागते चौबीस घण्टा प्राणी के साथ रहता है । जब वह आशय क्रोध के रूप में प्रकट होता है तब संवेग बनता है । लोभ का मूल स्रोत हैराग । लोभ निरन्तर नहीं रहता । मनुष्य जब-जब सोचता है और जब- जब मानसिक स्तर पर आता है तब-तब लोभ का संवेग बनता है । चौबीस घण्टा लालसा तीव्र नहीं रहती । लालसा का स्रोत है राग, वह चौबीस घण्टा बना रहता है । हमारे दो विभाग बन गए - एक राग और द्वेष का दूसरा क्रोध, मान, माया और लोभ का । तीसरा विभाग बनता है क्रोध से उत्पन्न होने वाले Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव और स्वास्थ्य २५ उपजीवी भाव का, अहंकार से उत्पन्न होने वाले उपजीवी भाव का । भय कोई मूल भाव नहीं है | भय उत्पन्न होता है लोभ के द्वारा | जितना लोभ, जितना ममत्व उतना भय । लोभ नहीं है, कोई ममत्व नहीं है तो भय बिलकुल नहीं है । वासना स्वयं का उत्पाद नहीं है। उसका भी उत्पाद होता है रागात्मकता या लोभ के द्वारा | वह भी एक नोकषाय है | कामना का एक प्रकार है। हमारे सामने तीन कोटियां बन गई- एक राग-द्वेष का आशय-रागाशय और द्वेषाशय । दूसरी कोटि बनती है उनकी तीव्रता से उत्पन्न संवेग की । तीसरी कोटि बनती हैं उनके उपजीवी व्यवहार और आचरण की । भाव, संवेग और स्वास्थ्य प्रश्न है-भाव, संवेग और स्वास्थ्य का क्या सम्बन्ध है ? इस प्रश्न पर विचार करें । रागाशय और द्वेषाशय-ये स्वास्थ्य को सीधा प्रभावित नहीं करते । जब भाव संवेग बनते हैं तब वे स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं । वे भी सीधा स्वास्थ्य के प्रभावित नहीं कर पाते | वे प्रभावित करते हैं शरीर के माध्यम से । हमारे शरीर का सर्वोत्तम अंग है मस्तिष्क । मस्तिष्क का एक भाग है लिम्बिक सिम्टम और एक भाग है हाइपोथेलेमस । हाइपोथेलेमस भावना के प्रति बहुत संवेदनशील है । वह भावना को पकड़ता है और भावना से होने वाली प्रवृत्तियों का नियंत्रण करता है । जो भावना पैदा होती है, भाव निर्मित होता है उससे हाइपोथेलेमस प्रभावित होता है और वह दूसरे अंगों को प्रभावित करता है । हमारा जो स्वतःचालित नाड़ी-संस्थान है, ग्रन्थितंत्र है, उसको भी भावना प्रभावित करती है। जैसे पृथ्वी पर हमारा कोई अधिकार नहीं है वैसे ही स्वतःचालित नाड़ी-संस्थान पर हमारा कोई अधिकार नहीं है । भोजन कर लिया, उसका परिपाक होता है, हम चाहे उसके प्रति सचेत रहें अथवा सचेत न रहें । स्वतःचालित होने वाली क्रिया पर नियंत्रण है हाइपोथेलेमस का । हमारी जो नाड़ियां हैं, ग्रन्थियों के जो स्राव हैं, हारमोन्स बनते हैं, उन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है । अपने आप बनते हैं और अपना काम करते हैं । भावना को पकड़ता है हाइपोथेलेमस । वह नाड़ीतंत्र और ग्रन्थितंत्र के माध्यम से शरीर को प्रभावित करता है । एक व्यक्ति ने क्रोध किया । इस संदर्भ में बहुत पुराना मत है, जो Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र आज भी सम्मत है—क्रोध की प्रबलता आएगी तो पित्त तीव्र हो जाएगा । काम, शोक और भय से वायु उत्पन्न होती है । यह बहुत पुराना सिद्धान्त है । मनोविज्ञान में यह सम्मत है-जब ये संवेग प्रबल होते हैं तब शारीरिक परिवर्तन होते हैं । मेडिकल साइंस की दृष्टि से विचार करें-जब-जब संवेग प्रबल होगा, एड्रीनल ग्लेण्ड काफी एक्टिव बन जाएगा | आज दोनों सिद्धान्तों को हम मिलाएं तो पित्त का अर्थ करना चाहिए एड्रीनेलीन । मेडिकल साइंस की भाषा में एड्रीनल ग्लेण्ड से एड्रीनेलीन का स्राव होता है । वह आयुर्वेद की भाषा में पित्त है । जैसे ही क्रोध का संवेग तीव्र होगा, एड्रीनल ग्लेण्ड तत्काल सक्रिय हो जाएगा । एड्रीनल ग्लेण्ड को सारी शक्ति उसमें लगानी पड़ती है, एड्रीनेलीन का अतिरिक्त स्राव करना ड़ता है । यह अतिरिक्त स्राव बीमारी का कारण बनता है । हमारे स्वास्थ्य का सम्बन्ध भावों के साथ जुड़ा हुआ है । यदि हम शरीर तक जाएं, उससे आगे मन तक जाएं तो समस्या का समाधान नहीं होगा। बहुत सारी बीमारियां हैं, जो न शरीर से उत्पन्न होने वाली हैं और न मन से उत्पन्न होने वाली हैं किन्तु भाव से उत्पन्न होने वाली हैं । मन और भाव का जो अलगाव है, वह महावीर ने बहुत सूक्ष्मता से बतलाया । प्रश्न है भाव क्या है ? और मन क्या है ? स्पष्ट है-मन हमारा स्वरूप नहीं है, जीव का स्वरूप नहीं है किन्तु भाव जीव का स्वरूप है । मन पैदा होता है किन्तु भाव का स्रोत भीतर है । मन का कोई स्रोत भीतर में नहीं है । वह हमारे चित्त के द्वारा उत्पन्न किया हुआ तंत्र है । भाव जब मन के साथ जुड़ता है वह मनोभाव बन जाता है । मूलतः मन भाव-जगत् से अलग है । व्याधि, आधि और उपाधि प्रेक्षाध्यान में तीन शब्दों का प्रयोग होता है—व्याधि— शरीर की बीमारी, आधि-मन की बीमारी और उपाधि-भावनात्मक बीमारी । यदि हम उपाधि को छोड़कर आधि और व्याधि के साथ स्वास्थ्य की विचारणा करेंगे तो समस्या का समाधान नहीं होगा । एक भाई ने कहा- महाराज ! सब जगह टेस्ट करा लिये, सूक्ष्म उपकरणों से निदान करा लिया । डॉक्टर कह रहे हैं कोई बीमारी नहीं है, स्वास्थ्य उत्तम है । सचाई यह है- मैं बीमारी भोग रहा हूं | Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव और स्वास्थ्य २७ कष्ट में हूं, दुःख भोग रहा हूं । हम इन दोनों समस्याओं पर विचार करें। एक ओर डॉक्टर का, निदान केन्द्रों के उपकरणों का मत है कि कोई बीमारी नहीं है, दूसरी ओर रोगी कहता है कि मैं बहुत कष्ट में हूं। विरोधाभास कहां है ? क्या हम माने कि डॉक्टर गलत कह रहा है अथवा निदान के उपकरण गलत सूचना दे रहे हैं ? गलत तो नहीं माना जा सकता। अगर मान लें तो सारी चिकित्सा की पद्धति लड़खड़ा जाएगी । क्या हम बीमार को झूठा मानें ? किसको सच मानें ? किसको झूठ मानें ? यह एक अंतर्द्वद्व और विरोधाभास की स्थिति है । इसका समाधान खोजा जा सकता है भाव जगत् में। भाव और आभामंडल वस्तुतः वह बीमारी न शरीर में उतरी है और न मन पर उतरी है । न वह सोमेटिक है और न वह साइकोसोमेटिक है । वह कायिक भी नहीं है, मनोकायिक भी नहीं है । वह बीमारी है भावात्मक । भाव जगत् में बीमारी उतर गई । इसका एक साक्ष्य हो सकता है वर्तमान मेडिकल साइंस के अनुसंधान । उन अनुसाधनों से यह स्पष्ट हुआ है कि जो बीमारी होने वाली है, उसकी सूचना आभामंडल से मिलती है । आभामंडल यह सूचना दे देता है कि छह अथवा तीन महीने के बाद यह बीमारी आने वाली है | हमारा आभामण्डल हमारी भावनाओं का प्रतिनिधित्व करता है | जैसा भाव वैसा आभामण्डल और जैसा आभामण्डल वैसा भाव । आज कुछ वैज्ञानिक मद्रास और पूना में आभामण्डल का फोटो लेकर बीमारी का निदान कर रहे हैं । पूना में एक डॉक्टर है डॉ० कल्याण गंगवाल । उन्होंने प्रेक्षाध्यान का अभ्यास किया, साहित्य पढ़कर किया । आभामण्डल की जांच के उपकरण भी विकसित कर लिए । वे आभामण्डल का फोटो लेते हैं और उसके आधार पर रोग का निदान करते हैं | आभामंडल में जो रोग का निदान होता है, वह शरीर के अवयव में नहीं होता । वह कोई अवयव की बीमारी नहीं है, मन की बीमारी भी नहीं है किन्तु भावात्मक बीमारी है और उसको जाना जा सकता है आभामण्डल के द्वारा । उसकी सूचना देता है प्राणी का आभामण्डल | अच्छा भाव है तो आभामण्डल अच्छा बन जाएगा । खराब भाव है तो आभामण्डल विकृत बन Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र जाएगा । यदि हमें स्वस्थ रहना है, भयंकर बीमारियों से बचना है तो भाव के प्रति जागरूक होना होगा । चोट लग गई, सर्दी का मौसम आया और जुकाम हो गया - यह एक सामान्य स्थिति है । किन्तु जो बड़ी-बड़ी बीमारियां हैं, उन बीमारियां से बचना है तो हमें एक केन्द्र पर पहुंचना होगा, वह है भाव केन्द्र | अगर हमारा भाव शुद्ध है तो कोई बड़ी बीमारी नहीं हो सकती । वीतरागता है स्वास्थ्य का सूत्र महात्मा गांधी कहते थे- मैं कभी बीमार नहीं बनूंगा । क्योंकि मैं वीतरागता की भी साधना करता हूं और राग-द्वेष से बचने का भी प्रयत्न करता हूं | यह बिल्कुल सही बात है कि वीतराग कभी बीमार नहीं हो सकता । हम इन छोटी-मोटी बीमारियों की बात छोड़ दें, जो आगन्तुक हैं, किन्तु बड़ी बीमारियों का स्रोत है राग और द्वेष, राग और द्वेष के आशय से पैदा होने वाले भावात्मक संवेग । जिनके भावात्मक संवेग प्रबल नहीं हैं, उनके असाध्य बीमारियां नहीं हो सकती । एक व्यक्ति को तेज क्रोध आता है । भयंकर क्रोध का परिणाम यह होता है कि तत्काल हार्टअटैक हो जाता है । वीतराग के हार्टअटैक नहीं होता क्योंकि उसको क्रोध कभी नहीं आता । द्वेष के आए बिना क्रोध भी नहीं आएगा । व्यक्ति शान्त है तो क्रोध की उत्तेजना से होने वाला हार्टअटैक नहीं होगा । यदि निषेधात्मक भाव शान्त है, न किसी के बारे में बुरी बात सोचते हैं, न किसी से ईर्ष्या है, न किसी से घृणा है, तो कैंसर की बीमारी की संभावना बहुत कम हो जाएगी । कैंसर का एक कारण बनता है— मादक वस्तुओं का सेवन । यदि भीतर में भाव शुद्ध है तो मादक वस्तु का सेवन भी नहीं होगा । हम भाव के साथ स्वास्थ्य का विचार करें, भाव जगत् में होने वाले परिवर्तन के साथ स्वास्थ्य का विचार करें तो बहुत बीमारियों से बचा जा सकता है । वीतरागता की साधना केवल आध्यात्मिक साधना ही नहीं है, स्वास्थ्य की साधना भी है । महावीर के स्वास्थ्य का रहस्य यदि हम मेडिकल साइंस की दृष्टि से विचार करें, एक डॉक्टर के व्यू पाइंट से विचार करें तो महावीर कभी स्वस्थ नहीं रह सकते । उन्होंने साढ़े Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव और स्वास्थ्य २९ बारह वर्ष के साधनाकाल में पोषक आहार लिया ही नहीं । केवल तपस्या ही तपस्या, उपवास ही उपवास । भोजन भी नहीं और पानी भी नहीं । जैसा रूखा-सूखा मिल जाता, उसी से पारणा कर लेते । कहां विटामिन्स, कहां वसा, कुछ भी नहीं | शरीर को पोषण मिला ही नहीं। फिर भी कभी घबराए नहीं। आज मेडिकल साइंस कहता है— हमारा शरीर बहुत सारे प्रोटीन्स पैदा करता है, वह अनेक तत्वों को पैदा करता है। हमें इस सचाई पर जाना होगाजिस व्यक्ति का भाव-तंत्र बहुत प्रशस्त है, विशुद्ध है, वह अपने शरीर के लिए आवश्यक तत्वों की पूर्ति अपने आप कर लेता है । महावीर ने छह महीने तक भोजन नहीं किया और पानी भी नहीं पिया। किसी डॉक्टर से यह पूछा जाए तो वह कहेगा यह असंभव है, ऐसा हो ही नहीं सकता, किन्तु यह सच है कि ऐसा हुआ है | हम छह महीने की बात छोड़ दें । जिसने अनशन किया, बीस-पच्चीस दिन तक पानी नहीं पिया, उसे देख प्रायः डॉक्टर यही कहते—यह तो हो नहीं सकता । किन्तु जो उनके सामने हो रहा था, उसे अस्वीकार भी कैसे करते ? एक साध्वी ने एक वर्ष तक केवल आछ का पानी पिया, और कुछ भी नहीं खाया | आछ का अर्थ है गर्म छाछ का नितरा हुआ पानी । मेवाड़ संभाग में लोग छाछ को गर्म करते हैं, उस पर जो पानी आता है, थोड़ा रंगीन सा पानी होता है, उस पानी को कहा जाता है आछ का पानी । साध्वीजी ने इस आछ के पानी को पीकर बारह महीने तक जीवन को चलाया और अच्छी तरह चलाया । वे स्वस्थ रहीं । अनेक साध्वियों ने आछ के पानी के आधार पर छह मास और चार मास का तप किया | अनेक डॉक्टर आए, उन्होंने कहा-यह हो नहीं सकता किन्तु जो आँखों के सामने हो रहा था, उसे अस्वीकार भी कैसे कर पाते ? इसका कारण यही है कि जब भाव-तंत्र शक्तिशाली बन जाता है, स्वस्थ बन जाता है, वह कोई भी उत्तेजना पैदा नहीं करता, संवेग पैदा नहीं करता तब उस स्थिति में शरीर भी उसका सहयोग करता है और ऐसे स्रावों का निर्माण कर देता है, जो शरीर के पोषण के तत्व होते हैं । भाव और रोग भाव और रोग—इस पर भी विचार करें । एक बहुत सुन्दर श्लोक कहा गया-अन्तर की विशुद्धि से बाहर की शुद्धि होती है और अन्तर की अशुद्धि Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र से बाहर की अशुद्धि या दोष उत्पन्न होता है । अन्तर्विशुद्धितो जन्तो, शुद्धिः संपद्यते बहिः । बाह्यं हि कुरुते दोषं, सर्वमन्तरदोषतः ॥ हम बाहर पर बहुत ध्यान देते हैं, वायरस और जर्स पर ध्यान देते हैं, उन्हें बीमारी का मूल मानते हैं । हम मन को भी गौण कर देते हैं और मन से आगे जाएं तो भाव को भी गौण कर देते हैं । हमारा जो इम्युनिटी सिस्टम है, जो रेजिस्टेंस पावर है, जो रोग प्रतिरोधक क्षमता है, वह इन बाहर के तत्वों पर निर्भर नहीं है। इसका स्रोत है मन की पवित्रता, उससे भी आगे का स्रोत है भावों की पवित्रता, लेश्या की पवित्रता । इससे भी आगे जाएं तो उसका स्रोत है अध्यवसाय की पवित्रता । इससे भी आगे एक स्रोत है कषाय की उपशान्ति । इन सब पर विचार करें तो भाव की शुद्धि और स्वास्थ्य का संबंध स्पष्ट हो जाएगा । भाव की विकृति रोग को जन्म देती है । भय पैदा हुआ और बीमारी पैदा हो जाएगी । भय के साथ अनेक बीमारियां जुड़ी हुई हैं । उत्कंठा पैदा हुई, बीमारी उभर आएगी । एक चीज के प्रति उत्सुकता और अति लालसा भयंकर बीमारी उत्पन्न करती है। यह उत्कंठा या उत्सुकता थायराईड को प्रभावित करती है। जिससे थाइरोक्सिन की क्रिया बदल जाती है, चयापचय की क्रिया बदल जाती है | उदासी, स्वभाव का चिड़चिड़ापन, अवसाद, डिप्रेशन आदिआदि बीमारियां पैदा हो जाती हैं | इन बीमारियों का मूल कहां खोजें ? शरीर में तो कोई कारण नहीं बना । न कोई जीवाणु आया, न कोई कीटाणु आया, कुछ भी कारण नहीं बना। फिर ये बीमारियां क्यों पैदा हुईं ? इसका कारण खोजना होगा भाव जगत् में । अति उत्सुकता का भाव, भय का भाव, क्रोध का भाव-ये सारे हमारे स्वास्थ्य की श्रृंखला को गड़बड़ा देते हैं । वे सीधा अपना असर नहीं करते । वे पहले नाड़ीतंत्र को अस्त-व्यस्त करते हैं, नर्वस सिस्टम गड़बड़ा जाता है । वे ग्रन्थितंत्र को अस्त-व्यस्त करते हैं । जब नाड़ी तंत्र और ग्रन्थितंत्र की क्रिया गड़बड़ाती है, तब बीमारियों के लिए खुला निमंत्रण हो जाता है । इसलिए जब स्वास्थ्य पर विचार करें और महावीर की वाणी को सामने रखकर विचार करें तो हम शरीर से परे जाएं, मन से परे जाएं और भाव जगत् में प्रवेश करें, भाव जगत् की पूरी श्रृंखला को समझ लें । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव और स्वास्थ्य ३१ इसका निष्कर्ष होगा-भय को मिटाना है, अभय को घटित करना है तो भाव की विशुद्धि करो । तुम्हारा भय मिट जाएगा, अभय पुष्ट हो जाएगा। आभामंडल और भाव विशुद्धि भाव की विशुद्धि से लेश्या विशुद्ध हो जाती है, आभामण्डल बदल जाता है । प्रेक्षाध्यान में आभामंडल के ध्यान का बहुत प्रयोग होता है । हमारे रंग श्वास के साथ जुड़े हुए हैं । हम श्वास लेते हैं । हमें पता नहीं है कि गृहीत श्वास में कौन सा रंग है । हमारा श्वास कभी काले रंग का होता है, कभी नीले रंग का होता है, कभी हरे रंग का होता है, कभी पीले रंग का होता है, कभी सफेद रंग का होता है । सब रंगों का होता है श्वास । हम जो श्वास लेते हैं, वह कभी खट्टा होता है, कभी मीठा होता है, कभी उसमें तीखापन होता है । बाहर में जितने रस हैं, हमारे श्वास में भी वे रस हैं। कभी हमारा श्वास सुगन्ध से भरा होता है और कभी हमारा श्वास दुर्गन्ध से भरा होता है । कभी हमारा श्वास मृदु स्पर्श का होता है तो कभी हमारा श्वास कठोर स्पर्श का होता है । ये सारी बातें श्वास के साथ जुड़ी हुई हैं। इन सारे पदगलों से सम्बंधित है. आभामण्डल । इन सबके आधार पर देखें श्वास कैसा लिया ? और सूक्ष्मता में जाएं, विश्लेषण करें-रविवार का श्वास कैसा होगा ? रविवार को हम सूर्य की कॉस्मिक रेज ले रहे हैं, सोमवार को हम चंद्रमा कॉस्मिक रेज ले रहे हैं । इनके साथ ग्रहों का सम्बन्ध है, भावों का सम्बन्ध है । ज्योतिष में कहा जाता है कि ग्रहों का प्रभाव होता है । ग्रह सीधा प्रभाव नहीं डालते हैं, किन्तु ग्रहों से आने वाले विकिरण हमारे भावों पर प्रभाव डालते हैं। भाव मन पर प्रभाव डालते हैं, शरीर पर प्रभाव डालते हैं, स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य की समस्या सामने आती है, और भी अनेक प्रकार की समस्याएं सामने आती हैं । भाव विशुद्धि से जुड़ा है स्वास्थ्य का प्रश्न हम स्वास्थ्य की समस्या के संदर्भ में थोड़े गहरे में जाएं तो हमें काफी आगे जाना होगा । जितना आज माना जा रहा है, जितना सच सामने आया है वह उतना ही नहीं है, और भी आगे जाना होगा । महावीर ने दो दृष्टियों Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र से विचार किया-निश्चय नय और दूसरी व्यवहार नय । व्यवहार में जो घटना घटित होती है, वह हमारे सामने देर से आती है। निश्चय में कोई नियम नहीं है, कोई व्यवहार नहीं है । वह घटना भाव जगत् में छह महीना पहले, एक वर्ष पहले, पांच वर्ष पहले घटित हो जाती है । वह भाव जगत् में पलती रहती है । शरीर में भी ऐसा होता है । अनेक लोगों के कैंसर की बीमारी हो जाती है । डॉक्टर कहता है. कैंसर एक वर्ष से है पर पता नहीं चला। मन की बीमारी का पता उससे भी दुर्लभ है | भाव जगत् की बीमारी का पता और ज्यादा दुर्लभ हो जाता है । हम भाव के प्रशस्त और अप्रशस्त स्वरूप पर विचार करें । मनोविज्ञान का एक शब्द बन गया-नकारात्मक भाव अथवा दृष्टिकोण और सकारात्मक भाव अथवा दृष्टिकोण । इससे आगे है भाव की विशुद्धि । जो व्यक्ति भाव विशुद्धि के प्रति सचेत है, जिसका भाव पवित्र रहता है, वह स्वास्थ्य का मंत्र पा लेता है । जिसमें कोई मलिनता है वह यह साधना करे कि मैं अपने भावों को अधिक से अधिक पवित्र रखू । जिसने यह संकल्प किया, वह स्वास्थ्य के प्रति सचेत हो गया । भाव विशुद्धि से जुड़ा है स्वास्थ्य का प्रश्न । जो अपने भावों की प्रति लापरवाह है, उदासीन है, वह अपने स्वास्थ्य के प्रति उदासीन है । स्वास्थ्य का भावतंत्र के साथ गहरा संबंध है इसलिए ‘भावतंत्र और स्वास्थ्य', विषय पर विचार करना केवल दार्शनिक दृष्टि से ही नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण है । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्ति और स्वास्थ्य कुछ विद्वानों ने स्वास्थ्य पर प्रत्यक्षतः विचार किया और कुछ विद्वानों ने अन्य तत्वों पर विचार किया इसलिए स्वास्थ्य के तत्व अनेक हो गए। शरीर पर हजारों वर्षों से विचार हो रहा है । वर्तमान शरीर-शास्त्रियों ने शरीर के सूक्ष्मतम रहस्यों को प्रगट करने का प्रयत्न किया है । अतीत में जाएं तो योग के आचार्यों ने शरीर पर बहुत विचार किया । योग की एनॉटोमी स्वतंत्र बन गई । योग का अपना शरीर शास्त्र है । तत्त्ववेत्ताओं ने शरीर पर विचार किया तो उनका भी एक शरीरशास्त्र बन गया । अनके ग्रंथ हैं इसलिए अनेक धारणाएं और अवधारणाएं शरीर के विषय में हैं । शरीर और स्वास्थ्य आज हम भगवान महावीर की वाणी और स्वास्थ्य पर विचार कर रहे हैं। महावीर ने पांच प्रकार के शरीर बतलाए 1. औदारिक शरीर, 2. वैक्रिय शरीर, 3. आहारक शरीर 4. तैजस शरीर, 5. कार्मण शरीर । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र एक हमारा स्थूल शरीर है, जो दिखाई दे रहा है । दो शरीर सूक्ष्म और सूक्ष्मतर हैं, वे दृश्य नहीं हैं, हमारे सामने प्रत्यक्ष नहीं हैं । दो शरीर वे हैं जो निर्मित किये जाते हैं । मूलतः तीन शरीर मान लें- स्थूल शरीर, जिसका नाम है औदारिक शरीर । सूक्ष्म शरीर, जिसका नाम है तैजस शरीर और सूक्ष्मतर शरीर, जिसका नाम है कर्म-शरीर या कार्मण शरीर । इन तीनों का स्वास्थ्य के साथ गहरा सम्बन्ध है । अनेक यंत्रों का विकास हो जाने पर भी सूक्ष्म और सूक्ष्मतर शरीर को पकड़ा नहीं जा सका है । सूक्ष्मदर्शी यंत्रों के द्वारा स्थूल शरीर के रहस्यों को तो जाना गया है किन्तु इसे प्रभावित करने वाले जो शरीर हैं, वे किसी यंत्र की पकड़ में अभी तक नहीं आए हैं । जैन दृष्टि से विचार करें तो कहा जाएगा यह स्थूल-शरीर सूक्ष्म-शरीर का प्रतिबिम्ब है। यानी कर्म शरीर के जितने स्पंदन है, वे प्रतिबिम्बित होकर इस स्थूल शरीर में अपना प्रतिनिधि निर्मित करते हैं, किसी अंग को निर्मित करते हैं। मानना चाहिए—यह स्थूलशरीर सूक्ष्मशरीर का संवादी अंग है । उदाहरण के द्वारा इसे समझें । कर्म शरीर में इकाई है ज्ञान की । उस इकाई को एक संवादी अंग मिला है मस्तिष्क में | संवेदना का एक निश्चित स्थान है, जहां से संवेदना अपना काम करती है । एक इकाई वेदनीय कर्म की है । वेदना का जो संवेदन हमारा होता है उसका प्रतिबिम्ब भी इस शरीर में निर्मित हुआ है। ज्ञान : संवादी अंग ज्ञान के संवादी अंग है पांच इन्द्रियां । इनके द्वारा हमारी चेतना प्रकट होती है । इससे आगे जाएं तो इन्द्रिय चेतना और अतीन्द्रिय चेतना के मध्य एक चेतना है प्रातिभ चेतना अथवा विशिष्ट इन्द्रिय पाटव की चेतना । उसका नाम है संभिन्नस्रोतोलब्धि | एक ऐसी शक्ति हमारे भीतर है, जिस शक्ति का विकास अभ्यास के द्वारा करें तो अंगुली के द्वारा देखा भी जा सकता है, सुना भी जा सकता है, छुआ भी जा सकता है | सब इन्द्रियों का काम एक अंगुली के द्वारा किया जा सकता है | हमारी आंख देखती है । इसका तात्पर्य है कि आंख की कोशिकाओं को हमने इतना विकसित कर लिया, उनमें यह शक्ति पैदा हो गई कि वे पारदर्शी बन गईं। जैसे आंख की शक्ति का विकास किया, वैसे शरीर के किसी भी अवयव का विकास किया जा सकता है । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्ति और स्वास्थ्य ३५ यह सारी बात समझाई गई संभिन्नस्रोतोलब्धि के माध्यम से । अतीन्द्रिय चेतना के अंग भी हमारे भीतर हैं । नंदीसूत्र में इस विषय पर बहुत सूक्ष्मता से विचार किया गया । अतीन्द्रिय चेतना को बाहर निकलने के लिए उपयुक्त अवयव, अंग हमारे शरीर के अग्र भाग में भी हैं, शरीर के पृष्ठ भाग में भी हैं, शरीर के दायें-बांये भाग में भी है और ऊपर-नीचे के भाग में भी है । पांचों ओर हमारे शरीर में वे केन्द्र बने हुए हैं, जिनसे हमारी चेतना बाहर निकल सकती है, अतीन्द्रिय विषय को जान सकती है । उदाहरण की भाषा में समझाया गया—एक दीया रखा गया और उस पर एक जालीदार ढक्कन रख दिया गया । जो प्रकाश निकलेगा, सीधा नहीं निकलेगा, जाली के छिद्रों में से निकलेगा । ऐसे ही हमारे पूरे शरीर में ऐसे छिद्र बने हुए हैं, जिनमें से चेतना की रश्मियां बाहर निकल सकती हैं । जैसे ज्ञान के संवादी अंग हमारे शरीर में हैं, वैसे ही ज्ञानावरोध के केन्द्र भी हमारे शरीर के भीतर है । वे ज्ञान का अवरोध करते हैं, ज्ञान को बाहर नहीं आने देते । संवेदना के अंग हमारे भीतर हैं और संवेदना को रोकने वाले अंग भी हमारे भीतर हैं । इसका तात्पर्य है-- प्रत्येक कर्म के अंग हमारे शरीर में है और वे संवादी बने हुए हैं । वर्तमान शरीरशास्त्रियों ने उनकी पहचान की है । संवेदना का संदेश कैसे भीतर तक जाता है, कैसे आता है ? कैसे उसकी अनुभूति होती है ? मोह के संवादी अंग भी शरीर में निर्मित है, वहां मोह कर्म प्रगट होता है । अवरोध पैदा करने वाले, शक्ति को तोड़ देने वाले तत्व भी हमारे शरीर के भीतर हैं । यदि कर्मशास्त्र और कर्मशरीर को सामने रखकर विचार करें तो हमारे शरीर में इतने केन्द्र बने हुए हैं कि सैकड़ों-सैकड़ों प्रकार की शक्तियां जागृत की जा सकती हैं । उनमें एक शक्ति है हमारी स्वास्थ्य की शक्ति । भीतर से जो प्रवाह और स्पंदन आते हैं, हमारे शरीर को प्रभावित करते हैं। ऐसे अनेक रोग हैं, जिनका बाहरी कारण प्रतीत नहीं होता । न कोई चिन्तन, न कोई वायरस, न कोई पारिस्थितिक- कुछ भी नहीं होता किन्तु रोग प्रगट हो जाता है । वे स्पंदन स्थूलशरीर में कर्मशरीर और तैजसशरीर से आ रहे हैं । तैजसशरीर हमारी प्राण शक्ति को पैदा करने वाली शक्ति है । उसमें अव्यवस्था और गड़बड़ी होती है तो शरीर बीमार बन जाता है। इस सारे संदर्भ में स्वास्थ्य की समस्या पर विचार करते समय हमें इन दोनों शरीरों की श्रृंखला पर विचार करना होगा । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र पर्याप्ति : जीवनी शक्ति जब स्थूल शरीर निर्मित होता है, उस समय छह जीवनी शक्तियां निर्मित होती हैं । उनकी अभिधा है- आहार पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय पर्याप्ति श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति । ये पर्याप्तियां यानी छह जीवनी शक्तियां हमारे शरीर में विद्यमान है। आहार पर्याप्ति का केन्द्र है कंठ-थायराइड का भाग । यहां चयापचय की क्रिया होती है । यह बहुत महत्वपूर्ण भाग है । शरीर पर्याप्ति का केन्द्र है नाभि । यह शरीर की रचना का मूल आधार केन्द्र है । महर्षि पतंजलि ने एक बहुत सुन्दर बात कही थी—'नाभिचक्रे कायव्यूहज्ञान'-नाभि-चक्र से पूरे शरीर की रचना का ज्ञान होता है | पूरे शरीर की संरचना का ज्ञान नाभि पर ध्यान करने से होता है । नाभि का महत्व योग में भी रहा है और शरीरशास्त्र की दृष्टि से भी रहा है । मध्यवर्ती केन्द्र है नाभि । शरीर के लिए जो निरंतर पोषण चाहिए, वह पोषण नाभि के द्वारा प्राप्त होता है | नाभि के द्वारा बाहर के पुद्गलों का निरन्तर ग्रहण होता है । ग्रहण की यह क्रिया सतत चालू रहती है। आहार पर्याप्ति और शरीर पर्याप्ति- दोनों में गहरा सम्बन्ध है । एक है कंठ का स्थान और दूसरा है नाभि का स्थान । योग का एक प्रयोग थायराइड और एड्रीनल के संतुलन के लिए बहुत उपयोगी है । प्रयोग की विधि बतलाई गई लेट जाओ, लेट कर गर्दन को ऊपर उठाओ और नाभि को देखो। यह बहुत महत्वपूर्ण क्रिया मानी गई है-लेटे-लेटे नाभि-दर्शन | इस क्रिया से एड्रीनल और थायराइड का संतुलन स्थापित हो जाता है | योग में कंठ का बड़ा महत्व है क्योंकि जहां वृत्तियां प्रकट होती हैं, संवेदनाएं प्रकट होती हैं, उस स्थान पर नियंत्रण थायराइड के द्वारा होता है । ब्रह्मचर्य के लिए भी इस प्रयोग का विधान है । सामान्य स्वास्थ्य के लिए भी इसका विधान है । लेटे-लेटे गर्दन को ऊपर उठाकर नाभि का दर्शन करें। इससे दोनों ग्रंथियों में संतुलन स्थापित होता है । नाभि का और भी ज्यादा महत्व है क्योंकि यह तैजस शक्ति का केन्द्र और अग्नि तत्व का स्थान है । पांच तत्व माने गए- पृथ्वी तत्व, अग्नि तत्व, जल तत्व, वायु तत्व और आकाश तत्व । नाभि अग्नि तत्व का स्थान है । पांच प्राण में वह समान प्राण का स्थान है | समान प्राण सारी क्रिया करने वाला है । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्ति और स्वास्थ्य ३७ पाचनतत्र के द्वारा पाचन होता है । इस सदर्भ में बतलाया गया-आहार पर्याप्ति के द्वारा खलरसीकरण होता है । खलरसीकरण को वर्तमान की भाषा में चयापचय की क्रिया समझा जा सकता है । खल को निकाल देना, अलग कर देना और रस को आत्मसात् कर लेना—यह खलरसीकरण की क्रिया, चयापचय की क्रिया आहार-पर्याप्ति के द्वारा होती है । ये दो पर्याप्तियां हमारी जीवनी शक्तियां हैं । जीवन का मूलभूत आहार जीवन का मूल आधार है- आहार पर्याप्ति और शरीर पर्याप्ति । कौन व्यक्ति कितना जीएगा, उसका दायित्व आहार पर्याप्ति पर है । थायराइड और आहार पर्याप्ति में गहरा सम्बन्ध है । जितनी आहार पर्याप्ति है, व्यक्ति उतना जीएगा। आहार पर्याप्ति अपना काम करना बंद कर देगी तो आदमी की मृत्यु हो जाएगी । कोशिका के लिए चयापचय की क्रिया निर्धारित है, संख्या निर्धारित है। जब तक कोशिका में पुनर्जनन की क्रिया होती रहेगी तब तक कोशिका जीवित रहेगी, पुनर्जनन की क्रिया बंद हुई और कोशिका बिल्कुल मर जायेगी। इसका सम्बन्ध आहार पर्याप्ति के साथ है । एक पारिभाषिक शब्द है ओज आहार । मूलभूत आहार है ओज आहार । एक आहार होता है कवल आहार । हम जो भोजन करते हैं, वह कवल द्वारा करते हैं | एक आहार होता है रोम आहार । जिसे हम रक्त के द्वारा, शरीर की त्वचा के द्वारा ग्रहण करते हैं। ओज आहार मूल आहार है । जब हमारा जन्म होता है, जीवन के प्रारंभिक क्षण में जिस आहार का ग्रहण होता है, वह ओज आहार है । यह जब तक रहता है तब तक व्यक्ति जिन्दा रहता है । ओज आहार के समाप्त होते ही आदमी मर जाता है । आहार पर्याप्ति और ओज आहार इन दोनों में गहरा सम्बन्ध है । केन्द्र हैं मस्तिष्क में इन्द्रिय पर्याप्ति का केन्द्र हमारे मस्तिष्क में है । श्रवण और चक्षु के केन्द्र भी हमारे मस्तिष्क में बने हुए हैं । श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति का मूल केन्द्र मष्तिष्क में है । इसका कार्य-संचालक केन्द्र रेस्पिरेटरी सिस्टम-श्वसनतंत्र को Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र कहा जा सकता है । भाषा पर्याप्ति का केन्द्र भी मस्तिष्क में है । हम भाषा वर्गणा के परमाणुओं को ग्रहण करते हैं, उन पुद्गलों को भाषा के रूप में बदलते हैं और उनका विसर्जन करते हैं तब हमारी वाणी व्यक्त होती है। भाषा पर्याप्ति में तीन कार्य होते हैं, अपने योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करना, अपने कार्य के अनुरूप उनको बदल देना, परिणमन कर देना, और फिर उनका विसर्जन कर देना, उत्सर्जन कर देना । ये तीन क्रियाएं प्रत्येक पर्याप्ति के साथ होती हैं । छठी पर्याप्ति है मनः पर्याप्ति । उसका केन्द्र भी मस्तिष्क में है । ये छह पर्याप्तियां हमारी जीवनी-शक्तियां हैं । इनके साथ स्वास्थ्य का बहुत गहरा सम्बन्ध है । यदि आहार पर्याप्ति ठीक काम कर रही है तो स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, हम स्वास्थ्य में आने वाली बाधाओं को पार कर सकेंगे । हमारी जो जैविक रोग-प्रतिरोधक क्षमता है, वह बनी रहेगी । यह सारा दायित्व आहार पर्याप्ति का है । जब तक शरीर पर्याप्ति का कार्य ठीक चलेगा तब तक स्वास्थ्य अच्छा रहेगा। जब आदमी इन पर्याप्तियों की स्वाभाविक अवस्था में कोई बाधा पैदा करता है तब बाहरी कीटाणुओं अथवा जीवाणुओं का आक्रमण मनुष्य को रोगी बना पाता है । रोग प्रतिरोधक क्षमता को केवल एक तंत्र के साथ नहीं, इन छहों जीवनीशक्तियों के साथ जोड़ना होगा तब स्वास्थ्य की व्यवस्था अच्छी होगी । जब थायराइड की क्रिया गड़बड़ाती है तब चयापचय की क्रिया गड़बड़ाती है, आदमी बीमार हो जाता है । चाहे थाइराइड का हाइप हो अथवा हाइपर-दोनों क्रियाएं होती हैं तो स्वास्थ्य गड़बड़ा जाता है । आहार पर्याप्ति एक विधान किया गया- कंठ पर सवा घण्टा ध्यान करें । यह विधान इसलिए किया गया कि थाइरोक्सीन का निर्माण या थाइराइड का जो स्राव है, वह ठीक होगा, चयापचय की क्रिया ठीक रहेगी । थायराइड का सम्बन्ध केवल हमारी चयापचय की क्रिया के साथ ही नहीं है, वृत्तियों के साथ भी बहुत है । थायराइड की क्रिया ठीक नहीं है तो भय, डिप्रेशन आदि-आदि अनेक मानसिक अवसाद की क्रियाएं भी प्रारंभ हो जाती हैं । आहार पर्याप्ति की भी सम्यक् व्यवस्था चले, उसमें बाधा न डालें । उसमें बुरे भावों से भी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्ति और स्वास्थ्य ३९ बाधा आती है, चिन्तन से भी बाधा आती है और आहार के असंयम से भी बाधा आती है । महावीर के स्वास्थ्य विज्ञान पर विचार करें, तो सबसे पहले हमें ध्यान देना होगा कि हमारी आहार पर्याप्ति का कार्य सुचारू रूप से हो रहा है या नहीं हो रहा है, उसमें कोई बाधा तो पैदा नहीं कर रहा है । शरीर पर्याप्ति दूसरा प्रश्न है शरीर पर्याप्ति का । शरीर पर्याप्ति में भी आदमी बाधा डालता है । सामान्य लौकिक भाषा में कहा जाता है कि नाभि टल गई । धरण हो गई, नाभि टल गई । इसे कोई माने या न माने किन्तु यह एक सचाई है—नाभि टलने पर सारी स्थिति गड़बड़ा जाती है । नाभि को ठीक स्थान पर स्थापित किया जाता है और व्यक्ति एकदम स्वस्थ हो जाता है । यह प्रायोगिक बात है, अनुभव की बात है । जो बात स्पष्ट है, वह चाहे विज्ञान के द्वारा सम्मत हो या न हो । हम नहीं मानते कि विज्ञान ही अन्तिम सत्य है अथवा और कोई असत्य ही है | जो प्रत्यक्ष हो रहा है, उसे सच क्यों न माने ? चाहे कोई शास्त्र माने या न माने, प्रत्यक्ष सबसे बड़ा प्रमाण है। हम किसी शास्त्र से बंधे हुए न रहें । प्रत्यक्ष लाभ हो रहा है, उसको अस्वीकार नहीं करेंगे । प्रश्न है— शरीर पर्याप्ति में बाधा कब आती है ? बीमारी के द्वारा ही बाधा आती है । बीमारी को पैदा करने वाले भोजन के द्वारा बाधा आती है | असंयम के द्वारा या वृत्तियों की अधिक उत्तेजना के द्वारा भी बाधा आती है । प्राचीन भाषा में कहा गया- नाभि का स्थान कायव्यूह का स्थान है । यहां पर ध्यान करने से पता लग जाता है कि वात, पित्त और कफ की स्थिति क्या है ? इनका साम्य है या वैषम्य है ? इनका साम्य है तो आरोग्य है और वैषम्य है तो रोग है । इस स्थिति का पता लग जाता है, शरीर के और भी परमाणुओं का पता लग जाता है । स्वास्थ्य की कुंजी इस पर तत्व सिद्धान्त की दृष्टि से विचार किया गया । आग्नेय परमाणु का यह मुख्य केन्द्र होता है । गुदा से लेकर नाभि तक का जो विशेष स्थान है, उसको अपान प्राण का स्थान बतलाया गया है । स्वास्थ्य का बहुत गहरा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र सम्बन्ध है अपान के साथ | कहा गया-अपान की शुद्धि स्वास्थ्य हैअपानशुद्धिः स्वास्थ्यम् । यदि पार्थिव परमाणुओं पर नियंत्रण करना है और उनको सम्यक् रखना है, तो हमें इन्द्रिय पर भी विचार करना होगा । पांच इन्द्रियों का कार्य क्या है ? आंख का काम देखना है, कान का काम सुनना है, नाक का काम गन्ध लेना है, यह सर्वमान्य है । किन्तु शरीर रचना की दृष्टि से और पर्याप्ति की दृष्टि से इनके कार्य बहुत व्यापक हैं । जो हमारा शक्तिकेन्द्र है, जिसको मूलाधार कहते हैं, जो टेरेनियम चक्र है, उस पर कंट्रोल करना है, उसको स्वस्थ रखना है । जब उस पर ध्यान करते हैं तब शक्ति केन्द्र के स्नायु ऊपर उठने लग जाते हैं, जिसे मूलनाड़ी कहते हैं । योग की भाषा में वह मूलनाड़ी स्वास्थ्य की कुंजी है। बहुत सारे पुरुषों और स्त्रियों को जो बीमारियां पैदा होती हैं, उसका केन्द्र है मूलाधार या शक्ति केन्द्र । वह ठीक नहीं रहता है तो बीमारियों पैदा होती रहती हैं। उसको स्वस्थ बनाया जाए तो बीमारियां में बहुत अन्तर आ जाता है । अनेक बीमारियों की जड़ अपान-प्राण के स्थान में छिपी हुई है । जब हम नासाग्र पर ध्यान करते हैं और एकाग्र होते हैं तब यह स्पष्ट होता है कि पार्थिव परमाणुओं पर कंट्रोल करने के लिए यह नासाग्र का स्थान बड़ा महत्वपूर्ण है । इन्द्रिय पर्याप्ति और स्वास्थ्य हम तीन पर ध्यान करें-नासाग्र, कंठ और नाभि चक्र पर | हठयोग की भाषा में नाभिचक्र को मणिपूर चक्र ओर कंठ को विशुद्धि चक्र कहा गया । नासाग्र के लिए योग में कोई अलग नाम नहीं है । किन्तु प्रेक्षाध्यान में इनके नाम है—तैजस केन्द्र, विशुद्धि केन्द्र और प्राण केन्द्र । हम इस सचाई को जानें- नाक का काम केवल गन्ध लेना नहीं है, स्वास्थ्य को ठीक रखना भी नाक का बहुत बड़ा काम है । महावीर का जितना भी वर्णन आता है, उसमें यह प्रायः आता है- महावीर ने नासाग्र पर दृष्टि टिका ली। यह उनके स्वास्थ्य की कुंजी थी । इतनी कठिनाइयां सहने पर भी वे स्वस्थ रहे शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक सभी दृष्टियों से स्वस्थ रहे । कारण क्य था ? नासाग्र पर न्यस्त दृष्टि उनके स्वास्थ्य का एक महत्वपूर्ण रहस्य रह है | आँख का काम देखना है किन्तु मात्र इतना ही नहीं है । आँख भी हमार एक चैतन्य केन्द्र है । आँख का स्वास्थ्य में भी बड़ा योग है । कान केवल Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्ति और स्वास्थ्य ४१ श्रवण का केन्द्र ही नहीं है, नशे की आदत को बदलने का भी यह एक बहुत बड़ा केन्द्र है । प्रेक्षाध्यान में पांचों इन्द्रियों पर ध्यान कराया जाता है । पर्याप्तियों की ध्यान विधि भी विकसित है किन्तु प्रयोग अभी नहीं कराया गया है । आहारपर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति के साथ इन्द्रिय पर्याप्ति पर भी ध्यान देना अपेक्षित है | आप स्वस्थ रह सकते हैं, यदि इन्द्रियां स्वस्थ हैं । आप पांच मिनट आँख पर ध्यान करें। पांच मिनट कान पर ध्यान करें । दस मिनट नाक पर ध्यान करें। आपको अनेक कठिनाइयों से, शारीरिक बीमारियों से भी छुटकारा मिल जाएगा । यह एक अनुभूत प्रयोग है । श्वास पर्याप्ति और स्वास्थ्य चौथी पर्याप्ति है श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति । उसका स्वास्थ्य के साथ संबंध बहुत प्रत्यक्ष है । उसके विषय में अधिक चर्चा करना आवश्यक नहीं लगता । जिस व्यक्ति ने सम्यक् श्वास का प्रयोग किया है, श्वास पर्याप्ति को ठीक संभालकर रखा है वह काफी कठिनाइयों से बचा है । सम्यक् श्वास श्वास पर्याप्ति का कार्य है । उसमें बाधा न पहुंचाए। उसकी कुछ बाधाएं हैं, उनका निषेध भी किया गया है । भोजन पहली बाधा है । न ज्यादा गर्म और न ज्यादा ठण्डा भोजन लें। जहां भी ज्यादा गर्म और ज्यादा ठण्डा भोजन होता है, श्वास की क्रिया प्रभावित होती है । भोजन पर ध्यान देने से श्वास-पर्याप्ति की सुरक्षा होती है । जो व्यक्ति ज्यादा गुस्सैल है, क्रोधी है, वह श्वास-पर्याप्ति को भी अव्यवस्थित कर देता है । इमोशन का, श्वास की प्रबलता का श्वासपर्याप्ति पर बहुत प्रभाव पड़ता है । श्वास लेने की हमारी सामान्य विधि हैएक मिनट में पन्द्रह श्वास लें । दो सैकण्ड में एक श्वास लिया और दो सैकण्ड में रेचन किया । चार सैकण्ड में एक श्वास – यह एक सामान्य विधि है । जब आवेश की प्रबलता होती है श्वास की संख्या पन्द्रह से बढ़कर बीस, तीस और चालीस तक हो जाती है । इससे श्वास-पर्याप्ति गड़बड़ा जाती है और जीवनी-शक्ति भी नष्ट होती है । आहार -पर्याप्ति, शरीर पर्याप्ति, इन्द्रिय-पर्याप्ति और श्वासोच्छ्वास पर्याप्ति – ये सब हमारे स्वास्थ्य के मौलिक आधार हैं । --- Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र भाषा पर्याप्ति और स्वास्थ्य भाषा पर्याप्ति और मनः पर्याप्ति इन दो पर्याप्तियों पर विचार करें । वैसे भाषा पर्याप्ति के साथ स्वास्थ्य का सीधा सम्बन्ध प्रतीत नहीं होता किन्तु भाषा-तंत्र भी बहुत प्रभावित करता है । यदि हम भाषा पर्याप्ति को ज्यादा काम में लेंगे तो समस्या पैदा हो जायेगी । भाषा पर्याप्ति की जितनी सक्रियता है काम करने की जितनी क्षमता है, यदि व्यक्ति उससे ज्यादा बोलता चला जाए तो जीवनी शक्ति कम होगी, स्वास्थ्य प्रभावित हो जाएगा इसीलिए वाणी संयम का विधान किया गया । कहा गया-तुम भाषा पर्याप्ति से भी अतिरिक्त काम मत लो । जो पशु दो क्विंटल भार उठाता है, उस पर पचास क्विंटल भार मत लादो । उतना ही भार लादो जितना सामान्यतः वह उठा सके । आदमी इतना ज्यादा बोलता है, इतना अनावश्यक बोलता है कि भाषा पर्याप्ति प्रभावित हो जाती है । भाषा पर्याप्ति का काम है पुद्गलों को ग्रहण करना । वह ग्रहण और विसर्जन आखिर कितना करेगा । स्वास्थ्य और संयम आहार पर्याप्ति को भी विश्राम की जरूरत है इसीलिए कहा गया-आहार का संयम करो, सारे दिन मत खाते रहो । शरीर-पर्याप्ति को भी विश्राम की जरूरत है इसलिए सारे दिन प्रवृत्ति मत करो । इन्द्रिय पर्याप्ति को भी विश्राम की जरूरत है इसलिए सारे दिन इन्द्रियों से काम मत लो । श्वास को भी विश्राम की जरूरत है इसलिए जल्दी जल्दी श्वास मत लो, इसको भी विश्राम दो । श्वास लेना जरूरी तो है, क्योकि श्वास के बिना आदमी जीवित नहीं रह सकता । एक आदमी मर गया । दूसरे ने पूछा- भई ! कैसे मरा ? बोलातुम जानते नहीं हो, वह बड़ा भुलक्कड़ था । लगता है श्वास लेना भूल गया और मर गया । ... यह नहीं कहा जा सकता कि श्वास मत लो किन्तु यह विवेक अवश्य जागना चाहिए- श्वास को भी विश्राम दो, श्वास का भी संयम करो | कभीकभी श्वास को रोक लो । जो व्यक्ति श्वास का संयम करता है, उसकी जीवनी-शक्ति बढ़ती है | अपने आवेशों के द्वारा श्वास को इतना वेग मत Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्याप्ति और स्वास्थ्य ४३ दो, जिससे जीवनी-शक्ति कम हो जाए । श्वास-संयम आवेश नियमन का अचूक प्रयोग है। भाषा का भी संयम करो । दिन भर मत बोलो । मन का संयम करो । ज्यादा मत सोचो | ज्यादा सोचोगे तो मनः-पर्याप्ति भी परेशान हो जाएगी। व्यक्ति बहुत ज्यादा चिन्तन करता है तो मन का तंत्र गड़बड़ा जाता है । ज्यादा सोचने वाला, रात-दिन सोचने वाला, मन को विश्राम न देने वाला मृत्यु की दहलीज पर अपना पैर रख देता है । स्वास्थ्य के लिए जरूरी है कि मनः पर्याप्ति को व्यवस्थित करो, मन का संयम करो । । भगवान् महावीर ने अनेक प्रकार के संयम बतलाए, उनमें ये छह प्रकार के संयम स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं-आहार का संयम, शरीर का संयम, इन्द्रिय का संयम, श्वास का संयम, भाषा का संयम और मन का संयम । जो व्यक्ति इनका संयम करता है, इन पर्याप्तियों की व्यवस्था में हस्तक्षेप नहीं करता, उन्हें अपना काम अपने ढंग से करने देता है, उस व्यक्ति का स्वास्थ्य बहुत अच्छा रहता है । हम स्वास्थ्य के सूत्रों पर विचार करते समय इन छह पर्याप्तियों को न भूलें। इनको छोड़कर हम स्वास्थ्य पर विचार करेंगे और स्वस्थ रहने का प्रयत्न करेंगे तो शायद सफल नहीं होंगे । जब हम इन छह पर्याप्तियों में ज्यादा हस्तक्षेप करते हैं तब एक प्रदूषण पैदा होता है, बीमारी का खतरा बढ़ जाता है । स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहने वाला व्यक्ति पर्याप्तिजीवनी, शक्ति की सुरक्षा और संवर्द्धन का प्रयत्न करता है इसीलिए स्वास्थ्य की कुंजी उसके हाथ में आ जाती है | Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुग्ण कौन? जीवन की दो प्रमुख घटनाएं हैं- सुख और दुःख । सुख के साथ आरोग्य का गहरा संबंध है । सुख के अनेक प्रकार बतलाए गए, उनमें एक प्रकार है--आरोग्य । दुःख के भी अनेक प्रकार बतलाए गए । उनमें एक प्रकार है रोग । आरोग्य सुख है और रोग दुःख है । रोग दुःख है, इसलिए कोई रोगी बनना नहीं चाहता। प्रश्न है— व्यक्ति रोगी बनना नहीं चाहता, फिर बनता क्यों है ? कौन-सा अवयव रोगी बनता है ? हमारे सामने विमर्शनीय विषय यह है-क्या हम अवयव और अवयवी को पृथक मानें । इन्हें सर्वथा अलगअलग मानें ? रुग्ण कौन है ? अंग है या अंगी ? एकान्त दृष्टि से विचार करने पर यह प्रश्न समाहित नहीं होता । अनेकान्त की दृष्टि से अवयव और अवयवी को पृथक् नहीं किया जा सकता, एक भी नहीं माना जा सकता। रोगी बनता है पूरा शरीर भगवती सूत्र का प्रसंग है महावीर ने गौतम से पूछा- यह जो गाड़ी का पहिया है, यह पूर्ण है अथवा खण्डित है ? यह खण्ड छत्र है या पूरा छत्र है ?' गौतम ने कहा- 'भंते ! जो खण्ड है, वह चक्का नहीं है । जो खण्ड है, वह छत्र नहीं है । जब वह पूर्ण बन जाता है, तब वह चक्र और Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुग्ण कौन ४५ हमारा सारा शरीर परिपूर्ण है | हम किसी अवयव को बांटकर नहीं देख सकते । पूरा शरीर रोगी बनता है । बहुत लम्बी चर्चा भगवान् महावीर ने प्रस्तुत की। एक परमाणु दूसरे परमाणु का स्पर्श करता है तो वह किस प्रकार करता है ? क्या एक परमाणु दूसरे परमाणु का देशतः स्पर्श करता है ? या सर्वात्मना स्पर्श करता है ? उत्तर मिला सर्वात्मना स्पर्श करता है, देश का स्पर्श नहीं करता । इस प्रकार के अनेक प्रश्न हैं, जिनके उत्तर में भगवान् महावीर ने कहा-रोग होता है, वह समग्र शरीर को होता है । वह एक अवयव को नहीं छूता, पूरे शरीर को छूता है । वह अभिव्यक्त एक अवयव पर होता है । घुटने का दर्द है या सिर का दर्द, किन्तु वह केवल घुटने या सिर का रोग नहीं हो सकता । पूरे शरीर पर वह रोग हुआ है । दुःखी कौन ? इस बारे में तीसरा सिद्धान्त है । महावीर से पूछा गया—दुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है या अदुःखी दुःख से स्पृष्ट होता है ? महाबीर ने कहा-जो दुःखी है वह दुःख से स्पृष्ट होता है | जो दुःखी नहीं है, वह कभी दुःख से स्पृष्ट नहीं होता । इस सूत्र को मेडिकल साइंस की भाषा में या वर्तमान रोग पद्धति की भाषा में इस प्रकार कहा जा सकता है जिसकी रोग प्रतिरोधक शक्ति प्रबल है, वह दुःख से पीड़ित नहीं होता | जिसकी रोग निरोधक शक्ति कम हो गई, जिसका रेजिस्टेंस पावर कम हो गया, इम्युनिटी सिस्टम कमजोर हो गया, वह रोग से पीड़ित होता है । जिसकी रोग प्रतिरोधक शक्ति विशिष्ट और इम्युनिटी सिस्टम शक्तिशाली है, उसके चारों ओर कीटाणु, जीवाणु चक्कर लगाते हैं, पर वह रोग से स्पृष्ट नहीं होता । कौन सा व्यक्ति : कौन सा रोग इन तीन दृष्टिकोणों से हम महावीर के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करें। अनेकान्त का सिद्धान्त है—अवयव को अवयवी से पृथक् मत मानो । अगर पृथक् मानोगे तो अलग इकाई बन जाएगी । कोई भी अवयव स्वतंत्र इकाई नहीं है । अवयव और अवयवी दोनों जुड़े हुए हैं । रोग की मीमांसा करते समय केवल घुटने के दर्द को मत देखो, केवल सिर के दर्द को मत Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र देखो. केवल किसी अवयव विशेष के दर्द को मत देखो । यह देखो कि उसके पीछे क्या है | इस स्थिति में दो रूप हमारे सामने आते हैं । पहला रूप यह है कि रोगी को किस प्रकार का रोग है । दूसरा रूप यह है कि किस प्रकार के रोगी को कौन-सा रोग है ? दोनों में बहुत अन्तर आ गया । रोगी के कौन-सा रोग ? इस भाषा में हम रोग को देखते हैं, रोगी को बिल्कुल गौण कर देते हैं । जहां हम देखते हैं कि किस प्रकार के रोगी को कौन-सा रोग है, वहां रोगी सामने आता है, रोग प्रमुख नहीं रहता । अनेकान्त का सिद्धान्त है- जहां एक प्रधान होता है, दूसरा गौण हो जाता है । जहां रोग को प्रधान करते हैं, वहां रोगी गौण हो जाता है । जहां रोगी को प्रधान करते हैं, वहां रोग गौण हो जाता है । जहां अवयवी को प्रधान करते हैं, वहां अवयव गौण हो जाता है और जहां अवयव प्रधान होता है, वहां अवयवी गौण हो जाता है । ये दोनों पहलू हमारे सामने हैं । शरीर से भी आगे देखें प्रश्न है— क्या हम शरीर को ही देखें ? अथवा अवयवी को ही देखें ? यदि महावीर के दृष्टिकोण को समझना है तो इतने से ही काम नहीं चलेगा, इससे और आगे जाना होगा । शरीर को देखो तो शरीर के साथ जो विद्युत्शरीर जुड़ा हुआ है, जो तैजस शरीर है, उसे भी देखो । प्राणशक्ति कैसी है ? तैजस शरीर कितना शक्तिशाली है ? उससे भी आगे यह देखो- सूक्ष्मशरीर कैसा है ? कर्म का उदय कैसा है ? स्थूल अवयव, स्थूल शरीर, सूक्ष्मशरीर और सूक्ष्मतम शरीर-इन सबको देखो । इनके साथ मन को देखो, भाव को देखो, चित्त को देखो । चित्त को देखकर तुम सही निदान कर पाओगे, सही चिकित्सा कर पाओगे। इन सबको अलग-अलग बांट दिया जाए तो सही बात प्राप्त नहीं होगी। यद्यपि विशेषज्ञता की दृष्टि से बांटा जाता है, विभक्त किया जाता है । एक डॉक्टर सर्जन है और एक डॉक्टर फिजीशियन है । एक चीड़फाड़ करता है, आप्रेशन करता है और दूसरा सामान्य चिकित्सा करता है । सर्जरी का विभाग अलग है और सामान्य चिकित्सा का विभाग अलग है । इन विभागों की उपयोगिता भी है । किन्तु समग्रता की दृष्टि से देखें तो सब विभक्त नहीं हो सकते । एक व्यक्ति ने निदान कराया, चिकित्सा Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुग्ण कौन ? ४७ कराई और दवाई लेते-लेते थक गया । वह कहता है-, अब मैं दवा नहीं लूंगा । डाक्टर कहता है, तुम्हारे कोई बीमारी नहीं है । उस स्थिति में यदि वह मानसिक चिकित्सक का परामर्श लेता है तो लाभ हो सकता है । उससे भी आगे भावनात्मक चिकित्सा की पद्धति में चला जाए तो उसको समाधान मिल जाए । इस सारी चर्चा में दो बिन्दु बन जाते हैं एक समग्र चिकित्सा की पद्धति और दूसरी विभक्त चिकित्सा की पद्धति । कहीं पर खण्डित चिकित्सा की पद्धति का भी उपयोग होता है । दुःख का पांचवां प्रकार आचार्यों ने दुःख के चार प्रकार बतलाए सहज दुःख, शारीरिक दुःख, मानसिक दुःख और आगन्तुक दुःख । अकस्मात् दुर्घटना हो गई, एक्सीडेंट हो गया, यह आगन्तुक दुःख है । किसी ने पत्थर मारा, चोट लग गई, यह आगन्तुक रोग है । इसका न शरीर से संबंध है और न मन से संबंध है। यह आगन्तुक दुःख है । एक होता है सहज दुःख । भूख और प्यास का लगना एक पीड़ा है । संस्कृत के काव्यकारों ने कहा- हुज्जठराग्निजा पीड़ा- जठराग्नि से पैदा होने वाली पीड़ा है भूख । शरीर में उत्पन्न होने वाले रोग शारीरिक दुःख हैं । मन पर आघात लगने से जो दुःख होता है, वह मानसिक दुःख है | मन पर अकस्मात् चोट लगती है, व्यक्ति दुःखी बन जाता है । दुःख का पांचवां प्रकार हो सकता है—भावनात्मक दुःख । वह दुःख, जिसका मन से कोई संबंध नहीं है । सामान्यतः यह नियम भी है और यह माना भी जाता है कि हमारे पूरे शरीर पर नियंत्रण है मस्तिष्क का | प्रश्न होता है—फिर मस्तिष्क पर किसका नियंत्रण है ? कहा जाता है-मस्तिष्क पर मन का नियंत्रण है । यह बात सही नहीं लगती | मन मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं कर सकता । मन पर नियंत्रण किसका है ? कहा जाता है-भाव का | भाव का मस्तिष्क से, हाइपोथेलेमस से बहुत गहरा संबंध है । हाइपोथेलेमस बहुत संवेदनशील होता है । वह भावनाओं को पैदा करता है। वस्तुतः मस्तिष्क पर मन का भी नियंत्रण नहीं है, भाव का भी नियंत्रण नहीं है । अनेकान्त की दृष्टि से फलित होता है—मस्तिष्क Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र पर नियंत्रण है चित्त का । इसी आधार पर एक शब्द बन गयासाइकासोमेटिक—मनोकायिक बीमारी । वास्तव में मनोकायिक बीमारी नहीं, चैत्तिक-कायिक रोग है । हमारे इस शरीर में सबसे ज्यादा नियामक, संचालक है—साइक, चित्त । चित्त मस्तिष्क पर नियंत्रण करता है और मस्तिष्क मन पर, भाव पर, शरीर पर और शरीर की हर क्रिया पर नियंत्रण करता है । रोगी को देखें इस संदर्भ में यह सिद्धान्त महत्वपूर्ण है—रोगी को देखो, रोग को मत देखो । रोगी की चिकित्सा करो, रोग की चिकित्सा मत करो । अवयवी की चिकित्सा करो, अवयव की चिकित्सा मत करो । हम समग्रता की दृष्टि से विचार करते हैं, मन और भावना पर विचार करते हैं तो अनेक रोगों की गहराई तक पहुंचने का अवसर मिलता है । एक व्यक्ति हृदय रोग से पीड़ित है । एक व्यक्ति के आमाशय में कैंसर है । एक व्यक्ति मधुमेह की बीमारी से पीड़ित है | ये भयंकर बीमारियां हैं । यदि हम इनकी केवल शरीर के आधार पर ही चिकित्सा करना चाहेंगे तो बड़ी त्रुटि होगी। हमें भावना तक जाना होगा । रोगी किस भावना वाला है, इस दृष्टि से रोग पर विचार करेंगे तो शायद बहुत जल्दी चिकित्सा होगी और रोगी बहुत जल्दी ठीक हो जाएगा । गणाधिपति तुलसी बीदासर में प्रवासित थे । श्वास का प्रकोप हो गया । जयुर से डाक्टर मेहता आए । उन्होंने निदान किया। निदान के बाद उन्होंने कहा'अब आप एक कि. मी. से अधिक पदयात्रा नहीं कर सकते ।' उसके बाद पूज्य गुरुदेव ने हजारों किलोमीटर की पद-यात्रा कर ली । यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है—किस प्रकार के रोगी को किस प्रकार का रोग है । जिसका मनोबल प्रबल है, जिसमें आत्मा की पवित्रता है, वह रोग पर दस दिन में विजय पा लेता है । जिसका मनोबल गिरा हुआ है, भावना मलिन है, आत्मबल नहीं है, उसके दस दिन में मिटने वाला रोग दस महीनों में भी नहीं मिटेगा, दस वर्ष में भी नहीं मिटेगा । यह निर्णय करना जरूरी है कि किस प्रकार के रोगी को किस प्रकार का रोग है । केवल रोग के आधार पर चिकित्सा नहीं हो सकती । दोनों को एक साथ समग्रता की दृष्टि से देखना होता है । रोगी का शरीर कैसा है, प्राणशक्ति कैसी है, आध्यात्मिक बल कैसा Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुग्ण कौन ? ४९ है, कर्मशरीर कैसा है ? भाव कैसा हैं ? मन का बल कैसा है ? इन सबको मिलाकर निर्णय करें तो हमारा निर्णय समीचीन होगा । अन्यथा सही निर्णय नहीं हो सकता । ऐसे बहुत लोग हैं । जो कहते हैं-अनेक प्रकार से निदान करा लिया, पर बीमारी का पता नहीं चला । पता क्यों नहीं चलता ? यह बड़ी समस्या है । इसका कारण एकान्तवादी दृष्टिकोण ही प्रतीत होता है । यदि अनेकान्तवादी दृष्टिकोण हो तो बीमारी का पता चल सकता है । ओर्गेन (अवयव) पर कोई बीमारी है तो यंत्र बता देगा । बीमारी के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है । इससे आगे भी देखना होगा कि भाव और मनोबल कैसा है? जिस व्यक्ति में यह प्रबल भावना बन जाती है—मेरे रोम-रोम में आनंद प्रवाहित है, वह फिर दुःख और निराशा का अनुभव नहीं करता। चाहे वह रोग किसी भी कारण से बना हो, रोग टिक नहीं पाएगा । उसकी रोग प्रतिरोधक शक्ति इतनी प्रबल बन जाती है कि वहां रोग वाली स्थिति नहीं रह पाती। अरोगी के रोग नहीं होता ___ हम इस प्रसंग में रोग को रोकने पर विचार करें । एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में जर्स, वायरस आदि-आदि रोग के आगन्तुक तत्व माने जाते हैं । दुर्घटना की बात छोड़ दें तो शरीर में होने वाले रोगों के ये मुख्य हेतु माने जाते हैं । हाम्योपैथी इसका अलग कारण मानती है । प्राकृतिक चिकित्सा वाले बीमारी का एक ही कारण मानते हैं हमारे उदर में जो विजातीय तत्व हैं या शरीर में जो विजातीय तत्व हैं, उन विजातीय तत्वों का इकट्ठा होना बीमारी है और विजातीय तत्वों का अलग होना आरोग्य है । अलग-अलग दृष्टिकोण हैं । हम महावीर को सामने रख कर रोग के हेतुओं पर विचार करें तो सबसे पहले इस लक्ष्य पर जाना होगा- दुःखी दुःख का अनुभव करता है । यह मान लेना होगा- यह रोगी है । अरोगी के रोग नहीं हो सकता । रोगी के रोग होता है | अरोगी के कभी रोग नहीं होता । एक रोग वह है जो व्यक्त हो रहा है । एक रोग वह है जो भीतर में है, पर व्यक्त नहीं हो रहा है । उस रोग का मूल हेतु है भाव जगत् । क्रोध, अहंकार कपट, दुःख, भय, घृणा, यह जो सारा भाव जगत् है, वह व्यक्ति को रोगी बनाए हुए है। भाव जगत् व्यक्ति को निरंतर रोगी बनाए रखता है । जो व्यक्ति रोगी है, उसकी जीवनी शक्ति भी कमजोर रहेगी । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र अध्यवसान और स्वास्थ्य यह नियम बनाया जा सकता है कषाय चक्र जितना उपशान्त, उतना कम रोगी । कषाय चक्र जितना प्रबल, उतना ही अधिक रोगी । ऐसी घटनाएं हमने देखी और सुनी हैं कि कषाय की प्रबलता व्यक्ति के विनाश का कारण बन जाती है । एक युवा शरीर में बहुत भयंकर क्रोध आया । चालीस वर्ष का वह युवक दो घंटे में चल बसा । ऐसा क्यों हुआ ? इस संदर्भ में महावीर का एक शब्द स्मृति में रखें– अध्यवसान । रोग का एक हेतु बनता है अध्यवसान | व्यक्ति की सूक्ष्म चेतना कैसी है? मस्तिष्कीय चेतना नहीं, भीतर की सूक्ष्म चेतना कैसी है ? अध्यवसान प्रशस्त है तो स्वास्थ्य प्रशस्त होगा। अध्यवसान अप्रशस्त है तो स्वास्थ्य अप्रशस्त होगा । अप्रशस्त अध्यवसान भीतर में रहेगा तो बीमारी को बढ़ने का मौका मिल जाएगा । अप्रशस्त अध्यवसान में व्यक्ति बीमारी से जल्दी आक्रान्त हो जाता है । यदि प्रशस्त अध्यवसान हो तो चाहे सर्दी का मौसम आए, गर्मी या बरसात का मौसम आए, कीटाणु अथवा जीवाणु कुछ भी आएं, शरीर पर प्रबल आक्रमण नहीं हो पाएगा । संदर्भ कर्म का इस विषय में कर्म सिद्धान्त की एक व्यवस्था को समझना जरूरी है। कर्म का सिद्धान्त सर्वात्मना सर्व-सव्वेणं सव्वे का सिद्धान्त है । एक व्यक्ति घृणा करता है, उससे मोहनीय कर्म का बन्ध होता है । क्योंकि वह मोह के कारण ही घृणा करता है | बन्ध होगा मोहनीय कर्म का, किन्तु उसके साथ सात या आठ कर्म का बन्ध होगा । अगर आयुष्य का बन्ध न हो तो सात कर्म का बन्ध होगा । उसमें रोग भी है, सात वेदनीय भी है, असात वेदनीय भी है । इतना अवश्य है कि यदि वह घृणा करता है, ईर्ष्या करता है तो मोहनीय कर्म को उसका भाग ज्यादा मिल जायेगा । जो डायरेक्टर है, उसका ज्यादा हिस्सा हो जाएगा । अन्य सब सहायक कर्मों को कम हिस्सा मिलेगा। इसका तात्पर्य है- कर रहा है घृणा, बन्ध होगा मोहनीय कर्म का, साथ में ज्ञान के आवरण का भी बन्ध होगा, दर्शनावरणीय और वेदनीय का भी बन्ध होगा । सबका बन्ध होगा । सबका हिस्सा अपना-अपना हो जाएगा और मुख्य हिस्सा मोहनीय कर्म का हो जाएगा । जैसे कर्म की व्यवस्था है, वैसे ही रोग Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रुग्ण कौन ? ५१ की व्यवस्था है । एक आदमी रागा बना, सिर का दद हुआ । जिस निमित्त से दर्द हुआ, उसे दर्द का ज्यादा हिस्सा मिल गया । किन्तु दर्द केवल वहीं नहीं हुआ, पूरे शरीर में हुआ । यह संभव है कि मेरुदण्ड या अन्य स्थान पर हम अनुभव न कर सकें, किन्तु हमारे पास कोई सूक्ष्म यंत्र हो तो पता लगेगा- केवल सिर में ही दर्द नहीं है | उस स्थान को ज्यादा हिस्सा मिला इसलिए वहां दर्द ज्यादा हो गया । इस सारी चर्चा को ध्यान में रख कर अगर हम स्वास्थ्य की मीमांसा करें तो हमारे सामने कुछ नए निष्कर्ष आएंगे । यदि आरोग्य का विकास करना है तो केवल शरीर पर ध्यान मत दो, मन पर भी ध्यान दो, भावना पर भी ध्यान दो। मन और भावना का संचालन करने वाला मस्तिष्क है, उस पर भी ध्यान दो । यदि हम ऐसा कर पाए तो महावीर की बात पूरी समझ में आएगी । आभामंडल को पहचानें पूछा गया—'भंते ! मन की एकाग्रता से क्या होता है ?' महावीर ने कहा—'मन की एकाग्रता से चित्त का निरोध होता है ।' मन को एकाग्र करो, चित्त का निरोध होगा । चित्त की जो वृत्तियां उभरती हैं, उन वृत्तियों में पवित्रता आएगी। यह जरूरी है कि भीतर से जो आने वाला है, उस पर ध्यान दें। हम अधिकांशतः चिकित्सा के क्षेत्र में बाह्य हेतुओं पर ज्यादा ध्यान देते हैं। बाहय और अंतरंग दोनों हेतु होते हैं | बीमारी का बाहरी हेतु हमारे सामने स्पष्ट है । इसके साथ अंतरंग हेतु पर भी ध्यान दें । यदि इस पर समग्रता से ध्यान दिया जाए, मन से भी आगे भाव की विशुद्धि और पवित्रता तक पहुंच जाएं तो आरोग्य-शास्त्र को एक नई उपलब्धि हासिल हो सकती है, चिकित्सा के क्षेत्र में एक अभिनव विकास हो सकता है । चिकित्सक ई. सी. जी. करते हैं । उसमें तरंगों का मापन होता है । ई. सी. जी. में चाहे हृदय का मापन करें, चाहे मस्तिष्क का मापन करें । अल्फा तरंग है तो समझ लेते हैं कि बहुत अच्छा चल रहा है | बीटा-थीटा के अलग-अलग निष्कर्ष हैं । जैसे हम मस्तिष्कीय तरंगों का मापन करते हैं, वैसे ही भाव का मापन हो सकता है आभामंडलीय उपकरणों के द्वारा | आभामंडल को पकड़ने के लिए Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२. महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र कुछ प्रयल हो रहा है, यंत्र भी विकसित हुए हैं जिनसे पता लग जाता है कि आभामंडल का रंग कैसा है | इस आधार पर बीमारी के मूल तक पहुंचने का भी पता लग जाएगा। समग्रता का दृष्टिकोण स्वास्थ्य के लिए जिन तीन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया, वे बहुत महत्वपूर्ण हैं ० रोगी अवयव विशेष नहीं, पूरा शरीर बनता है । ० रोगी ही रोग से ग्रस्त होता है, अरोगी कभी रोग से ग्रस्त नहीं होता। ० रोग सर्वात्मना होता है, आंशिक रूप में नहीं । . इन तीनों सिद्धान्तों की अनेकान्त के आधार पर मीमांसा करें तो रोगी और रोग को समझने में बहुत सुविधा होगी । यदि रोगी को नहीं पकड़ पाएंगे तो रोग की चिकित्सा बहुत जटिल हो जाएगी । हमारे एक मुनि जयपुर के सवाई मानसिंह हास्पिटल में थे । वरिष्ठ चिकित्सक ने उनसे कहा- 'महाराज ! ये जो जले हुए लोग आते हैं, उनकी चिकित्सा करना हमारे लिए बहुत कठिन हो जाता है, क्योंकि वे जीवन से निराश हो जाते हैं । जो जीवन से निराश हो गया, जिजीविषा नहीं रही, उसे कैसे बचा पाएंगे ? इसलिए आप एक काम करें, किसी प्रकार उनका आत्मबल बढ़ाएं | दवा हम दें और आत्मबल आप दें तो इनका कल्याण हो सकता है ।' । यह समग्रता का दृष्टिकोण है । यदि अनेकान्त का यह दृष्टिकोण चिकित्सा के क्षेत्र में व्यापक हो जाए, लागू हो जाए तो पूरी मानवजाति को एक नया अवदान दे सकता है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और स्वास्थ्य दृश्य जगत् में केवल शरीर के स्तर पर स्वास्थ्य और रोग का चिन्तन हुआ है । कुछ चिन्तन मन के स्तर पर भी हुआ है । आयुर्वेद में सामान्यतः तीन प्रकार के रोग मान्य हैं वातिक, पैत्तिक और श्लैष्मिक । आयुर्वेद के कुछ आचार्यों ने कर्म के स्तर पर भी रोगों का विश्लेषण किया है । उन्होंने माना है - रोगों के जनक पुण्य, पाप भी हैं । तज्जो रोगः कर्म-योगः - पुण्य पाप से उत्पन्न रोग कर्मज रोग हैं । इस प्रकार रोग केवल वातिक, पैत्तिक और श्लैष्मिक ही नहीं होते, वे कर्मज भी होते हैं । कर्मज रोगों का सम्बन्ध वात, पित्त और कफ से नहीं होता । उसका संबंध पूर्वजन्मकृत कर्मों से होता है, पुण्यपाप से होता है । भगवान् महावीर ने कर्मवाद का सर्वांगीण निरूपण किया और विविध कर्मों के विविध परिणामों की जानकारी दी । जैन दर्शन सम्मत चौदह पूर्व ग्रन्थों में 'कर्मप्रवाद' नामक पूर्व है । उसमें कर्म और उसके परिणामों का विस्तार से वर्णन प्राप्त है । आज वह महाग्रन्थ प्राप्त नहीं है, किन्तु कर्म विषयक जो सूत्र उपलब्ध हैं उनका गंभीर अध्ययन करने पर रोग, आरोग्य और कर्म का संबंध सूत्र सहज बुद्धिगम्य हो जाता है । उसके अध्ययन से नए-नए आयाम उद्घाटित होते हैं । घटना और सुख-दुःख हमारा शरीर सुख-दुःख के अनुभव का साधन है । यह एक बात है । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र हमें इससे आगे जाना होगा । सुख-दुःख का अनुभव कैसे होता है और किससे होता है, यह जानना आवश्यक है । घटना घटना होती है । वह न सुख देती है और न दुःख देती है । जब हमारी चेतना उस घटना से जुड़ती है तब सुख-दुःख का अनुभव होता है | केवल घटना से कोई सुख या दुःख का अनुभव नहीं होता | यदि घटना से सुख या दुःख का अनुभव होता तो बड़ा ऑपरेशन हो ही नहीं पाता। जब मेजर ऑपरेशन होता है तब रोगी को अनेसथेसिया सुंघाई जाती है अथवा शरीर के रोगग्रस्त अवयव को शून्य करने का अन्य प्रयोग किया जाता है | इससे कष्ट के संवेदन मस्तिष्क तक नहीं पहुंच पाते । उनका रास्ता रोक दिया जाता है। ऐसी स्थिति में कष्ट का अनुभव नहीं होता । इससे स्पष्ट है कि हमें सुख या दुःख का अनुभव किसी घटना विशेष से नहीं होता, किन्तु जब हमारी मस्तिष्कीय चेतना उससे जुड़ती है तब हमें सुख या दुःख का अनुभव होता है । शरीर सुख-दुःख के अनुभव का साधन मात्र है किन्तु जो सुख-दुःख का अनुभव करती है वह है हमारी चेतना । हमें उसे समझना होगा | जो चेतना सुख का अनुभव करती है, दुःख का संवेदन करती है, वह किससे प्रभावित होकर करती है, यह हमें समझना है | इस समस्या पर चिन्तन करते समय कर्म हमारे सामने आता है | कर्म आठ हैं | उनमें एक है वेदनीय कर्म । उसका कार्य है चेतना को प्रभावित करना । उससे सुख का संवेदन होता है, दुःख का संवेदन होता है । प्रियता और अनुकूलता की स्थिति में सुख का संवेदन होता है और अप्रियता तथा प्रतिकूलता की स्थिति में दुःख का संवेदन होता है । यह वेदनीय कर्म के प्रभाव से होता है। इस संवेदन के लिए, कर्म विपाक के लिए सामग्री का निर्माण होता है | इसे नो-कर्म कहते हैं | कर्म और नो-कर्म भिन्न-भिन्न हैं । नो-कर्म कर्म की सहायक सामग्री है। यह रोग का कारण बनता है । जब असात वेदनीय का संवेदन होता है, तब शरीर और मन में रोग की स्थिति पैदा हो जाती है । तब ही असात वेदनीय कर्म अपना फल दे सकता, संवेदन करा सकता । माध्यम सापेक्ष है विपाक ___ कर्म का विपाक माध्यम सापेक्ष होता है । हम उदाहरण के द्वारा इसे समझें कि किसी कर्म का विपाक होता है मतिभ्रंश । इस स्थिति में मति और बुद्धि भी विपरीत हो जाती है । मति, बुद्धि और भावना का विपर्यय करके Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और स्वास्थ्य ५५ ही कर्म अपना फल देता है । माध्यम के बिना कर्म फल नहीं दे सकता। ___असात वेदनीय कर्म का जब विपाक होता है, तब सबसे पहले कर्मशरीर की ऊर्जा बाहर निकलती है । वह ऊर्जा तैजस शरीर की ऊर्जा को अस्त-व्यस्त कर देती है । कर्मशरीर की ऊर्जा शरीर की ऊर्जा को, जैविक ऊर्जा को विपर्यस्त कर देती है । उससे हमारा नाड़ी-तंत्र प्रभावित होता है। उससे ग्रन्थि तंत्र तथा शरीर की सारी क्रियायें प्रभावित होती हैं और रोग का उदय हो जाता है । असात वेदनीय कर्म अपना काम कर लेता है । जब किसी कर्म का विपाक होना होता है तब सबसे पहले पूर्व तैयारी होती है। वह पूर्व तैयारी शरीर के माध्यम से होती है । करण चार हैं-काय करण, मनः करण, वाग् करण और कर्म करण । भगवती, सूत्र का एक प्रसंग है । गौतम ने भगवान महावीर से पूछा- 'भंते ! प्राणी सात वेदनीय और असात वेदनीय कर्म का अनुभव कैसे करता है ?' भगवान ने कहा- 'सात या असात वेदनीय कर्म का अनुभव करने के लिए ये चार करण माध्यम बनते हैं ।' मन एक करण है । इसके द्वारा सात-असात का अनुभव किया जाता है । इसी प्रकार शरीर के द्वारा, मस्तिष्क के द्वारा सात-असात का वेदन किया जाता है । संदर्भ असात वेदनीय कर्म का दो प्रकार की बीमारियां हैं (१) आगन्तुक और (२) कर्म विपाकज | सर्दी या गर्मी का मौसम आया । इस काल में अनेक मौसमी बीमारियां होती हैं । दुर्घटना हुई औरआदमी चोटग्रस्त हो गया । यह स्थिति असात वेदनीय कर्म को उदित करके आती है । सात घेदनीय कर्म का उदय नहीं हो रहा है । असात वेदनीय कर्म ने असात वेदना को पहले ही विपाक में ला दिया । यह एक प्रक्रिया है । यह आगन्तुक रोग के नाम से जानी जाती है । अब वह चाहे आयुर्वेद की भाषा में वात आदि से उत्पन्न है अथवा मेडिकल साइन्स की भाषा में वाइरस आदि से उत्पन्न रोग है । वह भी आगन्तुक रोग है। वह असात वेदनीय कर्म को खींच कर उदय में ले आता है । एक आदमी सुख का संवेदन कर रहा है, कोई समस्या सामने नहीं है । आदमी बैठा है और अकस्मात् एक गाड़ी आती है और उससे टकरा जाती है । वह आगन्तुक Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र स्थिति है । यह स्थिति असात वेदनीय को खींचकर उदय में ले आती है और मनुष्य कष्ट का अनुभव करने लगता है । उस समय अकुशल स्थिति होने पर व्यक्ति असात वेदनीय का अनुभव करने लग जाता है । ऐसी भी स्थिति बनती है कि कोई आदमी सात वेदनीय का अनुभव कर रहा है और अचानक वह असात का अनुभव करने लग जाता है । हम चाहें आगन्तुक रोग मानें या समस्या मानें । इस पर आयुर्वेद के आचार्यों ने विचार करते हुए कहाआगन्तुक बीमारी भी हमारे वात, पित्त और कफ को प्रभावित करती है और हमें रोग का अनुभव होने लगता है । यह है असात वेदनीय कर्म की उदीरणा । एक स्थिति यह है कि कर्म अपनी प्रक्रिया से उदय में आता है, विपाक में आता है । जब असात वेदनीय कर्म विपाक में आता है तब वह अपने आप अकुशल परिस्थिति का निर्माण करता है, व्यक्ति को असाता का अनुभव कराता है । असात का अनुभव होने पर रोग से संबंध जुड़ जाता है । शरीर को कष्ट का अनुभव होता है, दुःख का संवेदन होता है और कोई न कोई रोग प्रगट हो जाता है । यह जान पाना कि कौन से कर्म के विपाक से कौन सी बीमारी होती है, बहुत ही कठिन है । यह सूक्ष्म तथ्य है । सूक्ष्मता में जाने पर यह जाना जा सकता है कि कौन सा कर्म विपाक कौन से रोग के लिए जिम्मेवार है ? स्थूल दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि संवेदन होता है और वह संवेदन किसी न किसी रोग के कारण होता है । रोग और कर्म रोग और कर्म का संबंध आचार - शास्त्र से जुड़ा हुआ है । असात वेदनीय तथा सात वेदनीय कर्म का बंध कैसे होता है ? इस विषय की चर्चा अनेक आगमों में प्राप्त है । सात वेदनीय कर्म-बंध के हेतु ये हैं प्राण, भूत जीव और सत्व की अनुकंपा, प्राण, भूत, जीव और सत्व को दुःखित न करना, दीन न बनाना, शरीर का अपचय करने वाला शोक पैदा न करना, अश्रुपात कराने वाला शोक पैदा न करना । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और स्वास्थ्य ५७ • लाठी आदि का प्रहार न करना ।। • शारीरिक परिताप न देना । साता वेदनीय शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय । असात वेदनीय कर्म बंध के हेतु हैं- प्राण, भूत, जीव और सत्व की अनुकंपा न करना, उन्हें दु:िखत करना, दीन बनाना, शरीर का अपचय करने वाला शोक पैदा करना, अश्रुपात कराने वाला शोक पैदा करना, लाठी आदि का प्रहार करना, शारीरिक परिताप देना और असाता वेदनीय शरीर प्रयोग नाम कर्म का उदय । एक श्रृंखला बनती है— रोग, असात वेदनीय कर्म का बंध तथा असात वेदनीय कर्म के विपाक की स्थितियां | किसी रोग के रोगी को देखकर केवल व्याधि का निदान करना, औषधि के द्वारा उसकी चिकित्सा करना, रोग-उपशमन का उपाय करना- यह सब स्थूल घटना है । ऐसा होता है तो असात वेदनीय का विपाक प्रबल नहीं होता, बीमारी मिट जाती है । यह उसी स्थिति में होता है जब कर्म बंध मंद है । यदि असात वेदनीय कर्म-बंध तीव्र है तो हजार दवा देने पर भी रोग शांत नहीं होता । आज डॉक्टर, वैद्य तथा रोगी स्वयं यह मानता है कि वर्षों तक औषधि लेने पर भी रोग से छुटकारा नहीं मिला । यह कर्मज रोग की स्थिति है । कोई गाढ़ कर्म किया हुआ है, क्रूरता की प्रवृत्ति की हुई है तो उससे उपार्जित असात वेदनीय कर्म के पुद्गल इतने प्रबल हो जाते हैं कि बीमारी असाध्य बन जाती है । उपचार करने पर भी वे पुद्गल इतना प्रभाव डालते हैं कि रोगी अर्थहीन और शक्तिहीन हो जाता है । वह सभी चिकित्सा पद्धतियों को व्यर्थ कर डालता है । आध्यात्मिक रोग : बाह्य रोग रोग दो प्रकार के हैं- बाह्य उपाय-साध्य और आभ्यन्तर उपाय-साध्य । जैन आगमों के आधार पर रोग दो भागों में विभक्त हैं— आध्यात्मिक रोग और बाह्य रोग । कर्म से होने वाले रोग आध्यात्मिक रोग हैं । ये भीतर से उत्पन्न होते हैं, बाहर का कोई निमित्त नहीं मिलता । बाह्य रोग बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होते हैं । ये बाह्य उपाय-साध्य होते हैं । इनकी बाह्य साधनों द्वारा चिकित्सा की जा सकती है । आध्यात्मिक रोगों की चिकित्सा बाह्य साधनों Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र से नहीं की जा सकती क्योंकि इन रागा क परमाणु इतन प्रबल होते हैं कि वे बाह्य औषधियों को स्वीकार नहीं करते, उनको नकार देते हैं। उनकी चिकित्सा आभ्यन्तर उपाय साध्य होती है । हम इसे एक आगमिक घटना से समझें । कुमार अनाथी धनाढ्य सेठ का पुत्र था । एक बार उसकी आँखों में भयंकर वेदना हो गई । वेदना असह्य थी,असीम थी । बहुत उपचार किये । पिता ने उपचार कराने में धन का प्रचुर व्यय किया । दूर-दूर से प्राणाचार्यों को बुलाया गया । अनेक तांत्रिक और मांत्रिक भी आए । सभी ने अपनेअपने ढंग से चिकित्सा की । वेदना कम नहीं हुई । उसकी तीव्रता वैसी ही बनी रही । कुमार अनाथी ने आभ्यंतर चिकित्सा का सहारा लिया । वे जान गये कि यह कर्मज बीमारी है । उन्होंने मन ही मन संकल्प किया । कर्मों पर संकल्प का प्रहार हुआ और कुमार अनाथी की अक्षि-वेदना शांत हो गई। जहां कोई चिकित्सा पद्धति कारगर नहीं हुई, वहां संकल्प से की जाने वाली चिकित्सा पद्धति सफल हो गई । कर्मज बीमारी के लिए यह पद्धति ही सफल हो सकती है । विश्वास के द्वारा चिकित्सा की जा सकती है । संकल्प और भाव शुद्धि के द्वारा चिकित्सा की जा सकती है | भाव-शुद्धि और मानसिक शुद्धि भी रोग निवारण में सहायक बनती है । हम रोग के कारण को समझें और यह जानें कि रोग बाह्य निमित्तों से पैदा हुआ है या आन्तरिक निमित्तों से ? यदि आन्तरिक कारणों से उत्पन्न हुआ है तो वहां आभ्यंतरिक चिकित्सा सफल होगी, बाह्य चिकित्सा नहीं। सारी चिकित्सा पद्धतियां सर्वत्र सफल नहीं होती । लोग यह जानते हैं कि ध्यान, आसन, प्राणायाम आदि के द्वारा रोग की चिकित्सा होती है। परन्तु यह कथन सापेक्ष है, सर्वथा निरपेक्ष नहीं है । कर्मवाद का दर्शन यह स्पष्ट करता है कि यदि रोग आभ्यन्तरिक कारणों से उत्पन्न है तो आध्यात्मिक चिकित्सा बहुत सफल होगी। वहां ध्यान आसन, प्राणायाम आदि से रोग-मुक्त हुआ जा सकेगा । यदि बाह्यों कारणों से रोग उत्पन्न है तो ये साधन आरोग्य प्राप्ति में कुछ सहायक बन सकते हैं, परन्तु निरपेक्ष रूप से सहायक नहीं होते । सारे रोग अध्यात्म से मिट जाएंगे—यह ऐकान्तिक विचार भी संगत नहीं है और सारे रोग बाह्य संसाधनों से दूर हो जाएंगे—यह ऐकान्तिक विचार भी संगत नहीं है । रोग की उत्पत्ति की कारण-मीमांसा के अनुसार चिकित्सा करने पर ही रोग का निवारण हो सकता है । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और स्वास्थ्य ५९ कैसे होता है वेदन ? वेदनीय कर्म के दो भेद हैं—सात वेदनीय और असात वेदनीय । इनका वेदन कैसे होता है ? शरीर एक करण है । इनका वेदन शरीर के द्वारा होता है। असात और सात-दोनों का वेदन शरीर से होता है । शरीर की ऊर्जा यदि ठीक है तो सात वेदनीय का संवेदन होगा । यदि शरीर की ऊर्जा अस्तव्यस्त है तो असात वेदनीय का संवेदन होगा, दुःख का संवेदन होगा । तैजसशरीर से स्थूल-शरीर को ऊर्जा की शक्ति प्राप्त होती है । शरीर की एक संरचना हुई है । आभामण्डल बना है । यदि यह सम्यग् स्थिति में रहता है तो सात का संवेदन होगा और यदि वह गड़बड़ा जाएगा तो असात का संवेदन होगा | मन की भी यही स्थिति है | मन भी ऊर्जा से संचालित है | हमारी जैविक ऊर्जा ठीक काम कर रही है, तैजसशरीर की ऊर्जा समीचीन है तो मन प्रसन्न रहेगा, आनन्दित रहेगा। यदि ऊर्जा समीचीन नहीं है तो मन अशान्त हो जाएगा, दुःखी बन जाएगा, बुरे विचार आने लगेंगे । जैसे शरीर सुख-दुःख के संवेदन का हेतु बनता है, वैसे ही मन और वाणी भी संवेदन के हेतु बनते हैं । ध्वनि के सूक्ष्म प्रकंपन भी सुख-दुःख के संवेदन में निमित्त बनते हैं । संगीत सुनने से सुख का संवेदन होता है और मातमी धुन सुनने से मानसिक दुःख का संवेदन होने लग जाएगा । हमारी ध्वनि के प्रकंपन यदि बहुत अच्छे हैं, भय मुक्त हैं तो हमें सुख का संवेदन होगा । यदि स्वयं की ध्वनि के प्रकंपन अच्छे नहीं है तो दुःख का संवेदन प्रारंभ हो जाएगा । यह बहुत ही महत्वपूर्ण बात है । संवेदन के साधन संवेदन के चार साधन हैं— शरीर, मन, वाणी और कर्म । शरीर, मन और वाणी-यह एक भूमिका है | यह शरीर के प्रकंपनों से संबंधित है । दूसरी भूमिका है कर्म की, कर्म के प्रकंपनों की । कर्म एक करण है । यह सात वेदनीय कर्म के अनुभव का साधन बनता है तो असात वेदनीय कर्म के अनुभव का भी साधन बनता है । कर्मशास्त्रीय दृष्टि से मीमांसा करें तो सातवेदनीय कर्म अकेला सुख का साधन नहीं बनता और असातवेदनीय कर्म अकेला दुःख का निमित्त नहीं बनता। इनके साथ समवाय होता है । जहां सात वेदनीय Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र का विपाक होता है, सुख का अनुभव होना होता है वहां वह कर्म अपने साथ नो-कर्म को रखेगा, क्योंकि पुद्गलों को ग्रहण करना सात वेदनीय का कार्य नहीं है । बाहर से पुद्गलों को ग्रहण किए बिना सुख-दुःख का संवेदन हो नहीं सकता । उस सहयोगी कर्म की संज्ञा है- नो-कर्म । सुख के संवेदन में शुभ नाम-कर्म का योग रहता है । वह वेदनीय कर्म का साथी बनता है। उसके निमित्त से इष्ट पुद्गलों का ग्रहण होता है । वे इष्ट पुद्गल सुख के संवेदन में निमित्त बनते हैं । असात वेदनीय कर्म विपाक के समय अशुभ नाम-कर्म का योग रहता है । उससे अनिष्ट पुद्गलों का ग्रहण होता है और वह दुःख के संवेदन में निमित्तभूत बनता है | वेदनीय कर्म केवल नाम कर्म को ही नहीं, मोहनीय कर्म को भी साथ में लेता है । इस सहयोगी के बिना सुख-दुःख के अनुभवों की स्थिति का पूरा निर्माण नहीं होता। कर्म सीधा फल नहीं देता । वह पहले विपर्यय पैदा करता है | मोहनीय कर्म का यह काम है कि वह पहले दृष्टिकोणों को विपर्यस्त करता है । दृष्टिकोण का विपर्यय होते ही रोग की पूर्व भूमिका तैयार हो जाती है । मनोकायिक बीमारियां मिथ्या दृष्टिकोण के कारण पैदा होती हैं । कुछ बीमारियां मिथ्या चारित्र के कारण होती हैं । आचार, विचार और व्यवहार की विपरीतता के बिना बीमारी को पैदा होने का अवसर नहीं मिलता । सारी भावनात्मक बीमारियों का यही निमित्त बनता है। मोहनीय कर्म अपने दोनों कार्य- मिथ्या दृष्टिकोण और मिथ्या चारित्र को पूरा कर वेदनीय के विपाक में सहयोगी बनता है । असात वेदनीय का विपाक होता है तब वह मिथ्या दृष्टिकोण और मिथ्या चारित्र को प्रस्तुत कर देता है और सात वेदनीय के विपाक में सम्यग् दृष्टिकोण और सम्यक् चारित्र प्रस्तुत हो जाता है । रसायन है आचार - आयुर्वेद का आधार है— रसायन । यह सबसे बड़ी औषध विधि है। रसायन जरा और व्याधि को नष्ट करने वाला होता है । अनेक प्रकार के रसायन बने । बतलाया गया कि आचार सबसे मुख्य रसायन है। यदि आचार सम्यग् नहीं है तो कोई अन्य रसायन कार्यकारी नहीं होता । अनेक रसायन खाने पर भी व्यक्ति स्वस्थ नहीं होता । स्वास्थ्य के प्रसंग में आचार को नहीं Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद और स्वास्थ्य ६१ भुलाया जा सकता । कर्मशास्त्रीय भाषा में सुख-दुःख का सम्बन्ध वेदनीय कर्म से जुड़ता है और आचारशास्त्रीय भाषा में उसका संबंध आचार से जुड़ता है । सुख-दुःख के संवेदन में तीन कर्मों की त्रिपुटी बनती है— वेदनीय कर्म, नाम कर्म और मोहनीय कर्म । इन तीनों में मुख्य है वेदनीय कर्म । इनके आधार पर शरीर सुख-दुःख का संवेदन करता है । आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि चिकित्सा पद्धतियों में बाह्य कारणों पर अधिक ध्यान दिया जाता है । रोग का निदान करते समय भी बाह्य कारणों को देखा जाता है । जब तक आन्तरिक कारणों - कर्मों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा तब तक निदान पद्धति और चिकित्सा पद्धति अधूरी रहेगी । आज चिकित्सा की प्रचलित पद्धतियों के अतिरिक्त अन्यान्य पद्धतियों का विकास आवश्यक है । भावना से भी चिकित्सा की जाती | औषध प्रयोग के साथ-साथ भावना का प्रयोग भी कार्यकारी होता है । यदि औषध के साथ मैत्री की भावना, अनुकंपा की भावना का प्रयोग किया जाए तो औषध की शक्ति वृद्धिंगत होती है । यदि बीमारी क्रूरता के कारण उत्पन्न हुई है तो क्रूरता की वृत्ति का परिष्कार कर सबके साथ मैत्री की भावना को पुष्ट किया जाता है, बीमारी नष्ट हो जाती है । यदि बाह्य उपचार से रोग नष्ट नहीं होता है तो आभ्यन्तर उपाय करना चाहिए। एक नई विधि का प्रसार होगा और सही चिकित्सा होगी । यदि रोगी में मैत्री, प्रमोद और करुणा की भावना पैदा की जा सके, उसके मन की प्रसन्नता और निर्मलता को बढ़ाया जा सके, क्रोध, मान, लोभ, माया, घृणा, ईर्ष्या आदि भावनाओं का परिष्कार किया जा सके तो एक आध्यात्मिक चिकित्सा पद्धति का उन्नयन हो पाएगा और उस पद्धति का आधार होगा- कर्मवाद | Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन शैली और स्वास्थ्य जीवन का प्रत्यक्ष सम्बन्ध शरीर से तथा परोक्ष सम्बन्ध मन के अनेक उपादानों और निमित्तों से है । भगवान् महावीर ने जिन तत्वों का प्रतिपादन किया, उनमें प्रधान तत्व है—संयम । महावीर के इस दृष्टिकोण के अनुसार जीवन शैली संयम प्रधान होनी चाहिए । समता, संतुलन आदि अनेक तत्व हैं । इन सबका सम्बन्ध है संयम से | सभी व्यक्ति समता, संतुलन आदि चाहते हैं किन्तु जब तक संयम की साधना नहीं होती, तब तक न समता आती है, न उपशम आता है और न संतुलन आता है । सामान्यतः संयम का अर्थ बहुत सीमित समझा जाता है । हमें उसे व्यापक अर्थ में समझना होगा । यही समझा जाता है कि किसी विशेष प्रकार का व्रत लेना संयम है । पतंजलि के अनुसार संयम का अर्थ है-- धारणा, ध्यान और समाधितीनों का एकत्र योग । कोरी धारणा, कोरा ध्यान अथवा कोरी समाधि संयम नहीं है । तीनों का एकत्र योग संयम है । आधुनिक परिप्रेक्ष्य में महावीर द्वारा प्रतिपादित संयम का अर्थ है मस्तिष्कीय नियंत्रण | जब तक मस्तिष्क के अनेक प्रकोष्ठों, उनके संबंधों या विभागों पर विचार न करें तो समता, उपशम और संतुलन की साधना नहीं हो सकती । मस्तिष्क का एक भाग है— इमोशनल ब्रेन | इसका संबंध इमोशंस से है । उपशम, कषाय-विजय आदि तभी संभव है जब इमोशनल ब्रेन पर नियंत्रण होता है । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन शैली और स्वास्थ्य ६३ संयम का अर्थ मस्तिष्क का एक भाग है- लिम्बिक सिस्टम । यहां भावनाएं उपजती हैं। सुख-दुःख, प्रसन्नता आदि की अनुभूति होती है । जब तक लिम्बिक सिस्टम पर नियंत्रण नहीं होता तब तक भावनाओं पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता । मस्तिष्क भाव-नियंत्रण का नियामक साधन है । मस्तिष्क पर नियंत्रण के अभाव में न आहार संयम हो सकता है और न अन्य संयम ही हो सकता है । लोग जानते हैं कि तम्बाकू का सेवन करना, जर्दा खाना, मद्यपान करना आदि स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है पर वे छोड़ नहीं पाते । इसका स्पष्ट हेतु है कि उनका अपने मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं है । यदि मस्तिष्क पर नियंत्रण हो जाए तो वह एक क्षण में छूट जाता है। रोग उत्पत्ति के हेतु भगवान् महावीर ने रोग की उत्पत्ति के नौ कारण बतलाए (१) अच्चासणयाए, (२) अहितासणयाए, (३) अतिणिद्दाए, (४) अतिजागरितेणं, (५) उच्चारणिरोहेणं, (६) पासवणणिरोहेणं, (७) अद्धाणगमणेणं, (८) भोयणपडिकूलताए (९) इंदियत्थविकोवणयाए १. अत्यधिक भोजन २. अहितकर भोजन ३. अतिनिद्रा ४. अतिजागरण ५. मल बाधा को रोकना ६. मूत्र बाधा को रोकना ७. पंथगमन ८. प्रतिकूल भोजन तथा ९. इन्द्रियार्थ-विकोपन । भोजन पहला कारण है—अहितकर भोजन करना । भोजन में खान-पान की सभी वस्तुएं आ जाती हैं । तम्बाकू, जर्दा, शराब आदि वस्तुओं का बार-बार खाना भी रोग का हेतु है | अधिक वस्तुओं का उपयोग करना भी रोग का हेतु है । मनुष्य यह जानता है, पर वह आहार का संयम कर नहीं पाता । आहार का संयम इसलिए नहीं हो पाता कि मस्तिष्क पर नियंत्रण नहीं है। यदि मस्तिष्क पर नियंत्रण होता है तो तत्काल आहार का संयम हो सकता है। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र श्रम स्वास्थ्य के लिए परम आवश्यक तत्व है । श्रम के बिना रक्त का संचार भी नहीं होता और व्यक्ति स्वस्थ नहीं रह पाता | महावीर ने रोग का एक कारण बताया अत्यशन अर्थात् अत्यधिक खाना । अत्यधिक बैठे रहना भी रोग का एक कारण है। कुछ लोग सात-आठ घण्टा बैठे रहते हैं। वे श्रम से जी चुराते हैं और रोग से आक्रान्त हो जाते है । अनिद्रा : अतिनिद्रा अनिद्रा या अतिनिद्रा भी रोग का कारण बनती है । नींद स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है, अनिवार्य है । इसलिए अनिद्रा और अतिनिद्रा से बचना चाहिए, संयमित निद्रा लेनी चाहिए । आयुर्वेद में भी अतिनिद्रा से होने वाली हानियों का उल्लेख है | उसमें दिवा-शयन-दिन में सोने का निषेध है । आयुर्वेद के अनुसार नींद और कफ का सम्बन्ध है । योग के अनुसार विचार करने पर यह तथ्य सामने आता है कि अतिनिद्रा से आयु घटती है । नींद में श्वास की संख्या बढ़ जाती है | ज्यादा नींद लेने वाला जीवनी शक्ति को कम करता है | अति जागरण भी रोग का एक कारण है । वाणी का असंयम वाणी का असंयम भी रोग पैदा करता है | इससे भी जीवनी शक्ति अधिक खर्च होती है । जैविक शक्ति के क्षरण के तीन मुख्य साधन हैआंख, वाणी और जननेन्द्रिय । अंगुलियों से भी विद्युत् निकलती हैं । जिन लोगों ने आभामण्डल को देखा है या आभामण्डल को जो देखना जानते हैं उन्हें ज्ञात है कि अंगुलियों से विद्युत् का प्रवाह निकलता है । अधिक बोलने वाला अपनी जीवनी शक्ति का अत्यधिक क्षरण करता है । अब्रह्मचर्य ___अब्रह्मचर्य भी रोग का प्रमुख साधन है । जीवन के तीन आलंबन हैंब्रह्मचर्य, आहार और निद्रा । काम की अति, आहार की अधिकता और नींद की अधिकता- तीनों रोग के कारण बनते हैं | इन सब पर नियंत्रण करना Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन शैली और स्वास्थ्य ६५ संयम है। संयम अर्थात् मस्तिष्क पर नियंत्रण । जिसने मस्तिष्क पर नियंत्रण करना सीखा है, वह बहुत स्वस्थ रह सकता है । क्रोध के संवेग के प्रबल होने पर आदमी बीमार हो जाता है । इसका कारण है— मस्तिष्क में तनाव । मस्तिष्क में तनाव आते ही स्नायु संस्थान दुर्बल हो जाता है । जिसका स्नायु संस्थान दुर्बल होता है उस पर रोग का आक्रमण होता रहता है । आयुर्वेद मानता है कि क्रोध से पित्त का प्रकोप बढ़ता है । उससे एसीडीटी बढ़ती है, अल्सर हो जाता है । स्वास्थ्य और मस्तिष्क स्वास्थ्य और मस्तिष्क- दोनों में गहरा सम्बन्ध है । जो व्यक्ति मस्तिष्क पर नियंत्रण करना नहीं जानता, नियंत्रण की विधियों को नहीं जानता, वह शारीरिक, मानसिक और भवानात्मक दृष्टि से भी स्वस्थ रह नहीं सकता । आगंतुक बीमारियों पर उसका कंट्रोल न भी हो, परन्तु बड़ी-बड़ी जो बीमारियां हैं, उनका सम्बन्ध संयम और असंयम से बहुत है | शरीरशास्त्र में मस्तिष्क का गहरा अध्ययन हुआ है । उसमें अल्फा और थेटा - इन तरंगों का अध्ययन हुआ है । अल्फा से मस्तिष्क का तनाव कम होता है । इसका तात्पर्य है कि ग्रन्थियों का स्राव संतुलित होता है । जब हमारी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का स्राव संतुलित होने लगता है तब मनुष्य स्वस्थ रहता है । आरोग्य है समता हम अध्यात्म के इन तत्वों पर विचार करें और जीवन शैली में इनका समावेश करें । समता अध्यात्म का तत्व है । समता का अर्थ है— समभाव, कहीं झुकाव नहीं, कहीं विषमता नहीं । न चिन्तन का वैषम्य, न कार्य का वैषम्य । आयुर्वेद का सूत्र है - 'दोषवैषम्यं रोगः दोषसाम्यं आरोग्यम् ।' दोषों की विषमता रोग है और दोषों का साम्य आरोग्य है । जब वात पित्त, और कफ विषम हो जाते हैं तब रोग उत्पन्न होता है और जब ये तीनों दोष सम अवस्थाओं में रहते हैं तब स्वास्थ्य होता है । मानसिक समता आरोग्य है । अतः समता और स्वास्थ्य को पर्यायवाची मान सकते हैं। जहां समता है वहां स्वास्थ्य है और जहां स्वास्थ्य है वहां समता है । जहां विषमता है वहां रोग Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र है और जहां रोग है, वहां विषमता है। अहंकार, कपट, लोभ- ये सब रोग के उत्पादक हैं । माधव निदान ग्रन्थ में हृदय को दुर्बल बनाने वाले कारणों में एक कारण लोभ को माना है । जिसमें लोभ की प्रवृत्ति अधिक होगी, उसका हृदय दुर्बल होगा। सभी संवेग स्वास्थ्य को अस्त-व्यस्त कर देते हैं । हमारी जीवन शैली उपशम प्रधान, समता प्रधान तथा संतुलन प्रधान होनी चाहिए । इस प्रकार की जीवन शैली से शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रोगों से बचा जा सकता है । जीवन शैली का मुख्य तत्व हैसंयम । यह तत्व सभी तत्वों के साथ अनुस्यूत है । जिस जीवन शैली में यह तत्व होता है वह जीवन सुखी और आनन्दप्रद होता है । जरूरी है प्रशिक्षण प्रेक्षाध्यान पद्धति में अनुप्रेक्षा तथा कुछ अंशों में सम्मोहन का प्रयोग कराया जाता है । यह इसलिए कि मस्तिष्कीय नियंत्रण तथा भावनात्मक नियंत्रण सध सके । अनुप्रेक्षा में एक निश्चित शब्दावली को बार-बार दोहराया जाता है । अर्थात् इस प्रक्रिया से हम मस्तिष्क को सुझाव देते हैं । यह मस्तिष्क को प्रभावित करता है । मस्तिष्क को प्रभावित करने वाला मुख्य तथ्य हैभावना । भावना का अर्थ है— बार-बार अभ्यास । जब मस्तिष्क में एक ही भावना बार-बार उभरती है तो वह मस्तिष्क प्रशिक्षित हो जाता है । उसके प्रशिक्षण के बिना संयम की बात सधती नहीं । मस्तिष्क सुझाव को स्वीकार करता है और इस स्वीकृति का कर्मशास्त्रीय कारण है लेश्या । यह प्रवाह भीतर विद्यमान है । यही हमारे व्यवहार को प्रभावित करता है । शरीर - शास्त्र की दृष्टि से माना जाता है कि ग्रन्थियों का स्राव संतुलित होता है तब स्वास्थ्य बना रहता है और जब यह स्राव असंतुलित हो जाता है तब अस्वास्थ्य उभर आता है । इसी प्रकार हमारा भीतरी प्रवाह लेश्या भी हमारे स्वास्थ्य तथा अस्वास्थ्य के लिए जिम्मेवार है । हम पवित्र लेश्या या भावना का प्रयोग करें, मस्तिष्क उससे प्रभावित होगा । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन शैली और स्वास्थ्य ६७ कार्यकारी होते हैं स्नायुगत संस्कार आगमों में एक महत्वूर्ण शब्द है भावियप्पा-भावितात्मा । भावितात्मा वह होता है, जिसने अपने मन को भावित, वासित कर लिया है | मस्तिष्क और स्नायु-संस्थान को निरपेक्ष होकर अपने अनुसार बना लिया है । स्नायुगत संस्कार बहुत कार्यकारी होते हैं । कुछ क्रियाएं शारीरिक और स्नायविक अभ्यास के कारण भी चलती हैं | जिस घर में रहते हैं और प्रतिदिन जिन सीढ़ियों पर आरोहण-अवरोहण करते हैं, वहां प्रतिदिन जागरूक रहने की आवश्यकता नहीं होती । सीढ़ियों पर पैर अपने आप उठेंगे और आगे बढ़ते जाएंगे । सीढ़ियों की ऊँचाई की ओर प्रतिपल ध्यान रखने की आवश्यकता नहीं रहेगी । यह सारा स्नायविक अभ्यास के कारण होता है । यदि अन्य सीढ़ियों पर चढ़ना पड़े तो वहां अत्यन्त जागरूक रहना होता है । सीढ़ियों की ऊँचाई को ध्यान में रखकर पैर रखना होता है । हम स्नायु-संस्थान को जो अभ्यास देते हैं वह वैसा ही करता रहता है । कुछ व्यक्तियों को विचित्र रूप में स्नायविक अभ्यास हो जाता है | कुछ की अंगुलियां हिलती रहती हैं । कागज पेन्सिल न होने पर भी लिखने की मुद्रा बनी रहती है । एक व्यक्ति को ऐसा स्नायविक अभ्यास था कि वह कहीं भी बैठा रहता तो निरन्तर लकीरें खींचता रहता। एक बार वह अपने मित्रों के साथ नौका-विहार में गया । वहां भी वह हाथ बाहर निकालकर अंगुली से पानी पर लकीरें खींचने लगा । लोगों ने उसके स्नायविक अभ्यास के लिए आश्चर्य व्यक्त किया । मस्तिष्कीय नियंत्रण का सूत्र स्नायु-संस्थान को किस प्रकार का अभ्यास देना है, यह व्यक्ति पर निर्भर करता है । अच्छा या बुरा जैसा भी अभ्यास दिया जाएगा, स्नायु संस्थान वैसा करता रहेगा | साधना का प्रयोजन यही है कि जो दिया हुआ अभ्यास हितकर नहीं है, उसे बदलकर दूसरा हितकारी अभ्यास किया जाए। जो अभ्यास स्वास्थ्य के लिए बाधक है, उससे मुक्त होकर स्वास्थ्य-प्रदायी अभ्यास दिया जाए । अनुप्रेक्षा और भावना के द्वारा ऐसा घटित किया जा सकता है । एक व्यक्ति पत्नी वियोग से अत्यन्त दुःखी था । वियोग में दुःख का संवेदन करना उसका Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र संस्कार था । उसे अनुप्रेक्षा का प्रयोग कराया गया । उसमें यह भावना पुष्ट हो गई कि जहां संयोग है,वहां वियोग अवश्यंभावी है । संयोग में सुखी और वियोग में दुःखी होना एक संस्कार मात्र है । यथार्थ यह है कि संयोग और वियोग में पूर्ण समभाव रखें । दुःखी व्यक्ति ने भावना के इस मर्म को पकड़ा और उसका दुःख का संवेदन कम हो गया । वह प्रसन्न रहने लगा । क्रोध आता है तो क्षमा की भावना का अभ्यास करो । अहंकार है तो नम्रता की भावना का अभ्यास करो । लोभ की मात्रा बढ़ी हुयी है तो संतोष की भावना को वृद्धिंगत करो । प्रतिपक्षी भावना से सफलता मिल सकती है । प्रतिपक्ष की भावना स्वास्थ्य की कुंजी है । एक बीमार व्यक्ति यदि प्रतिदिन कहता जाएगा कि मैं बीमार हूं, मैं बीमार हूं तो वह बीमार ही बना रहेगा, दुःख का संवेदन ही करेगा । ज्ञानी कहते हैं- हमारे भीतर आरोग्य अधिक है । तुम उसका चिन्तन करो । अपने स्वर को बदलो-- मैं रोगी नहीं हूं, स्वस्थ हूं, स्वस्थ हूं । इन प्रतिपक्षी स्वरों से आश्चर्य घटित होगा। प्रतिपक्षी भावना का सूत्र मस्तिष्कीय नियंत्रण का सूत्र है । इसी प्रकार श्वास भी नियंत्रण का एक सूत्र है । जब बांयां नथुना सक्रिय होता है तो दायें मस्तिष्क पर नियंत्रण होता है और जब दायां नथुना सक्रिय होता है तो बांयें मस्तिष्क पर नियंत्रण होता है । मस्तिष्क का बांयां पटल शरीर के दाएं भाग का संचालन करता है और दायां पटल शरीर के बांयें भाग का संचालन करता है। यदि श्वास की प्रणाली सम्यक हो जाती है तो नियंत्रण का क्रम सम्यक् बन जाता है । इस प्रकार मस्तिष्क का नियंत्रण हमारे स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण आधार बनता है। इन्द्रिय-संयम और स्वास्थ्य रोग का एक कारण है—इंदियत्थ विकोवणयाए—इसका अर्थ है काम विकार | इसका व्यापक अर्थ होगा इन्द्रियों के विषयों का विकोपन मत करो, उन्हें उत्तेजित मत करो । शब्द,रूप, रस, गन्ध और स्पर्श-इनका विकोपन मत करो । इन इन्द्रिय विषयों का अतिभोग-विकोपन रोगों का हेतु बनता है । इसलिए इन्द्रियसंयम अपेक्षित है । इन्द्रिय संयम स्वास्थ्य का मूल मंत्र है । उन्हे उत्तजित मत करो । शब्द, स्पा, रस, गन्ध और स्पर्श Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन शैली और स्वास्थ्य ६९ इस संयम की साधना के लिए मस्तिष्कीय नियंत्रण की विधियों, पद्धतियों को जानना बहुत आवश्यक है । ___ उठना, बैठना, सोना, खड़ा होना, श्वास लेना आदि ये सारी छोटी क्रियाएं हैं किन्तु इनमें जितनी जागरूकता और संयम होगा, उतनी ही ये क्रियाएं हमारी जीवन शैली को निखारेगी और तब जीवन प्रसन्नता से भरा रहेगा । स्वस्थ मस्तिष्क स्वस्थ जीवन का प्रतीक है । स्वस्थ मस्तिष्क का घटक तत्व है— संयम । इसके आधार पर कहा जा सकता है कि जीवन शैली का प्रधान तत्व है संयम । संयम प्रधान जीवन शैली स्वास्थ्य की मूल्यवान् निधि Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास और स्वास्थ्य शरार पाद्गालक है--- 'वर्ण गंधरसस्पर्शवान् पुद्गलः'- जिसमें वर्ण है, गंध है, रस है और स्पर्श है वह पुद्गल है, वह पौद्गलिक वस्तु है । श्वास में ये चारों लक्षण पाए जाते हैं, इसलिए श्वास पौद्गलिक है । गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-'भंते ! जीव श्वास-प्रश्वास लेते हैं ?' यदि लेते हैं तो कैसे ? भगवान् ने इसका उत्तर चार दृष्टियों से दियाद्रव्य दृष्टि से, क्षेत्र दृष्टि से, कालदृष्टि से तथा भावदृष्टि से । भगवान् ने भावदृष्टि से समाधान देते हुए कहा- ‘भावओ वण्णमंताई, गंधमंताई, रसमंताई फासमंताई आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा........ (भग २/३,४.......) प्रत्येक जीव श्वास प्रश्वास लेता है । उसके श्वसन-पुदगल वर्ण, गंध, रस और स्पर्शयुक्त होते हैं । जैसे शरीर में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श हैं वैसे ही श्वास में भी ये चारों हैं । प्राणी केवल श्वास नहीं लेता, वह वर्ण, गंध, रस और स्पर्श युक्त पुद्गल ग्रहण करता है । पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और चार या आठ स्पर्श श्वास में विद्यमान हैं । जब मनुष्य की भावधारा शुद्ध होती है तब इष्ट वर्ण, गंध, रस और स्पर्श युक्त श्वास गृहीत होता है और जब भावधारा अशुद्ध होती है तब अनिष्ट वर्ण, गंध, रस और स्पर्श Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास और स्वास्थ्य ७१ युक्त पुद्गल गृहीत होते हैं । इष्ट वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होता है तो आरोग्य रहता है और अनिष्ट, वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होता है तो स्वास्थ्य बिगड़ जाता है । नाक और श्वास श्वास पर विचार करते समय हमें नाक पर भी विचार करना होगा । नाक और श्वास का गहरा सम्बन्ध है | शरीरशास्त्र के अनुसार मस्तिष्क का एक भाग है - घ्राण मस्तिष्क । इसका सम्बन्ध बाह्यज्ञान से है । यह मस्तिष्क पशुओं में जितना विकसित है उतना मनुष्यों में नहीं है । उसकी कमी आई है । फिर भी यह प्राण मस्तिष्क बहुत महत्वपूर्ण है । भय, क्रोध, आक्रामक मनोवृत्ति - इन सबके केन्द्र घ्राण मस्तिष्क में हैं । नाक को समझने का अर्थ है— शरीर के अनेक रहस्यों को समझना । भगवान् महावीर नासाग्र पर ध्यान करते थे । नासाग्र ध्यान का तात्पर्य बहुत गहरा है । इसका अर्थ है कि नासाग्र पर ध्यान करने वाला अपने प्राण मस्तिष्क पर नियंत्रण कर लेता है, उसका परिष्कार कर लेता है । जो व्यक्ति अभय की साधना करना चाहे, क्रोध को कम करना चाहे, आक्रामक मनोवृत्ति को छोड़ना चाहे, कामवृत्ति पर नियंत्रण करना चाहे, उसके लिए नासाग्र पर ध्यान करना अनिवार्य है । ऐसे नाक का कोई सीधा उपयोग नहीं लगता । परन्तु अध्यात्मिक दृष्टि से नाक और घ्राण मस्तिष्क का बहुत महत्व है । नाक और श्वास का सम्बन्ध है । श्वास संतुलित होता है तो घ्राण मस्तिष्क का परिष्कार होता है । श्वास अस्त-व्यस्त होता है तो घ्राण मस्तिष्क उत्तेजित हो जाता है । इसका हम सब प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते है । क्रोध आते ही श्वास की संख्या बढ़ जाती है । अहंकार और माया आते ही श्वास की संख्या बढ़ जाती है । भावों के तारतम्य के साथ श्वास का तारतम्य होता है । भाव उत्तेजनापूर्ण है तो श्वास उद्विग्न हो जाएगा । भाव शांत है तो श्वास शांत रहेगा । भाव और श्वास का स्पष्ट सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है । भाव, श्वास और स्वास्थ्य, तीनों का गहरा सम्बन्थ है । इनका युगपत् अध्ययन किए बिना स्वास्थ्य की समस्या को नहीं सुलझाया जा सकता । शुद्ध भाव से शुद्ध श्वास के पुद्गलों Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र श्वास और स्वास्थ्य ७२ का ग्रहण होता है और वह स्वास्थ्य का घटक तत्व है । अशुद्ध भाव से अशुद्ध श्वास के पुद्गलों का ग्रहण होता है और उससे रोग का प्रादुर्भाव होता है । आचार्य मलयगिरी ने स्पष्ट रूप से समझाया है कि जब-जब अनिष्ट पुद्गलों का ग्रहण होता है तब-तब हृदय रोग आदि अनेक भयंकर बीमारियां पैदा होती हैं, मन का उपघात होता है । जब-जब शुभ पुद्गलों का ग्रहण होता है तब-तब प्रसन्नता, प्रफुल्लता विकसित होती है, स्वास्थ्य लाभ होता है । रंग और स्वास्थ्य रंग मनुष्य का जीवन है । रंग के बिना मनुष्य जीवित नहीं रह सकता, स्वस्थ नहीं रह सकता । रंगों की कमी, स्वास्थ्य की कमी । रंगों की अधिकता, स्वास्थ्य की न्यूनता | संतुलित रंग, स्वास्थ्य का लाभ । रंगों का ग्रहण स्वास्थ्य के माध्यम से होता है । शरीर में लाल रंग की कमी होने पर अपच, कब्ज, अनिद्रा आदि बीमारियां पैदा हो जाएंगी । पीले रंग की कमी से पाचन-तंत्र अस्त-व्यस्त हो जाएगा, यकृत् और उदर की नाड़ियों पर असर होगा । हरे रंग की कमी से शरीर से विजातीय पदार्थों का निस्सरण उचित रूप से नहीं होगा । प्रत्येक रंग शरीर पर प्रभाव डालता है । रंगों की कमी भी शरीर को प्रभावित करती है और रंगों की अधिकता भी शरीर को प्रभावित करती है । रश्मि चिकित्सा या सूर्य चिकित्सा में रंगों का संतुलन बनाया जाता है। रंगों के संतुलन के द्वारा ही बीमारियों की चिकित्सा की जाती है । यदि मनोभाव असंतुलित है, अनिद्रा या अतिनिद्रा है, अथवा कोई शारीरिक, मानसिक या भावनात्मक बीमारी है तो रंगीन श्वास के ध्यान का प्रयोग कराया जाता है । इसकी प्रक्रिया है - हम कल्पना करें कि शरीर के चारों ओर पीला, लाल, नारंगी आदि रंग फैले हुए हैं । हम किसी एक रंग की कल्पना करें, वह रंग प्रकट हो जाएगा । हम सोचें कि हमारा श्वास अमुक रंग का हो रहा है, अमुक रंग के परमाणु श्वास में अधिक आ रहे हैं । श्वास लेते ही उस रंग की पूर्ति हो जाएगी । इस रंगीन श्वास की प्रक्रिया का आधार है महावीर का लेश्या सिद्धान्त । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास और स्वास्थ्य ७३ जैसे लेश्या ध्यान में रंगों का ध्यान किया जाता है, वैसे ही श्वास के साथ भी रंगों का ध्यान किया जाता है, स्वाद का भी ध्यान किया जा सकता है। श्वास मीठा भी है, कड़वा भी है, कषैला भी है, तीखा भी है । सभी स्वाद है उसमें । उसमें हल्कापन भी है और भारीपन भी है । वह मृदु भी है और कठोर भी है । उसमें सभी स्पर्श हैं । चिकित्सात्मक दृष्टि से इन सबका विकास किया जाए तो श्वास चिकित्सा की एक स्वतंत्र पद्धति बन सकती है । रंग हमारे शारीरिक स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं । मन की चंचलता, भावों की उद्विग्नता आदि को भी रंगों का ध्यान प्रभावित करता है । व्यक्ति जिस प्रकार के रंगीन श्वास को ग्रहण करता है, वह श्वास हमारे शारीरिक तंत्र, मानसिक तंत्र तथा भाव तंत्र को प्रभावित करेगा । इस दृष्टि से श्वास केवल जीवनदायी ही नहीं है, आरोग्यदायी भी है । श्वास और आयुष्य समवायांग आगम में देवताओं के आयुष्य का वर्णन है । साथ ही साथ उनके श्वासोच्छ्वास लेने के दिनों का भी उल्लेख है । कोई पांच दिन से, कोई दस दिन से, कोई पन्द्रह दिन से या तीस दिन से श्वास लेता है। जिसके आयुष्य की अवधि जितनी लंबी उतनी ही लंबी श्वास की अवधि । या यों कहें कि जितनी श्वास की अवधि लंबी उतना ही आयुष्य लंबा । इसका तात्पर्य है कि दीर्घ आयुष्य का संबंध श्वास से है । श्वास छोटा या असंतुलित तो आयुष्य छोटा, श्वास लंबा और संतुलित तो आयुष्य भी लंबा । यद्यपि आयुष्य का संबंध आयुष्य कर्म के पुद्गलों के साथ है, परंतु उन पुद्गलों को भुगतने की क्रिया श्वास है । पुदगलों को कितने समय में भुगतना, इसका निर्धारण श्वास के द्वारा होता है । जब श्वास का और दीर्घ आयुष्य का संबंध है तो श्वास का संबंध स्वास्थ्य से है, यह स्वयं गम्य है । यदि श्वास उचित नहीं है तो आयु कभी लंबी नहीं हो सकती । श्वास उचित है तो आयु उचित रहेगी । श्वास का और आयुष्य का, श्वास का और स्वास्थ्य का तथा श्वास का और भाव का संबंध है । यह पूरी श्रृंखला है । इसलिए स्वास्थ्य पर विचार करते समय श्वास को छोड़ा नहीं जा सकता । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र आधुनिक काल में स्वास्थ्य पर अनेक दृष्टियों से विचार किया गया । आहार, नींद, जीवन शैली आदि-आदि के आधार पर मनुष्य स्वस्थ कैसे रह सकता है, इस पर गंभीरता से विमर्श हुआ है, किन्तु स्वास्थ्य का जो प्रधान तत्व है श्वास, उसकी उपेक्षा कर दी गई । श्वास यदि असंतुलित है तो स्वास्थ्य कभी संतुलित नहीं हो सकता । श्वास हमारे शरीर में रंगों का संतुलन पैदा करता है । रंग स्वास्थ्य के घटक हैं । ___ अन्तःस्रावी ग्रन्थियों तथा नाड़ीतंत्र का सम्बन्ध श्वास के साथ है । जब रंगों का संतुलन होता है तब अन्तस्रावी ग्रन्थियों का स्राव संतुलित होता है। रंगों का संतुलन नाड़ीतंत्र को भी स्वस्थ रखता है | ऑक्सीजन और रक्त की सबसे अधिक आवश्यकता मस्तिष्क को रहती है । उसको बीस प्रतिशत रक्त और ऑक्सीजन चाहिए | इनका वाहक है श्वास । श्वास ही पूरे शरीर में ऑक्सीजन और रक्त का वितरण करता है । कायोत्सर्ग और श्वास श्वास सम्बन्धी अनेक प्रयोग हैं लयबद्ध श्वास, दीर्घ श्वास आदि-आदि । दीर्घ श्वास अर्थात् लंबा श्वास । कायोत्सर्ग की प्रक्रिया में स्थान-स्थान पर बतलाया गया है कि श्वास मंद हो, निःश्वास भी मंद हो । श्वास की गति छोटी न हो, लंबी हो । दीर्घ श्वास या मंद श्वास दोनों एक ही हैं । श्वास मंद नहीं है तो कायोत्सर्ग सधेगा नहीं । कायोत्सर्ग में श्वास मंद होता है और मंद श्वास में ही कायोत्सर्ग होता है। तेज श्वास में कायोत्सर्ग सफल नहीं होगा, शिथिलता नहीं आएगी । कायोत्सर्ग का पैरामीटर है श्वास । श्वास सम्यग् है तो कायोत्सर्ग सम्यग् होगा । यदि श्वास सम्यग् नहीं है तो कायोत्सर्ग सम्यग् नहीं होगा । ____ ऑक्सीजन की पूर्ति का साधन है श्वास और वह श्वास, जो दीर्घ हो, मंद हो, लंबा हो । मस्तिष्क और शरीर को विश्राम देने का साधन है श्वास । जो कार्य शामक औषधियां नहीं कर पाती, वह कार्य श्वास कर डालता है। श्वास की गति ठीक नहीं है तो शायद औषधियां बढ़ती चली जाएगी, उनकी कार्यजा शक्ति न्यून हो जाएगी । थकान है, मस्तिष्क में परेशानियां हैं, श्वास Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास और स्वास्थ्य ७५ का सम्यक् प्रयोग करें, विश्राम मिलेगा । किसी घटना से मस्तिष्क अस्त-व्यस्त हो गया है । दस मिनट तक मंद श्वास का प्रयोग करें, अस्त-व्यस्तता कम हो जाएगी । अनुभव होगा कि किसी शामक औषध का प्रयोग कर लिया गया है। आवेग और श्वास आवेग, अत्तेजना आदि का नियंत्रण श्वास से हो सकता है । यह अनुभूत तथ्य है कि जब आवेश या आवेग आता है तब श्वास असंतुलित हो जाता है । श्वास को तीव्र किए बिना या असंतुलित किए बिना कोई संवेग नहीं आ सकता। संतुलित अवस्था में अथवा श्वास को संतुलित कर कोई आदमी क्रोध नहीं कर सकता । मंद श्वास करते ही संवेग लुप्त हो जाता है । प्रश्न पूछा जाता है कि आवेश या आवेग को कैसे कम करें ? दो प्रकार के उपाय हैं- एक है दीर्घकालिक और दूसरा है अल्पकालिक । अल्पकालिक उपाय यह है कि जैसे ही क्रोध आए, श्वास का संयम करो, श्वास को क्षण भर के लिए रोक दो | श्वास को रोकते ही कोई आवेश, चाहे फिर वह आवेश क्रोध का हो, कामवासना का हो या अन्य किसी संवेग का हो, टिक नहीं पाएगा । श्वास का संवर कर लेने पर किसी भी आवेश की यह ताकत नहीं है कि वह बाहर आ सके । इसलिए हम श्वास पर ध्यान दें । यदि संवेग का संतुलन और मस्तिष्क का नियंत्रण करना है तो श्वास-संयम बहुत आवश्यक है । श्वास संयम रक्तचाप को भी संतुलित करता है । दीर्घकालिक उपाय है दीर्घ-श्वास प्रेक्षा का नियमित अभ्यास ।। आज अनेक प्रकार की थेरेपियां— चिकित्सा विधियां प्रचलित हैं । उनसे चिकित्सा की जाती है । आवश्यकता है कि श्वास-थेरेपी का विकास हो और रंगीन श्वास से रोग की चिकित्सा की जाए । अनुसंधान से इस प्रविधि में अनेक नए आयाम खुल सकते हैं और अनेक थेरेपियों से यह थेरेपी अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती है । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र रंगीन श्वास लेना सीखें पतंजलि ने कहा- इन्द्रियों पर ध्यान करो, बाह्य सुख मिलने लग जाएगा। जीभ पर ध्यान करो और किसी स्वाद की कल्पना करो । कल्पित स्वाद चाहे वह अंगूर का हो,संतरे का हो, स्वाद आने लगेगा । बिना मिठाई खाए मिठाई का स्वाद आने लगेगा । बाह्य विषयों को लिए बिना ही उनका स्वाद आने लगेगा । देवता मनोभक्षी होते हैं । वे पदार्थ को नहीं खाते । वे सभी रसों का आस्वाद लेते हैं । केवल मानसिक संकल्प से ऐसा स्वाद आने लगेगा । देवता ऐसा ही करते हैं । भोजन के बिना उनका शरीर भी नहीं चलता । वे वैसे पुद्गलों को जुटा लेते हैं । यदि हम मानसिक पुद्गलों को जुटा सकें, श्वास के साथ वर्ण, गंध आदि पुद्गलों को ले सकें तो ऐसा आहार हो सकता है | इससे जीवन चल सकता है | यदि हम रंगीन श्वास लेना सीख जाएं तो अनेक अपेक्षाओं की पूर्ति हो सकती है । श्वास में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श होते हैं, यह पहले प्रतिपादित किया जा चुका है । भगवती आगम में इसका लंबा प्रकरण है । श्वास-मार्गणा में कहा गया है कि श्वास में काला रंग भी है, नीला और पीला रंग भी है, सभी रंग विद्यमान हैं । रक्तचाप पर नियंत्रण करने में नीले रंग का प्रयोग होता है । लीवर-यकृत् को स्वस्थ करने में पीले रंग का प्रयोग होता है । इस प्रयोग से लीवर सुधरने लगता है । शरीर के प्रत्येक अवयव का अपनाअपना रंग है । वह रंग जब असंतुलित हो जाता है तब वह अवयव रोग ग्रस्त हो जाता है । उस रंग की पूर्ति से वह अवयव शक्तिशाली हो जाता रंगों का सम्यक् ज्ञान स्वास्थ्य को प्रगट करने में अहं भूमिका निभाता है । श्वास और स्वास्थ्य का इतना गहरा सम्बन्ध है कि आज उस पर अतिरिक्त ध्यान देना आवश्यक है । महावीर ने एकेन्द्रिय प्राणियों से लेकर पंचेन्द्रिय प्राणियों के श्वास सम्बन्धी अनेक रहस्यपूर्ण जानकारियां दी हैं । पृथ्वीकाय आदि स्थावर जीवों के श्वास का क्रम क्या होता है ? उनकी श्वास प्रक्रिया का सूक्ष्मतम अध्ययन आगमों में उल्लिखित है । आज तक उस लम्बे प्रकरण को दार्शनिक और तात्विक दृष्टि से समझने का प्रयत्न किया गया, किन्तु स्वास्थ्य के संदर्भ में उस पर कोई विचार नहीं किया गया । वस्ततः श्वास शारीरिक, Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वास और स्वास्थ्य ७७ मानसिक और भावात्मक शुद्धि का साधन बन सकता है । यह एक महत्वपूर्ण चिकित्सा पद्धति बन सकती है । इसमें दीर्घकालिक अध्ययन और अनुसंधान से अनेक महत्वपूर्ण तथ्य सामने आ सकते हैं । यह एक प्रभावी चिकित्सा पद्धति सिद्ध हो सकती है । अपेक्षित है इस संभावना को सच में बदलने का अभिक्रम । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार और स्वास्थ्य जीवन और आहार पयायवाची शब्द है | आहार है तो जीवन है आर जीवन है तो आहार है । आहार नहीं है तो जीवन भी नहीं है । स्वास्थ्य और आहार पर्यायवाची हैं । आहार का विवेक नहीं है तो स्वास्थ्य भी नहीं है । जहां स्वास्थ्य है वहां निश्चित ही आहार का विवेक है । आहार और अनशन स्वस्थ जीवन के लिए तीन बातें आश्वयक हैं—आहार, उत्सर्जन और अनशन | आहार और अनशन को अलग नहीं किया जा सकता । स्वस्थ रहने के लिए जितना ध्यान आहार पर देना होता है, उतना ही ध्यान अनशन पर देना होता है । यदि केवल आहार पर ध्यान दिया और अनशन पर ध्यान नहीं दिया तो स्वास्थ्य दुर्लभ हो जाएगा । वर्तमान में संतुलित भाजन की तालिकाएं प्रकाशित होती हैं। उनके आधार पर संतुलित भोजन का प्रयत्न होता है । यह स्मृति में रखना चाहिए कि प्रत्येक खाद्य वस्तु में अमृत के साथ विष भी होता है । कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसे हम केवल विष अथवा अमृत कह सकें । जो जहर है, उसमें अमृत भी है और जो अमृत है, उसमें जहर भी है । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार और स्वास्थ्य ७९ महत्व उत्सर्जन का स्वास्थ्य का सम्बन्ध केवल संतुलित भोजन और पोषक तत्वों की पूर्ति से ही नहीं है किन्तु उसके साथ जमने वाले विष के निष्कासन से भी है । उत्सर्जन बहुत महत्वपूर्ण है । भगवान महावीर ने आहार पर्याप्ति के तीन कार्य बतलाएंग्रहण, परिणमन और उत्सर्जन | आहार का ग्रहण, उसका परिणमन-सात्मीकरण और उत्सर्जन- ये तीन कार्य हैं । भोजन का रस बनता है, रक्त बनता है । यह परिणमन है, सात्मीकरण है | परिणमन के पश्चात् उत्सर्जन होता है | उत्सर्जन का कार्य केवल आँतें ही नहीं करती, शरीर की प्रत्येक कोशिका करती है। यदि शरीर में एकत्रित विषों का समुचित उत्सर्जन नहीं होता है तो स्वास्थ्य की समस्या को सुलझाया नहीं जा सकता । संतुलित भोजन की व्याख्या आधुनिक पोषणशास्त्र के अनुसार जीवन में क्षारीय तत्व और अम्लीय तत्व का समावेश होना चाहिए । अस्सी प्रतिशत क्षारीय तत्व और बीस प्रतिशत अम्लीय तत्व-यह संतुलित भोजन की व्याख्या है । अम्लीय तत्व विष पैदा करता है, वह अम्लीय कणों को छोड़ता है, जिनका शरीर के प्रत्येक भाग में जमाव होता है और वह पोषक तत्वों को प्रभावित करता है । यह जमाव जहरीला बन जाता है । यदि उसका निष्कासन नहीं होता है तो स्वास्थ्य गड़बड़ा जाता है | शरीर संचालन का मुख्य तत्व है— रक्त । उससे सारा तंत्र संचालित होता है । जब रक्त में अम्लीय तत्व अधिक हो जाता है तब वह जहरीला बन जाता है । उस एक के जहरीले बन जाने पर सारा शरीर उससे प्रभावित होता है । अम्लीय तत्व ऋणात्मक शक्ति है । क्षारीय तत्व धनात्मक शक्ति है । दोनों शक्तियां हैं और दोनों जरूरी हैं । शरीर के लिए अम्लीय तत्व की भी जरूरत है और उसका अधिक मात्रा में शरीर में जमाव न हो, उसका उत्सर्जन हो, इसलिए क्षारीय तत्व भी जरूरी है। दोनों का अनुपात ठीक हो, यह अपेक्षित है । यदि अनपात ठीक नहीं है तो उन्हें निकालने के लिए अनशन-आहार-त्याग की आवश्यकता होती है । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र महाशक्ति है अनाहार भगवान् महावीर ने आहार के विषय में जितना कहा, उससे अधिक अनाहार के विषय में कहा । आहार हमारी शक्ति है तो अनाहार महाशक्ति है । हम देखते हैं, जो व्यक्ति अनशन करते हैं, संथारा करते हैं, यावज्जीवन अन्न-पान का परित्याग करते हैं और ऐसी अवस्था में करते हैं कि. मानो वे इस संसार में १०-२० घंटे के मेहमान हों तथा असाध्य बीमारी की अवस्था में ऐसा करते है । अनशन करने के बाद वे १०-२० दिन जीते हैं और स्वस्थता का अनुभव करते हुए जीते हैं । उनकी बीमारी का गायब हो जाना, आंख की ज्योति का पुनः आ जाना, न बोल पाने की स्थिति से छूटकर बोलने लग जाना, शरीर में चमक का प्रार्दुभाव आदि-आदि स्थितियां अनशन में घटित होती हैं । ऐसा इसलिए होता है कि शरीर में जो विजातीय तत्व जमा था, उसका रेचन प्रारंभ हो जाता है | जितना विजातीय तत्व का रेचन होता है, शरीर के अवयवों की शक्ति बढ़ जाती है । शरीरशास्त्र के अनुसार यह माना जाता है कि मनुष्य के फैफड़ों में, हार्ट और किड़नी में तीन सौ वर्षों तक कार्य करने की शक्ति है, क्षमता है । आज भी ये अवयव उतने काल तक कार्य करने में शक्ति-संपन्न है किन्तु इनकी शक्ति का ह्रास का एक प्रमुख कारण बनता है आहार । हिताहार : मिताहार भगवान् महावीर ने आधुनिक शरीरशास्त्री और पोषणशास्त्री की भांति यह विश्लेषण नहीं किया कि शरीर के पोषण के लिए कितना विटामिन, कितना लवण, कितना क्षार चाहिए । किन्तु उन्होंने आहार के विषय में दो महत्वपूर्ण शब्द दिए-हिताहार और मिताहार | जो व्यक्ति हितकर आहार करता है, जो व्यक्ति मितभोजी होता है वह स्वस्थ रहता है | उसकी चिकित्सा के लिए वैद्य की आवश्यकता नहीं होती । वह अपनी चिकित्सा स्वयं कर लेता है । वह स्वयं अपना वैद्य है । यद्यपि आहार विषयक ये दोनों शब्द मुनि के लिए दिए गये हैं, किन्तु ये दोनों प्रत्येक मनुष्य के लिए लागू होते हैं । आज के शरीरशास्त्री भी इस विषय का समर्थन करते हैं । वे कहते हैं-प्रतिदिन व्यक्ति को दूध, दही, घी, मक्खन, मिठाइयां नहीं खानी चाहिए । ये पदार्थ हितकर नहीं हैं। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार और स्वास्थ्य ८१ ये अम्लता पैदा करने वाले हैं, विष पैदा करने वाले हैं । प्रतिदिन इनका सेवन करने से विष संगृहीत होता है और यह विष रोग का मूल है, जड़ है । कभीकभी इन पदार्थों को छोड़ना भी चाहिए । आज के चिकित्सक औषधि के साथ-साथ यह निर्देश भी देते हैं कि घी, चीनी बन्द करो, दूध अधिक मात्रा में मत लो, प्राणिज चीजें कम लो आदि -आदि । इसका तात्पर्य यही है कि भोजन जितना गरिष्ठ होगा आयु उतनी ही कम होगी और स्वास्थ्य भी बिगडता जाएगा । कैसा हो आहार ? मुनि की आहार चर्या के प्रसंग में एक प्रश्न उठा - क्या मुनि को सर्वथा रूखा आहार ही लेना चाहिए अथवा सर्वथा चिकना आहार ही लेना चाहिए । समाधान में कहा गया कि मुनि को कभी रूखा और कभी चिकना आहार लेना चाहिए । यदि उसे अपनी मेधा से काम लेना है, स्वास्थ्य को ठीक रखना है, मूत्र संस्थान को स्वस्थ रखना है तो चिकना आहार लेना होगा । किन्तु यदि निरंतर स्निग्ध आहार लेता रहे तो अनेक बीमारियां उत्पन्न हो जाएंगी । मानसिक रोग तथा कामुकता की समस्याएं उभरेंगी । यदि केवल रूखा आहार ही निरंतर सेवन किया जाएगा तो स्वास्थ्य बिगडेगा तथा बार-बार प्रश्रवण करना पड़ेगा, मूत्र की बाधा बनी रहेगी, स्वाध्याय आदि में अनेक विघ्न पैदा होंगे । स्निग्ध आहार के निरंतर सेवन से विकृति बढ़ती है तो रूखे आहार के निरंतर सेवन से क्रोध, चिड़चिड़ापन बढ़ेगा । दोनों का संतुलन बनाए रखो - कभी स्निग्ध आहार करो और कभी रूखा आहार लो । इस आशय का प्रतिनिधि शब्द है- अभिक्खणं निव्विगंइगया अ - बार-बार विगय - स्निग्ध आहार का वर्जन करना । उपवास जैन परंपरा सम्मत बारह प्रकार की तपस्याओं में प्रथम चार- अनशन ऊनादेरी, वृत्तिसंक्षेप और रस - परित्याग - ये तपस्याएं भी हैं और स्वास्थ्य के सूत्र भी हैं । अनशन का अर्थ केवल उपवास आदि करना ही नहीं है । अमेरिकी Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र डाक्टर सेल्टन ने आहार-चिकित्सा पर जो कार्य किया है, वह स्वास्थ्य का सिद्धान्त है । उन्होंने कहा-आहार से विष जमा होते हैं । यदि विषों को शरीर से बाहर नहीं निकाला जाएगा तो स्वास्थ्य अस्त-व्यस्त हो जाएगा ।' शरीर के विजातीय पदार्थों के निष्कासन का एकमात्र उपाय है-उपवास । उपवास से पाचनतंत्र को विश्राम मिलता है । जब उसे विश्राम नहीं मिलता तब वह अपना कार्य पूरा नहीं कर पाता । पूरा शरीर उससे प्रभावित होता है । जीवन का आधार है- पाचन-तंत्र | सामान्यतः श्वासन-तंत्र को महत्व दिया जाता है | किन्तु श्वसन-तंत्र की स्वस्थता का हेतु क्या है, इस ओर ध्यान नहीं जाता। पाचन-तंत्र ठीक नहीं है तो श्वास की बीमारी हो जाती है । श्वास को पाचनतंत्र ही प्रभावित करता है । पाचन-तंत्र, आमाशय, पक्वाशय, लीवर, तिल्ली आदि ठीक कार्य करते हैं तो स्वास्थ्य बना रहता है और यदि शरीर के ये अवयव ठीक नहीं हैं तो स्वास्थ्य की कामना निरर्थक है । पेन्क्रीयाज ठीक नहीं है तो स्वास्थ्य नहीं है । एक भाई ने कहा--मेरा छोटा भाई चल बसा । उसे केवल सुगर की बीमारी थी । उसने यह सहज भाव से कहा । वह नहीं समझा कि सुगर की बीमारी सभी बीमारियों की जड़ है । यह निमंत्रण है अन्यान्य बीमारियों को । इससे किडनी कमजोर हो जाती है, सारा शरीर खोखला हो जाता है। ऊनोदरी जो उपवास नहीं कर सकते, उनको ऊनोदरी करनी चाहिए । ऊनोदरी का अर्थ है-भूख से कम खाना । अतीत का इतिहास इस बात का साक्ष्य है कि कम राने वाले स्वस्थ रहे हैं, दीर्घायु बने हैं । लूंस-ठूस कर खाने वाले बीमार रहे हैं, अल्पायु में मरे हैं । ऊनोदरी भी उपवास से कम नहीं है । अल्पाहार स्वास्थ्य का बड़ा सूत्र है। प्राचीन काल में नाश्ते की प्रथा नहीं थी । आज उसका अधिक प्रचलन है । परंतु आज एक आन्दोलन चल रहा है कि नाश्ता मत करो । स्वस्थ रहना है तो नाश्ता छोड़ दो । “ एगभत्तं च भोयणं''-एक वक्त भोजन करो, बीमारियां नहीं होगी । महावीर के कष्ट सहने के पीछे आहार-विवेक प्रमुख था । अल्पाहार से शक्ति का संचय होता है, शक्ति का व्यय कम होता है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार और स्वास्थ्य ८३ नाभि के आसपास प्राण-ऊर्जा पैदा होती है । उसे हठयोग में “समान प्राण" कहते हैं । नाभि-केन्द्र प्राण ऊर्जा को पैदा करने का केन्द्र है । यह ऊर्जा शरीर के संचलन का मुख्य तत्व है । अधिक भोजन करने वाले में ऊर्जा कम हो जाएगी । अधिक भोजन और कब्ज-दोनों का गठबंधन है | लोगो का यह सामान्य विचार है कि अधिक भोजन करने से कब्ज ठीक होगा किन्तु यह गलत धारणा है । अधिक भोजन कब्ज पैदा करता है | इसका कारण है कि भोजन पचता नहीं, कच्चा रस बनता है । उसका निष्कासन कठिन होता है । उससे अनेक बीमारियां-सुस्ती, मन की उदासी, घबराहट आदि उत्पन्न होती हैं। भगवान् महावीर ने उस समय की भाषा में बतलाया कि एक स्वस्थ पुरुष का आहार बत्तीस कवल का होता है । इससे एक कवल, दो कवल कम खाना ऊनोदरी है । ऊनोदरी के भी अनेक प्रकार हैं । वृत्ति-संक्षेप तपस्या अथवा स्वास्थ्य का तीसरा साधन है-वृत्ति-संक्षेप । जैन परंपरा में यह प्रवृत्ति बहु-प्रचलित है । द्रव्यों का नाना प्रकार से परिसीमन किया जाता है । आज मैं पांच द्रव्यों से अधिक नहीं लूंगा । आज मैं अमुक-अमुक द्रव्य नहीं खाऊंगा, आज मैं केवल एक ही द्रव्य लूंगा, अमुक घरों के अतिरिक्त कहीं कुछ भी न खाऊंगा-पीऊंगा आदि-आदि । इस प्रकार के वृत्ति-संक्षेप से अनेक बीमारियों से बचाव हो जाता है । रस-परित्याग स्वास्थ्य का चौथा साधन है— रस-परित्याग-रसों का वर्जन । रसों का सेवन प्रतिदिन मत करो, कभी करो, कभी छोड़ो । इस संतुलन से शरीर की पुष्टि बनी रहेगी और विजातीय तत्व का निष्कासन भी सरलता से होता रहेगा। हमारे धर्मसंघ में विगय-वर्जन की व्यवस्था है । अष्टमी, चतुर्दशी तथा अन्यान्य तिथियों को विगय का वर्जन करो, औषधि का सेवन किया हो तो विगयवर्जन करो आदि-आदि । यह रेस-परित्याग की एक विधि है । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र प्राण ऊर्जा का व्यय रोकें तपस्या के प्रारंभिक चार प्रकार के साधन हैं । इनका उचित प्रयोग करने पर दूसरे चिकित्सक की जरूरत नहीं होती, व्यक्ति स्वयं अपना चिकित्सक बन जाता है । ऐसी बात तो नहीं है कि अल्पाहारी अथवा हिताहारी बीमार होता ही नहीं, सदा स्वस्थ ही रहता है। बीमारी के और भी अनेक कारण T हैं । बाहरी वातावरण, ऋतु अथवा जीवाणु, वायरस आदि अनेक कारण हैं, जो रोग पैदा करते हैं । रोग निरोधक शक्ति की कमी से भी रोग उभरता है । रोग प्रतिरोधक शक्ति को बढ़ाने के लिए उपवास, ऊनोदरी आदि अचूक उपाय हैं । अधिक भोजन से ऊर्जा का व्यय अधिक होता है । ऊर्जा को बचाना अपनी शक्ति को बचाना है । जैन परंपरा में नवकारसी, पौरुषी, पुरिमड्ढ, एकासन, उपवास, दस प्रत्याख्यान आदि अनेक प्रकार के तप प्रचलित हैं । ये सारे ऊर्जा के अधिक व्यय को रोकने अथवा ऊर्जा को बचाने के प्रयोग हैं । आयुर्वेद के अनुसार माना जाता है कि प्रातः दस बजे तक कफ का प्रभाव रहता है और तदनन्तर पित्त का प्रभाव बढ़ता है । कफ के प्रभाव काल में गृहीत भोजन, नाश्ता आदि का पाचन ठीक नहीं होता है । पित्त का प्रारंभ दस बजे होता है और पूर्णता १२ बजे होती है । इसलिए जैन आगमों में जो "एगभत्तं च भोयणं" कहा गया, वह वैज्ञानिक तथ्य है । आज भोजनशास्त्री कहते हैं कि नाश्ता लो ही मत । यदि लेना हो तो अल्प मात्रा में केवल तरल पदार्थ - दूध आदि ले लो । अन्य भारी पदार्थ मत लो, मिठाई मत लो । आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में लिखा- अस्तंगते दिवानाथे— सूर्य के अस्त होने पर पाचन-तंत्र निष्क्रिय हो जाता है । ऊर्जा का सबसे बड़ा स्रोत है— सूर्य । उसकी विद्यमानता में प्राणतंत्र, ऊर्जातंत्र, पाचनतंत्र सभी सक्रिय रहते हैं । सूर्य के अस्त होते ही ये सारे तंत्र निष्क्रिय होने लग जाते हैं । इसलिए यह समय भोजन के लिए उपयुक्त नहीं है । खाए हुए भोजन का रस नहीं बनता । वह अस्वास्थ्यप्रद होता है । प्रातःराश अथवा नाश्ते के लिए प्राकृत भाषा का शब्द है— पढमालिया । आपवादिक स्थिति में नाश्ते का विधान है । सामान्य स्थिति में मुनि के लिए केवल दिन में एक बार के भोजन का विधान है । कम बार भोजन करने Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार और स्वास्थ्य ८५ से अम्लीय पदार्थों का संचय नहीं होता, विष संचित नहीं होता | आदमी स्वस्थ रहता है । इस सहज विधि को छोड़कर मनुष्य दवाओं का सहारा लेता है, परन्तु दवाएं बहुत कार्यकर नहीं होती । मोक-प्रतिमा : शोधन की पद्धति प्राचीन जैन साहित्य में 'मोक-प्रतिमा' का विवरण प्राप्त है । इसका तात्पर्यार्थ है— मूत्र चिकित्सा की पद्धति । यह बीमारी के शोधन की प्रक्रिया है । जितना महत्व आहार का है उतना ही महत्व उत्सर्जन का है । उत्सर्जन का अर्थ केवल मल का उत्सर्जन ही नहीं किन्तु कोशिकाओं में संचित सूक्ष्म मलों का निष्कासन है । यह निष्कासन अनाहार के द्वारा ही संभव है । आहार का विवेक, उत्सर्जन और अनाहार- ये तीनों स्वास्थ्य के मूल साधन हैं । संतुलित भोजन मात्र से स्वास्थ्य ठीक नहीं रह सकता | इसके साथ अनशन की बात को जोड़कर कर ही हम स्वास्थ्य को प्राप्त कर सकते हैं । आज के पोषणशास्त्रियों तथा महावीर के स्वास्थ्य सूत्रों-दोनों को सामने रखकर जीवन चर्या चलेगी तो स्वास्थ्य घटित होगा | आहार और स्वास्थ्य को भिन्नार्थक नहीं माना जा सकता, दोनों एकार्थक बन जाते हैं । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगासन और स्वास्थ्य भगवान् महावीर ने तपस्या के बारह प्रकार बतलाए । उनमें एक प्रकार है--- कायक्लेश । कायक्लेश का शब्दार्थ और तात्पर्यार्थ है— कायसिद्धि, काया को साधना । जहां कायसिद्धि का प्रश्न है, वहां आसन की अनिवार्यता ऐसा माना जाता है कि आसनों का अधिक विस्तार गोरखनाथ ने किया था, किन्तु भगवान् महावीर गोरखनाथ से पूर्व हुए हैं | महावीर ने आसनों का विस्तार से वर्णन किया है। केवल वर्णन ही नहीं किया, स्वयं बहुत प्रयोग किए । उनका एक सूत्र है- श्रमण-निर्ग्रन्थ के लिए पांच स्थान सदा वर्णित, कीर्तित, प्रशस्त और अभ्यनुज्ञात हैं--- ० स्थानायतिक ० उत्कटुकासनिक ० प्रतिमास्थायी ० वीरासनिक ० नैषधिक काय-सिद्धि और स्वास्थ्य इन पांच स्थानों की पृष्ठभूमि में साधना का दृष्टिकोण है, किन्तु स्वास्थ्य Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगासन और स्वास्थ्य ८७ का दृष्टिकोण नहीं रहा, यह नहीं कहा जा सकता । जहां कायसिद्धि का प्रश्न है, वहां स्वास्थ्य जरूरी है । स्वास्थ्य के बिना कायसिद्धि संभव नहीं है । एक घण्टा, दो अथवा तीन घण्टे एक आसन में बैठना, जैसे गाय दुहते समय मनुष्य बैठता है, वैसी मुद्रा में रात भर बैठे रहना, ऊकडू आसन में पूरी रात रहनायह स्वास्थ्य के बिना संभव नहीं है । यदि स्वास्थ्य अच्छा है तो व्यक्ति ऊकडूं आसन में चार प्रहर तक बैठ सकता है, छह प्रहर तक बैठ सकता है । यह विधान रहा- मुनि खुली जमीन पर न बैठे । आसन बिछाकर बैठे अथवा ऊकडूं आसन में ही बैठे । जिसके पास आसन नहीं है, वह ऊकडूं आसन में ही पृथ्वी पर बैठे । इस आसन में लंबे समय बैठना कितना कठिन काम है । यह आसन का विधान शरीर को साधने की दृष्टि से किया गया । कहा गया- शरीर को साधो, इतना साधो कि वह तुम्हें सताए नहीं, कोई कष्ट पैदा न करे । स्वास्थ्य के लिए तीन अनिवार्य शर्ते मानी गई ० मस्तिष्क की आर्द्रता बराबर बनी रहे । जो मस्तिष्कीय मज्जा है, ग्रे-मैटर है, उसमें रूखापन न आए | ० सुषुम्ना अथवा मेरुदण्ड लचीला रहे । सुषुम्ना का भाग जितना लचीला होगा, उतना ही स्वास्थ्य अच्छा होगा । ० अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का स्राव संतुलित रहे । ये तीन बातें होती हैं तो मनुष्य स्वास्थ्य के बारे में निश्चित रह सकता है। जरूरी है स्नायविक तनाव स्नायविक तनाव देना भी बहुत जरूरी होता है । यदि स्नायविक तनाव अथवा खिंचाव नहीं दिया जाता है तो स्नायविक संतुलन सम्यक नहीं रह पाता। चाहे हाथ के स्नायु हैं, पैर के स्नायु हैं अथवा गर्दन के स्नायु हैं । यदि उन्हें खिंचाव अथवा श्रम नहीं किया दिया जाए तो वे अवयव निकम्मे हो जाएंगे । हाथ को खिंचाव न दें तो हाथ में अकड़न और ऐंठन हो जाती है। यदि पैर के स्नायुओं को खिंचाव न दिया जाए तो घुटनों का दर्द, संधिवात अपना अड्डा जमा लेता है । वर्तमान में फिजियोथेरेपी का जो प्रकल्प मेडिकल साइंस Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र के साथ जुड़ा है, बड़े-बड़े हास्पिटलों में उसके विभाग खुले हैं, उसका प्रयोग यही है- आसन करो, व्यायाम करो, कोई न कोई एक्सरसाइज अवश्य करो। कहा जा रहा है यदि आसन-व्यायाम नहीं करोगे तो बीमारी और बढ़ जाएगी। यदि घुटनों का दर्द है तो निरंतर व्यायाम करो अन्यथा बीमारी की गंभीरता बढ़ती चली जाएगी । पूज्य गुरुदेव के ज्येष्ठ भ्राता मुनिश्री चंपालालजी दक्षिण भारत की यात्रा पर थे । घुटनों में दर्द हो गया । प्रसिद्ध अस्थिचिकित्सक डा० ढोलकिया को दिखाया, पूछा- घुटनों में पीड़ा है । यात्रा करें या न करें । डा० ढोलकिया ने कहा- 'मुनिश्री ! यात्रा बन्द न करें। जब तक चलते रहेंगे, इन स्नायुयों पर दबाव पड़ता रहेगा तब तक आप चल पाओगे । जिस दिन आपने चलना बन्द कर दिया, उस दिन से आप कभी चल नहीं पाएंगे।' यह स्नायविक तनाव पूरे शरीर के लिए आवश्यक है । आसन और व्यायाम शरीर के प्रत्येक अवयव को सक्रिय कर देते हैं । आसन का विधान क्यों ? भगवान् महावीर ने जिन आसनों का वर्णन किया, उनमें अलग-अलग प्रकार का स्नायविक तनाव होता है। एक आसन है दण्डायतिक—सीधे बैठकर पैर को लम्बा किया और खिंचाव पैदा हो गया । एक आसन है उत्तान-शयन आसन- सीधे लेटना । एक आसन है अवम-शयन- उल्टे लेटना । एक आसन है पार्श्व-शयन- दाएं पार्श्व और बाएं पार्श्व सोना । इस प्रकार अनेक आसन बतलाए गए हैं, जिनमें निर्जरा है, आत्मा का शोधन है, ग्रन्थियों का शोधन है और उसके साथ स्वास्थ्य का दृष्टिकोण भी है | यदि स्वास्थ्य का दृष्टिकोण नहीं होता तो आसन के इतने प्रकार क्यों बतलाए जाते ? निर्जरा और आत्मशोधन एक आसन से भी हो सकता था । यदि एक गोदोहिका आसन किया जाता तो प्रचुर निर्जरा हो जाती । भिन्न-भिन्न आसनों का प्रतिपादन क्यों किया गया ? कायोत्सर्ग का विधान क्यों किया गया ? इसकी पृष्ठभूमि में स्वास्थ्य का दृष्टिकोण प्रबल रहा है । एक मुनि के लिए अन्यान्य चिकित्साएं जटिल होती हैं । इस स्थिति में वह स्वस्थ रहे इसलिए स्वास्थ्य के सन्दर्भ में अनेक प्रकार के आसनों का विधान कर दिया । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगासन और स्वास्थ्य ८९ कायक्लेश का अर्थ आसन के संदर्भ में कायक्लेश शब्द का प्रयोग मिलता है । प्रश्न है-कायक्लेश का अर्थ क्या है ? इस शब्द का अर्थ भी सम्यक् नहीं पकड़ा गया । कायक्लेश का अर्थ समझते हैं शरीर को सताना । वस्तुतः इसका अर्थ शरीर को सताना नहीं है । इसका अर्थ है-शरीर को बाधित करना, शरीर को साध लेना। शरीर को इतना साध लेना कि दस दिन भी खड़ा रहना पड़े तो कोई कठिनाई न हो । दस दिन लेटे-लेटे कायोत्सर्ग करना हो तो कोई कठिनाई न हो । अनेक दिन एक आसन में बैठे रहें तो भी कोई कठिनाई न हो | शरीर को इतना साध लेना, स्नायुओं को इतना लचीला बना लेना, स्नायुतंत्र के साथ जुड़ी मांसपेशियों और पेशियों में इतना संतुलन साध लेना कि शरीर कहीं कोई बाधा न डाले । अंतःस्रावी ग्रंथि और आसन आसन के साथ अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का भी गहरा संबंध है । अन्तःस्रावी ग्रन्थियों का कार्य जितना अच्छा होता है, आदमी उतना ही स्वस्थ रहता है। हमारे सामने केवल शारीरिक स्वास्थ्य का ही प्रश्न नहीं है, मानसिक और भावात्मक स्वास्थ्य का प्रश्न भी है | अंतःस्रावी ग्रन्थियों का संतुलन ठीक रहता है तो मन भी स्वस्थ रहता है, भावनाएं भी स्वस्थ रहती हैं । शरीर तो स्वस्थ रहता ही है। एक ग्रन्थि है थायराइड | यहां से बोली-चाली की सारी क्रिया होती है, चयापचय की क्रिया होती है । स्वास्थ्य के साथ इस ग्रन्थि का बहुत संबंध है । अनेक लोग थायराइड की समस्या से ग्रस्त रहते हैं । यह द्वंद्व अनेक व्यक्ति भोगते हैं । किसी व्यक्ति का थायराइड ग्लेण्ड एक्टिव ज्यादा है, किसी व्यक्ति का थायराइड ग्लैण्ड अन-एक्टिव ज्यादा है । यदि सर्वांगासन का विधिवत् प्रयोग किया जाए तो इस समस्या का समाधान हो सकता है। प्रेक्षाध्यान के शिविरों में अनेक व्यक्तियों को यह प्रयोग कराया गया, थायराइड की समस्या समाहित हो गई । कुछ वर्ष पहले की घटना है । अहमदाबाद में प्रेक्षाध्यान का शिविर चल रहा था । एक महिला ने कहा- महाराज ! थायराइड का स्राव संतुलित और नियमित नहीं है । मैंने बहुत चिकित्सा करा ली पर कोई समाधान नहीं हुआ । उसे शिविर में कुछ प्रयोग कराए गए । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र महिला ने स्वास्थ्य का अनुभव किया । उसने कहा-थायरोक्सिन के स्राव को संतुलित करने की कुंजी मेरे हाथ में आ गई है । उसने इस प्रयोग से बहुत लाभ उठाया । रक्ताभिसरण और आसन स्वास्थ्य का एक बहुत कारण है रक्ताभिसरण । यदि हमारे शरीर में रक्त संचार सम्यक् होता है तो किसी अवयव में दर्द अथवा पीड़ा नहीं होती। जितना रक्त संचार कम उतनी पीड़ा अधिक । जितना रक्त संचार संतुलित उतना ही पीड़ा का अभाव । इस भाषा में कहा जा सकता है रक्त संचार की अल्पता का नाम है पीड़ा | जहां रक्त जाम हो जाता है, आगे सरक नहीं पाता, वहीं पीड़ा का जन्म हो जाता है । सम्यक् रक्ताभिसरण में आसन का बहुत बड़ा उपयोग है । रक्तसंचार की जो प्रणाली है, आसन उसे सम्यक बनाए रखता है । वह रक्त का शोधन भी करता है । आसन और जैन आगम _हठयोग में आसन का बहुत वर्णन है । शरीर-शास्त्र में भी आसन का विवेचन किया गया है । बौद्ध साधना पद्धति में आसन का निषेध भी किया गया है । विपश्यना के शिविर में आसन का निषेध किया जाता है । प्रेक्षाध्यान के शिविर में सबसे पहले आसन के प्रयोग कराए जाते हैं । डा० नथमल टाटिया, जो बौद्ध दर्शन के ख्यातिप्राप्त विद्वान रहे हैं, बोले—प्रेक्षाध्यान में आसनों का जो प्रयोग चलता है, वह हठयोग से लिया गया है । मैंने कहाजहां कहीं भी अच्छी चीज मिलती है, हम ले सकते हैं, किन्तु जैन आगमसाहित्य में एक स्थान पर नहीं, अनेक स्थानों पर आसनों का विस्तार से वर्णन है । ध्यान करें तो किस आसन में करें ? प्रतिमा की साधना करें तो किस आसन में करें ? मुनि बैठे तो किस आसन में बैठे ? बहुत सारे व्यक्ति, जो बैठना नहीं जानते हैं, समस्याएं पैदा कर लेते हैं । महावीर ने पांच निषद्याएं-बैठने की विधियां बतलाई - उत्कटुका- पुतों की भूमि से छुआए बिना पैरों के बल पर बैठना । गोदोहिका– गाय की तरह बैठना या गाय दुहने की मुद्रा में बैठना । समपादपुता— दोनों पैरों और पुतों को छुआ कर बैठना । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगासन और स्वास्थ्य ९१ पर्यंका– पद्मासन । अर्द्धपर्यंका- अर्द्ध-पद्मासन | ध्यानासन : स्वास्थ्यासन दोनों प्रकार के आसन होते हैं ध्यानासन और स्वास्थ्य-आसन । कुछ आसन ध्यान के लिए उपयोगी होते हैं, जैसे सिद्धासन, वज्रासन, पद्मासन, अर्ध-पद्मासन, अर्ध-मत्स्येन्द्रासन और शरीर ज्यादा स्वस्थ हो तो नौकासन । ये ध्यानासन हैं, ध्यान के लिए उपयोगी आसन हैं । वे आसन स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होते हैं, जो रक्त संचार की प्रक्रिया को ठीक करते हैं, स्नायविक संतुलन पैदा करते हैं, स्नायविक खिचाव के द्वारा स्नायु का सम्यक् व्यवस्थापन करते हैं, रीढ़ की हड्डी को लचीला बनाते हैं, मज्जा को ठीक कार्य करने में सक्षम बनाते हैं । ऐसे आसन शरीर के लिए उपयोगी होते हैं । जैन आगमों में जिन आसनों का प्रतिपादन किया गया है, उनमें दोनों प्रकार के आसन हैं । कायोत्सर्ग एक आसन है । लेटकर किया जाए तो यह बहुत सरल आसन है । बैठकर अथवा खड़े होकर किया जाए तो बहुत कठिन आसन है । कायोत्सर्ग शतक में इसका स्वरूप और लाभ विस्तार से वर्णित है । मांसपेशियों का पुनः सम्यक् स्थापन, तनाव का विसर्जन और वात, पित्त, कफ आदि से होने वाले रोगों का उपशमन- ये सारे कायोत्सर्ग के प्रभाव हैं | यह तथ्य स्पष्ट है कि आसन के साथ दोनों सिद्धान्त जुड़े हुए हैं निर्जरा अथवा आत्मशुद्धि का सिद्धान्त और स्वस्थ रहने का सिद्धान्त, शरीर को शक्तिशाली बनाए रखने का सिद्धान्त । शरीर और साधना ___ एक प्रश्न है— बौद्ध साधना पद्धति में आसन का विधान क्यों नहीं हुआ? इसका कारण भी स्पष्ट है- बौद्ध दर्शन में केवल एक दण्ड– मनोदण्ड का प्रतिपादन किया गया । बौद्धधर्म की सारी साधना-पद्धति मन के आधार पर चलती है । वहां वाक्-दण्ड और कायदण्ड का विधान नहीं है । महावीर ने तीन प्रकार के दण्ड बताए- मनोदण्ड, वचनदण्ड और कायदण्ड | कहा गया- काया भी एक दण्ड है, उसे साधना भी जरूरी है । प्रश्न हुआ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र काया का साधना के साथ क्या संबंध है ? वस्तुतः शरीर के साथ साधना का बहुत गहरा संबंध है | हम शरीर के स्नायविक संस्थान को अच्छा अभ्यास नहीं देंगे तो मन भी अच्छा नहीं रहेगा। गहराई में जाएं तो यह सिद्धान्त फलित होगा- मन और वाणी-ये स्वतंत्र नहीं हैं । शरीर के द्वारा वाणी का संचालन होता है और शरीर के द्वारा मन का संचालन होता है। यदि हमारा स्वरयंत्र ठीक नहीं है तो वाणी का सम्यक् प्रयोग नहीं हो पाएगा । यदि मन को संचालित करने वाला मस्तिष्कीय संस्थान ठीक नहीं है तो मन का कार्य भी सम्यक् नहीं होगा । ___मन, वाणी और श्वास–इन सबका संचालक कौन है ? इन सबके संचालक संस्थान शरीर में हैं। उन संस्थानों को स्वस्थ और सक्रिय बनाए रखने के दो प्रमुख साधन हैं- आसन और प्राणायाम । इसमें पहला स्थान आसन का है | आसन के द्वारा जो नियंत्रक संस्थान है, उनका सम्यक संचालन करेंगे तो मनुष्य स्वस्थ रहेगा ! पाचनतंत्र, श्वसनतंत्र, उत्सर्जन-तंत्र- ये हमारे शरीर के मुख्य विभाग हैं । बेचैनी, उदासी, डिप्रेशन- आदि का कारण भी यही बनता है । स्वस्थ रहने की शर्त है कि उत्सर्जन तंत्र, पाचन-तंत्र और श्वसनतंत्र स्वस्थ रहे । यदि हम इन पर ध्यान न दें, आसन के द्वारा इनका सम्यक् संचालन सुनिश्चित न करें तो डाक्टर और दवा की शरण में जाने के सिवाय कोई गति नहीं है । आसन की प्रक्रिया एक प्रश्न है-आसन की प्रक्रिया क्या है ? आसन का क्रम कैसे शुरू करें? महावीर की वाणी में आसन की जो प्रक्रिया मिलती है, वह बहुत महत्वपूर्ण है । तीन प्रकार के आसन किए जाते हैं ० लेटकर किए जाने वाले आसन । ० बैठकर किए जाने वाले आसन । ० खड़े होकर किए जाने वाले आसन । आसन प्रारंभ किस स्थिति में करें ? जैनसाधना पद्धति के अनुसार सबसे पहले लेटकर आसन करना चाहिए । उसके बाद बैठकर आसन करें और उसके बाद खड़े होकर आसन करें । लाडनूं में प्रेक्षाध्यान का शिविर चल रहा था। दिल्ली से एक योगी आए । आसनों के विषय में चर्चा चली । मैंने Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगासन और स्वास्थ्य ९३ कहा- हमारी साधना पद्धति में सबसे पहले लेट कर आसन करने का विधान है। पूज्य गुरुदेव का एक ग्रन्थ है मनोनुशासनम् । उसमें भी इसी क्रम को रखा गया है। योगी ने कहा- यह बहुत वैज्ञानिक क्रम है । इसमें एक शिशु की भांति क्रम का निर्देश है । बच्चा पहले कौन-सा आसन करता है ? वह पहले कभी खड़ा होकर आसन नहीं करता। वह पहले लेटकर आसन करता है । फिर बैठना सीखता है और फिर खड़ा होना सीखता है । दो महीने का शिशु खड़ा हो जाए, ऐसा कभी नहीं होता । हमारे जीवन का एक क्रम है। जब हमारी जीवन की यात्रा गर्भ में शुरू होती है तब आसनों का क्रम शुरू हो जाता है। गर्भस्थ शिशु भी करता है आसन आगम साहित्य में यह बतलाया गया है— जन्म लेने के बाद ही नहीं, गर्भ में भी बच्चा आसन करता है । गर्भावस्था में किए जाने वाले अनेक आसनों का उल्लेख है | ठाणं सूत्र में विस्तार से यह बतलाया गया है कि गर्भावस्था में शिशु किन-किन आसनों में रहता है । कभी वह पार्श्वशयन आसन करता है, कभी वह उत्तानशयन आसन करता है, कभी वह अवमशयन आसन करता है । इनमें भी बच्चा ज्यादा उत्तान-शयन आसन करता है । वह सीधा सोता है | बहुत कठिन है सीधा सोना । बहुत लोग सीधे नहीं सो पाते । कायोत्सर्ग में यह प्रयोग कराया जाता है— 'सीधे सोकर पहले तीन बार खूब तनाव दो, फिर ढीला छोड़ दो ।' लेटने का दूसरा प्रकार है अधोमुख शयन । यह पेट के लिए बहुत उपयोगी आसन है । लेटने का एक प्रकार है पार्श्वशयन । बहुत लोग इस बात को जानते हैं कि भोजन के बाद बाएं पार्श्व से सोना चाहिए । उस समय सूर्य स्वर चलता है, दांयां हिस्सा सक्रिय होता है | इससे पाचन में काफी सुविधा होती है । जब दाएं पार्श्व सोते हैं, तब बायां स्वर चलता है । इससे मन की प्रसन्नता बढ़ती है । जिन लोगों के उच्च रक्तचाप है, जो हाईब्लडप्रेशर से पीड़ित हैं, उनके लिए बाएं स्वर का प्रयोग बहुत महत्वपूर्ण है । वे दाएं पार्श्व से सोएंगे तो उच्च रक्तचाप में संतुलन आएगा । जिनके निम्न रक्तचाप की समस्या है, वे बाएं पार्श्व से सोएंगे तो दायां स्वर चलेगा, पेरासिम्पेथिटिक नर्वस सिस्टम अधिक सक्रिय होगा, निम्न रक्तचाप संतुलित हो जाएगा । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र प्रत्येक आसन के साथ अध्यात्म और स्वास्थ्य का सम्बन्ध जुड़ा हुआ है । एक आसन है लगण्डशयन । प्राकृत भाषा का शब्द है लगण्डशयन | इसकी दो प्रक्रियाएं होती हैं । एक प्रक्रिया यह है- सिर जमीन पर लगा रहे, पैर जमीन पर लगे रहें और पूरा शरीर जमीन से ऊपर रहे | केवल एडी और सिर भूमि पर तथा सारा शरीर भूमि से ऊपर रहता है । दूसरी प्रक्रिया यह है-केवल पीठ का भाग भूमि को छुए, पैर और सिर का भाग ऊपर रहे | इसे नौकासन या शलभासन कहा जाता है । पेट और पीठ की बीमारियों को शान्त करने का यह महत्वपूर्ण आसन है । आसन : अध्ययन का आधार स्थानांग, बृहत्कल्पभाष्य, उत्तराध्ययन, मूलाराधना, योगशास्त्र आदि में इस प्रकार के बहुत सारे आसनों का विस्तृत विवरण मिलता है । हम किसी भी मुद्रा में बैठे, वह आसन बन जाएगा । यह माना जाता है- चौरासी लाख आसन हैं। उनका संक्षेप किया गया तो चौरासी आसन हो गए । इनका जो अध्ययन किया गया, वह प्रायः पशु-पक्षियों के अध्ययन के आधार पर किया गया । एक आसन है मयूरासन | मयूर कैसे बैठता है ? मयूर की जो बैठने की विधि है, उसके अध्ययन के आधार पर यह अनुभव किया- मयूर की पाचनशक्ति बहुत तीव्र होती है । वह कुछ भी खा लेता है तो उसको पचा लेता है। पाचनतंत्र को ठीक रखने के लिए मयूरासन का विधान किया गया । कोई मयूरासन करता है तो बली मुद्रा बन जाती है । एक आसन है मत्स्यासन । मछली का यह सहज स्वभाव है कि वह पानी पर बैठ सकती है, कभी डूबती नहीं । यह माना जाता है- जो लोग तैरना सीखते हैं, वे मत्स्यासन की मुद्रा में चले जाएं तो जल में डूबेंगे नहीं । यह प्रतिरोधी आसन भी है। सर्वांगासन किया जाए तो उसके बाद मत्स्यासन अवश्य करना चाहिए । विकास करें आसनों का प्राचीन काल में आसनों का दीर्घकाल तक अध्ययन होता रहा । अनेक स्थितियों का अध्ययन करने के बाद आसनों का विकास हुआ है | आज यह कार्य ठप्प जैसा हो गया है । आज हम जानते हैं- आसन चौरासी प्रकार के हैं अथवा इतने आसन हैं किन्तु ऐसा प्रयत्न नहीं है कि इनका विकास Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब योगासन और स्वास्थ्य ९५ किया जा सकता है । जब किसी वस्तु का अनुसंधान बंद हो जाता है, केवल पुरानी बात ही सामने आती हैं । आज मेडिकल साइंस में विकास का युग चलता है । इसलिए चलता है कि निरंतर अन्वेषण, प्रशिक्षण और प्रयोग चल रहे हैं । उसके आधार पर केवल फिजियोथेरेपी में घुटने के दर्द के लिए अनेक प्रकार के व्यायाम विकसित किए गए हैं। पुराने साहित्य में ऐसा नहीं मिलता । फिजियोथेरापिष्ट आसन का सुझाव कम देते हैं, व्यायाम का सुझाव अधिक देते हैं । यह अपेक्षित है- हम महावीर की स्वास्थ्य - साधना को समझने के लिए प्राचीन आधार लें तो साथ-साथ नए आसनों का विकास भी करें । हठयोग में इस सन्दर्भ में काफी विकास हुआ है कि किस बीमारी में कौन-सा आसन करना चाहिए। हृदयरोग है तो कौन - सा आसन करना चाहिए । आज यह नहीं माना जाता है कि हृदयरोगी को आसन नहीं करना चाहिए । यह कहा जाता है- हृदयरोगी को भी अमुक-अमुक प्रकार के आसन करने चाहिए । सुगर की बीमारी है तो अमुक आसन करना चाहिए । प्रत्येक रोग के लिए आसनों की तालिका निश्चित है और उसका उपयोग भी किया जाता है, कराया जाता है । इस दृष्टि से इन आसनों का बहुत गंभीर अध्ययन करें । केवल पुराने ग्रन्थों के आधार पर ही नहीं, वर्तमान शरीरशास्त्र और शरीर क्रियाशास्त्र के सन्दर्भ में यह देखें कि इनका फंक्शन क्या है ? क्रियाएं क्या हैं ? परिणाम क्या है ? इन सबके आधार पर प्राचीन और अर्वाचीन— दोनों तथ्यों का विश्लेषण करें तो आज भी नए-नए आसनों का विकास किया जा सकता है । स्वास्थ्य, साधना और आसन हमारे सामने दो पक्ष हैं— स्वास्थ्य का पक्ष और साधना का पक्ष | यह निश्चित है— स्वास्थ्य का पक्ष कमजोर है तो साधना का पक्ष भी शक्तिशाली नहीं बनेगा। स्वास्थ्य और साधना में गहरा संबंध है । स्वास्थ्य सम्यक् नहीं है तो साधना कहां से होगी ? बहुत लोग ऐसे हैं, जो एक मिनट में चालीस श्वास लेते हैं । वे लम्बा श्वास नहीं ले सकते । उनके फेफड़े इतने कमजोर हैं कि लंबा श्वास लेने की ताकत उनमें नहीं है । इस स्थिति में साधना कैसे होगी ? बहुत सारे लोग ऐसे होते हैं, जो ध्यान करने बैठते हैं और जम्हाइयाँ ही जम्हाइयाँ लेते हैं, अथवा डकारें ही डकारें लेने लगते हैं । वे कैसे ध्यान Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र करेंगे ? कैसे साधना होगी ? स्वास्थ्य साधना का महत्वपूर्ण पक्ष है । स्वास्थ्य को साधना से सर्वथा अलग नहीं किया जा सकता । स्वास्थ्य के लिए शरीररचना का ज्ञान जरूरी है | शरीर के सारे तंत्रों का ज्ञान होना चाहिए । नाड़ीतंत्र और अंतःस्रावी ग्रंथि तंत्र के कार्य का ज्ञान होना चाहिए । उनका कार्य कैसे सम्यक् हो सकता है, यह बोध भी होना चाहिए । हमारे शरीर में कुछ ग्रन्थियां बहुत महत्वपूर्ण हैं । यदि एड्रीनल ग्लैण्ड ठीक काम नहीं कर रहा है तो कुछ विकृतियां पैदा हो जाएंगी । यदि थायराइड ग्लेण्ड ठीक नहीं है तो स्वास्थ्य की समस्या जटिल बन जाएगी । यदि किडनी ठीक काम नहीं कर रही है तो मनुष्य रुग्ण बन जाएगा । हम आसन के द्वारा अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को स्वस्थ रख सकते हैं, पाचनतंत्र को स्वस्थ रख सकते हैं, मेरुदण्ड को लचीला बनाए रख सकते हैं । यदि हम इन सबके प्रति जागरूक होते हैं तो साधना-पक्ष का भी सम्यक निर्वाह कर सकते हैं। महावीर के स्वास्थ्य-शास्त्र पर विचार करें तो इन प्रश्नों को गौण नहीं किया जा सकता । महावीर ने आसन का विधान केवल साधना की दृष्टि से नहीं किया, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी किया । महावीर बार-बार यह कहते हैं- आसन नित्य प्रशस्त हैं, सदा आचरणीय हैं । इसका अर्थ है कि उसमें स्वास्थ्य और साधना- ये दोनों दृष्टियां समाहित हैं । आसनों का सम्यक् विवेक और विश्लेषण कर स्वयं निर्धारित करें कि कौन-सा आसन मेरे लिए ज्यादा अच्छा है | उसके साथ एक दृष्टिकोण अवश्य स्पष्ट रहे- आसन का मुख्य उद्देश्य है निर्जरा, आत्मा का शोधन । केवल स्वास्थ्य के लिए ही आसन करेंगे तो बात सीमित हो जाएगी, लक्ष्य भी सिकुड़ जाएगा । हम आसन करें निर्जरा की दृष्टि से । निर्जरा होगी, आत्मा का शोधन होगा, संस्कारों का परिष्कार होगा और साथ-साथ शरीर के अंगों-अवयवों की क्रिया भी सम्यक् होगी । इस समग्र दृष्टि से आसनों का प्रयोग करें तो महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र और योगासन में सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है तथा उससे बहुत लाभ उठाया जा सकता है । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान और स्वास्थ्य प्रेक्षाध्यान के दो रूप हैं । एक रूप है आध्यात्मिक चेतना का विकास, दूसरा रूप है चिकित्सात्मक । श्वास-प्रेक्षा आदि के द्वारा आध्यात्मिक चेतना जागृत होती है । प्रेक्षा के विशिष्ट प्रयोगों की साधना के द्वारा स्वास्थ्य की समस्याएं भी सुलझती हैं । उसका मूल हेतु है— प्रेक्षा, देखना । देखने की कला बहुत कम लोग जानते हैं | सुनना भी कम लोग जानते हैं पर देखना तो बहुत कम लोग जानते हैं । देखने की अपनी विशिष्ट कला है । कैसे देखें? हम दूसरों को देखते हैं, उस आधार पर चिकित्सा की विधि स्थापित अनेक प्रकार की दीक्षाएं मानी गई हैं । एक है स्पर्शन की दीक्षा । एक है दर्शन की दीक्षा । एक पूरी पद्धति है स्पर्श चिकित्सा की । एक प्राणवान् व्यक्ति रोगी के रोग के स्थान का स्पर्श करता है और उसकी बीमारी दूर हो जाती है । यह स्पर्शन चिकित्सा है । इसका प्रयोग चलता है | बहुत सारे प्राण-चिकित्सक अपने स्पर्श से रोगी के शरीर का या अवयव का स्पर्श करते हैं और रोगी स्वस्थ हो जाता है । स्पर्श चिकित्सा प्रचलित है किन्तु दर्शन चिकित्सा अभी प्रचलित नहीं है | किन्तु यह बड़ी महत्वपूर्ण चिकित्सा है, दीक्षा है । गुरु अपनी दृष्टि के द्वारा किसी को दीक्षा देते हैं, देखते हैं और वह व्यक्ति फिर से निरोग हो जाता है । यह प्रसिद्ध तथ्य है, गुरु अनुकम्पा की दृष्टि से देखता है तो प्राण शक्ति Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र जाग जाती है और निग्रह की दृष्टि से देखता है तो समस्या पैदा हो जाती है । अनिमेष प्रेक्षा का प्रयोग करने वाले जानते हैं-किसी एक वस्तु को देखना शुरू करो, पहले मिनट में उसका आकार भिन्न होगा, दूसरे मिनट में वह वस्तु बदल जाएगी और जैसे-जैसे समय बीतेगा, नए-नए रूप बनते चले जाएंगे। दस मिनट के बाद वह दृश्य वस्तु रहेगी नहीं, और कुछ उसके स्थान पर आ जाएगा । जिन्होंने अनिमेष प्रेक्षा का प्रयोग किया है, वे जानते हैं, किस प्रकार एक चित्र सामने रखा और वह नाना रूपों में बदलता चला गया । विचित्र है दर्शन की शक्ति दर्शन शक्ति है । देखने की शक्ति विचित्र है । शरीर में कहीं पीड़ा है | उस स्थान को बिन्दु बना लो, अंगुली टिका दो, संकल्प करो और उसी स्थान पर अन्तर्दृष्टि टिका दो । आंख की जरूरत नहीं, केवल अन्तर्दृष्टि का प्रयोग करो । दस-बीस मिनट के बाद ऐसा लगेगा कि पीड़ा है ही नहीं । ऐसा क्यों होता है ? इसका कारण भी समझ लेना चाहिए | हमारे शरीर में सारी क्रिया चलती है प्राण के द्वारा । मस्तिष्क पूरे शरीर का कंट्रोल रखता है । मस्तिष्क संचालित होता है विद्युत् तरंगों के द्वारा, रसायनों के द्वारा । देखने से हमारे शरीर में विभिन्न प्रकार के रसायन पैदा होते हैं | इतने सारे रसायन हमारे शरीर में पैदा होते हैं कि उनकी आदमी कल्पना ही नहीं कर सकता । एक श्वास जो हम छोड़ते हैं, उसमें ४०० रसायनों का बिम्ब होता है । जहां पवित्र भाव होता है, विधायक भाव होता है वहां अच्छे रसायन पैदा होते हैं। देखने के साथ-साथ रसायन पैदा होते हैं भाव के द्वारा । जहां भाव पवित्र है वहां अमृत तुल्य रसायन पैदा हो जाएगा । यदि भाव विपरीत है तो जहरीला रसायन पैदा हो जाएगा । भावों के साथ बहुत गहरा सम्बन्ध है हमारे स्वास्थ्य का । कर्मचारी का अधिकारी ने तिरस्कार किया । अधिकारी के द्वारा किया जाने वाला तिरस्कार पाचनतंत्र को विकृत बना देगा । कोई बीमारी नहीं है, व्यक्ति स्वस्थ है किन्तु निजी व्यक्ति तिरस्कार करता है तो पाचनतंत्र एकदम अस्त-व्यस्त हो जाता है । क्रोध का प्रबल आवेश आया, अस्थमा की बीमारी हो जाएगी । एक व्यक्ति मन की बात कहना चाहता है किन्तु उसे कहने का अवसर ही नहीं मिलता । वह मन में दबी हुई भावना की बात माईग्रेन पैदा कर देगी । चिन्तायुक्त Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान और स्वास्थ्य ९९ स्मृति है, अतृप्त की भावना है, व्यक्ति मन में उभरी चाह को तृप्त नहीं कर सका । भूख कम हो जाएगी, भूख ही नहीं लगेगी क्योंकि चिन्ता युक्त स्मृति है | किसी विषय में तीव्र भावना पैदा हो गई कि उसे पूरा करना ही है तो बीमारी पैदा हो जाएगी। इस प्रकार भाव और बीमारियों का आज के वैज्ञानिकों ने परीक्षण के द्वारा बहुत अध्ययन किया है । इस विषय पर एक पुस्तक जापान में निकली है, जिसमें यह बताया गया है...- किस प्रकार के भाव से कौन-सी बीमारी पैदा होती है । दर्शन की श्रृंखला ___ भगवान् महावीर ने एक सूत्र दिया था दर्शन का । एक पूरी श्रृंखला है-जो व्यक्ति क्रोध को देखता है, वह अपने अहंकार को देखता है | जो अपने अहंकार को देखता है, वह अपने द्वारा होने वाले मायाजाल को देखता है । जो अपने मायाजाल को देखता है, वह अपने लोभ को देखता है । जो अपने लोभ को देखता है, वह अपने प्रेयस को देखता है, अनुराग को देखता है, राग को देखता है । जो अपने राग को देखता है, वह अपने द्वेष को देखता है । क्रोध से लेकर जन्म-मरण तक की पूरी श्रृंखला है । कहा गयाक्रोध को भी देखो, हर वृत्ति को देखो । देखोगे तो वृत्ति कमजोर हो जाएगी। न देखोगे तो बढ़ती चली जाएगी। मालिक जागता है, देखता है तो चोर घर में नहीं घुसेगा और मालिक सो रहा है तो चोर के लिए घुसने की बड़ी सुविधा हो जाएगी। हम देखना सीखें, देखें-कहां क्या हो रहा है । यह देखने की जो कला है, उससे प्राण-संतुलन होता है । जिस अवयव को देखोगे, प्राण संतुलित हो जाएगा । रोग का प्रमुख कारण बनता है.- प्राण का असंतुलन । प्राण संतुलित हुआ और बीमारी मिट जाएगी । प्राण-संतुलन का एक साधन है दर्शन, अपने पीड़ित अवयव को देखना । जब हम देखना शुरू करते हैं, प्राण का संतुलन होता है, अच्छे रसायन पैदा होते हैं, एकाग्रता बढ़ती है । ये सब मिलकर स्वास्थ्य को पल्लवित कर देते हैं । स्वास्थ्य के स्थूल लक्षण ये हैं-- अच्छी नींद, अच्छी भूख, अच्छा मन, अच्छा चिन्तन और अच्छा भाव । जिसमें ये हैं, वह आदमी स्वस्थ है । जिसको नींद नहीं आती, भूख अच्छी नहीं लगती, चिन्तन अच्छा नहीं रहता, भावनाएं Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र अच्छी नहीं रहती, वह बीमार आदमी है । नींद का अमोघ प्रयोग ___अच्छी नींद के लिए सबसे अच्छा उपाय है-- दर्शन, शरीर को देखना । अनेक लोगों को शरीरप्रेक्षा का प्रयोग कराया गया । व्यक्ति ने कायोत्सर्ग की मुद्रा में लेटकर शरीर को देखना शुरू किया, अंगूठे से लेकर एक-एक अवयव पर ध्यान दिया, तलुवे को देखा, पंजे को देखा, एड़ी को देखा, इन अवयवों को देखता चला गया । अंगूठे से सिर तक की प्रेक्षा का यह प्रयोग नींद का अमोघ प्रयोग है । और कुछ नहीं करना है, केवल अवयव को देखते चले जाएं | आत्मा तक कब जाएंगे, शायद नींद बीच में ही आ जाएगी । पूरा कायोत्सर्ग भी नहीं हो पाएगा । पाचनतंत्र का दर्शन पाचन-तंत्र को देखो, भूख की समस्या हल होगी । पाचनतन्त्र की गड़बड़ी होती है तो रक्त का अवसंचरण कम होता है अथवा प्राण का असुंतलन होता है। जब हम देखना शुरू करेंगे, भूख लगने लग जाएगी । रक्ताभिसरण भी बढ़ जाएगा। रक्त का पोषण होगा । रक्त पोषित होगा तो सारा तंत्र ठीक काम करने लगा जाएगा । यह देखने की कला है । इस दर्शन-शक्ति के आधार पर कायाकल्प का प्रयोग निश्चित किया गया । उसमें ३६ खण्डों में, विभागों में देखने की प्रक्रिया है । ३६ बार अंगूठे से शुरू करें और सिर तक पहुंच जाएं । एक-एक अवयव पर प्रयोग करें । एक बार में प्रत्येक अवयव पर हमारा ध्यान केन्द्रित होता है । कायाकल्प का यह प्रयोग अत्यन्त महत्वपूर्ण त्रिआयामी प्रक्रिया हम केवल देखते नहीं हैं किन्तु देखने के साथ-साथ दो क्रियाएं और होती हैं- विरेचन और पोषण । पहली क्रिया है देखना । अंगूठे को देखा फिर यह सुझाव दिया- अंगूठे से विजातीय तत्व का विरेचन हो रहा है । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान और स्वास्थ्य १०१ फिर कुछ देर बाद सुझाव दिया-शुद्ध रक्त का संचार हो रहा है, अंगूठे का पोषण हो रहा है । दर्शन, विरेचन और पोषण—यह त्रिआयामी प्रक्रिया है। इसके द्वारा प्रत्येक अवयव को देखना शुरू करें तो हमारी काफी समस्या सुलझ जाती है । देखना बहुत कठिन है | कठिन इसलिए है कि एकाग्रता नहीं रहती। हम श्वास को देखते हैं, शरीर को देखते हैं, चैतन्य केन्द्र को देखते हैं। देखने की प्रक्रिया है किन्तु उससे पहले हमें साधना पड़ता है एकाग्रता को | एकाग्रता सधती चली गई तो हम निश्चित बिन्दु को ठीक से देख पाएंगे । एकाग्रता ठीक नहीं सधी है तो देखना शुरू करते ही विकल्पों का ऐसा जाल बिछ जाएगा कि देखना छूट जाएगा और हम विकल्पों में उलझ जाएंगे । देखने की कला को साधे बिना यही स्थिति बनती है। एक प्रयोग है- नासाग्र को देखना शुरू करो तो देखते ही चले जाओ। एकाग्रता से देखो | जिसने यह प्रयोग किया है, उसने अवश्य यह अनुभव किया होगा कि नासाग्र पर ध्यान करते हैं तो मूल नाड़ी पर जाते हैं, अपने आप मूल-बंध हो जाता है । यह एक सम्बन्ध है । एक अवयव को देखना शुरू किया जाता है तो उससे संबंधित सभी अवयवों में सक्रियता आ जाती है । सीखना है देखने की कला को । अध्यात्म का उत्कृष्ट सूत्र भगवान महावीर ने कहा- आत्मा के द्वारा आत्मा को देखो | यह अध्यात्म का उत्कृष्ट सूत्र है तो साथ-साथ स्वास्थ्य का भी बड़ा महत्वपूर्ण सूत्र है । अपने आपको देखो, इसका अर्थ है-अपने शरीर को देखो, अपने शरीर के प्रकंपनों को देखो, स्थूल प्रकंपनों को देखो, अपने शरीर में होने वाले सूक्ष्म प्रकम्पनों को देखो। अपने शरीर में होने वाले जैविक रासायनिक परिवर्तनों को देखो । अपने शरीर में होने वाले पर्यायों को देखो, उत्पाद और व्यय को देखो । हर क्षण उत्पन्न हो रहा है और विनष्ट हो रहा है । उत्पन्न और विनष्ट होते अणु को देखो । आचारांग सूत्र का एक महत्वपूर्ण सूक्त है— इस शरीर में होने वाले जो क्षण हैं उन क्षणों को देखो | इस क्षण में शरीर में क्या हो रहा है ! भोजन किया और पाचन हो रहा है । यह तो स्वचालित क्रिया है, कुछ करना Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र नहीं पड़ता । किन्तु ध्यान दें तो पाचन भी अच्छा होने लग जाएगा । नाभि को देखो, पाचन की क्रिया सुधरने लग जाएगी । हमारी अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को देखो, वे अपना काम फिर सम्यक् करने लग जाएंगी । हमें प्रभावित करने वाली तीन प्रमुख ग्रंथियां हैं- एड्रीनल, पिट्युटरी और थायराइड | हमारी ये तीन ग्रंथियां शक्ति-स्रोत हैं । ये हमें सबसे ज्यादा प्रभावित करती हैं । इन ग्रन्थियों को देखो, इनकी क्रिया बिल्कुल ठीक हो जाएगी। देखने की शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है । यदि देखने की शक्ति पर ध्यान दिया जाता तो हमारा तीन स्तर पर जीवन का जो प्रवाह चलता है, वह संतुलित बन जाता । तीन स्तर हैं- एक शारीरिक (फिजिकल) स्तर, दूसरा चैतसिक (साईकिक) स्तर और तीसरा आध्यात्मिक (स्प्रिच्युअल) स्तर । इन स्तरों पर हमारा जीवन का जो प्रवाह चलता है, उस प्रवाह को संतुलित किया जा सकता है । जीवन का प्रवाह चलता है, उसमें अनेक स्थितियां आती हैं । हम एक स्थूल उदाहरण ले-कुछ पक्षी ऐसे होते हैं जो अण्डों का सेवन करते हैं और कुछ ऐसे हैं, जो सेवन नहीं करते, बस सामने जाकर बैठ जाते हैं, देखते हैं और अंडे पक जाते हैं । मछलियां क्या सेक करती हैं ? नहीं करती । केवल दर्शन और स्पर्शन। कुछ पक्षी स्पर्श करते हैं, अण्डों पर बैठ जाते हैं। कुछ पक्षी केवल देखते हैं और देखने से ही अण्डे पक जाते हैं । देखने की शक्ति पर भरोसा करें समस्या यह है— देखने की शक्ति पर अभी भरोसा नहीं है, विश्वास पैदा नहीं हुआ है । यदि हमारा विश्वास दृढ़ हो जाए, आत्म-संकल्प से देखें तो सारी क्रिया बदल जाएगी । साधक चैतन्य केन्द्रों पर ध्यान करता है, शरीर प्रेक्षा का प्रयोग करता है, यह न कोई जप है, न कोई ध्वनि है, न कोई मंत्र है, केवल दर्शन है। जब देखना शुरू करते हैं, तब वहां के सारे अवयव सक्रिय बन जाते हैं । यह देखने की शक्ति है । हम इस सचाई पर भरोसा करें कि देखने की शक्ति एक विचित्र शक्ति है। इसका कारण है आँख से देखते हैं तो आँख के द्वारा विद्युत् का गमन होता है । हमारे शरीर में से बिजली निकलने के कुछ स्रोत हैं । आँख, वाणी और अंगुलियों से काफी विद्युत् निकलती है | स्पर्श चिकित्सा में दक्ष व्यक्ति अंगुली का स्पर्श करते हैं, एकदम आराम सा मिलता है । जो लोग मर्दन करते हैं, Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान और स्वास्थ्य १०३ बड़े कुशल होते हैं । पैरों को दबाते हैं, पीड़ा मिट जाती है । कुछ लोग हाथ फेरते हैं, हस्त-स्पर्श करते हैं और दर्द विलीन हो जाता है । एक व्यक्ति ने कहा- भाई ! थोड़ा सा हाथ फेरो । वह स्पर्श चिकित्सा में दक्ष था । उसने हाथ से स्पर्श किया और दर्द थोड़ी देर में ठीक हो गया । कोई दवा नहीं दी फिर ठीक कैसे हुआ ? अंगुलियों के द्वारा जो विद्युत् निकलती है, वह विद्युत शरीर में जाकर पीड़ा को तीतर-बीतर कर देती है । मर्दन करने वाले इतने कुशल होते हैं कि अंगुलियों के स्पर्श से पीड़ा को मिटा देते हैं । जैसे अंगुलियों से बिजली निकलती है वह शरीर को स्वस्थ बनाती है वैसे ही हमारी वाणी के द्वारा बिजली निकलती है । एक शब्द ऐसा कहा, वाणी का ऐसा प्रयोग किया, धनात्मक बिजली निकली और बीमार व्यक्ति भी खड़ा हो गया । एक शब्द ऐसा कहा गया कि जो व्यक्ति बीमार नहीं था, वह भी बीमार पड़ गया । बिजली अपना काम करती है । उससे पोजिटिव और नेगेटिव-दोनों प्रकार के कार्य होते हैं । __ तीसरा प्रमुख स्रोत है— दृष्टि । उससे बिजली निकलती है और वह बिजली जिस पर जाती है उसे प्रभावित करती है । विद्युत् की पृष्ठभूमि में छिपा रहता है भाव । जिस समय विधायक भाव है, उस समय आँख से विद्युत् रश्मियां निकलती हैं तो सामने वाले व्यक्ति को स्वस्थ बना देती है । जिस समय अच्छा भाव नहीं है उस समय विद्युत् रश्मियां अभिशापात्मक निकलती हैं, निग्रहात्मक निकलती हैं और वे व्यक्ति को रुग्ण बना देती हैं । यह आँख का काम है । हम आँख को बंद कर अन्तर्दृष्टि से देखें तो और ज्यादा शक्तिशाली काम हो जाता है । चाहें स्वयं को देखें, चाहें दूसरे को देखें, आँख बंद कर दूसरे को देखा जा सकता है और उसका प्रभाव भी उस रोगी पर पड़ सकता है । अपने शरीर के जिस अवयव को देखा जाता है, उस पर भी उसका प्रभाव पड़ता है । बहुत वर्ष पहले की बात है । जेठाभाई झवेरी आए । वे रोग से पीड़ित थे। गले में पट्टा बंधा हुआ था । उन्होंने कहा- मैं सीधा बैठ ही नहीं सकता। गले में पट्टा बंधा हुआ रखना पड़ता है । उन्हें प्राण-संचार का प्रयोग कराया गया । प्राण-संचार देखने का प्रयोग है । प्रयोग शुरू किया । वे प्रबुद्ध व्यक्ति थे। दूसरे दिन स्वयं प्रातःकाल सूर्य के सामने बैठ गए, प्रयोग किया । अनेक दिन इस प्रकार प्रयोग किया और पट्टा खुल गया । सीधे बैठने लगे । मैंने Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र पूछा -- यह कैसे हुआ ? क्या कोई दवा ली थी ? उन्होंने कहा- प्राण संचार के प्रयोग से यह दर्द मिट गया। जो दवा ले रहा था, वह भी छूट गई । बीमारी को मिटाता है शरीर एक प्रबुद्ध व्यक्ति ने कहा- हम दवा लेते हैं, दवा एक बार बीमारी की रोक-थाम करती है किन्तु बीमारी को मिटाती नहीं है । मैंने कहा- बीमारी आखिर मिटेगी कैसी ? शरीर ही बीमारी को मिटाता है । यह प्राकृतिक चिकित्सा का तो मूल सिद्धान्त है । मेडिकल साइंस का भी यही मंतव्य है कि क्षति की पूर्ति करना, शरीर को स्वस्थ बनाना, शरीर का ही काम है । शरीर में ऐसी व्यवस्था है कि एक आँख काम कम करती है तो दूसरी आँख उसका पूरा सहयोग करने लग जाती है । एक किडनी कम काम करती है तो दूसरी किडनी पूरा दायित्व अपने ऊपर ओढ़ लेती है और जीवन भर काम चला देती है। कोई भी अवयव कम काम करता है तो दूसरा उसका पूरा सहयोग करेगा । यह भी स्वाभाविक व्यवस्था है कि जिस अवयव में कमी होती है दूसरा अवयव उसका सहायक बन जाता है । यह समाज के सीखने की बात है कि एक अवयव की कमी होने पर शरीर का दूसरा अवयव किस प्रकार उसका सहयोग करता है । सामाजिक प्राणी शायद ऐसा नहीं करते । यह एक बोधपाठ है कि बिना सहयोग किये दूसरा व्यक्ति स्वस्थ कैसे रहेगा ? शरीर भी स्वस्थ नहीं रह सकता यदि दूसरा अवयव सहयोग न करे । मस्तिष्क की एक कोशिका कम काम करती है तो दूसरी सक्रिय बन जाती है । किसी घर में दो नौकर होते हैं । एक बाहर जाता है, अवकाश पर रहता है तो अकेला नौकर दोनों का काम संभाल लेता है । किन्तु शायद समाज में ऐसा नहीं होता । एक व्यक्ति कमजोर है तो उसके दायित्व को कोई दूसरा संभाल ले, ऐसा नहीं होता है किन्तु शरीर में यह सारी प्रक्रिया चलती है । वास्तव में बीमारी को कौन मिटाता है ? शरीर ही मिटाता है । हमारे शरीर में पैदा होने वाले रसायन ही शरीर को दुरुस्त करते हैं । इसके लिए केवल एक अपेक्षा है कि हम देखना सीख जाएं। यह देखने की कला आ जाए तो काफी परिवर्तन हो सकता है । महावीर की ध्यान करने की पद्धति जप करने की पद्धति नहीं है । जप सहायक हो सकता है । वह ध्यान की पद्धति नहीं है, न कोई दूसरा प्रयोग करने की पद्धति है किन्तु वह केवल Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रेक्षाध्यान और स्वास्थ्य १०५ देखने की पद्धति है-ऊपर को देखो, मध्य को देखो और नीचे को देखो। शरीर को तीन भागों में विभक्त कर दिया गया-शरीर के ऊपरी भाग को देखो, शरीर के मध्य भाग को देखो, शरीर के अधोभाग को देखो । सारी शक्तियां कहां निहित हैं ? शरीर में ही निहित हैं । शरीर को देखना है । इसे आँख खोलकर जितना अच्छा देखा जा सकता है, उससे अधिक अच्छा आँख का संयम कर देखा जा सकता है विचार को देखें हम देखने के द्वारा चार समस्याओं का समाधान करें । अनिद्रा रोग का समाधान और पाचनतंत्र की समस्या का समाधान-ये शारीरिक हैं । तीसरा है अच्छा मन । मन के प्रति हमारी जागरूकता बढ़े, अनिष्ट चिन्तन न हो, क्योंकि जब-जब व्यक्ति किसी दूसरे के प्रति अनिष्ट चिन्तन करता हैं तब तब सामने वाला व्यक्ति प्रभावित होता है या नहीं, चिन्तन करने वाला निश्चित प्रभावित होता है । हमारे व्याख्याकारों ने इसका बहत सुन्दर वर्णन किया है कि अनिष्ट चिन्तन से किस प्रकार के अनिष्ट पुद्गलों का विकिरण होता है ? वे हमारे शरीर को कैसे प्रभावित करते हैं ? मन को भी देखना सीखें । वह भी एक संस्थान है | जो चिन्तन आ रहा है उसको भी देखें। किस प्रकार का विचार आ रहा है इसकी प्रेक्षा करें । चिन्तन को देखें । विचार को देखेंगे तो चिन्तन स्वस्थ बनेगा, मानसिक स्वास्थ्य अच्छा होगा और शरीर भी अच्छा रहेगा। भाव को देखना सीखें चौथी बात है-भाव को देखना सीखें । कौनसा भाव पैदा हो रहा है, इसके प्रति जागरूक रहें । यह सबसे महत्त्वपूर्ण बात है-जो भाव पैदा होता है, उसको देखें ? क्रोध कहां पैदा हो रहा है ? उसी समय क्रोध को देख लें । क्रोध आगे बढ़ेगा ही नहीं । स्थूल को क्या देखेंगे ? मूल तो यही है कि क्रोध को देखें । इसका तात्पर्य है जहां क्रोध पैदा हो रहा है, उस स्रोत को देखें । क्रोध आगे नहीं बढ़ेगा । क्रोध वहीं शान्त हो जाएगा । अहंकार पैदा हो रहा है | आप तत्काल देखें-अहंकार कहां पैदा हो रहा है ? हमारे Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र मस्तिष्क में सारे स्थान निश्चित हैं । जितने भाव प्रकट होते हैं उन सबके हमारे मस्तिष्क में स्थान हैं । जो वृत्ति पैदा होनी शुरू हुई है, जो भाव पैदा होना शुरू हुआ है, उसी पर ध्यान टिका दें, देखना शुरू कर दें, बीमारी आगे नहीं बढ़ेगी । चिकित्सा का महामंत्र यह प्रेक्षा मानसिक चिकित्सा, भाव चिकित्सा और शरीर चिकित्सा का महामंत्र है । बीमारियां तीन प्रकार की हैं- शरीर की बीमारी, मन की बीमारी और भाव की बीमारी । तीनों की चिकित्सा का सूत्र है - शरीर को देखें, मन को देखें, भाव को देखें और भाव के स्रोत को देखें । यह चिकित्सा का सूत्र इतना महत्वपूर्ण है कि यदि इस पर सम्यक् मनन करें, स्रोत को खोजें तो गहराई में पहुंच सकते हैं । क्रोध का स्रोत कहां है ? क्रोध कहां पैदा होता है ? मेडिकल साइंस में इसका बहुत अच्छा ज्ञान मिल सकता है । उस बिन्दु पर ध्यान टिकाएं, उस बिन्दु को देखने का प्रयत्न करें, तो जीवन का कायाकल्प हो सकता है । दर्शन की पद्धति अध्यात्म चेतना के जागरण की पद्धति है, चिकित्सा की पद्धति है । इसका सम्यक् मूल्यांकन और उपयोग कर हम अनेक शारीरिक एवं मानसिक समस्याओं से मुक्ति पा सकते हैं । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग और स्वास्थ्य अध्यात्म के क्षेत्र में अनेक प्रयोग आविष्कृत हुए, उनमें कायोत्सर्ग आधारभूत प्रयोग रहा । कायोत्सर्ग के होने पर दूसरे प्रयोग सहज सिद्ध हो जाते हैं । इसके अभाव में कोई भी प्रयोग पूरा सफल नहीं बनता । इसलिए कायोत्सर्ग को अध्यात्म साधना की आधारशिला कहा गया है । ध्यान के सारे प्रयोग कायोत्सर्ग से प्रारंभ होते हैं । - कायोत्सर्ग का प्रयोग बहुत व्यापक है । हठयोग का शब्द है—शवासन, मुर्दे की तरह हो जाना । जैनयोग का शब्द है- कायोत्सर्ग । इसमें मुर्दा जैसा नहीं बनना है, काया का उत्सर्ग करना है । इसमें शारीरिक प्रवृत्तियों का शिथिलीकरण होता है । केवल शिथिलीकरण ही नहीं, चैतन्य के प्रति जागरूकता भी होती है । कायोत्सर्ग का सबसे बड़ा सूत्र है— ममत्व का विसर्जन । जब तक ममत्व की ग्रंथि प्रबल रहती है, अध्यात्म की साधना भी नहीं होती और शारीरिक-मानसिक बीमारियों के लिए एक पृष्ठभूमि भी तैयार रहती है। कोई भी शरीर या मन की बीमारी किसी ग्रंथि की प्रबलता के कारण ही आ सकती है, पनप सकती है और अपना डेरा जमा सकती है । सबसे बड़ी बात है ममत्व का विसर्जन । शरीर के प्रति हमारी आसक्ति न रहे तो शरीर अधिक काम देता है । शरीर के प्रति आसक्ति बढ़ती है तो फिर वह भी बीमारियों का साथ देने लग जाता है । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र विकसित होती है अल्फा तरंग __ भगवान् महावीर का एक वचन बहुत महत्वपूर्ण है-कायोत्सर्ग सब दुःखों का मोक्ष करने वाला है, सब दुःखों से छुटकारा देने वाला है । यह एक छोटा सा सूत्र है, पर इसकी मर्मस्पर्शी व्याख्या करना बड़ी कठिन बात है । कायोत्सर्ग सब दुःखों से छुटकारा कैसे दे सकता है ? यदि विज्ञान के संदर्भ में इसे हम समझने का प्रयत्न करें तो बात कुछ समझ में आ सकती है । मस्तिष्क की कई तरंगें हैं अल्फा, बीटा, थीटा, गामा आदि । जब-जब अल्फा तरंग होती है, मानसिक तनाव से मुक्ति मिलती है, शान्ति प्रस्फुटित होती है | कायोत्सर्ग की स्थिति में अल्फा तरंग को विकसित होने का मौका मिलता है । कायोत्सर्ग किया और अल्फा तरंगें उठने लग जाएगी, मानसिक तनाव घटना शुरू हो जाएगा । ई. सी. जी. करने वाला निर्देश देता है कि शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़ कर सो जाओ । दांत निकालते समय डाक्टर सुझाव देता है कि जबड़े को बिल्कुल ढीला छोड़ दो । जबड़ा भींचा रहा तो दांत नहीं निकल पाएगा और दर्द भी ज्यादा होगा । दर्द को मिटाना है, दर्द को कम करना है तो कायोत्सर्ग अनिवार्य है। तनाव और दर्द वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हम इसकी व्याख्या करें । अभी जो नई खोज हुई है, वह यह है कि रसायन के द्वारा हम पीड़ा को दूर कर सकते हैं । हमारे मस्तिष्क में, सुषम्ना में अनेक रसायन पैदा होते हैं, जो पीड़ा को कम कर देते हैं । जब-जब व्यक्ति गहरी भक्ति में जाता है, वैराग्य भावना बढ़ती है, ध्यान की गहरी स्थिति बनती है, वह रोगजनित पीड़ा को भूल जाता है | यही पीड़ा-शामक दशा बनती है कायोत्सर्ग की स्थिति में । कायोत्सर्ग की स्थिति में हर पीड़ा कम हो जाएगी। इस संदर्भ में महावीर का यह वचन'कायोत्सर्ग सब दुःखों को शान्त करनेवाला है'-कितना मूल्यवान और महत्वपूर्ण है । जहां भी तनाव आएगा, दर्द बढ़ जाएगा। तनाव और दर्द का गहरा संबंध है । जैसे ही तनाव कम होगा, पीड़ा कम हो जाएगी। शरीर को ढीला करो, शिथिल करो, पीड़ा विलीन हो जाएगी । जो रसायन हमारे शरीर में Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग और स्वास्थ्य १०९ पैदा होते हैं, उन रसायनों को पैदा करने के लिए कायोत्सर्ग सबसे महत्वपूर्ण प्रयोग है । संजीवनी बूंटी कायोत्सर्ग- शतक कायोत्सर्ग पर बहुत अच्छा प्रकाश डालने वाला ग्रंथ है । इसमें कायोत्सर्ग के विषय में महत्वपूर्ण सूचना मिलती है । कायोत्सर्ग का लाभ क्या है ? कहा गया- 'इससे देह की जड़ता और मति की जड़ता का शोधन होता है ।' प्राचीन व्याख्याकारों ने इतना बतलाया - देह और मति की जड़ता मिटती है । आज विज्ञान के युग में देहयुक्त जड़ता को शान्त करें तो बहुत सारी नई बातें आ जाती हैं । कायोत्सर्ग के द्वारा रक्त विकार अथवा मोह शान्त हो जाता है । विकार की जो बीमारी है, कायोत्सर्ग में वह शान्त हो जाएगी । रक्तचाप की बीमारी के लिए कायोत्सर्ग संजीवनी बूंटी का काम करता है । जिन्हें रक्तचाप था, प्रेक्षाध्यान शिविर काल में उन्हें कायोत्सर्ग का प्रयोग करवाया गया । परिणाम यह आया जिनका रक्तचाप १७० था, आधा घंटा के कायोत्सर्ग में १४० पर आ गया । आधा घंटा में इतना अन्तर आ जाता है । यदि दीर्घकाल तक करें तो बहुत अन्तर आ सकता है । दीर्घकाल तक कायोत्सर्ग की एक पद्धति रही है । गंभीर मानसिक बीमारी के लिए बताया गया- पहले दिन पूरा कायोत्सर्ग, दिन-रात का कायोत्सर्ग । दूसरे दिन उससे कुछ कम । तीसरे दिन पुनः अहोरात्र कायोत्सर्ग और चौथे दिन कुछ कम | यह क्रम बराबर चले । नौ दिन का यह क्रम होता है । इस क्रम से प्रयोग करें तो गंभीर मानसिक बीमारी शान्त हो जाएगी । कायोत्सर्ग की एक लम्बी प्रक्रिया है । एक दिन का कायोत्सर्ग, दो दिन का कायोत्सर्ग और बारह दिन का कायोत्सर्ग । यह दीर्घकालिक कायोत्सर्ग रक्तचाप और हृदयरोग के लिए बड़ा कल्याणकारी है । हृदय, मस्तिष्क और मेरुदण्ड के लिए बहुत उपयोगी है । इन तीनों को आराम देना कायोत्सर्ग का मुख्य प्रयोग है। ये तीनों स्वस्थ हैं तो सब कुछ ठीक है । मस्तिष्क, हृदय और मेरुदण्ड ठीक काम कर रहा है तो स्वास्थ्य की काफी सुविधा हो जाती है । मानसिक तनाव और इससे उत्पन्न विकृति के लिए कायोत्सर्ग जैसा कोई महत्वपूर्ण उपाय या चिकित्सा की दूसरी पद्धति नहीं है । मनश्चिकित्सक के Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र पास रोगी जाता है तो चिकित्सक सबसे पहले सुझाव देता है— “तुम बिल्कुल ढीले होकर सो जाओ ।' मांसपेशियों की शिथिलता, मस्तिष्कीय स्नायुओं की शिथिलता, पूरे शरीर की शिथिलता- बिल्कुल ढीला छोड़ दो । इस स्थिति में प्राण का संतुलन हो जाता है । प्राण का संतुलन कायोत्सर्ग की मुद्रा में होता है । प्राण संतुलन का प्रयोग असंतुलित प्राण अनेक बीमारियों के लिए उत्तरदायी है | प्राण के असंतुलन की बीमारी को अभी मेडिकल साइंस ने भी नहीं पकड़ा है । जहां भी प्राण ऊर्जा ज्यादा इकट्ठी हो गई, कोई न कोई गड़बड़ी जरूर पैदा करेगी । शरीर में प्राण ऊर्जा संतुलित रहनी चाहिए । नाड़ियों में प्राण ऊर्जा का प्रवाह संतुलित होना चाहिए। जहां ऊर्जा ज्यादा इकट्ठा हुई, वहां समस्या पैदा हो गई। मनुष्य के कामकेन्द्र में ज्यादा इकट्ठा हुई तो काम वासना प्रबल हो जाएगी। वह इतनी बढ़ जाएगी कि उसे सहन करना कठिन हो जाएगा । जहां भी प्राण ऊर्जा आवश्यकता से ज्यादा इकट्ठी होगी, बीमारी पैदा कर देगी | नाभि में ज्यादा हो गई तो गुस्सा आने लग जाएगा, चिड़चिड़ापन बढ़ जाएगा, अनेक विकृतियां पैदा हो जाएंगी । प्राण का संतुलन रहे तो व्यक्ति अनेक विकृतियों से बच सकता है । प्राण-संतुलन का एक सुन्दर उपाय है- कायोत्सर्ग । जहां शिथिलता होती है, वहां प्राण ऊर्जा का असंतुलन संतुलन में बदल जाता है | प्राण का प्रवाह अपने आप ठीक हो जाता है । प्राण-संतुलन का एक उपाय है— मंद श्वास । श्वास को मन्द करना बहुत जरूरी है | अच्छे स्वास्थ्य के लिए एक बड़ी शर्त यह है कि श्वास कभी तेज न हो । कायोत्सर्ग करें, श्वास अपने आप मन्द हो जाएगा । कायोत्सर्ग करने से पूर्व श्वास की संख्या का माप करें और दस मिनट कायोत्सर्ग करने के बाद श्वास की संख्या का माप करें तो पाएंगे कि श्वास की संख्या कम हो गई है, मन्द हो गई है । प्राण का संतुलन, श्वास को मन्द करना, यह सब कायोत्सर्ग की अवस्था में सहज प्राप्त होते हैं । अनिद्रा और कायोत्सर्ग अनिद्रा का रोग आज बहुत व्यापक हो रहा है । नींद नहीं आती, बड़ी Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग और स्वास्थ्य १११ समस्या रहती है | कायोत्सर्ग नींद की सर्वोत्तम गोली है । जिन व्यक्तियों ने ठीक से कायोत्सर्ग साधा है, अनिद्रा की बीमारी उन्हें कभी नहीं सताएगी । थकान भी एक बड़ी समस्या है | बहुत सारी बीमारियां थकान के कारण पैदा होती हैं । बहुत मानसिक श्रम किया, मस्तिष्क थक गया । बहुत ज्यादा शारीरिक श्रम किया, शरीर थक गया । हृदय से ज्यादा काम लिया, हृदय थक गया । किडनी से ज्यादा काम लिया, किडनी थक गई । लीवर से ज्यादा काम लिया तो वह थक गया । शारीरिक अथवा आंगिक थकान जो होती है, वह थकान बीमारी को पैदा करती है । कायोत्सर्ग थकान को मिटाने का बहुत अच्छा उपाय है । यदि आपको थकान है तो पांच मिनट कायोत्सर्ग में चले जाएं, थकान एकदम मिट जाएगी । खिंचाव और शिथिलीकरण योगासन की पद्धति में विधान किया गया- आसन करो । आसन का काम है खिंचाव पैदा करना, तनाव पैदा करना । मांसपेशियों को तनाव देना भी बहुत जरूरी है । मांसेशियों को तनाव दो और तनाव के बाद उन्हें ढीला छोड़ दो | यह स्वास्थ्य का बहुत महत्वपूर्ण सूत्र है-खिंचाव दो और शिथिलीकरण करो । यह विधान रहा- सर्वांग-आसन करो, उसके बाद विपरीत आसनमत्स्यासन करो । उसके अंतराल में एक मिनट का कायोत्सर्ग करो । भुजंगासन या कोई दूसरा आसन करो तो बीच में एक मिनट का कायोत्सर्ग करो । हर आसन के बाद एक मिनट का कायोत्सर्ग । तनाव ही तनाव देते रहे तो आसन भी खराबी पैदा करेंगे। हमारा हृदय भी निरन्तर नहीं चलता है । हृदय बहुत अच्छा कायोत्सर्ग करता है । एक क्षण वह चलता है और एक क्षण बाद कायोत्सर्ग में चला जाता है । ऐसा करता है तभी वह चौबीस घंटे धड़क पाता है। अगर कायोत्सर्ग न करे तो वह इतना काम नहीं कर सकता । स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण सूत्र है— खिंचाव और शिथिलीकरण | कायोत्सर्ग विश्राम देनेवाला है । यह शरीर और मन दोनों को विश्राम देता है | हमारी शारीरिक और मानसिक प्रणाली को स्वस्थ रखने का महत्वपूर्ण सूत्र हैकायोत्सर्ग। मन पर भी कितना भार होता है। कोई गधा, बैल अथवा ऊँट जितना भार नहीं ढोता, कोई ट्रक जितना भार नहीं ढोता, उससे ज्यादा भार Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र मन ढोता है । एक छोटी-सी घटना घटती है, वह चली जाती है, किन्तु उसका भार मनों-टनों से भी ज्यादा हो जाता है । इतना भार हमारा मन और मस्तिष्क ढोता है । वह भार कैसे मिटाया जाए? इसके लिए बहुत सुन्दर प्रयोग है कायोत्सर्ग । भार का विशोधन पूछा गया— 'भंते ! कायोत्सर्ग से क्या होता है ?' कहा गया- 'जो भार है, उसका विशोधन होता है । कोई ऐसा आचरण या व्यवहार हो गया, ऐसी कोई घटना हो गई और उससे मन पर जो बोझ आ गया, उसका विशोधन होता है । प्राचीन काल में प्रायश्चित्त की विधि कायोत्सर्ग ही रही। अमुक व्यवहार अकरणीय हो गया, आठ श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग करो । अमुक व्यवहार अकरणीय हो गया तो पन्द्रह श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग, पच्चीस श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग अथवा क्रमशः हजार श्वासोच्छ्वास का कायोत्सर्ग । कायोत्सर्ग एक प्रक्रिया रही है भार विशोधन की, प्रायश्चित्त की। उससे आगे एक और महत्वपूर्ण सूचना दी गई है-जब प्रायश्चित्त की विशुद्धि हो जाती है, जब वह बोझ उतर जाता है, तब हृदय शान्तिपूर्ण हो जाता है। जैसे अनाज की बोरी ढोने वाला उसे ढोते समय बड़े भार का अनुभव करता है, किन्तु जब वह उस बोरी को उतार कर विश्राम लेता है तो उसे ऐसा अनुभव होता है, जैसे वह बिल्कुल हल्का हो गया है | हमारे आचरणों, व्यवहारों, घटनाओं, परिस्थितियों का जो दिमाग पर मानसिक बोझ होता है, कायोत्सर्ग करते ही एकदम हल्का हो जाता है । व्यक्ति असीम सुख-शान्ति का अनुभव करता है । शारीरिक तनाव से मुक्ति, मानसिक तनाव से मुक्ति तथा स्वास्थ्य की अमूल्य निष्पत्तियां और सूचनाएं इसके द्वारा दी गई । समाधान है संवर कायोत्सर्ग के बिना न मन की शुद्धि हो सकती है और न दिमाग की। इसका भी एक आध्यात्मिक, तात्विक कारण है | आश्रव और संवर— ये दो समस्या पैदा करने वाले हैं । आश्रव मानसिक विकृति को पैदा करता है और भावात्मक विकृति को भी पैदा करता है | जहां आश्रव है, वहां विकृति पैदा Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायोत्सर्ग और स्वास्थ्य ११३ होगी । डाक्टर कहते हैं-सामने कोई व्यक्ति खांसता है तो दूसरे व्यक्ति को नाक पर कपड़ा लगा लेना चाहिए । किसी को इन्फेक्शन है तो सामने वाले को नाक पर कपड़ा लगा लेना चाहिए । डाक्टर जब आप्रेशन करता है, नाक पर वस्त्र बांध लेता है । कारण यही है कि बीमारी का संक्रमण न हो | नाक खुला हुआ है तो श्वास के साथ बीमारी के कीटाणु भीतर प्रवेश पा पाएंगे। नाक बन्द कर लो, संवर हो गया । नाक का संवर करना जरूरी है । आश्रव समस्या का मूल है । संवर समस्या का समाधान है | हमारे शरीर में आश्रव बहुत हैं | आश्रवों का दरवाजा खुला हुआ है । शरीर के सारे दरवाजे बंद हो तो मन कुछ नहीं कर सकता । शरीर का योग नहीं मिले तो कुछ नहीं हो सकता । मनोवर्गणा को कौन ग्रहण करता है ? वचनवर्गणा को ग्रहण कौन करता है ? शरीर करता है | अगर शरीर का कायोत्सर्ग हो जाए, शरीर शिथिल हो जाए तो मन का दरवाजा बन्द हो जाए, बीमारियों का द्वार भी बंद हो जाए । यह तात्विक बात हमारे लिए कितनी व्यावहारिक बनती है। जिनभद्रगणी ने बड़ी महत्वपूर्ण बात कही-चंचलता एक ही है और वह शरीर की चंचलता है । काया को ठीक से साध लो तो मन सध जाएगा, वाणी सध जाएगी, और भी बाते सध जाएंगी । कितना महत्वपूर्ण सूत्र है यह । यदि हम इसका ठीक उपयोग करें, काया को साध लें, कायसिद्धि कर लें और स्थिर रहना सीख जाएं तो अनेक समस्याओं से मुक्ति मिल जाए । रहस्यपूर्ण प्रयोग कायोत्सर्ग का एक प्रकार है ऊर्ध्व कायोत्सर्ग-खड़े-खड़े कायोत्सर्ग करना । भगवान् महावीर ने काया के उत्सर्ग के जो प्रकार बतलाए, उनमें एक है ऊर्ध्व कायोत्सर्ग । इससे एक रहस्य प्रकट होता है । ऊर्ध्व कायोत्सर्ग करने से प्राण ऊर्जा संतुलित बन जाती है, कहीं ज्यादा इकट्ठी नहीं हो पाती । ब्रह्मचर्य की सिद्धि का यह रहस्यपूर्ण प्रयोग है । इसका रहस्य यह है कि जिसमें रागात्मक प्रवृत्ति है, वह ज्यादा बैठना नहीं चाहता । जिसमें द्वेषात्मक प्रवृत्ति है, वह ज्यादा चलना नहीं चाहता । यह ऑपन साइंस का नियम है | रागात्मक प्रवृत्ति के लिए गमनयोग का संयम अपेक्षित है । कितना रहस्यपूर्ण सूत्र है यह । यह ऊर्ध्व-स्थान ब्रह्मचर्य की साधना का महत्वपूर्ण सूत्र है । बैठ कर भी कायोत्सर्ग Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र होता है । इसमें भी हमारा गुरुत्वाकर्षण कम हो जाता है । खड़े खड़े कायोत्सर्ग करते हैं तो गुरुत्वाकर्षण बहुत कम हो जाता है । जब गुरुत्वाकर्षण बढ़ जाता है, तब गुरुत्वाकर्षण भी भार पैदा करता है । कायोत्सर्ग की अवस्था में बैठे हैं तो गुरुत्वाकर्षण कम हो जाएगा । लेटकर कायोत्सर्ग करें तो भी यही स्थिति बनती है । यह सामान्य प्रकार है । कायोत्सर्ग के दो प्रकार और भी हैं। वाम-पार्श्व शयन कायोत्सर्ग और दक्षिण-पार्श्व शयन कायोत्सर्ग बांयीं और दांयीं करवट लेट कर कायोत्सर्ग करना । जब कभी सक्रियता लाना है, प्राण ऊर्जा को बढ़ाना है, बायीं पार्श्व सोकर कायोत्सर्ग करें । इसमें पिंगला (सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम) सक्रिय बन जाता है । जब हम दायीं ओर लेटकर कायोत्सर्ग करते हैं तो पेरा सिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम सक्रिय बन जाता है । इस प्रकार कायोत्सर्ग की अनेक निष्पत्तियां और परिणतियां हैं । स्वास्थ्य की दृष्टि से विचार करें, मन के बोझ को उतारने की दृष्टि से विचार करें,मानसिक और शरीररिक तनाव को कम करने की दृष्टि से विचार करें तो कायोत्सर्ग के नए-नए पहलू हमारे सामने आते हैं | यदि पूछा जाए कि प्रेक्षाध्यान की पद्धति में आधारभूत प्रयोग क्या है तो उत्तर होगा-कायोत्सर्ग । प्रेक्षाध्यान का प्रारंभ बिन्दु कायोत्सर्ग है और अंतिम बिन्दु भी कायोत्सर्ग है । आत्मा की साधना का पहला और अंतिम बिन्दु भी कायोत्सर्ग है । इसीलिए इसे आत्मिक स्वास्थ्य का अमोघ सूत्र भी कहा जा सकता है Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य प्रेक्षा और अनुप्रेक्षा– दोनों जुड़े हुए शब्द हैं । देखो, चिन्तन करो,सुझाव दो और जैसा चाहो, वैसा बनो-यह अनुप्रेक्षा का सिद्धांत है | अनुप्रेक्षा का विकास केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से नहीं हुआ है । उसका पहला उद्देश्य है भावात्मक परिवर्तन, व्यक्तित्व निर्माण । हम अपने आपको बदल सकें, यह परिवर्तन का सिद्धांत है । जब हम भावना को बदल सकते हैं तब अन्य समस्याओं में भी परिवर्तन ला सकते हैं । स्वास्थ्य उससे स्वतः फलित होता है । परिवर्तन का सूत्र परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण सूत्र मिलता है उतराध्ययन सूत्र में । प्रश्न किया गया— भंते ! अनुप्रेक्षा से जीव क्या प्राप्त करता है ? महावीर ने उत्तर दिया- अनुप्रेक्षा के द्वारा जीव को अनेक उपलब्धियां होती हैं ० जो कर्म बहुत प्रगाढ़ रूप में बंधा हुआ है, वह शिथिल बंधन में बदल जाता है । ० जो दीर्घकालीन स्थिति वाला है, वह अल्पकालिक स्थिति वाला बन जाता है। ० जिन कर्मों का विपाक तीव्र होने वाला हैं, वह मंद हो जाता है । विपाक का मंदीकरण अथवा प्रदेशोदयीकरण हो जाता है । कर्म का विपाक होगा तो बहुत मंद होगा, जिसका पता ही नहीं चलेगा । विपाकोदय को प्रदेशोदय Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र में बदलने का अर्थ है— कर्म परिपाक का पता ही नहीं चलता । वह अपने आप मुक्त हो जाता है । • कर्म प्रदेश जितने राशि परिमाण में हैं, उस राशि परिमाण का अल्पीकरण हो जाता है । • असात वेदनीय कर्म का उपचय नहीं होता । इसका फलित यह है कि जो असात वेदनीय कर्म बंधा हुआ है उसका भी अपचय हो जाता है । अनुप्रेक्षा की इस निष्पत्ति का स्वास्थ्य के साथ संबंध है— असात वेदनीय का बंध नहीं होता और जो प्राचीन बंधा हुआ है, वह क्षीण अथवा शिथिल होता है । ये सारे अनुप्रेक्षा के परिणाम हैं । इनमें हम भावात्मक परिवर्तन, कर्म परिवर्तन और स्वास्थ्य परिवर्तन के सूत्र खोज सकते हैं । अनुप्रेक्षा : चार चरण प्रेक्षाध्यान में जो अनुप्रेक्षा का विकास हुआ है, उसमें पहली बात है उद्देश्य का निर्णय । हम सबसे पहले यह उद्देश्य बनाएं कि क्या करना है । अलग अलग अनुप्रेक्षाएं हैं और उनकी अलग अलग निष्पत्तियां है । यदि भय को दूर करना चाहते हैं तो अभय की अनुप्रेक्षा बहुत फलदायी है । यदि पारस्परिक कलह और संघर्ष को मिटाना चाहते हैं तो सामंजस्य की अनुप्रेक्षा बहुत उपयोगी है । इसीलिए सबसे पहले उद्देश्य का निर्धारण जरूरी है कि हम क्या बनना चाहते हैं ? उद्देश्य के आधार पर ही किसी अनुप्रेक्षा का प्रयोग हो सकता है । यदि स्वास्थ्य का विकास करना है तो स्वास्थ्य की अनुप्रेक्षा करें । प्रेक्षा ध्यान में अभी तीस से अधिक अनुप्रेक्षाओं के प्रयोग चल रहे हैं । इतनी ही पर्याप्त नहीं हैं, इनमें भी विकास का अवकाश है, सैकड़ों सैकड़ों अनुप्रेक्षाओं के प्रयोग विकसित किए जा सकते हैं । किन्तु उनके विकास और प्रयोग का आधार यही है कि हमें क्या होना है । उद्देश्य के अनुरूप ही अनुप्रेक्षा का प्रयोग निर्धारित हो सकता है । एकाग्रता का विकास । जो उद्देश्य बनाया है, उस पर दूसरा तत्व हैपूर्ण एकाग्र बनें । तीसरा तत्व है मन और मस्तिष्क पर आदेश का गहराई से प्रयोग Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य ११७ करें, आदेश को आत्मसात् कर लें । हम जो होना चाहते हैं, उसे आदेश की भाषा में प्रस्तुत करें। जैसे अभय का विकास करना है तो उसे आदेश की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत करें- 'मैं अभय का विकास करना चाहता हूं | भय की भावना समाप्त हो रही है । अभय का भाव विकसित हो रहा है ।' मस्तिष्क को सुझाव और आदेश दें- अभय का विकास करना है । हाइपोथेलेमस, जो भावधारा का मुख्य केन्द्र है, को सुझाव दें- तुम ऐसे स्रावों का प्रयोग करो, जिससे अभय की वृत्ति विकसित हो जाए । चौथा तत्व है— अनुभूति या भावनात्मक शाब्दिक प्रयोग । मस्तिष्क को आदेश देने के बाद अनुभूति को उसके साथ जोड़ो । अभय की भावना विकसित हो रही है - यह केवल शब्दोच्चार तक सीमित न रहे । इसे अनुभूति के साथ जोड़ो, भावना के साथ जोड़ो । शक्ति आती है भावना के द्वारा | योग में एक बहुत अच्छी बात कही गई है— हरीतिकी को भावना से भावित करो, उसकी शक्ति बढ़ जाएगी । य र ल व - ये बीज तत्व माने जाते हैं । भावना के द्वारा इनमें शक्ति पैदा हो जाती है । भावना पूर्वक, अनुभूति पूर्वक शब्दों का प्रयोग करो, अभय का अवतरण होने लग जाएगा । यह अनुप्रेक्षा की प्रयोग - पद्धति है । इन चार चरणों में हम अनुप्रेक्षा का प्रयोग करें, परिवर्तन निश्चित घटित होगा । आटोजेनिक ट्रेनिंग यह आश्चर्य की बात है— अनुप्रेक्षा का सिद्धांत हमें मिला लेकिन हमने इसके बहुत प्रयोग नहीं किए । पश्चिम के लोगों ने इसका बहुत उपयोग किया। ओटोजेनिक ट्रेनिंग में हर अवयव को सुझाव दिया जाता है । यह स्वजनित प्रशिक्षण की पद्धति प्रोफेसर जोह्वानिज एच शुल्ज ने विकसित की है । इस पद्धति में शरीर के प्रत्येक अवयव पर अनुप्रेक्षा का प्रयोग किया जाता है । यदि पाचनतंत्र खराब है तो पाचनतंत्र पर ध्यान केन्द्रित कर सुझाव दिया जाता है— 'पाचनतंत्र स्वस्थ और सक्रिय हो रहा है।' लीवर, किडनी, आंतें - प्रत्येक अवयव का अनुप्रेक्षा से संबंध है । ओटोजिनिक ट्रेनिंग में शरीर को यह सुझाव दिया जाता है- 'तुम शक्तिशाली बन जाओ, अपनी शक्ति का पूरा प्रयोग करो । जो बीमारियां हैं, उन्हें बाहर फेंक दो ।' इन शब्दों को अनुभूति के I Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र साथ दोहराया जाता है । पूरे शरीर पर इस पद्धात का प्रयाग किया जाता अनप्रेक्षा एक सुरक्षा कवच है | जैन साधकों ने इस रूप में उपयोग किया है किन्तु इसका स्वास्थ्य और परिवर्तन की दृष्टि से उपयोग नहीं हुआ। सिर से लेकर पैर तक चौबीस तीर्थंकरों की स्मृति अथवा स्तुति करते हुए प्रत्येक अवयव पर ध्यान किया जाता है । इससे शरीर का सुरक्षा कवच बन जाता है। कोई भी मंत्र की साधना करने वाला मंत्र-साधना के लिए बैठता है तो पहले सुरक्षा कवच का निर्माण करता है । साधना में विघ्न आते रहते हैं और उन विघ्नों के निवारण के लिए शरीर के प्रत्येक अवयव का कवच बना लेता है । अनुप्रेक्षा के इस सिद्धान्त का सुरक्षा कवच के रूप मे प्रयोग किया किन्तु भाव चिकित्सा के रूप में नहीं किया । यह कहा गया- सिर को देखो और ऋषभ का ध्यान करो, भावना करो-ऋषभनाथ मेरे सिर की रक्षा करें । यदि इसके साथ यह प्रयोग होता-सिर की सारी समस्याएं समाहित हो रही है, सिर स्वस्थ हो रहा है तो स्वास्थ्य का प्रश्न भी सुलझ जाता । सिर से पैर तक सुरक्षा कवच के साथ साथ स्वास्थ्य का कवच भी बनाया जाता तो एक नई पद्धति विकसित हो जाती । किन्तु ऐसा प्रयोग हुआ नहीं। पश्चिम के लोगों ने इसका स्वास्थ्य के संदर्भ में प्रयोग किया । वे एक रहस्य को पकड़ते हैं और उसे एक पद्धति के रूप में विकसित कर देते हैं । ओटो जिनिक ट्रेनिंग अनुप्रेक्षा पद्धति की ही संवादी प्रणाली है । इस पद्धति के आधार पर अनेक देशों में प्रयोग चल रहे हैं । जापान में इस पद्धति का काफी उपयोग हुआ है । इसके द्वारा उन्हें भौतिक क्षेत्र में सफलता मिली है, सामाजिक क्षेत्र में सफलता मिली है, साथ साथ साधना का क्षेत्र भी विकसित हुआ है । संकल्प शक्ति का प्रयोग अनुप्रेक्षा सिद्धांत का एक सूत्र है संकल्प शक्ति का प्रयोग । मंत्र होता है संकल्प । जिस व्यक्ति ने सच्चे मन से संकल्प किया, उसने समस्या का समाधान पाया । राजस्थानी में कहा जाता है संकट के क्षण में देवी-देवता की ओट ली । यह ओट क्या है ? यह संकल्प शक्ति का प्रयोग है । जो प्रयोग अनाथी मुनि ने किया था, वही प्रयोग आज न जाने कितने लोग कर Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य ११९ रहे हैं । व्यक्ति ने ओट ली, संकल्प शक्ति का प्रयोग किया और ऐसा चमत्कार घटित हो गया, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । आज ऐसा लगता है–समस्या बहुत गंभीर बनती जा रही है और कल ऐसा लगता है कि समस्या कुछ है ही नहीं । गंभीर लगने वाली समस्या स्वतः सुलझ जाती है । व्यक्ति को आश्चर्य होता है कि यह कैसे हुआ ? क्या ऐसा हो सकता है ? वस्तुतः यह संकल्प शक्ति के प्रयोग का चमत्कार है । प्रतिपक्ष भावना अनुप्रेक्षा सिद्धांत का एक सूत्र है- प्रतिपक्ष भावना का प्रयोग । यह प्रयोग जैन आगमों में तथा महर्षि पतंजलि के योगदर्शन में बहुत सुन्दर वर्णित है । दशवैकालिक सूत्र का एक श्लोक है— उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे । मायं चज्जवभावेण, लोहं संतोसओ जिणे । उपशम से क्रोध को जीतो, मार्दव से अभिमान को जीतो, ऋजुता से माया को जीतो और संतोष से लोभ को जीतो । यह श्लोक बहुत सरल है किन्तु इसका प्रतिपक्ष भावना के रूप में प्रयोग करें तो यह बहुत महत्वपूर्ण बन जाता है । एक व्यक्ति ने कहा- क्रोध बहुत आता है । कैसे मिटाएं क्रोध ? उपाय बताया- उपशम से क्रोध को जीतो। यह सूत्र बता दिया किन्तु इसकी व्याख्या नहीं की। फिर प्रश्न उभरा-उपशम कैसे आए ? क्रोध को कैसे जीता जाए ? कहा गया- अनुप्रेक्षा का प्रयोग करो, प्रतिपक्ष भावना का प्रयोग करो । क्रोध शान्त हो रहा है, उपशम भाव विकसित हो रहा है- इस बिन्दु पर एकाग्र बनो, आदेश दो, सुझाव दो और इस सचाई का अनुभव करो । केवल उच्चारण मात्र से परिवर्तन घटित नहीं होगा । उपशम से क्रोध को जीतो, यह पढ़ने या रटने मात्र से क्रोध शान्त नहीं होगा। इसके लिए अनुप्रेक्षा की समग्र प्रक्रिया से गुजरना होगा । यदि अनुप्रेक्षा नहीं है तो प्रतिपक्ष भावना सफल नहीं होगी । जब तक अनुप्रेक्षा का सिद्धांत हृदयंगम नहीं होगा तब तक केवल उच्चारण सार्थक नहीं होगा। आप जो होना चाहते हैं, वह तभी हो सकते हैं, जब उद्देश्य निश्चित है, उस पर एकाग्र हो रहे हैं । सुझाव अथवा आदेश की भाषा भावना से अनुप्राणित Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२७ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र है। शब्द निकल रहे हैं और साथ साथ भावना की रश्मियां भी निकल रही हैं। यह पूरी प्रक्रिया चले तो क्रोध को जीतने का सपना सफल बन जाए। मान को मृदुता से जीतो- प्रतिपक्ष भावना है मृदुता । यह अहं-विलय का अमोघ सूत्र है । इसकी सिद्धि के लिए अनुप्रेक्षा की वही प्रक्रिया अपनानी होगी, प्रतिपक्ष भावना को आत्मसात् करना होगा । अनुप्रेक्षा की समग्र प्रक्रिया के बिना ये भावनाएं सफल नहीं हो सकती । अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य ___ अनुप्रेक्षा भावनात्मक परिवर्तन का प्रयोग है । इसके साथ स्वास्थ्य का प्रश्न भी जुड़ा हुआ है । क्रोध से कितनी बीमारियां पैदा होती हैं ! केवल मानसिक और भावात्मक ही नहीं, शारीरिक बीमारियां भी पैदा होती हैं । क्रोध का पहला परिणाम यह होता है कि रक्त विषैला बन जाता है । यदि उस समय क्रोधी व्यक्ति का रक्त निकाला जाए और वह रक्त दूसरों को दे दिया जाए तो संभव है वह व्यक्ति बेमौत मर जाए । ऐसी घटनाएं उपलब्ध होती हैं कि माँ भयंकर क्रोध से आविष्ट थी | उसने उसी अवस्था में शिशु को स्तन-पान कराया । परिणाम यह आया कि बच्चा मर गया । क्रोध से इतना विष पैदा होता है । हार्ट अटैक के लिए तो बहुत सहायक है क्रोध । हृदयरोग का मित्र है क्रोध । यह केवल भावात्मक ही नहीं, अनेक शारीरिक बीमारियों का जनक है । अहंकार के साथ भी अनेक शारीरिक बीमारियां जुड़ी हुई हैं । जो व्यक्ति अहंकार ज्यादा करता है उसका सिम्पेथेटिक नर्वस सिस्टम बहुत सक्रिय हो जाता है । हृदयरोग, पैप्टिक अल्सर आदि अनेक बीमारियों की संभावना बढ़ जाती है । माया के साथ भी अनेक बीमारियों का अनुबंध है । जो व्यक्ति कपटी है, वह यह सोच मन में बहुत राजी होता है कि मैंने ऐसा जाल बिछाया, जिससे मैं बच गया । वह बाहर से संतुष्ट होता है किन्तु भीतर में न जाने कितनी समस्याएं पैदा कर लेता है । माया में जितना तनाव होता है, क्रोध में उतना तनाव नहीं होता । क्रोध का तनाव होता है किन्तु माया का तनाव उससे ज्यादा भयंकर होता है । वह भीतर ही भीतर पलता रहता है, जिससे अनेक शारीरिक और मानसिक समस्याएं उभर आती हैं । लोभ के साथ भी बीमारियों का बहुत संबंध है । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य १२१ अध्यात्म और स्वास्थ्य का सूत्र ___इस सारे विश्लेषण के संदर्भ में अनुप्रेक्षा का मूल्यांकन करें तो अध्यात्म की दृष्टि से कहा जा सकता है- ये अनुप्रेक्षाएं भावात्मक परिर्वतन के सूत्र हैं । स्वास्थ्य की दृष्टि से विचार करें तो कहा जा सकता है-ये अनुप्रेक्षाएं स्वास्थ्य के अमोघ उपाय हैं । कषाय का उपशमन केवल अध्यात्म का ही नहीं, स्वास्थ्य का भी मूल-मंत्र है । यह कभी नहीं सोचा जा सकता- जो व्यक्ति तीव्र कषाय वाला है, वह शारीरिक, मानसिक और भावात्मक-तीनों स्तरों पर स्वस्थ रहेगा । जहां कषाय प्रबल हैं, वहां स्वास्थ्य निश्चित प्रभावित होगा । स्वास्थ्य का एक कारण है रक्ताभिसरण की क्रिया । हर कोशिका को ऑक्सीजन चाहिए | ऑक्सीजन का वाहक कौन है ? उसका वाहक है रक्त । सारे शरीर में रक्त सम्यक् प्रवाहित होता है तो कोशिकाओं को नवजीवन मिलता है । खुराक और ऑक्सीजन मिलता है । इसके बिना कोशिकाएं बिलकुल निकम्मी बन जाती हैं | जब जब कषाय-क्रोध, मान, माया, लोभ तीव्र बनते हैं तब तब रक्ताभिसरण की क्रिया प्रभावित होती है । वह ज्यादा प्रभावित होती है तो रक्त विषैला भी बनता है और रक्ताभिसरण की क्रिया भी ठप्प हो जाती है। इस स्थिति में अनेक बीमारियों को जन्म लेने का अवसर मिल जाता है । अनुप्रेक्षा इन सारी समस्याओं का एक समाधान है । इसीलिए एक अध्यात्मशास्त्री कहता है-यह भावात्मक परिर्वतन अथवा व्यक्तित्व निर्माण का सूत्र है | यदि स्वास्थ्यशास्त्री इस पद्धति का अनुशीलन करे तो उसकी भाषा होगी- स्वास्थ्य का इससे बढ़िया और कोई सूत्र नहीं हो सकता । समय का नियोजन करें वस्तुतः यह कितना महत्वपूर्ण सूत्र है- उद्देश्य का चुनाव करो, उस पर एकाग्र बनो, उपयुक्त शब्दावलि में सुझाव दो, आदेश दो, उसे भावना या अनुभूति के स्तर पर ले जाओ और जैसा चाहो वैसा बनो । एक बात पर अवश्य ध्यान दें- यह केवल स्मृति मात्र से नहीं होगा । इसकी प्रक्रिया के साथ समय का बोध भी जुड़ा हुआ है । कम से कम आधा घण्टा अथवा अड़चास मिनट तक इसका प्रयोग नहीं होगा तो कुछ परिणाम नहीं आएगा। अगर परिर्वतन लाना है तो अपेक्षित समय का नियोजन करना होगा । यदि Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र समय का नियोजन न कर पाएं तो अनुप्रेक्षा को दोष न दें । एक सामायिक का काल सबसे अच्छा बताया गया है । अड़चास मिनट का समय हमारी भावधारा को एक रूप में बनाए रखने का समय है । हम इतने समय का नियोजन प्रतिदिन करें और किसी समस्या को लेकर बैठ जाएं । कम से कम तीन सप्ताह और ज्यादा से ज्यादा तीन मास का समय लगेगा । यह अनुभव हो जाएगा कि आपके भीतर निश्चित परिर्वतन हो रहा है । इसमें कोई संदेह नहीं है । इस बात का भी ध्यान रखें- एक साथ अनेक समस्याओं को न लें । एक समस्या को लें । शरीर की एक समस्या, मन की एक समस्या अथवा भावात्मकता की एक समस्या । समस्या का चुनाव कर प्रयोग करें, आत्मविश्वास के साथ करें तो अनुभव होगा- इससे बढ़िया कोई दवा और डाक्टर नहीं है। परिर्वतन की कला _अनप्रेक्षा का प्रयोग सत्य को हृदयंगम करने का प्रयोग है । स्वाध्याय के पांच प्रकारों में एक है अनुप्रेक्षा । इसका तात्पर्य है— पहले शब्द को पढ़ो, फिर उसका ठीक उच्चारण करो, उसके अर्थ का बोध करो । जब अर्थ का बोध होता है, तब मस्तिष्क बिलकुल साफ हो जाता है । अर्थ बोध के बिना कोरा पाठ बहुत काम का नहीं होता । जो अर्थ जाना है, उसे आत्मसात् करने के लिए अनुप्रेक्षा करो, अनुचिन्तन करो | धर्म उत्कृष्ट मंगल है- केवल उच्चारण मात्र से यह हृदयंगम नहीं होगा । वह मंगल कैसे है.--- इसकी अनुचिन्तना और अनुप्रेक्षा करो । इस अर्थ को आत्मसात् कर लेंगे तभी धर्म हमारे लिए मंगल बन पाएगा | जिस व्यक्ति ने धर्म के अर्थ को हृदयंगम कर लिया, धर्म की भावना को मस्तिष्क में स्थापित कर लिया, उसके लिए धर्म सदा मंगलकारी होगा। यह अनुप्रेक्षा का संक्षिप्त स्वरूप है । यदि आप आध्यात्मिक विकास चाहते हैं तो अनुप्रेक्षा का प्रयोग करना होगा । मोह का शमन करना चाहते हैं तो अनुप्रेक्षा का प्रयोग करना होगा । बदलना चाहते हैं तो अनुप्रेक्षा का प्रयोग करना होगा । व्यवहार को शुद्ध बनाना चाहते हैं तो अनुप्रेक्षा का प्रयोग करना होगा । स्वास्थ्य को अच्छा बनाना चाहते हैं तो अन्प्रेक्षा का प्रयोग करना होगा अनुप्रेक्षा के द्वारा वह घटित होगा, जो आप चाहते हैं । शरीर Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य १२३ का प्रत्येक अवयव आपकी चाह को साकार करेगा । चाहे आप हाथ को सुझाव दें - यह काम नहीं करना है और यह काम करना है | लम्बे समय तक यह सुझाव देते रहें, हाथ आपकी बात को स्वीकार कर लेगा । जो ज्ञान तंतु हैं, वे हमारी बात को पकड़ते हैं । अपेक्षा यह है— हम मृदु व्यवहार करना सीखें, ऐसा सुझाव देना सीखें, जिससे समस्या का समाधान हो जाए । परिर्वतन की इस कला को जो समझ लेता है, उसे अनुप्रेक्षा का रहस्य हृदयंगम हो जाता है । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याध्यान और स्वास्थ्य एक आदमी आम खाता है, संतरा खाता है । एक आकार दिखाई देता है । रंग विज्ञान की दृष्टि से विचार करने पर निष्कर्ष होगा - वह कोई ठोस द्रव्य नहीं, रंग का ही सघन रूप है । हमारी दुनिया में सब कुछ रंगीन ही रंगीन है । रंगविहीन आत्मा है अथवा कुछ अन्य तत्व हो सकते हैं । सारा दृश्य जगत्, पौद्गलिक जगत् रंगीन है । रंग के भी नाना रूप हैं । प्रकंपन की एक निश्चित आवृत्ति पर रंग सघन बनता है और वह दृश्य बन जाता है । विचित्र प्रश्न : विचित्र उत्तर यह स्वीकार करना चाहिए - सारी दुनिया रंगों की दुनिया है । केवल रंगमंच पर ही रंगों का अभिनय नहीं होता, प्रदर्शन नहीं होता किन्तु जीवन के हर क्षण में, जीवन की हर प्रवृत्ति में रंग ही रंग है । रंग का एक रूप है रश्मि । लेश्या का सिद्धांत रश्मि का सिद्धांत है, रंगों का सिद्धांत है । आज से ढाई हजार वर्ष पहले महावीर ने लेश्या - सिद्धांत का प्रतिपादन किया । उससे भी पहले भगवान् पार्श्व के समय में रंगों पर बहुत प्रकाश डाला गया । यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है— रंग किस प्रकार मनुष्य को प्रभावित करते हैं ? रंग का मनुष्य की वृत्तियों से क्या संबंध है ? हिंसा, असत्य, अस्तेय आदि अठारह प्रकार के पाप बतलाए गए हैं । गौतम ने पूछा- भंते ! एक व्यक्ति Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याध्यान और स्वास्थ्य १२५ हिंसा करता है । हिंसा में कितने रंग होते हैं ? कितनी गंध होती है ? कितने रस होते हैं ? कितने स्पर्श होते हैं । सबसे पहला प्रश्न है रंग का । महावीर ने कहा- गौतम ! हिंसा में पांच रंग हैं । विचित्र प्रश्न और विचित्र उत्तर । इस सूत्र की व्याख्या लेश्या सिद्धांत और वर्तमान रंगविज्ञान के आधार पर ही की जा सकती है। यदि अठारह पापों का इस दृष्टि से विश्लेषण किया जाए तो एक स्वतंत्र ग्रंथ प्रस्तुत हो जाए | यह प्रश्न स्वाभाविक है- एक आदमी बहुत ज्यादा हिंसा करता है। दूसरा आदमी उससे कम करता है । तीसरा आदमी उससे भी कम करता है । एक व्यक्ति ऐसा भी है जो चींटी को देखते ही प्रकंपित हो जाता है और अपना पैर पीछे खींच लेता है । एक व्यक्ति ऐसा भी होता है, जो चींटी के ढेर को जानबूझ कर कुचल डालता है किन्तु उसका हृदय प्रकंपित नहीं होता। आखिर कारण क्या है ? यह प्रभाव है रंगों का | जिस व्यक्ति का रंग जितना ज्यादा अप्रशस्त है, उसकी उतनी ही हिंसा में रुचि हो जाती है, आकर्षण पैदा हो जाता है । हिंसा करते हुए उसके चित्त में प्रकंपन नहीं होता। जिस व्यक्ति का रंग जितना प्रशस्त होता है वह व्यक्ति उतना ही हिंसा से विरत रहता है। रंग का प्रभाव यह एक नियम बनाया जा सकता है- जितना जितना अप्रशस्त रंग उतनी उतनी हिंसा में प्रवृत्ति । जितना जितना प्रशस्त रंग उतनी उतनी हिंसा से निवृत्ति। वर्तमान रंग विज्ञान में माना गया है- बैंगनी रंग अच्छा होता है तो हिंसा की वृत्ति कम हो जाती है । बैंगनी रंग अच्छा नहीं होता है, अप्रशस्त होता है तो हिंसा की वृत्ति बढ़ जाती है । इसी प्रकार झूठ बोलने के साथ भी रंगों का संबंध है, स्तेय, अब्रह्मचर्य और परिग्रह के साथ भी रंगों का संबंध है । एक व्यक्ति बहुत क्रोध करता है, बहुत चिड़ाचड़ा है तो खोजना होगा कि किस रंग के प्रभाव में वह जी रहा है ।। सोवियत संघ की घटना है । एक विद्यालय के विद्यार्थी बहुत उदंड और उच्छृखल थे । अध्यापक परेशान हो गए | सोचा-सारे विद्यार्थी उच्छृखल कैसे बन गए ? इसका कारण क्या है ? अनेक चिकित्सकों को बुलाया, विशेषज्ञो Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र से परामर्श किया पर कोई समाधान नहीं मिला । एक दिन एक रंग-वैज्ञानिक आया । उसने गहरा अध्ययन किया और कारण समझ में आ गया । उसने कहा-विद्यार्थी उच्छंखल हो, यह स्वाभविक बात है । इस विद्यालय की दीवारें, कमरे-सब कुछ गहरे लाल रंग से रंगे हुए हैं । खिड़कियों पर लगे हुए पर्दे भी गहरे लाल रंग के है | जहां इतना गहरा लाल रंग है वहां सक्रियता अधिक होगी । जहां अत्यधिक सक्रियता और ऊष्मा है, वहां उदंडता स्वाभाविक है । रंग-वैज्ञानिक ने सुझाव दिया—आप इन लाल पर्दो को हटाइए | कमरे के रंग में परिवर्तन कीजिए | लाल के स्थान पर नीले रंग का प्रयोग करें । अध्यापकों ने इस सुझाव को क्रियान्वित किया, उइंडता की समस्या सामप्त हो गई । सारे विद्यार्थी सहज शान्त बन गए । हम इसका विश्लेषण करें- प्रकृति पर, स्वभाव पर रंग का कितना असर होता है | लाल रंग था, सब उदंड बन गए । नीला रंगा आया, सब शान्त हो गए । क्रोध, मान, माया, लोभ- ये सब रंगों के साथ जुड़े हुए हैं इसलिए कोई भी व्यक्ति आरोग्य और रोग पर विचार करे और रंगों पर विचार न करे, लेश्या पर विचार न करे तो शायद वह पूरा स्वस्थ नहीं हो सकता। स्वास्थ्य के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि कौन सा रंग प्रभावित कर रहा है । बम्बई की घटना है । एक व्यक्ति बहुत बीमार रहता, निरंतर बुखार से पीड़ित रहता | बहुत उपचार करवाया, ऐलोपैथी, होम्योपैथी सब दवाएं ले ली पर स्वस्थ नहीं हुआ । आखिर कलकत्ता के विख्यात रत्न-रश्मि चिकित्सक को बुलाया । रत्न-चिकित्सक ने पूरे शरीर को देखा, बीमारी का हेतु पकड़ में आ गया । चिकित्सक ने कहा- तुम्हारे हाथ में यह जो अंगूठी है, वही निरंतर ज्वर का हेतु है । तुम इसे हाथ में मत रखो । उसने अंगूठी को तत्काल उतार दिया । चिकित्सक ने कहा- इस अंगूठी में जो रत्न जड़ा है, उसमें बहुत रश्मियां संचित हैं । उन रश्मियों का विकिरण भी प्रभावित कर सकता है इसलिए इस अंगूठी को किसी अन्य कक्ष में रख दो । ज्वर-पीड़ित व्यक्ति ने वैसा ही किया । परिणाम यह आया- जो ज्वर वर्षों से पीड़ित कर रहा था, वह सायं तक नहीं ठहर पाया । बीमारी और आरोग्य दोनों के साथ रंगों का गहरा संबंध है । भगवान् महावीर ने लेश्या सिद्धांत का प्रतिपादन किया । उसमे छह रंगों के आधार Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याध्यान और स्वास्थ्य १२७ पर छह लेश्याओं की बात कही । यह मात्र संकेत है । विस्तार में जाएं तो अनेक रंग बन जाते हैं । उनका विश्लेषण भी लेश्या के आधार पर किया जा सकता है और यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कौन-सा रंग कैसा प्रभाव डालता है । रंग, भाव और आभामंडल लेश्या के संदर्भ में रंग, भाव और आभामंडल-- तीनों पर विचार करें। लेश्या की वर्गणा अथवा पुद्गल हैं । उनका अपना रंग होता है । वे रंग हमारी भावधारा को प्रभावित करते हैं । लेश्या का एक अर्थ हो गया रंग। लेश्या का एक अर्थ है भावधारा । रंग और भावधारा दोनों में गहरा संबंध है, व्यापक संबंध है । अमुक प्रकार का रंग आया है तो अमुक प्रकार का भाव बन जाएगा और अमुक प्रकार का भाव आया है तो अमुक प्रकार का रंग हो जाएगा। जैसा रंग वैसा भाव और जैसा भाव वैसा रंग । बोलचाल की भाषा में कहा जाता है- अमुक व्यक्ति का भाव बदला और रंग बदल गया । ये रंग भाव को भी प्रभावित करते हैं और तैजस शरीर की रश्मियों को भी प्रभावित करते हैं । शरीर से जो ऊर्जा निकलती है इलेक्ट्रो मेग्नेटिक फील्ड बनाती है, वह रंगों से संबंधित है । हमारा शरीर विद्युत् शरीर है । इससे निरंतर, शरीराकार आकृतियां निकलती रहती हैं | उसके साथ रंग तुल्य रश्मियों का योग होता है | हमारे शरीर के चारों ओर रंग का मण्डल बन जाता है, प्रभामंडल बन जाता है । श्रेष्ठ महापुरुषों के चित्रों को जहां प्रदर्शित किया जाता है वहां उनके सिर के पीछे प्रभा का मण्डल दिखाया जाता है। उसे भामण्डल कहा जाता है | एक शरीर के चारों ओर रश्मि का वलय होता है, उसे आभामण्डल कहा जाता है । आभामण्डल के लिए हेलो और आभामण्डल के लिए ओरा शब्द का प्रयोग किया जाता है । यह आभामण्डल और आभामण्डल वैसा ही होता है जैसी लेश्या होती है ।। जिस व्यक्ति का भाव निर्मल और पवित्र होता है, उसका भामण्डल और आभामण्डल बहुत शक्तिशाली बन जाता है । जिस व्यक्ति का भाव अशुद्ध होता है, जो बुरे विचारों और बुरी धारणाओं से आक्रांत रहता है, जो हिंसा आदि दृष्प्रवृत्तियों में रहता है, उसका आभामण्डल निस्तेज, दुर्गंधयुक्त और मलिन बन जाता है । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र सूचना देता है आभामण्डल रंग, भाव और आभामण्डल- इन सबके साथ जुड़ा है स्वास्थ्य और अस्वास्थ्य का संबंध । जिस व्यक्ति का आभामण्डल जितना मलिन है, वह व्यक्ति उतना ही मानसिक और भावात्मक बीमारियों से ग्रस्त रहेगा, अनेक व्याधियों से पीड़ित रहेगा । जिस व्यक्ति का आभामण्डल बहुत पवित्र है, वह आरोग्य का वरण करेगा, शरीर, मन और भावना–तीनों स्तरों पर स्वस्थ रहेगा । वर्तमान के विज्ञान में एक पद्धति विकसित हुई है—आभामण्डल का अध्ययन करना और आभामण्डल के आधार पर रोग का निदान करना । इस पद्धति का विकास हो रहा है । आभामण्डल जितना सही निर्णय प्रस्तुत करता है, उतना कोई यंत्र नहीं कर सकता । यंत्रों की स्थिति तो यह भी है कि वे कभी कभी बीमार को स्वस्थ बता देते है और स्वस्थ को बीमार बता देते हैं | आभामण्डल कभी किसी को धोखा नहीं देता । यह माना गया शरीर में जो बीमारी होने वाली है, उसकी छह अथवा बारह महीने पहले आभामण्डल सूचना दे देता है । उससे यह पता चल जाता है कि अमुक प्रकार की बीमारी होगी और वह इतने समय बाद प्रकट होगी । इस तथ्य से हम समझ सकते है कि आभामण्डल के साथ आरोग्य का संबंध कितना है । गंध, रस और स्पर्श व्यक्ति की प्रवृत्ति के साथ जो पांच वर्ण जुड़े हए हैं, वे प्रशस्त भी हो सकते हैं, अप्रशस्त भी हो सकते हैं । इसी प्रकार गंध के लिए बतलाया गया। गंध दो प्रकार की होती है दुर्गंध और सुगंध । यदि हमारी भावधारा पवित्र है तो सुगंध प्रस्फुटित होगी । यदि भावधारा अपवित्र है तो दुर्गंध आने लगेगी। कहा गया- तीर्थंकर का श्वास कमल जैसी सुगंध वाला होता है। इसका कारण क्या है ? कारण है पवित्र भाव । भाव पवित्र है तो श्वास के पुद्गल भी प्रशस्त होंगे । यह कमल की सुगंध उन्हीं प्रशस्त पुद्गलों से आती है | जो पवित्र भावधारा के पुद्गल हैं, उनमें सुगंध पैदा हो जाती है। यदि भावधारा अपवित्र है तो सड़े हुए कलेवर जैसी दुर्गंध भी आ सकती है। रस और स्पर्श के संदर्भ में भी ऐसा ही होता है । यदि भावधारा पवित्र है तो एकदम पके हुए आम और केले जैसा मीठा रस आएगा | यदि भावधारा Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याध्यान और स्वास्थ्य १२९ अपवित्र है, तो रस में कड़वापन और कसैलापन आ जाएगा । यदि हमारी भावधारा पवित्र है तो मक्खन जैसे कोमल और मृदु स्पर्श का अनुभव होगा। यदि भावधारा अपवित्र है तो कठोर, तीक्ष्ण और खुरदरे स्पर्श का अनुभव होगा । वर्तमान रंग चिकित्सा अथवा रश्मि चिकित्सा पद्धति में केवल रंग को पकड़ा गया है । यदि हम विश्लेषण करें तो आभामंडल में केवल वर्ण ही नहीं, गंध, रस और स्पर्श भी हैं | जहां लेश्या का संबंध है वहां वर्ण, गंध, रस और स्पर्श चारों जुड़े हुए हैं | रंग बदलेगा तो गंध बदल जाएगी, रंग बदलेगा तो रस बदल जाएगा और रंग बदलेगा तो स्पर्श बदल जाएगा । इस समग्र सिद्धांत के आधार पर हम आरोग्य अथवा स्वास्थ्य की मीमांसा करें तो सहज निष्कर्ष होगा-लेश्या के सिद्धांत को समझे बिना हम केवल दवाओं के आधार पर स्वास्थ को सुरक्षित नहीं रख सकते । लेश्या और भावधारा लेश्या और भावधारा में अन्तर्व्याति है । लेश्या का अर्थ है भावधारा और भावधारा का अर्थ है लेश्या । जब व्यक्ति बहुत ज्यादा हिंसा में प्रवृत्त होता है तब मान लेना चाहिए-उस व्यक्ति में कृष्ण लेश्या के पुद्गलों का अधिक संचय हो गया है । जिसमें कृष्ण लेश्या के पुद्गल अधिक संचित हैं, वह अजितेन्द्रिय हो जाएगा । अजितेन्द्रियता कृष्ण लेश्या का परिणाम है । जिस व्यक्ति में कृष्ण लेश्या अधिक होती है, उसमें इस प्रकार की भावधारा प्रवाहित होती है । कृष्ण लेश्या को बदलो, हिंसा की वृत्ति बदल जाएगी, हिंसा से घृणा हो जाएगी । कभी कभी ऐसी घटनाएं घटती हैं कि व्यक्ति आश्चर्य से भर जाता है । क्रूर और हिंसक व्यक्ति एक क्षण में ही क्रूरता और हिंसा की वृत्ति को त्याग देता है । यह कैसे होता है ? इसका कारण है लेश्या का परिर्वतन । लेश्या बदलती है, भाव बदल जाते हैं। किसी निमित्त को पाकर रंग बदलता है और रंग बदलते ही हिंसा की बात मन से निकल जाती है, चोरी की बात मन से निकल जाती है । यह देख कर आश्चर्य होता है—पहले क्षण जो क्रूर हत्यारा था, वह दूसरे क्षण में साधु बन गया । अंगुलिमाल और अर्जुनमालाकार का जीवन इस सचाई का स्वयम्भू साक्ष्य है । अर्जुनमालाकार प्रतिदिन सात व्यक्तियों की हत्या करता था । छह पुरुष और एक स्त्री प्रतिदिन Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र उसके हाथों से मारे जाते थे । एक निमित्त मिला, हिंसा का भाव बदला और वह महावीर के पास जाकर दीक्षित हो गया । प्रश्न हो सकता है— महावीर ने ऐसे व्यक्ति को मुनि कैसे बनाया ? वह कितना क्रूर हत्यारा था । जो छह महीने से निरंतर सात सात व्यक्तियों की हत्या कर रहा था, महावीर ने उसे दीक्षित कैसे किया ? महावीर व्यक्ति के रंग को, लेश्या, भावधारा और आभामण्डल को साक्षात् देख लेते थे इसलिए उन्हें दीक्षित करने में कोई कठिनाई नहीं हुई । योग के क्षेत्र में यह माना गया कि आचार्य किसी व्यक्ति को शिष्य बनाते हैं तो औपचारिक रूप से यह जानकारी करते हैं-इस व्यक्ति का चलन कैसा है ? व्यवहार कैसा है ? प्रकृति कैसी है ? यह व्यावहारिक कसौटी है | इस कसौटी के पश्चात् आचार्य यह देखते हैं कि व्यक्ति का आभामण्डल कैसा है ? आभामण्डल को देखकर योग्यता और अयोग्यता का निर्णय करते हैं । जिसका आभामंडल अच्छा प्रतीत होता है, उसे दीक्षित करते हैं । जिसका आभामण्डल अच्छा नहीं लगता, उसे अस्वीकार कर देते हैं । दीक्षा की एक महत्वपूर्ण कसौटी रही है आभामण्डल | कैसा है भाव ? महत्वपूर्ण प्रश्न है-व्यक्ति का भाव कैसा है ? भावधारा के आधार पर लेश्या और आभामंडल का निश्चय किया जा सकता है । एक आदमी बहुत ईर्ष्यालु है तो मानना चाहिए कि नीललेश्या के परमाणु उसमें बहुत संचित हैं । वे परमाणु उसे ईर्ष्यालु बना रहे हैं । एक मनुष्य बहुत कपटी है, निरन्तर माया करता रहता है तो मानना चाहिए कि उसमें कापोत लेश्या के परमाणु बहुत संचित हो गए हैं । एक व्यक्ति बहुत अच्छा व्यवहार कर रहा है, मृदु और विनम्र व्यवहार कर रहा है तो मानना चाहिए कि तेजोलेश्या के परमाणु सक्रिय हैं। एक व्यक्ति बहुत उपशांत है, उसके क्रोध, मान, माया और लोभ प्रतनु बने हुए हैं तो मानना चाहिए- उसमें पद्मलेश्या के परमाणु क्रियाशील हैं । चमकते हुए पीले रंग के परमाणु प्रतनु कषाय का हेतु बनते हैं । एक व्यक्ति इन सबसे ऊपर उठ हुआ है, वृत्तियों के वर्तुल से मुक्त बना हुआ है, वीतराग तुल्य जीवन जी रहा है तो मानना चाहिए कि शुक्ललेश्या के परमाणु सक्रिय हैं। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव, तनाव और लेश्या यह भाव और लेश्या का संबंध है । किस लेश्या में कौन सा भाव पैदा होता है । इसकी सुंदर मीमांसा उत्तराध्ययन सूत्र में उपलब्ध है । भाव और लेश्या के संबंध को इस तालिका से भी समझा जा सकता है लेश्या भाव नृशंसता, हिंसा, अजितेन्द्रियता ईर्ष्या, आसक्ति मात्सर्य लेश्याध्यान और स्वास्थ्य १३१ कृष्ण नील माया, कापोत तैजस मृदुता विनय, प्रतनु कषाय पद्म उपशांत कषाय शुक्ल प्रश्न है- लेश्या और भाव स्वास्थ्य को कैसे प्रभावित करते हैं ? जब हिंसा, चोरी आदि के भाव जागते हैं तब एक प्रकार का तनाव पैदा करते हैं । वह तनाव व्यक्ति को रोगी बनाता है, बीमारी पैदा करता है । भावनाओं से जो तनाव होगा, वह स्नायविक तनाव बन जाएगा, नाड़ीतंत्रीय तनाव बन जाएगा । यह तनाव उस अवयव को विकृत बनाता है, पूरे शरीर को भी रोगी बना देता है । हम स्वास्थ्य की मीमांसा करें तो इस बात पर अवश्य ध्यान दें कि हमारी भावधारा कैसी रहती है ? भावधारा मलिन रहे और हम स्वस्थ रहना चाहें, यह संभव नहीं है । यह लेश्या - सिद्धांत के सर्वथा प्रतिकूल बात है । जिसमें स्वस्थ रहने की कामना है, उसे इस बात पर ध्यान देना होगा कि आर्त्तध्यान कितना होता है, रौद्रध्यान कितना होता है । यदि आर्त्त और रौद्र ध्यान होता है तो हमारी भावनाएं प्रभावित होंगी । भावना मन को प्रभावित करेगी, मन शरीर को प्रभावित करेगा और कोई न कोई जटिल मनोकायिक बीमारी पैदा हो जाएगी । भावधारा की पवित्रता और लेश्या की विशुद्धि ही जटिल समस्याओं से मुक्ति दिला सकती है । रंग का संतुलन लेश्या के रंग सहज स्वाभाविक होते हैं। विटामिन्स दो प्रकार के होते हैं । एक वे हैं, जो सिन्थेटिक्स अथवा रासायनिक मिश्रण से बनते हैं । एक Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र विटामिन्स वे हैं, जो फलों में, साग सब्जियों में नैसर्गिक रूप से होते हैं । बीमारियों के संदर्भ में रंगीन वस्तुओं का निषेध और विधान किया गया है । एक मुनिजी के शरीर में श्वेत चकत्ते हो गए । चिकित्सक ने कहा- 'आप श्वेत रंग का कोई पदार्थ न खाएं । यदि वह खाना आवश्यक ही है तो उसमें दूसरा ऐसा पदार्थ मिलाएं, जिससे उसका रंग बदल जाए। जैसे दही खाना है तो उसमें सेका हुआ जीरा मिला लें, दही श्वेत नहीं रहेगा ।' यदि अमुक प्रकार की बीमारी है तो हरे रंग की वस्तुएं ज्यादा खानी चाहिए । अमुक बीमारी है तो लाल अथवा श्वेत रंग की वस्तुएं ज्यादा खानी चाहिए । शरीर में किसी रंग विशेष की अल्पता भी बीमारी का एक हेतु बन जाती है । रंग का संतुलन होते ही स्वास्थ्य उपलब्ध हो जाता है । मंत्र साधक के लिए यह विधान है कि अमुक प्रकार की साधना करनी है तो वस्त्र लाल होना चाहिए, माला भी लाल होनी चाहिए । कषाय- शमन अथवा वीरागता की साधना करनी है तो श्वेत वस्त्र और माला का प्रयोग उत्तम है । 1 लेश्या चिकित्सा : चार विधियां स्वास्थ्य, मंत्र विद्या, साधना आदि के साथ लेश्या का प्रश्न जुड़ा हुआ है । इसलिए जब हम स्वास्थ्य पर विचार करें तब लेश्या के सिद्धांत को अवश्य सामने रखें । जब लेश्या को छोड़कर केवल दूसरी बातों पर ध्यान देते हैं तब लाभ तो होता है किन्तु पूरा लाभ नहीं होता । पूर्णता और समानता के लिए लेश्या के इन चारों पक्षों- वर्ण, गंध, रस और स्पर्श पर विचार करना चाहिए। इन चारों सिद्धांतों के आधार पर चिकित्सा की चार पद्धतियां विकसित की जा सकती हैं-रंग-चिकित्सा, गंध - चिकित्सा, रस- चिकित्सा और स्पर्शचिकित्सा। गंध चिकित्सा पद्धति भी विकसित रही है । आयुर्वेद के एक आचार्य ने ग्रंथ लिखा- पुष्प आयुर्वेद । कहा जाता है कि उसमें सोलह हजार पुष्पों के द्वारा चिकित्सा का विधान किया गया है । कोई दवा की जरूरत नहीं, केवल फूल को सुंघा दो, बीमारी समाप्त हो जाएगी । सुगंध के आधार पर सब प्रकार की बीमारियों के चिकित्सा -सूत्र खोजे गए । इसी प्रकार रस - चिकित्सा जाती है । अमुक बीमारी में अमुक रस का सेवन करो, बीमारी मिट जाएगी । स्पर्श - चिकित्सा का विकास भी प्राचीन काल में रहा है। जैन परिभाषा में कहा Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशु एवं वृद्ध स्वास्थ्य १३३ जाता है कि हाथ फेरा और बीमारी विलीन हो गई । पता ही नहीं चला कि कोई बीमारी थी । यह स्पर्श-चिकित्सा की प्रक्रिया है । रंग-चिकित्सा, गंध चिकित्सा, रस-चिकित्सा और स्पर्श-चिकित्सा- ये चारों प्रकार की चिकित्सा विधियां लेश्या से जुड़ी हुई हैं । इनका सम्यक् अन्वेषण और प्रयोग किया जाए तो चिकित्सा-शास्त्र दुनिया को सहज सुलभ चिकित्सा पद्धति का अवदान दे सकता है और वह अवदान स्वास्थ्य के लिए महान् वरदान बन सकता है । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदयरोग : कारण और निवारण बहुत प्राचीन काल से रोग और आरोग्य पर विचार होता रहा है । जैसे रोग के कारण शरीर के भीतर भी हैं और बाहर भी हैं, वैसे ही आरोग्य के हेतु शरीर के भीतर भी हैं और बाहर भी हैं । यदि हम भीतर के कारणों को ठीक प्रकार से समझ लें, उनके लिए एक विशेष प्रकार के दृष्टिकोण का निर्माण करें तो समस्या का काफी समाधान होता है | जहां मनुष्य के शरीर में जीवनी-शक्ति है, वहां उसके व्यवहार में रोग प्रतिरोधक शक्ति भी जीवन का मूल आधार है प्राणशक्ति । उसके द्वारा जीवन का संचालन होता है । जब तक प्राण-शक्ति है, तब तक प्राणी जीता है । जब प्राणशक्ति समाप्त होती है, तब कारण मिलने पर भी प्राणी मरता है और कारण न मिलने पर भी मरता है । मृत्यु सहेतुक और अहेतुक दोनों प्रकार की हो सकती है | हमारे दो मुख्य प्राण हैं- प्राण-प्राण और अपान प्राण । इनकी विकृति रोग पैदा करती है और इनकी स्वस्थता आरोग्य । स्वास्थ्य के लिए प्राण इतना महत्वपूर्ण है, फिर भी उसे किसी यंत्र के द्वारा पकड़ा नहीं गया और पकड़ा भी नहीं जा सकता । प्राण सूक्ष्म है | पकड़ा जा रहा है अवयव का रोग | किसी अवयव में कोई विकृति आती है, उसको मनुष्य पकड़ सकता है । इसलिए वर्तमान में जो आवयविक रोग हैं, उन पर विचार होता है, उनकी Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदयरोग : कारण और निवारण १३५ चिकित्सा होती है । हृदय का रोग, किडनी का रोग, लीवर का रोग- इस प्रकार अवयव के साथ रोग जुड़ा हुआ है। हृदय परिर्वतन का अर्थ आज हृदय रोग का संदर्भ हमारे सामने है । हृदय जीवन का महत्वपूर्ण अंग है । अनेकान्त दृष्टि से विचार करें तो केवल हृदय को ही जीवन का महत्वपूर्ण अंग नहीं माना जा सकता । अनेक अवयव ऐसे हैं, जो जीवन के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं । हृदय अच्छा काम कर रहा है, किन्तु किडनी फेल हो गई तो क्या होगा? अनेक समस्याएं पैदा हो जाएंगी । इसी प्रकार यह भी कहा जाता है— सब अवयव अच्छा काम कर रहे हैं, हार्ट फेल हो गया तो क्या होगा ? जीवन खतरे में पड़ जाएगा । जिसका जीवन के साथ इतना गहरा सम्बन्ध है, उसके स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना अपेक्षित है । वस्तुतः श्वास और हृदय-ये जीवन के पर्यायवाची जैसे बने हुए हैं । हृदय धड़कता है, आदमी काम करता है । हृदय बन्द हुआ, आदमी निष्क्रिय हो जाएगा। आयुर्वेद में हृदय दो अर्थों में प्रयुक्त हुआ है । एक हृदय वह है, जो धड़कता है, रक्त का शोधन करता है । एक हृदय वह है, जो मस्तिष्क में है । बहुत प्रचलित शब्द है हृदय-परिवर्तन । हृदय-परिवर्तन का एक अर्थ है-जो हृदय विकृत हो गया, उसके स्थान पर दूसरा कृत्रिम हृदय लगा देना । वस्तुतः यह हृदय-परिवर्तन नहीं, हृदय का प्रत्यारोपण है । हृदय-परिवर्तन का एक अर्थ है, भाव को बदल देना, चिन्तन और मानसिकता को बदल देना । वह हृदय है हमारा मस्तिष्क । जो शारीरिक क्रिया कर रहा है, वह हृदय एक मांसपिण्ड है | आज हम उस हृदय पर विचार कर रहे हैं, जो हमारे जीवन की गत्यात्मकता के लिए उत्तरदायी है । यह माना जाता है कि यदि ठीक व्यवस्था चले तो हृदय आदि अवयव सैकड़ों वर्षों तक अपना काम कर सकते हैं । उनकी इतनी क्षमता है किन्तु वह क्षमता काम में नहीं आती, उसका उपयोग भी नहीं किया जाता । अध्यवसान भगवान महावीर ने अकालमृत्यु के अनेक कारण बतलाए । अकालमृत्यु Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र का अर्थ ही है कि हमारे शरीर के सारे अवयव अपना काम करना बंद कर देते हैं और असमय में ही व्यक्ति मर जाता है । अकाल मृत्यु का एक कारण है अध्यवसान, राग-द्वेष की तीव्रता । अंतःकरण में तीव्र आवेश उभरा, प्रबल आक्रोश आया, हृदय की गति इतनी प्रबल बनी कि वह व्यक्ति की अकालमृत्यु का हेतु बन गई । यदि अकाल मृत्यु नहीं होती है तो वह अध्यवसाय व्यक्ति को बहुत कमजोर बना देता है । हमारे शरीर के अनेक अवयवों पर अध्यवसाय का प्रभाव होता है । हृदय बहुत संवेदनशील है | भावना से बहुत प्रभावित होता है हृदय । क्रोध तीव्र आया और हृदय प्रभावित हो गया । कभी-कभी वह हृदय को इतना प्रभावित करता है कि तत्काल हार्ट-अटैक हो जाता है, व्यक्ति मर जाता है । लोभ का तीव्र वेग भी हृदय को दुर्बल बनाता है । यदि लोभ अत्यधिक तीव्र हो जाए तो हृदयाघात से मौत भी हो सकती है । भय का तीव्र वेग भी यही स्थिति पैदा करता है । राजस्थानी का प्रसिद्ध सूक्त है- धसको पडग्यो । भय का इतना वेग आया कि हृदय बैठ गया, आदमी मर गया । कभी-कभी कोई डरावनी शक्ल दिख जाती है तो व्यक्ति भयाक्रान्त हो जाता है । कभीकभी वह सपने में भी भयंकर स्थिति में चला जाता है । एक व्यक्ति जागृत बैठा है । अकस्मात अंधेरा छा गया। कक्ष में पड़ी किसी चीज को देखा, यह कल्पना हो गई कि कोई भूत आ गया । यह सोचते ही हृदय वहीं बैठने लग जाता है । घृणा का वेग भी बहुत खतरनाक होता है । घृणा भी हृदय को कमजोर बनाती है । जितनी भावनात्मक प्रतिक्रियाएं हैं, वे हृदय को दुर्बल बनाती हैं । धमनियों का सिकुड़ना, धमनियों में रक्त के थक्के जमना आदि हृदयरोग के कारण हैं । किन्तु भावनात्मक प्रतिक्रिया सर्वाधिक खतरनाक है । हृदयरोग का एक कारण है उचित श्रम का अभाव । यदि शरीर को उचित श्रम नहीं मिलता है तो प्रत्येक अवयव कमजोर होता है । जिस अवयव को जितना श्रम चाहिए, उतना न मिले तो वह निष्क्रिय होता चला जाता आहार का वैषम्य हृदयरोग का एक कारण है आहार का वैषम्य । भोजन के लिए कैलोरी Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदयरोग : कारण और निवारण १३७ का भाग निर्धारित है । यह जो कैलोरी का सिद्धान्त है, उसका भी सदुपयोग कम होता है, दुरुपयोग अधिक होता है । अधिक कैलोरी का भोजन शायद आवश्यक नहीं होता । जितना शरीर को चलाने के लिए, जीवन - यात्रा को चलाने के लिए आवश्यक है, उससे अधिक ही खाया जाता है, बहुत बार खाया जाता है । पाचनतंत्र को अधिक श्रम करना पड़ता है । शरीर की ऊर्जा भोजन के पाचन में ही ज्यादा खप जाती है । हृदय रोग आहार - असंयम का परिणाम है । एक संतुलन की चेतना प्रश्न है— क्या हृदयरोग के कारणों को मिटाया जा सकता है ? भावनात्मक प्रतिक्रिया पर नियंत्रण किया जा सकता है । नियंत्रण का उपाय है ध्यान | आध्यात्मिक साधना के द्वारा चेतना की ऐसी स्थिति का निर्माण किया जा सकता है, जो समता अथवा संतुलन की चेतना है । संतुलन की चेतना जागती है तो भय कम हो जाता है, अभय की स्थिति बन जाती है । अन्यान्य भावात्मक प्रतिक्रियाएं भी नियंत्रित हो जाती हैं । अकस्मात् सूचना मिलती है— तुम्हारा जो अच्छा लड़का था, वह मर गया । यह सुनते ही एक व्यक्ति वेदना में चला जाता है, पागलपन और विक्षेप की स्थिति में चला जाता है । एक व्यक्ति ऐसा भी है, जो इस संवाद को सुन संतुलित रहता है । पूछा गया - आपका पुत्र चला गया । कैसा लगा आपको ? उस व्यक्ति ने सहज स्वर में कहा- 'योग इतना ही था । अच्छा पुत्र था किन्तु संयोग नहीं था ।' यह अनुभूति और चिन्तन का अंतर क्यों जाता है ? यह अन्तर आता है चेतना की अवस्था के कारण । समता की चेतना के स्तर पर जीने वाला व्यक्ति इस प्रकार के वज्रपात को भी सह लेता है । अनेकान्त का प्रयोग करें मूल प्रश्न है— समता की चेतना का निर्माण कैसे किया जाए ? ये जो संवेगात्मक भावात्मक प्रतिक्रियाएं होती हैं, उन्हें कैसे कम किया जाए ? कैसे जीवन के प्रति जागरूक दृष्टिकोण का निर्माण हो ? सबसे बड़ी बात है दृष्टिकोण का निर्माण । हमारा कोई भी आचरण और व्यवहार बाद में Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र होता है, पहले दृष्टिकोण का निर्माण होता है । दृष्टिकोण का निर्माण कैसे करें ? इसके लिए जो सबसे पहला उपाय है, वह यह है अनेकान्त का जीवन में प्रयोग करें । भगवान महावीर ने अनेकान्त का दृष्टिकोण दिया, जिससे भावात्मक संतुलन, मस्तिष्कीय संतुलन और शारीरिक क्रियाओं का संतुलन बना रहे । जहां एकान्तवाद है, वहां आग्रह है । आग्रह में स्थिति उलझती है । आग्रह बहुत तनाव पैदा करता है । तनाव हृदयरोग की उत्पत्ति में बहुत जिम्मेवार बनता है | आग्रह केवल बड़ी बातों का ही नहीं होता, छोटी-छोटी बातें भी आग्रह का कारण बन जाती हैं । दो भाई हैं । एक भाई ने कहा-मैं इस मकान को खरीदूंगा । दूसरे ने कहा—नहीं, मैं इसे नहीं लेने दूंगा । मकान खरीदा गया या नहीं गया, किन्तु दोनों में एक तनाव पैदा हो गया । क्रिया और प्रतिक्रिया का चक्र शुरू हो गया। एक भाई सदा यह ध्यान रखने लगाकहीं यह मकान खरीद न ले । दूसरा भाई इस बात के प्रति सदा जागरूक रहने लगा- मकान खरीदने में कोई बाधक न बन जाए । यह आग्रहजनित तनाव का एक निदर्शन है । एकान्तवाद से आग्रह और आग्रह से विग्रह की स्थिति बन जाती है । जहां आग्रह और विग्रह है, वहां तनाव अवश्यंभावी है | अनेकान्त है आग्रह का विसर्जन, दूसरे के दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करना । यदि दूसरे का विचार समझ में न आए, स्वीकार न हो तो अपनी बात दूसरों पर थोपने का प्रयत्न मत करो । दूसरे के विचार को समझने का प्रयत्न करो, परस्पर मिल-बैठकर विमर्श करो । यदि विचार न मिले तो समन्वय का सूत्र खोजो । अनेकान्त का दूसरा तत्व है- समन्वयसूत्र की खोज । यदि विचारों में समन्वय-सूत्र न मिले तो सह-अस्तित्व के सिद्धान्त का अनुशीलन करो । अनेकान्त का एक सिद्धान्त है- दो विरोधी वस्तुएं एक साथ रह सकती हैं । कोई भी तत्व ऐसा नहीं है, जिसका प्रतिपक्ष न हो । हर वस्तु में विरोधी युगल हैं । कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जिसमें दो विरोधी धर्म न हो | नेगेटिव और पोजिटिव, ठण्ड और गर्मी- दोनों एक साथ रहते हैं । जो गर्म है, वह ठंडा भी है और जो ठण्डा है, वह गर्म भी है । हम किसे ठंडा मानेंगे और किसे गर्म मानेंगे ? सर्दी और गर्मी, नेगेटिव और पोजिटिव- सब सापेक्ष हैं । अनेकान्त का प्रयोग आग्रह को कम करता है, तनाव को कम करता है | यदि अनेकान्त का दृष्टिकोण बने तो हम अनेक बीमारियों से निजात पा सकते हैं । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदयरोग : कारण और निवारण १३९ हृदयरोग और कायोत्सर्ग एक प्रयोग है कायोत्सर्ग । यह अनेक समस्याओं से छुटकारा दिलान वाला है | कायोत्सर्ग से शिथिलीकरण होता है, जागरूकता बढ़ती है । उससे रक्ताभिसरण की सारी क्रियाएं ठीक होती हैं | कायोत्सर्ग का अर्थ हैभेदविज्ञान, शरीर को आत्मा से भिन्न कर देना । उसका तात्पर्य है ममत्व का विसर्जन । ममत्व तनाव पैदा करता है । तनाव का पहला बिन्दु है मेरापन, ममत्व । व्यक्ति ने जिस पदार्थ को अपना मान लिया चाहे वह अल्पमूल्य वस्त्र ही क्यों न हो, उसे कोई हानि पहुंचाएगा तो एकदम तनाव पैदा हो जाएगा । यदि वह मेरा नहीं है, तो कोई भी उसे ले जाए, तनाव नहीं होगा। यदि हम तनाव की स्थितियों का विश्लेषण करें तो निष्कर्ष आएगा- अधिकांश तनाव ममत्व के बिन्दु से प्रारंभ होते हैं | कायोत्सर्ग साधन है ममत्व के विसर्जन का । उसका एक सूत्र है- अपने शरीर पर भी ममत्व मत रखो । यदि शरीर पर ममत्व नहीं रखोगे तो शरीर अच्छा काम देगा । यदि शरीर पर ममत्व रखोगे तो शरीर ही तनाव उत्पन्न करना शुरू कर देगा । वह तनाव हृदय को दुर्बल बनाएगा, अनेक बीमारियों को जन्म देगा । अनुभव की वाणी हैकायोत्सर्ग हृदयरोग के लिए सर्वोत्तम दवा है । जब कभी हृदयरोग की समस्या आती है, डाक्टर का परामर्श होता है- बेडरेस्ट लें, पूर्ण विश्राम करें । बेडरेस्ट का सबसे अच्छा प्रयोग है कायोत्सर्ग, प्रवृत्ति का अल्पीकरण । इस अवस्था में ऑक्सीजन की खपत भी कम हो जाएगी, शारीरिक क्रिया भी अपने आप सम्यक् होने लग जाएगी । हमारी रोग-प्रतिरोधक शक्ति बढ़ेगी, इम्युनिटी सिस्टम भी सक्रिय बन जाएगा, प्राण की सक्रियता भी बढ़ जाएगी । प्राण और अपान प्राण की सक्रियता कायोत्सर्ग की एक महत्वपूर्ण परिणति है । योग के प्राचीन शब्द हैं प्राण और अपान | आज इन दोनों पर शोध होनी चाहिए। प्राण के साथ अपान का बहुत गहरा संबंध है । नाभि से लेकर गुदा तक का स्थान अपान प्राण का स्थान है । जितनी अपान की शुद्धि रहती है उतना ही व्यक्ति स्वस्थ रहता है। जितनी अपान की अशुद्धि रहती है, बेचैनी, उदासी, निषेधात्मक भावनाएं, हृदय को कमजोर करने वाली चेतना जागृत हो जाती Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र है । अपान की शुद्धि प्राण को भी बल देती है । प्राण का एक स्थान माना गया है नासाग्र । प्रेक्षाध्यान की भाषा में उसे प्राणकेन्द्र कहा जाता है । प्राण नामक जो प्राणधारा है, उसका एक स्थान है हृदय । नाभि भी उसका स्थान है और पैर का अंगूठा भी उसका स्थान है । ये प्राण के स्थान हैं । जब प्राण और अपान का योग होता है, तब अनेक स्थितियां पैदा होती हैं । अपान विकृत होकर प्राण को भी विकृत कर देता है । हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि कब्ज की अवस्था में मानसिक स्थिति कैसी बनती है ? बुरे विचार आते हैं । नींद भी पूरी नहीं आती । व्यक्ति अवसाद और तनाव से घिर जाता है । काम में भी बिल्कुल मन नहीं लगता । कोई दवा ली, रेचन हुआ, पेट बिल्कुल साफ हो गया । मन भी प्रसन्न हो गया, उल्लास का संचार हो गया । मंत्र का प्रयोग. ―――― अपानशुद्धि का प्राणधारा के साथ बहुत गहरा संबंध है । इसीलिए योग में हृदयरोग के निवारण के लिए मंत्र का निर्माण भी किया गया । वह बीज मंत्र है 'लं' । इसके उच्चारण से हृदयरोग मिटता है । लं... लं... लं यह लयबद्ध जाप हृदयरोग की समस्या के लिए महान् औषध है । शरीर में पांच तत्व माने गए हैं। इनमें पृथ्वी तत्व का बीज मंत्र है- लं । लं के उच्चारण से पृथ्वी तत्व सक्रिय बनता है । पृथ्वी तत्व का स्थान अपान का स्थान है, शक्तिकेन्द्र का स्थान है । अपान का प्राण के साथ जो संबंध है, उसे किसी निदानिक सिद्धान्त अथवा डायग्नोसिस के द्वारा नहीं समझाया जा सकता । किन्तु प्राण और अपान की क्रिया का सम्बन्ध जानने पर प्रतीत होता है कि 'लं' का जप बहुत महत्वपूर्ण है । कुछ लोगों ने हृदयरोग की समस्या के संदर्भ में 'लं' का प्रयोग किया और उसका अनुकूल परिणाम भी आया । इसका मंत्र के साथ में भी उच्चारण किया जाता है । लं के प्रयोग से हृदय - क्षेत्र में प्रतिक्रिया होती है और आरोग्य भी मिलता है । जैन मंत्रशास्त्र में ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं हूं ह्रः - इस मंत्र को बहुत शक्तिशाली माना गया है । ऐसे हृदयरोगियों को, जिनका फुफ्फुस कमजोर था, इस मंत्र का प्रयोग कराया गया, उन्हें बहुत लाभ हुआ । प्रश्न हो सकता हैकैसे मिला ? इससे शक्ति का संचार और अवरोध का निवारण होता है । - लाभ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदयरोग : कारण और निवारण १४१ ध्वनिविज्ञान और मंत्रविज्ञान के आधार पर इसके परिणामों की मीमांसा की जा सकती है । हृदयरोग के लिए यह उपयोगी मंत्र है । यह अनेक लोगों के अनुभवों से प्रमाणित है । मंत्र और रंग 1 रोग का रंग के साथ भी संबंध होता है । कौन-सा रंग कौन से अवयव को पुष्ट करता है, यह बोध हो तो बहुत लाभ उठाया जा सकता है । वह कौन-सा रंग है, जो लीवर को शक्तिशाली बनाता है । वह कौन-सा रंग है, जो हृदय को शक्तिशाली बनता है । प्रत्येक अवयव का भी अपना रंग होता है । बाहर से दूसरे सहायक रंगों को ग्रहण करके भी हम उस अवयव को पुष्ट बना सकते हैं। अक्षरों के भी अपने रंग होते हैं । ह्रां और ह्रीं का अपना रंग है । रंगों का भी परस्पर कम्बीकेशन होता है । किस प्रकार के रंग परस्पर मिल कर किस प्रकार की स्थिति पैदा करते हैं, यह अन्वेषण का विषय है। किन्तु रंग से हम प्रभावित होते हैं, यह स्पष्ट है । इसी प्रकार अनेक मंत्र ऐसे हैं, जो हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहे हैं । हम ह्रां ह्रीं इस मंत्र का ही संदर्भ लें । प्रत्येक व्यक्ति यह अनुभव कर सकता है कि शरीर में जो विकार पैदा होता है, हमारी रोग निरोधक शक्ति को कमजोर करता है, उस विकार को निकालने के लिए ह्रां ह्रीं का प्रयोग बहुत शक्तिशाली है । प्राचीन आचार्यों ने इस विषय पर बहुत चिन्तन किया । मूल बात है विकार का निष्कासन । प्राकृतिक चिकित्सक भी इस बात पर बल देते हैं—— विजातीय तत्व का संचय नहीं होना चाहिए । जितना विजातीय तत्व का संचय उतनी ही बीमारी । जितना विजातीय तत्व का निष्कासन उतना ही आरोग्य | हमारे शरीर में इतना विजातीय तत्व संचित रहता है, जिसकी कल्पना करना भी कठिन है । स्थूल मल भी इतना संचित हो जाता है कि कब्ज की समस्या सदा बनी रहती है । उससे हृदय भी प्रभावित होता रहता है । कितनी दवा देते चले जाओ, ठीक नहीं होता । क्योंकि मल का बहुत संचय है । जब तक उसका शोधन नहीं होगा, दवा क्या असर करेगी ? दवा भी उसमें विष बनती चली जाती है। केवल स्थूल मल ही संचित नहीं है, प्रत्येक कोशिका में, कोशिका के अणु - अणु पर मैल संचित रहता है । वह मल ही हमारी प्रकृति Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ महावीर का स्वास्थ्य - शास्त्र को विकृत बनाए हुए है । हमारी प्रकृति है आरोग्य । विजातीय तत्व विकृति पैदा करता है और व्यक्ति बीमार हो जाता है । विकृति के निवारण का एक उपाय है अपान शुद्धि । अपान शुद्धि का एक शक्तिशाली प्रयोग है ह्रां ह्रीं का जप । कोई व्यक्ति दस मिनट तक यह जप करे तो उसे अनुभव होगा कि इससे शारीरिक ही नहीं, मानसिक विकारों का भी विरेचन होता है । दीर्घश्वासप्रेक्षा एक प्रयोग है दाघश्वास प्रक्षा | हृदय रोग की समस्या के लिए यह भी बहुत उपयोगी है । मूल बात यह है कि इन प्रयोगों के द्वारा प्राणशक्ति बढ़ती हैं, इम्युनिटी सिस्टम शक्तिशाली बनता है, रोग प्रतिरोधक क्षमता प्रबल होती है। बीमारी का विरेचन होने लग जाता है । यदि प्राणशक्ति को प्रबल कर प्राणसंचार का प्रयोग किया जाए और मानसिक चित्र का निर्माण किया जाए तो एक दिन ऐसा आ सकता है, जिस दिन हृदय की धमनी के अवरोध बिल्कुल समाप्त हो जाएं । हृदय रोग और उसके लिए निवारण की इस चर्चा का समाहार करें । हृदयरोग के तीन प्रमुख कारण हैं ० अध्यवसाय, ० आहार, ० बाह्य निमित्त | हृदयरोग निवारण के कुछ सूत्र स्पष्ट हैं • अनेकान्त दृष्टिकोण का विकास, ० कायोत्सर्ग, ० प्राण और अपान का संतुलन । ० मंत्र चिकित्सा, ० दीर्घश्वासप्रेक्षा, ० रंग चिकित्सा । आजके वैज्ञानिक यह मानते हैं—ध्वनि, प्रकाश, और रंग- ये सारे एक ही जाति के प्रकपंन हैं । प्रकाश का उनचासवां प्रकंपन है —— रंग । ध्वनि भी रंग पैदा करती है । इसीलिए कहा जाता है कि रंग को सुना जा सकता है, ध्वनि को देखा जा सकता है । विद्युत् उपकरणों के द्वारा ऐसा करना संभव है । ध्वनि और रंग- दोनों का गहरा सम्बन्ध हमारे जीवन के साथ है । लाडनूं की घटना है । एक साध्वी का रक्त बहुत पतला हो गया । नाक से रक्त निरंतर गिरने लगा । अनेक डाक्टरों को दिखाया, चिकित्सा करवाई पर कोई समाधान नहीं निकला । ऐसा प्रतीत होने लगा कि अब जीवन बच पाना Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याध्यान और स्वास्थ्य १४३ कठिन है । सब निराश हो गए। साध्वी ने कहा- 'आप मुझे कोई ध्यान और मंत्र का प्रयोग बताएं। वही मेरे लिए दवा बनेगा ।' मैंने एक मंत्र के साथ नीले रंग का ध्यान करने का निर्देश दिया । साध्वी ने निष्ठा के साथ वह प्रयोग किया । दो दिन में ही चमत्कार जैसा घटित हो गया । नाक से रक्तस्राव बन्द हो गया । जहां चिकित्सा की प्रचिलत विधियां विफल हो गई, वहां मंत्र और रंग की चिकित्सा सफल हो गई । प्रश्न हो सकता है कि यह कैसे हुआ ? कारण स्पष्ट है- जो रक्त पतला हो गया, वह नीले रंग के ध्यान से गाढ़ा हो गया । इसलिए रक्त का स्राव बंद हो गया। मंत्र और रंग के समन्वय से बहुत कुछ घटित हो सकता है । इस दिशा में अन्वेषण और अनुसंधान का बहुत अवकाश है । अपेक्षा है अनुसंधान और प्रयोग की । हृदयरोग के सन्दर्भ में जो प्रयोग प्रस्तुत किए गए हैं, यदि उन्हें अपनाएं, प्राण और अपान का संतुलन कर पाएं तो हृदय रोग की संभावना को निर्मूल किया जा सकता है । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौ वर्ष वाले पुरुष की दस अवस्थाएं बतलाई गई । दस-दस वर्ष की एक अवस्था । दस अवस्थाएं और शतायु जीवन : १. बाला २. क्रीड़ा ३. मंदा ४. बला शिशु एवं वृद्ध स्वास्थ्य ६. हायिनी ७. प्रपंचा ८. प्राग्भारा ९. मृन्मुखी १०. शायिनी ५. प्रज्ञा ये दस अवस्थाएं हैं । प्रत्येक अवस्था में अलग-अलग प्रकार की वृत्तियां होती हैं । इस विषय पर बहुत मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया— किस दशक में व्यक्ति कैसा आचरण और कैसा व्यवहार करता है ? शिशु और वृद्ध स्वास्थ्य के संदर्भ में दो अवस्थाओं पर विचार करना है । पहली है बाल अवस्था । दूसरी है वृद्धावस्था । एक जीवन का पहला दशक है और दूसरा - जीवन का सातवां दशक | लब्धि वीर्य और करण वीर्य गर्भ से शिशु की अवस्था का प्रारंभ होता है । गर्भ से लेकर तीन-चार वर्ष तक जो बच्चा होता है, उसका प्राण भी विकसित नहीं होता, कर्मजाशक्ति Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशु एवं वृद्ध स्वास्थ्य १४५ भी विकसित नहीं होती । शक्ति के दो प्रकार हैं- लब्धि वीर्य और करण वीर्य । एक शिशु को लब्धि की शक्ति तो प्राप्त रहती है, किन्तु उसमें करणवीर्यक्रियात्मक शक्ति का पूरा विकास नहीं होता । जैन आगम का प्रसंग है । आत्मा और शरीर के विषय में केशी कुमार-श्रमण और राजा प्रदेशी के मध्य संवाद चल रहा था | राजा प्रदेशी ने कहा- यदि सबमें आत्मा समान होती तो युवक और शिशु की कार्य-क्षमता में अंतर नहीं होता । एक युवक हाथ में धनुष बाण लेता है और वह प्रत्यंचा खींच कर निशाने पर तीर चला देता है । एक शिशु बाण नहीं चला सकता । इससे स्पष्ट होता है कि एक शिशु और एक युवक की आत्मा समान नहीं है | केशी कुमार-श्रमण ने राजा प्रदेशी के इस तर्क को समाहित करते हुए कहा- 'एक बालक में बाण चलाने की लब्धि है, उसमें बाण चलाने की क्षमता है किन्तु उसकी क्रियात्मक शक्ति का पूरा विकास नहीं हुआ इसलिए वह बाण नहीं चला सकता । एक युवक में क्रियात्मक शक्ति का विकास हो गया है इसलिए वह बाण चला सकता है।' स्वास्थ्य के सन्दर्भ में एक महत्वपूर्ण शब्द है करण वीर्य- क्रियात्मक शक्ति का विकास । जिसमें क्रियात्मक शक्ति पूर्ण विकसित हो जाती है, वह स्वास्थ्य के प्रति जागरूक भी रह सकता है और अजागरूक भी हो सकता है । एक शिशु में लब्धि वीर्य-क्षमतात्मक शक्ति का विकास होता है, किन्तु करण वीर्य-क्रियात्मक शक्ति का पूर्ण विकास नहीं होता । एक शिशु भी करण वीर्य का प्रयोग करता है । यह नहीं कहा जा सकता है कि उसमें करणवीर्य नहीं है । किन्तु इतना अवश्य है कि उसमें करणवीर्य का पूरा विकास नहीं है। इसीलिए गर्भावस्था से लेकर शैशवावस्था तक उसके स्वास्थ्य के प्रति विशेष विमर्श जरूरी है । संयत-चर्या ज्ञाताधर्मकथा का प्रंसग है । सम्राट् श्रेणिक की धर्मपत्नी गर्भवती थी। राजकुमार मेघ गर्भ में था । इस प्रंसग में वहां गर्भ अवस्था की जो क्रियाएं बतलाई गई हैं, उनमें स्वास्थ्य के महत्वपूर्ण सूत्र मिलते हैं । कहा गया- जब मेघकुमार गर्भ में था, तब धारिणी संयमपूर्वक खड़ी होती, संयमपूर्वक बैठती, संयमपूर्वक सोती । उसका सोना, बैठना, बोलना- सब कुछ संयमपूर्वक होता। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र वह प्रत्येक क्रिया और चर्या में संयमित रहती, जिससे गर्भस्थ शिशु को कोई क्षति न हो, पीड़ा न हो । गर्भस्थ शिशु स्वस्थ कैसे रहे, इसका पहला सूत्र है—गर्भावस्था में माता अपनी सारी क्रियाएं संयमपूर्वक संपादित करे । आहार-विवेक धारिणी का आहार-विवेक प्रबुद्ध था । मां का आहार गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है । जो मां का आहार होता है, वही पुत्र का आहार होता है, इसलिए माता को आहार का विवेक रखना चाहिए । कहा गया- माता परमित आहार करे । न अति तिक्त भोजन करे, न अति कटु और न अति कसैला भोजन करे । न अति अम्ल और न अति मधुर भोजन करे । वह ऐसा आहार करे, जो शिशु के लिए हितकर हो । वह सदा यह ध्यान देती रहे कि मेरे भोजन का शिशु के शरीर पर क्या प्रभाव होगा ? यह आहार का विवेक गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य के लिए बहुत जरूरी है। कषाय विवेक तीसरी बात है- गर्भावस्था में माता अति चिन्ता न करे । भय, शोक, मोह आदि भावात्मक आवेगों से दूर रहे । न भय करे, न शोक और घृणा करे, न मोह करे । कषाय उपशान्त रहे । भावधारा निर्मल और पवित्र रहे। हम देखते हैं- बहुत सारे शिशु विकृत अवस्था में जन्म लेते हैं । कुछ शिशु तो जीकर भी माता-पिता के लिए मृततुल्य होते हैं । उनके जीने और मरने में कोई अंतर प्रतीत नहीं होता । एक मांस के लोथड़े के समान उनकी अवस्था रहती है । ऐसा क्यों होता है ? इसका एक कारण माता-पिता स्वयं हैं । जब माँ गर्भधारण करती है और जब तक शिशु का जन्म नहीं हो जाता तब तक माता-पिता का बहुत बड़ा दायित्व और भूमिका होती है | यदि मातापिता जागरूक हैं तो शिशु ऐसा नहीं होगा । यदि माता-पिता असावधान हैं, प्रमत्त हैं तो उसका परिणाम शिशु को जीवन भर भुगतना पड़ता है । ये तीन सूत्र गर्भस्थ शिशु के स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं— चर्याविवेक, आहार-विवेक तथा कषाय-विवेक । यदि गर्भावस्था में माता इन तीनों Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशु एवं वृद्ध स्वास्थ्य १४७ सूत्रों का सम्यक् प्रयोग करे, चर्या संयमित रहे, हित और परिमित आहार करे, चिन्ता, भय आदि से बचे, भावनाएं पवित्र रहें तो शिशु का स्वास्थ्य बहुत उत्तम रह सकता है । पोषक आहार "जन्म लेने के बाद भी एक शिशु में यह विवेक नहीं होता कि वह स्वास्थ्य के लिए क्या करे और क्या न करे ? क्या खाए और क्या न खाए ? इस अवस्था में भी माता को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि शिशु को क्या खिलाना चाहिए? क्या पिलाना चाहिए ? मोहवश यह न हो जाए कि जिस समय जो नहीं खिलानी चाहिए, उस समय वही वस्तु खिला दे । अपोषण और कुपोषण, दोनों से बचना जरूरी है । समस्या यह है— पोषण कैसे मिले ? पोषक आहार मिले, यह सबके वश की बात नहीं है । गरीबी की समस्या है, अभाव की समस्या है । इस स्थिति में यह कैसे संभव है कि सबको पोषक आहार मिले । इस अवस्था में पूरा पोषण नहीं होता, अपोषण भी होता है और कुपोषण भी होता है । वे चीजें भी शिशु को खिलाई जाती हैं, जो पोषण के प्रतिकूल होती हैं । सामाजिक, आर्थिक आदि अनेक स्थितियों के कारण ऐसा होता है, किन्तु यह विवेक जागृत हो कि एक शिशु के प्रति माँ का क्या दायित्व है तो शिशु स्वास्थ्य के प्रति सहज जागरूकता बढ़ जाए । अभय का वातावरण शिशु स्वास्थ्य के लिए यह भी जरूरी है कि भय का वातावरण पैदा किया जाए । भगवान् महावीर ने सबसे ज्यादा बल अभय पर दिया । यदि अभय नहीं है तो अहिंसा नहीं है और अहिंसा नहीं है तो स्वास्थ्य भी नहीं है । स्वास्थ्य नहीं है तो धर्म का विकास भी नहीं है और शरीर का पर्याप्त विकास भी नहीं है । यह जो डराने-धमकाने की मनोवृत्ति है, उसे कुछ माताएं स्वार्थवश अपना लेती हैं । बच्चा से रहा है, कार्य में बाधा डाल रहा है । माँ तत्काल कह देती है कि 'हाऊ' आ जाएगा । बच्चा भयभीत हो कर मौन हो जाता है । जब-जब माँ 'हाऊ' का डर दिखाती है, तब-तब बच्चा भयग्रन्थि से आक्रान्त हो जाता है । उसके भीतर ऐसा डर समा जाता है कि Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र वह कभी अभय बन ही नहीं सकता | इस भय का परिणाम उसे जीवन भर भुगतना पड़ता है । माँ अपने स्वार्थ के लिए शिशु में भय की जटिल वृत्ति का बीज बो देती है । भय दिखाना ही हो तो यह भय दिखाना चाहिए कि तुम यह खाओगे तो बीमार पड़ जाओगे । यह नहीं खाओगे तो शरीर कमजोर हो जाएगा । स्वास्थ्य के लिए, आहार-विवेक के लिए कभी-कभी भय आवश्यक हो सकता है | किन्तु अपने स्वार्थ के लिए शिशु के मस्तिष्क में जो भंयग्रन्थि विकसित की जाती है, वह उसके स्वास्थ्य के लिए समस्या बन जाती है । न डराएं न धमकाएं स्वास्थ्य का महत्वपूर्ण कारक सूत्र है वातावरण । बहुत प्रसिद्ध कथा है । शेर के पिंजड़े के सामने बकरी को बांध दिया । बकरी को बहुत खिलाया, खुब पोषण दिया, पर वह उसे पुष्ट नहीं बना सका । जब जब शेर दहाड़ता, वह खाया-पीया सारा बाहर आ जाता । भय के वातावरण में पोषण नहीं मिलता । माता-पिता अपने शिशु के स्वास्थ्य की चिन्ता करते हैं । वे इस बात पर अवश्य ध्यान दें- बच्चे के सामने भय की स्थिति पैदा न करें, उसे डराएं-धमकाएं नहीं । वर्तमान शिशुविज्ञान यही कहता है कि बच्चे को पवित्र और भय-मुक्त वातावरण दिया जाए तो वह विकास की छलांग लगा सकता है । दस वर्ष की जो शिशु अवस्था है, उसमें भी प्रारंभिक पांच वर्ष में विशेष जागरूकता से शिशु पर ध्यान देना चाहिए । प्रथम पांच वर्ष संस्कार-निर्माण की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं । यह संस्कार-निर्माण की पहली अवस्था है । पांच वर्ष के बाद संस्कार-निर्माण की दूसरी आवृत्ति शुरू हो जाती है | पांच वर्ष तक यदि पूर्ण जागरूकता रहे तो शिशु का स्वास्थ्य बहुत अच्छा रह सकता है । शिशु स्वास्थ्य का परिणाम यह होता है कि माता-पिता को बहुत चिन्ता नहीं करनी पड़ती । यदि शिशु बीमार होता है तो अनेक समस्याएं पैदा हो जाती हैं। वही दें, जो हितकर है शिशु को कुछ बीमारियां असावधानी से भी होती हैं । हमने देखा-एक वर्ष के बच्चे को बाईपास सर्जरी करानी पड़ी । पांच-दस वर्ष के बच्चे की Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य १४९ भी बाईपास सर्जरी कराई गई । इसमें अनेक कारण हो सकते हैं किन्तु मातापिता की असावधानी शायद सबसे बड़ा कारण बनती है। छोटे-छोटे बच्चे टी. वी. के निकट जाकर बैठ जाते हैं । घण्टों तक टी. वी. देखते रहते हैं। आंखें कमजोर हो जाती हैं । दो-तीन वर्ष की अवस्था में ही चश्मा शरीर का अवयव जैसा बन जाता है। यदि माता-पिता जागरूक रहें तो उसकी यह आदत नियंत्रित हो सकती है । छोटा बच्चा मीठा खाने का शौकीन होता है। वह बहुत खाता है, बहुत चीजें खाता है। पानपराग और चुटकी जैसी हानिकारक वस्तुएं भी माता-पिता बच्चों को खिला देते हैं । ऐसी चीजें मुँह में ज्यादा रहेंगी तो दांत खराब होंगे, दांतों में कीड़े पड़ जाएंगे आंतें खराब होंगी । पाचनतंत्र की विकृति से अनेक बीमारियों को निमंत्रण मिल जाएगा। यह भी एक जटिल प्रश्न है— बच्चा किसी चीज को देख लेता है तो वह मांगे बिना नहीं रहता, खाए बिना नहीं रहता । उसमें यह विवेक नहीं है कि क्या खाना चाहिए ? कितनी बार खाना चाहिए ? माता-पिता का दायित्व है कि वे शिशु में यह विवेक जगाएं । उसे प्यार और मृदुता से समझाएं । ऐसा न करें कि बच्चा रो रहा है, मचल रहा है तो उसे वह चीज देकर चुप अथवा शान्त करें, जो उसके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है । यह सोचें कि शिशु के लिए हितकर क्या है ? जो हितकर है, वही दें । हितकर आहार ही शिशु-स्वास्थ्य को सुरक्षित बनाए रख सकता है । इस दृष्टि से निरंतर सजग रहकर ही शिशु के स्वास्थ्य को बनाए रखा जा सकता है । प्रश्न वृद्ध स्वास्थ्य का एक प्रश्न है वृद्ध स्वास्थ्य का । वृद्धावस्था कब प्रारंभ होती है ? सत्तर वर्ष की अवस्था तक आदमी बूढ़ा होता नहीं है । जो इससे पहले ही अपने आपको बूढ़ा मान लेता है, वह मान्यता-जनित दोष के कारण असमय में ही बूढ़ा बन जाता है । व्यक्ति सत्तर वर्ष तक अपने आपको बूढ़ा माने ही नहीं। सत्तर वर्ष के बाद भी जागरूक रहे तो बुढ़ापा आगे खिसक जाएगा । वर्तमान विज्ञान इस दिशा में सक्रिय है कि व्यक्ति बूढ़ा न बने । वैज्ञानिक यह अनुसंधान कर रहे हैं कि बुढ़ापे को कैसे टाला जाए ? वैज्ञानिकों के सामने प्रश्न यह भी है कि आदमी सदा युवा बना रहे । इतना ही नहीं, वह मनुष्य के अमर Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र बनाने की बात भी सोच रहा है। इसके लिए अनेक विधियों का विकास भी किया है। अनेक व्यक्तियों ने अपने आपको अमर बनाने के लिए आवेदन कर दिया है | भविष्य के लिए योजनाएं बना ली हैं । निश्चित अर्थराशि को अग्रिम रूप से फिक्सडिपोजिट कर दिया है। व्यक्ति जिस दिन चाहेगा उस दिन जीवित शरीर को प्रयोगशाला में सुरक्षित रख दिया जाएगा। उसका वह शरीर शीतीकृत 'ममी' के रूप में निर्धारित अवधि तक पड़ा रहेगा । उसे पुनः कब जिलाना है, यह समय भी निश्चित रहेगा | निश्चित समय पर शीतीकृत और सुरक्षित शरीर को पुनः जिला दिया जाएगा । व्यक्ति का यह चिन्तन केवल कल्पना में ही नहीं है , क्रियान्वित हो रहा है । इसकी प्रक्रिया लगभग तैयार हो गई है । अनेक लोगों ने इस सम्मोहक प्रस्ताव को स्वीकार कर उपयुक्त राशि भी चुका दी है। मनुष्य को अमर बनाने का यह अभिक्रम कितना सफल होगा, कहा नहीं जा सकता, इसकी भविष्यवाणी भी आज नहीं की जा सकती, किन्तु वर्तमान वैज्ञानिकों के ये प्रयत्न मनुष्य में नई आशा को अवश्य जन्म दे रहे हैं। बुढ़ापे को आगे सरकाने के भी काफी प्रयत्न किए जा रहे हैं । ऐसे उपाय खोजे जा रहे हैं, जिससे बुढ़ापे को रोक सकें, बुढ़ापा आए ही नहीं, आदमी सदा युवा ही बना रहे । संभवतः च्यवन ऋषि ने इसीलिए च्यवनप्राश का आविष्कार किया था कि आदमी बूढ़ा बने ही नहीं। किन्तु आज तो च्यवनप्राश खाने वाले भी बूढ़े बन रहे हैं । वैज्ञानिक विटामिन्स के सेवन पर बल दे रहे हैं । कहा जा रहा है कि विटामिन 'ए' खाओ, विटामिन 'बी' खाओ, मेथी खाओ, जिससे ताकत मिल जाए, बुढ़ापा रुक जाए । ऐसे अनेक प्रयत्न अपनाए जा रहे हैं, फिर भी मनुष्य बूढ़ा बन रहा है । बुढ़ापे से मत डरो जीवन में छह-सात दशक बाद बुढ़ापा दस्तक देता है । बुढ़ापे में स्वस्थ कैसे रहें ? यह प्रश्न प्रत्येक वृद्ध आदमी के मानस में उभरता रहता है । महावीर कहते हैं—मा भाइयव्वं बुढ़ापे से मत डरो, मृत्यु से मत डरो । यदि बुढ़ापे से डरोगे तो मन में यह भय हो जाएगा कि मैं बूढ़ा हो जाऊंगा तो क्या होगा ? लोग भविष्य-निधि की चिन्ता अधिक करते हैं । भविष्य के संदर्भ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य १५१ में चिन्तन करें, किन्तु चिन्ता न करें । भविष्य की चिन्ता भी बुढ़ापा जल्दी लाएगी । पूज्य गुरुदेव का प्रसिद्ध सूत्र है—'चिन्ता नहीं, चिन्तन करो, व्यथा नहीं, व्यवस्था करो ।' चिन्ता मत करो, चिन्तन करो-आगे क्या करना चाहिए | यदि उसकी चिन्ता में लग गए तो दस वर्ष बाद आने वाला बुढ़ापा पहले ही आ जाएगा । चिन्ता और व्यथा नहीं, चिन्तन और व्यवस्था से बुढ़ापे की समस्या को समाहित किया जा सकता है । व्यथा और चिन्ता से कोई लाभ नहीं मिल सकता । आश्वासन मिलता है चिन्तन और व्यवस्था से । यदि सम्यक् चिन्तन और व्यवस्था हो तो बुढ़ापा भी सुखद हो सकता है । जीवन-शैली बदले आचारांग सूत्र का बहुत सुन्दर प्रसंग है—अभी वय अतिक्रान्त हो रहा है, अवस्था आ रही है । इसे देखो ! अपनी जीवन शैली को बदलो, आहार का विवेक करो । महावीर की वाणी में स्वास्थ्य के सन्दर्भ में जो बात एक शिशु के लिए है, वही बात एक वृद्ध आदमी के लिए है । आहार-विवेक का पहला सूत्र है— वृद्ध आदमी क्या खाए ? जैसे-जैसे व्यक्ति वृद्ध होता है, प्रत्येक अवयव की शक्ति का ह्रास होता चला जाता है । यदि वृद्ध व्यक्ति गरिष्ठ भोजन करता है तो उसे स्वास्थ्य की कल्पना भी नहीं करनी चाहिए। जो गरिष्ठ भोजन करेगा, वह स्वस्थ कैसे रहेगा? जो व्यक्ति हल्का-फुल्का भी नहीं पचा सकता, वह गरिष्ठ तली-भुनी चीजें कैसे पचा पाएगा ? यदि वृद्ध को स्वस्थ रहना है तो उसे गरिष्ठ भोजन से बचना होगा । पचास वर्ष के बाद भोजन को बदल देना चाहिए । वस्तुतः भोजन का परिवर्तन इससे भी पहले चालीस वर्ष की अवस्था में हो जाना चाहिए । ह्रास इन्द्रिय-पाटव का कहा गया- चालीस वर्ष के बाद इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होनी शुरू हो जाती है । प्राचीन ग्रन्थों में हमारी शक्ति के क्षीण होने का जो क्रम बतलाया गया है, वह मेडिकल साइंस में भी सम्मत है । मेडिकल साइंस के अनुसार चालीस वर्ष के पश्चात् आंख की ज्योति कम होनी शुरू हो जाती है । चालीस वर्ष तक हमारी पूर्ण विकास की अवस्था रहती है । उसके पश्चात् पुनः ढलान Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ . महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र की ओर गति होती है। यह क्रम धीरे-धीरे आगे बढ़ता है । पांचों इन्द्रियों की शक्तियों का ह्रास होता चला जाता है और एक दिन बुढ़ापा मनुष्य को घेर लेता है। यह संकेत बहुत महत्वपूर्ण है— चालीस वर्ष की अवस्था में तो व्यक्ति को निश्चित सावधान हो जाना चाहिए । व्यक्ति प्रारंभ से ही सावधान रहे, यह बहुत अच्छी बात है, किन्तु चालीस वर्ष का हो जाए और सावधान न रहे तो बुढ़ापा कभी सुखद नहीं हो सकता । एक अवस्था के पश्चात् यह सावधानी बहुत काम देती है कि क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए । स्वस्थ जीवन का सबसे बड़ा सूत्र है— इन्द्रियों की शक्ति को सुरक्षित बनाए रखना, इन्द्रिय-पाटव को बनाए रखना । यदि कान की शक्ति कम हो गई तो एक समस्या पैदा हो गई । यदि आंख की ज्योति क्षीण हो गई तो एक समस्या पैदा हो गई । सुनना और देखना बंद हो जाए तो जीवन निरर्थक जैसा प्रतीत होता है । रात्रि-भोजन का वर्जन वृद्ध अवस्था में पाचनशक्ति भी कमजोर हो जाती है। महावीर ने कहारात्रि-भोजन मत करो । कम से कम वृद्ध व्यक्ति तो रात को खाए ही नहीं। पहले रात्रि-भोजन के निषेध को धर्म का सिद्धान्त माना जाता था किन्तु आज यह स्वास्थ्य का सिद्धान्त बन गया है । आजकल डाक्टर भी कहते हैं- रात में मत खाओ, रात में भोजन का पाचन सम्यक नहीं होता । आयुर्वेद का सिद्धान्त है- भोजन के बाद जब तक खाया हुआ अन्न पाचनतंत्र में न चला जाए तब तक नहीं सोना चाहिए । अन्यथा पाचन में विकार पैदा हो जाएगा। जो पाचनतंत्र की गड़बड़ियां हैं, एसीडीटी की समस्या है, उसका एक प्रमुख कारण यही है कि व्यक्ति भोजन करते ही लेट जाता है | रात को ग्यारहबारह बजे भोजन किया और लेट गया। रात्रि में ऐसे ही पाचन कम होता है और फिर खाते ही लेट जाए तो गड़बड़ी क्यों नहीं होगी ? एक युवा इस स्थिति को कभी झेल भी लेता है, किन्तु एक वृद्ध इस प्रकार की स्थिति में बीमारी को निमंत्रण दे देता है । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रक्षा आर स्वास्थ्य १५३ भोजन कब करें? __ स्वास्थ्य की दृष्टि से विचार करें तो भोजन का समय सूर्योदय के बाद होता है । महावीर के सिद्धान्त की मीमांसा करें तो कहा जाएगा— भोजन का समय सूर्योदय से ४८ मिनट बाद होना चाहिए । जैन साधना का प्रसिद्ध सूत्र है नवकारसी। इसका तात्पर्य है— सूर्योदय के पश्चात् अड़चास मिनट तक कुछ भी नहीं खाना चाहिए । स्वास्थ्य के लिए यह भी कहा गया हैजब तक सूर्योदय के बाद दो-तीन घण्टा न बीत जाए, तब तक अन्न अथवा गरिष्ठ पदार्थ नहीं खाने चाहिए। इसका कारण स्पष्ट है- रात में पाचनतंत्र निष्क्रिय रहता है। सूर्योदय के पश्चात सूर्य की रश्मियां मिलती हैं, पाचनतंत्र सक्रिय हो जाता है । जब तक वह पूर्ण सक्रिय न बन जाए, तब तक सुपाच्य भोजन ही लाभप्रद हो सकता है । पाचनतंत्र की निष्क्रियता की अवस्था में जो खाया जाता है, वह खाया हुआ भी अधखाया-अधपका जैसा रह जाता है । जो पाचक-स्राव होते हैं, वे पाचनतंत्र की निष्क्रियता की स्थिति में सवित नहीं होते इसलिए खाया हुआ भोजन पचता नहीं है । वह विकृति का कारण बन जाता है । कितनी बार खाएं ? भोजन के सन्दर्भ में महावीर का एक सिद्धान्त है— एगभत्तं च भोयणंदिन में एक भोजन करें । बार-बार और बहुत ज्यादा खाने की प्रवृत्ति ने अनेक बार समस्याएं पैदा की हैं । जो व्यक्ति दिन में एक बार भोजन करते हैं, उन्हें शायद जीवन में दवा की बहुत आवश्यकता ही नहीं होती । ऐसा व्यक्ति प्रायः स्वस्थ रहता है । हम प्राचीन भारतीय पद्धति को देखें । कुछ लोग दिन में एक बार ही खाते थे । दिन में न प्राताराश, न कुछ और खाना । बहुत लोग दो बार खाते थे । दो बार से ज्यादा खाने की विधि बहुत कम थी। आज स्थिति यह है-तीन बार भोजन और पांच-सात बार चाय पीना तो आम बात हो गई है । व्यक्ति इतना खा लेता है कि आंतों को कभी विश्राम करने का मौका ही नहीं मिलता | Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र कितने पदार्थ खाएं ? स्वास्थ्य के लिए यह विवेक भी आवश्यक है कि भोजन में कितने पदार्थ खाएं । एक वृद्ध आदमी भोजन में सात-आठ चीजों से ज्यादा खाएगा तो पेट पर इतना भार बढ़ जाएगा कि वह पचेगा ही नहीं । वह अतिरिक्त भोजन बीमारी के पनपने में ही काम आएगा । इसीलिए यह विवेक होना चाहिए कि कितनी वस्तुएं खाएं । प्राकृतिक चिकित्सक कहते हैं- एक साथ दो अन्न मत खाओ, केवल एक ही अन्न खाओ । बहुत ज्यादा वस्तुएं मत खाओ । आहार-संयम से जुड़ी इन बातों का विवेक वृद्ध-स्वास्थ्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण है ० रात्रि भोजन न करें। ० सूर्योदय के बाद नवकारसी करें । ० दिन में एक बार भोजन करें । ० अधिक वस्तुएं न खाएं । ० गरिष्ठ भोजन न करें । वृत्ति का संयम स्वास्थ्य का तीसरा सूत्र है- वृत्ति का संयम । मनुष्य को वृद्ध होने के साथ अपनी वृत्तियों का संयम करना चाहिए | उसमें विशेषतः भावात्मक संयम होना चाहिए । क्रोध, मान, माया और लोभ की अल्पता होनी चाहिए। स्थिति यह है कि जैसे-जैसे बुढ़ापा आता है, वैसे-वैसे क्रोध बढ़ जाता है, चिड़चिड़ापन बढ़ जाता है, लोभ भी बहुत बढ़ जाता है । युवा पुत्र की शादी का प्रसंग है । पुत्र कहता है— मैं दहेज नहीं लूंगा, मुझे धन नहीं चाहिए । पिता कहता है— तुम चुप रहो। तुम क्या जानते हो ? शादी पुत्र की हो रही है और धन भी पुत्र को लेना है, किन्तु पिता का लोभ उसकी इस इच्छा को ठुकरा देता है कि दहेज न लिया जाए । परिणाम यह होता है कि पिता और पुत्र में तनाव की स्थिति बन जाती है । जिस बुढ़ापे में यह स्थिति होती है, वह बुढ़ापा कभी अच्छा नहीं होता । उसका घर में भी तिरस्कार होता है, अपमान और अवज्ञा होती है, घर से बाहर भी सम्मान नहीं मिलता । वह वृद्ध मनुष्य स्वस्थ रह सकता है, जो संवेगों पर, इमोशन पर नियंत्रण Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य १५५ करना सीख जाए । जो व्यक्ति इन संवेगों को नियंत्रित करने का अभ्यास कर लेता है, उसका बुढ़ापा शान्ति के साथ बीतता है । जिस व्यक्ति की बुढ़ापे में आकांक्षाएं बहुत बढ़ जाती है, वह शान्त और स्वस्थ जीवन नहीं जी सकता । एक वृद्ध व्यक्ति यह चाहता है— एक व्यक्ति निरंतर मेरे पास बैठा रहे, मुझसे बातें करता रहे । यदि ऐसा नहीं हो पाता है तो खिसियाना, चिड़चिड़ाना आदि वृत्तियां शुरू हो जाती हैं । उसकी यह वृत्ति ही अशान्ति और अस्वस्थता का कारण बन जाती है । स्वास्थ्य की दृष्टि से यह जरूरी है कि क्रोध शान्त रहे, अहंकार भी शान्त रहे । व्यक्ति अहंकार पूर्ण बातें न करे । इस प्रकार की गर्वोक्तियां न करे— 'मैं जब युवा था, तब पहाड़ को भी एक छलांग में लांघ जाता था ।' माया और लोभ को भी त्यागे । यह कषाय का उपशमन, वृत्तियों का संयम वृद्ध स्वास्थ्य का महान् सूत्र है । घबराएं नहीं सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यक्ति बुढ़ापे से न घबराए और न असावधान रहे । वह सावधान और जागरूक बन जाए । यह सोचे- बुढ़ापा सामने है । मुझे बुढ़ापे को सुखद बनाने की योजना बना लेनी चाहिए । महावीर ने मरने के लिए भी एक योजना बनाई । जब व्यक्ति को यह लगे कि अब शरीर नहीं टिकेगा, तब उसे समाधिमरण की तैयारी कर लेनी चाहिए । महावीर ने समाधि-मरण का व्यवस्थित दर्शन प्रस्तुत किया । व्यक्ति कैसे शरीर त्याग करे, इसकी प्रक्रिया बतलाई । इसी प्रकार बुढ़ापे के लिए भी योजना बनानी चाहिए । जब व्यक्ति साठ वर्ष का हो जाए तब यह सोचे कि मुझे दस वर्ष अथवा बीस वर्ष जीना है अथवा उससे अधिक भी जीना है तो कैसे जीवनक्रम से जीना है । आज मैनेजमेंट का युग है । प्रत्येक बात को मैनेज किया जाता है । वृद्धावस्था के लिए भी एक नियोजित क्रम होना चाहिए, जिसके ये सारे अंग बन जाएं ० मुझे अभय रहना है । ० मुझे आहार का संयम करना है । • अपनी वृत्तियों का संयम करना है । ये तीन सूत्र जीवन-चर्या के अंग बन जाएं तो वृद्ध आदमी बहुत स्वस्थ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र जीवन जी सकता है । हम अमरता की बात न सोचें । जाना निश्चित है किन्तु किस रूप में जाना है, यह हमारे जीवन-क्रम पर निर्भर है | यदि आहार का संयम है, संवेगों पर नियंत्रण है तो बुढ़ापा और मृत्यु-दोनों सुखद हो सकते वस्तुतः शिशु और वृद्ध स्वास्थ्य के ये सूत्र बहुत महत्वपूर्ण हैं । यदि इन सूत्रों के प्रति जागरूक रहें तो विश्वास है कि बचपन ऐसा होगा, जो भविष्य के लिए सुखद बनेगा, भविष्य में सुख-दुःख की अनुभूति तीव्र नहीं बनेगी । बचपन में सुख-दुःख का अनुभूति तीव्र नहीं होती, उसकी तीव्रता आगे होती है । शिशु-स्वास्थ्य की उपलब्धि का अर्थ है- सुखद भविष्य का आश्वासन । वृद्ध आदमी अपना जीवन ठीक चलाए तो वृद्धावस्था के कारण आने वाली मानसिक और भावात्मक समस्याओं से बचाव होगा, शरीर भी स्वस्थ रहेगा । स्वस्थ और शान्तिपूर्ण वृद्धावस्था ही जीवन के लिए वरदान बन सकती है । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट आगम-संदर्भ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-संदर्भ १५९ अस्तित्व और स्वास्थ्य • कतिविहे णं भंते ! जोए पण्णत्ते ? गोयमा ! पण्णरसविहे जोए पण्णत्ते, तं जहा सच्चमणजोए, मोसमणजोए, सच्चामोसमणजोए, असच्चामोसमण जोए, सच्चवइजोए, मोसवइजोए, सच्चामोसावइजोए, असच्चामोसावइजोए, ओरालिएसरीरकायजोए, ओरालियमीसासरीरकायजोए, वेउव्वियसरीरकायजोए, वेउव्वियमीसासरीरकायजोए, आहारगसरीरकायजोए, आहारगमीसासरीरकायजोए, कम्मासरीर कायजोए । (भगवई १५/१६) • कइ णं भंते ! इंदिया पण्णत्ता ? गोयमा पंच इंदिया पण्णत्ता, तं जहासोइंदिए, चखिंद्रिए, घाणिदिए, रसिदिए, फासिंदिए । (भगवई २/७७) इंदिय बल सासा पाणा चउ छक्क सत्त अट्टेव । इगि विगल असन्नी सन्नी, नव दस पाणा य बोद्धव्वा ।। प्रवचनसारोद्धार द्वार १६७-१७०, गाथा १०६६) चित्त, मन और स्वास्थ्य आया भंते ! मणे ? अण्णे मणे ? गोयमा ! नो आया मणे, अण्णे मणे । रूविं भंते ! मणे ? अरूविं मणे । गोयमा ! रूविं मणे, नो अरूविं मणे । सचित्ते भंते मणे ? अचित्ते मणे ? गोयमा ! नो सचित्ते मणे अचित्ते मणे । जीवे भंते ! मणे ? अजीवे मणे ? गोयमा ! नो जीवे मणे, अजीवे मणे । जीवाणं भंते ! मणे अजीवाणं मणे ? गोयमा ! जीवाणं मणे, णो अजीवाणं मणे Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र पुट्विं भंते ! मणे ? मणिज्जमाणे मणे ? मणसमयवीतिक्कंते मणे ? गोयमा ! नो पुट्विं मणे, मणिज्जमाणे मणे, नो मणसमयवीतिक्कंते मणे । पुट्विं भंते ! मणे भिज्जति, मणिज्जमाणे मणे भिज्जति, मणसमयवीतिक्कते मणे भिज्जति ? गोयमा ! णो पुट्विं मणे भिज्जति मणिज्जमाणे मणे भिज्जति, नो मणसमयवीतिक्कते मणे भिज्जति । (भगवई १३/१२७) ...तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए... (अणुओगद्दाराई २७) अणेगचित्ते खलु अयं पुरिसे । . (आयारो ३/४८) • जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं, ज चलं तयं चित्तं । (भगवती वृत्ति पत्र ५७३) मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? मणगुत्तयाए णं जीवे एगग्गं जणयइ | एगग्गचित्ते णं जीवे मणगुत्ते संजमाराहए भवइ । (उत्तरज्झयणाणि २१/५४) पर्याप्ति और स्वास्थ्य • पंच सरीरगा पण्णत्ता, तं जहां-ओरालिए, वेउव्विए, आहारए तेयए, कम्मए । (ठणं ५१२५) दोहिं ठाणेहिं आया सद्दाइं सुणेति, तं जहादेसेण वि आया सद्दाइं सुणेति सव्वेण वि आया सद्दाइं सुणेति दोहिं ठाणेहिं आया रूवाइं पासइ, तं जहादेसेण वि आया रूवाइं पासइ । सव्वेण वि आया रूवाइं पासइ । दोहिं ठाणेहिं आया गंधाइं अग्घाति, तं जादेसेण वि आया गंधाइं अग्घाति । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम-संदर्भ १६१ सव्वेण वि आया गंधाई अग्धाति । दोहिं ठाणेहिं आया रसाइं आसादेति, तं जहादेसेण वि आया रसाई आसादेति । सव्वेण वि आया रसाइं आसादेति । दोहिं ठाणेहिं आया फासाइं पडिसंवेदेति, तं जहादेसे वि आया फासाइं पडिसंवेदेति, सव्वेण वि आया फासाई पडिसंवेदेति । दोहिं ठाणेहिं आया ओभासति, तंगहादेसेण वि आया ओभासति सव्वेण वि आया ओभासति । एवं पभासति, विकुव्वति, परियारेति, भासं भासंति, आहारेति, परिणामेति, वेदेति, णिज्जरेति । (ठाणं २/२०१-२०७) • छ पज्जत्तीओ आहार-सरीर-इंदिय-आणापाणु-भासा-मण पज्जत्ती । (नंदी चूर्णि पृ. २२) भावतंत्र और स्वास्थ्य • उदइए, उवसमिए, खइए, खओवसमिए, पारिणामिए, सन्निवाइए । a (अनुयोगद्वार सूत्र २७१) • जहा पाणाइवाए, तहा मुसावाए, तहा अदिण्णादाणे, मेहुणे, परिग्गहे, कोहे, माणे, माया, लोभे,पेज्जे, दोसे, कलहे, अब्भक्खाणे, पेसुण्णे, परपरिवाए, अतिरती, मायामोसे, मिच्छादसणसल्ले-एवं एए अट्ठारस । . (भगवई २/१८७) • भावसच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयई ? भावसच्चेणं भावविसोहिं जणयइ । भावविसोहीए वट्टमाणस्स जीवे अरहंतपण्णत्तस्स धम्मस्स आराहणाए अब्भुइ । अरहंतपण्णत्तस्स धमस्स आराहणाए अब्भुट्ठिता परलोगधम्मस्स आराहए भवइ । (उत्तरज्झयणाणि २७/५१) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र रुग्ण कौन ? • दुक्खी भंते ! दुक्खेणं फुड़े ? अदुक्खी दुक्खेणं फुड़े ? गोयमा ! दुक्खी दुक्खेणं फुड़े, णो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे । ( भगवई ७ / १६ ) सेकेणट्ठण भंते एवं वुच्चइ - एगे धम्मत्थिकायपदेसो नो धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्वं सिया जाव एगपदेसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया ? से नूणं गोयमा ! खंडे चक्के ? सगले चक्के ? भगवं ! नो खंडे चक्के, सगले चक्के । खंडे छत्ते ? सगले छत्ते । भगवं ! नो खंडे छत्ते, सगले छत्ते । से तेणट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ एगे धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मत्थिकात्ति वत्तव्यं सिया जाव एगपदेसूणे वि य णं धम्मत्थिकाए नो धम्मत्थिकात्ति वत्तव्वं सिया ( भगवई २/१३३) परमाणु पोग्गले णं भंते ! परमाणुपोग्गलं फुसमाणे किं - १. देसेण देसं फुसइ २. देसेणं देसे फुसइ ३. देसेण सव्वं फुसइ ४. देसेहि देसं फुसइ ५. देसेहिं देसे फुसई ६. देसेहिं सव्वं फुसइ ७ सव्वेणं देतं फुसइ ८ सव्वेणं देसे फुसइ ८. सव्वेणं सव्वं फुसइ । गोयमा ! १. नो देसेणं देतं फुसइ २. नो देसेणं देसे फुसइ ३. नो देसेणं सव्वं फुसइ ४. नो देसेहिं देसं फुसइ ५. नो देसेहिं देसे फुसइ ८. नो देसेहिं सव्वं फुसइ ७. नो सव्वेणं देसं फुसइ ८. नो सव्वेणं देसे फुसइ ९. सव्वेणं सव्वं सई । (भगवई ५ / १६५) कर्मवाद और स्वास्थ्य सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ? गोयमा ! पाणाणुकंपयाए, भूयांणुकंपयाए जीवाणुकंपयाए, सत्ताणुकंपयाए, बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं अदुक्खणयाए असोयणयाए अजूरणयाए अतिप्पणयाए अपिट्टणयाए अपरियावणयाए सायावेणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कम्मस्स उदएणं सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे । असायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स परिशिष्ट १६३ उदएणं ? गोयमा ! परदुक्खणयाए, परसोयणयाए परजूरणयाए, परतिप्पणयाए, परपिट्टणयाए, पर-परियावणयाए, बहूणं पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खणया ए, सोयणयाए, जूरणयाए तिप्पणयाए पिट्टणयाए परियावणयाए असाया वेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं असायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोग-बंधे । कतिविहे णं भंते ! करणे पण्णत्ते ? गोयमा ! चउव्विहे करणे पण्णत्ते, तं जहा-मण करणे, वइकरणे, कायकरणे, कम्मकरणे । (भगवई ६/५) ( भगवई ८ / ४२२-४२३) जीवनशैली और स्वास्थ्य नवहिं ठाणेहिं रोगुप्पत्ती सिया, तं जहा- अच्चासणयाए, अहितासणयाए, अतिणिद्दाए, अतिजागरितेणं, उच्चारणिरोहेणं, पासवण गिरोहेणं, यद्धाणगमणेणं, भोयणपडिकूलताए,. इंदियत्थविकोवणयाए । ( ठाणं ८/१३) श्वसन और स्वास्थ्य किण्णं भंते ! एते जीवा आणमंति वा ? पाणमंति वा ? ऊससंति वा ? नीससंति वा ? गोयमा ! दव्वओ अणतपएसियाइं दव्वाई, खेत्तओ असंखेज्जपएसोगाढाई, कालओ अण्णयरठितियाइं, भावओ वण्णभंताई गंधमंताई रंसमंताई, फासमंताई आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा । जाई भावओ वण्णमंताई आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ताई किं एगवण्णाई जाव किं पंच वण्णाई पि आणमंति वा ? पाणमंति वा ऊससंति वा ? नीससंति वा ? Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई पि जाव पंचवण्णाई पि आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा । विहाणमग्गणं पडुच्च कालवण्णाई वि जाव सुक्किलाई पि आणमंति वा, पाणमंति वा, ऊससंति वा, नीससंति वा । (भगवई २/३-४) आहार और स्वास्थ्य . दस पच्चक्खाण सुत्तं नमुक्कारसहियं, पोरिसी, पुरिमड्ढं, एगासणं एगट्ठाणं, आयंबिलं, अभत्तठें, दिवसचरिमं, अभिग्गहो, निव्विगइयं । __(आवश्यक सूत्र ६/१-१०) हियाहारा मियाहारा, अप्पाहारा य जे नरा । न ते विज्जा चिगिच्छंति, अप्पाणं ते तिगिच्छगा ।। (ओघनियुक्ति ५७८) • से किं तं बहिरए ? बाहिरए छव्विहे, तं जहा-अणसणे, ओमोयरिया, भिक्खायरिया, रसपरिच्चाए, कायकिलेसे, पडिसंलीणया । (ओवाइयं २८, ठाणं ६/६५) योगासन और स्वास्थ्य . पंचठाणाई समणेणं भगवता महावीरेणं समणाणं निग्गंथाणं णिच्चं वण्णिताई णिच्चं कित्तिताई णिच्चं बुइयाइं णिच्चं पसत्थाई णिच्चं अब्भण्णुताई भवंति, तं जहा ठाणातिए, उक्कुडुआसणिए, पडिमट्ठाई, वीरासणिए णेसज्जिए । • पंच ठाणाई.... अब्भण्णुताई भवंति, तं जहा-दंडायतिए, लगंडसाई, आतावए, अवाउडए, अकंडूयए । (ठाणं ५/४२-४३१, ओववाइए ३७) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच निसिज्जाओ पण्णत्ताओ, तं जहा उक्कुडुया, गोदोहिया, समपायपुता, पलियंका, अहपलियंका । (ठाणं ५/५१) प्रेक्षाध्यान और स्वास्थ्य सत्तविहे कायकिलेसे पण्णत्ते, तं जहाठाणातिए, उक्कुडुयासणिए, पड़िमट्ठाई, वीरासणिए, णेसज्जिए, दंडायतिए, लगंडसाई । ( ठाणं ७ / ४९) कायोत्सर्ग और स्वास्थ्य आगम - संदर्भ १६५ चत्तारि झाणा पणत्ता, तं जहा अट्टे झाणे, रोंद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे । धम्मे झाणे चउव्विहे चउप्पड़ायारे पण्णत्ते, तं जहाआणा विजए, अवायविजए, विवाग विजए, संठाणविजए, जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी । जे मायदंसी से लोभदंसी जे लोभदंसी से पेज्जदंसी । जे पेज्जदंसी से दोसदंसी, जे दोसदंसी से मोहदंसी । जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी । जे जम्मदंसी से मारदंसी, जे मारदंसी से निरयदंसी । जे निरयदंसी से तिरियदंसी, जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी । (आयारो ३/८३) देह मइ जड्ड सुद्धी, सुहदुक्खतितिक्खिया अणुप्पेहा । झाय य सुहं झाणं, एगग्गो काउस्सग्गम्मि || पडिक्कमित्तु निस्सलो वदित्ताण तओ गुरुं । काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खविमोक्खणं ।। ( आवश्यक निर्युक्ति १४७६) ( उत्तरज्झयणाणि २७ / ४९) " Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र • काउस्सगग्गेणं भंते ! जीवे किं जणयई ? काउस्सगेणं तीयपडुप्पन्नं पायच्छित्तं विसोहेइ विसुद्धपायच्छित्ते य जीवे निव्वुयहियए ओहरियभारोव्व भारवहे पसत्थज्झाणोवगए सुहंसुहेणं विहरइ । . (उत्तरज्झयणाणि २७/१३) . तिण्णि तिगेगंतरिते, गेलण्णागाढ निक्खिव परेणं । तिण्णि तिगा अंतरित, चउत्थभंगे व निक्खिवणा ।. एकस्मिन् दिवसे कायोत्सर्गो, द्वितीयदिवसे निर्विकृतिकं तृतीयदिवसे कायोत्सर्गश्चतुर्थे दिवसे निर्विकृतिकं । एवमेकान्तरिते कायोत्सर्गनिर्विकृतिके नवदिवसान् यावत् कारयेत् तथाप्यतिष्ठति ग्लानत्वे दशमे दिवसे योगो निक्षिप्यते । __(व्यवहारभाष्य गाथा २१३५, टीका पृ. सं. ७७) अनुप्रेक्षा और स्वास्थ्य • सज्झाए पंचविहे पण्णत्ते, तं जहा-- वायणा, पडिपुच्छणा, परियट्टणा, अणुप्पेहा, धम्मकहा । धम्मस्म णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहायो पण्णत्ताओ अणिच्चाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, एगत्ताणुपेहा, संसाराणुप्पेहा । (ओवाइयं ४२, ४३) अणुप्पेहाए णं भंते ! जीवे किं जणयई ? अणुप्पेहाए णं आउयवज्जाओ, सत्त कम्मपगड़ीयो धणिय बंधणबद्धाओ सिढिलबंधण-बद्धाओ पकरेइ, दीहकालट्ठिड्याओ हस्सकालरिठइयाओ पकरेइ, तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ, बहुपएसग्गाओ अप्पपएसग्गाओ पकरेइ, आउयं च ण कम्मं सिय बंधइ सिय नो बंधइ । असायावेयणिज्जं च णं कम्मं णो भुज्जो भुज्जो उवचिणाइ । अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतं संसारकंतारं खिप्पामेव वीइवयइ । (उत्तरज्झयगणि २७/२३) उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे । मायं चज्जव भावेण, लोहं संतोसओ जिणे ।। (दसवेआलिय) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १६७ लेश्याध्यान और स्वास्थ्य • अह भंते ! पाणाइवाए मुसावाए अदिण्णादाणे, मेहुणे परिग्गहे एस णं कतिवण्णे कतिगंधे, कतिरसे कतिफासे पण्णत्ते? गोयमा ! पंचवणे दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते । अह भंते ! कोहे, कोवे, रोसे, दोसे, अखमा, संजलणे, कलहे, चंडिक्के, भंडणे, विवादे-एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे । अह भंते ! माणे, मदे, दप्पे, थंके, गव्वे अतुक्कोसे, परपरिवाए, उक्कोसे अवक्कोसे, उते, उण्णामे, दुण्णामे-एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे । अह भंते ! माया, उवही, नियड़ि, बलए, गहणे, णूभे, कक्के, कुरूए, जिम्हे, किब्बिसे, आयरणया, गृहणया, वंचणया, पलिउंचणया सातिजोगे-एस णं कतिवण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंच वण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते । अह भंते ! लोभे, इच्छा, मुच्छा कंखा, गेही, तण्हा, भिज्झा, अभिज्झा आसासणया, पत्थणया, लालप्पणया, कामासा, भोगासा, जीवियासा, मरणासा नंदिरागे-एस णं कति वण्णे जाव कतिफासे पण्णत्ते ? - गोयमा ! पंच वण्णे, दुगंधे, पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते । अह भंते ! पेज्जे, दोसे, कलहे । अब्भक्खाणे पेसुन्ने परपरिवासु अरतिरती ए मायामोसे, मिच्छा सण सल्ले-एस णं कतिवण्णे जाव कति कासे पण्णत्ते ? गोयमा ! पंचवण्णे, दुगंधे पंचरसे, चउफासे पण्णत्ते । (भगवई १२/१०२-१०७) पंचासवप्पमत्तो, तीहिं अगुत्तो छसु अविरओ य । तिव्वारंभ परिणत्ते, खुद्दो साहसिओ नरो ।। निद्धंधसपरिणामो, निस्संसो अजिइंदिओ । एय जोग समाउत्ते कि हलेसं तु परिणमे ।। इस्सा अमरिस अतवो, अविज्जण्माया अहीरियाय । गेद्धी पओसे य सढ़े पमत्ते रसलीलुए साएगवेसए ।। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र आरंभओ अविरओ खुद्दो साहसिओ नरो । एय जोग समाउत्तो, नीललेसं तु परिणमे ।। वंके वंकसमायारे नियडिल्ले अणुज्जुए । पलिउंचग ओवहिए मिच्छदिट्ठी अणारिए ।। उप्फालगदुद्रुवाई य, तेणे यावि य मच्छरी । एय जोग समाउत्तो काउलेसं तु परिणमे ।। नीयावित्ती अचवले, अमाई अकुऊहले । विणीय विणए दंते, जोगवं उवहाणवं ।। पियधम्मे दढधम्मे, वज्जभीरू दिए सए । एयजोग समाउत्तो, तेउलेसं त परिणमे ।। पयणुक्कोहमाणे य, मायालोभे य पयणुए । पसंतचित्ते दंतप्पा, जोगवं उवहाणवं ।। तम्हा पयणुवाई य, उवसंते जिइंदिए । एय जोग समाउत्तो, पम्हलेसं तु परिणमे ।। अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि झायए । पसंतचित्ते दंतप्पा, समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ।। सरागे वीयरागे वा, उवसंते जिइंदिए । एय जोग समाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे ।। (उत्तरज्झयणाणि ३४/२१-३२) . कई णं भंते । लेस्साओ पण्णत्ताओ ? गोयमा ! छ लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्ह लेस्या, नील लेसा काउलेस्सा, तेउलेस्सा, पम्हलेस्सा, सुक्कलेस्सा । (भगवई १/१०२) हृदय रोग कारण और निवारण सत्तविधे आउभेदे पण्णत्ते, तं जहाअज्झवसाण निमित्ते, आहारे वेयणा पराघाते । फासे आणापाणू, सत्तविधं भिज्जए आउं ।। (ठाणं ७/७२) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशु एवं वृद्ध स्वास्थ्य अस्तित्व और स्वास्थ्य १६९ वाससताउयस्स णं पुरिसस्स दस दसाओ पण्णत्ताओ, तं जहाबाला किड्डा मंदा, बला पण्णा हायणी पवंचा पब्भारा, मुम्मुही सायणी तथा ।। (ठाणं १०/१५४) तए णं सा धारिणी देवी तंसि अकालदोहलंसि विणीयंसि सम्माणिय दोहला तस्स गब्भस्स अणुकंपणट्ठाए जयं चिठ्ठइ जयं आसयइ जयं सुवइ आहारंपि य आहारेमाणी - नाइतित्तं नाइ कडुयं नाइ कसायं नाइअंबिलं, नाइमहुरं जं तस्स गभस्स हियमियं पत्थयं देसे य काले य आहारं आहारेमाणी, नाइचिंतं, नाइसोयं, नाइमोहं, नाइभयं नाइपरित्तासं, ववगयचिंत-सोय-मोहह-भय-परित्तासा उदु-भज्जमाणसहेहिं भोयण- च्छायण-गंध-मल्ललंकारेहिं तं गब्भं सुहंसहेणं परिवहइ | ( ज्ञाताधर्मकथा १ / ७२) अभिक्कतं च खलु वयं संपेहाए । (आयारो २ / ५) वरिससयायुगस्स पुरिसस्स आयुगं तिधा करेति, ताओ पुण दस दसाओ । एक्केक्को वओ साहिया तिन्नि दसा, खणे खणे वड्ढमाणस्स छाया बलपमाणानि विसेसा भवंति, जाव चउत्थी दसा, तेण परं परिहानी; भणियं च पंचासगस्स चक्खु, हायती मज्झिमं वयं । अभिक्कतं सपेहाए, ततो से एति मूढतं ॥ ततो पढमवयाओ अतीतो मज्झिमस्स एगदेसे पंचमी दसाए वट्ठणस्स इंदियाणि परिहायंति । ( आचारांग चूर्णि 'पृष्ठ ५१ ) तए णं केसी कुमार-समणे पएसिं रायं एवं वयासी - से जहाणाम केइ पुरुषे तरुणे बलवं जुगवं जुवाणे अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणि-पाय पिट्ठतरोरुपरिणए धण-निचिय - वट्-वलिय-खंधे चम्मेट्ठग-दुघण-मुट्ठिय-समाहयनिचियगत्ते-उरस्सबल समण्णा गए तल- जमलजुयलबाहुलंघण-पवण- जइण- पमद्दण समत्थे छेए दक्खे पत्तट्ठे कुसले मेधावी निउणसिप्पोवगए णवएणं धणुणा नवियाए जीवाए नवएणं उसुणा पभू पंचकंडगं निसिरित्तए ? हंता पंभू सो चेव पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए कोरिल्लएणं धणुणा कोरिल्लयाए जीवाए Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० महावीर का स्वास्थ्य-शास्त्र कोरिल्लएणं उसुणा पभू पंचकंडगं निसिरित्तए ? णो तिणठे समठे । कम्हा णं भन्ते ! तस्स पुरिसस्स अपज्जत्ताई उवग रणाइं हवंति । एवामेव पएसी! सो चेव पुरिसे बाले अदक्खे अपत्तठे अकुसलेअमेहावी मंदविण्णाणे अपज्जत्तोवरणे णो पभू पंचकंडयं निसिरित्तए, तं सदाहिणं तुमं पएसी ! जहा-अण्णो जीवे अण्णं सरीरं नो तज्जीवो तच्छरीरं । (रायपसेणइय ७५) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य महाप्रज्ञ की प्रमुख कृतियां मम के जीते जीत आभा मण्डल • किसने कहा मन चंचल है जैन योग ● चेतना का ऊर्ध्वारोहण एकला चलो रे • मेरी दृष्टि : मेरी सृष्टि अपने घर में एसो पंच णमोक्कारो मैं हूं अपने भाग्य का निर्माता समस्या को देखना सीखें नया मानव : नया विश्व ● भिक्षु विचार दर्शन अर्हम् मैं : मेरा मन : मेरी शान्ति समय के हस्ताक्षर आमंत्रण आरोग्य को महावीर की साधना का रहस्य घट-घट दीप जले अहिंसा तत्व दर्शन अहिंसा और शान्ति • कर्मवाद ● संभव है समाधान • मनन और मूल्यांकन • जैन दर्शन और अनेकान्त शक्ति की साधना • धर्म के सूत्र • जैन दर्शन : मनन और मीमांसा आदि-आदि . . . Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर का स्वास्थ यशास्त्र आचार्य महाप्रज्ञ For Private Persorse Only www.jaineliorary.org