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अस्तित्व और स्वास्थ्य
आरोग्य, बोधि और समाधि की उपलब्धि का स्वप्न मनुष्य के मन में उभरता रहा है । मनुष्य की सबसे पहली कामना है-आरोग्य मिले । संस्कृत साहित्य में सतत आरोग्य की कामना की गई और उसे सारी सफलताओं का आधार माना गया । स्वास्थ्य और चिकित्सा की अनेक पद्धतियां प्रचलित हुई। महावीर का दर्शन चिकित्सा का दर्शन भी नहीं है और स्वास्थ्य का दर्शन भी नहीं है | किन्तु ज्ञान को विभक्त कर देखना अनेकान्त को कभी मान्य नहीं है । ज्ञान सापेक्ष है । निरपेक्ष दृष्टि से ज्ञान को देखा नहीं जा सकता और बांटा भी नहीं जा सकता । ज्ञान की दो शाखाओं के बीच में कोई लक्ष्मण रेखा नहीं खींची जा सकती । प्रत्येक ज्ञान का उपयोग प्रत्येक क्षेत्र में हो सकता है, होता है ।
महावीर ने अस्तित्व का प्रतिपादन किया । उनका मुख्य सूत्र रहा आत्मा । जहां आत्मा की विशुद्धि नहीं है, वहां स्वास्थ्य नहीं है । जहां आत्मा की मलिनता है वहां स्वास्थ्य की समस्या है । आत्मा की पवित्रता से जुड़ा है स्वास्थ्य का प्रश्न । प्रस्तुत संदर्भ में मैं अस्तित्व की चर्चा दार्शनिक दृष्टि से नहीं करना चाहता । जहां दार्शनिक दृष्टि है, वहां आत्मा और पुद्गल की मीमांसा होती है । स्वास्थ्य के संदर्भ में अस्तित्व की परिभाषा और व्याख्या बदल जाएगी । दार्शनिक दृष्टि से अस्तित्व है-आत्मा । जहां स्वास्थ्य का संदर्भ है, वहां अस्तित्व सात अंगों वाला होगा । सात अंगों का समुच्चय है अस्तित्व । शरीर, इन्द्रिय,
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